शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

बोधगया विस्फोट

बोधगया विस्फोट
म्यॉंमार का बदला भारत में 

बोधगया में कभी भी कुछ हो सकता है, इसके संकेत पिछले एक वर्ष से लगातार मिल रहे थे| म्यॉंमार (बर्मा) में रोहिंग्या मुस्लिमों तथा बौद्धों के बीच चल रहे दंगे से यह अनुमान लगाना कठिन नहीं था कि इसकी प्रतिक्रिया में भारत में भी कुछ हो सकता है और खासकर उस स्थिति में, जब पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन सीधे यह आरोप लगा रहे हों कि भारत सरकार म्यॉंमार में वहॉं की सरकार के साथ मिलकर मुसलमानों का सफाया करने में लगी है| मुस्लिमों के विरुद्ध दुनिया में कहीं कोई छोटी सी भी घटना हो तो उसकी प्रतिक्रिया भारत में अवश्य होती है, फिर यदि पड़ोस के उस इलाके में कोई घटना हो रही हो, जिसका संबंध सीधे भारत के इतिहास के साथ जुड़ा है, तो उसकी प्रतिक्रिया तो होनी ही थी|

विश्‍व में शांति के अग्रदूत समझे जाने वाले भगवान बुद्ध की संबोधिस्थली ‘बोधगया' में रविवार ७ जुलाई को हुए श्रृंखलाबद्ध विस्फोट ने वैश्‍विक आतंकवाद को एक नये आयाम में पहुँचा दिया है| यद्यपि अभी प्रामाणिक तौर पर इस बात की पुष्टि नहीं हो सकी है कि इन विस्फोटों के पीछे किसका हाथ है, लेकिन यह अनुमान लगाना बिल्कुल कठिन नहीं है कि इसके पीछे कौन लोग हैं| संयोगवश विस्फोटों की यह श्रृंखला बहुत घातक सिद्ध नहीं हुई, क्योंकि कोई मृत्यु नहीं हुई, केवल कुछ लोग घायल ही हुए| महाबोधि मंदिर को भी कोई बड़ी क्षति नहीं हुई, किन्तु यह विस्फोट होना ही एक बड़े खतरे का परिचायक है| मंदिर परिसर में कुल १३ विस्फोटक लगाये गए थे जिसमें से केवल १० में विस्फोट हुआ और बाकी ३ विस्फोट से पहले ही निष्क्रिय कर दिए गए| विस्फोट स्थलों को देखने से यह भी पता चल गया कि विस्फोटक कम क्षमता वाले थे| मगर इससे यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि विस्फोटक लगाने वाला बहुत उदार था और वह नहीं चाहता था कि इससे ज्यादा लोग हताहत हों| इतने विस्फोटक एक  साथ लगाने के साथ स्थान और समय का जिस तरह चयन किया गया उससे साफ जाहिर होता है कि विस्फोटक लगाने वालों का इरादा बड़ी संख्या में लोगों को मौत के घाट उतारना था| यह तो संयोग ऐसा ठहरा कि विस्फोटक कम क्षमता के निकले और वे शायद निर्धारित समय से पहले फट गए जिससे कम लोग ही उसके शिकार हुए|
यह निश्‍चय ही भारत के आंतरिक सुरक्षा बलों, गुप्तचर संगठनों तथा राजनीतिक प्रशासकों की घोर लापरवाही का परिणाम है कि बोधगया में यह विस्फोट हुआ| बताया जा रहा है कि केन्द्रीय एजेंसियों को वहॉं संभावित आतंकी हमले की जानकारी पहले से थी लेकिन उसे गंभीरता से नहीं लिया गया| इस वर्ष फरवरी में दिल्ली पुलिस ने यह ‘एलर्ट' जारी किया था कि बोधगया आतंकियों के निशाने पर है| हैदराबाद के बम विस्फोट के सिलसिले में पकड़े गए ‘इंडियन मुजाहिदीन' के एक आतंकवादी ने इसकी स्पष्ट जानकारी दी थी, फिर भी उसे महत्व नहीं दिया गया| ये सारी जानकारियॉं न भी होतीं तो भी यदि प्रशासन और सुरक्षा एजेंसियॉं सतर्क होतीं तो यह हादसा टल सकता था| अपने देश के पश्‍चिमी और पूर्वी दोनों पड़ोसी क्षेत्रों में जिहादी आतंकवाद का नंगा नाच दशकों से चल रहा है, लेकिन हम उसकी तरफ नजर उठाने से भी बचने की कोशिश करते रहे हैं| पूर्वी क्षेत्र की तरफ से तो हमने अपनी आँखें ही बंद कर रखी हैं| सुरक्षा तंत्र विगत एक वर्ष से मिल रहे खतरे के संकेतों को पढ़ने में नाकाम रहा| म्यॉंमार के दंगों को भारत से अलग-थलग मानकर तो नहीं चलना चाहिए था| इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो कहना पड़ेगा कि अच्छा हुआ कि बोधगया में यह विस्फोट हुआ, कम से कम इससे नए पनप रहे खतरे के प्रति इस देश की आँखें तो खुलेंगी|
इस विस्फोट ने यह सिद्ध कर दिया है कि एशिया में जिहादी ताकतों का कहीं किसी से टकराव हो किन्तु उसका कुछ न कुछ परिणाम भारत को अवश्य भुगतना पड़ेगा, क्योंकि भारत हर तरफ से जिहादी ताकतों से घिरा हुआ है| अभी तक यही माना जाता रहा है कि चूँकि भारत, कश्मीर पर जबरिया कब्जा जमाए हुए है इसलिए कश्मीर को मुक्त कराने वाली जिहादी ताकतें भारत के विरुद्ध हिंसक कार्रवाई करने में लगी हैं, लेकिन बोध गया के विस्फोटों से जाहिर हो गया है कि म्यॉंमार में बौद्धों के साथ चल रहे संघर्ष में भी भारत को दोषी ठहराया जा रहा है और वहॉं बौद्धों की जवाबी कार्रवाई का बदला भी भारत में लिया जाएगा|
म्यॉंमार (बर्मा) में रोहिंग्या मुस्लिम समुदाय १९४७ के पहले से ही जब भारत का विभाजन एवं पाकिस्तान का निर्माण तय हुआ था- अपना जिहादी संघर्ष शुरू किए हुए है| १९४६ में बर्मा को स्वतंत्रता दिए जाने के समय से ही उन्होंने बर्मा से अलग होकर पाकिस्तान (पूर्वी पाकिस्तान, जो अब बँगलादेश बन गया है) में शामिल होने का संघर्ष छेड़ दिया था| कश्मीरी मुसलमानों की तरह वे भी अब तक अपना मुक्ति संग्राम छेड़े हुए हैं| उनकी दिक्कत यह है कि वहॉं शांतिप्रिय बौद्धों ने भी हथियार उठा लिया है और जिहादियों को उनके ही सिक्के में जवाबी भुगतान करना शुरू कर दिया है| आज की स्थिति में दुनिया के सारे जिहादी संगठन रोहिंग्या मुस्लिमों की मदद में आ खड़े हुए हैं, लेकिन वे म्यॉंमार के बौद्धों को दबा नहीं पा रहे हैं|
अभी विगत १४ जून को जमात-उद-दवा (लश्करे तैयबा) की तरफ से पाकिस्तान के ९ शहरों में रोहिंग्या मुसलमानों के समर्थन में प्रदर्शनों का आयोजन किया गया जिसमें अन्य जिहादी संगठनों के लोग भी शामिल हुए| १५ जून को कराची में हुई एक सभा में लश्कर-ए-तैयबा तथा जमात-उद-दवा के संस्थापक हाफिज सईद ने कहा कि म्यॉंमार में रोहिंग्या मुसलमानों के सफाए में भारत की सरकार वहॉं की सरकार की मदद कर रही है| रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ भारत की भूमिका की आलोचना करते हुए उसने आरोप लगाया कि म्यॉंमार की पूरी मुस्लिम आबादी को मिटाने के लिए भारत सरकार म्यॉंमार सरकार के साथ मिलकर काम कर रही है| सईद ने पूरे मुस्लिम जगत का आह्वान करते हुए कहा कि म्यॉंमार के रोहिंग्या मुसलमानों के अधिकार और सम्मान को बचाने की जिम्मेदारी समूचे मुस्लिम उम्मा पर है| उसने म्यॉंमार के मुसलमानों को हथियार उठाने और अपनी अलग तंजीम बनाने की सलाह दी तथा आश्‍वासन दिया कि उसका संगठन म्यॉंमार के मुस्लिमों की पूरी मदद करेगा| पाकिस्तान में न कोई बौद्ध आबादी है न बौद्ध मंदिर इसलिए वहॉं कोई बदले की कार्रवाई नहीं हो सकी इसलिए जिहादी गुस्से में भारत के सर्वाधिक पवित्र बौद्ध स्थल को लहूलुहान करने की साजिश रची गई| इसके साथ ही श्रीलंका, मलेशिया तथा इंडोनेशिया में भी बदले की कार्रवाई की खबरें आ रही हैं| बँगलादेश के जिहादी संगठन बौद्धों को निशाना बनाने में रोहिंग्या गुटों की मदद कर रहे हैं|
रोहिंग्या मूवमेंट
रोहिंग्या मुसलमानों के संघर्ष का इतिहास भी दक्षिण एशिया में इस्लामी विस्तार तथा उनके आपसी एवं स्थानीय लोगों के साथ संघर्ष के इतिहास का हिस्सा है| यहॉं उसके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है| उनकी वर्तमान संघर्ष गाथा द्वितीय विश्‍व युद्ध के काल से शुरू होती है जो १९४७ से एक नया रंग ले लेती है| काण्डा विश्‍वविद्यालय के इतिहासकार अयेचान के अनुसार द्वितीय विश्‍वयुद्ध के दौरान १९४२ में (२८ मार्च १९४२) रोहिंग्या मुसलमानों ने उत्तरी अराकान (बर्मा) क्षेत्र में करीब २०,००० बौद्धों को मार डाला था| मुस्लिमों ने अराकान के दो शहरी क्षेत्रों - बुथिडौंग तथा मौंगडाऊ में- हत्या, लूट, आगजनी का भयावह खेल खेला था| जवाब में अराकानों ने भी मिम्व्या तथा म्रउक वू शहरों में करीब ५००० मुस्लिमों की हत्या कर दी थी|
वास्तव में अंग्रेजों ने जापानी फौजों के मुकाबले से पीछे हटते हुए बीच में लड़ाकू रोहिंग्या मुसलमानों को खड़ा करने की कोशिश की थी| उन्होंने इन मुसलमानों को ढेरों हथियार उपलब्ध कराया तथा यह आश्‍वासन दिया कि इस युद्ध में यदि उन्होंने मित्र राष्ट्रों का समर्थन किया तो उन्हें उनका वांछित ‘इस्लामी राष्ट्र' दे दिया जाएगा| हथियार पाकर इन रोहिंग्या मुसलमानों ने उनका प्रयोग जापानियों के खिलाफ करने के बजाए, अराकानों (जिनमें ज्यादातर बौद्ध थे) के सफाए में किया| उन्होंने अंग्रेजों की कृपा से अपना राज्य पाने के बजाए स्वयं अराकानों का सफाया करके अपना राष्ट्र हासिल कर लेना चाहा लेकिन वह संभव न हो सका|
इसके बाद अगला संगठित संघर्ष का अभियान १९४७ में ‘मुजाहिदीन मूवमेंट' के नाम से शुरू हुआ जो १९६१ तक चला| इस अभियान के अंतर्गत अराकान के रोहिंग्या आबादी वाले मायू क्षेत्र को पश्‍चिमी बमार्र् से अलग करके पूर्वी पाकिस्तान में शामिल करने का प्रयास किया गया|                                             
 बर्मा सरकार के खिलाफ जिहाद की शुरुआत
मई १९४६ में बर्मा की स्वतंत्रता से पहले कुछ अराकानी मुस्लिम नेताओं ने भारत के मोहम्मद अली जिन्ना से संपर्क किया और मायू क्षेत्र को पाकिस्तान में शामिल कराने के लिए उनकी सहायता मॉंगी| इसके पूर्व अराकान में ‘जमीयतुल उलेमा ए इस्लाम' नामक एक संगठन की स्थापना हुई जिसके अध्यक्ष उमरा मियॉं थे| इसका उद्देश्य भी अराकान के सीमांत जिले मायू को पूर्वी पाकिस्तान में मिलाना था| जिन्ना से संपर्क के दो महीने के बाद अकयाब (आज का सितवे जो अराकान प्रांत की राजधानी है) में ‘नार्थ अराकान मुस्लिम लीग' की स्थापना हुई| इसने मायू को पूर्वी पाकिस्तान में शामिल किये जाने की मॉंग की| बर्मा सरकार ने मायू को स्वतंत्र राज्य बनाने या उसे पाकिस्तान में शामिल करने से इनकार कर दिया| इस पर उत्तरी अराकान के मुजाहिदों ने बर्मा सरकार के खिलाफ जिहाद की घोषणा कर दी| मायू क्षेत्र के दोनों प्रमुख शहरों ब्रथीडौंग एवं मौंगडाऊ में अब्दुल कासिम के नेतृत्व में हत्या, बलात्कार एवं आगजनी का ताण्डव शुरू हो गया और कुछ ही दिनों में उन्होंने इन दोनों शहरों को गैरमुस्लिम अराकानों से खाली करा लिया| यह कुछ वैसा ही कार्य रहा जैसे कश्मीर घाटी के जिहादियों ने पूरे घाटी क्षेत्र को कश्मीरी पंडितों से खाली करा लिया| १९४९ में तो बर्मा सरकार का नियंत्रण केवल अकयाब शहर तक सीमित रह गया, बाकी पूरे अराकान पर मुजाहिदों का कब्जा हो गया| यहॉं लाकर हजारों बंगाली मुस्लिम बसाए गए| अवैध प्रवेश से यहॉं मुस्लिम आबादी काफी बढ़ गई| आखिरकार बर्मा सरकार ने इस इलाके में सीधी सैनिक कार्रवाई शुरू की जिसके कारण जिहादियों ने भागकर जंगलों में शरण ली|
यह उल्लेखनीय है कि अराकानी बौद्ध मठों के भिक्षु अब तक अपनी शान्ति बनाए रहे| मुजाहिदों के खिलाफ पहली बार उन्होंने बड़ी संख्या में एकत्रित होकर रंगून (अब यांगून) में भूख हड़ताल शुरू की| सरकार ने उन्हें सुरक्षा का पूरा आश्‍वासन दिया और जिहादियों का जंगलों में भी पीछा किया| अंततः सभी जिहादियों ने हथियार डाल दिए| ४ जुलाई १९६१ को शायद अंतिम सशस्त्र जिहादी जत्थे ने बर्मी सेना के सामने आत्मसमर्पण किया| इसके बाद बचे खुचे जिहादी बँगलादेश से लगी सीमा पर चावल की तस्करी आदि के धंधों में लग गए|
१९७१ में पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना की पराजय तथा बँगलादेश के उदय के बाद बचे खुचे जिहादियों में फिर नई सुगबुगाहट पैदा हुई| १९७२ में जिहादी नेता जफ्फार ने ‘रोहिंग्या लिबरेशन पार्टी' (आर.एल.पी.) बनाई और बिखरे जिहादियों को इकट्ठा करना शुरू किया| हथियार बँगलादेश से मिल गए| बँगलादेश  बनने के बाद वहॉं के जिहादी नेतागण इधर-उधर भागे तो वे अपने हथियार बर्मी जिहादियों के पास छोड़ गए| जफ्फार स्वयं इस पार्टी के अध्यक्ष बने, अब्दुल लतीफ नामक एक जिहादी को उपाध्यक्ष तथा सैनिक मामलों का प्रभारी नियुक्त किया तथा रंगून विश्‍वविद्यालय के एक ग्रेजुएट मोहम्मद जफर हबीब को सेक्रेटरी बनाया| १९७४ तक इस संगठन की सदस्य संख्या बढ़कर ५०० तक हो गई| लेकिन यह पार्टी अपने उद्देश्यों में विफल रही| बर्मी सेना की कार्रवाई के आगे पार्टी बिखर गई और इसके नेता जफ्फार बँगलादेश भाग गए|
इसकी विफलता पर भी सेके्रेटरी मोहम्मद जफर हबीब ने हार नहीं मानी और १९७४ में ही उन्होंने ७० छापामारों के साथ रोहिंग्या पैट्रियाटिक फ्रंट का गठन किया| इस फ्रंट का अध्यक्ष पद उन्होंने स्वयं सँभाला और उपाध्यक्ष के पद पर रंगून में शिक्षित एक वकील नूरुल इस्लाम को उपाध्यक्ष नियुक्त किया| मेडिसिन के एक डॉक्टर मो. यूनुस को इसका सी.ई.ओ. बनाया|
