मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

अन्ना का आगे का रास्ता आसान नहीं है


पिछली शताब्दी में सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण /जे.पी./ ने जनांदोलन के सहारे राजनीतिक व्यवस्था परिवर्तन का सपना देखा था और ’संपूर्ण क्रांति‘ नारा दिया था। वह अपने आंदोलन द्वारा केंद्रीय सत्ता बदलने में तो सफल रहे, लेकिन व्यवस्था ज्यों की त्यों रह गयी और संपूर्ण क्रांति उस पुरानी व्यवस्था में ही डूब गयी। नई शताब्दी में इस दूसरे दशक में गांधीवादी अन्ना हजारे ने भी जनांदोलन की शक्ति से व्यवस्था परिवर्तन की जंग छेड़ी है। उन्होंने केंद्रीय सत्ता के भ्रष्टाचार को पहला निशाना बनाया है। शुरुआत तो उन्होंने अच्छी की है, लेकिन उनका यह पहला लक्ष्य भी जे.पी. के पहले लक्ष्य से कहीं अधिक कठिन है। राजनीतिक सत्ता आज पिछली शताब्दी के इंदिरा युग के मुकाबले कहीं अधिक चतुर-चालाक हो चुकी है और अन्ना ने प्रायः सारे राजनेताओं को अपने खिलाफ खड़ा कर लिया है।


अन्ना हजारे के नेतृत्व में भारत में शायद पहली बार सरकारी (राजनीतिक एवं प्रशासनिक) भ्रष्टाचार के विरुद्ध कोई सीधा जनांदोलन शुरू हुआ है। इसे दूसरी आजादी की लड़ाई का नाम दिया जा रहा है। आम लोगों के बीच इसकी तुलना जयप्रकाश नारायण के ‘संपूर्ण क्रांति' आंदोलन से की जा रही है। उन्होंने भी सरकारी अत्याचार के विरुद्ध आम नागरिकों को लामबंद करने की कोशिश की थी। युवा व छात्र वर्ग ही उनके भी आंदोलन की रीढ़ था। अपने एकल प्रयास से उन्होंने भी सत्ता परिवर्तन का करिश्मा कर दिखाया था। सवाल है क्या वैसा कुछ अन्ना हजारे भी कर पायेंगे ?

इस सवाल का जवाब आसान नहीं है। इसमें सफलता की आशा से संदेह की आशंका अधिक है। क्योंकि यद्यपि दोनों ने ही आम नागरिकों की शक्ति पर आधारित जनांदोलन को अपना हथियार बनाया है, लेकिन दोनों के लक्ष्य काफी भिन्न हैं और दोनों की समर्थक शक्तियों के चरित्र में भी अंतर है। जयप्रकाश नारायण के सामने तात्कालिक लक्ष्य बहुत स्पष्ट था। उन्हें इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार को पलटना था। वे निश्चित ही इस कार्य के लिए किसी एक पार्टी का नहीं, बल्कि जनक्रांति का सहारा लेने में विश्वास रखते थे और एक नई राजनीतिक संस्कृति कायम करना चाहते थे, लेकिन तात्कालिक लक्ष्य चूंकि इंदिरा गांधी का शासन बदलना बन गया था, इसलिए कांग्रेस विरोधी प्रायः सारी शक्तियां जयप्रकाश नारायण के झंडे तले आ गयी। इंदिरा गांधी के आपातकाल के दौरान की गयी व्यापक गिरफ्तारीने कांग्रेस विरोधी सभी तरह की विचारधाराओं वाले नेताओं को परस्पर निकट आने का अवसर दिया। उन्होंने अपने सैद्धांतिक मतभेद भुलाकर इंदिरा शासन को उखाड़ फेंकने के लिए जयप्रकाश नारायण का नेतृत्व अपनाना स्वीकार कर लिया। इसके विपरीत अन्ना हजारे का संघर्ष एक साथ सभी राजनीतिक दलों के खिलाफ है। उनका आंदोलन यदि वर्तमान डॉ. मनमोहन सिंह या सोनिया गांधी सरकार के खिलाफ होता, तो सरकार विरोधी सारी शक्तियां उनके साथ आ जुटतीं। लेकिन उन्होंने जिस शत्रु के खिलाफ मोर्चा खोला है, वह नितांत अमूर्त तथा कमोबेश सर्वव्यापी है।

यह सही है कि फिलहाल उनके आंदोलन का लक्ष्य सीमित है। उनका ‘जन लोकपाल‘ की नियुक्ति का आंदोलन केंद्रीय सरकार को भ्रष्टाचार मुक्त करने के लिए है। यह भी सही है कि यदि केंद्रीय सरकार भ्रष्टाचार से मुक्त हो जाए, तो राज्य सरकारें व अन्य निचली प्रशासनिक व राजनीतिक इकाइयां अपने आप स्वच्छ हो जाएंगी। लेकिन यह लक्ष्य प्राप्त करना आसान नहीं है। आज सारी राजनीतिक शक्तियां एक तरफ हैं और अन्ना हजारे दूसरी तरफ। जो अभी अन्ना हजारे के साथ दिखायी दे रहे हैं, उनकी भी राजनीतिक प्रतिबद्धताएं बटीं हुई हैं। अन्ना अपने 4 दिन के अनशन में सर्वशक्तिमान केंद्र सरकार को झुकाने में सफल हो गये, इसका वह गर्व कर सकते हैं, लेकिन यह कोई वास्तविक जीत नहीं है। केंद्र सरकार ने हवा का रुख तथा समय की नजाकत को देखते हुए रणनीतिक दृष्टि से अपने को एक कदम पीछे हटा लिया और अन्ना को विजय गौरव हासिल करने दिया, लेकिन आगे भी वह उन्हें इसी तरह का और कोई मौका नहीं देने जा रही है। मीडिया ने भी अपना रुख बदलना शुरू कर दिया है। जंतर-मंतर पर भूख हड़ताल के दौरान उनकी लगातार रिपोर्टिंग करने वाला मीडिया अब उसी उत्साह से उनके सहयोगियों का रहस्य उजागर करने वालों को स्वर देने में लगा है। मीडिया में अब यह आलोचना भी मुखर हो गयी है कि हजारे सरकार को ब्लेक मेल कर रहे हैं, जो राजनीतिक चरित्र सुधार के लिए भी अच्छा तरीका नहीं है। भावनात्मक दबाव डालकर किसी भी सत्ता को किसी क्षण झुकाया जा सकता है, लेकिन इस तरह उसके चरित्र में कोई बदलाव नहीं लाया जा सकता।

जयप्रकाश नारायण ने 1974 में जब वी.एम. तारकुंडे के साथ ‘सिटिजन फॉर डेमोक्रेसी' तथा उसके बाद 1976 में ‘पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज' (पी.यू.सी.एल.) नाम से दो एन.जी.ओ. (गैर सरकारी संगठनों) का गठन किया था, तो उनका भी मूल लक्ष्य देश की राजनीति में चरित्रगत बदलाव लाना था, लेकिन जैसा कि इनके नामों से ही स्पष्ट है, इनका लक्ष्य इंदिरा गांधी के एकाधिकारी शासन को समाप्त करना था। उन्होंने घोषित रूप से कहा था कि इनका लक्ष्य ‘नागरिक स्वतंत्रता को बनाये रखना और उनकी रक्षा करना' (टु अपहोल्ड एंड डिफेंड सिविल लिबर्टीज) है। 1975 के आम चुनाव के बाद इलाहाबाद हाइकोर्ट ने जब उनके निर्वाचन को अवैध घोषित कर दिया, तो जयप्रकाश नारायण ने तत्काल उनके इस्तीफे की मांग की, लेकिन इंदिरा गांधी ने इसके जवाब में 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लागू कर दिया, देश की पूरी सत्ता अपने कब्जे में कर ली। जयप्रकाश नारायण ने इसके खिलाफ ‘संपूर्ण क्रांति‘ का नारा दिया। उन्होंने सेना व पुलिस का आह्वान किया कि वह सरकार के असंवैधानिक व अनैतिक आदेशों का पालन न करे। इस आपातकाल में इंदिरा सरकार की दमनकारी नीतियों ने आम जनता की भावनाओं को जयप्रकाश नारायण की ओर मोड़ दिया। और आखिरकार जब आपातकाल हटा और चुनाव हुए, तो देश की आम जनता ने कम से कम पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस को कूड़े के ढेर में डाल दिया। यहां तक कि इंदिरा गांधी खुद भी चुनाव हार गयीं। कांग्रेस की सरकार हटी और केंद्र में पहली बार ‘जनता पार्टी' की कोई पहली गैर कांग्रेसी सरकार स्थापित हुई। लेकिन यह देश की राजनीतिक संस्कृति में कोई परिवर्तन नहीं कर सकी। ‘संपूर्ण क्रांति' का नारा भी धीरे-धीरे विस्मृति के गर्त में चला गया। राजनीति फिर अपने पुराने ढर्रे पर चल पड़ी।

