सोमवार, 4 जनवरी 2010

           सुन्दरता के कारण तत्त्व की खोज



सुंदरता सहज ही आकर्षित करती है। लेकिन यह   आकर्षण है क्या? कोई क्यों बहुत आकर्षक लगता है या कोई क्यों किसी की ओर दूसरों की अपेक्षा अधिक आकर्षित होता है। क्या है रहस्य ? आधुनिक जैव मनोविज्ञानी इस रहस्य का पता लगाने में लगे हैं। सौंदर्य देखने वाले की आंखों में होता है या वस्तु में, यह बहस बहुत पुरानी हो गयी है। ताजा सवाल यह है कि सौंदर्य या आकर्षण का कारण तत्व क्या है? क्यों पैदा होता है यह आकर्षण और क्यों लोग सौंदर्य के गुलाम बनने को मजबूर होते हैं।
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सौंदर्य वस्तु में होता है या देखने वाले की आंखों में। यह बहस पुरानी है और अभी तक इसका निपटारा नहीं हो पाया है। ठीक इसी तरह स्त्री-पुरुष आकर्षण का मुद्दा है। कोई स्त्री क्यों बहुत आकर्षक लगती है कोई कम। आखिर इस आकर्षण का आधार क्या है। सामान्य तौर पर समझा  जाता है कि शारीरिक आकर्षण पूरी तरह वैयक्तिक अभिरुचि तथा सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों पर निर्भर करता है। अगर आप भी यही समझते  हों, तो इस प्रश्न पर दुबारा विचार कीजिए। दुनिया के मनोजैव वैज्ञानिकों (साइको बायोलाजिस्ट) का कुछ अलग ही कहना है। उनके अनुसार आपका आकर्षण जैव विकास क्रम की आवश्यकताओं पर निर्धारित है। आपको कोई आकर्षित करता है, तो आकर्षण का यह फार्मूला पहले से निर्धारित है और जैविक विकास के साथ आपके मस्तिष्क में अच्छी तरह आरोपित है। सुंदर चेहरों के प्रति आकर्षण और कुरूप चेहरों के प्रति विकर्षण छोटे बच्चों में भी पाया जाता है। प्रयोग करके देखा गया है कि दो महीने का बच्चा भी सुंदर चेहरा देखकर खुश होता है, लेकिन बदसूरत चेहरा देखकर क्षुब्ध। जाहिर है कि दैहिक सौंदर्य या आकर्षण का मापदंड पहले से ही मस्तिष्क में स्थापित है। व्यक्ति के बौद्धिक व सांस्कृतिक स्तर का बहुत थोड़ा प्रभाव रहता है। और वह प्रभाव भी जैविक विकास की आवश्यकताओं से ही विकसित हुआ है। उच्च सांस्कृतिक या बौद्धिक स्तर केवल उसमें परिष्कार करता है, कोई परिवर्तन नहीं।
वास्तव में गहराई से विचार करें, तो आप पाएंगे कि सौंदर्य का मूलाधार, जीवनरक्षा तथा प्रजनन में निहित है। प्रकृति का केवल एक अंतर्निहित कार्यक्रम है कि यह सृष्टि चक्र चलता रहे। मनुष्य के स्तर पर सृष्टिचक्र चलते  रहने का एक ही आधार है कि स्वस्थ युवा स्त्री पुरुष सहवास करें, जिससे संतान उत्पत्ति होऔर वे संतानें सुरक्षापूर्वक उस अवस्था को प्राप्त करें, जब वे स्वयं संतान उत्पत्ति करने लायक हो जाएं। इस तरह यह चक्र चलता रहेगा, तो प्रकृति ने मानव मस्तिष्क में आकर्षण या प्रेम के दो आधार स्थापित किये (जैविक प्रेम भी आकर्षण का ही दूसरा नाम है, जो आपको आकर्षक लगता है, उसे आप प्रेम करते हैं) एक तो स्त्री-पुरुष  के बीच प्रेम दूसरा शिशु के प्रति प्रेम . ये दोनों ही श्रृष्टि के   जैविक विकास के लिए अनिवार्य है। स्त्री-पुरुष के बीच आकर्षण न हो ,प्रेम न हो