शनिवार, 25 सितंबर 2010

अयोध्या विवाद -1

अयोध्या विवाद में फैसले की घड़ी

अयोध्या के मंदिर-मस्जिद मामले में वर्तमान कानूनी विवाद भले मात्र 60 साल का है, लेकिन वास्तविक विवाद 482 वर्ष पुराना है, जब पहली बार मंदिर तोड़कर वहां मस्जिद तामिर की गयी थी। इतने लंबे संघर्ष के बाद पहली बार ऐसा अवसर आया है, जब एक उंूची अदालत ने घोषणा की है कि 24 सितंबर 2010 को अपराह्न 3 बजकर 30 मिनट पर अपना फैसला सुना देगी कि उस विवादित स्थल पर वास्तविक मालिकाना हक किसका है। हिन्दू निश्चय ही इससे बहुत आशान्वित हैं, क्योंकि प्रायः सारे ऐतिहासिक प्रमाण उसके पक्ष में हैं, लेकिन यदि फैसला विपरीत दिशा में भी जाता है, तो स्थिति में केवल इतना बदलाव आएगा कि देश के हिन्दू समाज का वर्तमान न्यायपालिका की न्याय करने की क्षमता पर से विश्वास उठ जाएगा। इस विवाद में आगे का अध्याय अब 24 सितंबर के बाद लिखा जाएगा। देखना है उस अध्याय की इबारतें किस तरह की स्याही से लिखी जाती हैं।






अयोध्या के मंदिर-मस्जिद विवाद में पहली बार कोई न्यायिक फैसला आने जा रहा है। उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनउू पीठ ने लंबी सुनवाई के बाद घोषणा की है कि वह 24 सितंबर को अपराह्न 3 बजकर 30 मिनट पर अपना फैसला सुना देगी। फैसला क्या आएगा, यह अनुमान लगाना कठिन है, क्योंकि विवाद इतना उलझा हुआ है कि इस मामले में कानूनों से अधिक न्यायाधीशों का विवेक महत्वपूर्ण हो गया है।

इस मामले की सुनवाई के लिए गठित त्रिसदस्यीय विशेष पीठ में न्यायमूर्ति एस.यू. खान, न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल एवं न्यायमूर्ति डी.वी. शर्मा शामिल हैं। प्रायः पूरा देश अब उनके फैसले की प्रतीक्षा में है। हिन्दू पक्ष यद्यपि यह नहीं मानता कि अयोध्या के मंदिर-मस्जिद विवाद का फैसला किसी अदालत द्वारा वर्तमान मालिकाना हक वाले कानूनों के अंतर्गत नहीं हो सकता, फिर भी उसे भरोसा है कि यदि विवेक सम्मत न्याय होगा, तो फैसला उसके पक्ष में ही जाएगा, इसलिए वह भी फैसले की प्रतीक्षा में है। दूसरी तरफ मुस्लिम पक्ष भी बहुत कुछ आश्वस्त है कि फैसला उसके हक में जाएगा। क्योंकि यह अकाट्य तथ्य है कि मौके पर मस्जिद बनी हुई थी, जो बाबरी मस्जिद के नाम पर विख्यात थी। 1949 में कुछ हिन्दुओं ने यदि उसमें प्रतिमा स्थापित कर दी, तो मालिकाना हक उनके पक्ष में नहीं जा सकता। मस्जिद का बना होना ही उनके मालिकाना हक का प्रमाण है। इसलिए प्रायः सभी मुस्लिम संगठन एक स्वर में कह रहे हैं कि अदालत का जो भी फैसला आएगा, वह उन्हें मान्य होगा।

फैसला जो भी होगा, लेकिन वह किसी एक के ही पक्ष में जाएगा और दूसरा पक्ष निराश होगा। वैसे ऐसा भी फैसला आ सकता है, जिससे कोई भी संतुष्ट न हो। जो भी हो, लेकिन फैसला जिसके विरोध में जाएगा, उसके लिए सर्वोच्च न्यायालय में जाने का खुला अवसर रहेगा। इसलिए यह तय है कि 24 सितंबर को आने वाले फैसले से विवाद का अंत होने वाला नहीं है, कानूनी लड़ाई का अंतिम मुकाबला निश्चय ही सर्वोच्च न्यायालय में होगा।

अब असली समस्या यह है कि क्या जो भी फैसला आएगा, उसे दोनों पक्ष शांतिपूर्वक स्वीकार कर लेंगे और यदि पराजित पक्ष सर्वोच्च न्यायालय की शरण में जाता है, तो विजेता पक्ष भी बिना कोई हंगामा किये आगे की लड़ाई सर्वोच्च न्यायालय में लड़ेगा और फिर उसके फैसले की प्रतीक्षा करेगा। अभी तो दोनों ही पक्ष यह कह रहे हैं कि 24 तारीख के फैसले पर हंगामा नहीं होगा। राष्ट्र्ीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि हम तो यही चाहते हैं कि रामजन्म भूमि स्थल पर राम का मंदिर ही बने लेकिन 24 तारीख का जो भी फैसला आता है, उस पर देश के कानून, संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत ही अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के नेताओं ने भी शांति बनाए रखने का वायदा किया है और कहा है कि फैसला यदि उनके खिलाफ जाता है, तो वे उसके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील करेंगे। देश के तमाम मुस्लिम संगठनों ने भी अपने समाज से अपील की है कि फैसला जो भी आए, लेकिन शांति बनाए रखें। इसलिए यदि दोनों पक्ष विवेकपूर्ण संयम बनाए रखें, तो शांति भंग की कोई आशंका नहीं पैदा हो सकती, लेकिन सामाजिक प्रतिक्रियाएं प्रायः इस तरह की अपीलों के अनुसार नहीं होतीं, इसलिए सरकार को किसी भी स्थिति से निपटने के लिए सचेत रहना पड़ता है।

फैसला यदि मान लें हिन्दुओं के पक्ष में जाता है, तो फौरन मंदिर निर्माण कराये जाने की मांग उठने लगेगी। कोई भी इसकी प्रतीक्षा नहीं करेगा कि अभी आगे सुप्रीम कोर्ट भी है, उसका फैसला ही अंतिम होगा, इसलिए मंदिर निर्माण के लिए उसका फैसला आने तक प्रतीक्षा करनी होगी। और यदि फैसला मुस्लिमों के पक्ष में हुआ, तो फौरन उनकी तरफ से बाबरी मस्जिद के पुनर्निर्माण की आवाज उठने लगेगी, जबकि हिन्दू पक्ष अदालती प्रक्रिया में ही अविश्वास व्यक्त करने लगेगा। हिन्दू पक्ष की बात इस फैसले से पुष्ट हो जाएगी कि न्यायालय इस मामले में कोई फैसला नहीं कर सकता। हिन्दुओं की तरफ से कोई व्यक्ति सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने जा सकता है, लेकिन व्यापक हिन्दू समाज, सड़कों पर उतरने का ही फैसला करेगा। बड़ी संख्या में लोगों का सड़कों पर उतरना लोकतांत्रिक अधिकार तो कहा जा सकता है, लेकिन इससे शांति भंग का खतरा तो अवश्य रहेगा।

