मंगलवार, 20 जुलाई 2010

bharat-pak

भारत-पाक के बीच शांति का दिवास्वप्न




वर्तमान नीतियों और परिस्थितियों के बीच भारत-पाकिस्तान की समस्या का कोई समाधान नहीं है। दोनों के बीच कोई शांति वार्ता कभी सफल नहीं होने वाली नहीं, क्योंकि पाकिस्तान शांति चाहता ही नहीं। उसके लिए तो वार्ता कक्ष भी एक तरह की युद्ध भूमि ही है। वह शांति नहीं, बल्कि भारत की पराजय व अपनी जीत चाहता है। वह हर उस मौके की तलाश में रहता है, जब वह भारत को नीचा दिखा सके। वह एक तरह की हीनग्रंथि का शिकार है, जिससे वह कभी निजात नहीं पा सकता। वास्तव में वह जो युद्धों में नहीं हासिल कर सका, उसे आतंकवादी घुसपैठ व वार्ताओं की कूटनीति से हासिल करना चाहता है। अभी इस्लामाबाद में दोनों देशों के विदेश मंत्रियों के बीच हुई वार्ता के बाद जो कटुता सामने आयी, वह इस बात का प्रमाण है कि इस तरह की वार्ताओं से कोई समस्या हल नहीं हो सकती।





पाकिस्तान के विदेश मंत्री मखदूम शाह महमूद कुरैशी के 16 जुलाई के वक्तव्य से भारत सरकार के तमाम नेता और अफसर तिलमिला रहे होंगे, लेकिन वे अभी भी इससे कोई सबक लेने के लिए तैयार नहीं हैं। भारत के विदेशमंत्री एस.एम. कृष्णा साहब उन्हें पहले ही भारत आने का न्यौता दे आए हैं और इस वर्षांत तक वह नई दिल्ली आकर भी वही कुछ दोहराएंगे, जो उन्होंने 16 जुलाई को इस्लामाबाद में आयोजित अपनी प्रेस क्रांफ्रेंस में कहा है। हमारे नेता और अफसर अभी यही कह रहे हैं कि कृष्णा की इस्लामाबाद यात्रा के दौरान हुई बातचीत काफी सार्थक रही है और हम आगे यह सिलसिला जारी रखेंगे।

बहुत से लोगों ने इस 16 जुलाई के साथ 9 वर्ष पूर्व 2001 की इस 16 जुलाई का स्मरण किया है, जब पाकिस्तान के राष्ट्र्पति परवेज मुशर्रफ साहब भारत आये थे। आगरा में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ कई दौर की बातचीत के बाद, उनके हठवश जब बातचीत का कोई परिणाम नहीं निकाला, तो उन्होंने प्रेस को बुलाकर अपनी भड़ास निकाली और भारतीय नेताओं को बुरा भला कहते हुए अपनी औपचारिक यात्रा की अवधि पूरी होने के पहले ही बिना भारतीय नेताओं की परवाह किये अपने विशेष विमान से इस्लामाबाद रवाना हो गये। हमारे देश के नेताओं ने इसके बावजूद मुशर्रफ साहब के साथ वार्ताओं का क्रम बनाए रखा और उनसे सीमा समस्या, आतंकवाद व कश्मीर समस्या के समाधन की आशा बनाए रखी।

पता नहीं हमारे देश के नेताओं को यह सीधी सी बात कब समझ में आयेगी कि भारत-पाकिस्तान का विवाद कोई मात्र दो पड़ोसी देशें का विवाद नहीं है। उसके मसले दो पड़ोसियों के सिद्धांत से हल नहीं हो सकते। इसी तरह कश्मीर समस्या भी किसी क्षेत्रीय असंतोष की समस्या नहीं है। यह हिन्दू विरोधी मुस्लिम साम्राज्यविस्तार की समस्या है।

आज तमाम पत्रकार, नेता व बुद्धिजीवी यह सवाल उठा रहे हैं कि आखिर क्यों पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने गुरुवार को भारत के गृहसचिव जी.के. पिल्लै की तुलना लश्कर-ए-तैयबा के अध्यक्ष हाफिज सईद से की, फिर अगले दिन शुक्रवार को उन्होंने भारत के विदेशमंत्री का मजाक उड़ाया। क्या इस तरह किन्ही दो पड़ोसी देशों के बीच कोई बातचीत चल सकती है। वास्तव में पाकिस्तान स्वय यह बातचीत आगे नहीं बढ़ाना चाहता, लेकिन बातचीत रोकने या वापस लेने का ठीकरा वह भारत के सिर फोड़ना चाहता है। लोगों को आश्चर्य हो रहा है कि पाकिस्तान वार्ता शुरू करने की लगातार मांग करता रहा है, वही उसके शुरू होने पर उसे भंग करने पर आमादा है।

वास्तव में पाकिस्तान के लिए वार्ता की मेज भी किसी युद्ध भूमि से कम नहीं होती। हमेशा उसकी एकमात्र मंशा भारत को नीचा दिखाने या से पराजित करने की रहती है। वह जो काम सीमा पर सैनिक कार्रवाई द्वारा अथवा सीमा पार जिहादी घुसपैठियों द्वारा नहीं करा पा रहा है, उसे वह वार्ता की मेज पर संपन्न करा लेना चाहता है। वास्तव में दोनों के बीच वार्ताओं के मुद्दे पर ही कोई सहमति नहीं है। भारत के लिए बातचीत का मुख्य मुद्दा है आतंकवाद, तो पाकिस्तान के लिए मुख्य मुद्दा है कश्मीर। फिर भी दोनों ही समग्र बातचीत का नाटक कर रहे हैं। यह ‘समग्र वार्ता’ एक कूटनीतिक शब्दावली है, जिसका भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए अलग-अलग अर्थ है। अंतर्राष्ट्र्ीय दबाव के कारण दोनों देश आपसी मसले निपटाने के लिए युद्ध नहीं कर सकते, इसलिए उसी दबाववश् बातचीत करना चाहते हैं। पाकिस्तान तो युद्ध का विकल्प छोड़ चुका है, क्योंकि वह तीन-तीन बार मंुह की खाने के बाद समझ गया है कि युद्ध करके भारत से पार नहीं पाया जा सकता। दूसरा विकल्प उसने आतंकवाद का चुना, जिस पर वह अभी भी कायम है, लेकिन अमेरिका दबाव वश उसे इस आतंकवाद पर कुछ न कुछ दिखावे के लिए ही सही अंकुश लगाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। भारत आतंकवाद से पीड़ित देश है, लेकिन इसका जवाब वह अपनी सैनिक शक्ति से नहीं दे सकता, क्योंकि उसे उूपर भी अमेरिका व चीन जैसे देशों का दबाव है कि वह पाकिस्तान के खिलाफ किसी तरह की सैनिक कार्रवाई का दुस्साहस न करे। अब इसके बाद भारत क्या करे। बातचीत के अलावा उसके पास कोई विकल्प नहीं बाच है और बातचीत की मेज पर जब वह आतंकवाद का मसला उठाना चाहता है, तो पाकिस्तान की कोशिश वह मेज ही पलट देने की होती है। क्योंकि पाकिस्तान आतंकवाद के मसले पर कोई बातचीत करना ही नहीं चाहता। आतंकवाद भारत के प्रति उसकी राष्ट्र्ीय नीति का मुख्य अंग है, फिर वह उस पर भारत से कोई समझौता कैसे कर सकता है। इसलिए उसका तर्क रहता है कि पहले आप कश्मीर पर बातचीत कीजिए। हम आतंकवाद के मसले पर भी बातचीत करने के लिए तैयार है, पर पहले कश्मीर का मसला तय हो जाए, फिर आतंकवाद का भी मसला देख लेंगे। इधर भारत है, जो कश्मीर पर कोई बातचीत नहीं करना चाहता, इसलिए वह कहता है कि ठहरिए हम कश्मीर पर भी बातचीत करने के लिए तैयार हैं, लेकिन पहले आतंकवाद से राहत मिले तो। वह चाहता है कि पाकिस्तान पहले आतंकवाद रोकने का वचन दे और उसे पूरा करने के लिए ठोस कार्रवाई करे, फिर कश्मीर पर भी बात की जा सकती है। जाहिर है जब दोनों देशों की प्राथमिकताएं बिल्कुल भिन्न है, तो उनके बीच कोई बातचीत भला कैसे हो सकती है।