अथवा  उन दोनों के संयोग के बीच प्रगाढ़ आनंद न हो, तो प्रजनन प्रक्रिया ही रुक  जाएगी। दूसरे शिशु के प्रति स्वाभाविक ममत्व न हो, तो कोई  उसका पालन-पोषण ही नहीं करेगा। यही कारण है कि इस सृष्टि के जीवों में दो सर्वाधिक सुंदर लगते हैं, एक तो स्त्री दूसरे छोटे बच्चे। स्त्रियों में भी सौंदर्य का आधार है उसकी प्रजनन क्षमता। नवयौवन प्राप्त युवती सर्वाधिक आकर्षक लगती है, तो केवल इसलिए कि प्रजनन के लिए वह श्रेष्ठतम अवस्था में होती है। प्रजनन के श्रेष्ठ काल पर्यंत उसका आकर्षण बना रहता है। प्रजनन क्षमता जैसे-जैसे कम होती जाती है, आकर्षण घटने लगता है। और प्रजनन क्षमता समाप्त होते ही उसका आकर्षण भी समाप्त हो जाता है। 40 वर्ष की स्त्री अपने शरीर को चाहे जैसे सांचे में ढला बनाकर रखे हो, लेकिन वह 20 साल की युवती का आकर्षण नहीं पैदा कर सकती है। ठीक यही स्थिति पुरुष के बारे में भी सच है। लेकिन आयु बढऩे के बावजूद स्त्री की अपेक्षा पुरुष का आकर्षण अधिक समय तक बना रहता है, तो केवल इसलिए कि वह अपेक्षाकृत अधिक समय तक गर्भाधान करने में सक्षम रहता है। गर्भाधान कर सकने में अक्षम पुरुष अपना आकर्षण खो देता है। इसीलिए पुरुष के आकर्षण का प्रधान आधार बन गया है पुंसत्व।
यह सारी बातें अब तक अनुमान पर आधारित थीं, लेकिन अब इसके वैज्ञानिक प्रमाण भी उपलब्ध हो गये हैं। मनोजैव वैज्ञानिको ने अपने गहन अनुसंधान से प्रमाणित कर दिया है कि प्रकृति मध्यममार्गी है तथा उसकी सारी क्रिया- प्रक्रिया केवल सृष्टि चक्र को बनाये रखने के लिए है। आप कह सकते हैं कि प्रकृति में और  भी बहुत-सी चीजें भी तो सुंदर लगती हैं, लेकिन ध्यान दें, तो अन्य सौंदर्य भी उपयोगिता आधारित ही  है। प्रकृति में लाल रंग है, जो जीवन का प्रदाता है। सुबह होते ही सबसे पहले जिस रंग पर दृष्टि  पड़ती है वह लाल है। लाल रंग ऊर्जा का स्रोत है, इसलिए वह सुंदर है, आकर्षक है। हरा रंग आंखों को बहुत सुखद लगता है। मनुष्य का क्या संपूर्ण जंगम जीव जगत का आधार यह हरियाली है। इसी से उसे आहार मिलता है, जिस पर यह शरीर निर्भर है, इसलिए हरियाली भी सुंदर लगती है। जीवन के लिए तीसरी सर्वाधिक आवश्यक वस्तु है जल। सघन जल राशि हल्के नीले रंग की सृष्टि  करती है.  इसलिए यह नीला रंग भी  आकर्षक लगता है। लाल, नीला, हरा, पीला मनुष्य की आंखों को आकर्षक लगता है, तो इन रंगों के संयोग से बनी चीजें भी उसे सुंदर व आकर्षक लगती हैं।
ऊपर हम चर्चा कर चुके हैं कि प्रकृति मध्यम मार्गी है। उसे संतुलन पसंद है। बहुत छोटे या बहुत बड़े पंखों वाले पक्षियों की मौत जल्दी होती है। जनम  के समय औसत से बहुत  बड़े या छोटे बच्चों का जीवित रहना मुश्किल होता है। स्थिरता के लिए संतुलन आवश्यक होता है, इसलिए संतुलित आकृतियां सुंदर लगती हैं। अति बड़ा या अति छोटा, भयावह तथा कुरूप होता है। रात्रि काली होती है, जिसमें प्रकाश क्षीण हो जाता है, तो काला रंग डरावना लगता है। हम जब कोई चीज सुंदर बनाना चाहते हैं, तो उसका औसत आकार रखते हैं, हर अंग को संतुलित बनाते हैं तथा लाल, हरे, पीले, नीले रंगों का प्रयोग करते हैं, लेकिन जब हम कुरूपता या भयानकता को प्रदर्शित करना चाहते हैं, तो बेडौल बड़े या छोटे आकार तथा काले रंग का प्रयोग करते हैं।