जहां तक भ्रष्टाचार की बात है, तो उससे पीड़ित तो पूरा देश रहा है, लेकिन एक बोफोर्स कांड को छोड़कर कभी यह कोई बड़ा राजनीतिक मुद्दा नहीं बना। बोफोर्स मामला भी केवल एक व्यक्ति केंद्रित था। इसे संपूर्ण राजनीतिक भ्रष्टाचार को मिटाने का माध्यम नहीं बनाया गया। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इसे केवल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने का साधन बनाया। राजनीतिक भ्रष्टाचार की समस्या इस देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व भी थी, लेकिन उस समय भरतीयों के लिए संघर्ष का मुख्य मुद्दा स्वतंत्रता हासिल करना था, इसलिए उसकी तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी भ्रष्टाचार को कभी कोई राजनीतिक समस्या नहीं माना गया। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू स्वयं इसकी तरफ से आंखें बंद किये रहे। उन्होंने स्वयं कोई भ्रष्टाचार किया हो या नहीं, लेकिन उन्होंने अपने भ्रष्ट साथियों को भ्रष्टाचार करने दिया और तब तक उनमें से किसी के खिलाफ उन्होंने कोई कार्रवाई नहीं की, जब तक कि सार्वजनिक तौर पर उसके खिलाफ थू-थू नहीं होने लगी (प्रसिद्ध ब्रिटिश वामपंथी नेता फिलिप स्प्रैट ने 1963 में लिखा था कि ‘जिन बातों से नेहरू की मार्क्सवादी भावना प्रमाणित होती है, उनमें भ्रष्टाचार के प्रति उनकी सहनशीलता भी शामिल है')। यह उनके काल की ही नीतियों का परिणाम था कि देश भ्रष्टाचार के दलदल में लगातार गरहे और गहरे धंसता चला गया।

यद्यपि भ्रष्टाचार की कोई संपूर्ण व सर्वमान्य परिभाषा करना कठिन है, लेकिन सामान्यतया रिश्वतखोरी भ्रष्टाचार का एक ज्वलंत रूप है। नौकरशाही, राजनेता और अपराधियों के गठजोड़ ने इसे परवान चढ़ाया है। पहले भी ईमानदार मंत्री व अफसर गिनती के ही थे, लेकिन तबसे और अब में फर्क यही आया है कि पहले गलत काम के लिए रिश्वत देनी पड़ती थी और वह भी चोरी छिपे ली जाती थी, लेकिन अब सही समय पर सही काम कराने के लिए भी रिश्वत देनी पड़ती है। अब यह व्यापार खुले आम चलता है, इसके लिए किसी पर्दे की जरूरत नहीं पड़ती। इध्र शुरू हुए ‘स्टिंग ऑपरेशनों' का कुछ खौफ जरूर पैदा हुआ है, लेकिन बीच में शर्म-संकोच का मामला कहीं नहीं रह गया है। आजकल अपने देश में भ्रष्ट अफसर को जेल नहीं पदोन्नति मिलती है। भ्रष्टाचार निश्चय ही जीवन के हर क्षेत्र में व्याप्त हो गया है, किंतु राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार चिंता का मुख्य विषय है, क्योंकि जिनके उपर भ्रष्टाचार व अपराध पर नियंत्रण की जिम्मेदारी सौंपी गयी है, यदि वे ही भ्रष्टाचार में डूब जायेंगे, तब तो सभ्यता और सामाजिक तंत्र का सारा विकास ही डूब जाएगा।

काले धन के मामले में भारत का दुनिया में सर्वोच्च स्थान है। स्विस बैंकों में भारत का अनुमानतः 1456 अरब डॉलर का काला धन जमा है। वर्ष 2006 में जारी ‘स्विस बैंक एसोसिएशन‘ की रिपोर्ट में दिये गये आंकड़ों के अनुसार पूरी दुनिया का कुल मिलाकर जितना काला धन विदेशी बैंकों में जमा है, उससे अधिक अकेले भारत का है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत के नेताओं और अफसरों ने यहां से कितना धन चुराया है। स्विस बैंकों के भारतीय खाते में जितना धन है, वह भारत के कुल राष्ट्रीय कर्ज का 13 गुना है। एक अंतर्राष्ट्रीय निगरानी संस्था द्वारा कराये गये अध्ययन के अनुसार 1948 से 2008 के बीच करीब 462 अरब डॉलर (20 लाख करोड़ रुपये से अधिक) भारत से बाहर ले जाया गया। मुंबई स्थित एक ‘इक्विटी फर्म‘ के सी.इ.ओ. ने पिछले दिनों पत्रकारों को बताया कि देश का काला धन विशेष हवाई उड़ानों द्वारा मुंबई व दिल्ली से ज्यूरिख पहुंचाया जाता है। बैंकिंग उद्योग के सूत्रों के अनुसार निश्चय ही स्विस बैंकों में जमा सबसे ज्यादा धन भरतीयों का है। एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2002 से 2006 के बीच भारत से प्रति वर्ष करीब 27.3 अरब डॉलर बाहर भेजा गया। हाल में आकलित एक स्वतंत्र रिपोर्ट में बताया गया है कि इस देश के पारंपरिक सत्तारूढ़ परिवार की कुल संपदा 9.41 अरब डॉलर से 18.66 अरब डॉलर (42345 करोड़ रुपये से 83900 करोड़ रुपये) के बीच है, जो अवैध धन के रूप में विदेशों में जमा है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के स्कॉलर येब्जेनिया अलबैट्स ने रूसी गुप्तचर संस्था के.जी.बी. के पत्राचारों के हवाले से राजीव गांधी और उनके परिवार के सदस्यों को दिये गये धन का ब्यौरा दिया है। के.जी.बी. के प्रमुख विक्टर चेब्रिकोव ने लिखा है कि 1985 में राजीव गांधी के परिवार को धन दिया गया। इसमें उनके परिवार के सदस्यों के अलावा सोनिया गांधी की मां पाओला माइनों का भी नाम है।

कैसी विडंबना है कि जिस देश के 80 प्रतिशत नागरिकों की दैनिक आय 1 डॉलर यानी एक सौ रुपये से भी कम है, वहां के नेता और अफसर कितना धन कमाते हैं कि उनके द्वारा विदेशें में जमा किया गया काला धन बाकी पूरी दुनिया द्वारा जमा किये गये कुल धन से भी अधिक है। ‘ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल‘ ने 2005 में भारत में एक अध्ययन कराया था, जिसके अनुसार यहां की कुल जनसंख्या के करीब 50 प्रतिशत लोगों को कभी-कभी रिश्वत देने का अपना निजी अनुभव है। इसके द्वारा ही कराये गये अध्ययन में बताया गया कि भारत में ट्रक वाले हर वर्ष करीब 5 अरब डॉलर रिश्वत में देते हैं। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के ही 2010 के अध्ययन में भारत को दुनिया के भ्रष्टतम देशों में गिना गया। 178 देशों की सूची में यह 87वें स्थान पर है। हां, दक्षिण एशिया में पाकिस्तान व बंगलादेश आदि के मुकाबले यह जरूर सबसे कम भ्रष्ट देश है। अभी अमेरिका में प्रवासी भारतीयों के जिस संगठन ने ‘दांडी मार्च द्वितीय का आयोजन किया, उसने टिप्पणी की कि भारत एक धनी देश है, जहां गरीब भरे हुए हैं।'