मार्च १९७८ में बर्मा की राष्ट्रपति ने विन सरकार ने मुस्लिमों की अवैध घुसपैठ रोकने की कार्रवाई शुरू की| इसे ‘आपरेशन किंग ड्रैगन' नाम दिया गया| यद्यपि यह जफर हबीब के लिए अच्छा अवसर था| उन्होंने अपने फ्रंट में काफी भर्ती भी की किन्तु बर्मी सेना के आगे यह फ्रंट कोई प्रभावी भूमिका नहीं अदा कर सका| फ्रंट के सी.ई.ओ. रहे मोहम्मद यूनुस ने ‘रोहिंग्या सोलिडेरिटी आर्गनाइजेशन'(आर.एस.ओ.)बनाया और उपाध्यक्ष रहे नूरुल इस्लाम ने ‘अराकान रोहिंग्या इस्लामिक फ्रंट' (ए.आर.आई.एफ) का गठन किया| इनकी मदद के लिए पूरा इस्लामी जगत सामने आया| इनमें बँगलादेश एवं पाकिस्तान के सभी इस्लामी संगठन, अफगानिस्तान का ‘हिजबे इस्लामी' (गुलबुद्दीन हिकमतयार गुट) भारत के जम्मू कश्मीर में सक्रिय हिजबुल मुजाहिदीन, इंडियन मुजाहिदीन, मलेशिया के ‘अंकातन बेलिया इस्लाम सा मलेशिया ( ए.बी.आई.एम) तथा ‘इस्लामिक यूथ आर्गनाइजेशन आफ मलेशिया मुख्य रूप से शामिल हैं|
पाकिस्तानी सैनिक गुप्तचर संगठन आई.एस.आई. रोहिंग्या जवानों को पाकिस्तान ले जाकर उन्हें उच्च स्तरीय सैनिक तथा गुरिल्ला युद्धशैली का प्रशिक्षण प्रदान करने का काम कर रही है|
बौद्धों का उग्र प्रतिरोध
दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले म्यॉंमार में नई बात यह हुई है कि अब वहॉं बौद्ध भिक्षु संगठन भी जिहादियों के मुकाबले उठ खड़े हुए हैं| वर्ष १९६१ में बर्मा (म्यॉंमार) को बौद्ध देश घोषित किया गया| इसके साथ ही बौद्ध मठों तथा भिक्षु संगठनों को सत्ता के संरक्षण का विशेषाधिकार भी प्राप्त हो गया| दुनिया के किसी गैर मुस्लिम देश में अब तक किसी क्षेत्रीय मजहबी संगठन ने जिहादियों के खिलाफ हथियार उठाने और उनके संगठित विरोध का कदम नहीं उठाया है लेकिन म्यॉंमार के एक बौद्ध भिक्षु ने शांति की परिभाषा बदल दी है| अब वहॉं राखिने बौद्धों और रोहिंग्या मुस्लिमों के बीच सीधा मुकाबला है| राखिने, अराकान का ही नया नाम है| अराकान प्रांत ही अब राखिने स्टेट के नाम से जाना जाता है|
गत वर्ष (२०१२) में भड़का दंगा २८ मई को एक राखिने बौद्ध स्त्री मा थिडा हत्वे के साथ हुए बलात्कार और उसकी हत्या के बाद भड़का था| बौद्धों ने इस हत्या एवं बलात्कार का बदला ३ जून को एक बस से उतार कर १० रोहिंग्या मुसलमानों की हत्या करके लिया| स्वाभाविक था-  इसके बाद जबर्दस्त दंगा भड़का जिसमें ८० मौतें हुई, करीब ९० हजार बेघर हुए| इनमें अधिकांश रोहिंग्या मुसलमान थे क्योंकि इस दंगे में बौद्धों का पलड़ा भारी था| थोड़े ही दिन बाद अक्टूबर में फिर दंगा भड़का जिसमें १०० के लगभग लोग मरे, ४६०० घर जलाए गए और करीब २२ हजार लोगों को घर छोड़कर भागना पड़ा| मीडिया रिपोर्टों के अनुसार जून से अक्टूबर तक राखिने प्रांत में हुए दंगे में करीब एक लाख रोहिंग्या मुसलमान बेघर हो गए और ४० की मौत हुई| बौद्धों ने एक मदरसे पर भी हमला किया, जिसकी व्यापक निंदा हुई|
बीते साल जून से अक्टूबर तक म्यॉंमार में तनावपूर्ण शांति रही, किंतु २०१३ के मार्च महीने में फिर दंगे भड़क उठे| हिंसा की शुरुआत २० मार्च को मिक्तिला के एक बंगाली मुस्लिम ज्वेलर की दुकान से हुई| दुकान में सोने की एक हेयरपिन को लेकर दुकान मालिक तथा ग्राहक बौद्ध दंपति में झगड़ा हो गया और दुकान मालिक उसकी पत्नी तथा उसके दो नौकरों ने मिलकर दंपति की पिटाई कर दी| इससे पैदा हुआ तनाव उस समय एकदम भड़क उठा, जब छः मुस्लिम युवकों ने २० मार्च की शाम साइकिल पर जाते एक बौद्ध भिक्षु को मस्जिद में खींच लिया और उसे पेट्रोल डालकर जिंदा जला दिया|
बौद्धों ने इसका संगठित बदला लेने की योजना बनाई| २५ मार्च को मिक्तिला में मुस्लिम घरों तथा मस्जिदों को निशाना बनाया गया| यह दंगा पास के कई कस्बों तक फैल गया| इसके बाद २० अप्रैल को फिर दंगा भड़का, जिसमें करीब ४०० सशस्त्र बौद्धों ने ओक्कबामा में करीब १०० मुस्लिम घरों तथा दुकानों में आग लगा दी, जिसमें २ लोग मारे गए और करीब एक दर्जन घायल हुए| २१ मई को ७ मुस्लिमों को अशांति पैदा करने के आरोप में २ से २८ साल तक की सजा हुई, जिसमें उपर्युक्त ज्वेलरी शॉप का मालिक तथा भिक्षु को जिंदा जलाने वाले युवक शामिल थे| २९ मई को चीन से लगे शान स्टेट के सीमावर्ती कस्बे लाशिनों में दंगा भड़क उठा| मीडिया खबरों के अनुसार यहॉं भी एक युवा बौद्ध महिला को पेट्रोल डालकर जिंदा जला दिए जाने के बाद लाठी डंडों तथा पत्थरों से लैस बौद्धों ने मुस्लिमों पर हल्ला बोल दिया| रोचक यह है कि इस दंगे में करीब ४०० मुस्लिमों ने एक बौद्ध मठ में छिपकर अपनी जान बचाई, जबकि हमलावरों में ज्यादातर बौद्ध ही थे|
इसके बाद से अब प्राय: पूरी दुनिया में बौद्धों और मुस्लिमों में भारी तनातनी पैदा हो गई है| अभी ५ अप्रैल २०१३ को इंडोनेशिया में ‘इमीग्रेशन डिटेंशन कैम्पफ (देश में अवैध रूप से प्रवेश करने वालों को जहॉं हिरासत में लेकर रखा जाता है) में रखे गये बौद्धों और रोहिंग्या मुसलमानों में झगड़ा हो गया जिसमें १८ बौद्ध मारे गये और १५ रोहिंग्या घायल हुए| बताया जाता है कि कैम्प में रोहिंग्या  मुसलमानों ने संगठित रूप से हमला करके बौद्धों की हत्या की जबकि दूसरे पक्ष का आरोप है कि एक बर्मी बौद्ध ने रोहिंग्या औरत के साथ बलात्कार किया जिससे वहॉं देगा भड़क उठा|
म्यॉंमार के बौद्धों के इस नये तेवर से पूरी दुनिया में खलबली मच गई है| दुनिया भर के अखबारों में उनकी निंदा में लेख छापे जा रहे हैं| कुछ बौद्धों ने भी उनकी आलोचना की है कि बुद्ध की शिक्षा किसी के भी विरुद्ध हिंसा के प्रयोग की अनुमति नहीं देती| बौद्ध भिक्षुओं को शांति और समभाव का
आचरण करना चाहिए| किंतु म्यॉंमार के अधिकांश बौद्ध आत्मरक्षा के लिए अब जिहादियों का तौर-तरीका अपनाने में भी कोई संकोच नहीं कर रहे हैं|
म्यॉंमार के सारे बौद्ध भिक्षु भले स्वयं हथियार उठाने की स्थिति में न हों, लेकिन वे यू विराथु के पूरी तरह साथ हैं| मुस्लिम आक्रामता से अपनी शांति की रक्षा के लिए इसके अतिरिक्त और किया भी क्या जा सकता है? ‘टाइम' के आलेख पर भी आम प्रतिक्रिया यही है कि आखिर उसने कभी बर्मी मुस्लिमों के अत्याचार और हिंसा को अपनी आवरण कथा क्यों नहीं बनाया? विराथु का स्वयं भी कहना है कि वह न तो घृणा फैलाने में विश्‍वास रखते हैं और न हिंसा के समर्थक हैं, लेकिन हम कब तक मौन रहकर सारी हिंसा और अत्याचार को झेलते रह सकते हैं? इसलिए वह अब पूरे देश में घूम घूम कर भिक्षुओं तथा सामान्यजनों को उपदेश दे रहे हैं कि यदि हम आज कमजोर पड़े, तो यह देश मुस्लिम हो जाएगा|
४६ वर्षीय विराथु न्यू मैसोइन बौद्ध मठ के मुखिया हैं| उनके वहॉं पर ६० शिष्य हैं और मठ में रहने वाले करीब २५०० भिक्षुओं पर उनका प्रभाव है| उनका एक ही संदेश है- ‘अब यह शांत रहने का समय नहीं है|'
विराथु बौद्ध राष्ट्रवादी आंदोलन ९६९ के अध्यात्मिक नेता हैं| २००३ में मुस्लिमों के विरुद्ध घृणा के प्रचार के आरोप में उन्हें २५ वर्ष की जेल की सजा दे दी गई थी, लेकिन २०१० में सरकार ने जब सभी राजकीय बंदियों के लिए आम माफी की घोषणा की, तो वह भी रिहा कर दिए गए| रिहा होने के बाद उन्होंने अपना अभियान तेज कर दिया|
टाइम में छपी रिपोर्ट की लेखिका हन्नाह बीच ने म्यॉंमार के रंगून के बाद दूसरे सबसे बड़े शहर मांडले के बौद्ध मठ मे यू विराथु के उपदेश से अपने आलेख की शुरुआत की है| उन्होंने लिखा है कि नीचे दृष्टि किए हुए जब वह अपना प्रवचन दे रहे होते हैं, तो प्रस्तर प्रतिमा की तरह स्थिर नजर आते हैं, चेहरे पर भी कोई उत्तेजना नजर नहीं आती| जो कोई बर्मी भाषा न समझता हो, उसे लगेगा कि वह कोई गंभीर आध्यात्मिक उपदेश दे रहे हैं, लेकिन वह अपने हर उपदेश में केवल मुस्लिमों के विरुद्ध बौद्धों के संगठित होने और हिंसा का जवाब हिंसा से देने में संकोच न करने का उपदेश देते हैं|
अब सवाल है कि भारत इस कट्टरपंथी इस्लाम का मुकाबला करने के लिए क्या करे? यहॉं न कोई व्यक्ति है, न संगठन है और न सरकार, जो इस हिंसक चुनौती का सामना करने के लिए आगे बढ़कर बीड़ा उठाने का साहस कर सके|
९६९ ः बौद्ध राष्ट्रवादी आंदोलन
९६९ बर्मा (म्यॉंमार) के राष्ट्रवादी गुटों का संगठन है| ये तीन अंक बौद्ध त्रिरत्नों के प्रतीक हैं| प्रथम ९ भगवान बुद्ध की ९ विशेषताओं का प्रतीक है, तो दूसरा ६ बौद्ध धर्म की ६ विशेषताओं की ओर संकेत करता है और अंतिम ९ बौद्ध संघ की ८ विशेषताओं का द्योतक है| वास्तव में यह राखिने मूल निवासियों द्वारा खड़ा किया आत्मरक्षात्मक संगठन है, जो रोहिंग्या मुसलमानों के हमलों से राखिने स्टेट (पूर्व अराकान क्षेत्र) के मूल निवासियों के रक्षार्थ  बनाया गया है| बौद्ध भिक्षु आसिन विराथु इसके सर्वोच्च संरक्षक या नेता हैं|
१९६८ में मांडले के निकट एक ग्राम में पैदा हुए विराथु १६ वर्ष की आयु में स्कूल छोड़कर बौद्ध भिक्षु बन गए| २००१ में वह ९६९ आंदोलन में शामिल हो गए| सितंबर २०१२ में विराथु ने राष्ट्रपति थीन शीन की उस विवादास्पद योजना के समर्थन में एक रैली निकाली, जिसमें उन्होंने बंगालियों (रोहिंग्या मुसलमानों) को किसी अन्य देश में भेजने का कार्यक्रम तय किया था| इसके एक महीने बाद ही राखिने स्टेट में और हिंसा भड़क उठी| विराथु का दावा है कि राखिने में भड़की हिंसा के परिणाम स्वरूप ही मिक्तिला शहर में दंगा भड़का| इसी ५ मार्च को बर्मी बौद्ध भिक्षु शिन थाबिता को मिक्तिला में मुस्लिमों ने बुरी तरह पीटा और जिंदा जला दिया| इसके बाद भड़के दंगे में मस्जिदों, दुकानों और घरों पर हमले शुरू हो गए| आगजनी, लूट और मारपीट में १४ लोग मारे गए, जो ज्यादातर मुस्लिम थे| विराथु का कहना है कि आप करुणा और प्यार से कितने भी भरे क्यों न हों, लेकिन आप किसी पागल कुत्ते के बगल तो नहीं सो सकते|
म्यॉंमार सरकार पर दबाव
संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने कहा है कि म्यॉंमार को अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों की तकलीफों को समझना चाहिए और देश की नागरिकता प्रदान करने की उनकी मॉंग माननी चाहिए| पिछले दिनों इस्लामी देशों के प्रतिनिधियों ने महासचिव से अपील की थी कि वह म्यॉंमार में रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ हो रहे अत्याचारों को रुकवाएँ|
म्यॉंमार के शासक रोहिंग्या मुसलमानों को वहॉं का मूल निवासी नहीं मानते| उनके अनुसार ब्रिटिश शासन के दौरान उन्हें बंगाल (अब बँगलादेश) से यहॉं लाया गया| इस्लामी सहयोग संगठन के संयुक्त राष्ट्र संघ स्थित प्रतिनिधियों ने महासचिव के साथ संघ के बड़े देशों अमेरिका, रूस, चीन तथा यूरो संघ से भी अपील की है कि वे म्यॉंमार सरकार पर दबाव डालें, जिससे रोहिंग्या मुसलमानों पर हो रहा रहा अत्याचार रोका जा सके|
आज का बौद्ध धर्म पूरी तरह अहिंसक नहीं
भगवान बुद्ध स्वयं भले शांति और अहिंसा के प्रतीक रहे हों, किंतु आज का बौद्ध समाज उनकी तरह शांति और अहिंसा का उपासक नहीं है| महायान बौद्ध मत के चीनी संस्करण के ग्रंथों महा परिव्वान सुत्त, उपाय कौशल सुत्त तथा कालचक्र तंत्र ने बाकायदे आत्मरक्षार्थ तथा पापाचार के नाश के लिए हिंसा का सैद्धांतिक समर्थन किया गया है| तिब्बती, थाई, बर्मी तथा सिंहली बौद्धों को भी हिंसा से परहेज नहीं है| तिब्बत के धर्मगुरु दलाई भले पूर्ण अहिंसा के समर्थक हों, लेकिन आज का बौद्ध समुदाय हिंसा का जवाब देने के लिए हिंसा के इस्तेमाल को गलत नहीं माानता|
जापान के बौद्धों ने रूस के विरुद्ध युद्ध तथा द्वितीय विश्‍व युद्ध में भी सरकार के साथ युद्ध में भाग लिया था| यहॉं योद्धा भिक्षु (वारियर मंक) आवश्यकता पड़ने पर हिंसा के लिए भी तैयार रहते थे| श्रीलंका में बौद्ध भिक्षुओं ने तमिलों के साथ संघर्ष में सरकार का पूरा साथ दिया| म्यॉंमार के प्रभाव में अभी इस वर्ष १३ मार्च को श्रीलंका के बौद्धों ने मुस्लिमों का आर्थिक बहिष्कार करने की अपील जारी किया और कहा कि मुस्लिम दुकानों से सामान न खरीदें| कोलंबों में अभी हाल में एक मुस्लिम द्वारा संचालित रिटेल चेन (खुदरा किराना दुकानों की श्रृंखला) पर हमला किया गया, जिसमें बौद्ध भिक्षु भी शामिल थे| म्यॉंमार के बौद्ध तो बाकायदे हथियारबंद संघर्ष में लगे हुए हैं|