हम यह सब कुछ पहले से जानते हैं। प्रयोग भी करते हैं। लेकिन हम इसे मानवीय अभिरुचि तथा सांस्कृतिक विकास की देन मानते रहे हैं। अब जो नई बात सामने आयी है, वह यही है कि यह सब प्रकृति ने पहले से तय कर रखा है। इसमें संस्कृति या अभिरुचि का कोई विशेष योगदान नहीं है। प्रकृति ने मस्तिष्क के कम्प्यूटर में जो 'प्रोग्रामिंग  कर दी है, उससे भिन्न मनुष्य को कुछ भी सुंदर या आकर्षक नहीं लगता। तो हम कह सकते हैं कि सौंदर्य न तो वस्तु में है, न देखने वालों की आंखों में है, बल्कि उस वस्तु या व्यक्ति की सृष्टि चक्र को चलाये रखने की उपयोगिता में है। जो उपयोगी है वह सुंदर  है और जो उस उपयोगिता को पूर्ण करने वाला होता है , वह उसके सौंदर्य में बंधता है।
अमेरिका की न्यूमैक्सिको स्टेट यूनिवर्सिटी के जैव-मनोविज्ञानी प्रोफेसर विक्टर जांस्टन ने कम्प्यूटर पर एक नारी का चेहरा तैयार किया है। निश्चय ही यह बेहद सुंदर है। संतुलित नाक-नक्श, निर्दोष त्वचा, बोलती आंखें, रसीले होंठ। सड़क पर निकल जाए तो ट्रैफिक जाम कर दे। जांस्टन ने वास्तव में 16 काकेशियन युवतियों के चेहरों को लेकर उनकी औसत सौंदर्य विशेषताओं के आधार पर यह डिजिटल छवि तैयार की है।
जांस्टन यह पता लगाने के लिए अनुसंधान में लगे हैं कि मनुष्य क्यों कुछ चेहरों को आकर्षक और बाकी को साधारण मानता है। यद्यपि उनके पास इसका अभी भी कोई दो टूक जवाब नहीं है, फिर भी वे ठोस उत्तर पाने के प्रयास में लगे हैं। इस क्षेत्र में वे अकेले नहीं हैं। दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में कई लोग उस क्षेत्र में प्रवेश करना चाहते हैं, जो अब तक कवियों, चित्रकारों, फैशन पंडितों तथा फिल्म निर्देशकों का क्षेत्र  माना जाता रहा है। इस अनुसंधान के अब तक जो परिणाम मिले हैं, वे चकित करने वाले हैं। इनसे पता चलता है कि आकर्षण या सौंदर्य भी भूख और पीड़ा की तरह की अनुभूति है, जो प्रकृति प्रदत्त है। सौंदर्य सत्य भले ही न हो, किंतु वह स्वास्थ्य और प्रजनन क्षमता से संबद्ध अवश्य है। सिनेमा जाने वाले जब किसी माधुरी दीक्षित, रवीना टंडन या करिश्मा कपूर की गुलाबीआभा युक्त त्वचा को देखते हैं, तो बहुत गहरे कहीं उनके चित्त में यह भाव उठता है कि यह स्वच्छ त्वचा हर तरह से स्वच्छ और दोषमुक्त है। इसका स्पर्श आनंददायक होगा और यौवन के सर्वगुण संपन्न यह युवती सहवास के लिए श्रेष्ठतम पात्र हो सकती है। इस अनुभूति को पैदा करने वाले गुण को ही सेक्स अपील कहा जाता है और जिसमें जितनी सेक्स अपील होती है, उसे उतना ही आकर्षक या सुंदर माना जाता है। ऋतिक रोश्र को पर्दे पर देखकर युवतियों में भी ऐसा ही भाव उठता है, जिसके कारण वे उसके लिए पागल हो उठती हैं। यद्यपि इसमें वैयक्तिक अभिरुचियाँ एवं  प्राथमिकताएं भी होती हैं, लेकिन उनका प्रभाव बहुत कम होता है। अब से करीब चार सौ वर्ष पहले एलिजाबेथ युग के कवि एडमंड स्वेंसर ने कहा था कि 'सौंदर्य पुरुषों को आकर्षित करने का एक तरह का चारा है, जिससे कि वे अपने तरह की (मानवीय) दुनिया का विस्तार कर सकें।'