यह विडंबना नहीं तो क्या है कि जहां इस स्तर की अतल गरीबी, अशिक्षा, बीमारी और बेरोजगारी व्याप्त है कि करोड़ों लोगों को दो जून की रोटी नहीं मिलती, वहां क्रिकेट खिलाड़ियों पर करोड़ों रुपये के पुरस्कारों की वर्षा की जाती है। हसन अली खान जैसे लोगों को बचाने में सारा सत्ता तंत्र लग जाता है, जिस पर 50 हजार करोड़ रुपये का आयकर बकाया रहता है। क्या लोग इस पर विश्वास कर पाएंगे कि जो देश साधनों की कमी का रोना रोता रहता है, वह विदेशी सहायता का करीब एक लाख करोड़ रुपये (22.2 अरब डॉलर) इस्तेमाल ही नहीं कर पाता। नियंत्रक व महालेखा परीक्षक की 18 मार्च 2011 को संसद में पेश की गयी रिपोर्ट के अनुसार विदेशी सहायता का 1,05,339 करोड़ रुपया इस्तेमाल नहीं किया जा सका। इतना ही नहीं द्विपक्षीय व बहुपक्षीय ऋण एजेंसियों से प्राप्त इस धन का समय से इस्तेमाल न कर पाने के दंड स्वरूप भारत को अपने खजाने से 86.11 करोड़ रुपया उन एजेंसियों को देना पड़ा। यह तो है अपने देश के शासन तंत्र की कार्यक्षमता और उस पर चारों तरफ से चढ़ी भ्रष्टाचार की अमरबेल।

अब कल्पना करें इस दलदली जमीन में अन्ना हजारे किस तरह आगे बढ़ सकेंगे। निश्चय ही देश के इतिहास में ऐसा पहली बार हो सका है कि किसी सरकारी विधेयक का प्रारूप बनाने वाली कमेटी में सरकारी प्रतिनिधियों की बराबर संख्या में नागरिक प्रतिनिधि शामिल किये गये हैं। और कमेटी के सरकारी अध्यक्ष के समकक्ष ही नागरिक पक्ष का भी सह अध्यक्ष नियुक्त किया गया है, लेकिन यह समिति कुछ कर सके, इसके पहले ही उसे व्यर्थ सिद्ध करने के प्रयास शुरू हो गये हैं।

अन्ना हजारे के अनशन मंच पर केवल उनके समर्थक ही नहीं थे, बल्कि उन गैर सरकारी संगठनों (एन.जी.ओ.) के प्रतिनिधि भी थे, जो केवल सत्ता की दलाली के लिए खड़े किये गये हैं। इस समिति के गैर सरकारी प्रतिनिधियों के चरित्र पर शुरू किये गये हमलों में सबसे आगे कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह है। उन्होंने सबसे तीखा हमला प्रसिद्ध एडवोकेट शांतिभूषण और उनके बेटे प्रशांत भूषण पर किया है। उन्होंने जस्टिस संतोष हेगड़े तथ अरविंद केजरीवाल के चयन पर भी प्रश्न चिह्न लगाया है। उन्होंने एक टी.वी. चैनल के साथ बातचीत में सवाल किया कि हजारे ने हर्षमंदर व अरुणा राय जैसे लोगों को क्यों नहीं लिया, जो कहीं अधिक योग्य नागरिक प्रतिनिधि होते। उनका कहना था कि अरविंद केजरीवाल तो अरुणाराय का चेला ही है। यहां उल्लेखनीय है कि अरुणाराय का हर्षमंदर आदि सोनिया गांधी के नजदीकी हैं और उनके राष्ट्रीय विकास परिषद से भी जुड़े हैं। मीडिया में ये खबरें भी उछाली जा रही हैं कि अन्ना हजारे को बाबा रामदेव की काट के तौर पर खड़ा किया गया है। अन्ना एकला चलो की नीति में विश्वास रखते हैं, इसलिए वह कोई संगठन भीनहीं खड़ा कर सकते, जैसा कि बाबा रामदेव ने योग शिक्षा के माध्यम से खड़ा कर लिया है। फिर अन्ना को ‘मैनेज' करना बाबा रामदेव के मुकाबले कहीं आसान होगा।

जो भी हो, लेकिन अन्ना का रास्ता है बहुत कठिन। उन्होंने प्रायः सारे राजनीतिक दलों व उनके नेताओं को अपने खिलाफ खड़ा कर लिया है, या वे स्वयं उनके खिलाफ खड़े हो गये हैं। एन.जी.ओ. के नेतागण भी बहुत दूर तक साथ देने वाले नहीं हो सकते। आम आदमी की संख्या कितनी भी बड़ी क्यों न हो, लेकिन किसी संगठन के अभाव में उसका अस्तित्व अमूर्त ही होता है। इसलिए डर है कि अन्ना साहब आगे चलकर कहीं पूरी तरह अकेले न पड़ जाएं। उनके पीछे खड़ी युवा शक्ति भी संगठित नहीं है। और उन्होंने लोकपाल का जो प्रारूप सामने रखा है, उसे वर्तमान राजनीतिक दल तो क्या वर्तमान न्यायिक प्रतिष्ठान के लोग भी शायद ही अपना समर्थन दें। देश को भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति व प्रशासन देने के लिए देश के पूरे राजनीतिक तंत्र को जड़ से बदलना होगा, जिसमें अपना संविधान भी शामिल है। केवल एक लोकपाल संस्था को खड़ा करके देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, लूट, शोषण और असमानता के कैंसर का इलाज शायद नहीं किया जा सकता।

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

हजारे की व्यवस्था परिवर्तन की जंग


नई दिल्ली स्थित जंतर-मंतर पर अपने समर्थकों के साथ अन्ना हजारे



गांधीवादी नेता अन्ना हजारे ने राजनीतिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध जंग का पहला मोर्चा मात्र 4 दिनों में फतह कर लिया। उनकी इस मुहिम को जैसा देशव्यापी समर्थन मिला, वह असाधारण है। कल तक जो असंभव समझा जा रहा था, वह अब संभव लगने लगा है। देश का पूरा युवा वर्ग और समाज के हर क्षेत्र के लोग जिस तरह अन्ना के समर्थन में उमड़ पड़े, उसकी कल तक कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। निश्चय ही यह इस बात का प्रमाण है कि देश बदल रहा है। लेकिन अन्ना की इस पहली जीत से बहुत अधिक खुश होने की जरूरत नहीं है। यह मात्र शुरुआत है। भ्रष्टाचारी तंत्र इतनी जल्दी पराजित होने वाला नहीं। फिर एक जनलोकपाल की नियुक्ति हो जाना भी भ्रष्टाचार की समाप्ति की कोई गारंटी नहीं। उसके लिए पूरी व्यवस्था व शासनतंत्र में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है। अन्ना मानते हैं कि उनकी यह जंग वास्तव में पूरी व्यवस्था को बदलने की जंग है। सवाल है क्या उनके समर्थक इस लंबी व मुश्किल जंग के लिए तैयार हैं ?