15 जुलाई को इस्लामाबाद में निर्धारित इस बातचीत में भी यही हुआ। कई दौर की मैराथन बातचीत हुई। खुलेआम सबके सामने, फिर अलग कमरे में और फिर अकेले-अकेले रहकर भी बातें हुई। इतनी बातें कि दोनों की निर्धारित संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस 6 घंटे देर से शुरू हो सकी, फिर भी दोनों का आपसी गतिरोध टूट नहीं सका। टूटता भी कैसे न एस.एम. कृष्णा, जनाब एस.एम. कुरैशी की बात मान सकते थे और न कुरैशी साहब एस.एम. कृष्णा की। संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में दोनों ने यथा संभव सहज दिखने की कोशिा की, लेकिन थोड़ी ही देर में दोंनों का नकाब उखड़ गया। दोनों एक दूसरे पर आरोप लगाते और सफाई देते नजर आए। इस दौर में एस.एम. कुरैशी ने भारत के गृहसचिव जी.के. पिल्लै की लश्कर-ए-तैयबा के अध्यक्ष हाफिज सईद से तुलना कर डाली। जाने क्यों एस.एम. कृष्णा ने उसकी इस बेहद आपत्तिजनक टिप्पणी को नजरअंदाज कर गये। उन्हें इसका तत्काल जवाब देना चाहिए था, लेकिन वह चूक गये। बाद में दिल्ली पहुचकर उन्होंने इस पर बहुत सारी सफाई दी, लेकिन मौके पर जवाब न दे पाने का क्षोभ पूरे देश को साल रहा है। पे्रस के साथ बातचीत में भारत की विदेश सचिव निरूपमा राव ने इसकी सफाई देते हुए कहा कि पत्रकारों के सवालों के बौछारों के बीच हो सकता है कि विदेशमंत्री उसे नजरंदाज कर गये हों, अथवा हो सकता है कि शालीनतावश उन्होंने उस अवसर को और अधिक कटु होने से बचाने के लिए उस पर कोई जवाब न दिया हो, लेकिन उन्होंने इस तुलना पर अपनी सहमति व्यक्त की हो, यह तो संभव ही नहीं है। निश्चय ही इसमें दो राय नहीं कि कृष्णा, कुरैशी की उस तुलना से सहमत नहीं हो सकते, किंतु मौके पर जवाब न दे सकने की चूक उनके लिए ही नहीं, पूरे देश के लिए भारी पड़ी। और इसके बाद अगले दिन, अभी शायद भारत के विदेशमंत्री की वापसी उड़ान पाकिस्तान से रवाना भी नहीं हुई थी कि कुरैशी साहब ने अखबार वालों को बुलाकर जो बयान दिया, वह बेहद आपत्तिजनक था, जिस पर भारत के पूर्व विदेशमंत्री यशवंत सिन्हा की टिप्पणी थी कि कुरैशी किसी भी तरह किसी देश के विदेशमंत्री होने लायक नहीं है।

उन्होंने सबसे पहले तो एस.एम. कृष्णा की अधिकारिक क्षमता पर ही प्रश्नचिह्न खड़ा किया। उनका संकेत था कि उन्हें बातचीत के पूरे अधिकार देकर इस्लामाबाद नहीं भेजा गया। कुरैशी ने कहा कि उन्होंने पूरे दिन की बातचीत में एक बार भी टेलीफोन नहीं उठाया, जबकि भारतीय अधिकारी बार-बार वार्ता कक्ष से बाहर जाते रहे और फोन करते रहे। कृष्णा को भी बार-बार फोन पर दिल्ली से निर्देश मिल रहे थे। मैंने पूरे अधिकार के साथ पाकिस्तान की टीम का नेतृत्व किया, जबकि कृष्णा साहब शायद बातचीत की पूरी तैयारी के साथ नहीं आए थे। उनका यह भी कहना था कि पाकिस्तान हर तरह की बातचीत के लिए तैयार है, लेकिन वह वार्ता सार्थक होनी चाहिए। लेकिन साथ में यह आग्रह भी था कि पाकिस्तानी जनता तथा कश्मीरियों को जम्मू-कश्मीर की स्थिति से कतई अलग नहीं किया जा सकता। उन्होंने इसके पहले संयुक्त पे्रस कांफ्रेंस में भी इस बात को कहा था कि भारत यदि कश्मीर में अपनी सेना भेजता है, तो उसका प्रभाव पाकिस्तान पर पड़ता है।

कुरैशी के इस वक्तव्य से भारत के नेता व अधिकारी भौचक थे। दिल्ली पहुंचते ही कृष्णा ने इसकी सफाई दी कि 15 जुलाई को उन्होंने बातचीत के दौरान फोन पर किसी से कोई बात नहीं की। मुझे दिल्ली से कोई निर्देश लेने की आवश्यकता नहीं थी। मेरे सामने सब कुछ स्पष्ट था। कहीं कोई भ्रम की स्थिति नहीं थी। इस बारे में पाक विदेशमंत्री जो कुछ कह रहे हैं, वह झूठ बोल रहे हैं। वार्ता के दौरान उग्रता व चिड़चिड़ेपन (एक्रिमनी)का भी उनका आरोप गलत है। यदि किसी तरह की रुक्षता व चिड़चिड़ेपन का प्रदर्शन हुआ, तो वह पाकिस्तानी प्रतिनिधियों की तरफ से ही हुआ। कृष्ण ने जी.के. पिल्लै की तुलना हाफिज सईद से किये जाने पर भी अपनी टिप्पणी करते हुए कहा कि ऐसी तुलना पर सहमति व्यक्त करने का सवाल ही पैदा नहीं हो सकता। पिल्लै ने तो केवल एक तथ्य का हवाला दिया है, जिसके दस्तावेजी सुबूत हैं। पिल्लै ने यही तो कहा कि पाकिस्तानी मूल का जिहादी अमेरिकी नागरिक डेविड कोलमैन हेडली ने इसकी पुष्टि की कि 26@11 का मुंबई हमला पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसी आई.एस.आई. द्वारा कराया गया। आई.एस.आई. ने ही हमले की योजना बनाने वाले लश्कर-ए-तैयबा के अधिकारियों को 25 लाख रुपये नाव खरीदने के लिए दिया था, जिस पर सवार होकर हमलावर आतंकवादी मुंबई पहुंचे थे। यह बयान हेडली ने भारत की राष्ट्र्ीय जांच एजेंसी के अधिकारियों के समक्ष तब दिया, जब वहां अमेरिकी संघीय जांच एजेंसी एफ.बी.आई. के अधिकारी तथा हेडली के अपने वकील भी उपस्थित थे। इस बयान पर पिल्लै की तुलना उस जिहादी सरगना हाफिज सईद से कैसे की जा सकती है, जो आए दिन भारत के खिलाफ खूनी जंग छेड़ने तथा उसके पांच टुकड़े करने की बातें करता रहता है। कुरैशी ने पिल्लै की तुलना सईद से करते हुए कहा था कि ऐसे वक्तव्य देते हुए कैसे आश की जा सकती है कि भारत-पाक संबंध सुधरेंगे तथा वे आगे बढ़ेंगे। कुरैशी का यह भी कहना था कि बातचीत के प्रति भारत का रुख गंभीर नहीं है। थिम्पू (भूटान)में ‘सार्क’ (दक्षिण एशियायी क्षेत्रीय सहयोग संगठन)शिखर सम्मेलन के दौरान भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों के बीच जो सहमति हुई थी, यह उसके विरुद्ध है। पाकिस्तान निश्चय ही हर मसले पर बातचीत के लिए तैयार है, किंतु वह किसी जल्दबाजी में नहीं है। भारत यदि अपनी चिंताओं पर पाकिस्तान से मदद चाहता है, तो उसे पाकिस्तान की चिंताओं पर भी गौर करना चाहिए। इसके लिए भारत को खुले दिन से बात करनी होगी। यह कैसे हो सकता है कि हम भारत की चिंताओं के प्रति ध्यान केंद्रित करें, लेकिन भारत हमारी चिंताओं की तरफ कोई ध्यान न दे।

यह तो रही इस वार्ता की कहानी। अब कल्पना करें कि यदि वार्ता का दौर आगे बढ़ता है और नवंबर में जनाब कुरैशी भरत तशरीफ लाते हैं, तो वार्ता कहां से आगे बढ़ेगी और उसका क्या परिणाम होगा। साफ जाहिर है कि इस वार्ता श्रंृखला का कभी कोई परिणाम नहीं निकलने वाला है। पाकिस्तान और भारत दोनों ही चाहते हैं कि समस्याओं के समाधान के लिए समयबद्ध कार्यक्रम निर्धारित हों। लेकिन फिर वही समस्या। पाकिस्तान का कहना है कि आतंकवाद पर नियंत्रण के बारे में वह कोई समय सीमा निर्धारित नहीं कर सकता, क्योंकि वह स्वयं आतंकवादी हिंसा से पीड़ित है। दूसरी तरफ भारत कश्मीर के मामले में कोई समय सीमा तय करने के लिए तैयार नहीं है। तो इसका अर्थ है कि वार्ता यदि चलती है तो केवल एक अर्थहीन मुलाकातों की श्रंृखला होगी। पाकिस्तान का बार-बार कहना है कि वह केवल फोटो खिंचवाने के लिए वार्ताओं का आयोजन नहीं चाहता, लेकिन वर्तमान गतिरोध की स्थिति में कोई वार्ता फोटो खिंचवाने और फिर आगे मिलते रहने के वायदे के अलावा और कोई निर्णय ले भी नहीं सकती।