न्यायालय के सामने जो ‘टाइटिल सूट’ पेश है, उसमें उसे यही फैसला करना है कि उस जमीन पर मालिकाना हक किसका है, जिस पर तथाकथित बाबरी मस्जिद खड़ी थी। इस क्रम में उसे 2-3 और प्रश्नों का जवाब देना होगा, जैसे क्या यह राम का जन्म स्थान है ? क्या उस स्थान पर मस्जिद निर्माण के पूर्व कोई मंदिर था? क्या उस मंदिर को तोड़कर बाबर ने उस मस्जिद का निर्माण कराया था? इत्यादि। इसमें से पहले प्रश्न का उत्तर तो लगभग असंभव है। कोई न्यायालय कोई इतिहासविद, कोई पुरातत्वज्ञ यह नहीं बता सकता कि राम का जन्म उसी स्थल पर हुआ था या कहीं अन्यत्र। तीसरे प्रश्न का उत्तर देना भी आसान नहीं है। यह प्रमाणित करना अत्यंत दुश्कर है कि बाबर ने ही मंदिर तुड़वाकर मस्जिद बनवाया।

अदालत यह प्रमाणित भी कर दे कि मस्जिद का निर्माण जिस भूमि पर हुआ था, वहां पहले कोई मंदिर था, तो भी यह प्रमाणित करना प्रायः असंभव होगा कि उस मंदिर को तोड़वाया भी बाबर ने ही था। यहां यह तर्क दिया जा सकता है कि मंदिर तोड़वाने का काम किसी और ने किया होगा या वह स्वयं गिर गया होगा और बाबर ने वहां एक उूंची व अच्छी जगह देखकर मस्जिद बनवा दी होगी।

मस्जिद स्थल पर मंदिर होने के पुरातात्विक प्रमाणों को इसी तरह के तर्कों से मुस्लिम पक्ष पहले ही खारिज कर चुका है। तब सवाल उठता है कि आखिर फिर अदालत के फैसले का मुख्य आधार क्या होगा। यदि वह साहित्यिक व पुरातात्विक तथ्यों तथा पारंपरिक विश्वासों को प्रमाण नहीं मानता, तो क्या वह केवल इस आधार पर मुस्लिम पक्ष में फैसला दे देगा कि चूंकि वहां मस्जिद खड़ी थी और मस्जिद 400 साल से अधिक पुरानी थी, इसलिए उस स्थल का मालिकाना हक मुस्लिम समुदाय के पक्ष में जाता है।

यहां यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि हिन्दू पक्ष उस स्थल पर अपना दावा नहीं छोड़ सकता। अदालत के निर्णयकी प्रतीक्षा केवल इसलिए है कि शायद वह उस अन्याय को मिटा दे, जो अब तक हिन्दुओं के साथ होता आ रहा है, लेकिन यदि इस फैसले में भी हिन्दुओं को न्याय नहीं मिला, तो फिर कम से कम इस मामले में तो न्यायालय की न्याय करने की क्षमता से उसका विश्वास उठ जाएगा।

सच्चाई यह है कि तथाकथित बाबरी मस्जिद स्वयं इस बात की प्रमाण थी कि उसे किसी मंदिर को तोड़कर बनवाया गया है। और मंदिर तोड़ने वाला व्यक्ति भी वही था, जिसने मस्जिद का निर्माण कराया। क्योंकि मंदिर के कुछ अंश ‘विजय दर्प’ की निशानी के तौर पर उस मस्जिद में लगवाये गये। कंकड़, रोड़ों व चूने-गारे से बनी उस मस्जिद में लगे काले पत्थर के स्तंभ उस मंदिर की कहानी कहते थे, जिसे तोड़कर मस्जिद का निर्माण हुआ था। मस्जिद के काले पत्थर के ऐसे 14 स्तंभ लगे थे, जिन पर मूर्तियां उत्कीर्ण थी और जिनकी मस्जिद की संरचना से कोई मेल नहीं था। ये निश्चय ही हिन्दुओं को लगातार उनके पराजय का बोध कराने के लिए लगाये गये थे।

दिसंबर 1992 में जब तथाकथित उस बाबरी ढांचे का ध्वंस हुआ, तो उसके मलबे में से एक अभिलेख भी मिला, जो 11वीं शती का है। बलुए पत्थर के एक शिलापट पर अंकित इस अभिलेख के अनुसार गहड़वाल नरेश गोविंद चंद्र के राजयकाल (1114-1154ईसवी) में यहां एक विष्णु हरि के मंदिर का निर्माण कराया गया। इसके पूर्व 1990 में जमीन के समतलीकरण के दौरान करीब 39 पुरावशेष ऐसे मिले, जो किसी मंदिर के टुकड़े हो सकते हैं। अदालत के आदेश पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा गराये गये वैज्ञानिक उत्खनन से भी यह प्रमाणित हो चुका है कि उपर्युक्त मस्जिद के नीचे किसी पुराने भवन के फर्श के कम से कम दो स्तर और मौजूद थे। वह फर्श किसी मंदिर की थी या नहीं, इस पर तो विवाद हो सकता है, किंतु इससे इतना तो प्रमाणित हो ही जाता है कि मस्जिद का निर्माण किसी खाली जमीन पर नहीं हुआ था।

अब तक इस मंदिर-मस्जिद विवाद पर असंख्य शब्द लिखे जा रहे हैं। मंदिर के पक्ष में अनगिनत प्रमाण दिये जा चुके हैं। स्वयं अनेक मुस्लिम लेखकों की पुस्तकों के पृष्ठ उद्घृत किये जा चुके हैं, जिसमें गर्वपूर्वक उल्लेख किया गया है कि बाबर ने या उसके कहने पर किसी और ने वहां स्थित मंदिर को ध्वस्त करके मस्जिद का निर्माण कराया। फिर भी यदि अदालत सच्चाई को अपने फैसले का विषय नहीं बना सकती, तो यही मानना पड़ेगा कि सत्ता की राजनीति के साथ अदालतों का भी गठजोड़ हो गया है।

हिन्दू पक्ष को निश्चय ही 24 सितंबर के फैसले की शांतिपूर्वक प्रतीक्षा करनी चाहिए, लेकिन यदि फैसले में सत्य की उपेक्षा होती है, तो उसे सर्वोच्च न्यायालय में न्याय की भीख मांगने कतई नहीं जाना चाहिए। उसे सरकार पर राजनीतिक दबाव बनाने का यत्न करना चाहिए कि वह स्वयं राजनीतिक स्तर पर इस विवाद का फैसला करे।

सच कहा जाए तो इसमें विवाद जैसा कुछ है ही नहीं। सारा मामला आइने की तरह साफ है। अयोध्या, काशी और मथुरा के मंदिर तोड़कर बनायी गयी मस्जिदें अपनी कहानी स्वयं चिल्ला चिल्ला कर बयान कर रही हैं। जरूरत केवल उस चिल्लाहट को सुनने वाले कानों और देख सकने वाली आंखें की है। अयोध्या की तथाकथित मस्जिद अब नहीं है, लेकिन उसके चित्र और विवरण अभी भी विद्यमान हैं। पारिस्थितिक साक्ष्य भी यही बयान करते हैं कि मस्जिद के स्थल पर पहले मंदिर था।

आज का सवाल यह नहीं है कि राम कभी पैदा हुए थे या नहीं, और यदि पैदा हुए थे तो कहां ? और यदि अयोध्या में पैदा हुए थे, तो क्या उसी स्थल पर, जहां कि वह मस्जिद बनी थी। सवाल यह भी नहीं है कि मंदिर को किसने तोड़ा या मस्जिद को किसने बनवाया। बनवाने वाला बाबर था, मीर बांकी था या मूसा आसिकान अथवा कोई अन्य। सवाल केवल यह है कि विवादित स्थल पर एक मंदिर था, जिसे तोड़कर वहां मस्जिद बनायी गयी। मंदिर से जुड़ा हिन्दू समाज तब से लगातार उस मंदिर स्थल को पाने के लिए संघर्ष करता आ रहा है, लेकिन उसे न्याय अब तक नहीं मिल पा रहा है।