यह कहा जा सकता है कि अन्ना हजारे के नाम से लोकप्रिय प्रसिद्ध गांधीवादी नेता किसन बापट बाबू राव हजारे ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी लड़ाई का पहला मोर्चा फतह कर लिया है। अन्ना को मिले देशव्यापी विराट समर्थन के आगे हठी सरकार को अंततः झुकना ही पड़ा। उसने अन्ना की मांग के अनुसार जन लोकपाल बिल का प्रारूप तैयार करने के लिए सरकार और नागरिक समाज /सिविल सोसायटी/ के प्रतिनिधियों की संयुक्त समिति बनाना स्वीकार कर लिया है। उसने इस समिति के दो अध्यक्ष बनाये जाने की मांग भी मान ली है और यह भी स्वीकार कर लिया है कि समिति द्वारा तैयार ‘प्रारूप‘ को सरकारी स्तर पर अधिसूचित किया जायेगा। लेकिन यह वास्तविक लड़ाई के मार्ग में मिली एक प्रतीकात्मक विजय मात्र है, वास्तविक लक्ष्य अभी भी बहुत दूर है। अन्ना को इसका बोध न हो, ऐसा नहीं है। उन्होंने स्वयं कहा है कि उनकी यह जंग अभी आगे भी जारी रहेगी। 5 अप्रैल को शुरू अनिश्चिकालीन अनशन के साथ प्रारंभ इस संघर्ष को इसके अंजाम तक पहुंचाना है। अभी इस प्रारूप समिति के गठन का जो प्रारूप तय किया गया है, उसके अनुसार सरकारी पक्ष के पांच और नागरिक पक्ष के पांच प्रतिनिधि होंगे। समिति की अध्यक्षता केंद्रीय मंत्री प्रणव मुखर्जी करेंगे, जिनके साथ नागरिक पक्ष का सह अध्यक्ष होगा। पूर्व केंद्रीय मंत्री तथा वरिष्ठ अधिवक्ता शांतिभूषण सह अध्यक्ष का पद संभालेंगे। सरकार फिलहाल इस बात पर सहमत है कि जन लोकपाल बिल संसद के आगामी पावस सत्र में पेश कर दिया जायेगा, लेकिन जैसी की कहावत है कि प्याले और होंठों के बीच की दूरी भी काफी होती है, जिसके बीच कई बाधाएं आ सकती हैं, इस विधेयक का प्रारूप तैयार होने और उसके सदन में पेश होने और पास होने के बीच कम बाधाओं के आसान नहीं हैं।

लोकपाल विधेयक लाने की यह पहली तैयारी नहीं है। कम से कम 8 बार इसे लोकसभा या राज्यसभा में पेश किया जा चुका है, लेकिन कभी यह पारित नहीं हो सका। पहली बार 1969 में यह लोकसभा में पारित हुआ, लेकिन राज्यसभा तक नहीं पहुंच सका। इसके बाद 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 2001 तथा 2005 में इसे राज्यसभा में रखा गया, लेकिन रखे जाने के बाद उसमें कोई प्रगति नहीं हो सकी। 2004 में सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने इसे पास कराने का जनता से वायदा किया था, लेकिन अब तक वह क्या कर सके, यह सबके सामने है। इसके पास कराये जाने में सबसे बड़ा अवरोध यह खड़ा होता रहा कि किसे-किसे इसके दायरे में लाया जाए। इस पर अभी भी बहस चल रही है कि प्रधानमंत्री को इसकी सीमा में लाया जाए या नहीं और जो लोकपाल नियुक्त हो, उसका अधिकार क्षेत्र क्या हो। अभी सरकार द्वारा विधेयक का जो प्रारूप तैयार किया गया है, उसका लोकपाल पूरी तरह नख-दंत विहीन है। इसे शक्तिशाली बनाने के लिए ही अन्ना हजारे ने बार-बार सरकार को लिखा और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह तथा कानून मंत्री वीरप्पा मोइली से मुलाकातें भी की, लेकिन किसी ने उनकी बातों की ओर कान नहीं किया, जिससे हारकर उन्होंने दिल्ली में आमरण अनशन पर बैठने का निर्णय लिया।

सरकार ने पहले तो उनके अनशन की कोई परवाह नहीं की। लेकिन इस अनशन को जैसा देशव्यापी समर्थन मिला, उसे देखकर निश्चय ही सरकार घबड़ा गयी। उसे इस आंदोलन को ऐसे समर्थन की कतई उम्मीद नहीं थी। शायद इसकी उम्मीद अन्ना को भी नहीं रही होगी। पिछले दिनों मिस्र में हुई क्रांति /जिसमें वहां के राष्ट्रप8ति को गद्दी छोड़कर भागना पड़ा/ के संदर्भ में जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि जैसा वहां काहिरा के तहरीर चौक पर हुआ, वैसा यहां कुछ नहीं हो सकता, क्योंकि यहां एक सफल लोकतांत्रिक व्यवस्था काम कर रही है। आम जनता के बीच भी इस तरह के सवाल उठ रहे थे कि क्या ‘रिवोल्यूशन जस्मिन‘ /जिसने प्रायः पूरे अरब जगत को अपनी चपेट में ले लिया है/ जैसा अपने देश में भी कुछ हो सकता है। जवाब नकारात्मक मिल रहा था, लेकिन 5 अप्रैल को जंतर-मंतर पर शुरू हुए अन्ना के अनशन के बाद जो नजारा देखने को मिला, वह चकित करने वाला था। यह तहरीर चौक की क्रांति से कुछ भिन्न भले रहा हो, लेकिन यह किसी तरह उससे कम नहीं था। 72 वर्ष की आयु में अन्ना द्वारा उठाये गये एक छोटे से गांधीवादी कदम ने प्रायः पूरे देश को एक जुनून से भर दिया। उन्हें जिस तरह का चौतरफा समर्थन मिलना शुरू हुआ, वैसा समर्थन तो संपूर्ण क्रांति के आह्वानकर्ता जयप्रकाश नारायण को भी नहीं मिला था। जयप्रकाश नारायण ने बिहार की राजधानी पटना के गांधी मैदान से अपने क्रांति का बिगुल फूंका था। यद्यपि इसमें पुरानी पीढ़ी के राजनीतिक नेतागण भी शामिल थे, किंतु यह एक युवा आंदोलन था। बिहार का पूरा युवा समुदाय उनके साथ था। आश्चर्य की बात थी कि बिहार के इस आंदोलन की प्रतिध्वनि उससे हजारों मील दूर गुजरात में गूंजी। वहां का भी युवा व छात्र समुदाय सड़कों पर निकल आया। लेकिन यह पूरा आंदोलन देश के केवल इन दो प्रांतों तक सीमित रह गया था, जबकि आज अन्ना हजारे के आंदोलन की प्रतिध्वनि न केवल देश के हर कोने में गूंज उठी, बल्कि विदेशों में बसे भारतीय समाज के लोग भी उनके साथ एकजुटता दिखाने के लिए उठ खड़े हुए। यू.एस. में लॉस एंजेलस सहित कई नगरों में प्रवासी भारतीयों ने एक दिन का उपवास रखा। यहां देश के भीतर दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, पंजाब, तमिलनाडु, गुजरात, कर्नाटक, उड़ीसा, झारखंड आदि प्रायः सारे प्रांतों में युवा छात्र-छात्राओं, शिक्षकों, वकीलों तथा अन्य तमाम क्षेत्रों के लोगों ने धरना-प्रदर्शन, अनशन आदि करके भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष में अपनी एकजुटता का प्रदर्शन किया।

अन्ना के साथ देश का केवल युवा या छात्र वर्ग ही नहीं, मुंबई, हैदराबाद व चेन्नई के फिल्म जगत तथा देश भर के शीर्ष उद्यमियों का समूह भी अपनी एकजुटता प्रदर्शित करने में पीछे नहीं रहा। इस देश का मनोरंजन जगत तथा उद्योग जगत सामान्यतया सभी राजनीतिक आंदोलनों-प्रदर्शनों से अपने को दूर रखने में ही विश्वास करता रहा है, लेकिन भ्रष्टाचार के मुद्दे ने उन्हें भी अन्ना के साथ खड़े होने को मजबूर कर दिया। अभिनेता अनुपम खेर और आमिर खान ने क्रिकेट से अधिक अन्ना हजारे को समर्थन देने की अपील की। निर्माता-निर्देशक रामगोपाल वर्मा जैसे लोगों को छोड़ दें, जो केवल अपनी फिल्मों में ही मशगूल रहते हैं और यह नहीं जानते कि अन्ना हजारे कौन हैं और दिल्ली में वह क्या कर रहे हैं, तो देश के मनोरंजन व्यवसाय का कोई चर्चित व्यक्ति ऐसा नहीं है, जिसने भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना की मुहिम का समर्थन न किया हो।

