शुक्रवार, 26 जुलाई 2013


सहवास को विवाह की मान्यता देने का प्रश्‍न!
 

मद्रास हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश सी.एस.करनन ने अपने एक फैसले में कहा है कि विवाह योग्य आयु प्राप्त कोई पुरुष-स्त्री यदि परस्पर सहमति से दैहिक संबंध कायम करते हैं तो इसे विवाह स्वीकार किया जाना चाहिए| इस पर तमाम लोगों की भवें चढ़ गई हैं और इसे भारतीय संस्कृति, परंपरा तथा वैवाहिक पवित्रता की अवहेलना करने वाला फैसला बताया जा रहा है|फैसला  निश्‍चय ही कानून सम्मत नहीं हैं किन्तु इसे भारतीय संस्कृति एवं परंपरा के विरुद्ध नहीं कहा जा सकता| भारतीय धर्मशास्त्रों में तो किसी भी स्थिति में हुए संभोग को विवाह की मान्यता दे दी गई है| न्यायमूर्ति करनन ने आधुनिक ‘लिव-इन-रिलेशन' के संदर्भ में अपना फैसला दिया है जिसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए और यदि कानून में इसकी व्यवस्था नहीं है तो देश के कानून निर्माताओं को इसकी व्यवस्था करनी चाहिए| करनन द्वारा दी गई व्यवस्था स्त्री के व्यापक हित में है जिसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए|

मद्रास हाईकोर्ट के न्यायाधीश सी.एस. करनन ने गत जून माह में एक ऐसा फैसला सुनाया जिससे इस देश में ही नहीं विदेश में भी तमाम लोग चौंक पड़े| फैसला था कि यदि विवाह की वैधानिक आयु प्राप्त कोई युवक युवती परस्पर सहमति से संभोग करते हैं तो उन्हें कानूनी तौर पर पति पत्नी मान लिया जाना चाहिए| दूसरे शब्दों में उन्होंने संभोग को विवाह की मान्यता दे दी| अभी पश्‍चिम के अत्याधुनिक समाज की सोच भी यहॉं तक नहीं पहुँची थी फिर यदि भारत जैसे परंपरावादी समझे जाने वाले देश की किसी
अदालत से इस तरह का फैसला सामने आता है तो उससे दुनिया का चौंकना स्वाभाविक है| लेकिन सच कहा जाय तो भारत के लिए यह कोई नई बात नहीं है| यहॉं के लोग यदि चौंक रहे हैं तो केवल इस कारण कि वे भारत की पुरानी मान्यताओं और
विचारों को भूल चुके हैं और केवल पश्‍चिमी सामाजिक मान्यताओं से ही परिचित हैं तथा उन्हें ही आदर्श मानते हैं|
लोग इस फैसले की तरह-तरह से आलोचना निन्दा करने में लगे हैं| यहॉं तक कि कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि उन्होंने न्यायालय की अधिकार सीमा का उल्लंघन किया है| तकनीकी दृष्टि से हो सकता है कि उन्होंने वह कर दिया हो जो संसद को करना चाहिए| संभोग को विवाह की मान्यता देना है तो इसके लिए विवाह संबंधी कानून में संशोधन होना चाहिए या नया कानून बनना चाहिए| न्यायालय कानून की सीमा के बाहर की किसी बात को कानूनी मान्यता कैसे दे सकता है? लेकिन इस तरह की आलोचना के पूर्व यह भी देखना चाहिए कि किन परिस्थितियों में न्यायाधीश ने ऐसा फैसला देने का साहस किया है| न्याय का संबंध सीधे मानव संवेदना से जुड़ा होता है| व्यापक मानवीय हित में कानूनी व्यवस्थाओं को लचीला बनाना पड़ता है और जरूरत हो तो बदलना भी पड़ता है| न्यायमूर्ति करनन ने आधुनिक युग की आवश्यकताओं को देखते हुए समाज के व्यापक हित में अपना फैसला दिया है- और वह फैसला भी भारत की प्राचीन सामाजिक एवं न्यायिक परंपराओं के सर्वथा अनुकूल हैं| ऐसे में यदि उस फैसले में किसी तरह की तकनीकी खामियॉं हैं तो उसे दूर किया जाना चाहिए|