सौंदर्य और आकर्षण के इन अध्ययनों से पता चला है कि आकर्षक पुरुष- स्त्री न केवल विपरीत लिंगियों को ही आकर्षित करते हैं, बल्कि उनको अपनी माताओं से भी अधिक प्यार मिलता है। काम के एवज में उन्हें अधिक पैसा मिलता है। मतदाताओं से अधिक वोट मिलता है.  न्यायाधीश उनके प्रति अधिक उदार होते हैं और उनके प्रति ऐसी धारणा बनती है कि वे अधिक कृपालु, अधिक सक्षम, अधिक बुद्धिमान तथा अधिक आत्मविश्वासी होते हैं।
मानवीय आकर्षकता संबंधी अनुसंधान अभी अपेक्षाकृत नया है, इसलिए सौंदर्यादर्शों पर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन एक बात पर अनुसंधानकर्ताओं में पूर्ण  अभिसहमति है कि 'सूरत के आकर्षण पर हम तब तक विजय नहीं प्राप्त कर सकते, जब तक हम इसके स्रोत का पता न लगा लें। 1999 में प्रकाशित पुस्तक 'सर्वाइवल आफ द प्रेटियस्ट' (जो सबसे सुंदर है वही जीवित बचेगा) की लेखिका मनोविज्ञानी नैन्सी एट काफ ने लिखा है कि 'सौंदर्य के बारे में यह विचार कि यह महत्वहीन है या यह सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों की देन है, वास्तव में सौंदर्य के बारे मे सर्वाधिक मिथ्या अवधारणा है। हमें सौंदर्य को समझना  ही होगा, अन्यथा हम सदैव इसकी गुलामी करते रहेंगे।
कहते हैं सौंदर्य एक ऐसा जादू है, जो सिर चढ़कर बोलता है। सौंदर्य के प्रभाव को तो सभी अनुभव करते हैं। मर्लिन मुनरो, मैडोना, रेखा, माधुरी दीक्षित, ऐश्वर्या राय, करीना आदि का उदाहरण सब   के सामने हैं। राजनीति में प्रियंका का करिश्मा सब देख चुके हैं। एक युवा सौंदर्य के अतिरिक्त और कौनसी ऐसी  बात थी जो  चुनाव प्रचारों में उसके लिए भीड़ उमड़ रही थी।
भारतीय चिंतकों ने स्त्री-पुरुष के आकर्षण और संतान के प्रति प्रेम को महामाया का प्रभाव कहा है। इस महामाया को समझे  बिना व्यक्ति इस प्रेम पाश से मुक्त नहीं हो सकता। दूसरे शब्दों में इसी बात को नैन्सी एटकाल ने कहा है कि जब तक हम सौंदर्य के कारण तत्व को नहीं समझते , हम उससे मुक्त नहीं हो सकते। तो चाहे जीवन को समझना  हो या मुक्ति प्राप्त करनी हो, सौंदर्य के कारण तत्वयानी  प्रकृति या महामाया का रहस्य तो समझना  ही पड़ेगा।


रविवार, 3 जनवरी 2010

देश की संघीय राजनीति का स्वरूप बदलने की जरूरत

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भारत ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद एक संघीय लोकतांत्रिक ढांचा तो स्वीकार किया, किंतु देश में आज तक कोई स्वस्थ संघीय लोकतांत्रिक संस्कृति नहीं विकसित हो सकी। देश में जगह-जगह उठ रही पृथक राज्यों की मांग इसी अभाव का परिणाम है। तेलंगाना समस्या भी इसका अपवाद नहीं। भाषा आधारित राज्य विभाजन के कारण यह देश एक भाषाई राष्ट्रीयताओं का संघ बन गया, जिनमें सहयोग के बजाए प्रतिद्वंद्विता अधिक विकसित हुई। इतना ही नहीं, एक राज्य के भीतर भी भिन्न राष्ट्रीयताएँ और उनके द्वंद्व खड़े होने लगे। अब इसका अंतिम समाधान तभी हो सकता है, जब संघ की प्रचलित अवधारणा बदली जाए तथा राज्यों को एक सांस्कृतिक राजनीतिक इकाई मानने के बजाए मात्र एक प्रशासनिक इकाई माना जाए।