भारतीय उद्योग जगत के अनेक शीर्ष उद्यमियों ने खुलकर भ्रष्टाचार विरोधी इस मुहिम का समर्थन किया है। शुक्रवार को गोदरेज समूह के चेयरमैन आदि गोदरेज, बजाज आटो के चेयरमैन राहुल बजाज, कोटक महेंद्र बैंक के वाइस चेयरमैन उदय कोटक तथा बायोकान के चेयरमैन व मैनेजिंग डायरेक्टर किरण मजूमदार शा ने अन्ना को अपना पूरा समर्थन देने की घोषणा की। शा ने कहा कि यह एक बड़ी बात है कि अन्ना जैसा कोई व्यक्ति इस मुद्दे को लेकर आगे आया है और जिसने देश के युवाओं में भी चेतना की एक चिंगारी जगा दी है। उद्यमियों के एक अन्य समूह ने- जिसमें जमशेद गोदरेज, अनु आगा, केशव महिंद्रा और अजीम प्रेमजी आदि शामिल हैं- प्रधानमंत्री को खुला पत्र लिखा हैं, जिसमें प्रशासन की कमियों के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए लोकपाल की नियुक्ति की मांग की गयी है। राहुल बजाज ने कहा है कि नये भ्रष्टाचार विरोधी कानून का प्रारूप तैयार करने वाली कमेटी के सदस्यों का चुनाव करने के लिए एक लोकतांत्रिक ढांचा होना चाहिए। अन्ना के आमरण अनशन का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि यदि उन्हें कुछ हो जाता है, तो यह किसी के लिए अच्छा नहीं होगा, इसलिए सरकार को एक-दो दिन में ही समुचित निर्णय ले लेना चाहिए।

इस व्यापक समर्थन का ही परिणाम है कि शुक्रवार के दोपहर तक जो सरकार अन्ना की बात मानने के लिए तैयार नहीं थी, उसने रात होने तक अपने हथियार डाल दिये और उनकी सारी मांगें मान लीं। उसने अपनी केवल यह जिद पूरी कर ली कि प्रारूप समिति का अध्यक्ष सरकार का ही प्रतिनिधि होगा। अन्ना ने भी इस मुद्दे पर इस बात से समझौता कर लिया कि सरकारी अध्यक्ष के समानांतर नागरिक प्रतिनिधियों का एक सह अध्यक्ष होगा, जिसके अधिकार सरकारी अध्यक्ष् के समान ही होंगे।

सरकार ने प्रारूप समिति में नागरिक प्रतिनिधियों को शामिल करना तो पहले ही स्वीकार कर लिया था, लेकिन वह अध्यक्षता के प्रश्न पर समझौता करने के लिए तैयार नहीं थी। वह इसके लिए भी तैयार नहीं थी कि संयुक्त प्रारूप समिति को कोई औपचारिक दर्जा दिया जाए और उसकी अधिसूचना जारी की जाए। इस पर गुरुवार को अन्ना ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को अलग-अलग पत्र लिखा। इस पर शुक्रवार को सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह से मुलाकात की और अन्ना की मांगों पर चर्चा की। उनके साथ केंद्रीय मंत्री प्रणव मुखर्जी, कपिल सिब्बल व वीरप्पा मोइली तथा सोनिया के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल भी उपस्थित थे। इस बैठक में अन्ना की बाकी दोनों मांगों को मानने से साफ इनकार कर दिया गया। इसकी सूचना जब अनशन पर बैठे अन्ना को दी गयी, तो उनका क्षुब्ध होना स्वाभाविक था। उन्होंने सरकार के इस अड़ियल रवैये के विरुद्ध अपना आंदोलन तेज करने के लिए 13 अप्रैल से राष्ट्रव्यापी जेल भरो आंदोलन शुरू करने का आह्वान किया। इस पर पूरे देश में जैसी प्रतिक्रिया शुरू हुई, उसका भी शायद सरकार को अनुमान नहीं था, लेकिन अन्ना के साथ देश की आम जनता की विराट एकजुटता को देखकर सरकार की सारी अकड़ ढीली पड़ गयी और उसने अन्ना के आगे हथियार डाल देने में ही अपनी भलाई समझी।

अन्ना की इस सफलता पर निश्चय ही देश के बहुत सारे लोग चकित हैं। ऐसा क्या हो गया कि लगभग पूरा देश एक साथ भ्रष्टाचार के विरुद्ध इस संघर्ष में उठ खड़ा हुआ। जहां यह समझा जा रहा था कि इस देश में लोग इतने खुदगर्ज हो गये हैं कि उन्हें किसी राष्ट्रीय मसले की कोई चिंता नहीं है। यहां का युवा भी केवल क्रिकेट के मामले में सक्रिय सचेतन और एकजुट दिखायी देता है। इस बार क्रिकेट वर्ल्डकप के फाइनल में भारत की जीत पर जैसा देशव्यापी हर्ष प्रदर्शन हुआ, वह अभूतपूर्व था, लेकिन भ्रष्टाचार के सवाल पर भी देश का युवा ऐसी ही एकजुटता दिखा सकता है, इसकी उम्मीद नहीं थी। मगर अन्ना के आंदोलन के समर्थन में युवा वर्ग जिस तरह आगे आया, वह अभूतपूर्व था। उसने यह सिद्ध कर दिया कि राष्ट्रीय मसलों के प्रति वह संवेदनशून्य नहीं है। जरूरत उसे सही राह दिखाने वालों की है।

सरकारी व राजनीतिक भ्रष्टाचार के एक के बाद एक होते भंडाफोड़ से इस देश का पूरा प्रबुद्ध समाज पक गया था, लेकिन उसे अपनी अभिव्यक्ति का कोई मार्ग नहीं मिल रहा था। राजनीतिक दलों में से किसी पर उसका कोई भरोसा नहीं रह गया था। विपक्षी दलों में भारतीय जनता पार्टी व अन्य दलों ने इस भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद की, लेकिन उन्हें कोई जनसमर्थन नहीं मिला। लगा कि देश के आम आदमी में इसको लेकर कोई चिंता नहीं है, भ्रष्टाचार को प्रायः सभी लोगों ने सत्ता और राजनीति का अभिन्न अंग मान लिया है। लेकिन ऐसा नहीं था। इन विपक्षी दलों की भी तो कोई ईमानदार छवि नहीं थी, इसलिए उनके साथ अपना स्वर मिलाने के लिए कोई तैयार नहीं था। लेकिन अन्ना हजारे जैसा एक स्वच्छ छवि का व्यक्ति सामने आया, तो यह पूरा समूह उसके समर्थन में उमड़ पड़ा। इस देश के उद्योगपतियों की ऐसी छवि बना दी गयी है कि मानो भ्रष्टाचार की काली गंगा उन्हीं के बीच से निकलकर देश में प्रवाहित होती है। किंतु सच्चाई यह है कि आज का उद्यमी भ्रष्टाचार के सहारे नहीं, अपने कौशल और श्रम के सहारे धन कमाना चाहता है। वह भ्रष्टाचार के लिए मजबूर है, क्योंकि देश की राजनीतिक व्यवस्था उसे भ्रष्ट आचरण अपनाने के लिए मजबूर करती है। बिना भ्रष्टाचार के वह व्यवसाय कर ही नहीं सकता, इसलिए उसने इसे व्यवसाय में आगे बढ़ने की अनिवार्य शर्त मान लिया है। लेकिन अन्ना के समर्थन में जिस तरह इस देश का उच्च व्यवसायी वर्ग सामने आया है, उससे स्पष्ट है कि वह भी भ्रष्टाचार मुक्त व्यवसाय करना चाहता है। वह स्वयं देश के राजनीतिक भ्रष्टाचार से ग्रस्त है।