फैसले पर किसी तरह की टिप्पणी करने के पहले उस मामले (केस) को देख लेना चाहिए जिसमें यह फैसला दिया गया है फिर यह भी जान लेना चाहिए कि विवाह संस्था को लागू करने का मूल उद्देश्य क्या है और उसके बारे में भारत की अपनी धर्मशास्त्रीय परम्परा का क्या विचार है|
एक महिला वर्षों तक एक पुरुष के साथ ‘लिव-इन-रिलेशन' मेें रह रही थी| उसके साथ रहते हुए उसके दो बच्चे भी हो गए| इसके बाद एक दिन उस पुरुष ने साथ छोड़ दिया| दो बच्चों के साथ वह महिला बेसहारा हो गई| उसने अपने भरण पोषण के लिए पारिवारिक न्यायालय (फेमिली कोर्ट) में फरियाद की| २००६ में कोर्ट ने दोनों बच्चों के लिए ५०० रुपये महीने का भत्ता देने तथा १००० रुपये अदालती खर्च का भुगतान करने का फैसला सुनाया| पारिवारिक अदालत उस महिला को कोई सहायता देने का आदेश नहीं दे सकी, क्योंकि कानून के अनुसार वैध वैवाहिक संबंध का उसके पास कोई प्रमाण नहीं था| अपील के तहत यह मामला न्यायाधीश करनन के सामने आया| न्यायाधीश ने देखा कि ‘लिव-इन-रिलेशन' के पूर्व महिला अधेड़ अविवाहिता थी और पुरुष भी कुआँरा था| दोनों एक ही छत के नीचे वर्षों रहे और दो बच्चों को भी जन्म दिया| उन्होंने व्यवस्था दी कि लंबे समय तक दैहिक संबंधों के कारण उनका विवाह पूर्ण हो गया, इसलिए महिला उन सारे अधिकारों को पाने की हकदार है, जो किसी विवाहिता स्त्री को प्राप्त हैं|
अब इस पर कहा जा रहा है कि मामले के कठोर तथ्यों से इनकार नहीं किया जा सकता, किंतु कठोर तथ्यों के मद्देनजर एक गलत व्यवस्था दी गई| उनके फैसले पर पहली कानूनी आपत्ति यह है कि उन्होंने विवाह के कानून में एक नई धारा जोड़ दी है| वह ज्यादा से ज्यादा यह कर सकते थे कि विधायिका को इस तरह की कानूनी व्यवस्था करने की सलाह देते, जिसमें ‘लिव-इन-रिलेशन' को विवाह की मान्यता मिल सके| दूसरी और सबसे गंभीर आपत्ति यह है कि उन्होंने विवाह की उन परंपराओं को -जो किसी विवाह की वैधता के लिए अनिवार्य है- नगण्य, तुच्छ और उपेक्षणीय बना दिया| न्यायाधीश करनन कहते हैं कि मंगलसूत्र, वरमाला या अँगूठी पहनाना अथवा अग्निप्रदक्षिणा आदि विवाह की वैधता के लिए अनिवार्य नहीं है| ये केवल कुछ धार्मिक परंपराओं के अनुपालन मात्र हैं, जो समाज के संतोष के लिए निभाए जाते हैं| आलोचक की दृष्टि में ऐसा कहना न केवल अवांछित बल्कि खतरनाक है| वैवाहिक संबंधों को मान्यता इन सामाजिक तथा धार्मिक कर्मकांडों से ही मिलती है| कानून उसी को मान्यता देता है| कानून विवाह नहीं करा सकता, वह केवल उसे समाप्त करने का काम कर सकता है| अदालतें विवाह कराने की याचिका नहीं स्वीकार कर सकती, वे केवल उसे तोड़ने की याचिका ही स्वीकार कर सकती हैं| आज के प्रगतिशील लेागों को भले ही अस्वीकार्य हों, लेकिन पारंपरिक ढंग से शादियॉं अभी भी परिवारों और समाज के अपने विशेषाधिकार हैं, जिसके बीच परिवार चलते हैं|