उत्तराखंड का जल तांडव

उत्तराखंड का जल तांडव
विकास की विवेकहीन लालसा का परिणाम

सभ्यता के विकास के साथ ही मनुष्य और प्रकृति का द्वंद्व भी बढ़ता गया है| तथाकथित वैज्ञानिक तथा तकनीकी उन्नति ने मनुष्य की लालसा को और बढ़ा दिया है| वह अधिक से अधिक शक्ति और समृद्धि हासिल करने के लिए सागर तल से हिम शिखरों तक प्रकृति को झिंझोड़ने में लगा है| विकास के ताजा दौर में तो मनुष्य यह भी भूल गया है कि उसका जीवन प्रकृति के संतुलन पर ही निर्भर है| पिछले दिनों उत्तराखंड के चार धाम क्षेत्र में आई बाढ़ की विभीषिका किसी दैवी प्रकोप का परिणाम नहीं, बल्कि मनुष्य की विवेकहीन विकास की भूख का परिणाम थी| नेताओं, ठेकेदारों, कंपनियों के अनैतिक गठजोड़ ने मनुष्य और प्रकृति के संबंधों को और बिगाड़ दिया है|

मनुष्य यों प्रकृति का ही अंग है, किंतु तीव्र बौद्धिक विकास ने उसे उस प्रकृति के खिलाफ ही खड़ा कर दिया है, जिससे उसने जन्म लिया है| वह प्रकृति का दोहन करके ही अपनी विकास यात्रा पर आगे बढ़ रहा है| बढ़ती जनसंख्या ने उसके इस दोहन को और बढ़ा दिया है| यह धरती जिस पर उसका आज का साम्राज्य फैला हुआ है, त्राहि त्राहि करने लगी है| इस धरती के समतल मैदान ही नहीं, पर्वत मालाएँ और उत्तुंग शिखर तथा महासागरों की तलहटी तक में मनुष्य की क्रूरता के निशान देखे जा सकते हैं| उसने पहाड़ोंं को नंगा और धरती को खोखला कर दिया है| प्रकृति शांति प्रिय है, वह सब कुछ सह लेती है, किसी से बदला लेने का तो सवाल ही नहीं उठता, फिर भी उसे अपना संतुलन तो बनाए ही रखना पड़ता है| यह संतुलन बनाने की प्रक्रिया ही कभी-कभी मनुष्य के लिए भारी आपदा का रूप ले लेती है| मनुष्य प्रकृति को ही दोष देने लगता है| बहुत से प्रकृतिवादी भी इन आपदाओं को प्रकृति का प्रकोप बताने लगते हैं| प्रकृति तो मॉं है, वह अपनी संततियों पर भला कैसे कोई जानलेवा कोप कर सकती है| और धरती तो धैर्य और क्षमा की प्रतिमूर्ति ही है| उसने तो अपना सर्वस्व ज्यों का त्यों मनुष्य को समर्पित कर दिया है| मनुष्य यदि किसी प्राकृतिक आपदा का शिकार होता है, तो ज्यादातर वह अपनी ही करतूतों का शिकार होता है| हॉं, कुछ आपदाएँ ऐसी भी जरूर आती हैं, जो धरती की भीतरी हलचल का परिणाम होती हैं, जिस पर किसी का कोई वश नहीं है, स्वयं प्रकृति का भी नहीं|
अभी उत्तराखंड में जो कुछ हुआ, उसमें प्रकृति की तरफ से असाधारण या अस्वाभाविक कुछ भी नहीं था, किंतु उसके कारण विनाश का जो भयावह तांडव समाने आया, उसके लिए तो पूरी तरह स्वयं मनुष्य जिम्मेदार है| उसके लिए प्रकृति को, भगवान शिव को या धारी देवी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता| कई टीवी चैनलों पर यह समाचार प्रायः दिन भर चलता रहा कि यह विनाश लीला धारी देवी के कोप का परिणाम था| गढ़वाल में धारी देवी का एक प्रसिद्ध मंदिर है, जिसे हटाया जा रहा है| चैनलों पर बताया गया कि धारी देवी की प्रतिमा को उनके स्थान से हटाए जाने के घंटे दो घंटे के भीतर ही बादल फटने और उसके साथ ही एक लघु जल प्रलय की स्थिति आ धमकी| किंतु यह मात्र संयोग है| भारत की कोई देवी, कोई देवता कोप करके किसी का अनिष्ट करने की सोच भी नहीं सकता| मनुष्य की अपनी लापरवाही अपने अहंकार और अपनी अज्ञानता के परिणामों के लिए किसी देवी-देवता को दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए|
मानव सभ्यता की शुरुआत ही प्रकृति के दोहन से शुरू हुई है, लेकिन ज्यों-ज्यों मनुष्य अधिक बुद्धिमान होता गया, त्यों-त्यों उसका लोभ भी बढ़ता गया और वह पूरी प्रकृति को अपने काबू में करने की सोचने लगा| उसने बहुत कुछ उसे अपने काबू में कर भी लिया, उच्चतम पर्वत शिखर तथा गहनतम सागरतलीय गुफाएँ भी अब उसकी पहुँच के बाहर नहीं हैं| असीमित समृद्धि की लालसा ने धरती को तो झिंझोड़ कर रख ही दिया है और आगे अब अन्य ग्रहों के शोषण पर भी उसकी नजर लगी है|
उत्तराखंड में जिस भयावह विभीषिका का विनाश नृत्य देखने को मिला, उसके लिए मनुष्य के अलावा और कोई दूसरा जिम्मेदार नहीं| हिमालय के कच्चे पहाड़ मनुष्य की अप्रतिहत लालसा से दहल उठे हैं| विद्युत उत्पादन के लिए बड़े-बड़े बॉंधों का निर्माण, नदियों के जलपथ परिवर्तन के लिए खोदी जा रही लंबी-लंबी सुरंगे, सड़कें बनाने के लिए लगातार तोड़े जा रहे पर्वत स्कंध| डायनामाइट के विस्फोटों से दूर-दूर तक दरकती चट्टानें| विकास के इन उपक्रमों की लगातार चोट से पहाड़ भी कमजोर और भंगुर हो गए हैं| इन खुदाइयों से निकला सारा मलबा नदियों के प्रवाह मार्ग में डाला जा रहा है|
उत्तराखंड के पहाड़ों को पहले वृक्षहीन किया गया| लोगों को शायद याद हो १९७० के दशक का चिपको आंदोलन जब इस खंड की स्त्रियों और बच्चों ने पेड़ों से चिपक कर जंगल काटने वाले ठेकेदारों को चुनौती दी थी कि वृक्षों को काटने के पहले उन्हें काटना पड़ेगा| जान हथेली पर रखकर वृक्षों को बचाने की यह अनूठी कोशिश थी| कुछ दिन इस आंदोलन का असर रहा, लेकिन वृक्ष कटते रहे| वर्षा जल की उद्दाम धाराओं को उलझाने वाले ये हाथ नहीं रहे, तो उनके उत्पात को रोकने की सामर्थ्य और कौन दिखाता| बढ़ते शहरीकरण, पर्यटन, अनियंत्रित विकास, भ्रष्टाचार आदि के संयुक्त प्रभावों का परिणाम हैं इस पर्वतीय क्षेत्र की प्राकृतिक आपदाएँ| विकास का पहला खामियाजा जंगलों, वृक्षों को ही भुगतना पड़ता है, क्योंकि जंगलों की कटाई विकास का अनिवार्य घटक बन गयी है|
पहाड़ की पारंपरिक आर्थिक गतिविधियॉं खेती, वन, बागवानी, पशुपालन से जुड़ी थीं और महिलाएँ इसके केंद्र में थीं| पहाड़ी कस्बे, शहर, गॉंव, नदी धाराओं से दूर पहाड़ की ढलानों पर बसे थे| भारी वर्षा एवं बादल फटने की घटनाएँ पहले भी होती थीं| उग्रवाद की स्थितियॉं भी पैदा होती थीं, लेकिन कभी किसी बड़े हादसे की खबर सुनने में नहीं आती थीं| किंतु विकास के नए दौर में नदी सीमा के भीतर नए-नए होटेल, रिसॉर्ट, व्यावसायिक कॉम्प्लेक्स तथा आवासीय समूह खड़े हो गए| सड़कों का निर्माण भी बेतरतीब हुआ| नदियों के छूटे मार्गों का उपयोग करके भी सड़के बना ली गईं, क्योंकि इस तरह सड़कें बनाना सस्ता पड़ता है और पहाड़ को काटकर सड़कें बनाने में समय भी अधिक लगता है और खर्च भी ज्यादा होता है| विकास के लिए बिजली और पानी की सर्वाधिक जरूरत पड़ती है, इसलिए नदियों पर अनेक बॉंध बने और तमाम सुरंगे बनाई गईं|
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में विकास के लिए सरकारों ने कभी इस क्षेत्र के भूगर्भ विशेषज्ञों तथा पर्यावरणविदों की कोई राय नहीं ली गई| सरकारी अफसर, बिल्डर, ठेकेदार तथा राजनेताओं ने मिलकर सारी योजनाएँ बना डालीं| इसमें राजनेताओं का अपना लोभ और स्वार्थ भी शामिल था| गांधी शांति प्रतिष्ठान तथा सर्वसेवा संघ की चेयरपर्सन राधा बेन के अनुसार अभी इस क्षेत्र के एक गॉंव चरबा की गोचर भूमि को कोकाकोला का बाटलिंग प्लांट बनाने के लिए दे दिया गया है| इस जमीन पर ग्रामीणों ने वर्षों से परिश्रम करके बड़ी संख्या में वृक्षारोपण किया था| सरकार अब इस जमीन को १९ लाख रुपये प्रति एकड़ की दर से बेच रही है| जाहिर है यहॉं के सारे पेड़ साफ हो जाएँगे| प्लांट के लिए कंपनी को प्रतिदिनि ६ लाख लीटर पानी की जरूरत पड़ेगी| राधा बेन का कहना है कि वास्तव में ‘राजनेता- प्रायवेट कंपनी' गठबंधन इन पर्वतीय घाटियों को बुरी तरह बरबाद कर रहा है| भागीरथी पर अब १,००० मेगावाट का टिहरी डैम पूरा हुआ है| इसके साथ अलकनंदा, मंदाकिनी, पिंडर तथा गंगा नदियों पर १८ और परियोजनाओं को मंजूरी मिल चुकी है| गत दिसंबर महीने में स्थानीय कार्यकर्ताओं के विरोध के बाद केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने भागीरथी के १०० कि.मी. क्षेत्र को ‘इको सेंसिटिव' (पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील) घोषित करके उस क्षेत्र में बड़े बॉंधों तथा अन्य निर्माणों के साथ पत्थर खनन तथा अन्य प्रदूषक उद्यमों की स्थापना को रोक दिया था, लेकिन इसका कितना पालन होगा, कहा नहीं जा सकता|
देश में उत्तराखंड जैसी आपदाओं को रोकने एवं राहत पहुुँचाने के लिए एक संस्था का गठन किया गया है, जिसका नाम है ‘नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथारिटी' (राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिकरण) यह संस्था मानो बूढ़े, सेवानिवृत्त अफसरों के लिए
शरणगाह बना दी गई है| आठ सदस्यीय इस अधिकरण में दो सेवानिवृत्त आई.ए.एस. अधिकारी, दो पुलिस सेवा से रिटायर हुए अफसर, एक रिटायर्ड मेजर जनरल हैं| बाकी तीन भी सेवानिवृत्त ही हैं, लेकिन उनकी उपयोगिता इस दृष्टि से सिद्ध की जा सकती है कि वे वैज्ञानिक पृष्ठभूमि के हैं| आपदा प्रबंधन अपेक्षाकृत युवाओं का काम है, जो मौके पर पहुँच सकें, राहत कार्यों की निगरानी कर सकें और सरकार के विभिन्न विभागों के बीच आवश्यक समन्वय कायम कर सकें| लेकिन इन साठोत्तरी थके लोगों से ऐसी कोई अपेक्षा कैसे की जा सकती है?
यहॉं यह उल्लेखनीय है कि इस बार की इस भयावह बाढ़ में वही भवन, सड़कें तथा पुल बहे हैं, जो विवेकहीन ढंग से बनाए गए थे| केदारनाथ का प्राचीन मंदिर भी मंदाकिनी की प्राचीन धारा के मध्य है, किंतु एक तो वह स्वयं एक मजबूत चट्टान पर स्थित है, दूसरे उसके पीछे एक विशाल बोल्डर स्थित है, जो नदी के वेग से उसकी रक्षा करने में समर्थ हुआ| आस-पास के अन्य निर्माण ऐसे नहीं थे| यह बात सही है कि मंदाकिनी ने बहुत दिनों से अपना यह प्रवाह मार्ग छोड़ रखा था, फिर भी उस प्रवाह पथ को अवरुद्ध नहीं किया जाना चाहिए था, क्योंकि जब कभी नदी में जल की मात्रा बढ़ेगी, वह इस मार्ग का भी उपयोग करने से पीछे नहीं रहेगी|
यहॉं अंततः कथनीय यही है कि सभ्यता के विकास के साथ मनुष्य का प्रकृति के साथ छिड़ा द्वंद्व यों तो रुकने वाला नहीं है, क्योंकि प्रकृति का शोषण करके ही मनुष्य अपनी शक्ति बढ़ाता आ रहा है| आज यह पता होने के बावजूद कि प्रकृति का शोषण पूरी मानव जाति के लिए विनाशकारी हो सकता है, मनुष्य अपनी शक्ति और समृद्धि विस्तार के लिए उसका शोषण जारी रखे है| फिर भी यह तो स्वयं मनुष्य के अपने हित में है कि वह प्रकृति के स्वभाव को समझे और अपना विकास इस तरह करे कि प्राकृतिक आपदाएँ उसके विकास को विनाश में न तब्दील कर सकें|
आपदाओं के लिए स्वयं प्रकृति तथा देवी-देवताओं को दोष देने के बजाए मनुष्य को अपनी गलतियों को पहचानने का प्रयत्न करना चाहिए| हिमालय क्षेत्र धरती का नवीनतम क्षेत्र है, जिसके अंतस्तल में अभी भी भारी हलचलें जारी हैं, इसलिए वहॉं तो विशेष सावधानी की आवश्यकता है|
july 2013

सहवास को विवाह की मान्यता देने का प्रश्‍न!
 

मद्रास हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश सी.एस.करनन ने अपने एक फैसले में कहा है कि विवाह योग्य आयु प्राप्त कोई पुरुष-स्त्री यदि परस्पर सहमति से दैहिक संबंध कायम करते हैं तो इसे विवाह स्वीकार किया जाना चाहिए| इस पर तमाम लोगों की भवें चढ़ गई हैं और इसे भारतीय संस्कृति, परंपरा तथा वैवाहिक पवित्रता की अवहेलना करने वाला फैसला बताया जा रहा है|फैसला  निश्‍चय ही कानून सम्मत नहीं हैं किन्तु इसे भारतीय संस्कृति एवं परंपरा के विरुद्ध नहीं कहा जा सकता| भारतीय धर्मशास्त्रों में तो किसी भी स्थिति में हुए संभोग को विवाह की मान्यता दे दी गई है| न्यायमूर्ति करनन ने आधुनिक ‘लिव-इन-रिलेशन' के संदर्भ में अपना फैसला दिया है जिसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए और यदि कानून में इसकी व्यवस्था नहीं है तो देश के कानून निर्माताओं को इसकी व्यवस्था करनी चाहिए| करनन द्वारा दी गई व्यवस्था स्त्री के व्यापक हित में है जिसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए|

