सोमवार, 28 नवंबर 2011

शांति प्रयास भी पाकिस्तान की युद्ध नीति का ही हिस्सा

शांति प्रयासों को आगे बढ़ाने की बात: मालदीव में भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह (बोलते हुए) व विदेश मंत्री एस.एम. कृष्ण (बाएं) के साथ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी तथा विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार

पाकिस्तान इन दिनों भारत के प्रति बहुत विनम्र हो गया है। वह शांति व सहयोग के प्रयासों को आगे बढ़ाने की बातें कर रहा है। भारतीय राजनेता भी बहुत प्रसन्न हैं। उन्हें लग रहा है कि उनकी ‘डिप्लोमेसी‘ काम आ रही है, पाकिस्तान बदल रहा है। लेकिन यह सच नहीं है, छलावा है। पाकिस्तान इन दिनों चौतरफा संकट में घिरा है, जिससे बाहर निकलने के लिए उसे कुछ समय चाहिए और चाहिए ‘शांतिप्रियता‘ का मुखौटा। समय निकलते ही वह फिर पुराने तेवर पर आ जायेगा। इसलिए उसके बारे में कोई गलतफहमी नहीं पालनी चाहिए। शेर शाकाहारी हो सकता है, तेंदुआ बेदाग बन सकता है, कुत्ते की पूंछ सीधी हो सकती है, किंतु पाकिस्तान नहीं बदल सकता। वह भारत का हितैषी मित्र कभी नहीं बन सकता।

भारत में इन दिनों इस बात पर बड़ा संतोष व्यक्त किया जा रहा है कि पाकिस्तान उसके साथ शांति और सहयोग के रास्ते पर बढ़ना चाहता है। उसने भारत को सर्वाधिक वरीयता प्राप्त देश (मोस्ट फेवर्ड नेशन) का दर्जा देने का प्रस्ताव किया है। यद्यपि भारत उसे यह दर्जा 15 साल पहले ही दे चुका है, फिर भी इतने दिनों बाद भी यदि उसने जवाबी पहल की है, तो यह स्वागत की बात है। 26/11 के मुंबई हमले की तीसरी बरसी के अवसर पर पाकिस्तान के गृहमंत्री रहमान मलिक ने गत शुक्रवार को कहा कि अगले सप्ताह पाकिस्तान का एक न्यायिक आयोग नई दिल्ली की यात्रा करेगा और 26/11 के आरोपियों के विरुद्ध मामलों की सुनवाई तेज करने के लिए भारत से सहयोग करेगा। उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह तथा गृह मंत्री पी. चिदंबरम के प्रति आभार व्यक्त किया कि उन्होंने संबंधों को सामान्य बनाने और आपसी सहयोग बढ़ाने के मामले में गंभीर प्रयास किया है। उनहोंने पिछले ‘सार्क‘ शिखर सम्मेलन के दौरान दोनों देशें के प्रधानमंत्रियों डॉ. मनमोहन सिंह और यूसुफ रजा गिलानी के बीच करीब एक घंटे तक हुई बातचीत का हवाला दिया और कहा कि दोनों शीर्ष नेताओं ने आपसी शांति कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिए महत्वपूर्ण बातचीत की। इस मुलाकात में 26/11 के आरोपियों के विरुद्ध कार्रवाई को तेज करने का मामला भी उठा और हमें खुशी है कि 10 नवंबर को हुई बातचीत के एक पखवाड़े के भीतर ही पाकिस्तान का न्यायिक आयोग भारत जाने के लिए तैयार है। सोम-मंगल तक यदि सुप्रीमकोर्ट ने आयोग में शामिल होने वाले नामों को तय कर दिया, तो इसी हफ्ते में यह आयोग दिल्ली रवाना हो जायेगा। उन्होंने इस बात को गलत बताया कि पाकिस्तान 26/11 के दोषी पाकिस्तानियों को सजा दिलाने के प्रति गंभीर नहीं है। उन्होंने बताया कि भरत की शिकायत पर लश्कर-ए-तैयबा के एक उच्च अधिकारी जकीउर्रहमान लखवी को गिरफ्तार किया गया और वह अभी भी जेल में है। लखवी को मुंबई हमले की पूरी कार्रवाई का सूत्रधार माना जाता है, लेकिन भारत की नजर में इस हमले का मुख्य योजनाकार इस खूनी संगठन का संस्थापक अध्यक्ष हाफीज सईद है। उसके संदर्भ में रहमान मलिक का कहना है कि भारत ने उसके विरुद्ध पर्याप्त और पुष्ट प्रमाण नहीं दिये। हमने शुरू में उसे गिरफ्तार किया, किंतु सर्वोच्च न्यायालय ने उसे मुक्त कर दिया। उन्होंने भारत से अनुरोध किया है कि वह यथेष्ट प्रमाण दे, तो पाकिस्तान अवश्य कार्रवाई करेगा। मलिक से हाफिज सईद के भारत विरोधी वक्तव्यों व भड़काउ भाषणों के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि ऐसे भाषणों पर पुलिस ने तीन बार उनके विरुद्ध एफ.आई.आर. दर्ज किया, किंतु कोर्ट ने उन्हें रद्द कर दिया। उनका कहना था कि यदि आगे भी हाफिज सईद इस तरह का भाषण देते हैं, तो मेरा वायदा कि हम फिर उनके खिलाफ मामला दर्ज करेंगे। 26/11 की इस तीसरी बरसी के अवसर पर शनिवार को भारत के विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा ने अपने एक वक्तव्य में पाकिस्तान को स्मरण दिलाया कि भारत अभी भी 26/11 के अभियुक्तों के विरुद्ध ठोस कार्रवाई की प्रतीक्षा में है, लेकिन उनका यह वक्तव्य भी एक कर्मकांड पूरा करने जैसा था। उन्होंने एक दिन पहले रहमान मलिक द्वारा दिये गये वक्तव्य के संदर्भ में कहा कि भारत पर्याप्त प्रमाण पाकिस्तान को सौंप चुका है, अब उसकी तरफ से केवल कार्रवाई की प्रतीक्षा है।

एक तरफ सरकारी नेताओं का इस तरह का वक्तव्य है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी तथा विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार पहले ही भारत के साथ शांतिपूर्ण संबंधों के विकास की दिशा में आगे बढ़ने की बातें कर चुके हैं। ‘सार्क‘ (दक्षिण एशियायी देशों के क्षेत्रीय सहयोग संगठन) की इस वर्ष की मालदीव में हुई शिखर बैठक में शायद पहला अवसर था, जब पाकिस्तान की ओर कश्मीर का मुद्दा नहीं उछाला गया। मनमोहन और गिलानी दोनों की बातचीत बड़े ही सौहार्दपूर्ण वातावरण में हुई, जिससे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बहुत संतुष्ट दिखे।

इस सबको देखते हुए यदि यहां के राजनीतिक नेताओं व आम लोगों को भी इस बात की गलतफहमी होने लगे कि अब पाकिस्तान बदल रहा है और वहां के नेता वास्तव में भारत के साथ शांतिपूर्ण संबंध विकसित करना चाहते हैं, तो यह अस्वाभाविक नहीं है। लेकिन सच्चाई यह है कि पाकिस्तान कभी नहीं बदल सकता। भारत के साथ शत्रुता उसका स्थाई भाव है। भारत के पूर्व विदेश सचिव जी. पार्थसारथी ने सही कहा है कि ‘शेर घास खाना शुरू कर सकता है, तेंदुए की चमड़ी के काले धब्बे धुल सकते हैं, कुत्ते की पूंछ सीधी हो सकती है, लेकिन पाकिस्तान कभी नहीं बदल सकता।‘ उनकी यह बात निश्चय ही सौ प्रतिशत सही है। पायिकस्तान वास्तव में भारत के साथ अपनी रणनीति बदलता रहता है। उसकी नीयत और लक्ष्य में कभी कोई बदलाव नहीं आया। भरतीय राजनेता और कूटनीतिज्ञ अक्सर पाकिस्तानी झांसे में आकर धोखा खाते रहते हैं, लेकिन पिछले अनुभवों से कोई सीख लेने का प्रयास नहीं करते।

वास्तव में पाकिस्तान इस समय चौतरफा संकट में है। इस संकट से बाहर निकलने के लिए उसने अपनी रणनीति बदली है। सच कहा जाए तो ‘शांति‘ भी उसके लिए भारत के विरुद्ध इस्तेमाल किये जाने वाला एक हथियार है। जब सेना नाकाम हो गयी, आतंकवादी हमले भी काम में नहीं आए, तो अब उसने ‘शांति‘ के अस्त्र से भारत को परास्त करने या कम से कम उसकी आक्रामकता को कुंठित करने का निश्चय किया है। पाकिस्तान का सबसे बड़ा संकट यह है कि उसका दोगलापन अब पूरी दुनिया के सामने जाहिर हो गया है। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में साथ देने का वायदा करके पश्चिमी देशों को ठगने की उसकी चाल का पूरा भंडाफोड़ हो गया है। अब सब लोग यह जान गये हैं कि पूरी दुनिया में इस्लामी आतंकवाद का निर्यात करने वाला देश पाकिस्तान ही है। अब यह पता चल गया है कि पिछले 10-11 वर्षों से वह लगातार अमेरिका को धोखा देता आ रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ संघर्ष में पाकिस्तान का सहयोग पाने के लिए उसकी आर्थिक सहायता बढ़ाने का निर्णय लिया। लेकिन जब से यह पता चला है कि अमेरिका अफगानिस्तान में जिन तालिबानों से लड़ रहा है, वे सब तो पाकिस्तान के ही पिट्ठू हैं और पाकिस्तानी सेना की मदद लेकर स्वयं अमेरिकी सेना पर हमला कर रहे हैं। उसके बाद अब अमेरिकी विपक्ष संसद में सरकार पर दबाव डाल रहा है कि पाकिस्तान की सहायता बंद की जाए या उसे अत्यधिक कम किया जाए।

इससे पाकिस्तानी सरकार का संकट बढ़ गया है। उसके कुछ नेता व सैन्य अधिकारी अपने बड़बोले पर में यह कह जरूर रहे हैं कि उन्हें कोई अमेरिकी सहायता नहीं चाहिए। उनका देश बिना अमेरिकी सहायता के भी काम चला सकता है। लेकिन उन्हें पता है कि अमेरिकी सहायता के बिना उनका जीना मुश्किल हो जायेगा। कोई दूसरा देश उन्हें उतनी सहायता नहीं दे सकता, जितनी अमेरिका दे रहा है। पाकिस्तानी नेताओं ने चीन को अमेरिका का विकल्प बनाने की संभावना को भी तलाश लिया है। चीन पाकिस्तान को सैनिक सुरक्षा संभावना को भी तलाश लिया है। चीन पाकिस्तान को सैनिक सुरक्षा का आश्वासन दे सकता है, उसे हथियार दे सकता है, उसके सैनिक अड्डों का विकास कर सकता है, लेकिन वह उसे सारी सैनिक सहायता के अतिरिक्त हर वर्ष डेढ़ अरब डॉलर की नकद सहायता नहीं कर सकता। अमेरिकी सरकार पाकिस्तान से धोखा खाने के बाद भी उसकी सहायता करने के लिए तैयार है, क्योंकि वह उसे अपने आधिपत्य से बाहर नहीं जाने देना चाहता, लेकिन वह अपने देश की प्रबुद्ध जनता व विपक्ष को क्या समझाए। यद्यपि बहुत से पारंपरिक सोच वाले अमेरिकी अभी भी पाकिस्तान को अपना मित्र मानते हैं और उसे ‘नाटो‘ (नाथर्् एटलांटिक ट्रीटी आर्गनाइजेशन)के बाहर का सबसे बड़ा सहयोगी देश (मेजर नान नाटो एलाई) मानते हैं, लेकिन ज्यादातर जागरूक अमेरिकी अब पाकिस्तान को अपना शत्रु मानते हैं। इसीलिए शायद एक अमेरिकी पत्रकार ने पाकिस्तान के लिए एक नया वाक्यांक्ष गढ़ा है- ‘फ्रेनेमी ऑफ यू.एस.‘ (अमेरिका का दुश्मन-दोस्त)। ऐसे में अमेरिकी सरकार का पाकिस्तान पर दबाव पड़ रहा है कि यदि वह अमेरिकी सहायता पाते रहना चाहता है, तो अपने को बदले। नहीं बदलेगा तो अमेरिका उसकी सहायता जारी नहीं रख सकेगा। जाहिर है कि पाकिस्तान इस संकट से उबरने के लिए भारत के साथ थोड़े दिन का संघर्ष विराम चाहता है।

अभी इस 26/11 की बरसी के ठीक पहले गुरुवार तथा शुक्रवार को लश्कर-ए-तैयबा ने लाहौर तथा मुजफ्फराबाद में भारत के विरुद्ध जबर्दस्त रैली का आयोजन किया। रैली लश्कर-ए-तैयबा के नये अवतार जमात-उद-दवा के झंडे तले आयोजित की गयी, जिसमें भारत के विरुद्ध जमकर जहर उगला गया। भारतीय राष्ट्रध्वज को आग लगायी गयी तथा उसे जूतों तले रौंदा गया। लाहौर की रैली में पूरे सूबे से लोग आए। बसों, ट्रैक्टर ट्रालियों तथा मोटर साइकिलों पर सवार दूर-दूर से लोग इसमें भाग लेने पहुंचे। जमात-उद-दवा व लश्कर-ए-तैयबा के अलावा अन्य जिहादी संगठनों के लोग भी इसमें शामिल हुए। सब ने भारत को सर्वाधिक तरजीही देश (मोस्टर फेवर्ड नेशन) का दर्जा देने का प्रस्ताव का तिव्र विरोध किया और कहा कि भारत के साथ केवल ‘नफरत और गोली‘ का संबंध हो सकता है, दूसरा कोई संबंध संभव नहीं। भारत कभी भी पाकिस्तान का सर्वाधिक तरजीही देश नहीं बन सकता।

लाहौर की रैली में जमात के नेता अमीर हम्जा ने कहा कि हमारे नेता हाफिज सईद ने कश्मीर हुर्रियत कांफ्रेंस के नेता अली शाह गिलानी को विश्वास दिलाया है कि वह भारत को तरजीही राष्ट्र का दर्जा दिये जाने का तीव्र विरोध करेंगे। भारत कभी भी पाकिस्तान का पसंदीदा मुल्क नहीं हो सकता। यहां यह ध्यान देने की बात है कि लाहौर की रैली में सिर्फ जिहादी संगठनों के लोग ही नहीं शामिल हुए थे, बल्कि पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज गुट) के लोग भी शरीक हुए थे। पाकिस्तान ने भारत को सर्वाधिक तरजीही राष्ट्र का दर्जा अभी दिया नहीं है, केवल प्रस्ताव किया है, जिसके बारे में निर्णय पाकिस्तानी संसद को करना है। रहमान मलिक साहब फरमाते हैं कि हाफिज सईद यदि भरत के विरुद्ध कोई भड़काउ बयानबाजी करते हैं, तो वह फिर उनके खिलाफ मामला दर्ज करायेंगे। पाकिस्तान में इस तरह का मामला दर्ज कराये जाने का अर्थ क्या है? जहां न्यायालय, सेना, पुलिस, गुप्तचर संगठनों तथा जिहादी संगठनों में कोई फर्क नहीं है। मुंबई में 170 लोगों की हत्या के अभियुक्त जिस हाफिज सईद को गिरफ्तार किया जाता है, उसे किसी जेल में नहीं डाला जाता, बल्कि उसके अपने महल में नजरबंद किया जाता है और पुलिस उसकी चौतरफा सुरक्षा करती है। अदालत उन्हें बाइज्जत रिया कर देती है। सरकार उन्हें गिरफ्तार तो करती है, लेकिन अदालत में उनके खिलाफ कोई आरोप पेश ही नहीं करती, इसलिए अदालत को भी उन्हें बाइज्जत रिहा करने में सुविधा होती है। जिन्हें गिरफ्तार करके जेल में रखा भी जाता है, उन्हें वहां वी.आई.पी. की सुविधा दी जाती है। वे केवल दुनिया को दिखाने के लिए जेल में होते हैं, अन्यथा वे अपने घ्र से भी अधिक सुविधाओं का वहां उपभोग करते रहते हैं। जैसे लखवी, जिन्हें जेल में मोबाइल के उपयोग की सुविधा भी प्राप्त है और वह वहां रहकर भी अपने संगठन के उपयोग की संचालन करता रहता है।

पाकिस्तान जब भी दबाव में पड़ता है, तो उसके राजनेता उपर से मैत्री का दिखावा शुरू कर देते हैं, जिससे कि उन्हें संभलने का अवसर मिल जाए और वे अपनी भारत विरोधी रणनीति और पुख्ता कर लें। 1970 के दशक में राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक ने यही रणनीति चली थी। उस समय भारत के नेताओं और अधिकारियों ने उसका गलत आकलन किया। तत्कालीन विदेश सचिव जगत मेहता ने जिया उल हक को उदार (माडरेट) नेता समझाा था और उनका आकलन था कि जिया उल हक अपदस्थ प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी की सजा नहीं देंगे। लेकिन आकलन गलत निकला। भुट्टो को फांसी दी गयी और जिया के समय में पाकिस्तान का इस्लामी कट्टरपन और सख्त हुआ। संविधान में संशोधन हुआ। ईशनिंदा कानून बना। स्कूलों में भारत विरोधी शिक्षा को प्रोत्साहन दिया गया। पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम तेज हुआ। चीनी सहयोग से पाकिस्तान परमाणु बम बनाने में सफल हुआ। यह सब भारत की कूटनीतिक विफलता का परिणाम था। भारत ने यह मान लिया था कि पाकिस्तान की तरफ से अब कोई खतरा नहीं है, क्योंकि पाकिस्तानी शासक उपरी तौर पर मैत्री संबंध बढ़ाने का दिखावा करते रहे। पिछली शताब्दी के अंतिम वर्षों की कहानी लोग जानते ही है कि किस तरह भारत के पूर्व प्रधानमंत्री पाकिस्तान के लिए मैत्री का संदेश लेकर एक बस में बैठकर लाहौर गये और पाग प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने उनका स्वागत करते हुए शांति और मैत्री की मीठी-मीठी बातें की, ठीक उसी समय पाकिस्तानी सेना के घुसपैठिये कारगिल पहाड़ी के भारतीय क्षेत्र में अपना कब्जा जमाने में लगे थे।

आज की स्थिति भी कमोबेश वैसी ही है। हम पाकिस्तान को एकतरफा सुविधाएं देकर शांति खरीदना चाहते हैं। पाकिस्तान ने अभी भारत को तरजीही राष्ट्र का दर्जा देने की औपचारिकता भी पूरी नहीं की है, लेकिन हमने पाकिस्तानी व्यापारियों के लिए वीसा के नियम सरल करने, पूरे एक वर्ष के लिए विशेष वीसा देने का आदेश जारी कर दिया है।

भारत के लोग वास्तव में पाकिस्तान की मानसिकता को नहीं समझते। मजहबी रुढ़िवाद व कट्टरतावाद तो उसका एक हिस्सा मात्र है। वास्तव में पाकिस्तान की नई पीढ़ी का इस तरह ‘ब्रेन वाश‘ कर दिया गया है कि वह भारत को भी पाकिस्तान का अंग मानती है। दक्षिण एशिया के पूरे इलाके के मालिक मुस्लिम रहे हैं, हिन्दू नहीं, यह धारणा तो इस क्षेत्र के प्रायः पूरे मुस्लिम समाज की रही है, केवल पाकिस्तान की नहीं, मगर पाकिस्तान के लोग तो हिन्दुस्तान की अवधारण को ही स्वीकार नहीं करते। उनका कहना है कि हिन्दुस्तान तो उनका दिया हुआ नाम है, जो गंगा घाटी पर कब्जा करने के बाद उन्होंने उसे दिया। पाकिस्तानी इतिहासकार मानते हैं कि मोहम्मद बिन कासिम पहला पाकिस्तानी था, जिसने सिंध और पंजाब पर हमला किया और उस पूरे क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। उनकी धारणा है कि अधिकांश पाकिस्तानी अरब से आए हुए या वहां के विस्थापित लोग हैं। वे यह भी समझते हैं कि अंग्रेजों के या यूरोपियों को दक्षिण एशिया में आने के पूर्व इस पूरे इलाके पर मुसलमानों का ही अधिकार था, इसलिए यदि अंग्रेज इस इलाके को छोड़कर गये, तो वास्तव में इस पूरे क्षेत्र पर मुसलमानों को कब्जा मिला चाहिए था। इस क्षेत्र में 1857 का प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम भी मुस्लिम नेतृत्व में लड़ा गया। क्रांतिकारियों ने अंतिम मुगल शासक बहादुर शह जफर को ही अपना नेता स्वीकार करके स्वातंत्र्य का संघर्ष छेड़ा था। यह लड़ाई उनकी थी, यह देश उनका था, किंतु हिन्दुओं ने तिकड़म करके मुसलमानों का यह अधिकार छीन लिया और उन्हें पाकिस्तान के नाम पर एक छोटा इलाका ही मिल सका। इसलिए जैसे भी हो, उन्हें इस पूरे इलाके पर अपना अधिकार कायम करना है। उनकी इस धारणा को कई अंग्रेज इतिहासकारों से भी जाने अनजाने समर्थन मिला। प्रख्यात पुरातत्वज्ञ ह्वीलर ने एक पुस्तक लिखी ‘5000 इयर्स ऑफ पाकिस्तान‘ (पाकिस्तान के 5000 वर्ष)। उन्होंने पाकिस्तानी क्षेत्र के 5 हजार साल के पुरातात्विक इतिहास का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया, लेकिन अपनी पुस्तक के शीर्षक से उन्होंने पाकिस्तान के इतिहास को 5000 साल पुराना बता दिया।