करनन के आलोचकों के ये सभी तर्क अपनी जगह सही हैं, लेकिन भारत के प्राचीन धर्मशास्त्रों की बात मानें, तो विवाह संस्था की स्थापना समाज में स्त्री-पुरुषों के यौन जीवन को नियमित करने के लिए ही की गई और इससे भी अधिक उनकी चिंता स्त्री-पुरुष के दैहिक संबंधों से उत्पन्न संतानों की सामाजिक स्थिति निर्धारित करने और उसे सामाजिक स्वीकृति दिलाने की थी| इसलिए भारतीय धर्मशास्त्रियों ने तो बलात्कार और धोखे से किए गए संभोग को भी विवाह की मान्यता दे दी थी| यहॉं करनन ने तो बाकायदे आपसी सहमति से लंबे समय तक एक साथ रहनेॅ, संभोग करने तथा संतान उत्पन्न करने वाले युगल को विवाहित माने जाने का फैसला दिया है|
भारतीय धर्म शास्त्रों में विवाह के आठ प्रकार बताए गए हैं (देखिए बॉक्स) इनमें गांधर्व विवाह, आसुर विवाह, राक्षस विवाह और पैशाच विवाह भी शामिल है| इन चारों की निंदा की गई, फिर भी इन्हें विवाह की मान्यता दे दी गई है, क्योंकि समाज की सुव्यवस्था के लिए आवश्यक है कि सभी स्त्री-पुरुष चाहे वे पापी या अपराधी क्यों न हो, एक निश्‍चित नियम के अंतर्गत बँध कर रहें, जिससे उनके द्वारा उत्पन्न संतानों को भी समाज में उनका एक निश्‍चित वैध स्थान मिल सके| जबरिया परिवार में से छीन कर, अपहरण कर के लाई गई रोती-बिलखती स्त्री के साथ सहवास को भी शास्त्रकारों ने विवाह की संज्ञा दी, लेकिन उसे राक्षस विवाह का एक निंदित नाम दिया| इससे भी गर्हित कर्म है -चुपके से, बेहोश या नशे में उन्मत्त लड़की से संभोग| भारतीश धर्मशास्त्र में इसेे भी विवाह की मान्यता दी गई| इसे पिशाच विवाह कहा गया| ध्यान रहे इस तरह के निंदित कृत्य से विवाह का नाम भी जरूर निंदित हो गया, लेकिन इससे स्त्री के परिवार या समाज में अधिकारों पर कोई फर्क नहीं पड़ता| विवाह किसी भी तरीके से हुआ हो, किंतु विवाह की सामाजिक मान्यता में कोई भेद नहीं है|
आजकल समाज में बिना विवाह के साथ रहने, संभोग करने तथा बच्चे भी पैदा करने (लिव-इन-रिलेशन) का प्रचलन बढ़ रहा है| इन संबंधों में भी स्त्री ठगी जा रही है| यदि वह स्वयं आर्थिक दृष्टि से सक्षम नहीं है, तो उसके सर्वाधिक संकट में पड़ने का खतरा रहता है| और यदि उसने संतान को भी जन्म दे दिया है, तो उसका भार भी उसके सिर ही आ जाता है| पुरुष सारे दायित्वों से बड़ी आसानी से बाहर निकल जाता है| इसलिए यह जरूरी है कि ऐसे संबंधों को भी कानूनी दायरे में लाया जाए| ‘लिव-इन-रिलेशन' वास्तव में बिना किसी जिम्मेदारी के विवाह का सारा सुख उठाने का एक आसान तरीका बन गया है| ज्यादातर स्त्रियॉं मजबूरी में इस जाल का शिकार होती हैं| लंबे समय तक अविवाहित रहने वाली स्त्रियों को भी सामाजिक सुरक्षा के लिए एक पुरुष की आवश्यकता पड़ती है, इसलिए वे किसी पुरुष के साथ बिना किसी वैध सामाजिक रिश्ते के भी रहना शुरू कर देती है|