आप सवाल कर सकते हैं कि फिर क्या हो सकता है। जवाब है कि कुछ नहीं हो सकता। जब तक पाकिस्तान का अस्तित्व है, तब तक भारत-पाकिस्तान का संघर्ष भी चलता रहेगा और तब तक कश्मीर की समस्या भी बनी रहेगी। और जैसा कि वीर संघवी ने इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अपने कॉलम में लिखा है कि हो सकता है कि पाकिस्तान के न रहने पर भी यह समस्या बनी रहे। यह जरूरी नहीं कि पाकिस्तान के बिखर जाने से यह समस्या हल हो जाएगी। हां पाकिस्तान के बिखर जाने से उसका संगठित खतरा अवश्य कम हो जाएगा। इस देश के बहुत सारे लोग इस निष्कर्ष से सहमत नहीं होंगे, लेकिन यदि वे सहमति नहीं होते हैं, तो इसका केवल एक ही कारण है कि वे समस्या को ठीक से समझ नहीं रहे हैं। अपने देश का एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ पाकिस्तानी मीडिया के साथ मिलकर ‘अमन’ का एक अभियान चला रहा है। अपने देश के बहुत से प्रतिष्ठित पत्रकार तथा बुद्धिजीवी समझते हैं कि भारत-पाक समस्या अंग्रेज साम्राज्यवादियों की देन है और आज के राजनीतिक नेता अपने निहित स्वार्थवश उस द्वेष द्वंद्व को बनाए हुए हैं, इसलिए यदि देनों देशों के नागरिकों के बीच मेलजोल बढ़े, तो यह समस्या अपने आप हल हो जाएगी। दोनों देश आखिर पहले एक ही तो थे। वे परस्पर भाई-भाई हैं। राजनीतिक बाधाएं दूर हो जाएं, तो वे फिर भाई-भाई की तरह रह सकते हैं। ऐसे लोगों से पूछा जाना चाहिए कि भारत तो एक था ही, अगर भाई-भाई साथ रहना चाहते, तो अंग्रज भला उन्हें कैसे अलग कर सकते थे। पाकिस्तान का निर्माण अंग्रेजों के माध्यम से जरूर हुआ, लेकिन उसके निर्माता अंगे्रज नहीं थे। हिन्दुओं से मुसलमानों के मजहबी विरोध के कारण पाकिस्तान का जन्म हुआ है और वह भी मुसलमानों ने हिंसा के जोर पर हासिल किया था। इतिहास साक्षी है और इसके अगणित दस्तावेजी सबूत हैं कि मुस्लिमों की हिंसा से भयभीत कांग्रेस के नेताओं ने देश को गृहयुद्ध से बचाने के लिए पाकिस्तान का निर्माण स्वीकार किया। ‘हंस के लिया है पाकिस्तान- लड़ के लेंगे हिन्दुस्तान’ यह नारा किसी अंग्रेज ने नहीं सिखाया था। इसका मतलब यह हुआ कि जब तक मुलसमानों की मजहबी अलगाववादी सोच में बदलाव नहीं आता, इस समस्या का कोई समाधान नहीं हो सकता। लेकिन इस्लाम की तमाम शक्तियां इस बदलाव को रोकने में लगी हैं। पाकिस्तान उन कट्टरपंथी शक्तियों का संगठित मूर्तमान स्वरूप है। उसकी सर्वग्रासी राजनीतिक आकांक्षा कश्मीर की भूमि प्राप्त करके भी शांत होने वाली नहीं है। भारत-पाकिस्तान की सीमा समस्या या कश्मीर की समस्या यदि मात्र जमीन की समस्या होती, तो उसका समाधान आसान था। कश्मीर का एक बहुत आसान समाधान था कि वर्तमान नियंत्रण रेखा को ही अंतर्राष्ट्र्ीय रेखा मान लिया जाए। इंदिरा गांधी ने शिमला में जब जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ द्विपक्षीय समझौता किया था, तो दोनों नेताओं के बीच इसी बिंदु पर सहमति बनी थी। किंतु भुट्टो के आग्रह पर इसे समझौते की शब्दावली में शामिल नहीं किया गया। भुट्टो ने इंदिरा गांधी को धोख दिया। वह पाकिस्तान पहुंचकर अपने वायदे से मुकर गये।

अब वर्तमान स्थिति में न तो पाक अधिकृत कश्मीर भारत को मिलना है- भले ही अपने नक्शे में वह उसे भारत का अंग दिखाता रहे- और न भारत के कब्जे वाला कश्मीर पाकिस्तान को, क्योंकि भारत उसे अभिन्न अंग मानता है और देश की किसी सरकार या यहां के किसी राजनेता में यह साहस नहीं कि वह भारतीय कश्मीरी भू भाग को पाकिस्तान के हवाले कर दे। दोनों कश्मीरों को मिलाकर अलग कश्मीर राज्य बनने की भी कोई संभावना नहीं है। जो लोग कश्मीर की स्वायत्तता की बात करते हैं, वे केवल एक धोखे की शब्दावली का इस्तेमाल करते हैं, जिसके सहारे अंतर्राष्ट्र्ीय जनमत तैयार करके कश्मीर को भारत से अलग किया जा सके, फिर उससे अलग होने के बाद तो वह पाकिस्तान का हिस्सा बन ही जाएगा।

तो फिर रास्ता क्या है ? रास्ता केवल एक है। यदि भारत सरकार के किसी शीर्षनेता में साहस हो तो वह आगे बढ़े और वर्तमान नियंत्रण् रेखा को अंतर्राष्ट्र्ीय सीमा घोषित करने की पहल करे। इसके लिए अंतर्राष्ट्र्ीय जनमत तैयार करना भी बहुत मुश्किल नहीं होगा। इसके बाद भारतीय नियंत्रण वाले कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त करके उसे किसी भी अन्य सामान्य भारतीय राज्य का दर्जा प्रदान करे। कश्मीर से जिन गैर मुस्लिमों को बाहर भागने पर मजबूर कर दिया गया, उन्हें पुनः बसाने का यत्न करें। और जिहादी कट्टरपंथी विचारधारा के विरुद्ध वैचारिक संघर्ष का अभियान शुरू करें। मजहबी तुष्टीकरण का (चाहे वह कोई मजहब हो)पूरी तरह निषेध करके शुद्ध लोकतांत्रिक मूल्यों का अनुपालन करे। और इसके विरुद्ध कोई आवाज उठती है, तो उसे कठोरता से कुचलने का उपक्रम करे। और यदि यह सब नहीं हो सकता, तो हमें अनंतकालीन संघर्ष व आतंकवादी हिंसा झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए। वर्तमान स्थिति में वर्तमान नीतियों के तहत न भारत-पाक समस्या का कोई समाधान है, न कश्मीर समस्या का।(18-7-2010)

गुरुवार, 15 जुलाई 2010


स्वामी विद्यारण्य और महाराजा कृष्णदेवराय


आंध्र प्रदेश सरकार एक वर्ष देर से ही सही, लेकिन इस वर्ष वियजनगर साम्राज्य के सबसे यशस्वी शासक कृष्णदेव राय के शासन की पांचवी शताब्दी का उत्सव सप्ताह मना रही है, जिसका उद्घाटन राष्ट्र्पति प्रतिभा पाटिल ने किया है। विजयनगर साम्राज्य का स्मरण केवल दक्षिण के एक वैभव संपन्न साम्राज्य का ही स्मरण नहीं है, बल्कि यह दक्षिण की एक सांस्कृतिक व राजनीतिक चेतना का भी स्मरण है, जिसे एक संत स्वामी विद्यारण्य ने जागृत किया था। विजयनगर साम्राज्य की स्थापना का लक्ष्य देश के सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा करना था, जिस पर उन दिनों लगातार हमले शुरू हो गये थे। और जिन लोगों ने इसे नष्ट किया, उनका भी लक्ष्य साम्राज्य विस्तार नहीं, बल्कि भारतीयता के इस सांस्कृतिक गढ़ को नष्ट करना था। क्या आज हम इस उस चेतना के पुनरुद्धार का संकल्प ले सकते हैं, जिसे स्वामी विद्यारण्य ने जगाया था।



भारतीय इतिहास के मध्यकाल में दक्षिण भारत के विजयनगर साम्राज्य को लगभग वैसी ही प्रतिष्ठा प्राप्त थी, जैसी कि प्राचीनकाल में मगध, उज्जैनी या थाणेश्वर के साम्राज्य को प्राप्त थी। इस साम्राज्य के सबसे यशस्वी सम्राट कृष्णदेवराय की ख्याति उत्तर के चंदत्रगुप्त मौर्य, पुष्यमित्र, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य, स्कंदगुप्त, हर्षवर्धन व महाराजा भोज से कम नहीं है। निश्चय ही कृष्णदेवराय ने इस साम्राज्य को वैभव व कीर्ति के शिख्र तक पहुंचाया, लेकिन इसकी स्थापना का श्रेय एक संत को जाता है, जिनका नाम है- स्वामी विद्यारण्य, जिन्हें सामान्यतया भुलाया जा चुका है।