पुरानी पीढ़ी के लोग आज की युवा पीढ़ी को सर्वाधिक दोषी करार देते हैं। वे उसे उच्छ्र्रृंखल, मूल्यहीन तथा केवल पैसा कमाने के लिए पागल समझते हैं। मगर अन्ना हजारे के इस आंदोलन ने सिद्ध कर दिया है कि नहीं आज का युवा वर्ग ऐसा नहीं है। वह जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति युगीन युवाओं से भी अधिक सचेतन, ईमानदार और उर्जावान युवा है। आज देश की करीब 75 प्रतिशत आबादी युवा वर्ग के अंतर्गत आती है। लोगों को विश्वास नहीं होगा कि इस समय देश की आधी युवा आबादी बोफोर्स कांड के बाद पैदा हुए युवाओं की है। यह उनका दुर्भाग्य है कि वे लगातार भ्रष्टाचार की कहानियां पढ़ते-सुनते युवा हुए हैं और प्रौढ़ावस्था की ओर बढ़ रहे हैं। वह अभी बोफोर्स की कहानी ही पढ़-सुनकर चकित होते थे कि किस तरह नई दिल्ली स्थित उसके एजेंट विन चड्ढा को संसद के पिछले दरवाजे से निकालकर विदेश भगाया गया, किस तरह दलाली का पैसा खाने वाले इतालवी व्यवसायी और गांधी परिवार के घनिष्ठ मित्र क्वात्रोच्ची को बचाया गया, सी.बी.आई. ने किस तरह इस पूरे मामले को खत्म करने के लिए अदालत में झूठ बोला कि इस मामले की जांच पर अब तक ढाई सौ करोड़ रुपया खर्च हो चुका है, जबकि वास्तविक खर्च मात्र 5 करोड़ है, लेकिन पिछले कई महीनों से वह राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला सुनती आ रही है। वह देख रही है कि ’मि. क्लीन‘ समझे जाने वाले प्रधानमंत्री भ्रष्टाचारियों को संरक्षण दे रहे हैं, भ्रष्टाचार के आरोपी अधिकारी को भ्रष्टाचार पर नियंत्रण करने वाले सी.वी.सी. /मुख्य सतर्कता आयुक्त/ के पद पर नियुक्त कर रहे हैं, भ्रष्टाचार में सपरिवार लिप्त देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद पर बैठे हुए हैं। भ्रष्टाचार का ऐसा संस्थागत संरक्षण, निर्लज्जता की ऐसी पराकाष्ठा। चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा। ऐसे में आशा की एक किरण बनकर सामने आये अन्ना हजारे, तो उनके साथ इस अंधकार से लड़ने के लिए कोलकाता से लेकर अहमदाबाद और शिमला से लेकर चेन्नई तक युवा वर्ग मोमबत्तियां जलाकर सड़कों पर निकल पड़ा।

निश्चय ही इससे देश में रोशनी की एक नई आभा प्रकट हुई है। लेकिन अंधेरा इतना कमजोर नहीं है, जितना कि अन्ना की इस पहली जीत से समझ लिया गया है। आज हवा का रुख देखते हुए परम भ्रष्ट भी भ्रष्टाचार के खिलाफ छिड़ी मुहिम में आ खड़े हुए हैं। इनसे सर्वाधिक सतर्क रहने की जरूरत है। देश में निश्चय ही बदलाव की एक हवा बही है। पूर्व सैनिक अन्ना हजारे ने इस हवा को एक दिशा प्रदान की है। यह हवा परिवर्तन की एक आंधी बन सकती है, लेकिन इसके लिए देश के युवा वर्ग को एक निर्णायक लड़ाई के लिए तैयार होना होगा। केवल जन लोकपाल की नियुक्ति हो जाने से ही देश से भ्रष्टाचार का अंत नहीं हो जायेगा, न इस देश का चेहरा ही बदल जायेगा। राज्यों में इसी उद्देश्य से नियुक्त लोकायुक्तों का क्या हश्र हुआ, यह प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। जरूरत है पूरी राजनीतिक व्यवस्था व शासनतंत्र में आमूलचूल परिवर्तन की। बिना इसके कोई भी संस्था या कोई भी किसी तरह की कोई सार्थक भूमिका नहीं अदा कर सकेगा। और यह व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई निश्चय ही बहुत लंबी और बहुत कष्ट साध्य है। क्या देश के नव कर्णधार इसके लिए तैयार हैं ?


हम अपना राष्ट्रीय संवत्सर भी भूल चले हैं और उसके संस्थापक को भी






विक्रम संवत के संस्थापक: शौर्य एवं न्याय के प्रतीक महाराजा विक्रमादित्य



युग प्रतिपदा के नवसंवत्सर महोत्सव के अवसर पर भारतीय संवत्सर परंपरा में सर्वाधिक लोकप्रिय विक्रम संवत के संस्थापक विक्रमादित्य की याद आना भी स्वाभाविक है। अयोध्या के राजा राम के बाद उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने इस देश की परंपरा में जैसा गहरा स्थान बना रखा है, वैसा दूसरा कोई राजा कभी नहीं बना सका। विक्रमादित्य इस देश में आदर्श न्याय, प्रजावत्सलता, सामाजिक समन्वय तथा विद्या एवं कला संरक्षण के प्रतीक हैं। उनका सिंहासन तो न्यायपीठ का पर्याय बन गया है। आश्चर्य है हम अपना पारंपरिक राष्ट्रीय नववर्ष ही नहीं, ऐसे आदर्श राष्ट्र पुरुष को भी भूल गये हैं। क्या इस देश के लोग कभी यह सोचेंगे कि चैत्र शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन यानी ‘युग प्रतिपदा‘ को हम राष्ट्रीय नववर्ष दिवस के रूप में मनाएं और इस अवस पर विक्रमादित्य जैसे राजा के आदर्शों का स्मरण करें।



कालचक्र तो अखंड है, उसका न कोई आदि होता है, न अंत, लेकिन अपनी धरती पर चलने वाला जीवन चक्र अखंड होते हुए भी आदि- अंत के भाव से मुक्त नहीं है। हमारा जीवन ऋतु चक्र से संचालित होता है। एक ही ऋतु एक निश्चित अवधि के बाद फिर लौटकर आती है। एक निश्चित अवधि के बाद एक ऋतु का वापस आना हमारी धरती की अपनी गति पर निर्भर है। वह अपने जीवन प्रदाता सूर्य की एक परिक्रमा जितनी अवधि में पूरी करती है, उतनी ही अवधि एक ऋतु को वापस आने में लगती है। इसी अवधि को हम संवत्सर या वर्ष के नाम से जानते हैं।

‘स्मृति सार‘ नामक एक ग्रंथ है, जिसमें संवत्सर की परिभाषा की गयी है। इसके अनुसार संवत्सर वह है, जिसमें मास, ऋतु और दोनों अयनों /विषुवत रेखा के दोनों ओर यानी दक्षिण और उत्तर में सूर्य की स्थिति/ का समत्यक वास होता है। यहां यह उल्लेखनीय है कि धरती अपने अक्ष पर यदि 23 1/2 अंश झुकी हुई न होती और इस तरह झुके-झुके अपने अक्ष पर घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा पूरी न करती, तो न धरती पर ऋतुएं बदलतीं और न यहां जीवन की उत्पत्ति होती । इस झुकाव के कारण ही अयनों का निर्माण होता है और ऋतु चक्र का जन्म होता है। इस झुकाव के कारण ही ऐसा प्रतीत होता है कि सूर्य धरती के गोले की मध्य रेखा /जिसे विषुवत रेखा कहा गया है/ कुछ दूर दक्षिण की ओर /मकर रेखा तक/ जाकर फिर वापस उत्तर की ओर /कर्क रेखा तक/ जाता है। जिसे हम उसका दक्षिण अयन में या उत्तर अयन में जाना कहते हैं। इस प्रतिमासित गति के कारण ही धरती पर दिन रात की अवधि बदलती रहती है।