यह सही है कि मुहम्मद बिन कासिम से इस क्षेत्र में मुस्लिम राजनीतिक आधिपत्य की शुरुआत होती है। कासिम का जन्म आज सउदी अरब इलाके के शहर तैफ में हुआ था। वह उम्मैद खलीफा का सैनिक कमांडर था। सिंध और पंजाब के क्षेत्र को जीत कर उसने भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लामी शासन की स्थापना की । इसका ज्यादातर इलाका इस समय पाकिस्तान में है। इसलिए पाकिस्तान की आज की पीढ़ी यह मानती है कि वे भारतीय मूल के नहीं, बल्कि अरबी मूल या अरबी नस्ल के हैं, तो कोई बहुत गलत बात नहीं। उन्हें जिस तरह की शिक्षा दी जाएगी, वैसी ही उनकी मानसिकता बनेगी। 695 ई. में जब मुहम्मद बिन कासिम का भारत पर हमला हुआ, यहां सम्राटों का युग समाप्त हो चुका था। लेकिन इस देश का सांस्कृतिक अस्तित्व किसी सम्राट या उसके साम्राज्य के राजनीतिक प्रभाव पर निर्भर नहीं था, इसलिए भारतीय संस्कृति का अस्तित्व या उसकी सांस्कृतिक राष्ट्रीयता सदैव विद्यमान नहीं, जिसके कारण मुस्लिम साम्राज्य भले कुछ समय के लिए इस पूरे उपमहाद्वीप पर छा गया हो, लेकिन इस्लाम का अधिपत्य कभी कायम नहीं हो सका। यह सांस्कृतिक युद्ध लगातार तबसे चला आ रहा है, जब कासिम ने हमला किया था और अब भी जारी है। आज का पाकिस्तान अभी भी अपने को मुहम्मद बिन कासिम या उसके बाद के उन बादशाहों का उत्तराधिकारी समझता है, जिन्होंने इस भारत देश पर राज्य किया और उस हैसियत को फिर से पाना चाहता है। इसलिए पाकिस्तान ने कभी बदल सकता है, न भारत का कभी मित्र हो सकता है और न कभी सेकुलर लोकतंत्र का समर्थक बन सकता है। वह अवसर देख कर अपनी रणनीति बदलने में कुशल है, क्योंकि कुशल युद्ध नीति का यही तकाजा है कि विपरीत समय में दो कदम पीछे हट लो, जरूरत पड़े तो अधीनता भी स्वीकार कर लो, अपनी रक्षा करो और शक्ति बढ़ाओ, जिससे अवसर मिलने पर दुगुनी ताकत से हमला करके निर्णायक विजय हासिल की जा सके। भारत के राजनेता और रणनीतिकार यदि इसे नहीं समझें, तो भविष्य की पीढ़ी की नजर में अपनी साख तो गंवाएंगे ही, साथ ही इस देश को पहले से घेरे हुए खतरे को और बढ़ाने का भी काम करेंगे। हमें इतिहास से सबक सीखना चाहिए, नहीं तो भविष्य हमारा अस्तित्व मिटा देगा।

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

अपने अस्मिता लोप के खतरे में पड़ा उत्तर प्रदेश


प्रस्तावित विभाजन
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने भारत के इस प्रतिनिधि राज्य के चार टुकड़े करने का प्रस्ताव किया है। यह प्रस्ताव यदि केंद्र सरकार द्वारा स्वीकृत कर लिया गया, तो देश् में 4 नये प्रदेश जुड़ जायेंगे और उत्तर प्रदेश का लोप हो जायेगा। यद्यपि किसी देश की भीतरी इकाइयों के विभाजन, पुनर्गठन या नाम परिवर्तन को कोई बड़ी बात नहीं माना जाता, किंतु जैसे किसी राष्ट्र की सीमाओं या स्वरूप का कोई ऐतिहासिक या सांस्कृतिक आधार होता है, उसी तरह इतिहास के विकासक्रम में स्वतः गठित हुए राज्यों की भी एक ऐतिहासिक व सांस्कृतिक अस्मिता होती है, जिसे केवल कुछ व्यक्तियों या दलों के राजनीतिक लाभ के लिए नष्ट नहीं किया जाना चाहिए।

बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष तथा उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने अपने इस राज्य को चार टुकड़ों में विभाजित करके चार नये राज्य बनाने का निर्णय लिया है। उनकी कैबिनेट ने उनके इस प्रस्ताव पर अपनी मुहर भी लगा दी है। अब यह प्रस्ताव विधानमभा के इसी सप्ताह शुरू होने जा रहे सत्र में पेश किया जाने वाला है। उसके पास होने में कोई दिक्कत है नहीं, इसलिए विधानसभा से पारित यह प्रस्ताव केंद्र सरकार के पास भेजा जायेगा। किसी राज्य के विभाजन या नये राज्य के निर्माण का पूरा अधिकार केंद्र के पास है। इसके लिए किसी विधानसभा के प्रस्ताव की कोई आवश्यकता नहीं, किंतु मायावती का कहना है कि इस विभाजन के बारे में वह केंद्र सरकार को कई बार पत्र लिख चुकी हैं, पर वह ध्यान नहीं देती, इसलिए इस बार वह अपना अनुरोध बाकायदे विधानसभा के प्रस्ताव के रूप में उसके पास भेजना चाहती हैं, जिससे केंद्र सरकार इस बात को समझे कि वह कोई अकेली उनकी इच्छा नहीं, बल्कि पूरे राज्य के बहुमत की इच्छा है कि 80 सांसदों वाले इस राज्य को कम से कम चार राज्यों में बांट दिया जाए। मायावती ने इन राज्यों के नाम भी प्रस्तावित कर दिया है- पूर्वांचल, अवध् प्रदेश, बुंदेलखंड तथा पश्चिम प्रदेश। इनका नक्श भी तय हो गया है और इसके साथ ही यह भी तय हो गया है कि किस राज्य में कितने और कौन-कौन से जिले, कितनी लोकसभा सीटें तथा कितनी विधानसभा सीटें आयेंगी।

ऐसे धमाकेदार प्रस्ताव पर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं आना स्वाभाविक है, लेकिन प्रायः सारी प्रतिक्रियाएं राजनीतिक लाभ-हानि तथा प्रशासनिक सुविधा-असुविधा व आर्थिक विकास की संभावनाओं को लेकर ही आ रही हैं। ऐसी कोई भी प्रतिक्रिया प्रमुखता से अब तक सामने नहीं आयी, जो इस प्रदेश के ऐतिहासिक व सांस्कृतिक महत्व या उसको पहुंचने वाली क्षति से जुड़ी हो या उसे रेखांकित करती है। ऐसा नहीं कि यह प्रदेश केवल अपनी विशाल जनसंख्या व सांसदों की संख्याबल से केंद्र की राजनीति को ही प्रभावित करता रहा है, बल्कि यह भरतीयता और भारतीय राष्ट्र की एक ऐतिहासिक व सांस्कृतिक मूर्ति भी गढ़ता रहा है। जहां तक राजनीतिक प्रभाव की बात है, तो यह विखंडित होकर भी वह करने में सक्षम रहेगा, क्योंकि राजनीतिक प्रभाव, क्षेत्र से नहीं, बल्कि उस क्षेत्र में सर्वाधिक प्रभाव वाले राजनीतिक दल के कारण पड़ता है। इस प्रदेश में जब तक कांग्रेस शक्तिशाली थी, तब तक ही लगता था कि पूरा देश इसी प्रदेश से नियंत्रित हो रहा है, लेकिन उसके हाशिये में जाने के बाद इसकी वह स्थिति नहीं रही। इसलिए विभाजन के बाद भी क्षेत्र की राजनीतिक हैसियत में कोई बदलाव आने वाला नहीं है। किंतु यह प्रदेश इस देश का जो सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व करता था, वह अवश्य टूट जायेगा। उत्तर प्रदेश अब तक क्षेत्रवादी भावनाओं से मुक्त सचमुच इस देश का प्रतिनिधित्व करता रहा है। यह अपने को पूरे भारत का सम्पिंडित रूप समझता रहा है। देश के किसी कोने के व्यक्ति के लिए यहां पराएपन का भाव नहीं था। स्वयं के लिए भ्ी कोई भिन्न भाव बोध नहीं था। इसलिए इसके पास कोई आंचलिक अहंकार भी नहीं था। सबके साथ मिल जाना और सबको मिला लेना इसकी प्रकृति रही है। इस देश को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में बांधने वाले राम, कृष्ण और शिव के मूल केंद्र और अनादि भारतीय सांस्कृतिक प्रवाह का प्रतिनिधित्व करने वाली गंगा-यमुना की धाराएं इसी प्रदेश में बहती रही हैं। उनका महान संगम भी इसी प्रदेश के हृदयस्थल में हुआ। संयोगवशात ही इस प्रदेश ने वह रूप ले लिया था कि गंगा-यमुना का उद्गम, उनका पर्वतों से मैदान में अवतरण और फिर उनका संगम सब कुछ इस प्रदेश की सीमा में सिमट गया। लेकिन राजनीतिक स्वार्थ दृष्टि से इस सांस्कृतिक प्रतिमा का विखंडन वर्ष 2000 यानी इस शताब्दी के पहले ही वर्ष में शुरू कर दिया, जब इसका शिरोभाग अलग करके उत्तराखंड नाम से एक अलग राज्य बना दिया गया। अब इसके चार और टुकड़े करने का प्रस्ताव है। यदि यह प्रस्ताव स्वीकृत हो गया और चार नये राज्य बन गये, तो उसके साथ ही ‘उत्तर प्रदेश‘ का यह नाम भी विलीन हो जायेगा। और फिर इसके साथ ही अंत हो जायेगा एक इतिहास का एक सांस्कृतिक बोध का और एक क्षेत्रीयता की भावना से मुक्त सामाजिक सोच था।

वर्तमान उत्तर प्रदेश प्राचीन आर्यावर्त क्षेत्र का मुख्य भाग था। पुराण प्रसिद्ध प्राचीनतम राजवंशों-सूर्यवंश और चंद्रवंश दोनों की क्रीड़ा भूमि यही क्षेत्र था। भारतीय संस्कृति के निर्माता राम, कृष्ण ही नहीं बौद्धदर्शन के प्रवर्तक भगवान बुद्ध भी इसी क्षेत्र के थे। जैन संप्रदाय के अंतिम तीर्थंकर स्वामी महावीर का जन्म और निर्वाण भले ही बिहार में हुआ हो, लेकिन उनकी भी चारिका ज्यादातर इसी क्षेत्र में हुई। 23 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ तो काशी के ही थे, जो उत्तर प्रदेश में आता है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव सहित अधिकांश तीर्थंकरों की जन्मस्थली यही क्षेत्र है। चार तीर्थंकर तो अयोध्या में ही थे। इतिहास प्रसिद्ध प्रमुख वैदिक व वैदिकोत्त ऋषियों वशिष्ठ, विश्वामित्र, भरद्वाज, पतंजलि आदि के आश्रम इसी क्षेत्र में थे।

इस तरह ब्राह्मण, वैष्णव, जैन, बौद्ध इन चारों धर्मों की मुख्य भूमि यही प्रदेश है। भक्तिकाल के तुलसी, सूर, कबीर, जायसी जैसे महाकवि इसी भूमि के हैं। राजनीतिक दृष्टि से देखें तो उपर्युक्त पौराणिक राजवंशों के बाद इतिहास काल के तीन प्रमुख महाजनपद काशी-कोशल-कुरु इसी क्षेत्र में आते हैं। इस पूरे क्षेत्र पर आधिपत्य के बिना कोई भी राजा-महाराजा सम्राट कहलाने का अधिकारी नहीं बन सका। गुप्तकाल, हर्षवर्धन काल और उसके बाद के राजपूत काल में इस क्षेत्र की अपनी केंद्रीय राजनीतिक भूमिका रही। राजधानियों के केंद्र कहीं रहे हों, लेकिन अधिकतर आर्थिक, राजनीतिक व सामरिक गतिविधियों का केंद्र यह क्षेत्र ही रहा। 10 वीं शताब्दी के बाद दिल्ली के इस्लामी सल्तनत काल में भी यह क्षेत्र एक इकाई बना रहा। मुगलिया सल्तनत काल में भी गंगा-यमुना-रसयू का यह क्षेत्र ही उसका हृदय प्रदेश था और मुगल शासकों ने ही इस क्षेत्र को ‘हिन्दुस्तान‘ का नाम दे रखा था।

मुगलवंश के राजाओं हुमायू और अकबर के बीच के काल में इस पूरे क्षेत्र पर अपना एकछत्र राज्य काम करने वाले भारतीय राजा हेमचंद को तो आज लोग भूल चुके हैं, लेकिन उत्तर मध्यकाल में ‘विक्रमादित्य‘ की उपाधि धारण करने वाला वह एकमात्र भारतीय विजेता है, जिसने मुगलों को भी पराजित किया और उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश तथा बंगाल के कुछ हिस्सों को मिलाकर अपना साम्राज्य स्थापित किया और दिल्ली के पुराने किले में पारंपरिक भारतीय रीति से अपना राज्याभिषेक कराया और ‘सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य‘ का नाम धारण किया। उसने 22 लड़ाइयां लड़ीं और सबमें विजय हासिल की। उसने अकबर की सेना को भी परास्त किया। संयोगवश उसका राज्य अत्यल्पजीवी रहा। अकबर के दुबारा हुए हमले के समय पानीपत के मैदान में चल रहे युद्ध में अचानक एक तीर उसकी आंख में आ गया और वह अपने हाथी के हौदे में गिर गया। हाथी पर अपने सम्राट को न देखकर उसकी सेना ने मैदान छोड़ दिया और अकबर हारी हुई लड़ाई जीत गया। हेमंचद्र का सिर काट कर फरगाना ले जाया गया और वहां दिखाया गया कि देखो उस अजेय कहे जाने वाले हिन्दू सम्राट को मार डाला गया है। वास्तव में नवयुवक अकबर की सेना के तमाम अधिकारी और उसके अपने सलाहकार हेमचंद्र पर हमले के पक्ष में नहीं थे, उन सबका कहना था कि हेमचंद्र बहुत शक्तिशाली है, उसे अभी हजाया नहीं जा सकता, केवल बैरम खां चाहते थे कि जो भी हो, हमें हमला करना चाहिए। अकबर ने बैरम की राय मान ली और उसका सितारा चमक उठा। हेमचंद्र का सिर जहां फरगाना में लटकाया गया, वहीं उसका धड़ दिल्ली के उसके किले पर लटकाया गया, जिससे दिल्ली की जनता अपने सम्राट का हश्र देख ले और अकबर का आधिपत्य स्वीकार कर ले।

उत्तर प्रदेश का यह क्षेत्र सम्राट हेमचंद्र के राज्य का भी हृदय प्रदेश था। दिल्ली के सम्राट के पद पर शायद वह केवल एक महीने ही रह सका, क्योंकि भाग्यलक्ष्मी ने उसका साथ नहीं दिया, फिर भी उसने उत्तर प्रदेश कहे जाने वाले क्षेत्र पर अपनी अमिट छाप छोड़ी, क्योंकि इसकी ही सांस्कृतिक चेतना और शौर्य के बल पर उसने अपना साम्राज्य स्थापित किया था। मुगलकालीन उत्तर प्रदेश के इतिहास पर अब तक बहुत कम काम हुआ है। इतिहास मुगल शासन के बाद सीधे नवाबी शासन पर आ जाता है और लखनउ के नवाबों का गुणगान करने लग जाता है। वह उन स्थानीय संघर्षों का लेखा-जोखा तैयार करने में रुचि नहीं लेता, जो पूरे मुगलकाल में जारी रहा।

देश के स्वतंत्र होने के बाद उत्तर प्रदेश के नाम से जो प्रांत सामने आया, वह अंग्रेज बहादुरों की देन है। इसके बदलते नामों और भौगोलिक आकार का इतिहास भी बड़ा रोचक है, लेकिन एक बात उल्लेखनीय है कि अंग्रेजों की इस संरचना में उत्तर प्रदेश भारतीयता की एक संपूर्ण इकाई बना रहा, जिसे विखंडित करने का कार्य अब स्वतंत्र भारत में शुरू हुआ है।

18वीं शताब्दी में बंगाल पर कब्जे के बाद उत्तर प्रदेश में अंग्रेजों की जो विजय यात्रा शुरू हुई, वह 19वीं शताब्दी के प्रारंभ तक बनारस, बुंदेलखंड, कुमायूं, गढ़वाल व गंगा के दो आब से होकर दिल्ली, अजमेर और जयपुर तक पहुंच गया। यह पूरा क्षेत्र पहले बंगाल, प्रेसीडेंसी के अंतर्गत था और वहीं से शासित होता था, लेकिन बंगाल से इतनी दूर तक का शासन सूत्र संभालना उस समय मुश्किल था, इसलिए 1833 में बंगाल प्रेसीडेंसी का विभाजन कर दिया गया और उसके पश्चिमी हिस्से को ‘प्रेसीडेंसी ऑफ आगरा‘ नाम दिया गया। फिर 3 साल बाद ही इसे ‘नार्थ वेस्टर्न प्राविंसेज‘ (ऑफ आगरा) का नाम दिया गया और इसके लिए अलग ‘लेफ्टीनेंट गवर्नर‘ की नियुक्ति की गयी। 1857 की क्रांति के विफल होने के बाद अवध का क्षेत्र भी 1858 में अंग्रेजों के हाथ में आ गया, तो कुछ दिन बाद फिर प्रशासनिक फेरबदल हुए। अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ स्थानीय विद्रोह को कमजोर करने के लिए ‘नार्थ वेस्टर्न प्राविंसेज ऑफ आगरा‘ से दिल्ली क्षेत्र को काटकर पंजाब के साथ जोड़ दिया गया तथा अजमेर और मारवाड़ क्षेत्र को काटकर राजपूताना में मिला दिया गया। और इसके बाद 1877 में अवध को आगरा के साथ जोड़कर इस प्रांत को नया नाम दिया गया ‘नार्थ वेस्टर्न प्राविंसेज ऑफ आगरा एंड अवध‘। 1902 में इसका नाम फिर बदला गया और इसे ‘यूनाइटेड प्राविंसेज ऑफ आगरा एंड अवध‘ कहा जाने लगा। यहीं से इसके संक्षिप्त नाम ‘यू.पी.‘ की शुरुआत हुई। पहले इस प्रांत की राजधानी आगरा और इलाहाबाद के बीच बदलती रही, अंत में 1920 में इसे इलाहाबाद से हटाकर लखनउ कर दिया गया, लेकिन प्रांत का हाईकोर्ट अभी भी इलाहाबाद में ही बना हुआ हे, हां राजधानी लखनउ पहुंच जाने के कारण उसकी एक पीठ लखनउ में स्थापित कर दी गयी। यह स्थिति स्वतंत्रता प्राप्ति तब बनी रही । 1947 में स्वतंत्रता मिलने के बाद राज्य के पहले मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने इसका अंग्रेजी नाम बदलकर इसे वर्तमान ‘उत्तर प्रदेश‘ का नाम दिया। इस क्षेत्र में कुमायूं गढ़वाल से लेकर बलिया तक का क्षेत्र शामिल था। मगर स्वतंत्र भारत में वर्ष 2000 में केंद्र की भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार ने राज्य का विभाजन करके इसके पर्वतीय अंचल को काटकर ‘उत्तराखंड‘ के नाम से एक नया राज्य बना दिया। इस विभाजन के साथ ही देवभूमि कहा जाने वाला उत्तरांचल क्षेत्र इस राज्य से अलग हो गया, जिसके साथ ही गंगा और यमुना के उद्गम स्थल, बद्री और केदारधाम तथा हरिद्वार का गंगा अवतरण तीर्थ भी इसकी सीमा से बाहर हो गया। इसका दोनों विभाजित क्षेत्रों को भी जो राजनीतिक व आर्थिक लाभ मिला हो, किंतु उत्तर प्रदेश के रूप में सांचे में ढलकर निकली इस सांस्कृतिक भू प्रतिमा का अवश्य अंगभंग हो गया।