भारत जैसे पारंपरिक सुदृढ़ परिवार व्यवस्था वाले देश में भी पश्‍चिम की सामाजिक जीवनशैली अब तेजी से फैल रही है, तो उसको नियंत्रित करने के व्यावहारिक उपाय भी होने चाहिए| पश्‍चिम के समाजशास्त्री तथा विधि चिंतक अभी सोए हुए हैं, तो इसका यह मतलब नहीं कि हम भी सोए रहें| हमारे देश के एक न्यायाधीश ने यदि कोई व्यावहारिक कदम उठाया है, तो उसकी निंदा करने के बजाए उसका स्वागत करना चाहिए और यदि उसमें कुछ तकनीकी खामियॉं हैं, तो देश के विधि निर्माताओं तथा सरकार को उसे ठीक करने की पहल करनी चाहिए|
जाने-माने स्तंभकार एस. गुरुमूर्ति ने ‘इंडियन एक्सप्रेस' में प्रकाशित अपने एक आलेख में विवाह संबंधी कई उल्लेखनीय आँकड़ों को प्रस्तुत किया है| यूनीसेफ की ‘ह्यूमन राइट कौंसिलफ (मानवाधिकार परिषद) की एक नवीनतम अध्ययन रिपोर्ट (१६ अगस्त २०१२)के अनुसार भारत में परिवार द्वारा तय यानी नियोजित विवाह (अरेंज्ड मैरिज) का प्रतिशत ९० है, जबकि दुनिया के स्तर पर इसका औसत आँकड़ा ५५ है| विश्‍व स्तर पर परिवार द्वारा तय विवाहों में तलाक की दर ६ प्रतिशत है, जबकि भारत में केवल एक प्रतिशत| पश्‍चिमी आधुनिकता के प्रतीक देश अमेरिका में ‘अरेंज्ड मैरिज' को सर्वथा निंदनीय मान लिया गया है| बमुश्किल १० में से १ विवाह परिवार द्वारा तय होता है| इसका परिणाम यह हुआ है कि पहली बार की शादी ५० प्रतिशत से अधिक, दूसरी बार की शादी में ६६ प्रतिशत से अधिक और तीसरी बार की शादी में ७५ प्रतिशत से अधिक शादियों की परिणति तलाक (डायवोर्स) में होती है| अमेरिका के आधे परिवार पिता से रहित हैं या माताएँ अविवाहित हैं| गुरुमूर्ति ने इन आँकड़ों को यह सिद्ध करने के लिए उद्धृत किया है कि पारिवारिक तथा धार्मिक कर्मकांड के साथ परिवार और समाज की स्वीकृति से होने वाले विवाह अधिक स्थाई होते हैं| उनकी यह स्थापना सही है, लेकिन उनका यह कहना गलत है कि न्यायाधीश करनन के फैसले से विवाह संस्था को चोट पहुँच रही है अथवा मात्र संभोग को वैवाहिक मान्यता का आधार बनाने से विवाह संस्था का मूल्य ही समाप्त हो जाएगा और उसकी पवित्रता नष्ट हो जाएगी| जिस तरह प्राचीन विधि-विशेषज्ञों (धर्माचार्यों) ने अपहरण, बलात्कार तथा छल से किए गए संभोग को भी विवाह का एक प्रकार मान लिया, वैसा ही उपाय बरतने का उदाहरण उन्होंने अपनी न्यायपीठ से प्रस्तुत किया है| इससे परिवार या समाज स्वीकृत पारंपरिक विवाह व्यवस्था का अवमूल्यन नहीं हो रहा है, बल्कि विवाह संस्था के बाहर रहकर किए जा रहे मुक्त यौनाचार को भी विवाह के दायरे में लाने का प्रयास किया जा रहा है|
विवाह का प्रलोभन देकर लड़कियों को फुसला कर उनका दैहिक शोषण करके फिर परित्याग करने वाले पुरुषों के लिए यह अच्छा दंड विधान हो सकता है कि उनके इस संबंध को विवाह की मान्यता दी जाए और शोषण की शिकार स्त्री को वे सारे अधिकार दिलाए जाएँ, जो एक विवाहिता स्त्री को प्राप्त हो सकते हैं|

