रविवार, 26 जून 2011

क्या विश्व इतिहास पीछे की ओर लौटेगा ?



अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपने सैनिकों के वापसी कार्यक्रम की घोषणा कर दी है। 2014 तक पश्चिमी देशों के सारे सैनिक अफगानिस्तान छोड़कर जा चुकेंगे। अमेरिका इराक को पहले ही खाली कर चुका है। सामान्यतया इसे एक शुभ सूचना माना जाना चाहिए, लेकिन चिंता की बात यह है कि जहां से आधुनिक लोकतांत्रिक शक्तियां पीछे हट रही हैं, वहां मध्यकालीन सोच वाली मजहबी ताकतें अपना सिक्का जमा रही हैं। यदि आज के वृहत्तर मध्य क्षेत्र से पश्चिमी शक्तियां वास्तव में हट गयी, तो उस क्षेत्र में मध्यकालीन ओटोमान साम्राज्य की वापसी अवश्यम्भवी है। इसका सबसे बड़ा खतरा निश्चय ही भारत को झेलना पड़ेगा, क्योंकि उसका पहला निशाना भारत ही होगा और यह फिर उस मध्यकालीन गुलामी का शिकार होगा, जिसके साए से यह अब तक मुक्त नहीं हो पाया है।

अमेरिका के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने अफगानिस्तान से अपने सैन्य वापसी कार्यक्रम की घोषणा कर दी है। इस वर्ष उनके 10 हजार सैनिक वापस चले जायेंगे। 5 हजार अभी इसी जुलाई में और 5 हजार दिसंबर तक। अगली गर्मियों तक उसके वे 30 हजार सैनिक वापस चले जायेंगे, जिन्हें अतिरिक्त कुमुक के तौर पर 2009 में भेजा गया था। वस्तुतः इस सैन्य वापसी कार्यक्रम की घोषणा उसी समय कर दी गयी थी, जब अफगान तालिबान से निपटने के लिए ओबामा ने 30 हजार और सैनिक वहां भेजने का ऐलान किया था। इनकी वापसी के बाद 70 हजार अमेरिकी सैनिक वहां बचेंगे, जो ओबामा के सत्ता में आने के पहले वहां मौजूद थे, मगर 2014 तक इन सबकी वापसी हो जायेगी। ओबामा के अनुसार तब तक अफगानिस्तान सरकार की सेना, तालिबान विद्रोहियों से निपटने और अपनी रक्षा करने में सक्षम हो जायेगी।

2012 में अमेरिका में अगले राष्ट्रपति का चुनाव होने जा रहा है, जिसमें मध्य पूर्व एशियायी क्षेत्र में अमेरिकी सैन्य उपस्थिति भी एक प्रमुख मुद्दा है। 2008 के चुनाव में भी मध्य पूर्व में अमेरिकी सैन्य कार्रवाई चुनाव का महत्वपूर्ण मुद्दा थी। इराक और अफगान युद्ध तथा ईरान में चल रही तनातनी ने चुनावों पर भारी प्रभाव डाला था। इस बार वैसी कोई स्थिति नहीं है, किंतु इस एक प्रश्न पर वहां की दोनों प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक पार्टियों की एक राय है कि अमेरिका को ‘वृहत्तर मध्य पूर्व क्षेत्र’ (ग्रेटर मिडिल ईस्ट) में अपनी सैन्य उपस्थिति कम करनी चाहिए। दोनों का तर्क है कि अमेरिका इतने दूर के देशों में ऐसी लंबी लड़ाई नहीं लड़ सकता। यह उसकी सामर्थ्य में हो भी, फिर भी यह उस पर एक भारी बोझ है और फिर ऐसी कार्रवाईयां उसके लिए व्यर्थ हैं, जिसका कोई लाभ नहीं। आम अमेरिकी नागरिकों की ऐसी धारणा बन रही है कि उसकी आर्थिक क्षमता का ऐसी व्यर्थ की लड़ाईयों में क्षय हो रहा है, जिससे उनकी अपनी कठिनाईयां बढ़ रही हैं और उनके जीवन की सुख-शांति प्रभावित हो रही है।

यह ’ग्रेटर मिडिल ईस्ट‘ पूर्व अमेरिका राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू. बुश का दिया हुआ नाम है, जिसमें मध्य पूर्व के इस्लामी देशों के साथ ईरान, तुर्की, अफगानिस्तान और पाकिस्तान को मिला दिया गया है। कभी-कभी इसमें मध्य एशिया के मुस्लिम देश भी शामिल कर लिये जाते हैं। वस्तुतः ‘ग्रेटर मिडिल ईस्ट‘ अब उत्तर अफ्रीकी, मध्य पूर्व तथा मध्य एशियायी (यूरेशिया एवं बाल्कान देशों) सारे इस्लामी देशों के समूह का बोधक बन गया है। यूरेशियन-बालकान्स में काकेशस (जार्जिया, अजरबैजान तथा आर्मीनिया) और मध्य एशियायी (कजाखस्तान, उजबेकिस्तान, किरगीजिस्तान, तर्कमेनिस्तान, अफगानिस्तान तथा ताजिकिस्तान) और तुर्की (यह मध्यपूर्व का सबसे उत्तर का इलाका है) जैसे देश आ जाते हैं। कहने का मतलब पूर्व में पाकिस्तान से लेकर पश्चिम में मोराक्को तक का क्षेत्र इसके अंतर्गत आ जाता है। मोटे तौर पर यह पूरी तरह इस्लामी क्षेत्र है, जो इतिहास के ओटोमान साम्राज्य की याद दिलाता है।