अब शेष बचे इस उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती इस बचे प्रदेश को भी चार टुकड़ों में बांटना चाहती हैं। बदरिकाश्रम और हरिद्वार तो अलग हो ही चुके थे, अब काशी और मथुरा भी अलग-अलग प्रांतों में बंट जाएंगे। प्रत्येक टुकड़ा अब अपनी स्वतंत्र सांस्कृतिक पहचान बनाने की कोशिश करेगा और क्षेत्रीय गौरव गाथाएं गढ़ेगा। क्षेत्रीय भाषाओं का आग्रह भी तेज हो सकता है। होना भी चाहिए, यदि देश के अन्य राज्य अपनी भाषाई इकाइयों के आधार पर गठित हुए हैं, तो ये प्रांत भी क्यों न इसका दावा करें।

बल्कि सच कहें तो मायावती के इस प्रस्ताव के कारण ‘द्वितीय राज्य पुनर्गठन आयोग‘ की जरूरत और तीव्रता से महसूस की जाने लगी है। दक्षिण में आंध्र प्रदेश का विभाजन करके तेलंगाना को अलग राज्य बनाने के लिए या महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र को अलग राज्य का दर्जा देने के लिए तो किसी नये आयोग की जरूरत नहीं, बस थोड़ी राजनीतिक निर्णय शक्ति की जरूरत है, लेकिन मायावती के इस प्रस्ताव को तो ज्यों का त्यों कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। यदि देश में एक बार भाषा आधारित प्रांत निर्माण का सिद्धांत स्वीकार कर लिया गया है, तो उत्तर भारत में भी इसे लागू होना चाहिए। ब्रज भाषा के आधार पर ब्रजमंडल, बुंदेली के आधार पर बुंदेलखंड, अवधी के आधार पर अवध प्रदेश तो पूर्व में भोजपुरी या काशिका के आधार पर उसे भोजपुर या काशीराज्य का नाम दिया जा सकता है। वर्तमान प्रस्तावित नामों में अवध एवं बुंदेलखंड के नाम तो ठीक हैं, किंतु ‘पूर्वांचल‘ व ‘पश्चिमी प्रदेश‘ जैसे नाम का कोई औचित्य नहीं है। एक प्रदेश की सीमा में तो उन्हें पश्चिमी या पूर्वी कहना ठीक था, लेकिन जब वे भारत देश के स्वतंत्र प्रांत बन जायेंगे, तब उनका यह नाम अवश्य अटपटा लगेगा। क्योंकि वे तो देश के मध्य में हैं, कोई पश्चिमी या पूर्वी छोर पर तो नहीं। और यदि उन्हें भाषाई आधार दिया गया, तो क्षेत्र निर्धारण की समस्या निश्चय ही जटिल हो जाएगी और कई नये विवाद भी खड़े हो सकते हैं। लेकिन मायावती का प्रस्ताव भी ज्यों का त्यों मानने के योग्य नहीं है, भले ही उसे उत्तर प्रदेश विधानसभा पारित ही क्यों न कर दे। यों भी यदि ऐसा हुआ, तो यह पहला अवसर होगा, जब उत्तर प्रदेश राज्य और उसकी विधानसभा 4 बच्चों को जन्म देकर अपना अस्तित्व ही समाप्त कर दे।

उत्तर प्रदेश सदैव भारतीय राजनीति साहित्य और सांस्कृतिक जीवन के केंद्र में रहा है। भारत के प्राचीन या मध्यकालीन ही नहीं, आधुनिक इतिहास में भी इसकी भूमिका अग्रणी रही है। 1857 की क्रांति हो या उसके बाद का स्वातंत्र्य आंदोलन, इस प्रांत की भूमिका उसमें स्पष्ट रूप से पहचानी जा सकती है। पाकिस्तान के निर्माण का अभियान भी यहीं जन्मा और यहीं से आगे बढ़ा। समाजवादी आंदोलन का भी यह प्रदेश गढ़ रहा। जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव, राम मनोहर लोहिया, चंद्रशेखर, राजनारायण आदि ने कांग्रेस के भीतर जो समाजवादी गुट बना रखा था, उसका आधार उत्तर प्रदेश ही प्रदान कर रहा था। प्रथम अखिल भारतीय किसान सभा का गठन लखनउ में हुई (11 अप्रैल 1936) की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की महासभा में हुआ था, जिसमें प्रख्यात राष्ट्रवादी स्वामी सहजानंद सरस्वती को इसका पहला अध्यक्ष चुना गया था। ब्रिटिश कालीन जमींदारी प्रथा के विरुद्ध पहला आंदोलन इसी प्रदेश में शुरू हुआ था। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा अवश्य बॉम्बे (मुंबई) में हुई थी, किंतु उपनिवेशवादी सत्ता को उखाड़ फेंकने का पहला कार्य उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में चित्तू पांडेय ने कर दिखाया था। बलिया तभी से अंग्रेजों की शब्दावली में ‘बागी बलिया‘ बन गया था। स्वतंत्र भारत में इंदिरा गांधी के आपातकाल के विरोध में भी उत्तर प्रदेश ने अहम भूमिका अदा की।

किसी इतिहास के विद्यार्थी या भारतीय संस्कृति व परंपरा के प्रति आस्थावान नागरिक के लिए तो यह कल्पना ही कंपित करने वाली प्रतीत होती है कि ऐसा भी कोई समय आ सकता है, जब भारत के नक्शे से उत्तर प्रदेश के नाम का ही लोप हो जाए। माना की आज की पीढ़ी को केवल अधिक से अधिक राजनीतिक अधिकार और आर्थिक समृद्धि चाहिए और शायद उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों के विभाजन से उन राज्यों के रहने वालों की आकांक्षा पूरी हो जाए, किंतु यदि भारत के सांस्कृतिक व राजनीतिक इतिहास के प्रतीकों को सहेज कर नहीं रखा गया, तो भारतीयता की और उसकी रक्षा के संघर्षों की पहचान ही समाप्त हो जायेगी।

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को और शायद उनके समर्थकों को भी राष्ट्र और राष्ट्रीयता के किसी प्रतीक की आवश्कता ही नहीं रह गयी है। उन्होंने तो बुद्ध जैसे दार्शनिक आचार्य को अपनी जातीय राजनीति का प्रतीक बनाकर छोड़ दिया है, फिर उत्तर प्रदेश जैसे जमीनी टुकड़े को ऐतिहासिक व सांस्कृतिक अस्मिता का उनके लिए क्या मूल्य। यद्यपि अभी यह नहीं कहा जा सकता कि केंद्र सरकार उत्तर प्रदेश विधानसभा द्वारा पारित मायावती का प्रस्ताव स्वीकार ही कर लेगी, लेकिन मायावती को इसकी चिंता नहीं है। उनके तो दोनों हाथों में लड्डू हैं। कांग्रेस सरकार उनका प्रस्ताव माने तो ठीक, न माने तो ठीक। दोनों ही स्थितियों में उनकी अपनी राजनीति का रंग चोखा रहेगा।

कम से कम उत्तर प्रदेश में अलग-अलग राज्य बनाने की राजनीति करने वाले तो अब मायावती के खिलाफ कोई टिप्पणी नहीं कर सकेंगे। इसलिए विधानसभा चुनावों के ठीक पहले छेड़े गये उनके इस शिगूफे के लिए निश्चय ही उनके राजनीतिक कौशल की दाद देनी पड़ेगी, लेकिन कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश का नाम लोप करके चार नये राज्य बनाने की यह राजनीति वांछनीय नहीं कही जा सकती है।

साधारणतया दुनिया में राज्य की राजनीतिक सीमाओं, उनके भौगोलिक आकारों या उनके नामों में बदलाव की प्रक्रियाएं तो चलती ही रहती हैं। तमाम राज्य लुप्त होते रहते हैं, नये बनते रहते हैं । और उत्तर प्रदेश तो एक राष्ट्र राज्य (नेशन स्टेट) का एक खंड मात्र (सब स्टेट) है, फिर उसके टुकड़े होने, नाम बदलने या नाम लोप होनेकी चिंता क्यों की जाए। बात किसी हद तक सही है, लेकिन उत्तर प्रदेश इस भारत देश के लिए मात्र एक प्रांतीय प्रशासनिक इकाई भर नहीं है। वह अपनी समग्रता में भारतीय राष्ट्रीयता की आत्मा को संजोए हुए है। उसमें भारत निहित है, भारतीयता निहित है और भारतीयता की रक्षा करने वाले संघर्ष की प्रेरणा निहित है। इस प्रांत का इस तरह हथौड़ा मार विखंडन इस आत्मा के लिए क्षतिकारक है, जिसे रोका ही जाना चाहिए। वैसे काल प्रवाह किसके रोके रुका है, किंतु उदात्त एवं श्रेष्ठ सांस्कृतिक प्रतीकों की रक्षा तो काल से लड़कर भी की जानी चाहिए।

बुधवार, 16 नवंबर 2011

"रामायण" व रामकथा पर नया छिड़ा विवाद
ए.के. रामानुजन का निबंध पाठ्यक्रम से बाहर निकालने पर विरोध प्रदर्शन
करते हुए: दिल्ली विश्वविद्यालय के वामपंथी अध्यापक व छात्र

दिल्ली विश्वविद्यालय की विद्वत् परिषद ने पिछले दिनों बी.ए. (आनर्स) द्वितीय वर्ष के पाठ्यक्रम (भारतीय संस्कृति) में शामिल एक विवादास्पद निबंध को हटाने का निर्णय ले लिया, इससे देश भ्र में तमाम वामपंथी बुद्धिजीवी, लेखक, अध्यापक, पत्रकार व इतिहासकार बेहद क्षुब्ध हैं और उसे वापस पाठ्यक्रम में शामिल किये जाने की मांग कर रहे हैं। यह निबंध प्रसिद्ध कवि, लेखक, भाषाविद तथा अनुवादक ए.के. रामानुजन का है, जो महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण में वर्णित रामकथा की प्राचीनता व प्रामाणिकता पर सवाल उठाते हैं तथा अन्य गौण व विकृत कथाओं को उस पर तरजीह देने का प्रयत्न करते हैं।