विवाह के आठ प्रकार
भारत में अति प्राचीन काल यानी वैदिक गृह्य सूत्रों, धर्मसूत्रों तथा स्मृतियों के काल से आठ प्रकार के विवाहों को वैधानिक एवं सामाजिक मान्यता प्राप्त है|
ब्राह्म- इसे विवाह का श्रेष्ठतम प्रकार माना जाता है| जिस विवाह में पिता मूल्यवान वस्त्र-अलंकारों से सुसज्जित तथा रत्नों से मंडित कन्या को चुने हुए विद्वान (वेदज्ञ) एवं चरित्रवान व्यक्ति को आमंत्रित कर उसे समर्पित करता है, उसे ब्राहम विवाह कहते हैं|
दैव- यज्ञ करते समय यदि कोई पिता अपनी वस्त्रालंकार से सुसज्जित कन्या किसी पुरोहित को प्रदान करता है, तो इसे दैव विवाह कहा जाता है|
आर्ष- यदि मात्र प्रतीक रूप में (कन्या मूल्य के रूप में नहीं) एक जोड़ा या दो जोड़ा पशु (एक गाय एक बैल या दो गाय दो बैल) लेकर किसी योग्य वर को अपनी कन्या दी जाए, तो इसे आर्ष विवाह कहते हैं|
प्राजापत्य- यदि कोई पिता किसी योग्य वर का चयन करके उसे मधु पर्क आदि से सम्मानित कर अपनी कन्या अर्पित करता है और कहता है कि ‘तुम दोनों साथ-साथ धार्मिक कृत्य करना' तो इसे प्राजापत्य विवाह कहते हैं|
आसुर- यदि वर अपनी इच्छित कन्या की प्राप्ति के लिए कन्या को तथा उसके पिता को धन देकर संतुष्ट करता है और तब पिता अपनी कन्या उस वर को सौंपता है, तो इसे आसुर विवाह कहते हैं|
गांधर्व- किसी युवक-युवती में परस्पर दैहिक आकर्षण से जो प्रेम उत्पन्न होता है और वे परस्पर सहमति से संभोग के प्रति प्रवृत्त होते हैं, तो इसे गांधर्व विवाह कहते हैं| गंधर्वों को अत्यंत कामुक प्रवृत्ति वाला समझा जाता, इसलिए इसे उनका नाम दिया गया| आज का प्रेम विवाह, गांधर्व विवाह ही है|
राक्षस- परिवार वालों को मारकर या घायल करके यदि कोई रोती-बिलखती कन्या को उसके परिवार से छीन लाए या अपहरण कर ले तो इसे राक्षस विवाह कहा गया|
पैशाच- यदि कोई पुरुष सोई हुई, बेहोश या नशे में उन्मत्त किसी कन्या से चुपके से या छल से संभोग कर ले तो इसे पैशाच विवाह की संज्ञा दी गई|
वस्तुतः किसी स्त्री-पुरुष के परस्पर मिलन के यही आठ तरीके हैं, नौवॉं कोई तरीका ही नहीं है, इसलिए इन आठों को प्राचीन समाज शास्त्रियों ने विवाह की वैधानिक मान्यता प्रदान कर दी| ये सभी आठों विवाह के सम्मानित तरीके नहीं है, फिर भी स्त्री के व्यापक हित में इनको वैधानिकता प्रदान की गई| इनमें से प्रथम चार को श्रेष्ठ तथा अंतिम चार को गर्हित (निंदनीय) माना गया है| इस व्यवस्था से अपराध और शोषण की शिकार स्त्री को भी पत्नी का सम्मान और भरण-पोषण तथा सुरक्षा का अधिकार मिल जाता है| इसी तरह स्त्री के व्यापक हित में आज के ‘लिव-इन-रिलेशन' को विवाह की मान्यता दे देना परंपराओं के अनुकूल तथा हर तरह से विधि सम्मत है|

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