मद्रास हाईकोर्ट के न्यायाधीश सी.एस. करनन ने गत जून माह में एक ऐसा फैसला सुनाया जिससे इस देश में ही नहीं विदेश में भी तमाम लोग चौंक पड़े| फैसला था कि यदि विवाह की वैधानिक आयु प्राप्त कोई युवक युवती परस्पर सहमति से संभोग करते हैं तो उन्हें कानूनी तौर पर पति पत्नी मान लिया जाना चाहिए| दूसरे शब्दों में उन्होंने संभोग को विवाह की मान्यता दे दी| अभी पश्‍चिम के अत्याधुनिक समाज की सोच भी यहॉं तक नहीं पहुँची थी फिर यदि भारत जैसे परंपरावादी समझे जाने वाले देश की किसी
अदालत से इस तरह का फैसला सामने आता है तो उससे दुनिया का चौंकना स्वाभाविक है| लेकिन सच कहा जाय तो भारत के लिए यह कोई नई बात नहीं है| यहॉं के लोग यदि चौंक रहे हैं तो केवल इस कारण कि वे भारत की पुरानी मान्यताओं और
विचारों को भूल चुके हैं और केवल पश्‍चिमी सामाजिक मान्यताओं से ही परिचित हैं तथा उन्हें ही आदर्श मानते हैं|
लोग इस फैसले की तरह-तरह से आलोचना निन्दा करने में लगे हैं| यहॉं तक कि कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि उन्होंने न्यायालय की अधिकार सीमा का उल्लंघन किया है| तकनीकी दृष्टि से हो सकता है कि उन्होंने वह कर दिया हो जो संसद को करना चाहिए| संभोग को विवाह की मान्यता देना है तो इसके लिए विवाह संबंधी कानून में संशोधन होना चाहिए या नया कानून बनना चाहिए| न्यायालय कानून की सीमा के बाहर की किसी बात को कानूनी मान्यता कैसे दे सकता है? लेकिन इस तरह की आलोचना के पूर्व यह भी देखना चाहिए कि किन परिस्थितियों में न्यायाधीश ने ऐसा फैसला देने का साहस किया है| न्याय का संबंध सीधे मानव संवेदना से जुड़ा होता है| व्यापक मानवीय हित में कानूनी व्यवस्थाओं को लचीला बनाना पड़ता है और जरूरत हो तो बदलना भी पड़ता है| न्यायमूर्ति करनन ने आधुनिक युग की आवश्यकताओं को देखते हुए समाज के व्यापक हित में अपना फैसला दिया है- और वह फैसला भी भारत की प्राचीन सामाजिक एवं न्यायिक परंपराओं के सर्वथा अनुकूल हैं| ऐसे में यदि उस फैसले में किसी तरह की तकनीकी खामियॉं हैं तो उसे दूर किया जाना चाहिए|
फैसले पर किसी तरह की टिप्पणी करने के पहले उस मामले (केस) को देख लेना चाहिए जिसमें यह फैसला दिया गया है फिर यह भी जान लेना चाहिए कि विवाह संस्था को लागू करने का मूल उद्देश्य क्या है और उसके बारे में भारत की अपनी धर्मशास्त्रीय परम्परा का क्या विचार है|
एक महिला वर्षों तक एक पुरुष के साथ ‘लिव-इन-रिलेशन' मेें रह रही थी| उसके साथ रहते हुए उसके दो बच्चे भी हो गए| इसके बाद एक दिन उस पुरुष ने साथ छोड़ दिया| दो बच्चों के साथ वह महिला बेसहारा हो गई| उसने अपने भरण पोषण के लिए पारिवारिक न्यायालय (फेमिली कोर्ट) में फरियाद की| २००६ में कोर्ट ने दोनों बच्चों के लिए ५०० रुपये महीने का भत्ता देने तथा १००० रुपये अदालती खर्च का भुगतान करने का फैसला सुनाया| पारिवारिक अदालत उस महिला को कोई सहायता देने का आदेश नहीं दे सकी, क्योंकि कानून के अनुसार वैध वैवाहिक संबंध का उसके पास कोई प्रमाण नहीं था| अपील के तहत यह मामला न्यायाधीश करनन के सामने आया| न्यायाधीश ने देखा कि ‘लिव-इन-रिलेशन' के पूर्व महिला अधेड़ अविवाहिता थी और पुरुष भी कुआँरा था| दोनों एक ही छत के नीचे वर्षों रहे और दो बच्चों को भी जन्म दिया| उन्होंने व्यवस्था दी कि लंबे समय तक दैहिक संबंधों के कारण उनका विवाह पूर्ण हो गया, इसलिए महिला उन सारे अधिकारों को पाने की हकदार है, जो किसी विवाहिता स्त्री को प्राप्त हैं|
अब इस पर कहा जा रहा है कि मामले के कठोर तथ्यों से इनकार नहीं किया जा सकता, किंतु कठोर तथ्यों के मद्देनजर एक गलत व्यवस्था दी गई| उनके फैसले पर पहली कानूनी आपत्ति यह है कि उन्होंने विवाह के कानून में एक नई धारा जोड़ दी है| वह ज्यादा से ज्यादा यह कर सकते थे कि विधायिका को इस तरह की कानूनी व्यवस्था करने की सलाह देते, जिसमें ‘लिव-इन-रिलेशन' को विवाह की मान्यता मिल सके| दूसरी और सबसे गंभीर आपत्ति यह है कि उन्होंने विवाह की उन परंपराओं को -जो किसी विवाह की वैधता के लिए अनिवार्य है- नगण्य, तुच्छ और उपेक्षणीय बना दिया| न्यायाधीश करनन कहते हैं कि मंगलसूत्र, वरमाला या अँगूठी पहनाना अथवा अग्निप्रदक्षिणा आदि विवाह की वैधता के लिए अनिवार्य नहीं है| ये केवल कुछ धार्मिक परंपराओं के अनुपालन मात्र हैं, जो समाज के संतोष के लिए निभाए जाते हैं| आलोचक की दृष्टि में ऐसा कहना न केवल अवांछित बल्कि खतरनाक है| वैवाहिक संबंधों को मान्यता इन सामाजिक तथा धार्मिक कर्मकांडों से ही मिलती है| कानून उसी को मान्यता देता है| कानून विवाह नहीं करा सकता, वह केवल उसे समाप्त करने का काम कर सकता है| अदालतें विवाह कराने की याचिका नहीं स्वीकार कर सकती, वे केवल उसे तोड़ने की याचिका ही स्वीकार कर सकती हैं| आज के प्रगतिशील लेागों को भले ही अस्वीकार्य हों, लेकिन पारंपरिक ढंग से शादियॉं अभी भी परिवारों और समाज के अपने विशेषाधिकार हैं, जिसके बीच परिवार चलते हैं|
करनन के आलोचकों के ये सभी तर्क अपनी जगह सही हैं, लेकिन भारत के प्राचीन धर्मशास्त्रों की बात मानें, तो विवाह संस्था की स्थापना समाज में स्त्री-पुरुषों के यौन जीवन को नियमित करने के लिए ही की गई और इससे भी अधिक उनकी चिंता स्त्री-पुरुष के दैहिक संबंधों से उत्पन्न संतानों की सामाजिक स्थिति निर्धारित करने और उसे सामाजिक स्वीकृति दिलाने की थी| इसलिए भारतीय धर्मशास्त्रियों ने तो बलात्कार और धोखे से किए गए संभोग को भी विवाह की मान्यता दे दी थी| यहॉं करनन ने तो बाकायदे आपसी सहमति से लंबे समय तक एक साथ रहनेॅ, संभोग करने तथा संतान उत्पन्न करने वाले युगल को विवाहित माने जाने का फैसला दिया है|
भारतीय धर्म शास्त्रों में विवाह के आठ प्रकार बताए गए हैं (देखिए बॉक्स) इनमें गांधर्व विवाह, आसुर विवाह, राक्षस विवाह और पैशाच विवाह भी शामिल है| इन चारों की निंदा की गई, फिर भी इन्हें विवाह की मान्यता दे दी गई है, क्योंकि समाज की सुव्यवस्था के लिए आवश्यक है कि सभी स्त्री-पुरुष चाहे वे पापी या अपराधी क्यों न हो, एक निश्‍चित नियम के अंतर्गत बँध कर रहें, जिससे उनके द्वारा उत्पन्न संतानों को भी समाज में उनका एक निश्‍चित वैध स्थान मिल सके| जबरिया परिवार में से छीन कर, अपहरण कर के लाई गई रोती-बिलखती स्त्री के साथ सहवास को भी शास्त्रकारों ने विवाह की संज्ञा दी, लेकिन उसे राक्षस विवाह का एक निंदित नाम दिया| इससे भी गर्हित कर्म है -चुपके से, बेहोश या नशे में उन्मत्त लड़की से संभोग| भारतीश धर्मशास्त्र में इसेे भी विवाह की मान्यता दी गई| इसे पिशाच विवाह कहा गया| ध्यान रहे इस तरह के निंदित कृत्य से विवाह का नाम भी जरूर निंदित हो गया, लेकिन इससे स्त्री के परिवार या समाज में अधिकारों पर कोई फर्क नहीं पड़ता| विवाह किसी भी तरीके से हुआ हो, किंतु विवाह की सामाजिक मान्यता में कोई भेद नहीं है|
आजकल समाज में बिना विवाह के साथ रहने, संभोग करने तथा बच्चे भी पैदा करने (लिव-इन-रिलेशन) का प्रचलन बढ़ रहा है| इन संबंधों में भी स्त्री ठगी जा रही है| यदि वह स्वयं आर्थिक दृष्टि से सक्षम नहीं है, तो उसके सर्वाधिक संकट में पड़ने का खतरा रहता है| और यदि उसने संतान को भी जन्म दे दिया है, तो उसका भार भी उसके सिर ही आ जाता है| पुरुष सारे दायित्वों से बड़ी आसानी से बाहर निकल जाता है| इसलिए यह जरूरी है कि ऐसे संबंधों को भी कानूनी दायरे में लाया जाए| ‘लिव-इन-रिलेशन' वास्तव में बिना किसी जिम्मेदारी के विवाह का सारा सुख उठाने का एक आसान तरीका बन गया है| ज्यादातर स्त्रियॉं मजबूरी में इस जाल का शिकार होती हैं| लंबे समय तक अविवाहित रहने वाली स्त्रियों को भी सामाजिक सुरक्षा के लिए एक पुरुष की आवश्यकता पड़ती है, इसलिए वे किसी पुरुष के साथ बिना किसी वैध सामाजिक रिश्ते के भी रहना शुरू कर देती है|
भारत जैसे पारंपरिक सुदृढ़ परिवार व्यवस्था वाले देश में भी पश्‍चिम की सामाजिक जीवनशैली अब तेजी से फैल रही है, तो उसको नियंत्रित करने के व्यावहारिक उपाय भी होने चाहिए| पश्‍चिम के समाजशास्त्री तथा विधि चिंतक अभी सोए हुए हैं, तो इसका यह मतलब नहीं कि हम भी सोए रहें| हमारे देश के एक न्यायाधीश ने यदि कोई व्यावहारिक कदम उठाया है, तो उसकी निंदा करने के बजाए उसका स्वागत करना चाहिए और यदि उसमें कुछ तकनीकी खामियॉं हैं, तो देश के विधि निर्माताओं तथा सरकार को उसे ठीक करने की पहल करनी चाहिए|
जाने-माने स्तंभकार एस. गुरुमूर्ति ने ‘इंडियन एक्सप्रेस' में प्रकाशित अपने एक आलेख में विवाह संबंधी कई उल्लेखनीय आँकड़ों को प्रस्तुत किया है| यूनीसेफ की ‘ह्यूमन राइट कौंसिलफ (मानवाधिकार परिषद) की एक नवीनतम अध्ययन रिपोर्ट (१६ अगस्त २०१२)के अनुसार भारत में परिवार द्वारा तय यानी नियोजित विवाह (अरेंज्ड मैरिज) का प्रतिशत ९० है, जबकि दुनिया के स्तर पर इसका औसत आँकड़ा ५५ है| विश्‍व स्तर पर परिवार द्वारा तय विवाहों में तलाक की दर ६ प्रतिशत है, जबकि भारत में केवल एक प्रतिशत| पश्‍चिमी आधुनिकता के प्रतीक देश अमेरिका में ‘अरेंज्ड मैरिज' को सर्वथा निंदनीय मान लिया गया है| बमुश्किल १० में से १ विवाह परिवार द्वारा तय होता है| इसका परिणाम यह हुआ है कि पहली बार की शादी ५० प्रतिशत से अधिक, दूसरी बार की शादी में ६६ प्रतिशत से अधिक और तीसरी बार की शादी में ७५ प्रतिशत से अधिक शादियों की परिणति तलाक (डायवोर्स) में होती है| अमेरिका के आधे परिवार पिता से रहित हैं या माताएँ अविवाहित हैं| गुरुमूर्ति ने इन आँकड़ों को यह सिद्ध करने के लिए उद्धृत किया है कि पारिवारिक तथा धार्मिक कर्मकांड के साथ परिवार और समाज की स्वीकृति से होने वाले विवाह अधिक स्थाई होते हैं| उनकी यह स्थापना सही है, लेकिन उनका यह कहना गलत है कि न्यायाधीश करनन के फैसले से विवाह संस्था को चोट पहुँच रही है अथवा मात्र संभोग को वैवाहिक मान्यता का आधार बनाने से विवाह संस्था का मूल्य ही समाप्त हो जाएगा और उसकी पवित्रता नष्ट हो जाएगी| जिस तरह प्राचीन विधि-विशेषज्ञों (धर्माचार्यों) ने अपहरण, बलात्कार तथा छल से किए गए संभोग को भी विवाह का एक प्रकार मान लिया, वैसा ही उपाय बरतने का उदाहरण उन्होंने अपनी न्यायपीठ से प्रस्तुत किया है| इससे परिवार या समाज स्वीकृत पारंपरिक विवाह व्यवस्था का अवमूल्यन नहीं हो रहा है, बल्कि विवाह संस्था के बाहर रहकर किए जा रहे मुक्त यौनाचार को भी विवाह के दायरे में लाने का प्रयास किया जा रहा है|
विवाह का प्रलोभन देकर लड़कियों को फुसला कर उनका दैहिक शोषण करके फिर परित्याग करने वाले पुरुषों के लिए यह अच्छा दंड विधान हो सकता है कि उनके इस संबंध को विवाह की मान्यता दी जाए और शोषण की शिकार स्त्री को वे सारे अधिकार दिलाए जाएँ, जो एक विवाहिता स्त्री को प्राप्त हो सकते हैं|

विवाह के आठ प्रकार
भारत में अति प्राचीन काल यानी वैदिक गृह्य सूत्रों, धर्मसूत्रों तथा स्मृतियों के काल से आठ प्रकार के विवाहों को वैधानिक एवं सामाजिक मान्यता प्राप्त है|
ब्राह्म- इसे विवाह का श्रेष्ठतम प्रकार माना जाता है| जिस विवाह में पिता मूल्यवान वस्त्र-अलंकारों से सुसज्जित तथा रत्नों से मंडित कन्या को चुने हुए विद्वान (वेदज्ञ) एवं चरित्रवान व्यक्ति को आमंत्रित कर उसे समर्पित करता है, उसे ब्राहम विवाह कहते हैं|
दैव- यज्ञ करते समय यदि कोई पिता अपनी वस्त्रालंकार से सुसज्जित कन्या किसी पुरोहित को प्रदान करता है, तो इसे दैव विवाह कहा जाता है|
आर्ष- यदि मात्र प्रतीक रूप में (कन्या मूल्य के रूप में नहीं) एक जोड़ा या दो जोड़ा पशु (एक गाय एक बैल या दो गाय दो बैल) लेकर किसी योग्य वर को अपनी कन्या दी जाए, तो इसे आर्ष विवाह कहते हैं|
प्राजापत्य- यदि कोई पिता किसी योग्य वर का चयन करके उसे मधु पर्क आदि से सम्मानित कर अपनी कन्या अर्पित करता है और कहता है कि ‘तुम दोनों साथ-साथ धार्मिक कृत्य करना' तो इसे प्राजापत्य विवाह कहते हैं|
आसुर- यदि वर अपनी इच्छित कन्या की प्राप्ति के लिए कन्या को तथा उसके पिता को धन देकर संतुष्ट करता है और तब पिता अपनी कन्या उस वर को सौंपता है, तो इसे आसुर विवाह कहते हैं|
गांधर्व- किसी युवक-युवती में परस्पर दैहिक आकर्षण से जो प्रेम उत्पन्न होता है और वे परस्पर सहमति से संभोग के प्रति प्रवृत्त होते हैं, तो इसे गांधर्व विवाह कहते हैं| गंधर्वों को अत्यंत कामुक प्रवृत्ति वाला समझा जाता, इसलिए इसे उनका नाम दिया गया| आज का प्रेम विवाह, गांधर्व विवाह ही है|
राक्षस- परिवार वालों को मारकर या घायल करके यदि कोई रोती-बिलखती कन्या को उसके परिवार से छीन लाए या अपहरण कर ले तो इसे राक्षस विवाह कहा गया|
पैशाच- यदि कोई पुरुष सोई हुई, बेहोश या नशे में उन्मत्त किसी कन्या से चुपके से या छल से संभोग कर ले तो इसे पैशाच विवाह की संज्ञा दी गई|
वस्तुतः किसी स्त्री-पुरुष के परस्पर मिलन के यही आठ तरीके हैं, नौवॉं कोई तरीका ही नहीं है, इसलिए इन आठों को प्राचीन समाज शास्त्रियों ने विवाह की वैधानिक मान्यता प्रदान कर दी| ये सभी आठों विवाह के सम्मानित तरीके नहीं है, फिर भी स्त्री के व्यापक हित में इनको वैधानिकता प्रदान की गई| इनमें से प्रथम चार को श्रेष्ठ तथा अंतिम चार को गर्हित (निंदनीय) माना गया है| इस व्यवस्था से अपराध और शोषण की शिकार स्त्री को भी पत्नी का सम्मान और भरण-पोषण तथा सुरक्षा का अधिकार मिल जाता है| इसी तरह स्त्री के व्यापक हित में आज के ‘लिव-इन-रिलेशन' को विवाह की मान्यता दे देना परंपराओं के अनुकूल तथा हर तरह से विधि सम्मत है|
चातुर्मास: ज्ञान  साधना तप एवं विश्राम का काल
 
वर्षाकालीन चातुर्मास का साधना पर्व आषाढ़ मास की पूर्णिमा से विधिवत प्रारंभ हो जाता है| ऋतु संधिकाल की इस पूर्णिमा के अवसर पर वैदिक काल में चातुर्मास्य यज्ञ का विधान था, किंतु अब यह पर्व गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है| वस्तुतः यह संपूर्ण भारतीय वाङ्गमय की आचार्य परंपरा के स्मरण का पर्व है| यातायात तथा संचार साधनों के क्रांतिकारी विकास के कारण अब वर्षा से सामान्य जनजीवन का प्रवाह अवरुद्ध नहीं होता, फिर भी परंपरा पालन के प्रति निष्ठावान संत, मुनि, साधक, आचार्य आज भी चातुर्मास की साधना के विधान का अनुपालन करते हैं| विशेषकर जैन संत इस परंपरा को सर्वाधिक गरिमा के साथ जीवित रखे हुए हैं|