यूरोप से आयातित साहित्य अध्ययन शैली, सामाजिक सोच और आलोचना दृष्टि ने इस देश के इतिहास, दर्शन, साहित्य और सामाजिक-सांस्कृतिक सोच का किस तरह बंटाधार किया है, इसका ताजा उदाहरण दिल्ली विश्व विद्यालय के बी.ए. (आनर्स) द्वितीय वर्ष के पाठ्यक्रम भारतीय संस्कृति विषय की पाठ्य पुस्तक से हटाये गये उस निबंध पर छिड़ा विवाद है, जो रामायण या रामकथा से सम्बद्ध है। इस विवाद ने सबसे बड़ा सवाल तो यह खड़ा किया है कि किसी विश्वविद्यालय में किसी साहित्यिक कृति या ऐतिहासिक-सांस्कृतिक कथानक के पढ़ने-पढ़ाने का उद्देश्य क्या है।
दिल्ली विश्व विद्यालय की विद्वत्परिषद (एकेडमिक कौंसिल) ने विगत 9 अक्टूबर 2011 की अपनी बैठक में प्रख्यात लेखक अट्टिपट्ट कृष्णस्वामी रामानुजन के निबंध ‘थ्री हंड्रेड रामायनाज: फाइव इक्जाम्पल एंड थ्री थाट्स ऑन ट्रांसलेशन‘ को बी.ए. आनर्स के पाठ्यक्रम से बाहर कर देने का निर्णय लिया। इस पर इस विश्वविद्यालय के ही नहीं, प्रायः पूरे देश के वामपंथी शिक्षक, लेखक, बुद्धिजीवी, पत्रकार, आलोचक, इतिहासकार तथा संस्कृतिकर्मी आपे से बाहर हो गये। विश्वविद्यालय के निर्णय के खिलाफ आंदोलनों, प्रदर्शनों, गोष्ठियों व लेखबद्ध प्रतिक्रियाओं का सिलसिला अब तक जारी है। इसे देश की उदार बौद्धिक परंपरा, विविधता के प्रति सम्मान तथा चिंतन की स्वतंत्रता पर प्रहार और राजनीतिक दबाव के आगे विद्वत् स्वतंत्रता (एकेडमिक फ्रीडम) का आत्म समर्पण बताया जा रहा है।
डॉ. रामानुजन का यह निबंध 1991 में लिखा गया था, जिसे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित पुस्तक ‘मेरी रामायनाज- द डाइवर्सिटी ऑफ ए नरेटिव ट्रेडीशन इन साउथ  एशिया‘ में शामिल किया गया। पुस्तक की संपादिका पाड्ला रिचमैन ने जानबूझकर इस निबंध को उपर्युक्त पुस्तक में शामिल किया, क्योंकि वह भारत में वाल्मीकि कृत रामायण ग्रंथ और रामानंद सागर के रामायण सीरियल की असाधारण लोकप्रियता से बहुत चिंतित थीं। उस पुस्तक से ही लेकर इस निबंध को 2006 में दिल्ली विश्वविद्यालय के बी.ए. (आनर्स) की पाठ्य पुस्तक में शामिल किया गया। यहां यह जानना रोचक होगा कि इस पाठ्य पुस्तक को तैयार करने का काम देश के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की बेटी प्रो. उपिंदर सिंह ने किया है।
भारतीय संस्कृति के पाठ्यक्रम से इस निबंध को निकलवाने का प्रयास तभी शुरू हो गया था, जब इसकी पढ़ाई शुरू हुई थी। मार्च 2008 की विश्व विद्यालय की विद्वत् परिषद (एकेडमिक कौंसिल) की बैठक में भी राष्ट्रीय संस्कृति की चिंता करने वाले शिक्षक प्रतिनिधियों ने इसे हटाने पर जोर दिया था, लेकिन उस समय परिषद ने भारी विरोध के बावजूद उस निबंध को पाठ्यक्रम से निकालने से इनकार कर दिया था। शिक्षकों ने इस पर न्यायालय की शरण में भी जाने की चेतावनी दी थी। परिषद के बाहर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने भी इस निबंध को हटाने के लिए आंदोलन चलाया था। संसद में भी यह मसला उठा था, किंतु विश्वविद्यालय उपर्युक्त निबंध को पाठ्यक्रम में बनाए रहने पर अड़ा रहा। न्यायालय से भी कोई उम्मीद नहीं थी, क्योंकि किसी कक्षा में पाठ्यक्रम निर्धारण में विश्वविद्यालय को पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त है। किंतु संयोगवश सर्वोच्च न्यायालय ने इस मसले को विचारार्थ स्वीकार्य किया और विश्वविद्यालय को निर्देश दिया कि वह चार विशेषज्ञों की एक कमेटी बनाए, जो इस प्रश्न पर विचार करे और उसके निष्कर्षों के आधार पर निर्णय लिया जा सके। विश्वविद्यालय ने इतिहास विभाग के चार प्रोफेसरों की एक कमेटी बना दी। इस कमेटी की रिपोर्ट विभाजित थी। दो प्रोफेसर लगभग तटस्थ थे। उन्हें इस निबंध के पाठ्यक्रम में बने रहने पर कोई आपत्ति नहीं थी, लेकिन उनका इसे बनाये रखने का कोई हठ भी नहीं था (दे वेयर नाट कमिटल), यानी विश्वविद्यालय की एकेडमिक कौंसिल उसे हटाना चाहे तो हटा भी सकती है। तीसरे प्रोफेसर ने इसे पाठ्यक्रम में बनाये रखने का जोरदार समर्थन किया और लिखा कि यह केवल दक्षिण पंथियों का हो हल्ला है, जो इसे हटाना चाहते हैं, इसलिए उसे महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। लेकिन चौथे प्रोफेसर ने इसे पाठ्यक्रम में रखने पर गहरी आपत्ति की और लिखा कि स्नातक स्तर पर इस तरह की सामग्री पढ़ाए जाने के गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
यह रिपोर्ट आने के बाद विद्वत् परिषद की 9 अक्टूबर 2011 की बैठक में इस मसले को विचार के लिए स्वीकार किया गया। विश्वविद्यालय की तरफ से उपर्युक्त 4 विशेषज्ञों की रिपोर्ट पेश की गयी। इस बैठक में इस सवाल को इसलिए लिया गया कि अगले दिन विश्वविद्यालय को इस विषय में सुप्रीमकोर्ट को अपनी राय देनी थी। इस बैठक में एक शिक्षक प्रतिनिधि ने नियमों का सवाल उठाया कि यह निबंध 2004 से 2008  तक पढ़ाए जाने के लिए था, उसके बाद इसे आगे बढ़ाए जाने का कोई औचित्य नहीं है। उसने यह भी बताया कि स्वयं ‘ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस‘ ने उस पुस्तक की बिक्री रोक दी है, जिसमें से इस निबंध को लिया गया है, ऐसे में उस निबंध को पाठ्यक्रम में शामिल रखना कतई तर्क संगत नहीं है। परिषद में उपस्थित वामपंथी शिक्षकों ने इस निबंध को पाठ्यक्रम से हटाने का जबर्दस्त विरोध किया, किंतु परिषद ने जब इस पर मतदान कराया, तो 120 सदस्यों की परिषद में तो लेख को हटाने के विरुद्ध केवल 9 मत पड़े और ये सब वामपंथी विचारधारा वाले शिक्षकों के थे। परिषद ने इन विरोधों की उपेक्षा करके इस निबंध को हटाने का निर्णय लिया और उसकी सूचना सर्वोच्च न्यायालय को दे दी। इस फैसले के बाद से ही वामपंथी बुद्धिजीवियों में तहलका मचा है। उपर्युक्त निबंध को हटाने के समर्थन में शायद केवल देवेंद्र स्वरूप ने अपनी कलम चलायी है, जो स्वयं दो दशक से अधिक समय तक दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर रहे हैं, अन्यथा मीडिया में इस संदर्भ में जितने भी आलेख दिखायी दे रहे हैं, वे सभी वामपंथी विचार वालों के ही हैं, जो इस निबंध को पाठ्यक्रम से हटाने का विरोध कर रहे हैं और इसे लेखकीय स्वतंत्रता तथा वैविध्य की स्वीकार्यता पर हमला बता रहे हैं।
रामानुजन के आलेख का समर्थन करने वाले तथाकथित विद्वान यह भूल जाते हैं कि उनके विरोध का कारण यह नहीं है कि उन्होंने वाल्मीकि रामायण या तुलसीकृत रामायण (रामचरित मानस) से भिन्न अन्य रामकथाओं को सामने लाने का प्रयास किया है, बल्कि विरोध का कारण उनकी नीयत का है। वे वाल्मीकि की रामायण में वर्णित रामकथा को गौण करना चाहते हैं। इसमें उनकी बौद्धिक, लेखकीय व शोधकर्ता की ईमानदारी कम उनका पूर्वाग्रह तथा वाल्मीकि रामायण को नीचा दिखाने का प्रयत्न अधिक है। सबसे पहले तो वह इसी स्थापना पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं कि वाल्मीकि की रामायण ही मूल तथा रामकथा की प्रामाणिक कृति है। भारतीय परंपरा वाल्मीकि को आदि कवि तथा उनकी रचित रामायण को ही रामकथा का मूल मानती है। रामानुजन को यह स्वीकार्य नहीं। वह मानते हैं कि देश तथा विदेश में अन्य बहुत सी रामकथाएं (रामायण) प्रचलित हैं, जिनकी कथा वाल्मीकि की कथा से भिन्न हैं और वे अधिक प्राचीन व प्रामाणिक हो सकती हैं। कई कथाएं हैं, जिसमें राम और सीता को भाई-बहन बताया गया है अथवा किसी में सीमा को रावण की बेटी बताया गया है। संभव है राम की ये कथाएं ही अधिक सही हों। इसके अलावा रामानुजन की दूसरी स्थापना है कि देश-विदेश की विभिन्न भाषाओं की अन्य रामकथाओं में उस क्षेत्र तथा उस भाषा को बोलने वाले की अपनी निजी जातीय व सांस्कृतिक अस्मिता निहित है, जिसका सम्मान किया जाना चाहिए। परोक्षतः उनका आरोप है कि वाल्मीकि रामायण को प्रमुखता देकर अन्य कथाओं को उपेक्षित करने का प्रयास वस्तुतः उस भाषा और संस्कृति वालों की उपेक्षा करने या उनकी संस्कृति को दबाने का प्रयास है। इससे जाहिर है कि रामानुजन चाहे कितने बड़े विद्वान हों, कितनी ही भाषाओं के जानकार हों, किंतु न तो वह भारतीय संस्कृति व उसकी परंपरा को समझते हैं आऋैर न उसके प्रति उनमें कोई निष्ठा व प्रेम है। उनके निबंध को पाठ्यक्रम में शामिल करने वाले समर्थक तथाकथित विद्वानों की भी यही स्थिति है। पाठ्यक्रम से उपर्युक्त निबंध हटाने के निर्णय की घोषणा होते ही वामपंथी गुट के करीब डेढ़ दो सौ छात्रों और शिक्षकों ने एक विरोध जुलूस निकाला और दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न कॉलेजों रामजस कॉलेज, किरोड़ीमल कॉलेज, हिन्दू कॉलेज व सेंट स्टिफेन कॉलेज आदि से होते हुए कुलपति डॉ. दिनेश सिंह के कार्यालय पहुंचे। वे इंकलाब जिंदाबाद, कुलपति मुर्दाबाद, दिनेश सिंह होश में आओ, विचारों की आजादी पर हमला बंद करो जैसे नारे लगा रहे थे। कुलपति कार्यालय के समक्ष उन्होंने एक सभा की, जिसे संबोधित करते हुए इतिहास के एक प्रोफेसर डॉ. सुनील कुमार ने कहा कि विश्वविद्यालय का निर्णय हमारी वैचारिक स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने का प्रयास है। हम क्या पढ़े, क्या लिखें और क्या सोचें इसे नियंत्रित करने का फरमान है। हमें यह लड़ाई अपनी बौद्धिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए लड़नी है। किसी निबंध को उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम से केवल इसलिए निकाल देना कि इससे किसी की या कुछ लोगों की धार्मिक भावनाओयं को चोट पहुंचती है, धार्मिक कट्टरवादियों के समक्ष शैक्षिक निष्ठा व उन्मुक्त विचारों की बलि देना है। रामजस कॉलेज के इतिहास विभाग के प्रोफेसर मुकुल मांगलिक का कहना था कि ‘आपको चाहे यह पसंद हो या नहीं, किंतु आप इस तथ्य को तो नहीं बदल सकते कि रामकथा के कई रूप विद्यमान हैं। रामानुजन का निबंध एक श्रेष्ठ तार्किक निबंध है, किंतु हमारे गणित विषय के प्रोफेसर कुलपति ने उसे हटा दिया। उनको गणित विषय का प्रोफेसर बताने के पीछे उनका आशय यह था कि वे साहित्यिक निबंध भला क्या समझें। विश्वविद्यालय की एकेडमिक कौंसिल की बैठक में उपर्युक्त निबंध को हटाने के निर्णय का विरोध करने वाले एक प्रोफेसर संजय शर्मा ने विद्वानों का आह्वान किया है कि वे इस तरह के राजनीतिक दबाव के आगे हार मानकर न बैठ जाएं। इस तरह की राजनीति वस्तुतः पूरी बौद्धिकता को नष्ट करने पर आमादा है। इसी तरह शहीद भगत सिंह कॉलेज के प्रोफेसर शिव दत्त- जो करीब दो दशकों से स्नातक स्तर पर इतिहास पढ़ा रहे हैं- का कहना है कि धर्म (रिलीजन) की राजनीति करने वाले भाजपा के लोग पूरी शिक्षा प्रणाली को क्षीण कर रहे हैं। धार्मिक होना एक बात है, किंतु ये तथाकथित धर्मरक्षक शिक्षा के पूरे उद्देश्य को ही नष्ट कर दे रहे हैं। ये हिन्दूवादी केवल विदेशों में प्रचलित रामकथा के विरोधी नहीं, बल्कि इस देश की तमाम अन्य रामकथाओं के खिलाफ हैं। वामपंथी इतिहासकार रोमिला थापर के अनुवार विश्वविद्यालय का निर्णय राजनीतिक दबाव के आगे शैक्षिक स्वतंत्रता का समर्पण है।
प्रतिक्रियाएं और बहुत सी हैं, लेकिन यहां यह स्वाभाविक सवाल खड़ा हो जाता है कि आखिर ये वामपंथी बुद्धिजीवी पाठ्यक्रम से एक विवादास्पद लेख को निकालने मात्र से इतने बेचैन क्यों हैं। इस लेख को पाठ्यक्रम से बाहर निकालने का आंदोलन चलाने वाले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (भाजपा की युवा शाखा) कोई इस पर प्रतिबंध लगाने की मांग तो नहीं कर रही है। लाइब्रेरी में जाकर या पाड्ला रिचमैन की किताब खरीदकर कोई भी इस लेख को पढ़ सकता है। लेकिन ये वामपंथी उसे पाठ्यक्रम में रखने की जिद क्यों कर रहे हैं। वे कांग्रेस सरकार व उसकी पार्टी के नेताओं से उनके सेकुलरिज्म का हवाला देते हुए अपील कर रहे हैं कि वे इसे फिर से पाठ्यक्रम में शामिल शामिल कराएं। कांग्रेस पार्टी तथा  उसकी युवा व छात्र शाखा के लोग ज्यादातर चुप्पी साधे हुए हैं, क्योंकि वे किसी एक पक्ष के साथ खड़े होना नहीं चाहते, तुलसी या रामानंद सागर के राम यदि विजयी होते हैं, तो यह उनकी पराजय होगी, क्योंकि उनकी पूरी संस्कृति इनके विरोध पर टिकी है। पाड्ला रिचमैन ने भी राम के इस स्वरूप को पराजित करने के लिए ही अपनी पुस्तक प्रकाशित की और उसमें ए.के. रामानुजन का लेख शामिल किया। पाड्ला ने अपनी पुस्तक की भूमिका में साफ लिखा है कि जनवरी 1987 में भारतीय टीवी चैनल पर प्रसारित होने वाली रामानंद सागर की रामायण की लोकप्रियता से इतिहासकार रोमिला थापर और स्वयं वह भी बहुत चिंतित हो गयी थीं। यह चिंता क्योंकि थी? क्या इसका अर्थ यह नहीं कि इन वामपंथी इतिहासकारों व लेखकों को भारत के प्राचीन सांस्कृतिक मूल्यों से चिढ़ है। वे उसे तोड़कर नष्ट करना चाहती हैं।
आखिर इन विरोधियों से यदि कोई पूछे कि आखिर शिक्षा क्रम में साहित्य और इतिहास के अध्ययन अध्यापन का लक्ष्य क्या है। क्या केवल विविधता व वैचारिक अथवा लेखकीय स्वतंत्रता का सम्मान करना कोई जीवन मूल्य है या किसी जीवन मूल्य की स्थापना के लिए इनकी जरूरत समझी जाती है। साहित्य व इतिहास का रचना व अध्ययन का मूल लक्ष्य होता है मनुष्ृय को बेहतर बनाना, समाज में न्याय की स्थापना करना तथा भेद को मिटाकर अभेद के प्रति प्रेम व निष्ठा कायम करना।
यदि इन आधुनिक वामपंथी साहित्यकारों व इतिहासकारों ने साहित्य और इतिहास पुराण के प्रयोजन की भारतीय परंपरा को पढ़ा समझा होता, तो वे शायद ए.के. रामानुजन के उपर्युक्त लेख को एक दिन भी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में न चलने देते।
अपने देश में वेद, शास्त्र, इतिहास, पुराण तथा काव्य इन सबकी रचना व अध्ययन का लक्ष्य जीवन में चारों पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, की प्राप्ति, प्राणिमात्र के प्रति प्रेम व सद्भाव की स्थापना तथा समदृष्टि का विकास। यहां वेद, पुराण व काव्य रचनाओं तीनों का उद्देश्य एक ही है। शास्त्रों की शासन व्यवस्था केवल राजदंड से सम्यक रूप से संचालित नहीं हो सकती, इसलिए उसकी व्यापक समझदारी विकसित करने के लिए काव्य या साहित्य रचना की गयी। इसीलिए इस देश में वैदिक ऋचाओं, पुराण कथाओं तथा काव्यों के रचयिता एक ही वर्ग के लोग हैं। काव्य शास्त्र के आदि आचार्य भरत मुनि ने अपने नाट्य शास्त्र में काव्य का प्रयोजन स्पष्ट किया है- ‘उत्तमाधम मध्यानां, नराणां कर्म संश्रयं, हितोपदेश जननं धृति क्रीणा सुखादिकृतदुःखर्तानां, श्रमार्तानां, शोकार्तानाम, तपस्विनां विश्रांति जननं काले नाट्यमेत भविष्यतिधर्म्य यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धि विवर्धनं लोकोपदेश जननं नाट्यमेतद् भविष्यति ।।‘
काव्य उत्तम, मध्यम तथा निन्म तीनों वर्गों के मनुष्य के लिए हितकारी उपदेश देता है। धैर्य, विनोद और सुख प्रदान करता है। मुसीबतों से घिरे लोगों, श्रमजीवियों, शोक संतप्त हृदयों तथा तपस्वियों तक को काव्य आराम देता है। धर्म-अधर्म यश-अपयश, काम्य-अकाम्य, हित-अहित आदि का विवेक देता है तथा आयु और बुद्धि की वृद्धि आदि के लिए उपयुक्त उपदेश देता है।
काव्यालंकार में वामन ने श्रेष्ठ काव्य के लक्षण के तौर पर कहा है-
धर्मार्थकाम मोक्षेणु वैचक्षूयं कलासु च
प्रीतिं करोति कीर्तियूच साधुकाव्य निषेवणर्म-
सत्काव्य का पठन-पाठन धर्म-अधर्म का विवेक प्रदान करता है और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थों की पूर्ति करता है तथा प्रेम और कीर्ति का विस्तार करता है।
अब इस कसौटी पर यदि देश भर में या विदेशों में प्रचलित विविध रामायणों का मूल्यांकन किया जाए, तो स्वतः स्पष्ट हो जाएगा कि कौनसी रामकथा समाज और व्यक्ति के लिए उपादेय है, कौनसी नहीं।
यदि तमाम उपलब्ध रामायणों का सम्यक अध्ययन विवेचन किया जाए, तो पता चलेगा कि केवल महर्षि वाल्मीकि व तुलसी का रामकाव्य ही ऐसा है, जिसकी रचना का उद्देश्य सामाजिक है। बल्कि आज की सामाजिक आवश्यकता के लिए तुलसी की रामकथा अधिक उपादेय है, क्योंकि तुलसी के सामने जो समाज था, वह वाल्मीकि कालीन समाज से बहुत अलग था। उन्होंने मनोरंजन के लिए, भक्ति प्रदर्शन के लिए या मोक्ष प्राप्ति के लिए अपना काव्य नहीं लिखा। बाकी प्रायः राम कथाश्रित काव्य या तो भक्तिवश लिखे गये हैं या अपनी रचनाभिव्यक्ति के लिए। उन रचनाकारों ने अपनी कािा को विशिष्टता व मौलिकता प्रदान करने के लिए अपनी कथाओं को अलग रंग दिया है, किंतु उन नई उद्भावनाओं से किसी नये सामाजिक मूल्य या आदर्श की स्थापना नहीं होती, केवल काव्य चमत्कार बढ़ता है।
वाल्मीकि का रामायण शायद सारे परवर्ती राम काव्यों का उपजीव्य है। वर्तमान वाल्मीकि का रामायण शायद सारे परवर्तीराम काव्यों का उपजीव्य है। वर्तमान वाल्मीकि रामायण की रचना के पहले भी कोई राम कथा प्रचलित हो सकती है, लेकिन इससे वाल्मीकि या तुलसी की श्रेष्ठता कम नहीं हो जाती।
वाल्मीकि रामायण के प्रारंभिक अध्यायों /सर्गों/ के वर्णन से ही पता चल जाता है कि यह कोई इतिहास ग्रंथ नहीं है। इसके विविध चरित्रों का स्वरूप कवि कल्पित है। वह इतिहास में प्रसिद्ध किसी ऐसे चरित्र की तलाश में रहते हैं, जो उनके सामाजिक उद्बोधन का काव्य आधार बन सके। इसीलिए वह नारद से पूछते हैं कि उनके काव्य नायक के लिए किसी ऐसे व्यक्ति  के बारे में बताएं, जो गुणवान, वीर्यवान, धर्मज्ञ, उपकार मानने वाला, सत्य वक्ता, दृढ़ प्रतिज्ञ, सदाचार युक्त, समस्त प्राणियों का हित साधक, विद्वान, समर्थ, सुंदर, मन पर नियंत्रण रखने वाला, क्रोध को जीतने वाला, कांतिमान, किसी की निंदा न करने वाला तथा संग्राम में ऐसा पराक्रमी हो कि देवता भी उससे डरते हैं। ऐसे चरित्र की खोज से ही यह प्रमाणित होता कि वाल्मीकि अपने काव्य के द्वारा समाज में किन गुणों से युक्त तो इतिहास में केवल एक व्यक्ति हुआ है, वह है राम। वह वाल्मीकि को उनके बारे में कुछ जानकारी देते हैं, जिसके आधार पर अपनी कल्पना और बुद्धि कौशल के आधार पर वह अपनी रामकथा लिखते हैं। रामायण के प्रथम कांड के तीसरे सर्ग का पहला ही श्लोक है, जिसमें वाल्मीकि कहते हैं कि नारद  के मुख से धर्म, अर्थ एवं काम रूपी फल से युक्त हितकर सारी जानकारी प्राप्त करके फिर हृदय में पूर्ण कथा की अभिकल्पना (साक्षात्कार) करने लगे।
श्रुत्वा वस्तु समग्रं तद्धर्मार्थ सहितं हितंम्
व्यक्तमन्वेषते भूयो यद् वृत्तं तस्य धीमतः
बहुत स्पष्ट है कि राम कथा का सारा वर्णन इतिहास नहीं है। मूल कथा इतिहास प्रसिद्ध थी, लेकिन काव्य में वर्णित विविध घटनाएं, संवाद  आदि कवि की कलपना से उद्भूत है, जिसका लक्ष्य है समाज को विवेकशील, धर्मशील तथा सुखी बनाना। अब जो काव्य इस काम को सर्वश्रेष्ठ ढंग से कर रहा हो, उसी को अध्ययन अध्यापन का विषय बनाया जाना चाहिए। रामानुजन 300 रामायणों की बात करते हैं, हो सकता है अब तक यह संख्या और बढ़ गयी हो, लेकिन इनमें कथानक की नवीनता और प्राचीनता का कोई मुद्दा उठाना कतई प्रासंगिक नहीं है, उपादेय भी नहीं। उपादेय हैं केवल वे मूल्य, जो इन काव्यों में स्थापित किये गये हैं। और उस दृष्टि से वाल्मीकि और तुलसी के काव्य निश्चय ही सर्वश्रेष्ठ हैं। अब इनकी निंदा आलोचना या स्वीकार्यता अस्वीकार्यता की बात इस आधार पर नहीं की जानी चाहिए कि वे किस भाषा, किस क्षेत्र, किस जाति अथवा किस संप्रदाय के थे। रामानुजन को मूल्यों की नहीं, केवल कथानक की चिंता है। वह पूर्वाग्रह व दृष्टि संकीर्णता के कारण देश की मूल्य आधारित एकता की रक्षा के बजाए क्षेत्रीय विभेद व विखंडन को बढ़ाना चाहते हैं। वास्तव में विश्वविद्यालय के कुलपति तथा विद्वत् परिषद को इसके लिए बधाई दी जानी चाहिए कि उन्होंने साहसपूर्वक एक सही निर्णय लिया और वामपंथियों के दबाव को ठुकरा दिया।

रविवार, 6 नवंबर 2011

भारत के विरुद्ध पाक-चीन गठजोड़
पाक जिहादियों की नजर में तीन दशक बाद भारत की स्थिति

भारत और अमेरिका के बढ़ते रिश्तों ने पाकिस्तान एवं चीन को और निकट ला दिया है। अब वे दोनों रणनीतिक साझीदार हैं। चीन और पाकिस्तान कतई स्वाभाविक दोस्त नहीं हो सकते। दोनों में कोई सैद्धांतिक समानता भी नहीं है। जाहिर है उनकी दोस्ती नितांत अवसरवादी तथा भारत और अमेरिका के विरोध पर आधारित है। अमेरिका से इन दोनों की कोई सीधी दुश्मनी नहीं है, लेकिन भारत का विकास इन दोनों को फूटी आंखों नहीं सुहा रहा है। इसलिए ये दोनों ही भारत को कमजोर और विखंडित करने की साजिश रचने में लगे हैं। कश्मीर को दोनों ने ही भारत को दबाने का सबसे बड़ा हथियार बना रखा है। खबर है चीन पाक अधिकृत कश्मीर में अपना एक सैनिक अड्डा कायम करने जा रहा है। यह अपने देश से बाहर किसी दूसरे देश में उसका पहला सैनिक अड्डा होगा।

भारतीय उपमहाद्वीप की यह सबसे बड़ी विडंबना है कि इस क्षेत्र के दो बड़े देश भारत और पाकिस्तान कभी एक साथ एक खेमे में नहीं रह सकते। शीत युद्धकाल में भारत ने सोवियत संघ या रूस से दोस्ती बढ़ाई थी, तो पाकिस्तान ने अमेरिका से। अब उस युग की समाप्ति के बाद जब भारत और अमेरिका निकट आ रहे हैं, तो पाकिस्तान, अमेरिका से दूर होता जा रहा है। यद्यपि अभी भी अमेरिका पाकिस्तान को छोड़ना नहीं चाहता, किंतु वह एक साथ दोनों से अपने संबंध अच्छे नहीं रख सकता। यद्यपि पाकिस्तान ने बहुत पहले अपने लिए अमेरिका का विकल्प तलाश लिया था, किंतु जब तक अमेरिका और उसके हित एक थे तथा वह अमेरिका का झंडाबरदार बना रहा, किंतु अमेरिका का झुकाव भारत की ओर बढ़ते ही उसने अपने विकल्प का दामन मजबूती से पकड़ना शुरू कर दिया। इधर अमेरिका और पाकिस्तान के हित भी आपस में टकराने लगे, तो पाकिस्तानी हुक्मरानों के पास इसके अलावा कोई चारा नहीं था कि अमेरिकी कोप से बचने के लिए वह अपने दूसरे विकल्प और अमेरिका के पक्के प्रतिस्पर्धी चीन की शरणागति प्राप्त करे। पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति भी ऐसी है कि चीन बहुत पहले से इस फिराक में था कि पाकिस्तान उसकी झोली में आ जाए या पाकिस्तान में पांव फैलाने का उसे अवसर मिल जाए। वहां अमेरिका का वर्चस्व रहते तो उसके लिए यह संभव नहीं था, लेकिन यदि पाकिस्तानी हुक्मरान स्वयं अमेरिका के खिलाफ उसे अपने यहां आमंत्रित करने को तैयार हो तो फिर उसके लिए क्या पूछना।

पाकिस्तान के लिए चीन के साथ गठजोड़ सर्वाधिक सुखद है, क्योंकि चीन केवल अमेरिका का ही नहीं भारत का भी जबर्दस्त प्रतिद्वंद्वी है। वैसे अमेरिका के साथ तो उसकी केवल सम्मान की लड़ाई है, लेकिन भारत के साथ तो उसका रोज का रगड़ा है। अमेरिका इस समय दुनिया की सबसे बड़ी सामरिक व आर्थिक शक्ति है, इसलिए चीन की महत्वाकांक्षा उसे पछाड़कर स्वयं विश्व की प्रथम महाशक्ति बनना है। चीन की इस महत्वाकांक्षा में सबसे बड़ा बाधक भारत है। मान लें एशिया में भारत न होता, तो आज पूरा एशिया व अफ्रीका अकेले चीन के प्रभाव में होता और इस प्रभव क्षेत्र के बल पर वह अमेरिका को सीधे चुनौती दे सकता था। चीन का सीधे मुकाबला करने की शक्ति भारत के अलावा अन्य किसी देश में नहीं है। जनसंख्या की दृष्टि से केवल भारत चीन का मुकाबला कर सकता है। चीन जनसंख्या जहां बुढ़ापे की ओर अग्रसर है, वहां भारतीय जनसंख्या जवानी की ओर है। भारत की 65 प्रतिशत से अधिक आबादी की आयु 35 वर्ष से कम है। भारत की यह जवानी 2050 तक बनी रहने वाली है। भारत में बुढ़ापे का दौर उसके बाद आएगा। चीन इस समय सामरिक क्षमता व आर्थिक विकास में भले ही भारत से आगे हो, किंतु भारत में इस समय आर्थिक विकास की क्षमता चीन के मुकाबले कहीं अधिक है। इसीलिए कहा जा रहा है कि 2013 के बाद भारतीय आर्थिक विकास की दर चीन की विकास दर को पीछे छोड़ देगी। एकदलीय तानाशाही के शासन में जकड़ा चीन अपनी क्षमता के शिखर पर है। उसके बाद ढलान का दौर आना ही है। इसलिए चीन हर तरह से भारत के विकास को, उसकी आर्थिक व सामरिक क्षमता को रोकना चाहता है, जिससे चीनी वर्चस्व लंबे समय तक बना रह सके।