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सुलाहकार जिन्यू ब्रजेजिंस्की (राष्ट्रपति जिमी कार्टर के समय/ वर्तमान मध्य पूर्व को उपर्युक्त पूरे क्षेत्र /इसे यूरेशियन-बाल्कान नाम उसी का दिया है) पर नियंत्रण की कुंजी मानता था। उसकी रणनीति थी कि अमेरिका को चाहिए कि इस क्षेत्र में कोई स्वतंत्र प्रभावशाली सैन्य शक्ति विकसित न होने पाए। यदि कभी ये पूरे क्षेत्र संगठित होकर एक झंडे के नीचे आ गये, तो अमेरिका को फिर अपने महाद्वीप के मध्य भाग तक सीमित हो जाना पड़ेगा।

यद्यपि बहुत सारे लोग इस ‘ग्रेटर मिडिल ईस्ट‘ की अवधारणा को ही कोई महत्व नहीं देते। वे सवाल उठाते हैं कि ऐसी कौनसी चीज है, जो परस्पर अंतर्विरोधों से जकड़े इस पूरे क्षेत्र को जोड़ सकती है। निश्चय ही इन सारे देशों के हित समान नहीं है, लेकिन इन्हें जोड़ने वाली जो सबसे महत्वपूर्ण शक्ति है, वह है इस्लाम। दुनिया में इस्लाम एक नई करवट ले रहा है। आज स्वतंत्र फलस्तीन राज्य व स्वतंत्र कश्मीर की चर्चा एक साथ की जाती है। इस्लामी देशों के संगठन (ओ.आई.सी.) की बैठकों में फलस्तीन के प्रतिनिधि के साथ कश्मीर के प्रतिनिधि भी आमंत्रित किये जाते हैं।

इसलिए इस समय का एक गंभीर सवाल यह है /जो भारत के लिए भी महत्वपूर्ण है/ कि जब अमेरिकी सेना मध्य पूर्व से बिदा ले लेगी, तब क्या होगा। यह एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब देने से फिलहाल हर कोई कतराता है। मध्य पूर्व- विशेषकर उत्तरी अफ्रीका से यमन तक- के क्षेत्र में तानाशाही राजशाही के खिलाफ जो जनांदोलन भड़का है, उसकी भी नियति के बारे में अभी प्रायः सभी लोग चुप्पी साधे हैं। इनके बारे में एक खुशनुमा कल्पना की जा सकती है कि तानाशाही के खिलाफ उभरा यह जनज्वार लोकशाही का रूप ग्रहण करेगा और इस पूरे क्षेत्र में इस्लामी तानाशही की जगह पश्चिमी शैली का लोकतंत्र स्थापित हो जायेगा। किंतु इसकी संभावना अत्यंत क्षीण है। मिस्र को यदि उदाहरण के तौर पर लें, तो साफ हो जायेगा कि नया उभरा जनांदोलन किसी एक परिवार की तानाशाही की जगह मजहबी तानाशाही की जमीन तैयार कर रहा है। यह कल्पना भी की जा सकती है कि इन क्षेत्रों में सेकुलर लोकतंत्र और मजहबी तानाशाही के बीच कोई युद्ध खड़ा हो सकता है, लेकिन ऐसा कोई लक्षण नहीं नजर आ रहा है। इन देशों में तथाकथित सेकुलर शक्तियां इतनी कमजोर हैं कि वे मजहबी सत्ता कायम करने वालों के खिलाफ खड़े होने का साहस नहीं जुटा सकतीं। इसलिए यह तय है कि इस पूरे क्षेत्र पर इस्लामी तंत्र ही कायम होगा। उनके अपने आंतरिक अंतर्विरोध हो सकते हैं, लेकिन आधुनिक पश्चिमी शैली के लोकतंत्र के मुकाबले वे सभी एकजुट रहेंगे। अब यदि ऐसी एकजुटता विकसित होती है, तो इसका अर्थ है पुराना ओटोमान साम्राज्य फिर स्थापित हो जायेगा।