पहली बार एक अवसर आया है, जब एक उची अदालत ने इस बारे में फैसला देने की घोषणा की है। अगर उसका फैसला हिन्दुओं के पक्ष में आता है, तो अच्छी बात है, लेकिन यदि फैसला विपरीत दिश में जाता है, तो भी उसका पक्ष बदलने वाला नहीं है। कानून का हर फैसला न्यायपूर्ण हो यह जरूरी नहीं। हिन्दुओं को कानूनी फैसला नहीं, बल्कि वह न्याय चाहिए, जो उससे छीन लिया गया है।

सोमवार, 6 सितंबर 2010

इस सृष्टि का रचयिता

 इस सृष्टि का रचयिता कोई ईश्वर नहीं , स्वयं यह सृष्टि है




पश्चिमी धर्म-दर्शन में ईश्वर -गॉड- को इस सृष्टि से परे माना जाता है, जिसकी इच्छा से इस विश्व-ब्र्रह्मांड की रचना होती है और उसकी इच्छा से ही इसका अंत भी हो जाता है। जबकि भारतीय अद्वैत दर्शन की दृष्टि में यह सृष्टि स्वयं परमात्मा या ब्रह्म (गॉड) का आत्मविस्तार है। यानी यह सृष्टि अपने संपूर्ण रूप में स्वयं ब्रह्म या स्वयं स्रष्टा है। यही बात अब आज के विश्व प्रसिद्ध भौतिकीविद स्टिफेन हाकिंग ने गणित और भौतिकी के वैज्ञानिक सूत्रों से प्रमाणित की है। उन्होंने अपनी नई पुस्तक ‘द ग्रैंड डिजाइन’ में यह प्रमाणित किया है कि इस सृष्टि का रचयिता कोई ईश्वर नहीं है, यह स्वयं अपने प्राकृतिक नियमों से उत्पन्न हुई है। उन्होंने यह भी सिद्ध किया है कि इस विराट ब्रह्मांड का जन्म नितांत शून्य (नथिंगनेस) से हुआ है और यह पुनः उसी शून्य (नथिंगनेस) में विलीन हो जाएगी। और यह चक्र अनंतकाल तक चलता रहेगा। ऐसा क्यों हो रहा है, इसका उत्तर उनके पास नहीं है, लेकिन इस बात का तो पक्का प्रमाण है कि इस सृष्टि से परे किसी ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है।





यह संपूर्ण सृष्टि, यह विश्व ब्रह्मांड क्या है? यह कैसे बना? उसका निर्माता कौन है ? उसने इसे क्यों बनाया? जैसे प्रश्न अनादिकाल से मानव मस्तिष्क में उठते आ रहे हैं, लेकिन इनका अंतिम उत्तर अब तक नहीं मिल सका है। तमाम वैज्ञानिकों, दार्शनिकों व तत्ववेत्ताओं ने अपने-अपने ढंग से इनका उत्तर देने का प्रयत्न किया है, किंतु कोई भी उत्तर संदेहों से परे नहीं है। अपनी सारी बौद्धिक क्षमता इस्तेमाल करने के बाद भी सृष्टि का रहस्य जानने में असमर्थ मनुष्य ने एक ऐसे अज्ञात लेकिन सर्वशक्तिमान व्यक्ति की कल्पना की, जो कुछ भी कर सकता है। इस संपूर्ण ब्रह्मांड जैसे कितने भी ब्रह्मांड बना सकता है और नष्ट कर सकता है। इस व्यक्ति की कल्पना करेन के बाद मनुष्य ने सुकून की सांस ली। उसने घोषित कर दिया कि इस सृष्टि की रचना उसी ने की है- उसे परमात्मा, गॉड, अल्लाह आदि की संज्ञा दी गयी। उसने इसे कैसे बनाया, क्यों बनाया, किस चीज से बनाया है और इसका अंत क्या होगा, यह सब वही जाने। मान लिया गया कि यह सब जानना मानव बुद्धि के परे है, लेकिन यह सब मानने के बाद भी मानव बुद्धि की शांति थोड़े समय ही रह सकी। संसार की तमाम समस्याएं तकलीफों, क्रूरताएं फिर उसे मथने लगीं। संसार में चारों तरफ जितना सुख नहीं है, उससे ज्यादा दुख है। बुढ़ापा, बीमारी, मौत और भूख प्यास से विकल मनुष्य इन सबसे छुटकारा पाने के बारे में सोचने लगा। अब इन सबके कारणों की व्याख्या आवश्यक हो गयी। इसके लिए तरह-तरह की अटकलें लगाने के अलावा और कोई चारा नहीं था।

ज्यादा सोच-विचार की क्षमता रखने वाले इसे लेकर ‘ईश्वर’ या ‘गॉड’ के स्वरूप, उसके स्वभाव तथा मनुष्य के आचरण व व्यवहार की व्याख्या करने लगे। सृष्टि के रचयिता ईश्वर को तो अत्यंत कृपालु, दयालु बताया गया, तो मनुष्य के दुखों के लिए एक शैतान की कल्पना कर ली गयी। ईश्वर को न्यायकर्ता तथा कर्मों के अनुसार फल देने वाला बताया जाने लगा। मनुष्य के दुखाों तथा उसकी दुर्दशा के लिए उसके कर्मों को जिम्मेदार ठहराया जाने लगा। इस जन्म की स्थिति के लिए पूर्व जन्म की कल्पना की गयी और उस जनम के कर्मों के अनुसार इस जन्म की अच्छी या बुरी दशा की व्याख्या की जाने लगी। पाप को अन्याय अथवा कदाचार को दुखों का कारण बताया गया। यह भी कल्पना की गयी कि ईश्वर यदि सर्वशक्तिमान है, तो वह पापों को क्षमा भी कर सकता है। लेकिन वह अकारण किसी के पापों को क्षमा क्यों करे, इसलिए उसे प्रसन्न करने के लिए उसकी पूजा, उपासना या प्रार्थना का उपदेश दिया जाने लगा।

वस्तुतः यह सब मिथ्या तथा कल्पित था, लेकिन इस तरह के उपदेश करने वालों को ज्ञानी व सिद्ध समझा जाने लगा। उनके अनुयायियों के पंथ चल पड़े। कोई अपने को ईश्वर का दूत तो कोई अपने को उसका एकमात्र पुत्र कहने लगा। किसी ने साधना या तपस्या द्वारा उसे प्राप्त कर लेने का दावा किया। इन तमाम कल्पित बातों को लेकर बड़े-बड़े ग्रंथ लिखे गये। इनमें कुछ तार्किक व्याख्या वाले थे, तो कुछ विश्वास को ही फलदायी बताने वाले। लेकिन एक बात सभी में समान थी कि सभी कल्पित थे। जिन कल्पनाओं की तर्कों से संतुष्टि हो सकी, उन्हें दर्शन या फिलासफी की उूंची संज्ञा दी गयी। पश्चिमी दुनिया में करीब 15वीं शताब्दी तक का सारा ज्ञान ईश्वर के इर्द-गिर्द ही घूम रहा था। लेकिन इस बीच चिंतकों का एक ऐसा वर्ग पैदा हुआ, जिसने प्रकृति के सूक्ष्म निरीक्षण द्वारा उसका रहस्य समझने की कोशिश शुरू की। उसने ईश्वर को किनारे रखकर संसार की वस्तुओं व क्र्रियाओं को स्वयं देखना परखना शुरू किया। यहां से ईश्वर निरपेक्ष विज्ञान की शुरूआत हुई। इन निरीक्षणों के आधार पर जिन प्राकृतिक शक्तियों का बोध हुआ, उनका इस्तेमाल करके तरह-तरह के उपकरण, यंत्र एवं रसायन बनने लगे। और वह यात्रा आज के वैज्ञानिक युग तक आ पहुंची। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि आज के वैज्ञानिकों ने ईश्वर पर विश्वास करना छोड़ा दिया। वह प्रयोगशाला में तरह-तरह के प्रयोगों व निर्माण के साथ-साथ मंदिर, चर्च या मस्जिदों में जाकर माथा भी टेकता है। बहुत कम वैज्ञानिक ऐसे होंगे, जिन्होंने ईश्वर को पूरी तरह नकार दिया हो। जो नास्तिक है या चर्च नहीं जाते, वे भी बहुत बार ईश्वर का सहारा लेने के लिए मजबूर होेते दिखायी देते हैं।