पाकिस्तान का ही सपना भारत की विकास यात्रा को रोकना और संभव हो तो उसे विखंडन के दौर में पहुंचा देना है। भारत यदि अपनी एकता बनाए रखता है, तो उसके विकास रथ को रोक पाना लगभग असंभव है। इसलिए पाकिस्तान दशकों से इस रणनीति पर काम कर रहा है कि कैसे भारत को तोड़ने का उपाय किया जाए। उसके पास इसका एक ही उपाय है- सांप्रदायिक अलगाववाद को तेज करना। इसीलिए उसने कश्मीर पर अपनी पूरी शक्ति लगा रखी है। चीन और पाकिस्तान दोनों का लक्ष्य है भारत को घेर कर उसे कमजोर करना और इस प्रकार न केवल एशिया पर अपना पूर्ण प्रभुत्व कायम करना, बल्कि अमेरिका को भी उत्तरी अमेरिका से बाहर केवल पश्चिमी यूरोप तक सीमित करना। चीन और पाकिस्तान दोनों बहुत दूर की कौड़ी पर नजर गड़ाएं हैं। दोनों इस ख्याल में हैं कि मुस्लिम जगत तथा एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के देश यदि एक सूत्र में बंध जाएं, तो अमेरिका और उसके साथी यूरोपीय देशें को दुनिया की चौधराहट की गद्दी से नीचे उतारा जा सकता है। चीन अभी इस प्रलोभन में बहुत गहरे फंसा हुआ है। यह तय है कि यदि कभी ऐसी स्थिति कायम भी हो गयी, तो उसके बाद पहला संघर्ष स्वयं चीन और इस्लामी विश्व के बीच खड़ा होगा। क्योंकि चीन और पाकिस्तान अथवा चीन व इस्लामी विश्व के बीच कोई स्वाभाविक या सैद्धांतिक मैत्री नहीं है। दोनों के संबंध केवल स्वार्थ के अवसरवादी संबंध हैं, इसलिए अवसर निकलते ही दोनों के बीच संघर्ष छिड़ना अनिवार्य है। चीन तब निश्चय ही अपने किये पर पश्चाताप करेगा, किंतु तब तक बहुत देर हो चुकी रहेगी और उसे मदद करने वाला कोई शेष नहीं रहेगा।

अफगानिस्तान के मुद्दे पर अमेरिका और पाकिस्तान के बीच बढ़ी तनातनी के कारण चीन को पाकिस्तान में और गहराई तक जगह बनाने का अनायास ही एक स्वर्णिम अवसर मिल गया है। पाकिस्तान स्वयं चीन को अपने क्षेत्र में सैनिक अड्डे कायम करने के लिए आमंत्रित कर रहा है। ताजा खबरों के अनुसार पाकिस्तान ने चीन से अनुरोध किया है कि वह ग्वादर /ब्लूचिस्तान/ में जो बंदरगाह तैयार कर रहा है, उसे एक नौसैनिक अड्डे की तरह विकसित करे। चीन स्वयं इसे नौसैनिक अड्डे के रूप में विकसित करने का इच्छुक है, किंतु इसके पहले वह उत्तरी पाकिस्तान के कबायली इलाके में अपना एक सैन्य शिविर कायम करना चाहता है। चीन की नजर उत्तरी पाकिस्तान के केंद्र शासित क्षेत्रों ‘फाना‘ (फेडरल एडमिनिस्टर्ड नार्दर्न एरिया) पर है। यह इलाका चीन के मुस्लिम बहुल झिनजियांग प्रांत से लगा हुआ है, जहां इस्लाम विद्रोही चीन की नाक में दम किये हुए हैं। पाकिस्तान के एक पत्रकार व लेखक अमीर मीन ने ‘एशिया टाइम्स ऑनलाइन‘ पर लिखा है कि चीन पाकिस्तानी जिहादी संगठनों का झिनजियांग प्रांत से संबंध तोड़ने के लिए इस क्षेत्र में सैनिक अड्डा कायम करना चाहता है। पाक अधिकृत कश्मीर का यह इलाका चीनी कब्जे वाले कश्मीरी इलाके से भी लगा हुआ है। इस क्षेत्र का रणनीतिक महत्व भी अद्वितीय है। यहां से भारत, पाकिस्तान व अफगानिस्तान ही नहीं, बल्कि पूरे खाड़ी क्षेत्र और पश्चिमी मध्य एशिया पर नजर रखी जा सकती है। अमीर मीर ने लिखा है कि चीनी झिनजियांग प्रांत में इस समय अलकायदा पोषित दो इस्लामी संगठन ‘ईस्ट तुर्कमेनिस्तान इस्लामिक मूवमेंट‘ और ‘तुर्किस्तानी इस्लामी पार्टी‘ तेजी से सक्रिया हैं। इन्हें हथियारों तथा प्रशिक्षण की पूरी सहायता पाकिस्तान से प्राप्त होती है। इस क्षेत्र के उइगर कबीले के लोगों ने - जिन्होंने हजारों वर्ष पहले इस्लाम कुबूल कर लिया था- चीन के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद कर रखा है। चीनी रक्षा मंत्री लियांग गुआंगली के अनुसार इन इस्लामी उइगर विद्रोहियों पर नियंत्रण् के लिए यह आवश्यक है कि उनका पाकिस्तान के जिहादी संगठनों के साथ संपर्क काट दिया जाए। चीन की यों भी उत्तरी पाकिस्तान के गिलगित व बल्टिस्तान क्षेत्र में विशेष रुचि है, क्योंकि ये इस क्षेत्र के सर्वाधिक महत्वपूर्ण रणनीतिक स्थल है। पाकिस्तान की प्राथमिकता ग्वादर को नौसैनिक अड्डे के रूप में विकसित करने की है, जबकि चीन उसके साथ ही उत्तरी पाकिस्तान में अपना सैन्य अड्डा कायम करना चाहता है।

अभी एक अमेरिकी रक्षा अध्ययन एवं विश्लेषण संस्थान की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन भारत को सबक सिखाने या उस पर अपनी सैनिक क्षमता का दबदबा कायम करने के लिए कारगिल की तरह का घुसपैठ कर सकता है। ‘भारत-चीन संघर्ष के बारे में विचार‘ शीर्षक इस रिपोर्ट में लिखा गया है कि चीन और भारत के बीच जैसी तनातनी चल रही है, उसमें कारगिल जैसे सीमित युद्ध की प्रबल संभावना है। यह संघर्ष पूरी सीमा के किस इलाके में हो सकता है, इसके बारे में उपर्युक्त रिपोर्ट में कोई संकेत नहीं है, किंतु अनुमान है कि यह अरुणाचल प्रदेश के तवांग क्षेत्र में अथवा पश्चिमोत्तर क्षेत्र में लद्दाख या कश्मीरी नियंत्रण् रेखा के निकट किसी क्षेत्र में हो सकता है। चीन लगातार भारत से लगी अपनी दक्षिणी सीमा पर अपना दबाव बनाए हुए है। आए दिन सीमा क्षेत्र में चीनी सैनिकों की घुसपैठ की खबरें आती रहती हैं। स्वयं भारतीय सेनाध्यक्ष ने यह चेतावनी दी है कि सीमा के बहुत अधिक निकट के क्षेत्र में चीनी सैनिकों का जमाव बढ़ रहा है। चीन ने भारतीय सीमा के निकट परमाणु अस्त्र ले जाने में सक्षम मिसाइलों की श्रृंखला भी स्थापित कर रखी है। सीमा के बारे में उसका रवैया अभी भी संदेहास्पद बना हुआ है। अभी इसी बीते हफ्ते दिल्ली के एक समारोह में चीनी राजदूत ने एक भारतीय पत्रकार को ‘शट अप‘ कहकर झिड़क दिया, जिसने वहां वितरित पर्चे (ब्रोशर) पर अंकित भारत के नक्शे पर आपत्ति व्यक्त की थी। इस नक्शे में भारत के अरुणाचल प्रदेश तथा लद्दाख क्षेत्र को चीनी सीमा में दिखाया गया था।

पिछले दिनों भारत-पाकिस्तान के बीच केवल एक सकारात्मक खबर मिली कि पाकिस्तान सरकार ने भी भारत को व्यापारिक क्षेत्र में सर्वाधिक वरीयता प्राप्त (मोस्टर फेवर्ड कंट्री) देश का दर्जा दे दिया। भारतीय मीडिया ने इसे मोटी सुर्खियों में छापा मानो पाकिस्तान ने भारत के प्रति उदारता की सारी सीमाएं तोड़ दी हों, जबकि इसमें ऐसा कुछ नहीं है, जो भारत के लिए विशेष हो। पाकिस्तान ने अब तक सैकड़ों देशों को सर्वोच्च वरीयता प्राप्त देश (मोस्ट फेवर्ड कंट्री) का दर्जा दे रखा है। बल्कि सच कहा जाए तो भारत के प्रति शत्रुता के कारण ही वह अब तक उसे यह दर्जा देने से कतराता रहा, जबकि भारत पाकिस्तान को एक दशक से भी पहले यह दर्जा दे चुका है। इतनी विलंबित कार्रवाई के बावजूद पाकिस्तान में इसका विरोध शुरू हो गया है और कहा जा रहा है कि अमेरिका के दबाव में आकर ही भारत को इस तरह सर्वोच्च तरजीही राष्ट्र का दर्जा दिया जा रहा है। एक अमेरिकी दैनिक में भारतीय विदेश विभाग के एक अधिकारी के हवाले से जब यह खबर छपी कि पाकिस्तान भारत को दिये गये दर्जे से अब पीछे हट रहा है, तो पकिस्तानी विदेश विभाग की प्रवक्ता तहमीना जोजुआ ने इसका त्वरित खंडन अवश्य किया, लेकिन पक्के तौर पर अभी यह नहीं कहा जा सकता कि यह दर्जा बरकरार रहेगा। पाकिस्तान के दो वरिष्ठ मंत्रियों गृहमंत्री रहमान मलिक तथा रक्षा मंत्री चौधरी अहमद मुख्तार ने भारत को वरीयता प्राप्त देश का दर्जा दिये जाने का यद्यपि स्वागत किया है और कहा है कि भारत के साथ व्यापार में भेदभाव को खत्म करने के लिए यह आवश्यक था, फिर भी उनका कहना है कि पाकिस्तानी संसद (नेशनल असेंबली) यदि चाहेगी, तो वह इसे वापस भी ले सकती है। पाकिस्तानी व्यवसायियों ने आम तौर पर इसका स्वागत किया है, किंतु राजनीतिक विपक्षी दलों ने तीव्र विरोध किया है। जमाते इस्लामी ने तो इसके खिलाफ आंदोलन चलाने तक की धमकी दी है। जिन पाकिस्तानी नेताओं ने व्यापारिक संबंधों को और विकसित करने के इस निर्णय का स्वागत किया है, उन्होंने भी साथ में यह टिप्पणी जोड़ना जरूरी समझा है कि इसका यह अर्थ नहीं है कि पाकिस्तान के कश्मीर संबंधी रुख में कोई बदलाव आया है या भारत के प्रति उसकी नीति बदल गयी है।

कश्मीर एक ऐसा मुद्दा है, जिसे हर भारत विरोधी शक्ति अपने पहले हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना चाहती है। इसलिए चीन भी कश्मीर के सवाल पर पूरी तरह पाकिस्तान के साथ है और उसके बहाने भारत को दबाव में रखना चाहता है। चीन पाकिस्तान गठजोड़ केवल पाक को अमेरिकी दबाव से बाहर निकालने के लिए ही नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में भारत और अमेरिकी सम्मिलित प्रभाव का मुकाबला करना तथा एशिया में भारत के विकास की गति पर अंकुश लगाना। अंतर्राष्ट्रीय सामरिक रणनीति में अमेरिकी समकक्षता प्राप्त करने के लिए ही चीन ने महत्वपूर्ण समुद्री मार्गों के सभी रणनीतिक महत्व के बिंदुओं (क पॉइंट्स) पर अपनी उपस्थिति कायम करने की योजना बनायी है, जैसे स्ट्रेट ऑफ मंडाल, स्ट्रेट ऑफ मलक्का, स्ट्रेट ऑफ हरमुज तथा स्ट्रेट ऑफ लोम्बोक पर वह अपने और नौसैनिक पोत तैनात कर रहा है। मतबल हांगकांग से लेकर ‘पोर्ट ऑफ सूडान‘ तक वह अपनी इस तरह की सैन्य श्रृंखला बना रहा है। हिन्द महासागर में भारत को घेरने के लिए वह पाकिस्तान, बंगलादेश, म्यांमार (बर्मा), श्रीलंका, केन्या तथा सोमालिया में अपने अड्डे कायम कर रहा है। पाकिस्तान में बलूचिस्तान के क्षेत्र में चीन पूरी तरह अपने खर्चे पर ग्वादर बंदरगाह का विकास कर रहा है। उसी तरह बंगलादेश में चिटगांव, म्यांमार में सित्तवे, केन्या में लामू तथा श्रीलंका में हंबनटोटा बंदरगाह का विकास कर रहा है। पूरी तरह चीनी पैसे तथा नौसैनिक अड्डे ही बनेंगे। केन्या और सोमालिया हिन्द महासागर क्षेत्र में पूर्वी अफ्रीकी देश हैं। हिन्द महासागर में चीनी प्रभव बढ़ाने में इन अड्डों का खासा योगदान है।

चीन और पाकिस्तान की भारत के बारे में बहुत स्पष्ट समझदारी है। चीन का काम है भारत को सैनिक दृष्टि से घेरना और उसके बढ़ते रणनीतिक प्रभाव पर काबू रखना और पाकिस्तान का काम है भारत को भीतर से तोड़ने में सक्षम शक्तियों की मदद करना। कश्मीरियों के साथ पश्चिम में वह कुछ सिखों को भी भड़काने में लगा है और उन्हें स्वतंत्र खालिस्तान का सपना दिखा रहा है। पाकिस्तान उत्तर पूर्व भारत के उग्रवादी संगठनों तथा माओवादी उग्रवादियों से भी संपर्क बनाए हुए हैं।

पाकिस्तानी गुप्तचर संस्था आई.एस.आई. ऐसे सभी संगठनों से संपर्क बनाये हुए है, जो भारत विरोधी गतिविधियों में लगे हैं या उसे तोड़ने अथवा कमजोर करने का काम कर रहे हैं। पाकिस्तान के जिहादी रणनीतिकारों के अनुसार अगले दो से चार दशकों के बीच इंडिया केवल मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा व महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों तक सीमित रह जायेगा। उत्तर के मुस्लिम बहुल पूरे इलाके पाकिस्तान का अंग बन जायेंगे। तमिल अलग राज्य बन जायेगा। मराठे अपने राज्य बना लेंगे। हिन्दू बहुल राजस्थान गुजरात के कुछ हिस्सों को मिलाकर एक हिन्दू राज्य बना रह सकता है। इन लोगों ने इस तरह के विखंडित भारत का एक नक्शा भी जारी कर रखा है।

ज्यादातर भारतीयों को यह सब अभी भले ही असंभव लगे, लेकिन विखंडनकारी शक्तियां जिस तेजी से सक्रिय हैं और राष्ट्रवादी शक्तियां जिस तरह की उदासीनता की शिकार हैं, उसमें ऐसा कुछ भी संभव हो सकता है। चीन की योजनाओं के खिलाफ देर से ही सही, भारत सरकार में कुछ चेतना आयी है। उसने चीन से लगी सीमा की निगरानी के लिए अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने के लिए एक लाख जवानों की नई भर्ती का निर्णय लिया है। उत्तरी सीमा पर क्रूज मिसाइलों की तैनाती का अभियान शुरू किया है। नौसेना तथा वायुसेना के आधुनिकीकरण को प्राथमिकता देने का फैसला किया है। लेकिन ये सब बाहरी रक्षा के उपकरण है। देश का सर्वाधिक खतरा भीतरी विखंडनकारी शक्तियों से है, लेकिन उन पर नियंत्रण की कोई योजना फिलहाल सरकार के पास नहीं है। संकीर्ण वोट बैंक की राजनीति देश को सांप्रदायिक, जातीय तथा क्षेत्रवादी भावनाओं को भड़काकर अपना नितांत संकीर्ण स्वार्थ सिद्ध करने में लगी है। खतरा चीन और पाकिस्तान से तो है ही, लेकिन हमारा भीतरी खतरा उससे भी अधिक गंभीर है। क्या देश के राजनेता व प्रबुद्धजन इधर कुछ ध्यान देंगे ?

बुधवार, 2 नवंबर 2011

रियायतें देकर कश्मीर समस्या हल नहीं की जा सकती

श्रीनगर में आम हड़ताल: 27 अक्टूबर को हर वर्ष कश्मीर में काला दिवस मनाया जाता है,
क्योंकि इसी दिन 1947 में भारतीय सेना वहां उतरी थी।

जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने एकतरफा तौर पर घोषणा कर दी है कि राज्य के कुछ इलाकों में सेना को दिया गया कानूनी विशेषाधिकार /ए.एफ.एस.पी.ए./ समाप्त कर दिया जाएगा। सेनाध्यक्ष जनरल वी.के. सिंह ने इसका विरोध किया है। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह स्वयं भी कश्मीरियों के लिए कुछ रियायतें तथा सहायता पैकेज घोषित करने वाले हैं। उसके साथ शायद वे यह पुरस्कार भी देना चाहें कि घाटी के कुछ इलाकों मेें सेना को निष्क्रिय कर दिया जाए। लेकिन सवाल है क्या ऐसा किया जाना देश हित में है ? क्या रियायतें दे देकर कश्मीर या पाकिस्तान को संतुष्ट किया जा सकता है? क्या कश्मीर जैसे मामले में केवल भावनात्मक आधार पर या मात्र राजनीतिक लाभ के लिए निर्णय लिया जाना चाहिए?

कश्मीर समस्या पाकिस्तान समस्या से अलग नहीं है। इसलिए पाकिस्तान की समस्या का समाधान हुए बिना कश्मीर समस्या का समाधान नहीं हो सकता। पाकिस्तान के हुक्मरां कहते हैं कि उनके साथ भारत की समस्या का समाधान तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि कश्मीर समस्या का समाधान नहीं हो जाता, जबकि सच्चाई यह है कि कश्मीर की अपनी कोई समस्या है ही नहीं, वह केवल पाकिस्तान समस्या का विस्तार है, जिसे पाकिस्तानी हुक्मरान भारत के विरुद्ध हथियार की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं। भारत सरकार तथा यहां के राजनेताओं को समझना चाहिए कि पाकिस्तान समस्या का समाधान हुए बिना कश्मीर में कभी शांति स्थापित नहीं हो सकती। वास्तव में यदि कश्मीर में शांति स्थापित हो जाए, तो पाकिस्तान के अपने अस्तित्व के लिए ही खतरा पैदा हो जाएगा, क्योंकि उस स्थिति में पाकिस्तान की विशाल व शक्तिशाली सेना अप्रासंगिक हो जाएगी, उसका पूरे देश पर छाया दबदबा समाप्त हो जाएगा और तमाम आतंकवादियों की फौज बेरोजगार हो जाएगी। इसलिए इतना तय है कि भारत कितना भी चाह ले, पाकिस्तान कश्मीर में शांति स्थापित होने नहीं देगा।

तो जाहिर है कि यदि कश्मीर में शांति स्थापित करनी है, तो भारत को पाकिस्तान की तरफ ध्यान देना होगा और पहले उसकी समस्या से निपटना होगा। अब यहां यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर पाकिस्तान के साथ कश्मीर के अलावा और समस्या है ही क्या ? हमारे यानी भारत के राजनेता इस सवाल को कभी गंभीरता से लेने को तैयार नहीं होते। या तो वे इसे समझते नहीं या फिर समझते हुए भी वे इसे नजरंदाज करने की कोशिश करते हैं। दुनिया के तमाम देश भारत-पाक समस्या को दो पड़ोसी देशों की समस्या समझते हैं और मानते हैं कि किसी अन्य दो पड़ोसी देशों की तरह वे भी अपनी समस्या का समाधान कर सकते हैं। मिल बैठकर आपसी बातचीत से या कुछ ले-देकर वे आपसी तनाव दूर कर सकते हैं और एक अच्छे पड़ोसी की तरह रह सकते हैं। किंतु वे नहीं समझते कि भारत-पाक के मामले में यह अवधारणा सही नहीं है। भारत-पाक समस्या न तो दो राष्ट्रों की समस्या है और न दो पड़ोसियों की। वास्तव में यह इस क्षेत्र के कट्टरपंथी इस्लामी समुदाय के मजहबी अहंकार, अन्य मजहबों के प्रति द्वेष तथा पूरे देक्षिण एशिया पर अपना आधिपत्य कायम करने की मनोभावना की समस्या है। दूसरे शब्दों में यह इस्लामी शरीयत के शासन बनाम आधुनिक लोकतंत्र की समस्या है। इसलिए लड़ाई किसी देश से नहीं, बल्कि एक खास विचारधारा के साथ है। पाकिस्तान के साथ भारत की यही मूल समस्या है और इस समस्या का समाधान जब तक नहीं होता, तब तक न भारत-पाक समस्या का समाधान हो सकता है और न कश्मीर समस्या का।