यद्यपि ठीक-ठीक वही स्थितियां वापस तो नहीं लायी जा सकतीं, जो 20वीं शताब्दी के पूर्व इस क्षेत्र में थीं, लेकिन कमोबेश दुनिया का बंटवारा उसी तरह का हो जायेगा। इस क्षेत्र के इतिहास का थोड़ा-बहुत बोध रखने वाले भी जानते हैं कि किस तरह वैजंटाइन साम्राज्य के खंडहरों पर अनातोलियम वंश का साम्राज्य स्थापित हुआ था और किस तरह ओटोमान्स ने 1453 में कांस्टेटिनोपाल /इस्ताम्बुल/ विजय के साथ इस्लाम का ध्वज इतने उंचे तक पहुंचा दिया था कि जल्दी ही यूरोप का बड़ा हिस्सा भी उसके साये में आ गया था। ओटोमान साम्राज्य यूरोप के भीतर तक पहुंच गया था और बुलगारिया, सर्बिया तथ हंगरी भी उसके दायरे में आ गये थे। काकेसस से लाल सागर के मुहाने तक तथा बगदाद से बसरा तक फैले साम्राज्य की स्थापना के बाद सुलतान सुलेमान ने कहा था, ‘मैं मुसलमानों का सुलतान और सम्राटों का सम्राट हूं।‘ इसे उन्होंने धरती पर ईश्वर की छाया कहा था, जो बढ़ती ही जा रही थी। 17वीं शताब्दी में ओटोमान साम्राज्य क्रेट तथा पश्चिमी यूक्रेन तक फैल गया था। अगली दो शताब्दियां उसके पतन की थीं और प्रथम विश्व युद्ध ने उसके सारे विस्तार को समेट कर ‘तुर्की गणराज्य‘ तक सीमित कर लिया और बाकी को फ्रांस और ब्रिटेन ने बांट लिया। इसके साथ ओटोमान या इस्लामी खलीफा का युग समाप्त हो गया। तुर्की गणराज्य के संस्थापक कमाल अता तुर्क ने साम्राज्य की दिशा ही बदल कर रख दी। उसने उसे पश्चिम के आधुनिक लोकतांत्रिक देशों के साथ जोड़ने की कोशिश की।

लेकिन अब तुर्की फिर बदल रहा है। उसे खिलाफत काल का गौरव लुभा रहा है। वर्ष 2003 के आम चुनाव में जब ‘न्याय और विकास पार्टी‘ (ए.के.पी.) के संस्थापक नेता रिसेप तैय्यिप एर्डोगन चुनाव जीते और देश के राष्ट्रपति का पद्भार संभाला, तो तुर्की एक नये तरह का सपना देखने लगा। बेहद आकर्षक व्यक्तित्व के धनी एर्डोगन के शासन काल में तुर्की ने असाधारण आर्थिक विकास किया। उन्होंने अभी इसी महीने लगातार तीसरी बार चुनाव जीतकर अपनी लोकप्रियता का सिक्का जमाया।

एर्डोगन को ज्यादातर लोग इस्लाम का एक उदार चेहरा मानते हैं, लेकिन वह ‘तुर्की गणराज्य‘ के पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने अपने देश का मुंह यूरोप की तरफ से मोड़कर फिर इस्लामी दुनिया की तरफ किया है। यही एर्डोगन हैं, जिन्होंने अफगानिस्तान से भारत का पांव उखाड़ने और पाकिस्तान को वहां जमाने की भरपूर कोशिश की। इसके लिए उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा और ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरून को भी प्रभावित करने की कोशिश की। वस्तुतः वह तुर्की को सुलेमान की नजर से देखते हैं।

यदि एर्डोगन के पूर्व इतिहास पर नजर डाली जाए, तो उनके व्यक्तित्व और सोच का आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है। अपने राजनीतिक जीवन के शुरुआती दौर में जब वह ‘इस्ताम्बुल‘ के नगर प्रमुख /मेयर/ थे, तब उन्होंने 20वीं शती के तुर्की कवि की इन पंक्तियों को सार्वजनिक तौर पर गाने के लिए जेल की सजा मिली थी। ये पंक्तियां थीं, ‘मस्जिदें हमारे बैरेक हैं, उनके गुम्बद हमारे हेल्मेट, मीनारें हमारे व्योनेट और इस्लाम पर ईमान लाने वाले हमारे सैनिक।‘ जाहिर है उनकी महत्वाकांक्षा अता तुर्क के पहले के उस तुर्की को वापस लाना है, जब तुर्की न केवल एक गर्वोन्नत मुस्लिम देश था, बल्कि एक क्षेत्रीय महाशक्ति था।

वह लगातार उस महत्वाकांक्षा की पूर्ति की दिशा में बढ़ रहे हैं। वह संविधान और न्यायपालिका की कीमत पर अपनी शक्ति बढ़ाने में लगे हैं। इसके लिए वह तुर्की का संविधान भी बदलवाना चाहते हैं। इस तुर्की नेता ने कभी लोकतंत्र की किराये की कार से तुलना की थी। उनका कहना था कि जब आप अपनी जगह पहुंच जाते हैं, तब आप उससे उतर जाते हैं और उसे वहीं छोड़ देते हैं। कोई भी आसानी से इसकी कल्पना कर सकता है कि वह इस कार को कहां तक लेकर जाना चाहते हैं और कहां उसे छोड़ देने की तैयारी में हैं।