कोई भी पूछ सकता है कि इसका कारण क्या है? कारण स्पष्ट है। कोई भी वैज्ञानिक यह तो बता सकता है कि यह कार्य कैसे हुआ या इस वस्तु का निर्माण कैसे हुआ, लेकिन वह इस प्रश्न का उत्तर कभी नहीं दे सकता कि वह क्यों हुआ। आज के समय के सबसे प्रसिद्ध नास्तिक वैज्ञानिक रिचर्ड डाकिंग की पुस्तक ‘गॉड डिल्यूजन’ जब प्रकाश्ति हुई, तो ऐसा लगा कि विज्ञानजगत से अब ‘गॉड’ लुप्त ही हो जाएगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। कहा जाता है कि ईश्वर के अस्तित्व को तो डार्विन ने ही निराधार सिद्ध कर दिया था, लेकिन उसके बाद की लंबी वैज्ञानिक यात्रा के बाद भी आज भी अधिकतर वैज्ञानिक उसी तरह ईश्वर में विश्वास रखने वाले धार्मिक भी है, जैसे डार्विन के पूर्वकाल के तमाम लोग थे।

इसलिए आज जब श्रेष्ठतम आधुनिक भौतिकविदों में एक स्टिफेन हाकिंग ने गणितीय आधार पर यह घोषित कर दिया है कि इस सृष्टि का निर्माता कोई ईश्वर नहीं है। इस सृष्टि के अपने भौतिक नियम ही इसके निर्माण और विनाश के स्वयं कारण हैं, तो इसका यह अर्थ नहीं है कि आगे के भौतिकीविद ईश्वर पर विश्वास करना छोड़ देंगे और नितांत प्रकृति पर विश्वास करने वाले बन जाएंगे।

ईश्वरेच्छा बनाम प्राकृतिक नियमों का विवाद कोई नया नहीं है, लेकिन इस बहस में नई गर्मी पिछले 2 सितंबर को तब पैदा हुई, जब स्टिफेन हाकिंग ने अपनी नई पुस्तक ‘द गैं्रड डिजाइन’ के प्रकाशन पूर्व प्रचार कार्यक्रम के अंतर्गत स्पष्ट घोषणा की कि ‘ईश्वर ने ब्रह्मांड की रचना नहीं की।’ यह पुस्तक इसी सप्ताह प्रकाशित होने वाली है, जिसमें उन्होंने पूरी गंभीरता के साथ यह कहा है कि इस सृष्टि की रचना से ईश्वर का (वह जो भी हो- ही, शी, इट) का कोई लेना-देना नहीं है। वास्तव में उनका कहना है कि ब्रह्मांड अपने स्वयं के नियमों से जन्म लेता है, बढ़ता है और फिर विलीन होता है। वैसे वे यह बात अपनी पिछली सर्वाधिक चर्चित पुस्तक ‘ए ब्रीफ हिस्ट्र् आफ टाइम’ में सिद्ध कर चुके हैं, लेकिन अपनी इस नई पुस्तक में (जो अभी आज की तारीख तक बाजार में नहीं आयी है) शायद वह अधिक पुष्ट तर्कों व प्रमाणों के साथ इस निष्कर्ष तक पहुंचे हैं। उस पुस्तक में उन्होंने गणितीय आधार पर यह प्रमाणित किया था कि ‘शून्य’ (नथिंगनेस) से इस विराट ब्रह्मांड की सृष्टि हो सकती है और फिर यह समूचा ब्रह्मांड ‘शून्य’ में (उसी  नथिंगनेस) में विलीन हो सकता है। इसे प्रमाणित करने के लिए अब वह एक नये सिद्धांत के साथ सामने आए हैं, जिसे सैद्धांतिक भौतिकी में ‘एम-थियरी’ (एम सिद्धांत) की संज्ञा दी गयी है। यह पुरानी ‘स्ट्रिं्ग-थियरी’ का विकसित रूप है। यहां ‘एम’ से आशय ‘मेम्ब्रेंस’ (झिल्ली) से है, लेकिन वैज्ञानिकों को ‘मैम्ब्रेंस थियरी’ के बजाए ‘एम थियरी’ कहना अधिक अच्छा लगा, क्योंकि यहां वे ‘एम’ का मनचाहा अर्थविस्तार कर सकते हैं। यहां ‘झिल्ली- का अर्थ साधारण झिल्ली से नहीं, बल्कि महागुरुत्व (सुपरग्रेविटी) की बहुआयामी, झिल्ली जैसी कल्पित सतह से है। एम-थियरी की यह ‘मेम्ब्रेन’ 11 आयामी है। सामान्यतया इन 11 आयामों (डाइमेंशन) के किसी बिम्ब का अनुभव कर पाना भी कठिन है। इसलिए यहां इस ‘थियरी’ के विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है। बस हम इतना समझ सकते हैं कि हाकिंग के अनुसार इस संसार के लिए इस संसाार से भिन्न किसी कारण या निमित्त तत्व यानी ‘गॉड’ या ‘ईश्वर’ की जरूरत नहीं है।

इस तरह यदि सच कहें तो स्टिफेन हाकिंग की इस वैज्ञानिक स्थापना का सर्वाधिक गहरा प्रहार ईसाई चर्च पर हुआ है। अन्य सेमेटिक धर्म (रिलीजन) यहूदी एवं इस्लाम भी इससे प्रभावित हो सकते हैं, लेकिन इससे भारतीय दर्शन के ब्रह्म की कल्पना पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता, बल्कि उसकी वैज्ञानिक पुष्टि ही होती है।