अब धरती द्वारा सूर्य की एक परिक्रमा या एक ऋतु चक्र के पूर्ण होने पर एक संवत्सर तो पूरा हो गया, लेकिन अब समस्या यह हुई कि एक ऋतु चक्र या पृथ्वी की एक परिक्रमा का प्रारंभ बिंदु कब माना जाए। कब कहा जाए कि अब नया संवत्सर शुरू हो रहा है। अपने यहां ब्रह्मांड पुराण में कहा गया है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नया संवत्सर प्रारंभ होता है। पुराणकारों की कल्पना के अनुसार इसी दिन भगवान विष्णु का धरती पर मत्स्य के रूप में पहला अवतार /मत्स्यावतार/ हुआ था और प्रजापिता ब्रह्मा ने इसी दिन सृष्टि की रचना प्रारंभ की /चैत्रमासि जगद ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेहनि/। ज्योतिर्विदों ने भी इस तिथि को बहुत महत्वपूर्ण माना। प्रख्यात भारतीय ज्योतिर्विद वाराहमिहिर की बृहत्संहिता /6ठीं शताब्दी ई./ तथा भास्कराचार्य /12वीं शताब्दी/ के सूर्य सिद्धांत का वर्षाधार यही तिथि है। यानी अपनी संवत्सरीय काल गणना वह इसी तिथि से प्रारंभ करते हैं। इसलिए इस देश में वर्षारंभ की सर्वमान्य या कहें अधिकांश लोगों द्वारा मान्य तिथि यही रही है।

ब्रह्मा ने कब सृष्टि निर्माण प्रारंभ किया, इसकी कोई तिथि नहीं बतायी जा सकती, किंतु कल्पनाशील भारतीय मनीषियों ने संवत्सर के प्रारंभ की इसी स्वीकृत तिथि को सृष्टि के प्रारंभ की भी तिथि स्वीकार कर लिया। इसका एक सहज स्वाभाविक आधार इस ऋतु चक्र में ही निहित था। शिशिर के अंत के बाद सूर्य विषुवत रेखा पार करके उत्तर की ओर बढ़ने लगता है, तब धरती के उत्तरी गोलार्ध में /जिसमें अधिकांश जीवन केंद्रित है/ नई जीवन चेतना और उल्लास का संचार होता है। पतझड़ के बाद वृक्षों में नई कोपलें और उनके साथ नये रंग-बिरंगे पुष्पों का आगमन होता है और उनके अंतर्कोर्षों में नये बीजों-फलों का सृजन मंत्र गूंजता प्रतीत होने लगता है। संपूर्ण प्रकृति अपरिमित सौंदर्य और उल्लास से उत्फुल थिरकती सी नजर अती है। भला सृष्टि के निर्माण के लिए इससे भिन्न क्या कोई और समय स्वीकार किया जा सकता है। अब रही बात यह कि इसकी एक ठीक-ठीक तिथि कैसे तय कर ली गयी। स्वाभाविक है कि जब ज्योतिर्विदों ने एक संवत्सर को द्वादश सौर या चांद्र मासों में विभाजित किया और उसका अंत फाल्गुन के साथ मान लिया, तो नये वर्षारंभ का पहला महीना चैत्र होना स्वाभाविक हो गया। किंतु नये वर्षारंभ के लिए ऐसी तिथि चाहिए थी, जो विकासोन्मुख हो। फाल्गुन पूर्णिमा के बाद आने वाली पहली प्रतिपदा कृष्ण् पक्ष की थी, जिसके साथ चंद्रमा को क्रमशः क्षीण होना था। अब ऐसी तिथि को तो न सृष्टि के आरंभ की तिथि माना जा सकता था और न वर्षारंभ या नवसंवत्सरारंभ की। इसलिए 15 दिन की प्रतीक्षा के बाद चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को इसके लिए सर्वदा उपयुक्त माना गया। जिसके साथ चंद्रमा वृद्धि के पथ पर अग्रसर होता है। इसलिए प्रकृति का स्वाभाविक नवसंवत्सर प्रारंभकाल-कम से कम भारतीय क्षेत्र के लिए- तो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही स्वीकार किया गया। अपनी वैदिक व पैराणिक परंपरा ने किसी व्यक्ति या किसी सामाजिक राजनीतिक घटना के बजाए प्राकृतिक परिवर्तनों के आधार पर नवसंवत्सर की प्रारंभ तिथि की स्थापना की। क्षेत्र भेद तथा रुचि भेद से इसमें अंतर अवश्य था, लेकिन सर्वाधिक व्यापक मान्यता इसी तिथि को मिली।

पूरी दुनिया के संदर्भ में देखें, तो इस समय सर्वाधिक व्यापक संवत्सर या वर्ष ईसाई संवत है, जो ईसा की मृत्यु या उनके पुनर्जन्म की तिथि के साथ जुड़ा हुआ है। इसकी शुरुआत संभवतः रोमन सम्राट सीजर ने की थी। यह संवत

व्यक्ति आधारित है, ऋतु या प्रकृति आधारित नहीं। लेकिन व्यक्तियों व घटनाओं को लेकर दुनिया में बहुत से संवत्सर /करीब 180/ प्रचलित हैं। आज यूरोपीय देशों व अमेरिका में एक ही ईसाई संवत प्रचलित है, लेकिन कभी इटली, रोम, फ्रांस आदि के अपने अलग संवत्सर थे। इसी तरह भारत में बहुत से संवत्सर प्रचलित थे। पुराणें के अनुसार सतयुग में ब्राह्म संवत्सर /ब्रह्मा का संवत/ प्रचलित था। त्रेता और द्वापर में परशुराम, वामन, मत्स्य, रामन व रावण के नाम पर भी कुछ संवत प्रचलित थे। आगे चलकर युधिष्ठिर के राज्याभिषेक, कृष्ण के परलोग गमन, बुद्ध व महावीर के जन्म पर आधारित संवत चलाने के प्रयत्न हुए। आज भी देश के अनेक प्रांतों में अलग-अलग तिथियों पर पारंपरिक नववर्ष मनाया जाता है। लेकिन उनका महत्व केवल उन उत्सवों तक सीमित है। अन्यथा पूरे देश में वही पंचांग व्यवहृत होता है, जिसे वाराहमिहिर व भास्कराचार्य ने स्थापित किया। संवत्सर के नाम पर दो प्रमुख नाम प्रचलित हैं, एक शकारि विक्रमादित्य के नाम पर विक्रम संवत और दूसरा गौतमी पुत्र शातकर्णी या शालिवाहन /सातवाहन ?/ के नाम पर शक संवत। दक्षिण भारत में शक संवत अधिक प्रचलित रहा है- शायद सातवाहन से जुड़े रहने के कारण- लेकिन शक संवत का प्रारंभ किसके द्वारा हुआ, इसमें मतभेद बरकरार है। शक संवत का प्रारंभ 78ई. से माना जाता है, जो कुषाण नरेश कनिष्क के राज्यारोहण की भी तिथि है। यद्यपि यही तिथि गौतमी पुत्र शातकर्णी की भी है, लेकिन तिथि समानता मतभेदों की गंुजाइश तो पैदा ही कर देती है।