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जब कोई नया साल आता है, तो समझा यही जाता है कि पुराना साल अवसाद के सारे क्षणों को अपने साथ समेटकर ले जाएगा और नया साल सूरज की नई किरणों के साथ आशा का नया उपहार लेकर आएगा। लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं लग रहा है। कालचक्र अखंड है, इस बार का वर्ष परिवर्तन इसका पूरा अहसास करा रहा है। जैसा पिछला साल लगभग वैसा ही अगला साल। पिछले साल के बारे में यही कहा जा सकता है कि वह जितना बुरा हो सकता था, उतना बुरा नहीं रहा। अब अगले साल के लिए भी यही कामना की जा सकती है कि इसे लेकर जितनी बुरी आशंकाएं हैं, उतना बुरा यह न हो।
2010 एक नया साल ही नहीं, एक नये दशाब्द (डेकेड) की शुरुआत भी है। आज की दुनिया जितनी तेजी से बदल रही है, उसमें 10 साल की अवधि कुछ कम नहीं होती। फिर भी सामाजिक व राजनीतिक दृष्टिï से यदि देखें, तो पिछले और अगले दशक में कोई खास फर्क रहने वाला नहीं है। दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा बना आतंकवाद नये वर्ष में क्या नये दशक में भी निपट पाएगा, इसकी कोई उम्मीद दिखायी नहीं देती। दुनिया आर्थिक मंदी के दौर से बाहर भी निकल आएगी, तो आम आदमी के जीवन में कोई खास परिवर्तन होने वाला नहीं है। विज्ञान व तकनीकी के क्षेत्र में अवश्य नये कीर्तिमान स्थापित हो सकते हैं, लेकिन सामान्य जिंदगी लगभग वहीं रहने वाली है।
अपने देश व अपने प्रदेश पर यदि नजर डालें, तो 2010 वास्तव में 2009 का विस्तार ही लगता है। तेलंगाना इस समय देश की सबसे बड़ी राजनीतिक समस्या बना हुआ है। बीते साल के अंतिम महीने में तेलंगाना राष्ट्र समिति के अध्यक्ष के. चंद्रशेखर राव के आमरण अनशन की घोषणा के साथ शुरू हुए आंदोलन का नया दौर केंद्र और राज्य दोनों को उलझाए हुए है। कहा जा सकता है कि केवल एक व्यक्ति की भूख हड़ताल ने पूरी राष्ट्रीय राजनीति को पंगु बना दिया है। सवाल है कि ऐसा क्यों ? क्यों राज्य से लेकर केंद्र तक के सारे नेता निरुपाय नजर आ रहे हैं? उत्तर बहुत मुश्किल नहीं है, लेकिन उसे कोई स्वीकार नहीं करना चाहता। सच्चाई यह है कि प्रखर व न्यायनिष्ठï नेतृत्व का अभाव सारी समस्या की जाड़ है।
कहने को इस देश में संघीय शैली का लोकतंत्र है, किंतु वास्तविकता यह है कि यहां अब तक किसी तरह की संघीय संस्कृति का विकास नहीं हो सका है। भाषा पर आधारित राज्यों के गठन के निर्णय ने देश में अनेक भाषाई द्वीप बना दिये, जो परस्पर सहयोग की जगह प्रतिद्वंद्विता के मार्ग पर चल रहे हैं। प्राचीनकाल के भारतीय राजतंत्रों के बारे में कहा जाता था कि राजा असंख्य गणतंत्रों का मात्र रक्षक व नियामक है, लेकिन आज लोकतंत्रों की शासन शैली भी संकीर्ण सामंती शैली में बदल गयी है। इससे प्राय: हर क्षेत्र में राष्ट्रीयता की भावना क्षीण हो रही है। धरती पुत्र (सन ऑफ सायल) के विशेषाधिकार तथा मुल्की-गैर मुल्की (नेटिविज्म) की भावनाएं बढ़ती जा रही हैं। जाति, भाषा, क्षेत्र, धर्म (रिलीजन) आदि की संकीर्णताएं लोकतंत्र को ही ग्रसने पर आमादा हैं।