यद्यपि यहां हर तरह की दार्शनिक भौतिक व ईश्वरीय विश्वास वाली धारणाएं मौजूद हैं, लेकिन दर्शन के स्तर पर यहां का अंतिम विश्वास यही है कि यह संपूर्ण सृष्टि उस परम ब्रह्म का आत्मविस्तार है, वह स्वयं आत्मविस्तार करके ब्रह्मांड का रूप धारण कर लेता है और फिर संकोच के द्वारा ‘अंगुष्ठ’ मात्र का नितांत सूक्ष्म या ‘शून्य’ रूप धारण कर लेता है। यहां मनुष्य को गुमराह करने वाले शैतान की कोई परिकल्पना नहीं है और न जड़चेतन के बीच कोई तात्विक भेद किया गया है। इसलिए हाकिंग के वैज्ञानिक मत से जहां भारतीय सृष्टि सिद्धांत की पुष्टि होती है, वहां ‘ओल्ड रेस्टामेंट’ का सिद्धांत धराशायी हो जाता है। इसलिए अब यूरोप व अमेरिका बहुत से ईसाई वैज्ञानिक इस पुस्तक के निष्कर्षों की आलोचना पर उतर पड़े हैं। निश्चय ही वे हाकिंग के कथ्य को सही वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में समझने के बजाए चर्च की रक्षा के लिए अधिक चिंतित हो उठे हैं। दो प्रसिद्ध गणितज्ञों एरिक प्रीस्ट तथा जान लेनाक्स ने उनकी स्थापनाओं के विरुद्ध लेख लिखे हैं। एरिक प्रीस्ट ने प्रतिष्ठित ब्रिटिश दैनिक ‘गार्जियन’ में एक लेख (स्टिफिन हाकिंग कैन नॉट यूज फिजिक्स टु आंसर ह्वाई वी आर हियर) लिखकर कहा है कि ईश्वर (गॉड) के बारे में आधुनिक विश्वास हमारे ज्ञान जगत में केवल खाली जगहों के भरने का साधन मात्र नहीं है, बल्कि वह भिन्न प्रकार के प्रश्नों का उत्तर पाने का साधन है। खाली जगहें भरने से आशय यह है कि जिन समस्याओं का उत्तर ढूंढ़ने में मनुष्य की बुद्धि काम नहीं करती, वहां हम ईश्वर को लाकर बैठा देते हैं। किंतु जब बुद्धि वहां तक पहुंच जाती है, तो ईश्वर को वहां से हटा देते हैं। भिन्न तरह के प्रश्नों से शायद उनका आशय है कि यह सृष्टि बनी ही क्यों ? इस सृष्टि में मनुष्य क्यों बनाया गया ? मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या है ? मनुष्य में एक भिन्न तरह की चेतना क्यों है ? आदि, आदि। लेकिन यदि हाकिंग को या अपने देश के ही अद्वैतवादी दार्शनिकों को पढ़े तो पता चलेगा कि ये प्रश्न भी कोई तात्विक प्रश्न नहीं है। ये प्रकृति की अपनी सहज चेतना से अद्भुत है और प्रकृति स्वयं इनका उत्तर तलाश कर संतुष्ट भी हो लेती है। प्रीस्ट यू.के. में ‘ग्रेगरी चेयर आॅफ मैथमेटिक्स’ पर आसीन गणितज्ञ तथा सूर्य की आंतरिक गतिविधियों (सोलर मैगनेटोहाइड्र्ो डाइनमिक्स) के विशेषज्ञ हैं।

दूसरे गणितज्ञ है जॉन लेनाक्स। वह आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में गणित के प्रोफेसर तथा ‘मैथमेटिक्स एंड फिलोसोफी आॅफ साइंस’ के फेलो हैं। वह ‘ग्रीन टेम्प्लेटन कॉलेज’ में ग्रीन पास्टोरल एडवाइजर भी हैं। उन्होंने ‘मेल-आॅनलाइन’ पर लिखा है कि ‘एक वैज्ञानिक के रूप में मैं पूरे निश्चय के साथ कह सकता हूं कि स्टिफेन हाकिंग गलत हैं। आप ‘गॉड’ के बिना ब्रह्मांड की व्याख्या कर ही नहीं सकते। वह हाकिंग की बौद्धिक क्षमता तथा उनके भौतिकी ज्ञान की प्रशंसा करते हैं, लेकिन उनकी स्थापना को मानने से इंकार करते हैं, क्योेंकि वह चर्च के विश्वासों के विरुद्ध जाता है। इस श्रंृखला में कुछ वैज्ञानिक ऐसे भी हैं, जो यह कहने से भी नहीं चूक रहे हैं कि किसी किताब की बिक्री को बढ़ाने के लिए उसे ईश्वर के अस्तित्व के साथ जोड़ देना सर्वाधिक कारगर रणनीति है।

थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाए कि हाकिंग ने पुस्तक की बिक्री बढ़ाने के लिए ही ऐसा विवादास्पद बयान दिया है, लेकिन इससे उन वैज्ञानिक तर्कों का तो निषेध नहीं हो जाता, जो उनकी पुस्तक में दिये गये हैं। यह भी कहा जा रहा है कि सृष्टि के निर्माण के लिए यदि आप ईश्वर पर विश्वास न करें तो अब ‘एम-थियरी’ पर विश्वास करें। यह थियरी भी उतनी ही रहस्यपूर्ण है, जितना कि ईश्वर स्वयं। अब यहां इस मुद्दे के और गहरे वैज्ञानिक विश्लेषण में जाने की जरूरत नहीं है। स्थूलतया हम हाकिंग की बात को इस तरह समझ सकते हैं कि इस विश्व ब्रह्मांड से परे या उससे भिन्न किसी ‘गॉड’ का अस्तित्व नहीं है कि जिसकी इच्छा से इसकी उत्पत्ति हो गयी या जिसकी कृपा या कोप से इस सृष्टि के जीव-जंतु या अन्य पिंड प्रभावित होते हों। अपने देश में तो ऐसे ‘गॉड’ के निषेध का आंदोलन बहुत पहले ही शुरू हो चुका था। गोकुल के कृष्ण ने गांव वालों से अब से हजारों वर्ष पहले कहा था कि ‘ईन्द्रादि’ देवताओं की पूजा करने की जरूरत नहीं है। उनकी कृपा या कोप से कुछ होने वाला नहीं है। पूजा करनी ही है तो अपनी नदियों, पहाड़ों, वृक्षों व पशुओं की करो, जिन पर तुम्हारा जीवन निर्भर है। अब आज यदि विश्व के शीर्षस्थ भौतिकीविद गणित और भौतिकी के वैज्ञानिक सूत्रों से यही प्रमाणित कर रहे हैं, तो यह हम भारतीयों के लिए बड़े गर्व की बात है। हाकिंग स्पष्ट करते हैं कि धरती पर जीवन कैसे आया और मनुष्य कैसे विकसित हुआ, इसकी व्याख्या ईश्वर -गॉड- की इच्छा में नहीं, बल्कि भौतिकी या प्रकृति के अपने नियमों में निहित है। उनका तर्क है कि ‘बिगबैंग’ (जिसके साथ इस ब्रह्मांड का जन्म हुआ) इन प्राकृतिक नियमों के अनुसार अपरिहार्य था, क्योंकि गुरुत्व (ग्रेविटी) के ऐसे नियम हैं, जिनके अनुसार शून्य से सृष्टि का जन्म हो सकता है और पुनः वह शून्य में समाप्त हो सकती है।

यह सही है कि इस सृष्टि के वास्तविक रहस्य तक मनुष्य कभी नहीं पहुंच सकता। इस सृष्टि का निर्माण कैसे हुआ, इसकी खोज तो विज्ञानी कर सकते हैं, लेकिन क्यों हुआ, इसका जवाब कभी नहीं मिल सकता। और जिनका वास्तविक उत्तर कभी नहीं मिल सकता, उसको बताने या जानने का दावा करने वाला जो भी हो, वह मनुष्य को गुमराह करेगा और अपने मिथ्या सिद्धांतों के सहारे अपने स्वार्थ के लिए उसका उपयोग करेगा। इसलिए आधुनिक धर्मशास्त्र प्रणेताओं को हाकिंग के सिद्धांतों को ध्यान में रखकर मनुष्य के सामाजिक आचरण का सिद्धांत स्थापित करना चाहिए। और यदि कोई ईश्वर को सृष्टि का कारण तत्व मानना ही चाहता है, तो उसे इस सृष्टि को ही ईश्वर रूप मानना होगा और इसमें अंतर्निहित चेतना को ही अपनी उपास्य प्रतिभा या निर्गुण निराकार अवधारणा के रूप में स्वीकार करना होगा। (५-१०-२०१०)

बुधवार, 1 सितंबर 2010

चीन को सख्त जवाब देने से क्यों डरता है भारत !