लेकिन दोनों में ही एक बात लक्ष्य करने की है- दोनों ही ‘शकरि‘ कहे जाते हैं, यानी दोनों ने ही विदेशी हमलावर शकों को पराजित करके अपने गौरव की स्थापना की और दोनों ने ही अपने संवत्सरों की प्रारंभ तिथि परंपरा से चली आ रही नवसंवत्सर तिथि को ही अपनाया- यानी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही दोनों संवत्सर प्रारंभ होते हैं। दोनों के महीने जरूर अलग-अलग शुरू होते हैं, लेकिन वर्षारंभ की तिथि एक ही है। दोनों में करीब 135 वर्ष का अंतर है। ऐसा लगता है कि शकों को पराजित करने के बाद विक्रम ने प्रचलित संवत को अपना नाम दिया, तो शालिवाहन ने भी उसी का अनुकरण करते हुए शकोे पर विजय प्राप्त करने के बाद प्रचलित संवत को अपना नाम दे दिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस देश ने अपने पारंपरिक संवतों में से एक को राष्ट्रीय संवत का रूप देने का निश्चय किया। इसके लिए उन्होंने शक संवत को चुना, लेकिन ईसाई संवत की नकल में उन्होंने इसके भी महीनों की तिथियां स्थिर कर दी और चौथे वर्ष ‘लीप इयर‘ का भी विधान कर दिया। लेकिन यह संवत प्रचलित नहीं हो पाया। इसकी सीमा केवल सरकारी दस्तावेजों तक रह गयी। चूंकि चांद्र मास के अनुसार अपने धार्मिक व सांस्कृतिक कार्यक्रमों का अभ्यासी भारतीय चित्त इसे स्वीकार नहीं कर पाया। अब उत्तर दक्षिण में संवत्सरों के दो नाम भले ही प्रचलित हों या उनके महीनों का आरंभ-अंत अलग-अलग पक्षों से /उत्तर में कृष्ण पक्ष से दक्षिण में शुक्ल पक्ष से/ भले ही होते हों, लेकिन दोनों ही क्षेत्र अपना वर्षारंभ एक ही दिन मानते हैं। उनके क्षेत्रीय नाम अलग-अलग हो सकते हैं, उत्सव विधियों के कर्मकांड अलग हो सकते हैं, किंतु उनमें आधारगत कोई भेद नहीं है।

अपने देश में हर्षोल्लास के सभ्ी अवसरों पर पूजन आदि का विधान है। उपर उल्लिखित ब्रह्मांड पुराण में कहा गया है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को नये संवत्सर की पूजा करनी चाहिए। पुराने ग्रंथों- ‘उत्सव-चंद्रिका‘, ‘ज्योतिर्निबंध‘, ‘पंचांग-पारिजात‘ एवं ‘कृत्य कल्पतरु‘ आदि में इसका पूजा विधान दिया गया है। गृहस्थ परिवारों के लिए बताया गया है कि इस अवसर पर अपने घरों में ध्वजारोहण करें, स्वस्तिपाठ का आयोजन करें, नये वस्त्र धारण करें, गुरु-देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त करें और नृत्य गीत के साथ उत्सव मनाएं। पूरे वर्ष व्याधि मुक्त रहने के लिए इन पूजा विधानों में कुछ आयुर्वेदिक औषधि सेवन को भी जोड़ दिया गया। बताया गया कि इस दिन नीम /परिभद्र/ के फूल व कोमल पत्तों में काली मिर्च, लवण, हींग, जीरा तथा अजवायन मिलाकर खाना चाहिए /परिभद्रस्य पत्राणि कोमलनि विशेषतः। सपुष्पाणि सम्मदाय चूर्णंकृत्वा विधानतः। मरीचं, लवणं, हिंगू, जीरकेन च संयुतम। अजमोद युतं कृत्वा भक्षयेद, रोग शांतये/। इसी विधान के अलग-अलग रूप अलग-अलग क्षेत्रों में प्रचलित हैं। आंध््रा प्रदेश में इस दिन षड़रस पच्चड़ी इसी परंपरा की देन है। महाराष्ट्र में इस प्रतिपदा को ध्वज के रूप में एक गुड़ी सजाते हैं, जिसे बांस में बांधकर घ्र के आंगन में स्थापित करते हैं या खिड़की से बाहर लटकाते हैं। इस गुड़ी के कारण ही वहां इस प्रतिपदा को ‘गुड़ी पड़वा‘ का नाम मिल गया है। देवताओं व गुरुवों का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उनकी पूजा अर्चना का विधान है। कलश स्थापना पूर्वक देवी दुर्गा का व्रत पूजन या वैष्णवों द्वारा रामायण पाठ व भजन कीर्तन का आयोजन इसीलिए किया जाता है। इस दिन नवसंवत्सर का वर्ष के आर्थिक व पारिवारिक कार्यक्रम निर्धारित किये जा सकें।

आज लगभ्ग पूरा भारत वर्ष एक राजनीतिक इकाई में बदल चुका है, इसलिए इसकी सांस्कृतिक आवश्यकता है कि उसके पांरपरिक कैलेंडर में भी एकरूपता कायम की जाए। विक्रम संवत का प्रारंभ आज केवल एक प्राकृतिक नवसंवत्सर का प्रारंभ ही नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय गौरव, संस्कृति और परंपरा का उत्सव पर्व भी है।

ईसा पूर्व पहली शताब्दी में उज्जैन में कोई विक्रमादित्य हुआ या नहीं, इतिहासकार इस पर बहस करते रह सकते हैं, लेकिन भारतीय जनमानस में विक्रमादित्य भारतीय गौरव के रूप में प्रतिष्ठापित हैं। वह इस देश में न्याय के प्रतीक हैं, विद्या के प्रतीक हैं, कला के प्रतीक हैं, विदेशी आक्रांताओं को परास्त करने वाले भारतीय शौर्य के प्रतीक हैं। आधुनिक इतिहास उनके अस्तित्य की पुष्टि करे या न करें, किंतु भारत का पारंपरिक साहित्य विक्रमादित्य की कथाओं से भरा है। शास्त्रीय ग्रंथों से लेकर लोककथाओं तक उनकी व्याप्ति है। भविष्य पुराण, स्कंद पुराण, वृहत्कथा, कथा सरित्सागर से लेकर बेताल पच्चीसी व सिंहासन बत्तीसी तक उनकी कहानियां फैली पड़ी हैं। विक्रमादित्य का सिंहासन न्याय की असंदिग्ध पीठ के रूप विख्यात है। विक्रमादित्य इस देश में लोक कल्याणकारी राज्य के स्थापक, महान्यायवादी, प्रजा पालक, महादानी, जनसेवक, विद्या प्रेमी, नीति कुशल, अद्भुत समन्वयकर्ता व अप्रतिम योद्धा के रूप में स्थापित हैं। उन्हें इस देश के प्रथम विश्वविद्यालय विक्रमशिला /जिसे बाद में पाल वंशी राजा धर्मपाल ने पूर्ण विश्व विद्यालय का रूप दिया/ का संस्थापक माना जाता है। उन्होंने अपने समय में प्रचलित सभी संप्रदायों /शैव, वैष्णव, गाणपत्य, सौर, शाक्य, बौद्ध, जैन आदि/ को परस्पर जोड़ने का प्रयास किया। उन्होंने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र चारों वर्णों की कन्याओं से विवाद कर और रनिवास में समान दर्जा देकर एक संदेश देने की कोशिश की। कितने गुण गिनाएं जायें। वह अकारण ही नहीं देश के गांव-गांव तक लोकप्रिय हो गये थे। उनके बाद के यशस्वी राजाओं ने उनके ही अनुकरण पर विक्रमादित्य की उपाधि धारण करना प्रारंभ किया। ज्ञात इतिहास में न्याय का अनुपालक विक्रमादित्य से बढ़कर दूसरा कोई राजा नहीं हुआ। उसके दरबार के नौरत्न आज भी विद्या के क्षेत्र में अपनी-अपनी विद्या के शिरोमणि माने जाते हैं। परंपरा ने बहुत कुछ गड्डमड्ड भी कर दिया है, लेकिन यह भी उनकी अतिविशिष्टता और लोकप्रियता का प्रमाण है।

आश्चर्य है कि ऐसे व्यक्ति का अपने देश में कोई उत्सव नहीं मनाया जाता। वर्ष प्रतिपदा, युगादि आदि के समारोह तो थोड़े बहुत हो जाते हैं, लेकिन इस अवसर पर विक्रमादित्य को तथा उनके चरित्र को शायद ही कोई याद करता हो। क्या यह उचित नहीं कि पूरा देश मिलकर इस युग प्रतिपदा /चैत्र शुक्ल प्रतिपदा/ को अपने पारंपरिक नववर्ष के रूप में मनाएं और इस अवसर पर विक्रमादित्य और उनकी शासन नीतियों का भी स्मरण करें।