बाह्य आक्रमणों से जब भी भारतीय संस्कृति व धर्म (जिसे आज हिन्दू संस्कृति या धर्म कहा जाता है) पर खतरा पैदा हुआ और यहां की राजनीतिक शक्ति उन खतरों का मुकाबला करने में कमजोर दिखयी दी, तो ऐसे विद्वान संत राजनीति को संगठित करने के लिए आगे आए, जिनका राजसत्ता की शक्ति या सुखोपभोग में कोई आकर्षण नहीं था। उत्तर भारत में जब बौद्ध मत के प्रभाव से मगध का मौर्य शासन नितांत कायर और वीर्यहीन हो गया था, तब महाभाष्यकार महर्षि पतंजलि सामने आए थे और उन्होंने मगध के सेनापति पुष्यमित्र शुंग को माध्यम बनाकर हमलावरों से देश और उसकी संस्कृति की रक्षा की थी। यवन आक्रांता मिनेंडर मथुरा और साकेत को रौंदता हुआ पाटलिपुत्र के सिर पर आ पहुंचा था। साकेत के निकट ही सरयू नदी के उत्तरी तट के निवासी आचार्य पतंजली ने अपने शिष्य पुष्यमित्र शुंग को ललकारा, जो मगध साम्राज्य का सेनापति था। उसने यवन आक्रांता का मुकाबला करने के प्रति उदासीन अपने राजा का सिर सेना की परेड के समय काट दिया और और सत्ता अपने हाथ में लेकर यवन आक्रांता का मुकाबला किया और उसे भारत की पश्चिमी सीमा पर स्थित सियालकोट के परे भगाकर दम लिया।

विद्यारण्य की तुलना में यदि मध्यकाल में दूसरा कोई नाम लिया जा सकता है, तो वह समर्थ गुरु रामदास का है, जिन्होंने शिवाजी महाराज को माध्यम बनाकर इस्लामी साम्राज्य का मुकाबला किया। यह उनका ही प्रताप था कि पानीपत की तीसरी लड़ाई (1761) तक मराठों ने अंग्रेजों को इस देश पर अपना वर्चस्व कायम करने से रोके रखा।

स्वामी विद्यारण्य का जन्म 11 अप्रैल 1296 को तुंगभद्रा नदी के तटवर्ती किसी गांव में हुआ था। उनके पिता मायानाचार्युलू उस समय के वेद के प्रकांड विद्वान थे। मां श्रीमती देवी भी विदुषी थी। इन्हीं विद्यारण्य के भाई ाचार्य सायण ने चारों वेदों का वह प्रतिष्ठित भाष्य या टीका की थी, जिसे ‘सायणभाष्य’ के नाम से जाना जाता है। यह सायण भाष्य न लिखा गया होता, तो हम आज वेदों से अपरिचित ही रह जाते और पश्चिम के विद्वान भी वेदों का रहस्य न खोल पाते। विद्यारण्य का बचपन का नाम माधवार्य था। विद्यारण्य का नाम तो 1331 में उन्होंने तब धारण किया, जब उन्होंने संन्यास ग्रहण किया।

13वीं शताब्दी उत्तर के लिए ही नहीं, दक्षिण भारत के लिए भी घटनाओं से भरी थी। पहले खिलजी और फिर तुगलक आक्रमणकारियों ने दक्षिण में मदुरै तक की हिन्दी रियासतों को नष्ट कर दिया था, खिलजियों के हमले तक दक्षिण की रियासतें सुरक्षित थीं और अच्छे से फल-फूल रही थीं। लेकिन दिल्ली के सुलतानों की दक्षिण की समृद्धि पर गहरी नजर थी। दक्षिण की रियासतें समुद्री व्यापार से अकूत धन अर्जित कर रही थी। इसलिए उनकी समृद्धि दिल्ली के सुलतानों के आंख की किरकिरी थी। इन सुलतानों के अत्याचार से उत्तर तो त्राहि-त्राहि कर ही रहा था, लेकिन उन्होंने दक्षिण में भी त्राहि-त्राहि मचा दी। धर्मांतरण, लूट, दमन, हत्या, बलात्कार का बोलबाला था। मंदिर ध्वस्त किये जा रहे थे और धार्मिक स्थल रौंदे जा रहे थे। पुराने ग्रंथों तथा शिक्षा केंद्रों को नष्ट किया जा रहा था। वरंगल का काकतीय साम्राज्य, देवगिरि का सेउना यादव की रियासत, मदुरै का पांडियन राज्य तथा कंपिली के जम्बुकेश्वर का राज्य, ये सभी केवल 1336 तक खिलजियों और तुगलकों से पराजित हो चुके थे। केवल होयसल का एक हिन्दू राज्य बचा रह गया था।

ये सारी कहानी तो इतिहास प्रसिद्ध है, इसलिए यहां उसके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं। आवश्यकता केवल यह देखने की है कि किन स्थितियों में स्वामी विद्यारण्य राजनीतिक संगठनकर्ता के रूप में सामने आते हैं और वे कौन से मूल्य थे, जिनको लेकर विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हुई और उस परंपरा में कृष्णदेवराय ने उन मूल्यों को किस शिखर तक पहुंचाया।

वरंगल का काकतीय साम्राज्य कई शताब्दियों से भारतीय संस्कृति और कला का एक समृद्ध केंद्र बना हुआ था। उत्तर से हो रहे लगातार कई हमलों के बाद मुहम्मद बिन तुगलक की सेनाओं ने 1323 में इसे ध्वस्त कर दिया। काकतीय वंश के तत्कालीन बहादुर राजा प्रतापरूद्र युद्ध हार गये। तुगलक की सेना ने उन्हें बंदी बना लिया। कहा जाता है कि जब उन्हें बंदी बनाकर दिल्ली ले जाया जा रहा था, तभी रास्ते में गोदावरी में कूदकर उन्होंने आत्महत्या कर ली। साम्राज्य बिखर गया। कंपिली राय (जम्बूकेश्वर) को भी तुगलक की सेना का मुकाबला करना पड़ा। वह भी युद्ध भूमि में मारा गया। उसके दो मंत्री हरिहर और बुक्काराय (दोनों भाई थे) को गिरफ्तार कर लिया गया। इन्हें भी कैद करके दिल्ली ले जाया गया। वहां इन्हें धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर किया गया। शायद उन्होंने किसी रणनीति के तहत इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। दिल्लीपति ने उन्हें दक्षिण के विजित राज्यों का गवर्नर बनाकर भेजा।

हरिहर और बुक्काराय मुस्लिम बनकर जब वापस लौटे तो उनकी मुलाकात स्वामी विद्यारण्य से हो गयी। दोनों ही भाई बहादुर और दृढ़ प्रतिज्ञ थे। उन्होंने जान बचाने के लिए इस्लाम जरूर स्वीकार कर लिया था, लेकिन भीतर उनका अपमानित हिंदू बैठा हुआ था। विद्यारण्य के उपदेशों से उनमें नई चेतना का संचार हुआ। उन्होंने इन दोनों भाईयों को अपनी भारतीय संस्कृति व धर्म की रक्षा के लिए एक हिन्दू साम्राज्य की स्थापना की प्रेरण दी।

विद्यारण्य स्वामी ने इस नये साम्राज्य के केंद्रीय स्थल का चुनाव भी कर लिया था। कहा जाता है कि जहां पर विजयनगर (आज की हंपी) की स्थापना हुई उस भूमि पर भ्रमण करते हुए विद्यारण्य ने देखा कि कुछ खरगोश कुत्तों को खेदड़ रहे हैं। कुत्ते भाग रहे हैं और खरगोश पीछा कर रहे हैं। यह असंभव दिखने वाला दृश्य था। विद्यारण्य को लगा कि तुंगभद्रा की तटवर्ती इस भूमि में कुछ विशेष ही तेज है, जो ताकतवर शत्रुओं को भी मार भगाने की क्षमता रखती है। हरिहर और बुक्कराय, विद्यारण्य स्वामी के पूर्ण अनुमत हो गये। इस बीच दिल्ली की सल्तनत खुद कमजोर हो गयी और दक्षिण पर उसका नियंत्रण नहीं रहा। हरिहर और बुक्काराय तो ऐसे अवसर की प्रतीक्षा में ही थे। उन्होंने इस्लाम धर्म का बाना उतार फैंका और हिन्दू साम्राज्य की स्थापना के प्रयत्न में लग गये। कहा जाता है कि नये नगर के लिए खुदाई करते हुए विद्यारण्य को जमीन में गड़ा एक बड़ा खजाना मिल गया, जिसे साम्राज्य निर्माण के प्रारंभिक व्यय के लिए काम में लाया गया। 1336 में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हुई। तब से करीब 300 वर्षों तक इस साम्राज्य ने उत्तर के मुस्लिम आक्रमणों से दक्षिण की रक्षा की। बलात धर्म परिवर्तन को रोका और हिन्दू धर्म-संस्कृति की रक्षा की।