चीन को सख्त जवाब देने से क्यों डरता है भारत !




चीन वर्षों से कश्मीरी नागरिकों को चीन यात्रा के लिए अलग से वीजा देता आ रहा है, क्योंकि वह कश्मीर को भारत का क्षेत्र नहीं मानता। अभी बीते महीने तो उसने हद ही कर दि, जब उसने दोनों देशों के सैन्य सहयोग कार्यक्रम के अंतर्गत चीन जाने वाले भारत के उच्च सैनिक अधिकारी ले. जनरल बलजीत सिंह जसवाल को इसलिए वीजा देने से इनकार कर दिया कि वह कश्मीर से सम्बद्ध हैं। भारत ने बदले में तीन चीनी सैन्य अधिकारियों के भी भारत आने का कार्यक्रम तो रद्द कर दिया, लेकिन आगे कहा कि इससे चीन के साथ भारत के सैन्य सहयोग कार्यक्रम पर कोई प्रभाव नीं पड़ेगा, वह जारी रहेगा। आश्चर्य है कि भारत सरकार ने चीनी कार्रवाई की निंदा में एक बयान तक जारी नहीं किया। आखिर ऐसे किसी देश के साथ किसी भी तरह का संबंध बढ़ाने का अर्थ क्या है, जो हर तरह से भारत के हितों का विरोधी हो और केवल अपने हित के क्षेत्र में संबंधों का विस्तार चाहता हो।





जब कभी भारत चीन संबंधों का कोई मामला सामने आता है, तो प्रायः यह सवाल जेहन में उठता है कि क्या भारत, चीन से डरता है ? यदि अपनी सरकार के आचरण पर ध्यान दें, तो यह साफ लगता है कि 1962 कि बाद से अब तक भारत, चीन के आतंक से मुक्त नहीं हो पाया है। इधर डेढ़-दो दशकों में भारत-चीन संबंधों में काफी सुधार आया है, दोनों देशों के व्यापार में वृद्धि हुई है। वह करीब 60 अरब डॉलर वार्षिक की सीमा छूने जा रहा है और दोनों देश अगले चार वर्षों में इसे दो गुना करने के लिए प्रयत्नशील हैं। फिर भी दोनों देशों के बीच अभी तक जो भी संबंध कायम हुआ है, उसे मैत्रीपूर्ण नहीं कह सकते। अंतरराष्ट्रीय  मंचों पर कई स्तर पर अच्छे सहयोग तथा बढ़ते व्यापार के बावजूद दोनों देशों के आपसी विश्वास के स्तर में अभी भी भारी कमी बनी हुई है। दोनों के बीच संदेह का वातावरण अभी भी बहुत गहरा है। चीन के साथ् हो रही व्यापार वृृद्धि से चीन को अधिक फायदा हो रहा है, भारत का कम, क्योंकि व्यापार का संतुलन चीन के पक्ष में झुका हुआ है। वह भारत को निर्यात अधिक करता है, आयात कम। अंतर्राष्ट्र्ीय कूटनीतिक व रणनीतिक मसलों पर चीन भारत का विरोध करने का कोई अवसर नहीं चूकता, जबकि भारत या तो उसका सहयोग करता है या तटस्थ रह जाता है।

दोनों देशों के बीच व्यवहार की परीक्षा के लिए तिब्बत और कश्मीर के मसले को एक अच्छी कसौटी माना जा सकता है। चीन ने तिब्बत पर बलपूर्वक अधिकार किया है, जबकि ‘ब्रिटिश इंडिया‘ के काल में तिब्बत दलाई लामा के नेतृत्व में एक लगभग स्वतंत्र राष्ट्र् था और चीन वहां कोई दखलंदाजी न करे, इसके लिए तिब्बत की राजधानी ल्हासा में ब्रिटिश फौज की दो चौकियां तैनात थी। चीन में जब कम्युनिस्ट शासन स्थापित हुआ, तो उसने दलाई लामा को मार भगाया और पूरे तिब्बत पर अपना कब्जा कर लिया। भारत ने इस कब्जे को पूरी राजनीतिक मान्यता दे दी। दूसरी तरफ कश्मीर रियासत के शासक हरिसिंह ने स्वेच्छया भारत में अपना विलय किया, लेकिन चीन अब तक उसे भारत का अंग मानने के लिए तैयार नहीं है। चीन तिब्बत के मामले में बार-बार भारत को चेतावनी देता रहता है, लेकिन भारत कभी उससे यह नहीं कहता कि वह कश्मीर में अपनी नाजायज दखलंदाजी बंद करे और उससे दूर रहे, वह चीनी चेतावनी को तो सह लेता है, लेकिन अपनी तरफ से कोई चेतावनी देने का साहस नहीं करता।

चीन ने अभी बीते हफ्ते में भारत को इस तरह की चेतावनी दी कि तिब्बत के धर्मगुरु दलाई लामा से यदि किसी भी दूसरे देश की सरकार या वहां का कोई राजनेता किसी तरह का राजनीतिक संपर्क करता है, तो इसे चीन के विरुद्ध आचरण माना जाएगा। चीन की इस ताजा चेतावनी का कारण था कि अभी इन्हीं दिनों दलाई लामा ने भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से मुलाकात की थी। इसके पहले उसने भारत को तब चेतावनी दी थी, जब प्रधानमंत्री डॉ. सिंह उत्तर पूर्व की यात्रा पर गये थे और दिल्ली सरकार ने दलाई लामा को अरुणाचल प्रदेश की यात्रा करने की इजाजत दी थी। भारत ने इसके जवाब में केवल इतना कहा कि दलाई लामा भारत के एक सम्मानित अतिथि हैं, इसलिए उन्हें देश के किसी भ्ी कोने में जाने या किसी भी राजनेता से मिलने का अधिकार है। उसने इसके जवाब में यह कभी नहीं कहा कि चीन कश्मीर के मामले में भारत विरोधी रवैया क्यों अपनाता है। चीन प्रायः हर बार अपनी चेतावनी में कहता है कि यदि भारत ने समुचित संयम नहीं बरता, तो चीन के साथ उसके संबंध खराब हो सकते हैं, लेकिन भारत ने कभी यह नहीं कहा कि चीन ने यदि कश्मीर के बारे में अपना रवैया नहीं बदला, तो इससे दोनों देशों के संबंध खराब हो सकते हैं। भारत और चीन का सीमा विवाद तो एक अलग मसला है, कश्मीर के मसले को कतई उससे नहीं जोड़ा जा सकता। कश्मीर भारत का नितांत आंतरिक मामला है, लेकिन भारत ने आज तक चीन से उसके बारे में कोई कठोर प्रतिवाद नहीं किया। पिछले कई वर्षों से चीन कश्मीरी नागरिकों को चीन आने के लिए अलग वीजा देता है। वह कश्मीरियों के लिए एक अलग कागज पर वीजा देकर उसे उसके पासपोर्ट के साथ् पिन कर देता है, जबकि शेष भारत के लोगों के लिए सामान्य अंतर्राष्ट्््रीय नियमों के अनुसार पासपोर्ट पर ही मुहर लगा देता हैै। भारत ने यदा कदा इस पर आपत्ति अवश्य व्यक्त की। कभी-कभार किसी कश्मीरी नागरिक को हवाई अड्डे पर इसके लिए रोक भी लिया कि उसका चीन जाने का वीजा अवैध है, लेकिन चीनी दूतावास ने कश्मीरियों के लिए अलग वीजा देना अब तक बंद नहीं किया और बहुत से कश्मीरी उस अतिरिक्त वीजा के सहारे चीन की यात्रा कर रहे हैं। कई कश्मीरी तो उस वीजा को छिपाकर हांगकांग का वीजा लेकर वहां पहुंच जाते हैं, फिर वहां से चीन। बार-बार की आपत्ति के बाद भी चीन भारत की किसी आपत्ति पर कान नहीं दे रहा है, लेकिन भारत उसे नजरदांज किये जा रहा है।