तुर्की, ईरान और पाकिस्तान इस समय यूरेशियन-बाल्कान्स और मध्य पूर्व के इस्लामी विश्व का नेतृत्व कर रहे हैं। उनकी इस क्षेत्र से अमेरिका को बाहर करने की रणनीति कामयाब होती नजर आ रही है। इस काम में उनके लिए एक बड़ा मददगार देश चीन मिल गया है।

दुनिया के स्तर पर एक और उल्लेखनीय बात दिखायी देने लगी है, वह है वैश्विकता से फिर राष्ट्रीयता की ओर वापसी। गैर इस्लामी देशों की यह वापसी किसी सिद्धांत पर नहीं, बल्कि शुद्ध स्वार्थ पर आधारित है। उनके लिए सार्वभौमिकता वहीं तक उपयोगी है, जहां तक उनके राष्ट्रीय हित सधते हों या अपनी समृद्धि बढ़ती हो। वे किन्ही मूल्यों या सिद्धांतों- जैसे कि लोकतंत्र, समानता या सेकुलरिज्म के लिए कोई नुकसान नहीं उठाना चाहते। समय की मांग तो यह थी कि पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक देश एकजुट होते और लोकतंत्र विरोधी मजहबी साम्राज्यवाद के खिलाफ वैश्विक संघर्ष का बीड़ा उठाते, लेकिन वे अपनी समृद्धि व सुख-वैभव की रक्षा के लिए अपनी राष्ट्रीयता की संकीर्ण खोल में सिमटते जा रहे हैं।

यूरोपीय देशों ने एक संघ बनाकर क्षेत्रीय एकता का एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया था, लेकिन अब वह भी फिर अपनी राष्ट्रीयताओं की तरफ उलटे पांव चलने लगा है। इधर अपना एक देश भारत है, जिसकी न कोई राष्ट्रीय सोच बन पा रही है, न अंतर्राष्ट्रीय। मूल्यों की बात तो उसे सूझती ही नहीं। कितने अफसोस की बात है कि हम अपनी कश्मीर नीति को कोई ठोस रूप नहीं प्रदान कर सके हैं। हम कश्मीर के सवाल से सीध्े टकराने के बजाए उससे कन्नी काटते नजर आते हैं। यह समझना कोई बहुत मुश्किल नहीं है कि कश्मीर न तो कोई क्षेत्रीय समस्या है और न ही किन्हीं दो देशों के बीच के सीमा विवादकी समस्या। यह अब अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी साम्राज्यवाद की समस्या का अंग बन गया है। पाकिस्तान कश्मीर का मुद्दा उठाता है, तो हम ‘कांफीडेंस बिल्डिंग मेजर‘ का झुनझुना लेकर आगे आते हैं। समझ में नहीं आता हमारे नेतागण क्यों कश्मीर के सवाल से आंखें चुराते फिरते हैं।

अमेरिकी तथा यूरोपीय फौजें यदि पूरी तरह अफगानिस्तान को खाली कर देती हैं, तो भारत का वहां टिकना प्रायः असंभव हो जायेगा। यदि वह अफगानिस्तान को खाली कर देता है, तो पाकिस्तान में भी उसके बने रहने का कोई औचित्य शेष नहीं रहेगा। इराक वह लगभग खाली कर ही चुका है। जाहिर है उस स्थिति में ओटोमान जैसे खलीफा साम्राज्य की स्थापना का राजमार्ग अपने आप खुल जायेगा। यह नया साम्राज्य परमाणु शक्ति संपन्न होगा, तेल समृद्ध होगा और नई टेक्नोलॉजी से भी लैसे होगा, बस अपनी सामाजिक व राजनीतिक सोच में मध्यकालीन होगा।

ऐसा नहीं कि इसके साथ ही मानवीय स्वतंत्रता, उसके मुक्ति चिंतन तथा लोकतंत्र की सारी अवधारणा का अंत हो जायेगा, लेकिन इतना तो सही है कि उनके लिए अपने अस्तित्व रक्षा का संघर्ष काफी कठिन हो जायेगा। सवाल है कि सब कुछ जानते समझते हुए भी हम ऐसा क्यों होने दे रहे हैं ? हम क्यों संघर्ष से पलायन कर रहे हैं ? क्या दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक बुद्धिजीवी व राजनेता इस खतरे को बिल्कुल नहीं देख पा रहे हैं? और यदि देख पा रहे हैं, तो फिर किस दिन की प्रतीक्षा में है? क्यों नहीं साहसपूर्वक आगे आ रहे हैं?