कट्टरपंथी इस्लामी समुदाय का दावा इस पूरे दक्षिण एशिया पर अपने आधिपत्य का है। उनकी कल्पना थी कि अंग्रेजों के यहां से जाने के बाद इस पूरे क्षेत्र पर फिर से उनका राजनीतिक अधिकार होगा। लेकिन यह लक्ष्य पूरा न होता देखकर उन्होंने अपने लिए एक टुकड़ा लेकर समझौता कर लिया। यह समझौता कोई बंटवारा करके सुख से रहने का फैसला नहीं था, बल्कि यह एक रणनीतिक फैसला था। जितना अभी संभव है, उतना ले लो, बाकी के बारे में आगे निपट लिया जाएगा। वस्तुतः पाकिस्तान के कट्टरपंथी, इस्लामी राजनेताओं के लिए यह असहृय है कि उनके बगल में कोई गैर इस्लामी देश उनसे अधिक शक्तिशाली नजर आए। इसलिए उनकी हमेशा यह कोशिश रही है कि उनकी ताकत कतई भारत से कम न रहे उससे आगे नहीं तो उसके बराबर जरूर रहे। उनका भविष्य का एकमात्र सपना जैसे भी हो, भारत को तोड़ना फिर उस पर आधिपत्य जमाना मात्र है।

पाकिस्तान की विदेश नीति एकमात्र भारत केंद्रित है। अन्य देशें के साथ उसके संबंध भी उसकी भारत नीति से ही नियंत्रित होते हैं। दुनिया में जो भी भारत का विरोधी हो, वह उसका मित्र है। उसकी विदेश् नीति का एक ही सूत्र है, अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाना और भारत को कमजोर करना। अमेरिका के साथ उसके संबंध इसी नीति पर आधारित थे और आज चीन के साथ उसके संबंधें का विस्तार भी इसी नीति पर आधारित है। अमेरिका के साथ् उसके संबंध इसी नीति पर आधारित थे और आज चीन के साथ उसके संबंधों का विस्तार भी इसी नीति पर आधारित है। अमेरिका के साथ भारत के संबंध जैसे-जैसे सुधरने लगे, वैसे-वैसे पाक-अमेरिका संबंध में खटास आनी शुरू हो गयी। 1950 के दशक के प्रारंभ में ही पाकिस्तान ने स्वयं पहुंचकर अमेरिका के समक्ष सोवियत संघ के खिलाफ सहयोग करने का प्रस्ताव रखा, किंतु पाकिस्तान का लक्ष्य हमेशा भारत ही था। सोवियत संघ के कल्पित खतरे दिखाकर उसने अमेरिका से अधिक से अधिक सैनिक संसाधन एकत्र किये। अपने समय के आधुनिकतम लड़ाकू जहाज, टैंक, राडार तथा अन्य साजो सामान उसने अंतर्राष्ट्रीय सामरिक व्यूह रचना में अमेरिका की मदद के लिए एकत्र किया, किंतु उसका इस्तेमाल उसने 1965 में सीधे भारत के विरुद्ध किया। पाकिस्तान ने अपना परमाणु कार्यक्रम व मिसाइल कार्यक्रम भी भारत की सामरिक बराबरी के लिए ही चलाया, बल्कि आज यह समझा जाता है कि परमाणु अस्त्रों तथा मिसाइल प्रणाली में वह भारत से कहीं आगे है, जिस पर वह काफी गर्व का भी अनुभव करता है।

वास्तव में यदि पारंपरिक ढंग से भारत के मुकाबले पाकिस्तान की सामरिक शक्ति की तुलना की जाए, तो वह कहीं नहीं ठहरती। भारत पाकिस्तान के मुकाबले कहीं बड़ा देश है। उसकी सेना भी पाकिस्तानी सेना के दो गुने से अधिक है। और सबसे बड़ी बात यह कि आर्थिक शक्ति में भारत के मुकाबले पाकिस्तान की कहीं तुलना ही नहीं है। पाकिस्तान को इसका बोध न हो, ऐसा नहीं है, इसलिए उसने भारत पर अपनी श्रेष्ठता कायम करने के लिए भिन्न आधारों का चयन किया। भारत के खिलाफ प्रत्यक्ष युद्ध में लगातार मुंह की खने के बाद उसने परोक्ष युद्ध के लिए आतंकवादी संगठनों का सहारा लिया। अफगानिस्तान में सोवियत सेनाओं के खिलाफ जिहादी तालिबान फौजों के प्रयोग से उसे भारत के खिलाफ जिहादी संगठनों को खड़ा करने की प्रेरणा मिली। इसलिए ज्यादातर भारत विरोधी जिहादी संगठन 1990 के बाद गठित हुए। इसलिए अब भरत के विरुद्ध अपनी सामरिक श्रेष्ठता के लिए उसने आधार बना रखा है। एक तो प्रचुर परमाणु अस्त्र भंडार और उसे चलाने के लिए विविध स्तर की विश्वसनीय मिसाइल प्रणाली, दूसरे आतंकवादी जिहादी संगठन और तीसरे अफगानिस्तान को अपने साथ जोड़ना। अफगानिस्तान पर आधिपत्य उसकी भरत विरोधी रणनीति का अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है। इन तीन आधारों में से प्रथम दो में तो उसने अपनी श्रेष्ठता कायम कर ली है। चीन और उत्तर कोरिया के सहयोग से परमाणु अस्त्रों तथा उसके ‘डिलीवरी सिस्टम‘ यानी मिसाइलों के मामले में वह भारत से आगे है। जिहादी संगठन तो उसकी अकेली शक्ति है। भारत के पास उसके मुकाबले का कोई हथियार नहीं है। दुनिया के लोग अब तक नहीं समझ पा रहे हैं कि पाकिस्तान के जिहादी या आतंकवादी संगठन पाकिस्तानी सेना के ही विस्तार हैं। अपने सैन्य गुप्तचर संगठन आई.एस.आई. के माध्यम से पाकिस्तान की सरकार ही इनके प्रशिक्षण, हथियारों तथा आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करती है।

पाकिस्तान इन दिनों अफगानिस्तान में अपनी रणनीतिक विफलता को लेकर चिंतित है, किंतु अब वह चीन का सहयोग लेकर इस विफलता को सफलता में बदने की कोशिशमें लगा है। वैसे भी अफगानिस्तान पाकिस्तान की प्रतिरक्षात्मक आवश्यकता है, उसकी आक्रामक शक्ति तो उसके आतंकवादी संगठनों में है। और भारत के विरुद्ध इस्तेमाल किया जाने वाला सबसे बड़ा हथियार कश्मीर तो अभी उसके हाथ में है ही। भारतीय क्षेत्र में उसकी सबसे बड़ी सफलता यह है कि कश्मीर के मामले में उसने स्वयं भरत में अपने समर्थकों की श्रृंखला खड़ी कर ली है। देश के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण जैसे लोग जहां पाकिस्तान के सुर में सुर मिलाकर जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह कराने और वहां से सेना हटाने की बात कर रहे हैं, अरुंधती राय जैसी लेखिका कश्मीर के भारत के विलय की वैधानिकता पर सवाल उठा रही हो, द हिन्दू जैसे समाचार पत्र जहां यह लिख रहे हों कि जम्मू-कश्मीर से ज्यादा हिंसा और अपराध तो दिल्ली राज्य में हो रहे हैं, फिर वहां सेना रखने या सेना को विशेष कानूनी अधिकार (सशस्त्र सेना विशेष अधिकार कानून- ए.एफ.एस.पी.ए.) देने की क्या जरूरत है, वहां पाकिस्तान को और अधिक क्या करने की आवश्यकता है। जहां राजनीतिक लाभ के लिए राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करने की आम प्रवृत्ति हो, वहां किसी भी शत्रु का काम करना आसान हो जाता है।

गत सप्ताह कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने एकरतफा तौर पर घोषणा कर दी कि जम्मू-कश्मीर के कुछ जिलों से सशस्त्र सेना विशेष अधिकार कानून (ए.एफ.एस.पी.ए.) हटा लिया जाएगा। मुख्यमंत्री होने के नाते उमर अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद के खिलाफ गठित संयुक्त कमान के अध्यक्ष हैं। किंतु उनको इसका अधिकार कैसे मिल गया कि वह एकतरफा तौर पर इस कानून को हटाने की घोषणा कर दें। इस कानून को लागू करने या हटाने का अधिकार केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय को है। राज्य में उमर अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस की कांग्रेस के साथ साझा सरकार है। उन्होंने इसके लिए अपनी सहयोगी पार्टी के अध्यक्ष सैफुद्दीन सोज ने साफ कहा है कि उमर ने इस बारे में कांग्रेस से राय नहीं ली। उन्होंने प्रतिरक्षा मंत्रालय से भी कोई सलाह-मशविरा नहीं किया और न जम्मू-कश्मीर में कार्यरत सुरक्षा बलों की ‘यूनीफाइड कमान‘ से ही कोई चर्चा की। उमर का कहना है कि इसकी चर्चा राज्य कैबिनेट की बैठक में हुई थी, जिसमें उपमुख्यमंत्री भी उपस्थित थे, जो कांग्रेस के सदस्य हैं।

जाहिर है उमर ने यह एकतरफा घोषणा करके कांग्रेस को उलझााने तथा घाटी में अपना राजनीतिक लाभ उठाने के लिए ही है। इसे राज्य में वह अपनी राजनीतिक उपलब्धि के रूप में गिना सकते हैं और इसके द्वारा वह महबूबा मुफ्ती की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पी.डी.पी.) की जमीन कमजोर करने का भी काम कर सकते हैं, क्योंकि पी.डी.पी. लगातार कश्मीर से सेना को हटाने और नहीं तो कम से कम उसे दिये गये विशेषाधिकारों को समाप्त करने की मांग कर रही थी। भारतीय सेना ने जम्मू-कश्मीर से सेना को हटाने या उसे दिये गये कानूनी अधिकारों को हटाने का विरोध किया है। सेनाध्यक्ष जनरल वी.के. सिंह ने अपने एक सार्वजनिक वक्तव्य में कहा है कि विशेषाधिकार कानून हटाने या न हटाने का प्रश्न केंद्रीय गृह मंत्रालय के विचाराधीन है। उस संबंध में उसे ही निर्णय लेना है। इस संदर्भ में भारतीय सेना के विचार उसे बता दिये गये हैं। ऐसी खबर है कि गत गुरुवार को प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के निवास पर मंत्रिमंडल की सुरक्षा मामलों की समिति की बैठक हुई, जिसमें ए.एम.एस.पी.ए. के बारे में चर्चा हुई। करीब 90 मिनट चली इस चर्चा में प्रतिरक्षा मंत्री ए.के एंटनी, वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी तथा गृह मंत्री पी. चिदंबरम शामिल हुए। विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा राष्ट्रमंडल देशों के विदेश मंत्रियों के सम्मेलन में भाग लेने आस्ट्रेलिया गये हुए थे, इसलिए वह शामिल नहीं हो सके। लंबी चर्चा के बाद भी इस बैठक में कोई निर्ण नहीं लिया जा सका।

यहां आम आदमी के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर वहां सेना को ऐसे कौनसे कानूनी अधिकार दे दिये गये हैं, जिसे लेकर इतना हंगामा खड़ा है। वस्तुतः सेना बाह्य शत्रुओं से रक्षा के लिए गठित संगठन है। आंतरिक असुरक्षा की स्थिति में काम करने के लिए उसके पास ऐसे कोई कानूनी अधिकार नहीं हैं, जिस तरह केंद्रीय सुरक्षा बलों (सी.आर.पी.एफ.) या अन्य अर्धसैनिक बलों के पास हैं। इसलिए सेना को अपनी कार्रवाई में कानूनी सुरक्षा प्रदान करने के लिए यह कानून बनाया गया। इस कानून के अंतर्गत सेना को किसी की भी गिरफ्तारी करने, तलाशी लेने, हिरासत में लेकर पूछताछ करने और प्रतिरोध की स्थिति में प्रतिरोधक को ध्वस्त करने का अधिकार है। रॉ (रिसर्च एंड एनालिसिस विंग) के पूर्व प्रमुख विक्रम सूद के अनुसार सेना को इस कानून के अंतर्गत मिली शक्तियां राज्य पुलिस को मिली शक्तियों से भी कम हैं। उनका कहना है कि हमें समझना चाहिए कि यदि अपनी सीमा में अशांति से लड़ने के लिए सेना को लगाना है, तो उसे अपनी सुरक्षा के लिए कुछ कानूनी अधिकार तो देने ही होंगे। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का कहना है कि यह कानून पहले कुछ जिलों से हटाया जाएगा, किंतु यह स्थिति तो और घातक होगी। अपराधी अपराध करके आसानी से उन सुरक्षित इलाकों में जा छिपेगा, जहां सेना कोई कार्रवाई नहीं कर सकेगी। सूद के अनुसार इस कानून को आंशिक रूप से हटाना भी कोई बुद्धिमानी नहीं। लश्कर-ए-तैयबा के जिहादी सीमा पर लगातार घुसपैठ की ताक में बैठे हैं, ऐसे में सेना की मामूली ढील से भी कश्मीर के हालात फिर बिगड़ सकते हैं। उनकी सलाह है कि उमर को घाटी के लोगों को संतुष्ट करने की इतनी ही बेताबी है, तो वह पहले वहां लागू ‘अशांत क्षेत्र कानून (डिस्टर्ब एरिया एक्ट) हटाने की कार्रवाई करें, जिसका उन्हें अधिकार भी है, किंतु देशहित में सबसे अच्छा तो यही है कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा के इस मामले में राजनीति न करें।

अफसोस की बात यह है कि राज्य की पार्टियां ही नहीं स्वयं कांग्रेस भी यह सोचती है कि कुछ रियायतें देकर कुछ और आर्थिक सहायता देकर कश्मीरी आंदोलनकारियों को शांत किया जा सकता है। स्वयं गृहमंत्री पी. चिदंबरम भी इस विचार के हैं कि कश्मीरी आंदोलनकारियों को शांत करने के लिए अंशतः सेना को हटाने की कार्रवाई की जा सकती है। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की सोच है कि यदि कश्मीरी युवकों के लिए रोजगार के और अधिक अवसर उपलब्ध कराये जाएं, तो आए दिन सड़कों पर तउरने की उनकी प्रवृत्ति रोकी जा सकती है। कश्मीर समस्या का समाधान तलाशने के लिए उनके द्वारा नियुक्त वार्ताकारों की एक समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में इसी तरह का सुझाव दिया है। वर्तमान केंद्र सरकार व उसके प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ही नहीं, उनके पहले की सरकारों का भी यही ख्याल था कि कुछ रियायतें तथा सहायता देकर कश्मीर की समस्या को भी सुलझाया जा सकता है और पाकिस्तान के साथ उत्पन्न तनाव को खत्म किया जा सकता है, किंतु पिछले 5-6 दशकों के अनुभव तो यही बताते हैं कि रियायतें देकर न तो पाकिस्तान समस्या का समाधान हो सकता है, न कश्मीर समस्या का। भारत के विरुद्ध पाकिस्तान या कश्मीर का संघर्ष कुछ रियायतें या सहायता पाने के लिए नहीं है। हां भारत यदि ऐसी रियायतें या सहायता देता है, तो उसे ले लेने में क्या हर्ज है। भारतीय रियायतों का लाभ उठाकर भारत के विरुद्ध लड़ाई लड़ना और आसान ही होगा।

पाकिस्तान को सहायता या रियायतें देकर मनचाही दिशा में मोड़ा नहीं जा सकता। इसका ताजा उदाहरण अमेरिका पाक संबंधों की वर्तमान स्थिति में देखा जा सकता है। पाकिस्तानी सेना ने अमेरिका को साफ बता दिया है कि वह उत्तरी वजीरिस्तान में हक्कानी नेटवर्क के खिलाफ कार्रवाई नहीं करेगा। अमेरिका अपनी सैनिक व आर्थिक सहायता देय नहीं, किंतु तालिबान संगठनों के खिलाफ अब तक वह जो कुछ कर चुका है, अब उसके आगे कुछ नहीं करेगा। उस स्थिति में भी जब कि पाकिस्तान की पूरी अर्थव्यवस्था अमेरिकी आर्थिक सहायता पर टिकी है, वह उसे साफ जवाब देने में राई रत्ती संकोच नहीं कर रहा है। जबसे अफगानिस्तान में अमेरिकी हमला शुरू हुआ है, तब से अब तक अमेरिका उसे करीब 22 अरब डॉलर की सहायता दे चुका है, फिर भी पाकिस्तान एक सीमा से आगे झुकने के लिए तैयार नहीं है। जाहिर है वह अपनी शर्तों पर अमेरिका से सहायता लेता रहा है। अमेरिका स्वयं सहायता देकर या रियायतें देकर उसे झुकाने की स्थिति में नहीं है। 2001 में भी तत्कालीन पाक राष्ट्रपति जनरल मुशर्रफ अफगानिस्तान के विरुद्ध युद्ध में अमेरिका का साथ देने के लिए तब तैयार हुए थे, जब राष्ट्रपति बुश ने उन्हें चेतावनी दी थी कि यदि उन्होंने साथ नहीं दिया, तो अफगानिस्तान के साथ पाकिस्तान को भी खंडहर बना दिया जाएगा। जाहिर है कि यदि रियायतों और सहायता से अमेरिका पाकिस्तान को नहीं झुका सकता, तो भारत उसे क्या झुका लेगा।

पाकिस्तान हमेश यह कहता है कि भारत पाकिस्तान के बीच केंद्रीय विवाद का विषय कश्मीर है। भारत पहले कश्मीर समस्या का समाधान करे। उसकी नजर में कश्मीर समस्या का एक ही समाधान है- उसका भारत से अलग होना, जिससे कि वह पाकिस्तान का अंग बन सके। कश्मीरियों की भी यही मांग है। भारत वहां से अपना कब्जा हटाए। उनका तर्क है कश्मीर कश्मीरियों का है, भारत ने सैन्य बल से उस पर जबर्दस्ती कब्जा कर रखा है। कश्मीर से भारतीय सेना को हटाना उनके युद्ध का पहला पड़ाव बन गया है। इसीलिए घाटी में प्रत्येक 27 अक्टूबर को ‘विरोध दिवस‘ मनाया जाता है, क्योंकि इसी 27 अक्टूबर 1947 को पहली बार भारतीय सेना कश्मीर में उतरी थी। अपने देश में कोई भी संगठन उस दिवस को विरोध दिवस के रूप में नहीं मनाता, जब पाकिस्तानी सेना ने काबायलियों की ओट में कश्मीर पर हमला किया थ और भारी मार काट मचाई थी। हम पाकिस्तान से सद्भाव बनाए रखने के लिए उसकी काली करतूतों को उजागर करने का कभी कोई उपक्रम नहीं करते।

हमारी सरकारें और हमारी राजनीतिक पार्टियां भी देश-दुनिया को यह बताने की कोशिश नहीं करतीं कि कश्मीर समस्या मजहबी अलगाववाद तथा इस्लामी साम्राज्यवाद की समस्या है। यह किसी अन्याय अत्याचार के विरुद्ध कोई मानवाधिकार रक्षा की लड़ाई नहीं, बल्कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश को तोड़ने और आधुनिक उदार मानववाद को ध्वस्त करने की हिंसक साजिश है।

कश्मीर हो या कोई भी अन्य क्षेत्र, उसके बारे में नीति निर्धारित करते समय राष्ट्रीय सुरक्षा का सबसे पहले ध्यान रखना चाहिए। कोई रियायत भी दी जाए, तो उसके लिए भी राष्ट्रीय हित को ही कसौटी बनाया जाना चाहिए। केवल अच्छा दिखने के लिए या अपनी अथवा अपनी पार्टी की छवि सुधारने के लिए ऐसी हरकतें नहीं करना चाहिए। भावनाओं के आधार पर कश्मीर जैसे मामले में कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता। फैसले जो भी हो, वे तार्किक व यथार्थपरक होने चाहिए। कश्मीर से सेना हटाने का काम हो सकता है। उसे दिये गये विशेषाधिकार भी वापस लिये जा सकते हैं, लेकिन जब वहां स्थितियां उसके अनुकूल हो जाएं तब। केवल उमर अब्दुल्ला की राजनीतिक छवि चमकाने के लिए या उनके मुकाबले कांग्रेस को अधिक उदार सिद्ध करने के लिए कश्मीर के बारे में कोई निर्ण नहीं लिया जाना चाहिए। सुरक्षा के मामले में सेना की राय हमेश निहित स्वार्थी राजनेताओं की राय से बेहतर होगी, इसलिए उसका सम्मान किया जाना चाहिए।

रविवार, 23 अक्तूबर 2011

पाक और अमेरिका के बीच छिड़ा युद्ध

‘ऐसा नहीं हो सकता कि घ्र के पिछवाड़े पले सांप केवल दूसरों को काटे‘: संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस के दौरान पाक
में सुरक्षित आतंकवादियों पर अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन की टिप्पणी

