क्षणभंगुरता में अमरता की खोज !
जम्मू कश्मीर की राजधानी श्रीनगर से १४१ कि.मी. दूर ३८८८ मीटर की ऊँचाई पर स्थित इस दुर्गम गुफा-अमरनाथ गुफा की खोज कब हुई तथा इसकी यात्रा कब शुरू हुई इसका ठभक-ठीक कुछ भी पता नहीं| किंवदन्ती है कि ईसा से ३२ वर्ष पूर्व किसी राजा आर्यरात ने इस गुफा में हिमलिंग की पूजा की थी| कल्हण की राज तरंगिणी (जो प्राचीन भारत का कालक्रमानुसार लिखा गया एकमात्र इतिहास ग्रंथ है) में अमेरश्वर या अमरनाथ का जिक्र है| इसके अनुसार रानी सूर्यमती ने ११वीं शताब्दी में यहॉं पूजा की थी| बताया जाता है कि १५वीं शती में बूटा मलिक नामक एक गुर्जर को इस गुफा का पता चला जिसने इसमें निर्मित हिम निर्मित चमत्कारी शिवलिंग की जानकारी लोगों को दी|
अमरनाथ की गुफा में बनने वाला यह शिवलिंग प्रकृति का एक चमत्कार है| पूरी धरती पर ऐसी कोई दूसरी जगह नहीं जहॉं प्रतिवर्ष ऐसा हिमपिंड की परिभाषा में ऐसी निर्मितियों 'स्टैलेगमाइट' (stalagnite) कहते हैं| ऊपर से बूंद-बूंद करके टपकते किसी द्रव से नीचे की सतह पर जब ऊपर की ओर उठती हुई कोई ऐसी रचना बनती है तो उसे 'स्टैलेगमाइट' और यदि छत से नीचे की ओर लटकती हुई कोई रचना बनती है तो उसे 'स्टैलेसाइट' (stalacite) कहते हैं| दुनिया की बहुत सी प्राकृतिक गुफाओं में ऐसी संरचनाएं पाई जाती हैं लेकिन ज्यादातर वे चूना पत्थर की गुफाओं में कैल्शियम कार्बोनेट से बनी ठोस और स्थाई रचनाएं हैं| जल बिंदुओं के जमकर बनने वाली हिम संरचना इस गुफा के अतिरिक्त और कहीं नहीं पाई जाती| स्टैलेमाइट की संरचना बड़ी ही संवेदनशील होती है| निर्माण के दौरान यदि हाथ से कोई इसे छूले तो निर्माण क्रिया बाधित हो सकती है|
पता नहीं वह पहला व्यक्ति कौन था जिसने इस गुफा की हिम संचना को देखकर उसे शिवलिंग का रूप बताया और उसे 'अमरनाथ' की संज्ञा दी| निश्चय ही वह शंकराचार्य जेसा कोई महान दार्शनिक और अत्यंत कल्पनाशील चिंतक रहा होगा| अभी तक इस गुफा की खोज का श्रेय शंकराचार्य को तो नहीं दिया गया है, लेकिन जिस किसी अज्ञात व्यक्ति ने इस हिम संरचना को देवाधिदेव शिव का स्वरूप तथा इस गुफा को मनुष्य की अमरत्व की आकांक्षा से जोड़ा वह उनसे कम नहीं था|
कितने आश्चर्य की बात है कि जिस गुफा में एक-एक बूंद जल से प्रतिवर्ष नये हिमलिंग का निर्माण होता है और प्रतिवर्ष वह अनंत प्रकृति में विलीन हो जाता है उसके साथ अमरता की कथा जोड़ी गई| एक क्षणभंगुर संरचना के साथ अमरता की कल्पना सामान्यतया परस्पर विरोधी लगती है, लेकिन यह अमरता की कल्पना स्थिरता से नहीं गतिशीलता से जुड़ी हुई है| बार-बार प्रकृति में विलीन होकर हर बार पुनः अपना पूर्व रूप प्राप्त कर लेना, इससे भिन्न अमरता का और कौन सा स्वरूप हो सकता है| जड़ता को तो अमरता की संज्ञा नहीं दी जा सकती| चिरकाल से स्थिर पर्वतों को तो कोई अमरता का प्रतीक नहीं बताता| अमरता की खोज निरंतर परिवर्तनशीलता में ही खोजी जा सकती है| निरंतर प्रवहमान जल सतत प्रवहमान चैतन्य या जीवन का प्रतीक माना जाता है किन्तु इस प्रवाह में पूर्वरूप की पुनः प्राप्ति कमी संभव नहीं होती| इसके विपरीत अमरनाथ की गुफा में वर्षानुवर्ष हर वर्ष काल के प्रभाव को पराजित कर पर्वत की ऊपरी चट्टानों से होकर बहते जलबिंदुओं का पुनः पुनः हिम लिंग का कमोवेश वही आकार प्रस्तुत करना जो पहले था, अमरता की सबसे बड़ी और सर्वाधिक प्रभावशाली गाथा है|
अब इस गुफा से अमरता का दार्शनिक तत्व जुड़ गया तो फिर इससे जुड़े किस्से कहानियों की क्या कमी| कहानियॉं बनाने और मूर्तियॉं गढ़ने में भारतीय प्रतिमाओं की कोई सानी नहीं| इस मामले में उनके पास जड़-चेतनाका कोई भेद नहीं होता| वे मनोभावों का भी मानवीकरण करके उन्हें स्त्री पुरुषों में बदल देती है| उनमें शादी ब्याह भी करा देती हैं और संतानों की श्रृंखला भी जोड़ देती है| फिर यहॉं अमरनाथ का संबंध तो साक्षात भगवान शिव से जुड़ गया है जो असंख्य भारतीय कथाओं के आदि स्रोत हैं|
बताया जाता है कि पुराने समय में अमरनाथ गुफा की यात्रा आषाढ़पूर्णिमा या गुरुपूर्णिमा को शुरू होती थी और श्रावण पूर्णिमा को समाप्त होती थी| श्रावण का महीना पौराणिक परंपरा में शिव का महीना समझा जाता है इसलिए अमरनाथ की यात्रा भी इसी महीने में होती थी| वर्षाकाल यों किसी पर्वतीय क्षेत्र की यात्रा के अनुकूल नहीं माना जाता, किन्तु अमरनाथ गुफा की यात्रा के लिए शायद यही सर्वाधिक उपयुक्त समय है जो ग्रीष्म के अंतिम समय से जुड़ा है|
ग्रीष्म के आरंभ में जब पर्वत शिखरों पर बर्फ पिघलने लगती है और पानी की धारा नीचे घाटियों की ओर बहने लगती है तभी अमरनाथ गुफा के ऊपर की चट्टानों पर से पानी बहता है और उसका ही अंश धीरे-धीरे रिश का गुफाके अंदर टपकता है और फिर जमकर अंततः एक विशाल शिवलिंग का रूप धारण कर लेता है| श्रावण के अंत तक तापमान इतना बढ़ जाता है कि यह शिवलिंब भी पिघलने लगता है| इसलिए श्रावण का समय ही अमरनाथ गुफा की यात्रा का सर्वाधिक उपयुक्त समय बन गया|
आज भी शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठ से ङ्गछड़ी मुबारकफ की यात्रा गुरुपूर्णिमा को ही शुरू होती है| इस छड़ी मुबारक की भी एक कहानी है जिसका वर्णन ङ्गभृंगेश संहिताफ में मिलता है| भृंगेश दक्षिण कश्मीर में रहने वाले एक प्राचीन ऋषि हैं| उनकी इस संहिता में इस क्षेत्र के तीर्थस्थलों का वर्णन है जिसमें अमरनाथ भी शामिल है| इस संहिता के अनुसार ऋषि भृंगेश ने अपने शिष्यों को अमरनाथ गुफा में भगवान शिव के हिम लिंग की पूजा के लिए भेजा, किंतु दानवों ने उन्हें गुफा तक नहीं जाने दिया| उन्होंने लौटकर ऋषि से शिकायत की| ऋषि ने भगवान शिव की आराधना करके दुष्ट दैत्यों द्वारा पैदा की जा रही बाधा से मुक्ति की प्रार्थना की| भगवान शिव ने उन्हें एक दण्ड दिया और कहा कि इस दण्ड को साथ लेकर यात्रा करो तो मार्ग में कोई बाधा नहीं आने जाएगी| पुराने समय में अमरनाथ जानेवाले सभी यात्री इस दण्ड के पीछे-पीछे चल कर ही गुफा तक पहुँचते थे| लेकिन अब इसका केवल प्रतीकात्मक महत्व रह गया है| यद्यपि इसे बोलचाल में छड़ी कहते हैं किंतु यह चांदी का बना हुआ दण्ड है जिसे लेकर आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित दशनामी अखाड़े के कश्मीरी मठ के नागा महंत एवं सेत अमरनाथ गुफा पहुँचते हैं| यह दण्ड इसी मठ में संरक्षित रहता है|
अमरनाथ की यात्रा निश्चय ही बहुत कठिन है| पुराने समय में तो हिमालय की हर तीर्थयात्रा प्राणों की बाजी लगाकर ही हो पाती थी| आज सुविधाएँ काफी बढ़ गई है| गुफा तक पहुँचने के लिए हेलीकाप्टर तक की सुविधा उपलब्ध है| मार्ग में सुरक्षा के लिए भारतीय सेना के जवान मुस्तैदी से तैनात रहते हैं| मार्ग की सुरक्षा के लिए अब भगवान शिव से सहायता मांगने की जरूरत नहीं पड़ती| फिर भी यात्रा की अपनी कठिनाइयॉं तो हैं ही| और जो शिव भक्त अभी भी पैदल यात्रा का विकल्प चुनते हैं उन्हें काफी कठिनाइयों के दौर से गुजरने के बाद ही अमरेश्वर महादेव के दर्शन हो पाते हैं|
1 टिप्पणी:
अति सुन्दर आलेख..
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