रविवार, 12 जून 2011

संगठित राजनीति और अराजनीतिक समाज




देश में व्यवस्था परिवर्तन की अनुगूंज काफी अर्से से सुनायी पड़ रही है। गैर राजनीतिक नागरिक समाज के दो प्रतिनिधि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव व्यवस्था परिवर्तन के दीर्घकालिक लक्ष्य को लेकर पिछले दिनों सामने आए। उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष को अपना प्राथमिक लक्ष्य चुना और वर्तमान केंद्रीय सरकार के समक्ष लगभग एक साथ एक गहरी चुनौती खड़ी की, लेकिन देश की संगठित राजनीतिक शक्ति तथा राजसत्ता के आगे उनकी एक नहीं चली। उन्होंने अपना संघर्ष छोड़ा नहीं है, लेकिन उनकी विश्वसनीयता और समझदारी खुद संदेह के घेरे में फंस गयी है। अन्ना तो किसी तरह अपनी छवि बचाए रख सके हैं, लेकिन बाबा ने तो स्वतः अपने भगवा तेज का सारा रंग धो दिया है। क्या होगा आगे?



नई क्रांति का संवाहक :  देश का युवा वर्ग



अराजनीतिक बुद्धिजीवी वर्ग जो अपने को नागरिक समाज -सिविल सोसायटी- का प्रतिनिधि तथा देश का स्वायंभू नेता समझता है, इस समय सर्वाधिक दबाव में है। सत्ताधारी राजनेताओं ने उन्हें अपनी औकाम बता दी है। पिछले दिनों अराजनीतिक नागरिक समाज के दो मोर्चे सामने आए, एक का नेतृत्व गांधीवादी समाजसेवी अन्ना हजारे कर रहे थे, तो दूसरे का योग गुरु बाबा रामदेव। अन्ना हजारे के साथ जहां आधुनिक शहरी -मोमबत्ती जलाकर अपने क्षोभ या समर्थन का प्रदर्शन करने वाला- वर्ग जुड़ा, जिनमें विदेशी अनुदानों पर पलने वाले एन.जी.ओ. -तथाकथित गैर सरकारी समाज सेवी संगठन-, लाखों की फीस लेने वाले अधिवक्ता, सेकुलरवाद के ठेकेदार तथा अंतर्राष्ट्र्यतावादी बौद्धिक शामिल थे, तो दूसरी तरफ बाबा रामदेव के साथ ज्यादातर भगवाधरी साधु, स्वदेशाभिमानी राष्ट्र्वादी, संस्कृति प्रेमी, परंपरावादी तथा अपनी ऐतिहासिक व पौराणिक गौरवगाथा से अभिभूत नागरिक समुदाय जुड़ा था। दोनों का लक्ष्य एक था, सिद्धांततः दोनों एक-दूसरे के समर्थक थे, लेकिन चरित्रगत भिन्नता या आचार भिन्नता के कारण दोनों के अलग-अलग मोर्चे बने।

सत्ताधारी संगठन राजनीति ने शुरू में दोनों की लल्लो-चप्पो की। उन्हें भरमा कर शांत करने या अपने पक्ष में करने का प्रयास किया, लेकिन जब वे अपने हठ पर अड़े रहे, तो सत्ताधारी राजनेता भी अपनी असलियत पर उतर आए? उन्होंने दोनों को धता बता दिया। एक को वार्ता कक्ष में निपटा दिया, तो दूसरे को मैदान में मारपीट कर भगा दिया। अब दोनों ही सरकार पर धोखा देने का आरोप लगा रहे हैं और अपनी फरियाद जनता को सुना रहे हैं। लेकिन इस देश की जनता अमूर्त है। उसका मूर्त रूप केवल चुनावों में मतदान के समय सामने आता है। उस समय भी वह इतना विखंडित होता है कि पहचान कर पाना भी कठिन होता है। सामान्य स्थितियों में आम जनता से आशय उस शहरी या ग्रामीण मध्यवर्ग से होता है, जो रैलियों में नारे लगाता है, सभाओं में भीड़ बनता है, अन्यथा संपूर्ण राजनीति का मूकद्रष्टा होता है।

प्रायः यह कहा जाता है कि लोकतंत्र में मालिक जनता होती है, सत्ता में बैठे नेता या मंत्री उसके सेवक होते हैं। अन्ना हजारे भी यह दोहराते नहीं थकते कि 26 जनवरी 1950 को जबसे लोकतांत्रिक संविधान लागू हुआ, तबसे इस देश की आम जनता को पूरे देश के स्वामित्व का अधिकार मिल गया और सत्ताधारी जनप्रतिनिधि उसके सेवक हो गये। उनके अनुसार गलती यह हो गयी कि व्यवहार में यह सारी धारणा ही बदल गयी। जो सेवक थे, वे मालिक बन बैठे और जो मालिक थ, वह अधिकारविहीन सेवक बन गया। अब समय आ गया है कि व्यवस्था में हुए इस उलटफेर को बदला जाए और शीर्षासन की अवस्था में बदल गयी इस व्यवस्था को फिर से सीधा किय जाए।