भारतीय साहित्यिक-सांस्कृतिक परंपरा में चातुर्मास का विशेष महत्व है| विशेषकर वर्षाकालीन चातुर्मास का| भारतवर्ष में मुख्य रूप से तीन ऋतुएँ होती हैं- ग्रीष्म, वर्षा और शरद| वर्ष के बारह महीनों को इनमें बॉंट दें, तो प्रत्येक ऋतु चार-चार महीने की हो जाती है| वैदिक काल में इन ऋतुओं के संधिकाल में विशेष यज्ञ करने का विधान था| इन यज्ञों को और इनमें धारण किये जाने वाले व्रतों को चातुर्मास्य की संज्ञा दी गयी थी| वर्ष में तीन चातुर्मास्य पड़ते थे और तीनों के अलग-अलग नाम थे और अलग-अलग कृत्य| शरद के अंत और वसंत अथवा ग्रीष्म के आगमन के समय प्रायः फाल्गुन पूर्णिमा को किये जाने वाले चातुर्मास्य को वैश्‍वदेव, ग्रीष्मांत व वर्षा के प्रारंभ के अवसर पर प्रायः आषाढ़ पूर्णिमा के चातुर्मास्य को वरुणप्रघास और इसी तरह वर्षा के अंत और शीत ऋतु के प्रारंभ में प्रायः कार्तिक पूर्णिमा को होने वाले चातुर्मास्य को साकमेघ कहा जाता था|
कालक्रम में, प्रत्येक ऋतु संधि (या पर्व) पर होने वाले चातुर्मास्य तो लुप्त हो गये, किंतु वर्षाकालीन चातुर्मास्य की परंपरा प्राकृतिक कारणों से अब तक चली आ रही है| भारत, धरती के शीतोष्ण कटिबंध में पड़ता है, जहॉं खूब वर्षा होती है| प्राचीन काल में जब बड़ी-बड़ी पक्की सड़कों व रेल पटरियों का जाल नहीं था| नदी-नाले निर्बाध बहते थे| न उन पर ऐसे पुल होते थे, जो वर्षाकालीन जल के तीव्र प्रवाह में टिक सकें, न आज के जैसे बड़े-बड़े बॉंध होते थे, जो उफनती नदियों और झीलों को काबू में रख सकें| हवाई यातायात की तो कल्पना भी नहीं थी| इसलिए वर्षाकाल में उस समय यातायात की प्रायः सारी गतिविधियॉं ठप हो जाती थीं| व्यापारियों के सार्थ (काफिले) ठहर जाते थे| राजाओं की विजय यात्राएँ रुक जाती थीं| यायावर वानप्रस्थी तथा संन्यासी भी किसी एक जगह रुक कर वर्षाकाल काटते थे| सारा सामुदायिक जीवन एक तरह से ठहर जाता था| इस समय जब सारी बाह्य गतिविधियॉं रुक जाती थीं, सारा जनसमुदाय अपने गॉंव, नगर, कस्बे में आ जाता था, तब उसके सामने समस्या थी इस समय का सदुपयोग करने की| सौभाग्य से निरंतर विचरण करने वाले आचार्य, विद्वान, संन्यासी, उपदेशक, धर्मप्रचारक आदि भी चार महीने के लिए कहीं स्थिर हो जाते थे| वर्षाकाल कम से कम चार महीनों के लिए इन दोनों को जोड़ देता था| लोग खाली रहते थे, उनके पास प्रचुर समय रहता था, ऐसे में वे आचार्यों, विद्वानों, संन्यासियों के सान्निध्य में अपना ज्ञानवर्धन व शंका समाधान करना चाहते थे| दूसरी तरफ उन आचार्यों को भी कुछ दिनों के लिए स्थिर श्रोता मिल जाते थे| इसलिए वर्षाकालीन चातुर्मास प्रायः पूरे देश में ज्ञानार्जन, कथा-वार्ता, उपदेश तथा साधना का काल बन गया| इतिहास, पुराण, दर्शन व साहित्य चर्चा के साथ ही गायन, वादन आदि कलाओं के अभ्यास का भी यह उचित अवसर बन गया| जैन मुनियों ने तो अपनी कठोरतम साधना के लिए इस अवसर को चुना| राजमहलों तथा श्रेष्ठि आवासों में रासरंग, हास-विलास तथा कामोपभोग के लिए भी इससे बेहतर आराम और सुकून का समय वर्ष के और किसी काल में उपलब्ध नहीं था| कवियों-कलाकारों के लिए भी यह काल न केवल प्रेरणादायक था, बल्कि उनकी रचनाओं के लिए यथेष्ट समय भी उपलब्ध करवाने वाला था| इस काल में उसे श्रोताओं और दर्शकों की भी कमी नहीं थी| इसलिए वर्षा के चातुर्मास में धर्म और कला साधना के साथ साहित्य सर्जना का भी प्रभूत कार्य संपन्न हुआ करता था|
धर्मशास्त्रों के अनुसार आषाढ़ शुक्ल एकादशी, द्वादशी या पूर्णिमा को अथवा उस दिन जब सूर्य कर्क राशि में प्रवेश करे चातुर्मास्य व्रत का प्रारंभ किया जाता है| यह व्रत कार्तिक मास की शुक्ल द्वादशी को समाप्त हो जाता है| प्राचीन ऋषियों की कल्पना थी कि इस वर्षाकाल में देवतागण भी विश्राम करते हैं| इस संसार के प्रकट देवता सूर्य का तो बहुत सारा समय बादलों की ओट में बीत ही जाता है| इसीलिए आषाढ़ शुक्लपक्ष की एकादशी को ‘देवशयनी' (देवताओं के शयन करने की) एकादशी कहा जाता है और फिर कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को ‘देवोत्थानी' (देवताओं के उठने या जागृत होने) की एकादशी कहा जाता है| वैदिक काल में केवल आषाढ़ी पूर्णिमा के यज्ञ का विधान था, किंतु पौराणिक काल में व्रत की परंपरा भी चल पड़ी| पौराणिक विद्वानों के अनुसार यह व्रत कभी भी शुरू करें, किंतु इसका समापन हर हालत में कार्तिक शुक्ल द्वादशी को हो जाता है| इस व्रत में व्रती को कुछ खाद्य पदार्थों का त्याग करना होता है, जैसे श्रावण महीने में शाक, भाद्रपद में दही, आश्‍विन में दूध तथा कार्तिक में दालों का| व्रत करने वाले को मांस, मधु (मदिरा), सहवास और पलंग पर सोने का भी त्याग करना पड़ता है| व्रत की समाप्ति पर व्रत करने वाला ब्राह्मणों को निमंत्रित कर उन्हें भोजन कराता है, दक्षिणा देता है और फिर सामान्य भोजन, दिनचर्या आदि प्रारंभ करके व्रत समाप्त करता है| यह व्रत सनातनी परिवारों में अब कुछ स्त्रियों तक सीमित रह गया है| यातायात व संचार साधनों के विकास तथा जटिल आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक गतिविधियों के कारण सामान्यजनों के चातुर्मास में अपनी दैनन्दिन गतिविधियॉं रोकने का कोई औचित्य भी नहीं है, फिर भी परंपरा रक्षण के तौर पर कुछ सनातनी परिवारों की स्त्रियॉं अभी भी यह व्रत करती हैं| साधु, संन्यासियों व परिव्राजकों में भी अब इसका लोप हो गया है| कुछ थोड़े से पंथों के संन्यासी ही अब वर्षाकाल में कहीं स्थायीवास करते हैं|
वास्तव में पुराने समय में वर्षाकाल पूरे समाज के लिए विश्राम काल बन जाता था किन्तु संन्यासियों, श्रावकों, भिक्षुओं आदि के संगठित संप्रदायों में इसके विशिष्ट नियम बन गये थे जिसका अनुपालन सभी के लिए अनिवार्य था इसलिए वे निर्धारित नियमानुसार एक निश्‍चित तिथि को अपना वर्षावास या चातुर्मास शुरू करते थे और उसी तरह एक निश्‍चित तिथि को उसे समाप्त करते थे|
वर्षाकाल की कठिनाइयॉं तो सबके लिए समान थीं लेकिन प्रायः हर सम्प्रदाय इसे अपने अपने ढंग से बिताता था| आज यातायात के साधन तथा ग्रामोें-नगरों की व्यवस्था ऐसी हो गई है कि वर्षाकाल  तथा अन्यकाल में आवागमन की दृष्टि से कोई विशेष फर्क नहीं रह गया है| फिर भी रुढ़िनिर्वाह तथा परंपरा के अनुपालन की प्रक्रिया जारी है| कुछ साधु संत आज भी चातुर्मास के दौरान कोई नदी नाला पार नहीं करते, जबकि उनपर पक्के पुल बने हुए हैं|
सर्वाधिक कठोरता से चातुर्मास के नियमों का पालन जैन संप्रदाय के लोग करते हैं, अन्य संप्रदायों ने तो इसका सरलीकरण कर लिया है|
संन्यासी ः शैव तथा वैष्णव संन्यासीगण केवल चार पखवारे का चातुर्मास मनाते हैं जो आषाढ़ पूर्णिमा से भाद्रपूर्णिमा तक चलता है| इस काल में वे एक जगह पर किसी मठ मंदिर में रहते हुए अपने भक्तों को उपदेश देते हैं|
बौद्ध ः बौद्धों में वर्षावास के कोई दृढ़ नियम नहीं है| बौद्ध भिक्षुओं के लिए इस संबंध में कोई खास निर्देश भी नहीं है| त्रिपिटक की कथाओं के अनुसार भगवान बुद्ध अपने शिष्य मगध के सम्राट बिम्बिसार के राजकीय उद्यान में वर्षाकाल बिताते थे| उनके साकेत (अयोध्या) तथा श्रावस्ती में वर्षावास का भी उल्लेख मिलता है| भगवान बुद्ध चूँकि मध्यमार्गी थे यानी न वे अधिक कष्टकर साधना के पक्ष में थे और न अधिक सुखोपभोग के| इसलिए चातुर्मास के लिए भी उन्होंने  आचरण के किसी विशेष नियम का उपदेश नहीं दिया|
जैनः चातुर्मास की सर्वाधिक कठोर तथा नियमबद्ध व्यवस्था जैन संप्रदायों में प्रचलित है| ईसा की पहली शती में हुए जैनाचार्य भद्रबाहु के ग्रंथ ‘कल्पसूत्र' के तीसरे भाग में चातुर्मास के नियम बताए गए हैं| पहले के जैन संत तो चातुर्मास के लिए कठोरतम साधना का चयन किया करते थे| अब वह परंपरा बदल चुकी है फिर भी बहुत से जैन संत इस दौरान लंबे उपवास, जप तथा ध्यान की साधना करते हैं| जैन समुदाय में बहुत पहले दिगंबर (नग्न रहने वाले) तथा श्‍वेताम्बर के दो भाग हो गये एक मूर्तिपूजक मंदिरमार्गी और दूसरा स्थानकवासी (जो मूर्तिपूजा नहीं करते)| फिर स्थानकवासियों के भी दो विभाग बन गये| नया विभाग तेरापंथी कहलाता है| इन चारों के चातुर्मास साधना में प्रवेश और उसकी समाप्ति के अलग-अलग दिन निर्धारित है|
जैनों का प्रसिद्ध पर्यूषण पर्व इसी चातुर्मास के दौरान पड़ता है| जो जैन साधना का सर्वश्रेष्ठ और पवित्रतम काल माना जाता है|
आषाढ़ मास की पूर्णिमा क्योंकि चातुर्मास की साधना का प्रस्थान बिंदु है, इसलिए स्वभावतः इस तिथि की गरिमा बढ़ जाती है| आचार्यों, गुरुओं परिव्राजकों, संन्यासियों आदि के स्वागत सत्कार, पूजा, सम्मान आदि के लिए भी इससे बेहतर दूसरा और कौन सा दिन हो सकता है| शायद इसीलिए आषाढ़ी पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा की संज्ञा दी गयी और इसे महर्षि वेदव्यास का जन्मदिन घोषित किया गया है| महर्षि वेदव्यास की पूजा के बहाने इस दिन सभी आचार्यों, गुरुओं, ऋषियों आदि के प्रति श्रद्धा निवेदित की जाती है| देश की सांस्कृतिक परंपरा का निश्‍चय ही यह बड़ा ही स्वस्थ विकास है| मात्र अग्नि में कुछ आहुतियॉं देने के बजाए चातुर्मास्य यज्ञ के अवसर पर महर्षि व्यासादि आचार्यों व गुरुओं का स्मरण करना तथा उनके प्रति श्रद्धा निवेदित करना शायद सांस्कृतिक परंपरा का श्रेष्ठतर अनुपालन है|
जैन चातुर्मास का केंद्रीय पर्व ‘पर्यूषण'
जैन परंपरा में चातुर्मास के साधनाकाल के बीच पर्यूषण (पज्जोसवना) पर्व आता है| इसे संवत्सरी भी कहते हैं| श्‍वेतांबर जैनों का ८ या १६ दिवसीय पूर्यषण पर्व भाद्र पद शुक्ल पक्ष की पंचमी को संपन्न होता है| अंतिम दिन को ‘संवत्सरी' या ‘संवत्सरी प्रतिक्रमण' कहा जाता है| इसे क्षमावणी पर्व भी कहते हैं| ‘प्रतिक्रमण' (सामयिक) जैनों के अनुसार उनकी आध्यात्मिक यात्रा के नवीकरण (उसकी तरफ पुनः वापसी) का पर्व है| जैन श्रावकों के लिए वर्ष में एक बार ‘प्रतिक्रमण' आवश्यक है| ‘संवत्सरी' और ‘पर्यूषण' दोनों वस्तुतः एक ही हैं| जैन विश्‍वास है कि पर्यूषण के आठ दिनों में देवतागण तीर्थंकरों की अष्टप्रकारी (आठ प्रकार की) पूजा करते हैं| इसलिए अष्टाहनिक महोत्सव भी कहते हैं|
दिगंबरों में इस १० दिन के पर्व महोत्सव को ‘दशलक्षण पर्व' कहते हैं| इसके प्रारंभ और अंत के बारे में दिगंबरों और श्‍वेतांबरों में थोड़ा मतभेद है| श्‍वेतांबरों का पर्यूषण पर्व या ‘अष्टाहनिक महोत्सव' जहॉं भाद्र शुक्ल पक्ष पंचमी को समाप्त होता है, वहीं दिगंबरों का ‘दश लक्षण पर्व' (या १० दिन का उत्सव) इस तिथि को प्रारंभ होता है और चतुर्दशी (अनंत चतुर्दशी) तक चलता है|
श्‍वेतांबरों में इस दौरान कल्पसूत्र का पाठ किया जाता है, जिसमें पॉंचवें दिन भगवान महावीर की जन्मकथा कही जाती है| दिगंबर इस अवधि में उमास्वाति के तत्वार्थ सूत्र का पाठ करते हैं| दिगंबर दशमी को ‘सुगंध दशमी व्रत' करते है| तथा अनंत चतुर्दशी का उत्सव मनाते हैं|
क्षमावणी के दिन सभी जैन मतानुयायी अपने सभी संबंधियों मित्रों से ही नहीं, सभी प्राणियों से क्षमा का आदान-प्रदान करते है॥
‘खमेमि सव्वेजीव, सव्वेजीवा खमन्तु में
मित्ती में सव्ब भूएषु, वेरम मझ्झम न केनवी
मिच्छमि दुक्कड़म् (मिथ्या मे दुष्कृतम)'
मैं सभी प्राणियों को क्षमा करता हूँ, सभी प्राणी मुझे क्षमा करें| सभी जीवों के साथ मेरी मैत्री हो, किसी के साथ वैर या शत्रुता न हो| मेरे सारे दुष्कृत्य निष्फल (मिथ्या) हो जाए|
यह परस्पर मैत्री का अद्भुत प्रयोग है| विश्‍व में इसका ईमानदारी से अनुसरण हो तो सारी अशांति, कलह, द्वेष एवं वैर भाव स्वतः समाप्त हो जाए| लेकिन ऐसा हो नहीं पाता| क्षमावणी पर्व भी एक धार्मिक कर्मकांड की तरह पूरा कर लिया जाता है और उसके बाद फिर अधिकांश लोग दुनियादारी के अपने पुराने ढर्रे पर आ जाते हैं| फिर भी इसका कुछ न कुछ प्रभाव तो संवत्सरी करने वाले के चित्त पर अवश्य रह जाता है, जो उसके आचार एवं सामाजिक व्यवहार को अधिक मानवीय बनाने में सहायक होता है| चातुमार्स के साधना पर्व का लक्ष्य भी तो यही है कि संपूर्ण मानव समुदाय में मैत्री भाव का उदय हो, वैर भाव समाप्त हो सभी एक-दूसरे को प्रेम करें और दूसरे सहायता या सहयोग (परोपकार) में अपने जीवन की सार्थकता समझें| इससे हर व्यक्ति का आत्मिक उत्थान तो होगा ही, समाज में भी सद्भाव एवं मैत्री भाव का प्रसार होगा|
july 2013
परमात्मा के वाङ्मयावतार भगवान व्यास
 

पुराणों के अनुवार कृष्ण द्वैपायन बादरायण भगवान व्यास, परमात्मा नारायण के वाङ्मयावतार हैं| वह मूर्तमान ज्ञान है| वेद, उपनिषद, शास्त्र, पुराण, इतिहास, दर्शन व महाकाव्य रूप में जो साहित्य या वाङ्मय उपलब्ध है, वही उनका मूर्तरूप है, जो अजर-अमर है| इसीलिए व्यास को अमर माना जाता है और कहीं भी उनका आह्वान किया जा सकता है| जाहिर है कि भगवान व्यास की आराधना का सीधा अर्थ है विशुद्ध ज्ञान की आराधना|

भारत में आषाढ़ पूर्णिमा का असाधारण धार्मिक व सांस्कृतिक महत्व है| एक तो यह प्रायः संपूर्ण भारतीय, ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, पुराण एवं इतिहास के आदि संकलनकर्ता संपादक एवं प्रसारक भगवान वेदव्यास का जन्मदिन है, दूसरे यह वह तिथि है जब प्रायः सारे संन्यासी व परिव्राजक अपनी यात्राएँ स्थगित करके चार महीने की स्थायी आवास व्यवस्था में प्रवेश करते हैं, जिसे शास्त्रों में ‘चातुर्मास प्रवेश' की संज्ञा दी गयी है| यह वह तिथि है जब लगभग पूरे देश में वर्षा प्रारंभ हो चुकी रहती है, किसान भी बीज बो चुका होता है, प्रकृति हरियाली से भर चुकी होती है और वर्षा की नन्ही-नन्ही बूँदे कहीं राग तो कहीं वैराग्य की भावसृष्टि करने लगती हैं| आज भी समय यद्यपि बहुत बदल चुका है| वैज्ञानिक व तकनीकी विकास ने जीवन के तमाम अवरोधों को मिटा दिया है, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि ऋतुएँ अब जीवन को प्रभावित नहीं करतीं| हॉं यह बात जरूर है कि ऋतुएँ अब जीवन की गति को रोक नहीं पातीं| जबकि प्राचीनकाल में वर्षा ऋतु अपने आने के साथ ही पथिकों के पॉंव बॉंध देती थी| जिनके लिए संभव होता था वे वर्षाकाल शुरू होने के पूर्व घर-गॉंव वापस आ जाते थे, लंबी दूरी के व्यापार रुक जाते थे, विजय यात्राएँ भी थम जाती थीं, साधु संन्यासी, वानप्रस्थी किसी सुखद सुरक्षित स्थान पर वर्षाकाल बिताने के लिए ठहर जाते थे| वे जहॉं ठहरते थे, वहॉं के निवासी हर्षित हो उठते थे, क्योंकि उन्हें इन सतत यात्रा करने वाले ज्ञानियों के अध्ययन, अनुभव तथा चिंतन का लाभ उठाने का अवसर मिल जाता था| वे उनके साथ मिलकर धर्म, दर्शन, इतिहास, पुराण, राजनीति, अर्थशास्त्र तथा विदेश यात्राओं आदि पर चर्चा करके अपना ज्ञानवर्धन करते थे| प्रेमी-प्रेमिकाएँ, नव-विवाहित दंपत्ति, तरुण तरुणियॉं इस रसवर्षिणी ऋतु में राग-रंग, रास-विहार आदि में समय बिताते थे| संगीत गोष्ठियॉं, वाटिका विहारों में आयोजन होते थे| किसी व्यापार, शिक्षा, नौकरी आदि के कारण यदि वे वर्षाकाल में कहीं बाहर फंस जाते गये तो वे भी यह समय दुख में काटते थे और उधर उनकी प्रेयसियॉं भी आँसू बहाती थीं| कवियों, साहित्यकारों एवं चित्रकारों ने इन स्थितियों में संयोग एवं वियोग के बड़े ही ललित चित्र खींचे हैं, जिनसे काव्य एवं कलाजगत की अद्भुत श्रीवृद्धि हुई है|
उपासना, चिंतन, अध्ययन, तप, आमोद-प्रमोद के सम्मिलित समारोह की शुरुआत जिस तिथि से होती हो, उसे यदि उच्चतम सांस्कृतिक महत्व न दिया जाए तभी उस पर आश्‍चर्य होगा| भगवान व्यास के जन्म के लिए भी इससे बेहतर दूसरी तिथि नहीं हो सकती, जिन्होंने ज्ञान, वैराग्य, दर्शन से लेकर भगवान कृष्ण की प्रेम लीलाओं के निकष महारास तक का विशद वर्णन किया है| भगवान के योगेश्‍वर एवं लीला पुरुषोत्तम दोनों रूपों का प्रणयन भगवान व्यास की ही देन है| इतने विपुल साहित्य के प्रणयन, संकलन व संपादन के कारण ही भगवान व्यास को भारतीय विद्वानों-ऋषियों ने भगवान श्रीहरि के ‘वाङ्मयावतार' की संज्ञा दी है|
प्रारंभ में वेद अर्थात ज्ञान का विभाजन नहीं हुआ था| ऋषियों, मुनियों, चिंतकों ने जो कुछ सोचा था, लिखा था, वह सब परस्पर मिला हुआ था| उनका कोई विषयगत या व्यवहार गत विभाजन नहीं था| दर्शन, इतिहास, याज्ञिक कर्मकांड, विज्ञान सब एक में ही गड्ड-मड्ड था| इसलिए कहा जाता है कि प्रारंभ में एक ही वेद था| वेदव्यास पहले ऐसे आचार्य थे, जिन्होंने यत्र-तत्र से सारे उपलब्ध ज्ञान या साहित्य को एकत्र किया तथा विभाजन करके उपयोगिता व व्यवहार की दृष्टि से उनका संपादन किया| सर्वाधिक प्राचीन स्तुतिपरक ऋचाओं को उन्होंने ऋग्वेद में संकलित किया| उसमें भी यज्ञ-याज्ञादि में गाने योग्य रचनाओं को ‘सामवेद' में अलग रखा| याज्ञिक कर्मकांड से जुड़ी ऋचाएँ ‘यजुर्वेद' में संकलित की गई| शेष जो कुछ अन्य उपलब्ध साहित्य था, उसे गौण समझा गया जिसे अथर्वण ऋषि ने एक व्यवस्थित रूप दिया| दार्शनिक चिंतन को उन संबंधित ऋषियों के नाम से ही संकलित किया गया, जिनके चिंतन से ये उपजे थे| महर्षि व्यास ने प्राचीन कथाओं तथा इतिहास आदि की सूचनाओं को पुराण ग्रंथों में संकलित किया| अपने दार्शनिक मत के प्रतिष्ठापन के लिए उन्होंने ‘ब्रह्मसूत्र' नामक एक दर्शन ग्रंथ की रचना की| एक लाख से अधिक श्‍लोकों वाला विशाल महाकाव्य ‘महाभारत' उनकी ही रचना है| भगवद्गीता इसी महाग्रंथ का एक अंश है| आजकल १८ महापुराणों के अतिरिक्त अनेक उपपुराण भी पाये जाते हैं, जिनके अलग-अलग रचयिता या संकलनकर्ता हो सकते हैं, लेकिन पुराण साहित्य के मूल आविष्कर्ता भगवान व्यास ही माने जाते हैं|
ऐसे महाज्ञानी को यदि जगद्गुरु कहा जाता है, तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है| और यदि उनकी जन्म पूर्णिमा को गुरुपूर्णिमा का व्यापक रूप दे दिया गया है, तो यह भी समीचीन ही है| पुराण कथाओं में ही उनके बारे में जो जानकारी मिलती है, उसके अनुसार वह महर्षि पराशर के पुत्र थे| कैवर्तराज की पोषितपुत्री सत्यवती के गर्भ से यमुना नदी के एक द्वीप पर उनका जन्म हुआ था| उनका वर्ण श्याम था| उन्हें ‘पाराशर्य', ‘कृष्ण', ‘द्वैपायन' या ‘कृष्ण द्वैपायन' के नाम से भी अभिहित किया गया है| ‘बदरीवन' (बेर के जंगल) में रहने के कारण उनका एक नाम ‘बादरायण' भी है| और वेद का विभाजन एवं विस्तार करने के कारण ‘वेदव्यास' नाम तो अत्यंत मशहूर है ही|
भगवान व्यास ‘ब्रह्मसूत्र' जैसे दर्शन ग्रंथ एवं ‘महाभारत' जैसे महाकाव्य के तो रचयिता हैं ही, वेदों-पुराणों के वह संकलनकर्ता, संपादक व प्रसारकर्ता भी हैं| वेदों को इसीलिए ‘अपौरुषेय' कहा गया है कि वे एक पुरुष या एक व्यक्ति की रचना नहीं है| वह एक पूरी अनंत परंपरा के व्यासपर्यंत संचित ज्ञान का कोष हैं| महाभारत के बारे में कहा गया है ‘यन्न भारते, तन्न भारते' यानी जो इस ग्रंथ महाभारत में नहीं है, वह भारत में अन्यत्र कहीं नहीं है| ऐसे सर्वांगपूर्ण ग्रंथ की तुलना में अद्यतन विश्‍वसाहित्य में कोई दूसरा ग्रंथ उपलब्ध नहीं है|
भारतीय परंपरा भगवान व्यास को अजर अमर मानती है| उन्हें आज भी कहीं भी आमंत्रित किया जा सकता है| यह सही भी है क्योंकि जो ‘वाङ्मय स्वरूप' है उनकी मृत्यु कैसे हो सकती है| जब तक वेद, पुराण, उपनिषद, महाभारत, ब्रह्मसूत्र आदि जैसे वाङ्मय धरती पर बने रहेंगे तब तक भगवान व्यास भी मूर्तमान ज्ञान के रूप में इस पृथ्वी पर विचरण करते नजर आएँगे| शास्त्रों में भगवान राम की ही तरह भगवान व्यास को भी ‘मूर्तमान धर्म' कहा गया है| भगवान राम ने इस धरती पर अपने आचरण व उपदेशों से धर्म की स्थापना की तो वेदव्यास ने अपने आचरण, उपदेश तथा अपनी रचनाओं से प्रज्ञामय धर्म की स्थापना की|
यह पर्व एक और महान ऋषि की जन्मतिथि के साथ सम्बद्ध है| यह हैं महर्षि कश्यप के पौत्र तथा विभांडक ऋषि के पुत्र ऋष्यश्रृंग (ऋषियों में शिखरस्थ)| ऋष्यश्रृंग ने ही महाराजा दशरथ के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ कराया था, जिससे उन्हें रामादि चार पुत्रों की प्राप्ति हुई थी| ये ऋषि भी अद्भुत थे| मातृहीन ऋष्यश्रृंग आश्रम में अपने पिता के साथ अकेले रहते थे| वह सर्वशास्त्र निष्णात तथा वैदिक कर्मकांडों एवं यज्ञ विधान के पूर्ण ज्ञाता थे| उनके ज्ञान, तपश्‍चर्या तथा ब्रह्मचर्य की ख्याति दूर-दूर तक थी| कथा है कि एक बार अंगदेश के राजा रोमपाद के राज्य में धर्म का उल्लंघन हो जाने के कारण वर्षा रुक गई| अनावृष्टि के कारण राज्य में हाहाकार मच गया| मंत्रियों ने परामर्श दिया कि ऋष्यश्रृंग जैसे किसी तपस्वी का राज्य में आगमन हो तो अनावृष्टि का यह अभिशाप नष्ट हो जाएगा| सवाल था कि ऋष्यश्रृंग जैसा ऋषि उनके राज्य में क्यों आये| जिस राजा के राज्य में धर्म का उल्लंघन हुआ हो, वहॉं ऋषिगण भी जाना छोड़ देते थे| तय हुआ कि सुंदर युवती वेश्याओं की मदद से छल से उन्हें राज्य में बुलाया जाए और बाद में इस छल के उजागर होने पर वह क्रोध  न करें, इसके लिए राजा अपनी बेटी शांता का उनके साथ विवाह कर दें| ऋष्यश्रृंग ने एकांत वन में पिता के साथ रहते हुए किसी स्त्री नाम के प्राणी को देखा तक नहीं था, इसलिए सुंदरी वेश्याएँ जब उनके निकट पहुँचीं, तो उन्होंने उन्हें भी सुंदर ऋषिकुमार ही जाना| उनके आलिंगन से भी उन्हें सुख तो मिला, लेकिन कोई काम भावना नहीं जागृत हुई| कहानी बहुत प्रसिद्ध है कि किस तरह गंगा नदी में तैरते बजड़े पर बैठाकर छल से वे वेश्याएँ ऋष्यश्रृंग को अंग देश ले गयीं| रोचक यही है कि उनका नाम भी आषाढ़ी पूर्णिमा के साथ सम्बद्ध है|
ऋष्यश्रृंग भी वस्तुतः लोकसाधना में निरत मुनि थे| पुराणों में उन्हें पूर्ण नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहा गया है| शास्त्रों में स्त्री संसर्ग से पूर्ण विरत व्यक्ति को ही ब्रह्मचारी नहीं कहा गया है| वह व्यक्ति भी ब्रह्मचारी ही है, जो एक पत्नी में निष्ठा रखते हुए केवल ऋतुकाल में संतानोत्पत्ति के लिए ही सहवास करता है, इंद्रिय सुख के लिए नहीं| चातुर्मास्य का यह साधना पर्व भी लोकसाधना के अभ्यास का पर्व है| अपनी निजी सुख-साधना पर नियंत्रण तथा लोकहित के लिए अपने मन, बुद्धि, शरीर का पूर्ण समर्पण ही वास्तविक तप है| भले ही आज समय बदल गया है| मनुष्य ऋतुओं का दास नहीं रह गया है, फिर भी चातुर्मास की आंशिक साधना भी उसके जीवन को उन्नत और पवित्र बना सकती है|
भगवान व्यास को यदि हम एक व्यक्ति न मान कर सद्ज्ञान, सद्विवेक व सद्धर्म (सदाचार) की एक परंपरा माने तो अद्यतन संपूर्ण ज्ञान को हम व्यास ज्ञान परंपरा में शामिल कर सकते हैं| इस तरह उनका यह जन्मदिन वास्तव में किसी व्यक्ति की पूजा का दिन नहीं, बल्कि समग्र ज्ञान, विवेक व सद्धर्म की पूजा का दिन है| यह किसी रुढ़ परंपरा की आराधना का भी दिन नहीं है, यह दिन उस निरंतर विकासशील ज्ञानधारा की आराधना का पर्व है, जो हमें निरंतर बदलते विश्‍व की चुनौतियों का सामना करने की योग्यता एवं सामर्थ्य प्रदान करता है| जीवन का परम  लक्ष्य सुख या आनंद की प्राप्ति है| यह आनंद बिना ज्ञान, बिना भक्ति, बिना साधना के नहीं मिल सकता| किसी को राग में सुख मिलता है, तो किसी को वैराग्य में लेकिन आप रागी हों चाहे विरागी, न्याय, प्रेम, सदाचार, सद्भाव, सेवा, संवेदना तथा इन सबके कारक प्रज्ञा या विवेक के बिना तो कुछ भी संभव नहीं है| इसलिए सर्वप्रथम सब मिलकर ज्ञान व धर्म स्वरूप वाङ्मयावतार भगवान बादरायण कृष्ण द्वैपायन व्यास की आराधना करें, फिर अपने-अपने निर्दिष्ट या चयनित कर्मपथ पर अग्रसर हों|
july 2013
मिस्र : तथाकथित लोकतंत्र से अब गृहयुद्ध की ओर?
 