भारत-चीन के बीच विवाद का एक ताजा विषय भी इस वीजा मसले को लेकर सामने आया। किसी भी प्रभुसत्ता संपन्न स्वतंत्र राष्ट्र् के लिए यह कितने अपमान की बात है कि कोई पड़ोसी देश उसके एक उच्च सैनिक अधिकारी को केवल इसलिए अपने देश में आने से रोक दे कि वह जिस इलाके का सैन्य प्रभारी है, उसे वह पड़ोसी देश इस प्रभुतासंपन्न देश का अंग नहीं मानता और साथ ही वह इस देश के साथ मैत्री व सहयोग का दंभ भी भरता है।

गत जनवरी महीने में दोनों देशों के बीच हुई सैन्य सहयोग वार्ता में यह तय हुआ था कि दोनों देशें के उच्च सैनिक अधिकारी एक-दूसरे के देशों की यात्रा करेंगे, जिससे उनमें आपसी समझदारी बढ़ेगी और सहयोग का वातावरण बनेगा। भारत ने जब इस प्रतिरक्षा आदान-प्रदान कार्यक्रम के अंतर्गत सेना के उत्तरी कमान के कमांडर-इन-चीफ लेफ्टीनेंट जनरल बलजीत सिंह जसवाल को चुना और इसकी सूचना चीन सरकार को दी, तो चीन ने उन्हें अपने देश में आने की अनुमति देने से इनकार कर दिया। चीन का कहना था कि जनरल जसवाल जिस क्षेत्र के सैन्य प्रभार हैं, दुनिया के इस भाग के लोग एक अलग वीजा पर ही चीन की यात्रा पर आ सकते हैं। इसका साफ अर्थ था कि चीन कश्मीर में तैनात किसी सैन्य अधिकारी को भारत का प्रतिनिधि मानने के लिए तैयार नहीं है। बीजिंग के सैन्य प्रमुख की तरफ से कहा गया कि जसवाल तो चीन नहीं आ सकते, लेकिन भारत इस कारण इस कार्यक्रम को रद््द न करे, बल्कि किसी और अधिकारी को चीन भेजने की व्यवस्था करे। यह भारत के मुंह पर भीगे जूते से वार करने जैसा था, लेकिन भारत ने इसे बर्दाश्त कर लिया। जवाब में बस इतना किया कि उसने चीन के तीन सैनिक अधिकारियों का भारत आने का कार्यक्रम रद्द कर दिया। इसमें एक कर्नल रैंक और दो कैप्टन रैंक के अधिकारी थे। इसे भी मीडिया से छिपाए रख गया।

पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार जनरल जसवाल को गत जुलाई में किसी समय चीन जाना थ, लेकिन जब जाने की तिथि आयी, तो जसवाल को केवल यह बताया गया कि कुछ कारणवश उनकी यात्रा का कार्यक्रम आगे बढ़ा दिया गया है। शायद 21 जुलाई को चीन ने यह सूचना दी कि जसवाल चीन नहीं आ सकते, तो 2 अगस्त को भारत ने भी पत्र लिखकर चीन को बताया कि उसके भी तीनों अधिकारी अभी भारत नहीं आ सकते। बीते हफ्ते ‘टाइम्स ऑट इंडिया’ ने यह कहानी प्रकाशित कर दी, तो देश में हंगामा मचा। मामला संसद में भी गूंजा। खबर मिली कि भारत के विदेश विभाग ने भारत स्थित चीनी राजदूत झांगयान को बुलाकर अपनी ओर से औपचारिक विरोध दर्ज कराया। मीडिया में यह भी सूचना प्रसारित हुई कि चीन की इस कार्रवाई के विरोध में भारत ने चीन के साथ तय हुए प्रतिरक्षा आदान-प्रदान का कार्यक्रम रद्द कर दिया है। लेकिन बाद में दिल्ली के रक्षा विभाग से यह वक्तव्य जारी हुआ कि नहीं आदान-प्रदान का कार्यक्रम रद्द नहीं किया गया है। विदेश और रक्षा विभाग दोनों की तरफ से बड़ी विनम्रता के साथ कहा गया कि संबंधों को सामान्य बनाए रखने के लिए दोनों देशों को एक-दूसरे की संवेदनाओं का भी ख्याल रखना चाहिए।

यहां यह उल्लेखनीय है कि पहले तो सरकार ने मीडिया से इस मामले को छिपाने की कोशिश की और जब बात सार्वजनिक हो गयी, तो उसे किसी तरह लीपापोती करके टालने का प्रयास किया गया। प्रस्तुत मामला केवल एक सैनिक अधिकारी को चीन आने से रोकना भर नहीं है। मसला कश्मीर से जुड़ा है, जिसे भारत सरकार के नेतागण भारत का अभिन्न अंग कहते-बताते नहीं थकते। जनरल जसवाल को बीजिंग आने की अनुमति न देने का सीधा अर्थ है कि चीन कश्मीर को भारत का अंग नहीं मानता। उसके अपने वक्तव्य में शब्दों का चयन भी बहुत सावधानी से किया गया है। उसने कहा है ‘दुनिया के इस क्षेत्र’ के लोग अग वीजा पर ही चीन की यात्रा पर आते हैं।इसका आखिर क्या अर्थ है। क्या इस मामले को इतने ही हल्के ढंग से लिया जाना चाहिए, जिस तरह भारत सरकार ले रही है। क्या उसके पास वैसी कूटनीतिक शब्दावली भी नहीं है, जैसी तिब्बत के बारे में चीन अपना रहा है।

आज की दुनिया में कोई भी व्यक्ति भारत सरकार को यह सलाह नहीं दे सकता कि इतनी सी बात पर वह चीन से राजनीतिक संबंध तोड़ ले या उसके साथ व्यापार बंद कर दे अथवा सीमा विवाद को हल करने के लिए शुरू की गयी बातचीत की श्रंृखला को रद्द कर दे, लेकिन भारत सरकार चीन से दृढ़ शब्दों में यह तो कह सकती है कि कश्मीर के बारे में चीन का यह वर्तमान रवैया जारी रहा, तो इससे दोनों देशें के आपसी संबंध बिगड़ सकते हैं। चीन की कार्रवाई का असली तुर्की ब तुर्की जवाब तो तभी हो सकता है, जब वह उसके सीकियांग प्रांत तिब्बती क्षेत्र के लोगों को अलग कागज पर वीजा देना शुरू कर दे। भारत यह भी चेतावनी तो दे सकता है कि यदि चीन कश्मीर के बारे में अपना यही रुख बरकरार रखता है, तो उसके साथ भारत के व्यापारिक संबंध प्रभावित हो सकते हैं।