लेकिन वास्तव में यदि तथ्यपकर ढंग से देखा जाए, तो उपर्युक्त अवधारणा सही नहीं है। जबसे संविधान लागू हुआ, देश की स्वामी निश्चय ही इस देश की मताधिकार प्राप्त जनता बन गयी, लेकिन देश की पूरी जनसंख्या मिलकर न तो देश का शासन चला सकती है और न कोई निर्णय ले सकती है, इसलिए उनके प्रतिनिधियों के चयन की व्यवस्था की गयी। चुनावों में आम जनता अपना सेवक नहीं अपना प्रतिनिधि चुनती है। इसलिए निर्वाचित प्रतिनिधि जनता का सेवक नहीं, बल्कि अपने निर्वाचन क्षेत्र की संपूर्ण जनता का लघु रूप होता है। इसलिए देश की संसद जनसेवकों का मंडल नहीं, बल्कि संपूर्ण देश की जनता का प्रतिरूप होता है। उसकी आवाज पूरे देश की जनता की आवाज होती है। अगला चुनाव होने तक संसद ही आम जनता होती है, उससे अलग आम जनता की देश के संचालन में कोई विधिक भूमिका नहीं रह जाती। वस्तुतः संवैधानिक दृष्टि से अफसरों और कर्मचारियों का समुदाय जनसेवक होता है, जो देश के निर्वाचित प्रतिनिधियों के अधीन उनके निर्देशानुसार काम करता है। जब कोई निर्वाचित प्रतिनिधि कोई प्रशासनिक पद ग्रहण कर लेता है, तो वह भी जनसेवक वर्ग में आ जाता है और निर्वाचित सदन के प्रति जवाबदेह बन जाता है। यहां फिर यह स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए कि उसकी जवाबदेही केवल सदन के प्रति होती है, न कि आम जनता के विविध समूहों के प्रति। यहां आप सवाल कर सकते हैं कि फिर ये निर्वाचित प्रतिनिधि अपने को समाज में जनसेवक की तरह क्यों प्रस्तुत करते हैं, तो इसका जवाब है कि देश की भोली भाली आम जनता को मूर्ख बनाकर उनका वोट पाने के लिए वे इस तरह नाटक करते हैं।

अभी प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक ‘द हिन्दू’ में प्रकाशित एक साक्षात्कार में कांग्रेस के नेता व केंद्री राज्य मंत्री अश्विनी कुमार ने कहा कि ‘वास्तविक लोकतांत्रिक देश में सरकार पूरे राष्ट्र् की आकांक्षाओं का -जिनमें सिविल सोसायटी’ के सारे संगठन भी शमिल हैं- प्रतिनिधित्व करती है। लोकतांत्रिक शासन में लोकतांत्रिक ढंग से स्थापित सरकार के मुकाबले किसी ‘सिविल सोसायटी’ को खड़ा करने की कोई जगह नहीं है। यदि ऐसा किया जायेगा, तो हम सीधे अराजकता की स्थिति में जा गिरेंगे।’ इस पर उनसे पूछा गया, तो क्या लोकतंत्र में जनांदोलनों के लिए कोई जगह नहीं है, तो उनका जवाब था कि शांतिपूर्ण विरोध निश्चय ही जनता के मूल अधिकारों में शामिल है, लेकिन यह केवल उस स्थिति में होना चाहिए, जब सरकार जनता की बात कतई न सुनने के लिए तैयार ही नहीं। जब हम उसकी बात सुनने और मानने के लिए तैयार हैं, फिर किसी आंदोलन की जरूरत क्यों। उन्होंने अन्ना हजारे और रामदेव का उदाहरण देते हुए कहा कि सरकार ने सिद्धांततः दोनों की बातें मान लीं और उस पर कार्रवाई भी शुरू कर दी। बाबा रामदेव को मनाने के लिए तो सरकार के चार-चार वरिष्ठ मंत्री हवाई अड्डे पर उनसे बातचीत करने के लिए पहुंचे। इसके बाद भी आंदोलन को आगे बढ़ाने का क्या औचित्य था।

ऐसी बात नहीं कि इस साक्षात्कार में प्रस्तुत अश्विनी कुमार की सारी दलीलें बहुत तर्कसंगत रही हों, लेकिन उनकी उपर्युक्त बातें अपनी सीमा में अवश्य तर्कसंगत थीं। अन्ना हजारे या बाबा रामदेव की बातें उसने सुनी, लेकिन उन्हें मानने के लिए बाध्य तो नहीं। बाबा रामदेव या अन्ना हजारे को देश की संपूर्ण जनता का प्रतिनिधि कैसे माना जा सकता है। वे कितनी भी उचित मांगें क्यों ना उठा रहे हों, लेकिन उनकी अपनी स्थिति एक ‘दबाव समूह’ -प्रेशर ग्रुप- से अधिक तो नहीं है। वे यदि सरकार के कार्यों से या उसकी नीतियों से सहमत नहीं हैं, तो उन्हें जन जागरण का अभियान चलाना चाहिए और अगले चुनावों तक प्रतीक्षा करनी चाहिए। और किसी तात्कालिक राहत की जरूरत हो, तो न्यायालय की शरण में जाना चाहिए।