सिद्धांतत: लोकतंत्र और न्याय का अविभाज्य संबंध है। न्याय पर आधारित लोकतंत्र ही वास्तविक लोकतंत्र होता है। किसी के संख्या बल, शस्त्र बल या बाहुबल से विधि सम्मत शासन और न्याय की रक्षा करना किसी भी तंत्र का मूल आधार है। राज्य की कल्पना ही इसीलिए की गयी कि मत्स्य न्याय या जंगल के कानून को रोका जाए तथा ऐसी न्यायिक व्यवस्था कायम की जाए, जिसमें शेर-बकरी दोनों एक घाट पर पानी पी सकें, यानी कमजोर व्यक्ति के भी अधिकारों और हितों की रक्षा हो सके और प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग का सबको समान अधिकार मिल सके । विकासक्रम में अन्य तंत्रों की जगह लोकतंत्र को इसीलिए श्रेष्ठïता प्रदान की गयी है कि शासन तंत्र किसी एक व्यक्ति की महत्वाकांक्षा या अहमन्यता का शिकार न हो सके। जन समुदाय स्वयं न्याय की रक्षा कर सके। लेकिन आज लोकतंत्र फिर भीड़तंत्र की ओर बढ़ चला है। धरना, आंदोलन, हिंसा व तोडफ़ोड़ द्वारा अपनी बात मनवाने की प्रवृत्ति कतई लोकतांत्रिक नहीं कही जा सकती, लेकिन यह प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। यद्यपि ऐसा करने वालों की इस शिकायत की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती कि यदि लोकतांत्रिक तरीकों से कोई बात सुनी ही नहीं जाती, तो क्या किया जाए। यदि सत्ता पर कुंडली बांधकर बैठा हुआ निहित स्वार्थी समुदाय सारी मर्यादाएं तोड़कर केवल अपनी असीमित स्वार्थ सिद्धि में लग जाए, तो क्या किया जाए।
भारतीय संघीय व्यवस्था में इसीलिए एक मजबूत केंद्र की व्यवस्था की गयी कि वह प्रत्येक राज्य की राजनीतिक व प्रशासनिक गतिविधियों पर नजर रखे और जहां जरूरी हो, वहां हस्तक्षेप करे। लेकिन यदि केंद्र भी उन्हीं विकृतियों का शिकार हो जाए, तो सामान्य स्थिति में उसका कोई इलाज नहीं रह जाता।
तेलंगाना समस्या मूलत: सामाजिक न्याय की समस्या है, जो अब राजनीतिक समस्या बन गयी है। और यह राजनीतिक समस्या भी अब दलीय स्वार्थ की समस्या में बदल गयी है। कोई भी राजनीतिक दल इस आधार पर अपना रुख नहीं तय कर रहा है कि क्या उचित है, क्या अनुचित अथवा क्या होना चाहिए, क्या नहीं, बल्कि वह यह देख रहा है कि किस स्थिति में उसे अधिक राजनीतिक लाभ हो सकता है, किस स्थिति में कम। क्षेत्र हित या राष्टï्रहित उनके लिए कोई कसौटी नहीं, इसलिए वे अपनी नीति केवल इस आधार पर तय कर रहे हैं कि उन्हें सर्वाधिक राजनीतिक लाभ किस अवस्था में मिल सकता है।इस मामले में ताजा स्थिति यह है केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने इसी 5 जनवरी (2010) को राज्य के आठ राजनीतिक दलों के नेताओं की दिल्ली में बैठक बुलायी है। सभी दलों से दो-दो प्रतिनिधि को भेजने के लिए कहा गया है। राज्य के मुख्यमंत्री आमंत्रित किये गये हैं। चिदंबरम साहब एक तरफ तो यह कह रहे हैं कि इस बैठक में पृथक तेलंगाना राज्य के गठन का 'रोडमैपतैयार किया जाएगा, दूसरी तरफ अगली ही सांस में वे यह भी कहते हैं कि इस बारे में अंतिम फैसला इस सर्वदलीय बैठक के बाद लिया जाएगा।