इतना ही नहीं, चीन यदि कश्मीर के बारे में अपना रुख नहीं बदलता (जो वह नहीं ही बदलने वाला है) तो भारत को अपनी कश्मीर नीति पर भी अलग ढंग से विचार करना चाहिए। कश्मीर के मसले पर पाकिस्तान व कश्मीरी अलगाववादियों के अलावा एक पक्ष चीन भी है। भले ही उसका पक्ष गौण हो, लेकिन उसे अलग नहीं किया जा सकता, क्योंकि कश्मीर के एक हिस्से पर उसने भी अपना अधिकार जमा रख है। भले ही वह हिस्सा पाकिस्तान द्वारा अपने अधिकृत कश्मीर से दे दिया गया हो, लेकिन वह भी है तो समग्र कश्मीर का ही एक भाग। चीन अपने उस क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीरी क्षेत्र में भी कई विकास योजनाएं चला रहा है तथा सड़क निर्माण के कार्य को तेज किये हुए है। यहां यह भी ध्यात्व्य है कि चीन ने अपना विस्तारवादी कार्यक्रम अभी भी नहीं छोड़ा है। पिछले 60 वर्षों में चीन एक बड़ा और ताकतवर देश बन गया है। तिब्बत और शिंझियांग -सिकियांग- प्रदेशों को शामिल करके उसने अपना आकार बढ़ाया और अब वह अमेरिका के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। सामरिक शक्ति में भी वह केवल अमेरिका से पीछे है। 2008 में ओलंपिक का विराट आयोजन तथा 2010 की विश्व औद्योगिक प्रदर्शनी का शानदार आयोजन करके उसने अपनी समृद्धि, तकनीकी विकास तथा प्रबंध क्षमता का अच्छा प्रदर्शन किया है। वैश्विक मंदी के बावजूद उसने अपनी विकास दर को बनाए रखा है। अब इसके बाद वह अपना और क्षेत्र एवं प्रभाव विस्तार करना चाहता है। आगे उसकी नजर ‘येलो सी’ (चीन और कोरिया के बीच का समुद्री भाग) तथा दक्षिण चीन सागर (साउथ चाइना सी), जो पांचों महासागरों के बाद सबसे बड़ा जल क्षेत्र है (करीब 3,50,000 वर्ग किलो मीटर) पर है। इसके बीच तमाम ऐसे छोटे-मोटे द्वीप आते हैं, जिनका सामरिक महत्व है।

यद्यपि चीन के वर्तमान राष्ट्र्पति हू जिन्ताओ शांति के साथ विकास की नीति के पक्षधर हैं, लेकिन चीन में नई पीढ़ी का एक आक्रामक नेतृत्व उभर रहा है, जो जिन्ताओ की नीतियों से सहमत नहीं है। चीनी सेना के कई बड़े अधिकारी भी आक्रामक नीति के समर्थक हैं। ‘युवान एकेडमी ऑफ मिलीटरी साइंस’ के जनरल लुओ ने गत जून महीने में अमेरिका और दक्षिण कोरिया के संयुक्त सैन्य अभ्यास का तीव्र विरोध किया था। उनका कहना था कि ‘हम अपने शयनकक्ष के बाहर भी किसी अजनबी को टांग फैलाकर सोने की इजाजत कैसे दे सकते हैं।’ चाइना रिव्यू न्यूज नामक पत्र में उनका एक लेख छपा था, जिसमें कहा गया थ कि अमेरिका ने इस युद्धाभ्यास के लिए जो विमान वाहक पोत -एयरक्राफ्ट कैरियर- भेजा था, उसका यही इलाज था कि उसे ‘येलो सी‘ (पीले सागर) में डुबो दिया जाता। एक दूसरे चीनी विश्लेषक ने ‘द पीएलए डेली’ (चीनी जनमुक्ति सेना के दैनिक) में लिखा कि वास्तव में यह चीन के ‘कोर इंटरेस्ट’ (मूलभूत हितों) को दी गयी चुनौती है। यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि चीन का ‘कोर इंटरेस्ट’ क्या है। तिब्बत और शिंझियांग पर कब्जे के बाद ताइवान, येलो सी और दक्षिण चीन सागर पर कब्जा जमाना उसके ‘कोर नेशनल इंटरेस्ट’ में आते हैं, जिनके लिए वह कोई समझौता नहीं कर सकता। यहां यदि कोई यह पूछे कि आखिर भारत का ‘कोर नेशनल इंटरेस्ट’ क्या है और कहां है, तो शायद कोई भी जवाब नहीं हो सकता।

कश्मीर पाकिस्तान के लिए तो ‘कोर इंटरेस्ट’ का हिस्सा है, लेकिन भारत के लिए शायद नहीं। अगर होगा, तो कम से कम हमारे राजनेताओं के आचरण व व्यवहार से कतई नहीं लगता कि ‘कश्मीर’ में कोई भारत का ‘मूल राष्ट्र्ीय हित’ फंसा हुआ है। यहां हमारे प्रधानमंत्री जी फरमाते हैं कि वह किसी के प्रति जो व्यवहार करते हैं, वह इस आशा से नहीं कि वह भी वैसा ही व्यवहार करे। नेकी कर दरिया में डाल की नीति किसी संत महात्मा के लिए तो सही हो सकती है, किंतु किसी राजनेता के लिए नहीं।

कश्मीर भारत के राष्ट्र्ीय हितों का केंद्र बिंदु है। उसका संबंध देश की पूरी राष्ट्र्ीय अस्मिता से जुड़ा है। वह केवल एक प्रदेश मात्र नहीं है, वहां भारत की पूरी सेकुलर राजनीति कसौटी पर चढ़ी हुई है, लेकिन कितने अफसोस की बात है कि हमारे राजनेता उसके साथ भी खिलवाड़ करने से बाज नहीं आते। चीन या कोई देश ऐसा साहस कैसे कर सकता है कि वह हमारी सेना के एक उच्च पदाधिकारी को अपने पूर्व स्वीकृत कार्यक्रम के बावजूद केवल इसलिए वीजा देने से इनकार कर दे कि वह भारत के कश्मीर राज्य की सुरक्षा का भी प्रभारी है। भारत के लोग आखिर यह कब समझेंगे कि चीन और पाकिस्तान कभी भारत के मित्र नहीं हो सकते। अपनी तमाम ऐतिहासिक भूलों के कारण हम इन दोनों के साथ शायद सदैव ही तनावपूर्ण संबंधों के साथ जीने के लिए अभिशप्त हैं। और इस अभिशाप की कुंठा से बचने का एक ही तरीका है कि हम अपने ‘कोर नेशनल इंटरेस्ट्स’ को पहचाने और उनकी रक्षा के लिए जान की बाजी लगाकर भी संघर्ष के लिए तैयार रहें।ले. जनरल बलजीत सिंह जसवाल को वीजा न देने की कार्रवाई का पूरा जवाब केवल चीन के तीन सैन्य अधिकारियों का आमंत्रण रद्द कर देना ही नहीं हो सकता।चीन को कम से कम यह स्पष्ट चेतावनी तो दी ही जा सकती है कि कश्मीर के प्रति चीन का रवैया भारत विरोधी है और बीजिंग सरकार यदि भारत के साथ आपसी संबंधों को बढ़ाने की इच्छुक है, तो उसे अपना यह रवैया बदलना होगा।(29, Aug 2010)