अगर हम देश की वर्तमान राजनीतिक स्थिति या अब तक के लोकतांत्रिक शासन के इतिहास पर नजर डालें, तो यह बात बहुत साफ हो जाएगी कि हम अपने जिस संविधान की दुहाई देकर जनता के अपने अधिकारों की रक्षा की बात करते हैं, वह संविधान ही उन अधिकारों को छीनने का सबसे बड़ा साधन है। और आश्चर्य है कि इस संविधान को बदलने की बात कोई नहीं करता। हम लोग सिद्धांततः लोकतंत्र में विधायिका की सर्वोच्चता की बात करते हैं और मानते हैं कि प्रशासिक -इक्जीक्यूटिव- उसके नियंत्रण् में उसके अंतर्गत काम करती है, लेकिन व्यावहारिक स्थिति यह है कि यहां विधायिका प्रशासिका के नियंत्रण में काम करती है। संसद को सरकार संचालित करती है। अपने देश के संविधान में पार्टी तंत्र की कोई अवधारणा नहीं है। संविधान के अनुसार संसद या विधानसभाओं के सदस्य अपने निर्वाचन क्षेत्रों के प्रतिनिधि होते हैं। वे अपने निर्वाचकों द्वारा दी गयी शक्ति के अनुसार काम करते हैं और सदन के अतिरिक्त अपने निर्वाचन क्षेत्र के प्रति जवाबदेह होते हैं। किंतु व्यवहार में हर सांसद या विधायक अपनी पार्टी या पार्टी नेता का प्रतिनिधि होता है, उसी के प्रति जवाबदेह होता है और उसके हित में काम करता है। मतदान करने के बाद क्षेत्र के निर्वाचक जनता का अपने प्रतिनिधि पर कोई नियंत्रण् नहीं रह जाता। अगली बार वह उसे बदलने का भी विचार करे, तो वह निर्वाचन क्षेत्र बदलकर चुनाव लड़ सकता है और जनता उसे चाहती हो या नहीं, वह अपनी पार्टी के सहारे चुनाव जीत सकता है।

इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब यह हुआ कि इस देश के नागरिकों के भी दो राजनीतिक वर्ग है। एक वर्ग है संगठित राजनीतिक दलों का औश्र एक उनका जो किसी भी राजनीतिक संगठन में नहीं है। वे असंगठित हैं या अराजीतिक संगठनों के सदस्य हैं।

आर्थिक विकास तथा शिक्षा के प्रसार के साथ देश में जिस मध्य वर्ग का विस्तार हो रहा है, उसमें ऐसे मुखर नागरिकों की संख्या बढ़ रही है, जो देश की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था तथा राजनेताओं के आचरण से बहुत क्षुब्ध है और उसमें व्यापक परिवर्तन चाहते हैं, लेकिन उसे यह बात अभी समझ में नहीं आ रही है कि अराजनीतिक तरीकों से राजनीतिक परिवर्तन नहीं लाए जा सकते। राजनीतिक परिवर्तनों के लिए राजनीतिक तरीके भी अपनाने पड़ेंगे। धरना, प्रदर्शन व भूख हड़ताल करके सत्ता तो बदली जा सकती है, लेकिन व्यवस्था परिवर्तन नहीं हो सकता। जैसे धरना, प्रदर्शन तथा हिंसक-अहिंसक आंदोलन करके अंग्रेजों को सत्ता से हटाकर देश से बाहर कर दिया, लेकिन सत्ता परिवर्तन से भी व्यवस्था नहीं बदली। कारण साफ था कि अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे लोगों के पास न अपनी कोेई वैकल्पिक व्यवस्था थी, न कोई वैकल्पिक राजनीतिक सिद्धांत, इसलिए स्वतंत्र भारत का शासन तंत्र भी वैसा ही बना रहा, जैसा गुलाम भारत का था, बल्कि कुछ देशी विकृतियां उसमें घुस गयीं। जैसे जातिवाद और संप्रदायवाद ने स्वतंत्र भारत में वैध राजनीतिक सिद्धांतों का रूप ले लिया।

कांग्रेस ने तो अपने विरोधियों को ध्वस्त करने के लिए सांप्रदायिकता को अपना सबसे बड़ा हथियार बना लिया है, जिसे वह देश में लोकतांत्रिक संविधान लागू होने के बाद 1952 में हुए प्रथम आम चुनावों से लेकर अब तक इस्तेमाल करती आ रही है। ताजा उदाहरण सबके सामने है, जब भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना हजारे और बाबा रामदेव दोनों के आंदोलनों को उसने सांप्रदायिकता की डोरी से जोड़ दिया कि ये दोनों ही सांप्रदायिक शक्तियों के हाथ में खेल रहे हैं और वर्तमान सरकार को गिराने की साजिश कर रहे हैं। बेचारे गांधीवादी अन्ना हजारे भगवा छाया से बचने के लिए कितने द्रविण प्राणायाम कर डाले, लेकिन वह उनका पीछा नहीं छोड़ रहा है। और इधर बाबा रामदेव तो खैर उस रंग में रंगे ही हुए हैं। अपने को सेकुलर सिद्ध करने के लिए उन्होंने कम कसरत नहीं की। उन्होंने अपने मंच पर सर्व धर्म अखाड़ा कायम किया। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई कम से कम इन चार के प्रतिनिधियों को तो वहां जमाया ही, लेकिन इससे कोई लाभ नहीं हुआ। उन्हें हिन्दू सांप्रदायिक ही नहीं, हिंसक हिन्दू सांप्रदायिक घोषित कर दिया गया, क्योंकि उन्होंने 11,000 युवक-युवतियों की एक सशस्त्र सेना बनाने की बात कर डाली। इससे गांधीवादी अन्ना हजारे ही नहीं सैद्धांतिक लोकतंत्रवादी भी बिदक गये।