मिस्र की राजनीतिक स्थिति शायद खाड़ी क्षेत्र के अरब देशों में सर्वाधिक जटिल है| संभव है यह भविष्य की इस्लामी राजनीति की केंद्रीय प्रयोगशाला बने| यहॉं यदि मुस्लिम ब्रदरहुड की योजना सफल होती है और उसकी स्थिर सरकार कायम हो जाती है, तो मिस्र निश्‍चय ही विश्‍व इस्लामी साम्राज्य की धारणा (पैन इस्लामिज्म) की आधारभूमि बन जाएगा और यदि वह यहॉं विफल रहा, तो इस्लामी विश्‍व साम्राज्य का सपना भी विफल हो जाएगा|

मिस्र (इजिप्ट) ने सिद्ध कर दिया है कि केवल मतदान करने से लोकतंत्र नहीं आता| होस्नी मुबारक की तानाशाही के खिलाफ भड़के जबर्दस्त जनांदोलन को प्रायः दुनिया भर में लोकतंत्र की हवा समझा गया था और कहा गया था कि ट्यूनीशिया के बाद अब मिस्री तानाशाही का भी अंत है और उत्तरी अफ्रीका के अरबी क्षेत्र में भी लोकतंत्र की जमीन तैयार हो गई है| मुबारक के अपदस्थ होने के बाद २०१२ में हुए चुनाव में इस्लामी कट्टरपंथी संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड के नेता मोहम्मद मोर्सी ने भारी बहुमत से चुनाव जीतकर राष्ट्रपति की गद्दी हासिल की| मोर्सी ने चुनाव तो जीत लिया, किंतु वह न्यायपालिका और सेना (जो होस्नी मुबारक के समय से चली आ रही थी) का समर्थन नहीं प्राप्त कर सके| सेना की शह पर देश में मोर्सी के विरुद्ध भी आंदोलन उठ खड़ा हुआ, जिसे बहाना बनाकर सेना ने इस ३ जुलाई को मोर्सी को गद्दी से उतार कर हिरासत में ले लिया और न्यायपालिका के एक प्रतिनिधि अदली मंसूर को राष्ट्रपति बना दिया| सेना की इस कार्रवाई के खिलाफ देश भर में मोर्सी समर्थक प्रदर्शन शुरू हो गया| राजधानी काहिरा में बड़ी संख्या में मोर्सी समर्थक राष्ट्रपति के महल के सामने मोर्सी की वापसी की मॉंग को लेकर धरने पर बैठ गए| सोमवार ८ जुलाई को धरने पर बैठे मोर्सी समर्थकों को तितर-बितर करने के लिए सेना ने गोली चलाई, जिसमें करीब २५ लोग मारे गए| इसके बाद मोर्सी समर्थकों का आंदोलन और तेज हो गया| सेना ने मुस्लिम ब्रदरहुड के नेताओं की गिरफ्तारी शुरू कर दी| १० जुलाई तक देश भर में करीब ६५० लाग गिरफ्तार किए गए, जिसमें २०० के विरुद्ध आरोप तय हो चुके थे, बाकी को जमानत पर रिहा करने की कार्रवाई चल रही थी|
मिस्र के कार्यवाहक राष्ट्रपति ने देश में शीघ्र नए चुनाव कराने का आश्‍वासन दिया है| आशा की जा रही है कि अगले वर्ष फरवरी तक चुनाव हो  जाएँगे| लेकिन सवाल है कि इस चुनाव से क्या वहॉं कोई बदलाव आ सकेगा| यदि मुक्त चुनाव हुए तो दुबारा भी मुस्लिम ब्रदरहुड का प्रत्याशी ही वहॉं राष्ट्रपति पद का चुनाव जीतेगा| यदि सेना इस चुनाव में अपने उम्मीदवार खड़े करती है या वर्तमान अंतरिम सरकार के प्रतिनिधियों को आगे लाती है, तो उन्हंें जन समर्थन मिलने की संभावना बहुत कम है, क्योंकि अब सेना द्वारा की गई इस तख्ता पलट की कार्रवाई से वे लोग भी मोर्सी के पक्ष में होते जा रहे हैं, जो पिछले चुनाव में मोर्सी के खिलाफ थे| इतना ही नहीं सेना के वर्चस्व को तो इस्लामी वर्चस्व से भी बदतर समझा जा रहा है|
अमेरिका ने मिस्र की अंतरिम सरकार को आगाह किया है कि वह मुस्लिम ब्रदरहुड के नेताओं की अंधाधुंध गिरफ्तारी न करे| ओबामा के पहले के अमेरिकी राष्ट्रपति अगला अरब इजरायल युद्ध बचाने के लिए होस्नी मुबारक की तानाशाही का समर्थन करते आ रहे थे, किंतु ओबामा ने शायद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ मुस्लिम सहानुभूति पाने के लिए लोकतंत्र के नाम पर मुस्लिम ब्रददहुड का समर्थन किया, अभी भी उनकी सहानुभूति ब्रदरहुड के साथ ही है| मुस्लिम देशों में टर्की व कतर, जहॉं मोर्सी के समर्थक हैं, वहॉं सऊदी अरब के शाह तथा संयुक्त अरब एमिरेट्स के अमीर मोर्सी के खिलाफ हैं| वास्तव में खानदानी राजशाही के सारे प्रतिनिधि मोर्सी को अपने लिए खतरा समझते हैं, इसलिए वे उनके खिलाफ हैं| फिलहाल जहॉं अमेरिका मोर्सी की बहाली चाहता है, यद्यपि वह सीधे यह न कहकर वहॉं लोकतंत्र की पुनर्स्थापना की दुहाई दे रहा है, वहीं सऊदी अरब तथा संयुक्त अरब एमिरेट्स ने सैनिक नेताओं को आश्‍वासन दिया है कि यदि मोर्सी के कारण अमेरिका मिस्र की आर्थिक सहायता बंद करता है, तो वे अपनी ओर से उसकी भरपाई कर देंगे|
मिस्र की राजनीतिक स्थिति शायद खाड़ी क्षेत्र के अरब देशों में सर्वाधिक जटिल है| संभव है यह भविष्य की इस्लामी राजनीति की केंद्रीय प्रयोगशाला बने| यहॉं यदि मुस्लिम ब्रदरहुड की योजना सफल होती है और उसकी स्थिर सरकार कायम हो जाती है, तो मिस्र निश्‍चय ही विश्‍व इस्लामी साम्राज्य की धारणा (पैन इस्लामिज्म) की आधारभूमि बन जाएगा और यदि वह यहॉं विफल रहा, तो इस्लामी विश्‍व साम्राज्य का सपना भी विफल हो जाएगा|
वास्तव में आज का मुस्लिम समुदाय भी सबसे पहले सुखी और समृद्ध जीवन की लालसा रखता है| आधुनिक जीवनशैल्ी उसे भी आकर्षित करती है| उसको भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा मुक्त जीवन अच्छा लगता है| वह इस्लामी वर्चस्व की कामना तो करता है, लेकिन उसके सहारे उसकी कल्पना यह है कि दुनिया की सारी संपदा उसके कब्जे में आ जाएगी, फिर वह बहिश्त की जिंदगी जी सकेगा| मगर यदि इस्लामी सत्ता कायम होने के बाद भी उसे नौकरियों का टोटा पड़ा रहा, लाभकर रोजगार के अवसर न मिले और सुरक्षित एवं समृद्ध जीवन का उसका सपना पूरा न हुआ, तो शरीयत के शासन से भी उसका मोह भंग हो जाएगा|
मिस्र में ‘अरबी स्प्रिंग' क्रांति के बाद मोहम्मद मोर्सी ने देश में शरीयत की इस्लामी सत्ता तो कायम कर दी, लेकिन वह मिस्री जनता के लिए और कुछ नहीं कर सके| देश में बेरोजगारी का ग्राफ घटने के बजाए बढ़ता ही जा रहा है| आम आदमी के जीवन स्तर में सुधार का भी कोई संकेत नहीं दिखाई पड़ा| सरकार की तरफ से इसका कोई आश्‍वासन भी नहीं मिल सका| यह कहा जा सकता है कि मोहम्मद मोर्सी को यह सब करने का अभी अवसर ही कहॉं मिला था, किंतु उनकी तरफ से ऐसी कोई सामाजिक या आर्थिक योजना भी तो सामने नहीं आई, जो लोगों को आश्‍वस्त कर सके|
राष्ट्रपति मंसूर द्वारा नियुक्त प्रधानमंत्री हजेम एल बेबलवी को अपना मंत्रिमंडल बनाना भी मुश्किल हो रहा है| कई वरिष्ठ राजनीतिक नेताओं ने उनके मंत्रिमंडल में शमिल होने से इंकार कर दिया है| कई लोग इससे डर रहे हैं कि वे मुस्लिम ब्रदरहुड के निशाने पर आ जाएँगे| इस बीच मुस्लिम ब्रदरहुड ने अपना शांतिपूर्ण प्रतिरोध जारी रखने का फैसला किया है| उन्हें भरोसा है कि अगर चुनाव हुए, तो फिर उनकी ही जीत होगी| सवाल है कि राष्ट्रपति की कुर्सी पर मोहम्मद मोर्सी की वापसी को सेना के अफसर बर्दाश्त कर सकेंगे?
जाहिर है कि अगले चुनाव के बाद या तो फिर एक बार मुस्लिम ब्रदरहुड की सत्ता में वापसी होगी या फिर देश में अराजकता फैलेगी और गृहयुद्ध की स्थिति पैदा होगी| मिस्र के गृह युद्ध की स्थिति या मुस्लिम ब्रदरहुड की पराजय शायद दुनिया के लिए बेहतर संदेश लाए, क्योंकि यदि वहॉं मुस्लिम ब्रदरहुड की सत्ता स्थिर हो गई और उसकी विरोधी ताकतें पराजित हो गई, तो यह निश्‍चय ही पूरी दुनिया की आधुनिक लोकतांत्रिक शक्तियों के लिए एक खतरे का संदेश होगा और उन्हें इस पैन इस्लामिज्म का मुकाबला करने के लिए एक नए वैश्‍विक संघर्ष की तैयारी के लिए कमर कसनी पड़ेगी|
july 2013

ईरान : तय थी...