अफगानिस्तान की धरती पर अमेरिका व पाकिस्तान के परोक्ष युद्ध का दौर अब समाप्त हो चुका है। युद्धक्षेत्र अब वहां से खिसक कर पाकिस्तान की सीमा में आ गया है। अमेरिका अभी भी परदे के पीछे रहकर इसे निपटाना चाहता है, किन्तु अब वह होने वाला नहीं। इस क्षेत्र में यदि आतंकवाद को मिटाना है और शांति कायम करनी है तो अमेरिका को एकतरफा निर्णय लेना ही पड़ेगा।

अब यह तथ्य पूरी दुनिया के सामने प्रकट हो गया है कि अफगानिस्तान में अमेरिका की लड़ाई किसी और से नहीं, बल्कि सीधे पाकिस्तान से है। इसे अमेरिका और पाकिस्तान के लोग बहुत पहले से जानते हैं, लेकिन वे दोनों मिलकर अब तक दुनिया को यह बताते रहे है कि वे अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी आतंकवाद से लड़ रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति के इतिहास में दोस्ती और दुश्मनी का ऐसा समन्वय अन्यत्र कहीं ढूंढ़ पाना लगभग असंभव है। अब तक यह लड़ाई परोक्ष थी, लेकिन अब वह क्रमशः प्रत्यक्ष रूप लेती जा रही है।

11 सितंबर 2001 की घटना के बाद अफगानिस्तान में जो कुछ शुरू हुआ वह देखने में तो वहां की तालिबान सत्ता के साथ अमेरिका का युद्ध था, जिसमें अमेरिका के साथ पाकिस्तान भी खड़ा नजर आ रहा था। अमेरिका का कहना था कि वह अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी आतंकवाद से विश्व मानवता तथा सभ्यता की रक्षा के लिए यह युद्ध लड़ रहा है। उसने पाकिस्तान को इस युद्ध में अपना साथी बनाया। पाकिस्तान ने बहुत सोची समझी रणनीति के तहत अमेरिका का साथ देना स्वीकार किया और इसकी आर्थिक व सैनिक सहायता के रूप में भारी कीमत वसूली। पाकिस्तान ने इस युद्ध में अमेरिका का साथ देना तो स्वीकार किया, किंतु प्रत्यक्ष लड़ाई में अपने सैनिकों को भेजने से इनकार कर दिया। अफसोस कि अमेरिकी राजनीतिक नेतृत्व अफगान युद्ध शुरू होने के वर्षों बाद तक यह समझ पाने में असमर्थ रहा है कि जिन शक्तियों के खिलाफ अफगानिस्तान में वह मोर्चा खोले हुए है, वे पाकिस्तान द्वारा खड़ी की गयी उसकी ही अपनी शक्तियां हैं और इन्हें तैयार करने में उसने अमेरिकी सहायता का ही इस्तेमाल किया है।

अपने यहां एक पुरानी कहावत है कि सर्वनाश की स्थिति उत्पन्न होने पर बुद्धिमान व्यक्ति आधा छोड़कर शेष आधा बचाने की कोशिश करता है (सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्धम् त्यजति पंडितः)। पाकिस्तान ने यही किया। उसने अपनी मुख्य भूमि तथा सैन्य शक्ति की रक्षा के लिए अफगानिस्तान में तैनात अपनी शक्ति का विनाश होना स्वीकार कर लिया। तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने बड़ी बुद्धिमानी से अमेरिका का साथ देने के बहाने अफगानिस्तान की तालिबान सत्ता के प्रमुख नेताओं को अमेरिकी चंगुल में पड़ने से बचा लिया। वे अफगानिस्तान से भागकर पाकिस्तानी सीमा में आ गये और पाकिस्तान सरकार ने उन्हें पूरा संरक्षण प्रदान किया।

लड़ाई मूलतः यह रही कि सोवियत सेनाओं के अफगानिस्तान से चले जाने तथा नजीबुल्ला की कठपुतली कम्युनिस्ट सरकार के पतन के बाद वहां किसका कब्जा रहे। काबुल पर तालिबान परिषद की सत्ता कायम हो जाने के बाद पाकिस्तान प्रसन्नता के शिखर पर था कि अब वह अपराजेय शक्ति का मालिक हो जाएगा और भारत को अच्छा सबक सिखा सकेगा। उसने तालिबान लड़ाकों की फौज को कश्मीर मोर्चे की तरफ लगाने की योजना भी बना ली थी, लेकिन तभी न्यूयार्क पर हमले की घटना घट गयी। अमेरिका को अफगानिस्तान पर हमले का एक ठोस बहाना मिल गया। वैसे यदि न्यूयार्क पर हमले की घटना न घटी होती, तो भी अमेरिका को अफगानिस्तान में हस्तक्षेप करना पड़ता, लेकिन तब उसका स्वरूप दूसरा होता और इराक की तरह कोई अलग बहाना ढूंढ़ना पड़ता, क्योंकि वह यह तो बर्दाश्त नहीं कर सकता था कि काबुल में बैठकर कोई अमेरिकी सत्ता को चुनौती दे।

अफगानिस्तान पर कब्जे का पाकिस्तान का बहुत पुराना सपना है। पहले उसने सोचा था कि रूसियों के जाने के बाद फिर वहां उसके लिए कोई चुनौती नहीं रह जाएगी, किंतु उसका दुर्भाग्य कि ओसामा बिना लादेन की मूर्खतावश अमेरिका बीच में टपक पड़ा। इसके बाद भी पाकिस्तान ने अपना धैर्य बनाए रखा और अमेरिकी फौजों के अफगानिस्तान से विदा होने की प्रतीक्षा करता रहा।

अमेरिका ने काबुल की तालिबान सत्ता को ध्वस्त करने के बाद पाकिस्तान की इच्छा के विरुद्ध हामिद करजई को वहां की सत्ता सौंपी। इसके बाद से ही अफगानिस्तान में अमेरिका के साथ पाकिस्तान का परोक्ष युद्ध प्रारंभ हो गया। अमेरिका जहां करजई को आगे करके पीछे से अपने युद्ध का संचालन कर रहा थ, वहां पाकिस्तान करजई की सत्ता पलटने वाले तालिबान गुटों को मदद कर रहा था। पहले शायद अमेरिका इस रहस्य को नहीं समझ पाया, लेकिन बाद में अमेरिकी गुप्तचर संस्थाओं ने यह प्रमाण्ति करके दिखा दिया कि अफगानिस्तान में सरकारी सेना तथा अमेरिकी फौजों से लड़ने वाले कबायली गुटों को पाकिस्तान का संरक्षण प्राप्त है। इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण यह है कि अफगानिस्तान में लड़ रहे प्रायः सभी तालिबान गुटों के प्रवक्ताओं के मोबाइल नंबर का नेश्नल कोड पाकिस्तान का है। अमेरिकी गुप्तचर संस्थाओं ने जब सप्रमाण यह सिद्ध कर दिया कि अफगानिस्तान में लड़ रहे विद्रोहियों का संचालन पाकिस्तानी सैन्य गुप्तचर संगठन आई.एस.आई. के द्वारा होता है, तब अमेरिकी नेताओं के कान खड़े हुए और उन्होंने पाकिस्कान पर दबाव डालना शुरू किया कि वह पाकिस्तानी सीमा के सुरक्षित आरामगाह में जमे जिहादियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करे। पाकिस्तानी सेना ने दिखावे के लिए यह कार्रवाई शुरू भी की। अमेरिका ने इसके लिए पाकिस्तान की सहायता राशि तीन गुना बढ़ाने की घोषणा की। वजीरिस्तान के दक्षिणी इलाके में सेना ने व्यापक कार्रवाई की और अमेरिका को दिखाया कि पाकिस्तान कितनी निष्ठा से आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में अमेरिका के साथ्रा है, लेकिन उसके बाद उसने उत्तरी वजीरिस्तान में कार्रवाई करने से साफ मना कर दिया। वास्तव में दक्षिणी वजीरिस्तान में की गयी कार्रवाई केवल दिखावे के लिए थी। वहां जमे सारे तालिबानी नेता उत्तरी वजीरिस्तान की ओर निकल गये।

अमेरिका ने इसके लिए पाकिस्तान की काफी पीठ ठोकी और उसे उत्तरी वजीरिस्तान की ओर बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया, मगर पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष अशरफ परवेज कयानी साहब एकदम अड़ गये कि अब इसके आगे उनकी सेना कोई कार्रवाई नहीं कर सकती। बहाना यह बनाया कि उत्तरी वजीरिस्तान में कार्रवाई के लिए उसके पास न तो पर्याप्त सैन्य बल है, न आवश्यक उपकरण। अमेरिका उपकरण तो सारे देने के लिए तैयार थ, किंतु सैन्य प्रबंध तो पाकिस्तान को ही करना था। उसे कहा गया कि वह अपनी पूर्वी सीमा पर अनावश्यक रूप से तैनात सैनिकों को वहां से हटा कर अपने पश्चिमी मोर्चे की तरफ से आए। कयानी ने इससे भी इनकार कर दिया। उनका सा। कहना था कि पूर्वी सीमा पर भारतीय खतरे को देखते हुए वहां से एक भी सैनिक नहीं हटाया जा सकता।

अब यहां से अमेरिका और पाकिस्तान के बीच सीधी कश्मकश शुरू हो गयी है। अब अफगानिस्तान में मौजूद तालिबान शक्तियां तो इतनी कमजोर हो गयी हैं कि वे सीधे कोई बड़ी कार्रवाई नहीं कर सकती हैं। उनके नेता भी भागकर अब पाकिस्तान आ गये हैं, इसलिए मोर्चा अफगानिस्तान से खिसककर अब पाकिस्तान सीमा के भीतर आ गया है। अब पाकिस्तानी सीमा के भीतर तो पाकिस्तानी सेना को ही कार्रवाई करनी है, किंतु पाकिस्तानी सेना इससे साफ इनकार कर रही है। सेनाध्यक्ष जनरल कयानी तो साफ कह चुके हैं कि अमेरिका अपनी सहायता दे या न दे, पाकिस्तान सेना उत्तरी वजीरिस्तान में अब आगे और कोई सैनिक कार्रवाई नहीं करेगी। इसके बाद ही अमेरिका की तरफ से यह घोषणा की गयी कि पाकिस्तान साथ दे या न दे, लेकिन अमेरिका अफगानिस्तान में आतंकवादियों के खिलाफ अपनी कार्रवाई जारी रखेगा और यदि आवश्यक हुआ, तो पाकिस्तानी सीमा के भीतर घुसकर कार्रवाई करने में भी संकोच नहीं करेगा। वह पाकिस्तान की प्रभुसत्ता का आदर करता है, किंतु वह अमेरिका के दुश्मनों को वहां शरण लेने की इजाजत नहीं दे सकता। इसका प्रमाण उसने पाकिस्तानी सीमा में राजधानी इस्लामाबाद के निकट छिपे ओसामा बिन लादेन को मारकर दे दिया है।

ऐसी खबरें आ रही हैं कि अफगानिस्तान में स्थित अमेरिकी सैनिक अब पाकिस्तान से लगने वाली सीमा के निकट एकत्र हो रहे हैं। शायद इसी की प्रतिक्रिया में पाक सेनाध्यक्ष जनरल कयानी ने चेतावनी दी है कि पाकिस्तानी सीमा में एकतरफा सैन्य कार्रवाई शुरू करने के पहले अमेरिका को भी 10 बार सोचना पड़ेगा। पाकिस्तान एक परमाणु शक्ति संपन्न देश है। उसे इराक या अफगानिस्तान समझने की भूल नहीं की जानी चाहिए। जनरल कयानी ने पाकिस्तानी संसद की प्रतिरक्षा मामलों की स्थाई समिति के समक्ष पाकिस्तान की सुरक्षा स्थिति पर रिपोर्ट देते हुए यह टिप्पणी की। इस टिप्पणी के अगले ही दिन गत गुरुवार को अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन, नवनियुक्त अमेरिकी संयुक्त सेना के अध्यक्ष मार्टिन इ. डेम्पसे तथा गुप्तचर संस्था सी.आई.ए. के डायरेक्टर डेविड एच. पेट्रौस के साथ इस्लामाबाद पहुंची। इन तीनों की पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी के साथ लंबी बातचीत हुई। बातचीत के दौरान पाक विदेश मंत्री हिना रब्बानी खर, सेनाध्यक्ष जनरल कयानी और आई.एस.आई. के प्रमुख जनरल शुजा पाशा भी मौजूद थे। अमेरिकी मीडिया की खबरों के अनुसार अमेरिका की तरफ से पाकिस्तान को साफ कह दिया गया है कि वह अपनी सीमा में मौजूद जिहादी गुटों के सफाए की कार्रवाई शुरू करे। यदि वह नहीं करेगा, तो अमेरिका स्वयं यह कार्रवाई करेगा। ऐसी भी खबर है कि प्रधानमंत्री गिलानी ने अमेरिका से अनुरोध किया है कि वह शांति का एक मौका और दे। पाक-अमेरिका संबंध केवल आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई तक सीमित नहीं है, हमें उसके आगे की भी देखना चाहिए।

अगले दिन हिना रब्बानी के साथ अपनी संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में श्रीमती क्लिंटन का लहजा बहुत कठोर नहीं था, लेकिन संदेश स्पष्ट था कि पाकिस्तानी सेना ने यदि स्वयं कार्रवाई नहीं शुरू की, तो अमेरिका इसे एकतरफा पूरा करने से पीछे नहीं रहेगा। उन्होंने एक बहुचर्चित जुमले का इस्तेमाल किया कि ‘यदि आप अपने पिछवाड़े सांप पालते हैं, तो यह न समझें कि वे केवल पड़ोसियों को या दूसरों को ही काटेंगे।‘ उनका संकेत स्पष्ट ही पाकिस्तानी सीमा में छिपे आतंकवादियों की ओर था और पाकिस्तान को यह चेतावनी भी थी कि यदि उनका सफाया नहीं किया गया, तो वे पाकिस्तान को भी डंस सकते हैं।

बात हिलेरी की बहुत सही थी, लेकिन शायद वह अभी भी ठीक-ठीक यह समझ नहीं पा रही हैं कि वे पिछवाड़े के सांप पाकिस्तानी शासकों व सेनाप्रमुखों से कुछ अलग नहीं है। वे उन्हीं से भिन्न रूप हैं । उन सांपों को मारने का मतलब है कि अपने ही हाथ पांव काट डालना। इसलिए अमेरिका कितना ही प्रोत्साहन दे, कितनी भी सहायता दे, पाकिस्तान की सरकार अपने अंगभूत इन जिहादी संगठनों का सफाया नहीं कर सकती। अब यह अमेरिका को तय करना है कि वह हक्कानी नेटवर्क व अन्य तालिबान गुटों का सफाया करने के लिए एकतरफा कार्रवाई करने के लिए तैयार है या नहीं ।

लड़ाई अफगानिस्तान से हटकर अब पाकिस्तान में आ गयी है। अब परोक्ष युद्ध की गुंजाइश नहीं रही। अब सीधा मुकाबला होना तय है। जनरल कयानी का यह कहना सही है कि पाकिस्तान के विरुद्ध सैन्य कार्रवाई शुरू करते समय अमेरिका को भी 10 बार सोचना पड़ेगा। भले ही उसे पाकिस्तान की परमाणु शक्ति का कोई भय न हो, लेकिन वह नहीं चाहेगा कि दुनिया की नजर में पाकिस्तान के साथ उसका सीधा मुकाबला हो। फिर भी यदि आतंकवाद का सफाया करना है और अफगानिसतान को पाकिस्तान के कब्जे में जाने से रोकना है, तो अमेरिका को यह खतरा उठाना ही पड़ेगा। पाकिस्तान के विषदंत तोड़े बिना दक्षिण एशिया के इस क्षेत्र में कभी शांति स्थापित नहीं हो सकती।

शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

भारत-अफगान निकटता से तिलमिलाता पाकिस्तान

4 अक्टूबर मंगलवार को भारत-अफगानिस्तान के बीच हुआ ऐतिहासिक रणनीतिक समझौता।
दस्तावेजों का आदान-प्रदान करते भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह (दाएं) तथा अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई।
बीते सप्ताह भारत और अफगानिस्तान के बीच हुए व्यापक रणनीतिक सहयोग समझौते से लगभग पूरा पाकिस्तान तिलमिला उठा है। इस समझौते ने उसका दश्कों पुराना वह सपना तोड़ दिया है कि अफगानिस्तान को मिलाकर वह आकार और शक्ति में भारत को मात देने लायक बन जायेगा। अफगानिस्तान को वह पअने पिछवाड़े की जमीन मानता रहा है, जिसमें भारत की उपस्थिति उसे फूटी आंख् नहीं सुहा रही है। उसे लग रहा है कि काबुल उसके हाथ आते-आते निकल गया है। उसे कूटनीतिक मोर्चे पर अफगानिस्तान में भारत के हाथें मिली यह पराजय 1971 में सैनिक मोर्चे पर बंगलादेश् में मिली पराजय से कम आघात पहुंचाने वाली नहीं प्रतीत हो रही है।

गत मंगलवार 4 अक्टूबर 2011 को भारतीय विदेश नीति के इतिहास में निश्चय ही एक उल्लेखनीय तिथि के रूप में याद किया जाएगा, जब भारत और अफगानिस्तान ने नई दिल्ली में एक-एक व्यापक रणनीतिक समझौते पर हस्ताक्षर किये। करीब पांच महीने से अधिक समय की तैयारी के बाद इन समझौतों को अंतिम रूप दिया जा सका, जिन पर अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई की दो दिवसीय भारत यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के साथ हस्ताक्षर की औपचारिकता पूरी हुई।

इस समझौते से पाकिस्तान बेहद तिलमिलाया हुआ है। उसके नेता अपनी बौखलाहट छिपा नहीं पा रहे हैं। वे खुले आम इसके विरोध में उतर आये हैं और कह रहे हैं कि इससे किसी को कोई लाभ नहीं होगा और इससे भारत और पाकिस्तान के बीच का संघषर्् और बढ़ेगा। अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई को परोक्ष चेतावनियां दी जा रही हैं कि उन्होंने भारत के साथ यह समझौता करके अच्छा नहीं किया। इससे अफगानिस्तान में शांति स्थापना का कार्य और कठिन हो गया है। पाकिस्तान के केवल सत्ताधारी राजनेता ही नहीं राजनयिक, पत्रकार तथा बुद्धिजीवी वर्ग भी इस पर चिंता व्यक्त कर रहा है। पाकिस्तान के अंग्रेजी दैनिक ‘द नेशनब् ने लिखा है कि ‘समझौता बेहद चिंताजनक है।‘ इससे न तो अफगानिस्तान को फायदा होगा, न पाकिस्तान को। इसी तरह ‘द एक्सप्रेस ट्रिब्यून‘ ने लिखा है कि पाकिस्तान के साथ मतभेदों के बीच अफगानिस्तान ने पहली बार भारत के साथ सामरिक समझौता किया है, जो स्पष्ट रूप से पाकिस्तान के खतरे का संकेत है। एक और अखबार ‘पाकिस्तान टुडे‘ ने लिख है कि यह समझौता क्षेत्रीय स्थिरता में पाकिस्तान की भूमिका को खत्म कर देगा। ‘द नेशन‘ का भी कहना है कि यह समझौता पाकिस्तान के हित में नहीं है। पाकिस्तान की सैन्य विशेषज्ञ आयशा सिद्दीकी ने कहा है कि इससे अफगानिस्तान में भारत और पाकिस्तान की जंग और तेज होगी, दोनों के बीच अप्रत्यक्ष युद्ध (प्रॉक्सी वार) बढ़ेगा।

यहां यह सवाल उठाया जाना बहुत स्वाभाविक है कि आखिर पाकिस्तान, भारत और अफगानिस्तान के बीच हुए समझौते से इतना क्षुब्ध क्यों है ? अफगानिस्तान में हामिद करजई की सरकार के बाद से भारत उसे अब तक 2 अरब डॉलर की सहायता दे चुका है। वह वहां पूरी तरह रचनात्मक भूमिका निभा रहा है। वह वहां व्यापारिक राजमार्गों, स्कूलों व अस्पतालों का निर्माण कर रहा है, औद्योगिक आधारभूत ढांचे तैयार कर रहा है तथा राजधानी काबुल के नवनिर्माण के साथ वहां संसद भवन का निर्माण कर रहा है। पाकिस्तान के लिए वहां यह सब करना संभव नहीं था। न तो उसके पास इसके लिए धन था और न इसके लिए जरूरी तकनीकी जनशक्ति। भारत वहां काबुल सरकार को अपनी सुरक्षा व्यवस्था को भी मजबूत करने में मदद दे रहा है। पिछले कई वर्षों से भारतीय सैन्य अधिकारी वहां अफगान सेना को प्रशिक्षित करने के काम में लगे हैं। कुछ अफगान उच्च सैनिक अधिकारी यहां भारत आकर भी प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं। ऐसे में यदि अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई भारत के साथ् ऐसा व्यापक समझौता करते हैं, जिसमें आथर््िाक व तकनीकी सहयोग ऐसा व्यापक समझौता करते हैं, जिसमें आर्थिक तकनीकी सहयोग के साथ् सामरिक सहयोग भी शामिल है, तो उससे पाकिस्तान को इतनी जलन क्यों हो रही है।