उच्च स्तरीय राजनीतिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध उभरे दोनों अराजनीतिक केंद्र बिखर गये। अन्ना हजारे का तो एजेंडा ही बहुत सीमित था। वह एक ऐसा जन लोकपाल नियुक्त करना चाहते हैं, जो प्रधानमंत्री व मुख्य न्यायाधीश से लेकर सारे सांसदों और अफसरों के विरुद्ध भ्रष्टाचार की शिकायतों की जांच कर सके और उन्हें सजा भी दिला सके। उन्होंने अपनी तरफ से ऐसे जन लोकपाल की नियुक्ति के लिए एक कानून का प्रारूप तैयार किया है। यह प्रारूप सरकार को स्वीकार नहीं। सरकार ने भी प्रारूप तैयार किया है, जो अन्ना और उनकी मंडली को स्वीकार नहीं। अब सरकारी मंडली और अन्ना मंडली में बातचीत चल रही है। विधेयक वही पास होगा, जो कांग्रेस चाहेगी, फिर उसके प्रारूप पर अन्ना इतना सिर क्यों पीट रहे हैं। उनकी सिविल सोसायटी को विधेयक पास करने या कानून बनाने का तो कोई अधिकार नहीं, वह तो संसद व सरकार के पास है, तो बात को उस पर छोड़ देना चाहिए। अन्ना यह भी कहते हैं कि संसद जो भी प्रारूप पास करेगी, वह उन्हें स्वीकार होगा। लेकिन वे इस बात पर क्यों ध्यान नहीं देते कि संसद वही पास करेगी, जो कांग्रेस चाहेगी, क्योंकि वहां उसी का बहुमत है। संसद का बहुमत कांग्रेस के मत से कोई भिन्न चीज नहीं है।

उधर बाबा रामदेव ने अपनी सारी नैतिक क्षमता और लोकप्रियता की शक्ति स्वयं नष्ट कर ली। देश भर में भारत स्वाभिमान की आंधी खड़ी करने वाला प्रकाश पुंज 4 जून की शाम से ही अपना तेज इस तरह खोने लगा है कि 5 जून तक एकदम अंधेरे में डूब गया। यह देश वीरता और त्याग का पुजारी है। भगवा वस्त्र के सामने अभी भी वह नतमस्तक हो जाता है, तो केवल इसलिए कि वह त्याग, बलिदान, साहस और वीरता का प्रतीक है। लेकिन बाबा ने कुछ घंटों में ही सब कुछ धो दिया। उन्होंने योग की प्रतिष्ठा भी नष्ट कर दी। योग साधना तो व्यक्ति को निडर-निर्भय बनाती है, मृत्यु भय से मुक्त करती है, लेकिन रामदेव की अब तक की योग साधना ने ऐसा कुछ नहीं किया। उन्होंने तो भगवान पतंजलि का नाम भी बदनाम कर दिया। राजनीतिक नासमझी तथा लोकप्रियता और धन बल के अहंकार ने उन्हें नष्ट कर दिया।

खैर, अन्ना और रामदेव का अध्याय खत्म हो चुका है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि देश में भ्रष्टाचार के विरोध का मुद्दा डूब गया है या कांग्रेस की केंद्रीय सरकार का मार्ग निष्कंटक हो गया है। कांग्रेस के अपने ही दल के एक मंत्री ए.के. एंटोनी ने कहा है कि देश में पारदर्शिता क्रांति का युग आने वाला है, जब गोपनीयता की सारी दीवारें ढह जायेंगी। लेकिन इसके साथ ही उन्होंने यह अफसोस भी व्यक्त किया है कि इस देश के नेता, मंत्री तथा बड़े अफसर इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। गोपनीयता की दीवार टूटेगी तो भ्रष्टाचार का गढ़ अपने आप ढहना शुरू हो जायेगा। इस देश की राजनीति भी बदलेगी, संविधान भी बदलेगा और राजनेताओं का चरित्र भी बदलेगा। यह परिवर्तन समय चक्र खुद लायेगा और निमित्त बनेगी वह पीढ़ी, जो एक बेहतर जीवन और बेहतर भविष्य की आकांक्षी है और जिसे वर्तमान राजनीतिक पीढ़ी का छल-छद्म, संकीर्ण स्वार्थ और आचार भ्रष्टता स्वीकार नहीं है।(12-6-201)