राज्य के इन आठों दलों की राजनीतिक स्थिति स्पष्ट है। टी.आर.एस. (तेलंगाना राष्ट्र समिति), भा.ज.पा. (भारतीय जनता पार्टी) और सी.पी.आई. (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी) स्पष्टï रूप से पृथक तेलंगाना राज्य के समर्थक हैं।
इनके अतिरिक्त कांग्रेस, तेलुगु देशम पार्टी, प्रजा राज्यम पार्टियां क्षेत्रीय आधार पर दो फाड़ हैं और उनके शीर्ष नेताओं का रवैया ढुलमुल है। इन पार्टियों के तेलंगाना क्षेत्र के नेता पृथक तेलंगाना के समर्थक हैं, तो शेष राज्य के नेता राज्य के वर्तमान स्वरूप को बनाए रखना चाहते हैं। एम.आई.एम. (मजलिस इत्तेहादुल मुसलमीन) अपना कार्ड अभी अपने आस्तीन में छिपाए हैं। उसका फिलहाल न तेलंगाना से कुछ लेना-देना है, न 'समेक्य आंध्रा' से, हां उसका हैदराबाद से जरूर गहरा लेना-देना है। इसलिए वह अपना कोई फैसला जाहिर करने के पहले यह देखना चाहती है कि हैदराबाद के बारे में क्या निर्णय होता है। यद्यपि पृथक तेलंगाना बनने पर शायद सर्वाधिक राजनीतिक लाभ उसे ही हो, लेकिन वह अभी पूरी तरह अपनी तटस्थता बनाए हुए है। स्पष्टï रूप से विभाजन के खिलाफ केवल एक पार्टी है माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, लेकिन उसके भी एक नेता सीताराम येचुरी अभी कुछ दिन पहले ऐसा बयान दे चुके हैं कि तेलंगाना को अलग राज्य बनाया जा सकता है।
कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व अभी अपना कोई भी रुख व्यक्त करने से कतरा रहा है। वह राज्य का विभाजन करने या न करने का फैसला अन्य राजनीतिक दलों के सिर मढऩा चाहता है। इसलिए अन्य दल भी पहले उसे घेरने की रणनीति तैयार कर रहे हैं। तेलुगु देशम पार्टी व भाजपा जैसे विपक्षी दल 5 जनवरी की बैठक में कांग्रेस पर दबाव डालेंगे कि पहले वह अपना रुख स्पष्टï करे। जाहिर है, इस तरह की रस्साकशी के बीच इस बैठक में शायद ही कोई फैसला हो सके। किसी दूसरी बैठक पर सहमति के साथ यह बैठक खत्म हो सकती है।
रोचक बात यह है कि विपक्षी दलों की तो यह पूर्व धारणा है ही कि इस बैठक में कोई फैसला नहीं होने जा रहा है, स्वयं कांग्रेस के नेतागण भी इससे बहुत आशान्वित नहीं है। उसके तेलंगाना व आंध्र दोनों क्षेत्रों के नेता केवल इस तैयारी में लगे हैं कि उनकी राय के विरुद्ध कोई फैसला न होने पाए।
राज्य के वक्फ मामलों में मंत्री जी. वेंकट रेड्डïी ने अभी कहा है कि सोनिया गांधी ने कभी तेलंगाना को अलग राज्य बनाने पर हामी नहीं भरी। वह राज्य विभाजन के सख्त विरोधी हैं। इसके लिए उनकी गृहमंत्री पी. चिदंबरम से भी गहरी नाराजगी है। उनका कहना है कि चिदंबरम कौन होते हैं फैसला करने वाले। तेलंगाना के लिए 'रोडमैप' बनाने का बयान भी उनका अपना है, कोई कांग्रेस का बयान नहीं।