इसका उत्तर पाना कुछ बहुत मुश्किल नहीं है। जो लोग पाकिस्तान को जानते हैं, उनके लिए इस समझौते पर उसका बिफरना कोई चकित करने वाला नहीं है।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान भारत व भारतीयों के प्रति मुस्लिम घृणा, द्वेष, प्रतिस्पर्धा व जलन की उपज है। उसका सपना कैसे भी हो, इसे पराजित करके उस पर अपना प्रभुत्व कायम करना है। बंगलादेश के अलग हो जाने के बाद पाकिस्तान के इन मुस्लिम नेताओं की जलन और बढ़ गयी। पहले अमेरिका व यूरोप की मदद लेकर अपने सैन्य बल से वे इसे कुचलना चाहते थे, लेकिन उनका सपना साकार होता, इसके पहले ही अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियां बदल गयीं। सोवियत संघ का पतन हो गया। नई विश्व व्यवस्था सामने आयी। नेय अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक समीकरण बनने लगे। अंतर्राष्ट्रीय सामरिक रणनीति में अमेरिका के लिए पाकिस्तान का महत्व कम हो गया। उसने भारत के साथ भी संबंध सुधार के प्रयास शुरू किये। यह देखते हुए पाकिस्तान ने भी अपनी रणनीति बदली। उसने ‘प्रत्यक्ष चयुद्ध‘ की जगह ‘परोक्ष युद्ध‘ को अध्कि महत्व देना शुरू किया। उसने जिहादी संगठनों के रूप में अपनी नियमित सेना का अलग से विस्तार किया। प्रारंभ में ऐसे संगठनों के निर्माण् में अमेरिका ने भी भ्रपूर मदद की, क्योंकि उसे भ्ी अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं को भगाना था। ‘तालिबान‘ का गठन मूलतः सोवियत सैनिकों को अफगानिस्तान से भ्गाने के लिए ही किया गया था। इन्हें पाकिस्तानी सेना ने ही प्रशिक्षित करके तैयार किया थ। इसके लिए जरूरी आर्थिक सहायता व हथियारों की मदद अमेरिका ने की थी पाकिस्तान ने इसके साथ ही कुछ और संगठनों को भी खड़ा किया थ जैसे लश्कर-ए-तैयबा, हिजबुल मुजाहिदीन, हरकतुल मुजाहिदीन जैश-ए-मोहम्मद, अलबदर, अंजुमन सिपाहे सहाबा आदि, जिनको भारत के खिलाफ इस्तेमाल किया जाना था। उसने भारत पर अब घोष्ति प्रत्यक्ष सैनिक आक्रमण करने के बजाए आतंकवादी हमले करने शुरू किये। बहाना कश्मीर को बनाया गया। किंतु यह अप्रत्यक्ष युद्ध समूचे भारत के खिलाफ था।

ऐसे में अफगानिस्तान को लेकर भी उसने एक बड़ा सपना देखा था। उसके सामने यह बहुत साफ था कि सोवियत सेना के पलायन के बाद इस पड़ोस के अत्यंत रणनीतिक महत्व वाले देश पर उसका आधिपत्य कायम हो जायेगा और तब वह आकार और शक्ति में इतना बड़ा हो जायेगा कि वह भारत को आसानी से मात दे दे। उसके पास अपनी नियमित सेना के अतिरिक्त तालिबान तथा अन्य मुजाहिद संगठनों की एक विशाल जुनूनी सेना होगी, जिसका मुकाबला करना भारत के लिए असंभव होगा। ऐसा लगता हो भी गया था। काबुल में पाकिस्तान के द्वारा तैयार की गयी तालिबान फौजों ने अपनी सरकार कायम कर ली थी। तालिबान नेता मुल्ला उमर वहां का राष्ट्रपति बन बैठा था। अलकायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन के लिए भी यह अद्भुत उपलब्धि थी। अब उसे जंगल व पहाड़ी गुफाओं में छिपने की जरूरत नहीं थी। वह भी अब शान से काबुल के राष्ट्रपति निवास में मुल्ला उमर के साथ रह रहा था। लेकिन भारत के सौभाग्य तथा पाकिस्तान के दुर्भाग्यवश ओसामा की मति मारी गयी और उसने अमेरिका को ही सबक सिखाने की ठान ली और सीधे न्यूयार्क व वाशिंगटन पर हमला करा दिया। इस हमले ने पूरे इतिहास चक्र की दिशा ही बदल दी। अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला बोल दिया। इस हमले में काबुल में स्थापित तालिबान की सत्ता ही नहीं उखड़ गयी, उसका अफगानिस्तान में स्थापित पूरा गढ़ ध्वस्त हो गया। इसके साथ पाकिस्तानी सपना भी तार-तार हो गया। उसे शुक्रगुजार होना चाहिए अपने सेनाध्यक्ष से राष्ट्रपति बने जनरल परवेज मुशर्रफ का कि उन्होंने अत्यंत साहसिक कूअनीतिक चतुराई का परिचय देते हुए अमेरिकी कोप से पाकिस्तान की रक्षा की और तालिबान नेताओं की भी जान बचाई। इस कौशल ने अफगानिस्तान की मदद से भारत को मात देने के सपने को फिर से प्राणदान दे दिया।

अमेरिका ने अफगानिस्तान से रूसी फौजों को भगाने के लिए तो अपने सैनिकों को वहां नहीं उतारा, मगर तालिबान और अलकायदा के खिलाफ लड़ाई में उसे वहां अपने सैनिकों को उतारना पड़ा। पाकिस्तान इस लड़ाई में अमेरिका का सबसे निकट का मददगार बन गया। पाकिस्तान की भौगोलिक निकटता ने अमेरिका को भी मजबूर किया कि वह इस लड़ाई में उसे भी अपना साझीदार बनाए। पाकिस्तान ने इस साझेदारी के बदले अमेरिका से काफी मोटी रकम वसूली। 2001 से अब तक वह अमेरिका से करीब 22 अरब डॉलर की रकम ले चुका है। वास्तव में इस सहयोग के पीछे भी पाकिस्तान का रकम ले चुका है। वास्तव में इस सहयोग के पीछे भी पाकिस्तान का दोहरा स्वार्थ था। एक तो सहयोग के बदले में अमेरिका से अरबों उॉलर की नकद व सैनिक साजो-सामान की सहायता प्राप्त करना तथ दूसरे एक बार फिर काबुल पर अपना प्रभुत्व कायम करने का सपना पूरा करना।

पाकिस्तान अच्छी तरह यह समझ रहा था कि अमेरिका सैनिक अनंतकाल तक अफगानिस्तान में नहीं ठहर सकते। उसके नेतृत्व वाली ‘उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन‘ /नाटो/ का भी कोई देश अपनी सेना वहां सदैव के लिए नहीं रख सकता। इसलिए जब ये विदेशी सैनिक वहां से हटेंगे, तो अपने आप उनके द्वारा खाली की गयी जगह पाकिस्तान के कब्जे में आ जाएगी। और जब अमेरिकी और अन्य नाटो देशों की सेना वहां नहीं रह जाएगी, तो अमेरिकी मदद से स्थापित की गयी काबुल की सरकार भी वहां नहीं टिक सकेगी। और तब फिर 2001 के पूर्व की स्थिति वहां वापस मिल जायेगी और पाकिस्तान तब फिर से भारत के खिलाफ वह अभियान शुरू कर सकेगा, जो न्यूयार्क पर हमले के बाद शुरू हुए घटनाक्रम में ध्वस्त हो गया था। लेकिन अफसोस, इस बीच अमेरिका के साथ बरती जा रही पाकिस्तान की कपट नीति के सारे पर्दे एकाएक फट गये और एक छली, धोखेबाज पाकिस्तान चौराहे पर नंगा खड़ा नजर आने लगा। उसकी कुरूप सच्चाई पर पड़ा अंतिम चीथड़ा भी तब उतर गया, जब राजधानी इस्लामाबाद के निकट उसकी सैन्य अकादमी की नाक के नीचे रह रहा अलकायदा नेता ओसामा बिन लादेन मारा गया। पाकिस्तान हतप्रभ था। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि अमेरिका ऐसा कदम भी उठा सकता है। रात के तीसरे पहर अमेरिकी कमांडो दस्ते ने पाकिस्तान में भीतर घुसकर लादेन को मार डाला और उसकी लाश तक लेकर चंपत हो गये और पाकिस्तानी सेना व सरकार को इसकी तब भनक लगी, जब स्वयं अमेरिका द्वारा इसकी घोषणा की गयी। पाकिस्तान सरकार और उसकी सेना की विश्वसनीयता पर यह सबसे बड़ा आघात था। जिसके बारे में पाकिस्तान सरकार अक्सर बयान देती रहती थी कि वह शायद मर चुका है या पाकिस्तान छोड़कर जा चुका है या शायद कहीं उत्तरी वजीरिस्तान की पहाड़ियों में छिपा हो सकता है, वह राजधानी के निकट, सैन्य अकादमी के सुरक्षित इलाके में एक बड़ी इमारत में शान से रह रहा था।

पाकिस्तान अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए प्रायः सभी को धोखा दे रहा था, सभी से झूठ बोल रहा था, लेकिन उसका यह धोखा, यह झूठ, यह फरेब आखिर कब तक छिपा रह सकता था। उसे काबुल में भारत की उपस्थिति फटी आंख नहीं सहा रही थी। वह उसके पांव उखाड़ने के लिए अपने तालिबान गुर्गों से लगातार हमले करवा रहा था। राष्ट्रपति हादि करजई से भी उसकी नाराजगी इसीलिए थी कि करजई को भारत पर अधिक भरोसा था, इसलिए वह करजई सरकार का भी तख्ता पलटने की साजिश करता रहा। अमेरिकी सहायता के कारण वह इसमें सफल नहीं हो पा रहा था, तो उसने करजई की हत्या की साजिश रचनी शुरू कर दी। अमेरिका को भी यह झांसा देने की कोशिश करता रहा कि वह तालिबान के नरमगुट के साथ उसका समझौता करा सकता है, जिससे अफगानिस्तान में शांति कायम हो जाएगी और अमेरिका अपने सैनिकों को आराम से वापस बुला सकेगा। लेकिन जैसी की कहावत है कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती, आखिर हरेक को धोखा देकर अपना उल्लू सीधा करने की साजिश कब तक काम करती। अंततः वही हुआ, जो होना चाहिए था। अमेरिका को भी यह समझ में आ गया कि पाकिस्तान की नीयत क्या है और वह चाहता क्या है। राष्ट्रपति ओबामा ने पाकिस्तान को सार्वजनिक रूप से सलाह दी है कि वह भारत को अपना शत्रु मानना बंद करे। भारत उसका शत्रु नहीं है, लेकिन वह एकतरफा तौर पर भारत से शत्रुता रखता है, जो उसके लिए ठीक नहीं है।

भारत के साथ हुए अफगान समझौते से पाकिस्तान इसीलिए तिलमिला रहा है कि इससे उसका दशकों पुराना सपना विफल होता नजर आ रहा है। उसने अफगानिस्तान को मिलाकर उसे मात देने की सोच रखा था, लेकिन अब यह संभव नहीं रह गया है। अमेरिका चला भी जायेगा, तो भी काबुल में भारत की उपस्थिति बनी रहेगी और उसके लिए सैनिक दृष्टि से पांव जमाने के लिए वहां कोई अवसर नहीं रह जायेगा। उसको सर्वाधिक खीझ इस बात को लेकर है कि अफगानिस्तान ने अपनी सुरक्षा सेना के गठन और प्रशिक्षण का अधिकार भारत को दे दिया है। इस प्रशिक्षण के बहाने भारत की सैन उपस्थिति भी काबुल में बनी रहेगी। अफगानिस्तान के पास अकूत खनिज संपदा है। उसकी धरती के नीचे लौह खनिज तथा तेल और गैस के विशाल भंडार हैं। भारत उसे खोजने और निकालने में अफगानिस्तान का साझीदार होगा। यह सब सोच-सोचकर पाकिस्तान का कलेजा राख हुआ जा रहा है। भारत के साथ नागरिक स्तर की मैत्री का दम भरने वाले बुद्धिजीवी, कलाकार, लेखक व पत्रकार भी इसे बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं।

पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति व सेनाध्यक्ष परवेज मुशर्रफ जैसे देश निकाल पाए राजनीतिक नेता ऋभी कह रहे हैं कि भारत, अफगानिस्तान को पाकिस्तान के विरुद्ध खड़ा करने में लगा है। उनके अनुसार अफगानिस्तान, भारत और पाकिस्तान का परोक्ष युद्ध केंद्र बना हुआ है। उन्होंने यह तो नहीं बताया कि इस परोक्ष युद्ध की शुरुआत करने वाला कौन है, लेकिन उन्हें लग रहा है कि इस परोक्ष् युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को मात दे दी है। वह जानते हैं कि पाकिस्तान इतनी आसानी से यह मोर्चा छोड़ने वाला नहीं, इसलिए उन्होंने पाकिस्तानी बुद्धिजीवियों के स्वर में स्वर मिलाते हुए कहा है कि इससे अफगानिस्तान में शांति कायम करने में कोई मदद नहीं मिलेगी, बल्कि वहां भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष और बढ़ेगा, जिसका प्रभाव पूरे दक्षिण एशिया पर पड़ेगा। मुशर्रफ ने बड़ी खीझ के साथ् कहा है कि जब वह सत्ता में थे, तो उन्होंने कई बार अफगान सरकार के समक्ष उसकी सेना को प्रशिक्षित करने का प्रस्ताव रखा, किंतु वहां से कभी एक आदमी भी आने के लिए तैयार नहीं हुआ। अब इन मुशर्रफ साहब को कौन बताए कि काबुल के शासक मूर्ख नहीं हैं। वे भारत और पाकिस्तान दोनों के प्रशिक्षण का फर्क समझते हैं। भारत के निश्चय ही अफगानिस्तान में अपने सामरिक हित हैं, लेकिन वह अफगानिस्तान को किसी के खिलाफ इस्तेमाल करने का सपना नहीं देख रहा है। वह केवल इतना चाहता है कि अफगानिस्तान किसी भारत विरोधी शक्ति के हाथ में न चला जाए। भारत सरकार के राजनीतिक नेताओं को भी इसके लिए बधाई दी जानी चाहिए कि उन्होंने देश के इतिहास में पहली बार एक ऐसी विदेशी नीति को अगली जामा पहनाया, जो देश के दीर्घकालिक सामरिक व आर्थिक हितों से जुड़ी थी। 2001 में जब अफगानिस्तान में अमेरिकी सैन्य कार्रवाई शुरू हुई, तब इस देश में भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन का शासन था। तीन साल बाद कांग्रेस की सत्ता आयी, तो उसने भी अपनी अफगान नीति को सही दिशा में आगे बढ़ाया। भारतीय नीति को अमेरिका का भी समर्थन मिला, क्योंकि भारत जो कार्य अफगानिस्तान में कर रहा है, वह अमेरिका के लिए भी मुश्किल था।

कितने आश्चर्य की बात है कि पाकिस्तान के प्रायः सारे नेता एक स्वर में यह कह रहे हैं कि भारत वहां अपना सारा विकास कार्य बंद कर दे। पाकिस्तान के नेताओं में जनरल मुशर्रफ से लेकर यूसुफ रजा गिलानी तक सभी अमेरिका पर इसके लिए दबाव डालते रहे कि वह भारत को वहां अपना कामकाज फैलाने से रोके, क्योंकि वह पाकिस्तानी हितों के खिलाफ है। मुशर्रफ साहब तो अभी भी कह रहे हैं कि भारत को वहां अपना विकास कार्य बंद करने को कहा जाए। पाकिस्तानी राजनेता भी अमेरिका को चेतावनी दे रहे हैं कि पाकिस्तान पर दबाव डालने की उसकी कार्रवाई उलटी पड़ सकती है। पाकिस्तानी सिनेट की विदेश मामलों की कमेटी के चेयरमैन सलीम सैफुल्लाह ने कहा है कि अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने में पाकिस्तान की अहम भूमिका रही है, ऐसे में यदि पाकिस्तान पर ही दबाव बढ़ाया गया, जो इससे वहां अमेरिकी विरोधी भावना भड़क सकती है। कितने आश्चर्य की बात है कि पाकिस्तानी नेता समझते हैं कि अमेरिका को अभी भी मूर्ख बनाया जा सकता है।

अमेरिका के पास अब इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि पाकिस्तान सरकार के स्वयं पाकिस्तान व अफगानिस्तान में सक्रिय आतंकवादी संगठनों से सीध संबंध है और पाकिस्तानी सैन्य गुप्तचर संस्थ आई.एस.आई. उनका संचालन करती है। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई ने अभी दो दिन की अपनी भारत यात्रा से वापस जाने के बाद गुरुवार को काबुल में प्रेस के सामने कहा कि बिना पाकिस्तानी सहायता के तालिबान आतंकवादी एक उंगली तक नहीं हिला सकते। अभी जब करजई दिल्ली में थे, तभी अफगानिस्तान में उनकी हत्या की साजिश में शामिल 6 लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिसमें एक स्वयं करजई का अपना सुरक्षा गार्ड भी शामिल है। इन सभी के संबंध तालिबान के हक्कानी गुट से बताया जाता है। अफगान राष्ट्रीय सुरक्षा निदेशालय के प्रवक्ता लुत्फुल्लाह मशाल के अनुसार करजई की हत्या का यह तीसरा प्रयास था, जिसे समय रहते विफल कर दिया गया। पिछले कुछ दिनों से करजई तथा उनके निकटस्थ लोगों की हत्या का एक पूरा अभियान चलाया जा रहा है, जिसमें हमलावरों को कुछ सफलता भी मिली है। जैसे वे करजई के सौतेले भाई अहमद वली करजई तथा अफगानी शांति मिशन के अध्यक्ष पूर्व राष्ट्रपति वजी उल्लाह रब्बानी की हत्या करने में सफल हो गये।

इसलिए अब पाकिस्तान लाख दावा करे कि अफगानिस्तान में शांति कायम करने में उसकी महान भूमिका रही है, यानि उसकी सहायता के बिना अमेरिका वहां कोई कामयाबी हासिल नहीं कर सकता था अथवा उसने भी आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में भारी कुर्बानी दी है, लेकिन फिलहाल वहां उसकी दाल गलने वाली नहीं है, क्योंकि अब यह पूरी दुनिया के सामने उजागर हो चुका है कि उसने जो कुछ भी किया है, वह अपने स्वार्थवश किया है और विश्व समुदाय के समक्ष लगातार झूठ बोलता रहा है और धोखा देता रहा है। हां, यह बात सही है कि अब भारत-पाक संघर्ष और बढ़ेगा। बंगलादेश में हुई पराजय के बाद अफगानिस्तान में यह उसकी दूसरी बड़ी पराजय है। वह सैनिक पराजय थी, तो यह कूटनीतिक। जिस तरह वह बंगलादेश की पराजय को अब तक नहीं भुला सका है और उसे याद करके तिलमिलाता रहता है, उसी तरह वह अफगानिस्तान की कूटनीतिक पराजय कभी नहीं भुला सकेगा। जाहिर है कि वह अब दुगुनी ताकत से भारत पर हमले करने की कोशिश करेगा। यह कोशिश् निश्चय ही प्रत्यक्ष नहीं, परोक्ष युद्ध की होगी।

यह खबरें पहले से ही मिलती आ रही हैं कि पाकिस्तान गुप्तचर संस्थ आई.एस.आई. ने भारत के नक्सलवादी संगठनों तथा उत्तर-पूर्व के विद्रोही संगठनों (जैसे मणिपुर की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) से निकट संपर्क बना रखा है तथा उन्हें हथियारों के साथ नकद सहायता भी उपलब्ध करवा रहा है। अब वह अपनी इस कार्रवाई को और तेज कर सकता है। देश में फैली जिहादी इकाइयों के साथ इन हिंसक विद्रोही संगठनों को जोड़कर पाकिस्तान देश में हिंसा व अशांति फैलाने के नये प्रयास कर सकता है। अभी तो वह अफगानिस्तान में भी भारत विरोधी कार्रवाइयां तेज करने की कोशिश करेगा। यद्यपि भारत में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो समझते हैं कि भारत ने नाहक अपने को अफगानिस्तान में फंसा रखा है, लेकिन ऐसे लोग या तो बेहद भोले और नासमझ हैं अथवा वे भारत विरोधी शक्तियों के दलाल हैं। भारतीय उपमहाद्वीप के इस क्षेत्र में शांति बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि पाकिस्तान और उसके जिहादी संगठनों से अफगान मोर्चे पर ही निपट लिया जाए। इसके लिए कोई भी कीमत अदा करना महंगा सौदा नहीं होगा।