ईरान : तय थी रोहानी की जीत
 
ईरान में इस्लामी क्रांति होने के बाद राष्ट्रपति की गद्दी सँभालने वाले रोहानी पॉंचवें राजनेता हैं| वह ईरान के
सर्वोच्च नेता अयातोल्लाह खमेनेई के परम विश्‍वस्त मजहबी नेता हैं| उनको चुनाव मैदान में उतारने के पीछे अयातोल्लाह की सोची समझी रणनीति रही है| मजमूद अहमदीनेजाद के राष्ट्रपतित्वकाल में ईरान दुनिया में बिल्कुल अलग-थलग पड़ गया| बढ़ती आर्थिक कठिनाइयों तथा बाहरी प्रतिबंधों के कारण देश में सुधारवादी स्वर बढ़ते जा रहे थे| अब रोहानी की जीत से सुधारवादियों में भी थोड़ी आशा जगी है| यद्यपि वे जानते हैं कि रोहानी चाहें भी तो ऐसा कुछ नहीं कर सकते जिसकी स्वीकृति अयातोल्लाह खमेनेई से न मिले फिर भी आशा तो आशा है|

पाकिस्तान के बाद अब ईरान में हुए चुनाव से भी दुनिया के लोकतंत्रवादी बहुत उत्साहित हैं| गत १४ जून २०१३ शुक्रवार को हुए राष्ट्रपति के चुनाव में ईरान के मजहबी नेता हसन रोहानी भारी बहुमत से विजयी हुए| उन्हें कुल पड़े मतों (७२ प्रतिशत) के ५१ प्रतिशत से अधिक मत मिले हैं जो उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी तेहरान के मेयर कलीबक (१८ प्रतिशत) को मिले मतों के दो गुने से भी अधिक है| रोहानी को मध्यमार्गी उदारपंथी (सेंटरिस्ट) नेता माना जाता है इसलिए समझा जा रहा है कि ईरान के पश्‍चिमी देशों के साथ भी संबंध सुधरेंगे और भारत-ईरान संबंध भी और घनिष्ठ हो सकेंगे| लेकिन सच्चाई यह है कि मौलाना रोहानी को उदारपंथी समझना केवल एक भ्रम है| वह मध्यमार्गी अवश्य है किन्तु सुधारवादी नहीं|
ईरान में इस्लामी क्रांति होने के बाद राष्ट्रपति की गद्दी सँभालने वाले रोहानी पॉंचवें राजनेता हैं| वह ईरान के सर्वोच्च नेता अयातोल्लाह  खमेनेई के परम विश्‍वस्त मजहबी नेता हैं| उनको चुनाव मैदान में उतारने के पीछे अयातोल्लाह की सोची समझी रणनीति है| मजमूद अहमदीनेजाद के राष्ट्रपतित्वकाल में ईरान दुनिया में बिल्कुल अलग-थलग पड़ गया| बढ़ती आर्थिक कठिनाइयों तथा बाहरी प्रतिबंधों के कारण देश में सुधारवादी स्वर बढ़ते जा रहे थे| अब रोहानी की जीत से सुधारवादियों में भी थोड़ी आशा जगी है| यद्यपि वे जानते हैं कि रोहानी चाहें भी तो ऐसा कुछ नहीं कर सकते जिसकी स्वीकृति अयातोल्लाह खमेनेई से न मिले फिर भी आशा तो आशा है|
ईरान की आंतरिक राजनीति को समझने वालों में रोहानी को लेकर कोई भ्रम नहीं है| वे जानते हैं कि रोहानी सुधारवादियों की कोई आशा नहीं पूरी कर सकते| एक मजहबी नेता भला एक मजहबी प्रणाली से देश को कैसे बाहर निकाल सकता है| इस्लामी क्रांति के समय ईरान से भागकर अमेरिका जा बसेे सियामक कल्हॉर के अनुसार ‘क्या कोई मुल्ला हमें मुल्लाओं के हाथ से बचा सकता है|' यों भी आशा वादियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि रोहानी भले ही धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलते हो किन्तु मूलतः वह मजहबी नेता हैं न कि राजनीतिक| उनमें और दूसरे कट्टरपंथियों में फर्क केवल यह है कि रोहानी का राजनीतिक चेहरा उतना डरावना नहीं है जितना कि कट्टरपंथियों का फिर भी अहमदीनेजाद के कट्टरपंथी शासन से रोहानी के मध्यमार्गी शासन व्यवस्था में जाना वैसा ही है जैसे नर्क में आग उगलते ड्रैगनों से भाग कर व्याघ्रों के झुंड में शरण लेना|
हसन रोहानी गत १६ वर्षों से ईरानी इस्लामी रिपब्लिक की सर्वोच्च राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद (सुप्रीम नेशनल सिक्योरिटी कौंसिल) का अध्यक्ष पद सँभाल रहे थे| इस पद पर रहते हुए वह पश्‍चिमी देशों के साथ परमाणु वार्ता में ईरानी पक्ष का नेतृत्व कर रहे थे| लम्बे संपर्कों के कारण यह समझा जाता है कि वह अमेरिका तथा अन्य पश्‍चिमी देशों को ज्यादा बेहतद ढंग से समझते हैं किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि राष्ट्रपति बनने के बाद पश्‍चिमी देशों के प्रभाव में वह अपनी राष्ट्रीय नीतियों को बदल देंगे| राष्ट्रपति चुने जाने के बाद प्रेस के साथ अपनी पहली बातचीत  में उन्होंने साफ कहा कि देश का परमाणु कार्यक्रम पूर्ववत जारी रहेगा| इसके साथ ही उन्होंने यह भी घोषणा की कि ईरान का सीरिया की असद सरकार के साथ सहयोग संबंध बना रहेगा| ये दोनों ही बातें अमेरिका को अखरने वाली हैं|
‘लास ऐंजेल्स टाइम्स' के स्तम्भकार रॉबर्ट फैटुरेची के अनुसार ईरान के कट्टरतावादी
मुल्लाओं (क्लेरिक्स) ने एक अधिक उदार दिखने वाले उम्मीदवार को जानबूझकर ऐसा अवसर दिया जिससे कि वह चुनाव जीत सके| इस जीत से ईरान की छवि सुधरेगी तथा सुधारों की मॉंग करने वाले ईरानी भी यह समझ सकेंगे कि उनकी आवाज सुनी गई| जब कि वास्तव में वे भी सर्वोच्च नेता अयातोल्ला खेमेनेई के वैसे ही कठपुतले हैं जैसे अहमदीनेजाद थे| ईरानी राजनीति के अध्येताओं के अनुसार रोहानी की जीत पहले से ही तय थी| उनका जीतना सर्वोच्च नेताओं की अपनी महान राजनीतिक योजना का अंग था| रोहानी की मध्यमार्गी छवि के साथ यह प्रचार कि ईरान के सर्वोच्च नेता अयातोल्लाह अल खमेनेई को वह पसंद नहीं हैं और फिर भारी मतों से उन्हें जिताना इस सबका उद्देश्य केवल ईरान की मजहबी सत्ता को लोकतांत्रिक वैधानिकता प्रदान करना था| यह सब योजनाबद्ध था|
इतना ही नहीं अब पश्‍चिमी मीडिया में भी यह स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है कि इस्लामी लोकतंत्र पश्‍चिमी शैली के प्रचलित लोकतंत्र से बेहतर है| ईरान के बारे में जो लेख लिखे जा रहे हैं उनमें बताया जा रहा है कि इस्लामी व्यवस्था में उसके पूर्व के शाह के शासनकाल के मुकाबले अधिक विकास हुआ है| गरीबी उन्मूलन, स्वास्थ्य रक्षा तथा शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं इस्लामी क्रांति के बाद औरतों को भी कहीं बेहतर विकास के अवसर प्राप्त हुए हैं| इन क्षेत्रों में ईरान की प्रगति उसके पड़ोसी देशों सऊदी अरब तथा तुर्की से भी बढ़कर है| कई लेखक अमेरिका को यह उपदेश दे रहे हैं कि उसे ईरानी इस्लामी लोकतंत्र को मान्यता देनी चाहिए तथा उसके साथ अपने संबंधों को सुधारना चाहिए| मध्यपूर्व में सुन्नी कट्टरपंथियों तथा अलकायदा जैसे जिहादी संगठनों को पराजित करने के लिए ईरान को सहयोग देना चाहिए|
रोहानी ईरान में इस्लामी क्रांति के जनक अयातोल्लाह खमेनी के भी उतने ही विश्‍वास पात्र थे जितने कि वह खमेनेई के हैं| देश के सर्वोच्च नेता से नजदीकी के कारण वह बहुत जल्दी सत्ता के केन्द्र में पहुँच गये| इस चुनाव में उन्हें पिछले दोनों राष्ट्रपतियों अली अकबर हासमी रफसंजानी तथा मोहम्मद खाटमी का समर्थन प्राप्त था| जाहिर है कि देश के भीतर और बाहर दोनों तरफ उनकी स्वीकार्यता पिछले राष्ट्रपतियों के मुकाबले अधिक है| इसलिए उनसे भले ही किसी बड़े सुधार की अपेक्षा न हो किन्तु उनके साथ बेहतर संबंध अवश्य कायम किये जा सकते हैं| पश्‍चिमी देश अभी प्रतीक्षा कर रहे हैं कि उनकी सत्ता स्थिर हो जाए क्योंकि उसके बाद सामने आने वाली नीतियॉं ही विश्‍वसनीय मानी जा सकती हैं| चुनावों के दौरान व्यक्त विचारों, घोषणाओं तथा आश्‍वासनों को ज्यों का त्यों कभी भी विश्‍वास के योग्य नहीं माना जा सकता| फिर भी अमेरिका ईरान के साथ सीधे बातचीत करने के लिए तैयार है| यूरोपीय देश भी नए राष्ट्रपति से काफी कुछ आशान्वित हैं|
जहॉं तक भारत का सवाल है तो उसे भी रोहानी के शासन में ईरान के साथ हर क्षेत्र में घनिष्ठता बढ़ने की आशा है| रोहानी भारत के लिए अपरिचित नहीं है| २००२ तथा २००४ में ईरानी सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष के रूप में भारत की यात्रा कर चुके हैं| अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में भारत ने ईरान से संबंध बढ़ाने के काफी प्रयत्न किये| २००३ में राष्ट्रपति खाटमी को गणतंत्र दिवस की परेड में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था| भारत ईरान के छबाहार बंदरगाह के विकास में निवेश करने का इच्छुक है| भारत ने यद्यपि परमाणु क्षमता के विकास के मामले में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में आए प्रस्ताव पर ईरान के खिलाफ मतदान किया था फिर भी ईरान को यह अपेक्षा है कि भारत उसके खिलाफ लगे प्रतिबंधों को हटाने में उसकी मदद कर सकता है| पिछले करीब एक दशक में अमेरिका के साथ बढ़ी निकटता के कारण भारत का ईरान के साथ संबंध ढीला पड़ा है| रोहानी के शासनकाल में इसमें कुछ खास गर्मजोशी आ सकेगी इसकी संभावना तो कम है लेकिन यदि अमेरिका स्वयं ईरान के साथ संबंध सुधार की अपेक्षा कर सकता है तो भारत भी क्यों नई संभावनाओं की तलाश में पीछे रहे? फिर भी यह याद रखना चाहिए कि राष्ट्रपति पद पर बदलाव से ईरान के राजनीतिक चरित्र में बदलाव नहीं आ सकता| जब तक वहॉं की सत्ता मजहबी नेताओं के हाथ में है तब तक वहॉं किसी खास सुधार या बदलाव की आशा नहीं की सकती|
मिस्र ः तथाकथित लोकतंत्र से अब गृहयुद्ध की ओर?
मिस्र की राजनीतिक स्थिति शायद खाड़ी क्षेत्र के अरब देशों में सर्वाधिक जटिल है| संभव है यह भविष्य की इस्लामी राजनीति की केंद्रीय प्रयोगशाला बने| यहॉं यदि मुस्लिम ब्रदरहुड की योजना सफल होती है और उसकी स्थिर सरकार कायम हो जाती है, तो मिस्र निश्‍चय ही विश्‍व इस्लामी साम्राज्य की धारणा (पैन इस्लामिज्म) की आधारभूमि बन जाएगा और यदि वह यहॉं विफल रहा, तो इस्लामी विश्‍व साम्राज्य का सपना भी विफल हो जाएगा|
july 2013

कांग्रेस के पहले ...

कांग्रेस के पहले राष्ट्रवादी नेता बाल गंगाधर तिलक

पत्रकार, शिक्षक, वकील, समाज सुधारक, स्वातंत्र्य सेनानी, क्या नहीं थे केशव बाल गंगाधर तिलक| वह भारत में अंग्रेजी शिक्षा के पहली पीढ़ी के स्नातकों में थे| भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के वह पहले लोकप्रिय नेता थे| कांग्रेस के वह पहले ऐसे राजनेता हैं, जिन्होंेने घोषणा की कि स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम उसे लेकर रहेंगे (स्वराज्य हा माझा जन्मसिद्ध हक्क| अहे अणि तो मी मिलवनारच)| वह आधुनिक भारत के पहले ऐसे दार्शनिक राजनेता हैं, जिन्होंने कहा, ‘यह देश मेरी मातृभूमि मेरी देवी है, देशवासी समूह मेरा परिवार है और इस देश को राजनीतिक व सामाजिक स्वाधीनता दिलाने के लिए काम करना ही मेरा सबसे बड़ा धर्म है|’
अंग्रेज उन्हें ‘भारतीय अशांति का जनक’ (फादर ऑफ इंडियन अनरेस्ट) कहते थे| वास्तव में तिलक पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने कांग्रेस के चरित्र को बदला| उन्होंने गोपालकृष्ण गोखले के नरम रुख का  विरोध किया| वह १८९० में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए| १८९१ में उन्होंेेने अंग्रेज सरकार द्वारा लाए गए ‘एज कंसेट बिल' का विरोध किया| यह बिल लड़कियों की शादी की आयु से संबंधित था| इसके अंतर्गत लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु १० वर्ष से बढ़ाकर १२ वर्ष किया गया था| तिलक स्वयं बाल विवाह के विरोधी थे, लेकिन वे इस तरह विवाह की आयु तय करने वाले कानून के भी खिलाफ थे| वह कानून के द्वारा बाल विवाह पर नियंत्रण नहीं चाहते थे| उनका कहना था कि इस तरह के विधेयक खतरनाक नजीर बन सकते हैं| इससे समाज के निजी पारिवारिक जीवन में राज्य का हस्तक्षेप बढ़ने का खतरा पैदा हो सकता है|
तिलक ने गीता से उद्धरण देते हुए कहा कि बिना किसी निजी स्वार्थ के यदि कोई व्यक्ति किसी दमनकारी या अत्याचारी को मार डाले, तो इससे कोई पाप नहीं लगता| उनके इस उपदेश का परिणाम हुआ कि २२ जून, १८९७ को चापेकर बंधुओं ने दो अंग्रेज अफसरों रैंड तथा लेफ्टिनेंट ऐर्स्ट को गोली मार दी| अंग्रेज सरकार ने इस हत्या की प्रेरणा देने के आरोप में तिलक को १८ महीने के लिए जेल में डाल दिया| यह उनकी पहली जेल यात्रा थी| जेल से बाहर आते ही उन्होंने नारा लगाया ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, जिसे हम लेकर रहेंगे|'
रत्नगिरि (महाराष्ट्र) में २३ जुलाई, १८५६ को जन्मे केशव गंगाधर तिलक के पिता गंगाधर तिलक स्कूल टीचर और संस्कृत के विद्वान थे| केशव जब अभी मात्र १६ वर्ष के थे, तभी उनके पिता का निधन हो गया| केशव गंगाधर ने उक्कन कॉलेज, पुणे से १८७७ मंें ग्रेजुएट की उपाधि प्राप्त की| ग्रेजुएशन के बाद उन्होंने वहीं पुणे के एक स्कूल में गणित पढ़ाना शुरू किया| स्कूल में साथियों के साथ मतभेद के कारण उन्होंने अध्यापन कार्य छोड़ दिया और पत्रकार बन गए| उन्होंने मराठी में ‘केशरी' तथा अंगे्रजी में ‘मराठा' साप्ताहिक शुरू किया|
इसके बाद उन्होंने आधुनिक शिक्षा के साथ भारतीय इतिहास एवं संस्कृति की शिक्षा के लिए ‘दकन एजुकेशन सोसायटी' के नाम से एक शैक्षिक संगठन की स्थापना की| इस सोसायटी में उनके साथ गोपाल गनेश अगरकर, विष्णु शास्त्री चिपलूनकर तथा महादेव बल्लाल
नाम जोशी मुख्य रूप से शामिल थे| इस सोसायटी के द्वारा उन्होंने एक स्कूल ‘न्यू इंग्लिश स्कूल' तथा एक कॉलेज ‘फर्गुशन कॉलेज' की स्थापना की| इन दोनों ने भारतीय संस्कृति की भी शिक्षा की सम्यक व्यवस्था थी| तिलक स्वयं फर्गुशन कॉलेज में गणित पढ़ाते थे और संस्कृति की भी कक्षाएँ लेते थे| उनके द्वारा स्थापित फर्गुशन कॉलेज अब भी चल रहा है|
तिलक ने कांग्रेस में जब गोखले के नरम रुख का विरोध किया, तो उन्हें व्यापक समर्थन मिला| बंगाल से विपिनचंद्र पाल तथा पंजाब से लाला लाजपत राय ने उनका खुला समर्थन किया| १९०५ में जब लार्ड कर्जन ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करने के लिए बंगाल के विभाजन का प्रस्ताव सामने रखा, तो विपिनचंद्र पाल और लाला लाजपतराय के साथ बाल गंगाधर तिलक ने उसके विरुद्ध देशव्यापी अभियान चलाया| इन तीनों नेताओं का गुट इस आंदोलन के बाद इतना प्रसिद्ध हुआ कि ‘लाल-बाल-पाल' का यह नाम बच्चे-बच्चे की जबान पर चढ़ गया|
१९०७ में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में नरमपंथियों और गरमपंथियों के बीच स्पष्ट विभाजन रेखा खिंच गई| गरमपंथी या झाला मतवादी (रेडिकल) समूह का नेतृत्व तिलक कर रहे थे तो नरमपंथी (मवाल मतवादी) गुट गोपालकृष्ण गोखले के साथ खड़ा था| उस समय क्रांतिकारी अरविंद घोष तथा वी.ओ. चिदंबरम जैसे नेता तिलक के समर्थक थे| अपने गरम बयानों के कारण तिलक अंगे्रजों की नजर में बेहद खतरनाक नेता साबित हो चुके थे| इसलिए १९०८ में उन्हें गिरफ्तार करके मांडल जेल भेज दिया गया, जहॉं से वह १९१४ में रिहा हुए| जेल में रहते हुए उन्होंने ‘गीता रहस्य' नाम से भगवद्गीता पर अपनी टीका लिखी|
जेल से बाहर आने पर वह काफी कुछ बदले हुए नजर आए, लेकिन १९१६ आते-आते वह फिर अपने पुराने तेवर में वापस आ गए| उन्होंने ‘ऑल इंडिया होम रूल लीग' की स्थापना की| इस लीग में उनके साथ जी.एस. खपारेड, मोहम्मद अली जिन्ना तथा एनीबेसेंट भी शामिल थीं| तिलक ने इस संगठन के माध्यम से स्वशासन की पुरजोर मांग की| यह लीग १९१८ तक सक्रिय थी| इसके दो साल के भीतर ही १९२० में उनका निधन हो गया|
तिलक ने सामाजिक चेतना के प्रसार के लिए महाराष्ट्र में दो ऐसे सांस्कृतिक कार्यक्रमों का प्रारंभ किया, जो आज तक चल रहे हैं और जिन्होंने कम से कम मराठी समाज को परस्पर जोड़ने में अद्भुत भूमिका अदा की है| १८९४ में उन्होंने सार्वजनिक गणेशोत्सव का प्रारंभ किया और एक साल बाद ‘श्री शिवाजी फंड कमेटी' का गठन किया, जिसने मराठावीर शिवाजी की पुण्यतिथि (शिव पुण्यतिथि) मनानी शुरू की|
तिलक अपने समय के अत्यंत मेधावी तथा बहुमुखी प्रतिभा वाले राजनेता थे| उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम तथा आधुनिक भारतीय समाज पर अपनी ऐसी अमिट छाप छोड़ी है, जो कभी भी धूमिल नहीं पड़ सकती|

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

ऋतु संधिकाल ...