यह सही है कि तेलंगाना का रायता फैलाने का काम चिदंबरम साहब ने ही किया है। निर्णय भले ही हाईकमान की कोर कमेटी का हो, लेकिन मोर्चे पर तो वही खड़े हैं। राज्य के मुख्यमंत्री रोशय्या ने तो अपना कुल भार केंद्र पर डाल दिया, इसलिए केंद्र ने अब चिदंबरम को बीच की दीवार बनाया है। अभी उन्हें शायद लगता है कि वह तेलंगाना की मांग को दबा ले जाएंगे। इसके लिए उन्होंने एक अलोकतांत्रिक प्रशासनिक तरीका भी अपनाया है। उन्होंने छत्तीसगढ़ के राज्यपाल पूर्व पुलिस अधिकारी ई.एस.एल. नरसिंहन को आंध्र प्रदेश का अस्थाई राज्यपाल बनवाकर यही कोशिश की है कि उनके माध्यम से शायद तेलंगाना के विद्रोहियों पर काबू पाया जा सकता है। गृहमंत्रालय के निर्देश पर ही नरसिंहन साहब ने राज्यपाल के अतिरिक्त मुख्यमंत्री को बताए राज्य के मंत्रियों व अफसरों को बुलाकर बात कर रहे हैंऔर निर्देश भी दे रहे हैं। तेलंगाना क्षेत्र के प्राय: सारे प्रमुख नेता अब तक उनसे मिल चुके हैं।
5 जनवरी के पहले वह अपनी रिपोर्ट लेकर दिल्ली पहुंचने वाले हैं। तेलंगाना क्षेत्र का जो भी नेता अब तक उनसे मिला है वह कुछ खिन्न होकर ही वापस आया है। वह तेलंगाना समस्या को कोई राजनीतिक समस्या न मानक शायद केवल कानून व्यवस्था की समस्या समद्ब्रा रहे हैं। खबर है कि उन्होंने उस्मानिया विश्व विद्यालय के कुलपति को इसके लिए डांट पिलाई कि उन्होंने पुलिस को कैंपस में अंदर जाने से क्यों रोका। 'वह कौन होते हैं पुलिस को रोकने वाले।' यह बात अलग है कि राज्यपाल पदेन राज्य के विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति भी होते हैं, लेकिन विश्व विद्यालय के मामलों में कुलपति को लगभग पूर्ण स्वायत्तता होती है। लेकिन पुलिस अफसर राज्यपाल ने उन्हें हड़का लिया।
केंद्र सरकार विशेषकर चिदंबरम साहब को यह समद्ब्राना चाहिए कि तेलंगाना समस्या सामाजिक न्याय से जुड़ी एक राजनीतिक समस्या है इसे पुलिसिया तौर तरीकों से नहीं निपटाया जा सकता।
सही बात यह है कि बड़े राज्यों के विभाजन तथा नये राज्यों के निर्माण पर केन्द्र सरकार को अपना रुख स्पष्टï करना चाहिए। उसे यह बात दृढ़ता से कहनी चाहिए कि प्रांत भले ही भाषाई आधार पर बंटे हों, किंतु वहां बसने वाले नागरिक भारत देश के नागरिक हैं। मुल्की-गैरमुल्की (नेटिविज्म) तथा धरतीपुत्र (सन आफ सायल) की धारणाएं यहां देश के भीतर नहीं चल सकतीं। हां किसी क्षेत्र या वर्ग के साथ यदि कोई अन्याय हुआ है तो उसे तत्काल दूर किया जाएगा। राज्य केवल प्रशासनिक इकाइयां हैं ये किसी जाति, नस्ल या भाषावालों की जागीर नहीं। आज की दुनिया में एक भाषाई, एक नस्ली या किसी एक विशिष्टï संस्कृति वाले राज्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। लोकतंत्र का तकाजा है कि हर क्षेत्र यानी हर राज्य में हर भाषा, हर नस्ल एवं हर संस्कृति के लोगों को बसने, जीविका अर्जित करने तथा राजनीतिक भागीदारी करने का अधिकार है। क्या चिदंबरम साहब, साहसपूर्वक ऐसी कोई घोषणा कभी कर सकेंगे?

(3, जनवरी 2010)