ऊपर जिक्र हो चुका है कि खिलजियों और तुगलकों के हमले से केवल होयसाल रियासत को छोड़कर सारे हिन्दू राज्य नष्ट हो गये थे, किंतु 1343 में मदुरै के सुल्तान के साथ युद्ध में होयसाल राजा वीर वल्लाल प्रथम की म्रत्यु के बाद हव राज्य भी कमजोर हो गया। किंतु इसका लाभ यह हुआ कि हरिहर और बुक्काराय ने हमला करके उसे विजयनगर साम्राज्य में मिला लिया। इसके बाद तुंगभद्रा से लेकर दक्षिण का पूरा क्षेत्र विजयनगर साम्राज्य के अंतर्गत आ गया। इस सफलता को रेखांकित करते हुए हरिहर (प्रथम) ने ‘पूर्व पश्चिम समुद्राधीश्वर’ की उपाधि धारण की। हरिहर की शायद किसी दुर्घटना में मृत्यु के बाद उत्तराधिकारी बने बुक्काराय (प्रथम) ने अपना दिग्विजयी अभियान चलाया। उन्होंने अरकाट के राजा को हराकर उनका राज्य विजयनगर में मिला लिया। फिर उन्होंने कोंडा विडू के रेड्डी वंश के राजा को हराया। मदुरै के सुल्तान को अंतिम शिकस्त दी। पश्चिम में गोवा के क्षेत्र पर भी अधिकार कर लिया। अब तुंगभद्रा और कृष्णा नदी के बीच का पूरा दोअरबा क्षेत्र भी विजयनगर साम्राज्य में आ गया। अब तक राजधानी तुंगभद्रा नदी के उत्तरी किनारे पर स्थित अनेगोडी नामक स्थान पर थी, लेकिन अब उसे तुंगभद्रा के दक्षिण की तरफ विजयनगर लाया गया और उसे राजधानी का दर्जा दिया गया।

बुक्काराय प्रथम के बाद उनके दूसरे पुत्र हरिहर (द्वितीय) ने और पराक्रम का प्रदर्शन किया और दक्षिण भारत का जो और भी इलाका बचा था, उसे अपने साम्राज्य में मिलाकर दक्षिण में विजयनगर का एकछत्र साम्राज्य स्थापित किया। उनके बाद आने वाले शासक देवराय (प्रथम) ने उड़ीसा के गजपति राजा को हराया। उन्होंने राजधानी की किलेबंदी करायी तथा राज्य में खेती व उद्योग व्यापार के विकास पर ध्यान दिया। उन्होंने सिंचाई की व्यवस्था करनी शुरू की। उनके उत्तराधिकारी देवराय (द्वितीय) 1424 में गद्दी पर बैठे। उन्होंने लंका और बर्मा (आज के म्यांमार) के कुछ हस्से को भी अपने अधिकार में ले लिया।

इतने विस्तार के बाद 15वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में साम्राज्य फिर कमजोर पड़ा। लेकिन संयोग से उस पर कोई हमला करने वाला नहीं था। देवराय द्वितीय के निर्बल उत्तराधिकारी को हटाकर उसके एक सेनापति सुलुवा देवराय ने 1485 में विजयनगर की सत्ता अपने अधिकार में कर ली। उनके बाद एक दूसरे सेनानायक तुलुवा नरसा नायक ने 1491 में विजयनगर की बागडोर अपने हाथ में ली। यह ऐसा समय था, जब साम्राज्य में इधर-उधर विद्रोही सिर उठा रहे थे। इन्हीं तुलवा नरसा नायक के बेटे थे कृष्णदेवराय। कृष्णदेवराय में बहादुरी और विद्वता का अद्भुत संगम था। उन्होंने परंपरा से प्राप्त विद्यारण्य स्वामी की सारी शिक्षाओं को ही आत्मसात नहीं किया था, बल्कि उन्होंने देश के प्राचीन शास्त्रों का भी अच्छा अध्ययन किया था। उन्हें साम्राज्य को सुदृढ़ करने में करीब दो दशकों तक संघर्ष करना पड़ा। इस लंबे संघर्ष के बाद 24 जुलाई 1509 को उनका राज्याभिषेक हुआ।

कृष्णदेवराय करीब 19 वर्षों तक गद्दी पर बैठे। 1529 में एक आकस्मिक बीमारी में उनका निधन हो गया। उनके शासन के इस 19-20 वर्ष के काल को विजयनगर साम्राज्य का स्वर्णयुग कहा जा सकता है। अफसोस की बात है कि उनके उत्तराधिकारियों में कोई ऐसा सबल शासक नहीं हो सका, जो उनकी परंपरा को आगे बढ़ा सके। अशोक महान की तरह उनका भी राजवंश धीरे-धीरे कमजोर होकर लुप्त हो गया। कृष्णदेवराय के बेटे अच्युत राय 1530 में गद्दी पर बैठा। उसके बाद 1542 में सदाशिवराय राजा बने। लेकिन वह केवल औपचारिक राजा थे। वास्तविक सत्ता आलिया राम के हाथ में थी। राम राय एक बहादुर सेनापति था, लेकिन राज्य पर चारों तरफ से गिद्द दृष्टि लगाए नवाबों व सुल्तानों का सामूहिक मुकाबला करने की शायद उसमें सामथ्र्य नहीं थी।

विजयनगर साम्राज्य आसपास की सारी मुस्लिम रियासतों को अखर रहा था। अंत में बीजापुर, बीदर, गोलकोंडा तथा अहमदनगर के मुस्लिम शासकों ने एक साथ विजयनगर पर आक्रमण कर दिया। केवल एक बिरार की मुस्लिम रियासत थी, जिसने शायद इस हमले में भाग नहीं लिया। राम राय ने इस संयुक्त मुस्लिम आक्रमण में विजयनगर की सेना का नेतृत्व किया। ताल्लिकोटा में घमासान युद्ध हुआ, जिसमें वियजनगर की सेना पराजित हुई। राम राय को पकड़कर तत्काल मार डाला गया। उधर विजयनगर के वास्तविक राजा सदाशिव राय जितना संभव हुआ, उतनी धन संपत्ति समेटकर भाग खड़ा हुआ। कई इतिहासकारों के अनुसार विजयनगर का वास्तविक शासक सदाशिवराय भले ही विलासी तथा कायर रहा हो, लेकिन न तो विजयनगर की सेना इतनी कमजोर थी और न राम राय का नेतृत्व कि विजयनगर पराजित हो जाता। विजयनगर की सेना उस समय दक्षिण की अजेय सेना मानी जाती थी। लेकिन हिन्दू राजाओं की उदारता अक्सर उनके लिए घातक बन जाती थी। ताल्लिकोटा के युद्ध में भी यही हुआ। विजयनगर की सेना जीतने ही वाली थी कि उसके मुस्लिम कमांडर अपने-अपने सैनिक जत्थे लेकर हमलावर सेना के साथ जा मिले। इससे युद्ध का नजारा ही बदल गया। सेनापति राम राय कुछ सोच पाते तब तक उन्हें पकड़ लिया गया। 25 दिसंबर 1564 विजयनगर के पतन की तिथि बन गयी। सदाशिव राय का शाही परिवार तब तक भागकर पेनुकोंडा पहुंच गया था। राम राय के मारे जाते ही विजयनगर की सेना तितर-बितर हो गयी। मुस्लिम सेना ने विजयनगर पर कब्जा कर लिया। उसके बाद वैभव, कला तथा विद्वता की इस ऐतिहासिक नगरी में लूट, हत्या और ध्वंस का जो तांडव शुरू हुआ, उसकी नादिरशाह की दिल्ली लूट व कत्लेआम से ही तुलना की जा सकती है। हत्या, बलात्कार तथा ध्वंस का ऐसा नग्ननृत्य तो शायद नादिरशाही में भी न हुआ हो।

बीजापुर, बीदर, गोलकोंडा तथा अहमदनगर की सेना करीब 5 महीने उस नगर में रही। इस अवधि में उसने इस वैभवशाली नगर की ईंट से ईंट बजा दी। गं्रथागारों व शिक्षा केंद्रों को आग की भेंट चढ़ा दिया गया। मंदिरों व मूर्तियों पर लगातार हथौड़े बरसते रहे। हमलावरों का एकमात्र लक्ष्य था विजयनगर का ध्वंस व उसकी लूट। शायद साम्राज्य हथियाना उनका प्रथम लक्ष्य नहीं था। ऊपर बताया गया कि राज परिवार पेनुकोंडा (वर्तमान अनंतपुर जिले में स्थित) भाग गया था। वहां उसने अपनी राजधानी बनायी। बाद में वहां से हटकर चंद्रगिरि (जो चित्तूर जिले में है) को राजधानी बनाया। वहां शाय किसी ने उनका पीछा नहीं किया इसलिए कहने को विजयनगर साम्राज्य करीब 80 वर्ष और चला। अदूरदर्शी तथा कायर राजाओं के कारण 1646 में यह पूरी तरह इतिहास के कालचक्र में दफन हो गया। इस वंश के अंतिम राजा रंगराय (तृतीय) थे, जिनकी शायद 1680 में मौत हुई।

1564 या कहें कि 1646 में जो साम्राज्यकाल के गाल में दफन हुआ, तो फिर उसकी सुध लेने वाला कोई सामने नहीं आया। शताब्दियों में शहर का खंडहर भी धूल में ढक गया। भला हो अंग्रेजों के शासनकाल में बेल्लारी (कर्नाटक) में नियुक्त उस जिला कलेक्टर राबर्ट सेवेल का, जिसने इस साम्राज्य के अवशेषों की खोज की और एक किताब लिखी ‘द फारगाटेन इम्पायर’ (एक विस्मृत साम्राज्य), जिससे इस वैभवपूर्ण साम्राज्य का परिचय बाद की पीढ़ियों को मिल सका। कृष्णदेवराय की कीर्तिगाथा भी इससे उजागर हुई। लेकिन स्वामी विद्यारण्य अभी भी धार्मिक परंपरा के दार्शनिक संतों के बाहर अपना कोई परिचय नहीं रखते।

विद्यारण्य ने हरिहर प्रथम के समय से राजाओं की करीब तीन पीढ़ियों का राजनीतिक व सांस्कृतिक निर्देशन किया। 1372 में करीब 76 वर्ष की आयु में उन्होंने राजनीति से सेवानिवृत्ति ली और श्रृंगेरी वापस पहुंच गये और उसके पीठाधीश्वर बने। इसके करीब 14 वर्ष बाद 1386 में उनका स्वर्गवास हो गया। लेकिन जीवनभर वह भारत देश, समाज व संस्कृति के संरक्षण की चिंता करते रहे। उन्होंने अद्वैत दर्शन से संबंधित ग्रंथों के साथ सामाजिक महत्व के ग्रंथों का भी प्र्रणयन किया। अपनी पुस्तक ‘प्रायश्चित सुधानिधि’ में उन्होंने हिन्दुओं के पतन के कारणों की भी अपने ढंग से व्याख्या की है। उन्होंने हिन्दुओं की विलासिता को उनके पतन का सबसे बड़ा कारण बताया। नियंत्रणहीन विलासिता का इस्लामी जीवन हिन्दुओं को बहुत आकर्षित कर रहा था। नाचने गाने वाली दुश्चरित्र स्त्रियों व मुस्लिम वेश्याओं के संग का उन्होंने कठोरता से निषेध किया है।

विद्यारण्य की प्रारंभिक शिक्षा तो उनके पिता के सान्निध्य में ही हुई थी, लेकिन आगे की शिक्षा के लिए वह कांची कामकोटि पीठ के आचार्य विद्यातीर्थ के पास गये थे। इन स्वामी विद्यातीर्थ ने विद्यारण्य को मुस्लिम आक्रमण से देश की संस्कृति और समाज की रक्षा हेतु नियुक्त किया था। विद्यारण्य ने गुरु का आदेश पाकर पूरा जीवन उसी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु समर्पित कर दिया। उनके स्वप्न ने महाराजा कृष्ण्देवराय के काल में मूर्तरूप अवश्य प्राप्त किया, लेकिन उसके बाद काल के निर्मम हाथों उसका भी अंत हो गया। लेकिन आधुनिक भारत के निर्माण मे विद्यारण्य और कृष्णदेवराय से आज भी प्रेरणा ली जा सकती है।

आश्चर्य की बात यह है कि हम आज उन्हें याद भी नहीं करना चाहते। कृष्णदेवराय के राज्याभिषेक के 500 वर्ष 2009 में ही पूरे हो गये थे, तब किसी ने उन्हें याद नहीं किया। राज्याभिषेक का 500वां वर्ष बीत गया। यत्र तत्र कुछ लेख अवश्य छपे, लेकिन राजकीय स्तर पर वह विस्तारण के गर्त में ही खोए रहे। जाने कैसे आंध्र प्रदेश सरकार को 501वें वर्ष में उनकी याद आ गयी। देर से ही सही, लेकिन इस स्मरण की सराहना की जानी चाहिए। मगर सवाल है कि क्या आज की सरकार या आज के राजनीतिक दल कृष्णदेवराय की नीतियों व सिद्धांतों का अनुकरण करेंगे। उनके दरबार के नवरत्नों में केवल तेनाली रामकृष्ण ही याद किये जाते हैं, वह भी बीरबल की तरह एक चतुर विदूषक के रूप में, जो अन्य दरबारियों को छकाकर अपनी प्रतिष्ठा कायत करता है।

कृष्णदेवराय का साम्राज्य कटक व गोवा से लेकर दक्षिण में श्रीलंका तक व्याप्त था, लेकिन उनके राजकाज की भाषा नागरी लिपि वाली संस्कृत थी। उन्होंने कन्नड़, तेलुगु व तमिल का भी सम्मान किया। तेलुगु के तो वह अच्छे विद्वान थे। किंतु उनके साम्राज्य में कहीं कोई भाषा या लिपि का विवाद नहीं था। उनके समय के तमाम ताम्रपत्र अभिलेख नागरी लिपि में हैं। उनके स्वर्ण सिक्कों पर मुख भाग पर बालकृष्ण, गणेश या दुर्गा की मूर्तियां हैं और पृष्ठ भाग पर नागरी लिपि में उनका नाम ‘श्री प्रताप कृष्ण्राय’ अंकित है। कम मूल्य के तांबे के केवल कुछ सिक्कों पर कन्नड़ में उनका संक्षिप्त नाम (कृष्ण) लिखा गया है। तांबे के ही अधिक वजन के सिक्कों पर नागरी लिपि का प्रयोग है। जाहिर है उनके शासनकाल में पूरे दक्षिण भारत में श्रीलंका तक नागरी लिपि प्रचलित थी। वह स्वयं किसी खास धर्म के अनुयायी नहीं थे। उन्हें भगवान वेंकटेश या विष्णु का भक्त कहा जा सकता है, क्योंकि उनके राज्य के प्रतीक चिह्नों में शंख चक्र शामिल है, लेकिन उनके साम्राज्य में सभी धर्म दर्शन के अनुयायियों का सम्मान था।

उनकी सोच वैश्विक थी। पुर्तगाली यात्रियों डोमिंगो पायस, फर्नाओ नुनीज तथा निकोलो द कोंठी के विवरणों के अनुसार विजयनगर एक अंतर्राष्ट्रीय शहर था, जहां तमाम देशें व धर्मों के लोग देखे जा सकते थे। समृद्धि का वर्णन तो यों किया गया है कि मूल्यवान रत्न हीरे, मोती, माणिक्य सड़क किनारे ढेरी लगाकर बेचे जाते थे। राजा ने पुर्तगालियों की तकनीकी सहायता लेकर अपने राज्य की सिंचाई सुविध में सुधार किया था। उन्होंने प्रत्येक गांव में एक मंदिर और एक तालाब बनवाने की योजना लागू की थी। इत्यादि।

निश्चय ही कृष्णदेवराय तथा उनके साम्राज्य व नीतियों की प्रशंसा में कई ग्रंथ लिखे जा सकते हैं, लेकिन आज हमें उन तत्वों पर अधिक ध्यान देना चाहिए कि उनके साम्राज्य निर्माण की मूल प्रेरणा क्या थी। उनके साम्राज्य की सामाजिक एकता का मूल मंत्र क्या था। वह कौनसी शक्ति थी कि कृष्णदेवराय अपने जीवनकाल में किसी युद्ध में पराजित नहीं हुए। वह अपराजेय बने रहे, लेकिन उनके तिरोहित होते ही साम्राज्य बिखरने लगा। सच कहा जाए, तो आज हमें कृष्णदेवराय से भी अधिक विद्यारण्य जैसे समाजचेता स्वामियों की जरूरत है, जो देश की राजनीति को सही दिशा दे सकें। लेकिन हमारी शासन नीति तो विचारों की नहीं, केवल मूर्तियों की पूजा में विश्वास रखती है। कृष्णदेवरायों के स्मरण से तो कोई खतरा नहीं, लेकिन विद्यारण्यों का स्मरण तो उनके लिए खतरनाक सिद्ध हो सकता है, जो संस्कृति को दफन करके केवल अर्थ नीति के सहारे शासन चलाना चाहते हैं। (11-7-2010)

रविवार, 4 जुलाई 2010

kaldwel

राबर्ट काल्डवेल से करुणानिधि तक


दुनिया की सभी भाषाएं सम्मानित हैं और अपने देश की सभी भाषाएं तो सम्माननीय हैं ही। तमिल इस देश की निश्चय ही एक समृद्ध और प्राचीन भाषा है। फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वह भारत की एक भाष है। लेकिन यदि कोई   इस भाषा को भारत के भी उपर स्थापित कर दे और इसे बोलने वालों को भारत की शेष सारी जातियों से अलग एक विशिष्ट जाति सिद्ध करने की कोशिश करे, तो उसे क्या कहेंगे? औपनिविशिक काल में ईसाई मिशनरियों ने भारत को तोड़ने के लिए और दक्षिण भारत को पारंपरिक संस्कृति से अलग कर ईसाई धर्म में दीक्षित करने के लिए आर्य और द्रविण का एक मिथ गढ़ा था। दक्षिण में बिशप राबर्ट काल्डवेल इसके पुरोधा थे, लेकिन अफसोस कि उस काल्डवेल के मिशन को आगे बढ़ाने में आज के अपने देशी राजनेता लगे हुए हैं और अपने संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ के लिए पूरे देश की अस्मिता पर कुठाराघात कर रहे हैं।


     पहला विश्व तमिल सम्मेलन (वल्र्ड तमिल कांफ्रेंस)अप्रैल 1966 में क्वालालाम्पुर में हुआ था। तमिलनाडु ने उस सम्मेलन से प्रेरणा लेकर उसमें शामिल प्रतिनिधियों व विद्वानों को बुलाकर दूसरा सम्मलेन 1968 में मद्रास में किया। इस सम्मेलन के दौरान मेरीना बीच पर 10 तमिल संत कवियों व साहित्यकारों की प्रतिमाएं लगायी गयी। उसके बाद इस सम्मेलन की श्रिंखला चल निकली, किंतु प्रायः प्रत्येक सम्मेलन आयोजकों की प्रशंसा व यशोगान का आयोजन बनकर रह गया। इस बार का कोयम्बटूर सम्मेलन भी कुछ भिन्न नहीं कहा जा सकता। यह मुख्यमंत्री एवं द्रविणमुनेत्र कषगम के अध्यक्ष एम. करुणानिधि की यशोगाथा का आयोजन था ।

निश्चय ही दुनिया की हर भाषा का अपना विशिष्ट महत्व है। भारत में तमिल भाषा की प्राचीनता और समृद्धि को लेकर कोई विवाद नहीं है। उसे शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने की घोषणा की गयी, तो प्रायः पूरे देश में प्रसन्नता व्यक्त की गयी। अंग्रेजों ने भारत में संस्कृत के अतिरिक्त अरबी और फारसी को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देकर उसके विशेष रूप से अध्ययन-अध्यापन की परंपरा शुरू की थी, जिसे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने भी जारी रख। अब यदि अरबी और फारसी को यहां शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिल सकता है, तो तमिल और तेलुगु जैसी भाषाओं को क्यों नहीं। तमिल का प्राचीनतम साहित्य 300 वर्ष ईसा पूर्व का है। उसके प्राचीनतम साहित्य संगम साहित्य का काल ईसा पूर्व 300 से लेकर ईसा की तीसरी शताब्दी तक माना जात है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को अब तक जितने पुरा अभिलेख प्राप्त हुए हैं, उनमें 55 प्रतिशत से अधिक (करीब 55,000)तमिल भाषा के हैं। 2001 के सर्वे के अनुसार तमिल भाषा में 1863 समाचार पत्र प्रकाशित होते हैं, जिनमें से 353 दैनिक हैं। आशय यह कि तमिल निश्चय ही एक समर्थ, व्यापक स्वीकृतिवाली शास्त्रीय भाषा है। देश से बाहर कम से कम दो देशों श्रीलंका और सिंगापुर में उसे राजभाषा का सम्मान प्राप्त है, लेकिन अब यदि एम. करुणानिधि यह कहने लगे कि तमिल दुनिया की सारी भाषाओं की जननी है और वाल्मीकि के पहले भी उसमें साहित्य रचा जाता था, तो यह बात शायद लोगों के गले के नीचे नहीं उतर सकती। जिस भाषा का सम्मेलन हो, उसमें उसकी प्रतिष्ठा और सम्मान में कुछ अतिशयोक्ति का इस्तेमाल भी चलता है, लेकिन उसके आयोजनकर्ता यदि राजनीतिक लोग हों और आयोजन सरकारी स्तर पर हो रहा हो, तो उससे कुछ अतिरिक्त शालीनता की अपेक्षा की जाती है।
     इस सम्मेलन में घोषणा की गयी कि तमिल  दुनिया की सर्वाधिक प्राचीन और सर्वाधिक गरिमामयी (ओल्डेस्ट एंड प्राउडेस्ट)भाषा है। यही नहीं उद्घाटन के बाद के दूसरे दिन के सेमीनार का विषय था ‘ऐंगम तमिल, एथिलम तमिल’ (हर जगह तमिल हर चीज में तमिल }।इस  की अध्यक्षता करते हुए करुणानिधि ने तमिल को प्रायमरी स्तर से शिक्षा में अनिवार्य करने की घोषणा की और कहा कि ‘शास्त्रीय तमिल संघों’ का गठन किया जाएगा और जहां कहीं भी तमिल हैं, वहां इसकी शाखाएं स्थापित की जाएंगी। इस सेमीनार में तमाम राजनीतिक दलों के करीब 20 वक्ताओं ने भाग लिया और सभी ने दलगत भेदभाव छोड़कर तमिल भाशा  को प्रोत्साहन देने का आह्वान किया।

यहां यह उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारत की भाषाओं को एक अलग भाषा समूह बनाने और उसे एक नया नाम देने का काम आइरिश मिशनरी राबर्ट काल्डवेल ने किया। वह एक इवेंजलिस्ट मिशनरी थी, जिसने ईसाई धर्म प्रचार तथा भारतीय और श्रीलंका के तमिलों के धर्मपरिवर्तन के लिए स्थानीय भाषा को आधार बनाया। भारत में वह पहला व्यक्ति है, जिसने बताया कि तमिल तेलुगु, कन्नड़, मलयालम और तुलू एक अलग भाषा परिवार है, जो ‘इंडो-आर्यन’ भाषाओं से एकदम भिन्न है। उसने ही इसे ‘दविण भाषा समूह’ का नाम दिया। उसकी शब्दावली को लेकर ही आज करुणानिधि साहब कह रहे हैं कि तमिल अपने ऐतिहासिक विकास क्रम में न केवल अकेले खड़ी रही है, बल्कि यह बिना संस्कृत की मदद के विकसित हुई है। इसका उत्तर की तथाकथित आर्यभाषाओं से न केवल कोई संबंध नहीं है, बल्कि यह उनसे प्राचीनतर भी है।

बिशप राबर्ट काल्डवेल (1814-1891)ने अपने धर्मप्रचार के लिए भाषाई विभाजन को आधार बनाया। उसने उन दिनों यूरोपीय बुद्धिजीवियों में फैली नस्ली धारणा (जो अब पूरी तरह गलत साबित हो चुकी है)का इस्तेमाल भारत को भाषा आधारित नस्लों में विभाजित करने में किया और दक्षिण भारतीय लोगों को पारंपरिक भारतीय धर्मदर्शन से अलग करके ईसाइयत में दीक्षित करने का अभियान चलाया। उसने तमिलनाडु में ‘दविण राष्ट्र्वाद’ की पीठिका स्थापित की और श्रीलंका में भी ‘नस्ली ध्रुवीकरण’ का काम किया। यह उसी का षड्यंत्र था, जिसने श्रीलंका को सिंहली और तमिल खेमों में विभाजित किया। काल्डवेल के सिद्धांतों को ही इस्तेमाल करके अंग्रेज शासकों ने तमिल समुदाय को इस देश की सांस्कृतिक परंपरा से अलग किया। इसका ही परिणाम हुआ कि आधुनिक तमिल अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कअ गयी। एम. करुणानिधि ने ही इस सम्मेलन के लिए जो प्रतीक गीत लिखा था, उसमें उन्होंने कम्बन का नाम नहीं शामिल किया था, क्योंकि उन्होंने ‘रामकथा’ लिखी थी। लेकिन भारी विरोध उठ खड़ होने पर उन्होंने कम्बन का नाम उसमें शामिल किया। आज के तमिल राजनेता तो संत तिरुवल्लुअर आदि का भी नाम शामिल न करते, लेकिन भाषा और साहित्य की प्राचीनता प्रमाणित करने के लिए उनका नाम शामिल करना अनिवार्य हो गया। आज की तमिल के बारे में यदि कहा जाए, तो उसकी कोई स्पष्ट सांस्कृति पहचान नहीं है। इसीलिए इस सम्मेलन के उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता कर रहे श्रीलंका के तमिल विद्वान के. शिवथम्बी ने इस बात को गर्व से कहा कि तमिल भाषा ने ईसाई, इस्लाम, शैव, बौद्ध, वैष्णव आदि कई धर्मों को अपने में स्थान दिया है।

काल्डवेल ने तिन्नेवेली (तिरुनेरवेली)जिले को अपना अड्डा बनाया। वह लंदन मिशनरी सोसायटी का सदस्य था, बाद में वह ईसाई धर्मप्रचार का संगठन ‘सोसायटी फॉर प्रोवेगेशन आॅफ द गास्पेल मिशन’ (एस.पी.जी.)में शामिल हो गया। 24 वर्ष की आयु में वह मद्रास पहुंचा। यहां उसने त्रावणकोर के प्रतिष्ठित मिशनरी रेवरेंड चाल्र्स माल्ट एलिजा माल्ट से शादी कर ली। एलिजा माल्ट तमिल औरतों में काम करती थी। काल्डवेल ने यह अनुभव किया कि तमिलों को भाषा और नस्ल के आधार पर राम, कृष्ण तथा वैदिक धर्मों से अलग किया जा सकता है, तो उसने उसी को अपने प्रचार का आधार बनाया।

काल्डवेल का मिशन करीब 50 वर्षों तक चला। उसने दक्षिण भारतीयों को नस्ल और भाषा के आधार पर अलग करने के लिए किताबें लिखीं। और उसके इन्हीं प्रयत्नों से तमिलनाडु में ‘नान ब्रहमिन मूवमेंट’ (ब्राह्मण परंपरा विरोधी अभियान)की स्थापना हुई। अफसोस की बात यह है कि भारत को सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक दृष्टि से विभाजित करने वाले इस व्यक्ति का आज की भारत सरकार भी सम्मान कर रही है। अभी 7 मई 2010 को काल्डवेल को सम्मानित करने के लिए 5 रुपये का एक डाक टिकट जारी किया गया।

काल्डवेल के ही काम को उन यूरोपीय इतिहासकारों ने आगे बढ़ाया, जिन्होंने सिंधु घाटी की सभ्यता (हड़प्पा, मोहन जोदड़ो संस्कृति)को द्रविण जाति के साथ जोड़ दिया। मात्र कल्पना के आधार पर यह इतिहास लिख दियाग या कि हड़प्पा संस्कृति अनार्य संस्कृति थी और आर्य हमलावरों ने इस संस्कृति का नाश किया, जिसके कारण यहां के निवासी सुदूर दक्षिण भारत में जा बसे। आज तक किसी भी आधार पर द्रविण और तमिल में कोई समानता या निकटता नहीं सिद्ध हो सकी है, लेकिन द्रविण और तमिल का एकीकरण कर दिया गया और तमिल भाषा और संस्कृति को सिंधु घाटी की हड़प्पा सभ्यता और उसकी भाष से जोड़ दिया गया।

हड़प्पा सभ्यता की मुहरों पर अंकित संकेत लिपि अब तक पढ़ी नहीं जा सकी है। जो कुछ अब तक अध्ययन हुआ है, ससे केवल यही संकेत मिलता है कि इस देश में प्रचलित प्राचीनतम ब्राह्मीलिपि संभवतः इसी हड़प्पा की संकेत लिपि से विकसित हुई है। वस्तुतः हड़प्पा संस्कृति काल (ई.पू. 3500 से 2500)की संकेत लिपि के बाद छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक कोेई दूसरी लिपि नहीं मिल सकी है। हड़प्पा लिपि के बाद सीधे ‘ब्राह्मी लिपि’ प्राप्त होती है, जिसका प्राचीनतम प्रमाण छठी शताब्दी ईसा पूर्व के एक अस्थिकलश पर अंकित है। इसके बारे में अनुमान है कि इसमें भगवान बुद्ध के अस्थि अवशेष है। यह कलश बिहार के पिपरहवा नामक स्थान से प्राप्त हुआ है।

ब्राह्मी लिपि से हड़प्पा चित्रलिपि की निकटता सिद्ध की जा सकती है। लिपियों के विकास के वैज्ञानिक सिद्धांत के अनुसार भी हड़प्पा की चित्र लिपि से ब्राह्मी की वर्णलिपि विकसित हो सकती है। उसकी बीच की कड़ी अब तक उपलब्ध नहीं हो सकी है, लेकिन उसका अनुमान लगाया जा सकता है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि प्राचीन तमिल अभिलेख भी वास्तव में ब्राह्मी लिपि में ही है। जाहिर है कि तमिल लिपि भी ब्राह्मी से ही विकसित हुई होगी। लेकिन यहां तो यह भी ध्यान देने की बात है कि भारत की प्रायः सारी आधुनिक लिपियां ब्राह्मी से ही विकसित हुई हैं। निश्चय ही ब्राह्मी केवल तमिल तक समिति नहीं है। लेकिन ऐसे यूरोपीय विद्वानों की अभी भी कमी नहीं है, जो हड़प्पा लिपि को तमिल लिपि से और हड़प्पा निवासयों की भाषा को तमिल भाषा से तथा हड़प्पा में रहने वालों को तमिल जाति से जोड़ने का उपक्रम करते रहते हैं। ऐसे ही एक विद्वान हैं फिनलैंड के हेलसिंकी विश्वविद्यालय के ‘विश्व संस्कृति संस्थान’ (इंस्टीट्यूट आफ  वल्र्ड कल्चर)में भारत विद्या (इंडोलॉजी)के प्रोफेसर एमिरेट आस्को पारपोला, जो कोयम्बटूर के इस सम्मेलन में शामिल हुए। उन्हें ‘कलैनार एम. करुणानिधि क्लासिकल तमिल रिसर्च एंडाउमेंट लेक्चर’ के लिए आमंत्रित किया गया है। इस लेक्चर में उन्होंने अनेक कल्पित तर्को से यह सिद्ध किया हड़प्पा के लोग द्रविण यानी तमिल भाषा बोलते थे। बुधवार के उद्घाटन समारोह में उन्हें ‘कलैनार एम. करुणानिधि क्लासिकल तमिल एवार्ड-2009’ से सम्मानित किया गया, क्योंकि करुणानिधी की  ‘थियरी’ के वह सबसे बड़े पोषक हैं। इस सम्मान को प्राप्त करते हुए उन्होंने तमिल भाषा विद्वानों का आह्वान किया कि वे पूरी सक्रियता से उस अनुसंधान कार्य में लग जाएं, जिससे यह अच्छी तरह पुष्ट हो सके कि हड़प्पावासियों की भाषा प्राग्द्रविण (प्रोटोद्रविदीयन)भाषा ही थी।

पापपोला के ही तथाकथित शोध के आधार पर करुणानिधि तमिल को दुनिया की सभी भाषाओं की मां बता रहे हैं। दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में यूनान और रोम की गणना होती है। सिंधु घाटी में हड़प्पा और मोहनजोदड़ों जैसे शहरों के मिलने के बाद सिंधु घाटी की सभ्यता दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता सिद्ध हुई। अब इसे द्रविण सभ्यता से ही नहीं, तमिल नस्ल से और तमिल भाषा से भी जोड़ दिया गया है। अब यदि तमिल जाति के लोग दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता के वंशज व उत्तराधिकारी हैं और उनकी भाषा व लिपि दुनिया के सबसे पुराने सभ्य शहरी लोगों की भाषा व लिपि से विकसित हुई है, तो वे दुनिया की ‘सबसे पुरानी और सबसे अधिक गौरवशाली’ जाति व संस्कृति उत्तराधिकारी हुए ही।

अब यदि यह सब सप्रमाण सिद्ध हो भी जाए, तो क्या इसके आधार पर फादर काल्डवेल वाला उत्तर विरोधी सांस्कृतिक आंदोलन चलाने का कोई औचित्य है। तमिलनाडु क्या भारत से अलग अपनी पहचान बनाने के लिए व्याकुल है। आश्चर्य है कि यूरोपीय मिशनरियों ने भारत को तोड़ने के लिए जिस इतिहास की रचना की उसे हम आज की अपनी राजनीति के लिए इस्तेमाल करने में लगे हुए हैं। हम उस अनुसंधान की बात नहीं कर रहे हैं, जो देश को जोड़ने वाला है, हम उस अनुसंधान में अपनी शक्ति लगाना चाहते हैं, जिससे देश में विखंडन की प्रवृत्ति आगे बढ़े। हम सर्वश्रेष्ठ हैं और सब हमसे हीन हैं, यह प्रवृत्ति ही आज दुनिया और मनुष्यता की सबसे बड़ी शत्रु बनी हुई है।

काल्डवेल के समय का पूरा इतिहास असत्य सिद्ध हो चुका है। हड़प्पा संस्कृति के परवर्ती काल के अवशेष गुजरात से उत्तर प्रदेश तक बिखरे हुए हैं, जबकि उस संस्कृति का कोई प्रमाण दक्षिण में उपलब्ध नहीं है।

वास्तव में करुणानिधि को न तो इतिहास से कुछ लेना देना है, न संस्कृति से, उन्हें तो तमिलनाडु में अपने परिवार की राजनीतिक सत्ता को मजबूत करना है। वह अपने को तमिल भाषा व संस्कृति का सबसे बड़ा आधुनिक मसीहा सिद्ध करना चाहते हैं, जिससे आने वाली तमिल पीढ़ियां उन्हें अन्नादुरई से भी अधिक सम्मान व प्रतिष्ठा दे सकें। लेकिन वे यह काम इस देश में सांस्कृतिक भेद की दीवार खड़ी किये बिना भी तो कर सकते थे। (27.6.2010)