ऋतु संधिकाल में सावधानी आवश्यक

सर्दियॉं अब बीत चुकी हैं| वसंत का आगमन हो चुका है| दक्षिण भारत में आमों में बौर आने लगे हैं और धूप भी तेज हो गई है, उत्तर में वसंतागमन थोड़ा देर से होता है, फिर भी फाल्गुन (मार्च) आने के साथ वहॉं भी धरती सर्दी को विदाई देती नजर आने लगी है| ऋतु परिवर्तन के इस काल को ही ऋतु संधिकाल कहते हैं, जिसके दौरान थोड़ी सावधानी बरतना स्वास्थ्य के लिए हितकर होता है|
आयुर्वेद के अनुसार बाह्य प्रकृति में बदलाव आने के साथ शरीर के आंतरिक अवयवों में भी परिवर्तन होने लगता है| भीतर का रासायनिक संतुलन नया रूप लेने लगता है| तो अब अच्छे स्वास्थ्य को बनाए रखने की चिंता करने वाले मनुष्य को भी ऋतु के अनुकूल अपनी जीवनशैली बदलने की तैयारी कर लेनी चाहिए| वैसे गर्मी से सर्दी की तरफ संक्रमण के मुकाबले सर्दी से गर्मी की तरफ संक्रमण काफी सहज होता है| गर्मी के साथ समायोजन के लिए शरीर को कुछ अधिक प्रयत्न नहीं करना पड़ता| फिर भी यदि हम मौसम में बदलाव के अनुकूल अपना खान-पान तथा जीवनचर्या थोड़ी बदल लें, तो उसका लाभ अवश्य मिलेगा| ऋतु परिवर्तन के इस मध्यकाल को ही ऋतु संधिकाल कहते हैं| इस संधिकाल में थोड़ी अधिक सावधानी की जरूरत रहती है|
बसंत ऋतु में वायु प्रवाह प्रायः दक्षिण से उत्तर की ओर होता है| वसंत का वर्णन करने वाले कवियों ने दक्षिण पवन की प्रशंसा में ढेरों छंद लिखे हैं| सूर्य किरणें भी मध्यम ताप बिखेरने वाली होती हैं| वृक्षों में नई कोपलें आ जाती हैं| बहुत से वृक्षों के तने की बाहरी पपड़ियॉं भी झड़ जाती हैं और नई छालें उनकी जगह ले लेती हैं| वातावरण धूलरहित और स्वच्छ नजर आता है| तो ऐसे समय में शरीर भी अपने को स्वच्छ करने की प्रक्रिया में आगे बढ़ता है|
शीतकाल में शरीर में बहुत सारा श्‍लेषमा (कफ) जमा हो जाता है| कफ प्रकृति वाले मनुष्यों में कुछ अधिक ही| वसंतागमन के साथ शरीर इस कफ को बाहर निकालने की कोशिश में लग जाता है| इस कार्य में शरीर की मदद करनी चाहिए| यदि उचित खान-पान और अनुकूल औषधियों का सेवन किया जाए, तो शरीर अपने को स्वच्छ भी कर लेगा और उसका पता भी नहीं चलेगा| अन्यथा सर्दी, जुकाम की छोटी-मोटी बीमारियॉं भी हो सकती हैं| तो क्या करें इस ऋतु परिवर्तन के साथ अपना तालमेल बैठाने के लिए-
* एक तो सीधी हवा (जिसे फगुनी हवा कहते हैं) और सीधी धूप से बचें| ये अच्छी लगेंगी, लेकिन नुकसान कर सकती है|
* तेल की नियमित मालिश हवा और धूप के दुष्प्रभाव से त्वचा की ही रक्षा नहीं करेगी, बल्कि सामान्य स्वास्थ्य को भी उन्नत बनाएगी| सुगंधित तेल या तिल का तेल लाभकर होगा| आयुर्वेद में कहा भी गया है- घृतात् दश गुणं तैलं, मर्दने न तु खादने| यानी तेल, घी से दस गुना अधिक लाभकर है, किंतु खाने में नहीं मालिश करने में|
* आजकल चंदन और अगुरु तो दुर्लभ हो गए हैं, किंतु यदि व्यवहार में ला सकें, तो शरीर पर चंदन का लेप लगाएँ| यदि यह संभव नहीं है, तो किसी अन्य उबटन का इस्तेमाल कर सकते हैं| चेहरे पर चिरौंजी के दानों का उबटन (दूध के साथ पीसकर) बहुत चमत्कारी प्रभाव डालना है| शरीर पर बेसन या मसूर की दाल (दूध में भिगोकर पिसी हुई) का उबटन भी लाभकारी है|
* सर्दियों में नहाना शायद कम हो गया हो, लेकिन वसंत में रोज नहाना शुरू कर दें| स्नान के बाद कोई सुगंधित द्रव्य शरीर पर लगाएँ तो सुखकर रहेगा|
* दिन में सोना अत्यंत हानिकर है| वसंत में तो दिन के शयन से जरूर बचें| गर्मियॉं आने पर दिन में सोने का आनंद ले सकते हैं|
* स्त्री-पुरुष सभी को इस मौसम में नियमित व्यायाम अवश्य करना चाहिए| प्राणायाम, जॉगिंग, नृत्य या एरोबिक व्यायाम हितकर हैं|
* संभव हो तो शरीर शोधन के लिए योग्य आयुर्वेदिक चिकित्सक की देखरेख में पंचकर्म कराएँ|
आहार
सर्दियों में घृतपूरित गरिष्ठ आहार की यदि आदत पड़ गई है, तो उसे अब बदल दें| हल्के भोजन की तरफ बढ़े| शहद का सेवन अवश्य करें| इससे श्‍लेष्मा (कफ) को बाहर निकालने में मदद मिलेगी| आसव, आरिष्ट का सेवन भी कर सकते हैं| गेहूँ और यव (जौ) के बने पदार्थ इस ऋतु में हितकर हैं| खट्टी चीजें अधिक न लें| मौसमी फल और सब्जियॉं हर ऋतु में लाभकर होती हैं, लेकिन खट्टे फलों से बचें|

वीरता और त्याग...

वीरता और त्याग के अद्भुत प्रतीक : शीशदानी बर्बरीक
 
महाभारत की कथा का एक अद्भुत पात्र है बर्बरीक| वंशावली से तो वह पाण्डव है| पाण्डुपुत्रभीम का पौत्र| किंतु वैध विवाह परंपरा के बाहर की श्रृंखला में जन्म लेने के कारण उसे पाण्डुवंश का सम्मान नहीं मिल सका| भीम के हिडिम्बा से उत्पन्न पुत्र घटोत्कच की वीरता महाभारत में वर्णित है, लेकिन इस घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक ने उस युद्ध में भाग नहीं लिया| बर्बरीक असाधारण शक्ति संपन्न था| उसने युद्धकला अपनी मॉं से सीखी थी, बाद में भगवान शिव की उपासना करके उनसे तीन दिव्य बाण प्राप्त किये थे| ये तीन बाण ऐसे थे जिनसे एक बार में ही कितनी भी बड़ी सेना का संहार किया जा सकता था| इन बाणों से कोई कहीं भी छिप कर नहीं बच सकता था|
कथा है कि बर्बरीक ने अपनी मॉं को वचन दिया था कि वह केवल कमजोर का साथ देगा| किसी युद्ध में भी वह केवल उस पक्ष में शस्त्र उठाएगा जो कमजोर पड़ रहा होगा| महाभारत के युद्ध में वह किसी भी पक्ष द्वारा आमंत्रित नहीं किया गया था, लेकिन वह यह महायुद्ध देखना चाहता था, इसलिए वह कुरुक्षेत्र की तरफ चल पड़ा| कृष्ण को जब इसकी खबर मिली तो वह चिंतित हो उठे| वह वेश बदल कर उस महायोद्धा से मिले| पहले तो उन्होंने उसे पाण्डवों के पक्ष में करना चाहा लेकिन जब देखा कि वह अपनी मॉं को दिए गए वचन पर दृढ़ है, तो वह उससे मुक्ति का उपाय सोचने लगे| उन्होंने देखा कि यदि वह अपने संकल्प के अनुसार युद्ध में शामिल हुआ तो अंत में अकेला केवल वही बचेगा, बाकी सब मारे जाएँगे| कृष्ण ने तत्काल संकल्प लिया कि इसका जीवित रहना ठीक नहीं| क्या करें| उनकी चिंता से बर्बरीक को भी जिज्ञासा हुई कि यह व्यक्ति कौन है| कृष्ण ने अपने को प्रकट कर दिया| बर्बरीक उनका दर्शन पाकर अत्यंत गद्गद् हो गया| कृष्ण के प्रति उसमें गहरा श्रद्धा-भाव था| उसने कहा कि अपने संकल्पों की रक्षा करते हुए अन्य जो कुछ कहें वह करने के लिए और जो मॉंगें वह देने के लिए तैयार हूँ| कृष्ण ने मुस्कराते हुए कहा कि मुझे तुम्हारा सिर चाहिए| बर्बरीक हतप्रभ था लेकिन उसने बिना किसी भय के कहा कि मैं सिर देने के लिए तैयार हूँ, किंतु मैं महाभारत का यह युद्ध देखना चाहता हूँ| कृष्ण ने कहा कि तुम अपने सिर से जीवित रहोगे और पूरा युद्ध देखने के बाद ही मृत्यु का वरण करोगे| यह सुनने के बाद तत्काल उसने अपना सिर काट कर समर्पित कर दिया| कृष्ण भी उसकी वीरता और त्याग भावना से अभिभूत थे| कथा के अनुसार उन्होंने उसे वरदान दिया कि कलियुग में तुम्हारी मेरे नाम से ही प्रतिष्ठा होगी, लोग तुम्हारे सिर की मेरी ही तरह पूजा करेंगे और जो कोई तुम्हारा स्मरण करेगा उसकी सारी मनोकामनाएँ पूरी होंगी|
कहा जाता है कि इसके बाद बर्बरीक का सिर एक ऊँची पहाड़ी के शिखर पर रख दिया गया जहॉं से उसने पूरा युद्ध देखा| युद्धोपरांत जब बर्बरीक का प्राण कृष्ण में विलीन हो गया तो उसके सिर को रूपवती नदी में विसर्जित कर दिया गया| कहा जाता है कि कलियुग के प्रारंभ में वही सिर वर्तमान राजस्थान के खाटू गॉंव (जिला सीकर) में जमीन के भीतर से प्राप्त हुआ| किंवदन्ती है कि कलियुग के कुछ वर्ष बीतने पर एक दिन खाटू गॉंव के लोगों ने देखा कि एक जगह गाय के स्तन से अपने आप दूध गिर रहा है और धरती को खोदा तो नीचे एक सिर मिला| यह सिर एक ब्राह्मण को दिया गया| वह कई दिनों तक उसे लेकर चिंतामग्न था कि इसका क्या किया जाए| इसकी खबर खाटू के राजा रूप सिंह चौहान को मिली| कहा जाता है कि एक रात उन्हें स्वप्न आया कि वह खाटू में एक मंदिर का निर्माण करे और उसमें उस सिर की 'श्याम' (कृष्ण का एक नाम) बाबा के नाम से प्रतिष्ठा करे| रूपसिंह ने अपनी पत्नी नर्मदा कँवर के साथ मिलकर मंदिर का निर्माण कराया और फाल्गुन शुक्लपक्ष की एकादशी को मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई| मूल मंदिर का निर्माण राजा रूप सिंह दंपति द्वारा १०२७ ईसवी में हुआ| बाद में १७२० में दीवान अभय सिंह ने इसका जीर्णोद्धार कराया| मंदिर का आधुनिक भव्य रूप नवीनतम है जो श्याम भक्तों की श्रद्धाभक्ति से सँवारा गया है|
आस्था-श्रद्धा के विषय तर्कों से संचालित नहीं होते, इसलिए भले ही कुछ लोग पौराणिक गाथाओं पर विश्‍वास न करें, लेकिन यह स्वाभाविक है कि कभी भी अपने सिर की परवाह न करने वाले वीरों की धरती राजस्थान के लोग ऐसे त्यागी और वीर पुरुष की भगवान के रूप में भक्ति, पूजा और गुणगान करें| देश में कई स्थानों पर लोगों ने खाटू के श्यामबाबा की प्रतीक स्थापना कर रखी है, लेकिन देश में श्यामबाबा का दूसरा अत्यंत भव्य मंदिर आन्ध्र प्रदेश के हैदराबाद में स्थापित है| खाटू की तरह यहॉं हैदराबाद में भी फाल्गुन सुदी  एकादशी-द्वादशी (ग्यारस-बारस) को भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है और भव्य उत्सव का आयोजन होता है|

धरती के लिए...

धरती के लिए उल्का पिंडों का खतरा
 
 
बीती १५ फरवरी को धरती एक विशाल उल्का से तो बाल-बाल बच गई, लेकिन एक दूसरी उल्का उसके गुजरने के पहले ही (जिसका पहले से कोई अनुमान नहीं था) धरती के वायुमंडल में आ धमकी, जिसके कारण रूस के साइबेरिया क्षेत्र में १५०० से अधिक लोग घायल हो गए और संपत्तियों को भी भारी नुकसान पहुँचा| संयोग से कोई परमाणु रियेक्टर उसकी चपेट में नहीं आया और उस क्षेत्र का एक बड़ा शहर चेल्याबिंस्क भी चमत्कारी ढंग से बच गया| रूसी साइंस अकादमी के अनुसार यह उल्कापिंड करीब १०,००० टन वजन का था, जो १५ से २० कि.मी. प्रेति सेकेंड की गति से स्थानीय समय के अनुसार प्रातः ९ बजे वायुमंडल में प्रविष्ट हुआ| (रूसी विज्ञान अकादमी का पहला अनुमान था कि यह उल्का पिंड केवल १० टन वजन का था, लेकिन बाद मंं पता चला कि यह अनुमान से एक हजार गुना अधिक, करीब १० हजार टन का था|) धरती की सतह से करीब ५० कि.मी. ऊपर यह दग कर टुकड़े-टुकड़े हो गया| विस्फोट के समय वह सूर्य से भी अधिक चमकदार दीख रहा था| विस्फोट के बाद आकाश में एक लंबी चमकदार धुएँ की रेखा देखी गई| उल्का के छोटे-छोटे टुकड़े आस-पास बिखर गए| हवा की रगड़ से वे भी जल उठे, इसलिए धुएँ की रेखा के पीछे कई विस्फोट सुनाई दिए|
विस्फोट से निकले टुकड़े साइबेरिया तथा कजाखिस्तान के कई इलाकों में गिरे| इन जलते हुए टुकडों तथा विस्फोट की आघात तरंगों (शॉक वेव्स) से करीब ४००० मकानों को क्षति पहुँची| करीब १० लाख वर्ग फीट खिड़कियों के कॉंच टूट गए, जिनकी सफाई के लिए २४,००० सैनिक लगाए गए हैं| 'नासा' के अनुसार इस विस्फोट से करीब ५०० किलो टन ऊर्जा निकली, जो हिरोशिमा पर गिरे परमाणु बमों जैसे ३० बम के बराबर थी| ऐसा लगा कि कोई भूकंप आ गया| यह शहर मास्को से करीब १५०० कि.मी. दूर है तथा इसकी आबादी करीब ११ लाख २० हजार है|
संयोग से उसी दिन विशाल उल्कापात का एक बड़ा खतरा टल गया| 'ऐस्टेरॉयड २०१२ डी.ए. १४’ नामक यह उल्कापिंड १५ फरवरी की शाम धरती को बिना कोई हानि पहॅुंचाए उससे २७६८१ कि.मी. दूर इंडोनेशिया के ऊपर से निकल गया| करीब ४६ मीटर की मोटाई वाला यह उल्कापिंड यदि धरती से टकराता, तो करीब १००० परमाणु बमों के एक साथ विस्फोट के बराबर की ऊर्जापात होता| 'नासा' ने यद्यपि पहले से ही आश्‍वस्त कर दिया था कि यह उल्का पृथ्वी से नहीं टकराएगी, फिर भी यह अंदेशा तो था ही कि वह अंतरिक्ष में घूमते कुछ संचार उपग्रहों को अपनी चपेट में ले सकता है, जिससे धरती की संचार व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो सकती है| कारण था कि यह पिंड भूस्थिर उपग्रहों की धरती से दूरी (३५७८९ कि.मी.) से भी कम दूरी से निकलने वाला था, मगर वह बिना किसी उपग्रह से टकराए निकल गया, इससे सभी ने राहत की सॉंस ली|
फिलहाल हम राहत की सॉंस ले सकते हैं कि एक बड़ा खतरा टल गया और दूसरा पिंड भी धरती पर कोई बड़ा घाव नहीं लगा सका, किंतु अंतरिक्ष में बिखरे ऐसे उल्कापिंडों से धरती के लिए हमेशा खतरा बना हुआ है| किसी भी देश के पास अभी ऐसा कोई उपाय नहीं है कि धरती की तरफ आ रहे किसी उल्कापिंड को पहले ही रोका जा सके या उसे नष्ट किया जा सके|
उल्कापिंड डी.ए. १४ का भी पता गत वर्ष स्पेन के एक डेंटिस्ट द्वारा लगाया गया, जो शौकिया नक्षत्र विज्ञानी (एस्ट्रोनोमर) है| पेशेवर विज्ञानियों को इसका कोई पता नहीं था कि कोई भटका उल्कापिंड धरती की ओर आ रहा है| उसने जब जानकारी दी तब अंतरिक्ष में उसके मार्ग पर नजर रखी जाने लगी और रूस में आ टकराए पिंड का तो दूर-दूर तक किसी को अंदेशा नहीं था|
नक्षत्र विज्ञानियों के अनुसार ऐसे उल्कापिंड लगभग हर ४० वर्ष में पृथ्वी के पास से निकलते हैं, लेकिन धरती से इनके टकराने की संभावना हर एक लाख या दो लाख वर्ष में एक बार होती है| समझा जाता है कि करीब ६५० लाख वर्ष पूर्व धरती से डायनासोरों का सफाया ऐसे किसी उल्कापात में ही हुआ था| टकराने की कम संभावना के कारण ही धरती पर मनुष्य की सभ्यता जीवित बची चली आ रही है| लेकिन अगला खतरा कब आ टपके, इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता|