रविवार, 28 अगस्त 2011

अन्ना हजारे बनाम भारतीय लोकतंत्र



गांधीवादी नेता अन्ना हजारे ने देश में आपाद मस्तक व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक ऐसी लड़ाई छेड़ रखी है, जिसमें प्रायः पूरे देश का आम आदमी उनके साथ है, किंतु देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रायः सारे कर्णधार उनके खिलाफ हैं। वास्तव में आज भारत का संविधान, भारतीय संसद और पूरा लोकतंत्र कुछ निहित स्वार्थी तत्वों का बंधक बनगया है। इन्होंने आम आदमी के अधिकारों का ठेका भी अपनी जेब में रख छोड़ा है, जिससे इनके गुट के बाहर के किसी आदमी को आम आदमी की बात उठाने का अधिकार भी नहीं रह गया है। सत्ता के दलाल बुद्धिजीवी, लेखक व पत्रकार उस आवाज को ही लोकतंत्र विरोधी, फासिस्ट व जिहादी सिद्ध करने में लगे हैं, जो इस बंधक बने लोकतंत्र को मुक्त कराने की चाहत रखता है।

अन्ना हजारे आज शायद दुनिया का सर्वाधिक चर्चित नाम है। 74 वर्षीय यह वृद्ध यौवन की अदम्य अंगड़ाई का प्रतीक बन गया है। अन्ना देश के जनजन में ऐसे व्याप्त हो गये हैं कि हर व्यक्ति अपने को अन्ना कहने लगा है। ‘मैं अन्ना हूॅं‘ छपी टोपियां और कमीजें युवाओं की ‘फैशन स्टेटमेंट‘ बन गयीं। अन्ना की रंगीन तस्वीरें किशोरियों के नाखूनों तक पर सज गयीं। ऐसी दीवानगी अब से पहले शायद ही किसी को लेकर उमड़ी हो। इस देश की हठीली संसद और अपने ही अहंकार मे डूबी जिद्दी सरकार को अन्ना की इस तूफानी लहर के आगे झुकना पड़ा। यद्यपि अभी यह नहीं कहा जा सकता है कि इसके साथ ही आम जनता जीत गयी है और भ्रष्टाचारियों की संरक्षक सरकार और राजनेताओं की फौज पराजित हो गयी है, फिर भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि उनमें पहली बार देश की आम जनता का एक खौफ पैदा हुआ है। लेकिन स्वयं अन्ना और उनके साथ खड़े युवाओं तथा देश के आम लोगों को यह समझना होगा कि देश की सत्ता पर कुंडली मारे बैठा राजनीतिक वर्ग मात्र अनशन और शांतिपूर्ण प्रतीकात्मक विरोधों से झुकने वाला नहीं है। सत्ताधारी वर्ग सत्तामद में इतने जड़ हो चुके हैं कि उन्हें अनुनय विनय की भाषा समझ में ही नहीं आती। पुरानी कहावत है कि ‘भय बिन होइ न प्रीति‘। लोगों को रामायण की उस पुराण कथा का स्मरण होगा, जब श्रीराम ने जलाधिपति समुद्र से लंका जाने का मार्ग देने की प्रार्थना करते हुए उसके तट पर तीन दिन निराहार व्रत करते गुजारे थे, लेकिन अपनी विराट सत्ता के अहंकार में डूबे समुद्र ने उनकी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। इसके बाद राम ने अनुनय-विनय का व्रत छोड़कर जब शस्त्र शक्ति का संधान किया, तो भागा भागा आया और राम को तरीका सुझाने लगा कि वह कैसे स्वयं लंका जाने का मार्ग बना सकते हैं, जिसमें वह स्वयं भी सहायता के लिए तत्पर रहेगा। इस कथा का संदेश साफ है कि सत्ताधारी वर्ग को जब तक अपनी सत्ता जाने का भ्य नहीं उत्पन्न होता, तब तक वह किसी के भी आगे झुकने के लिए तैयार नहीं होता। अन्ना को भी इस कथा से सबक लेना चाहिए। बहुत हो गया अनशन। अब शक्ति प्रदर्शन का समय आ गया है। अन्ना को यदि अपनी मांग मनवानी है और उन्हें पूरे देश के समर्थन का विश्वास है, तो उन्हें अब संवेदना जगाने के बजाए चेतना जगाने का काम शुरू करना चाहिए। लेकिन यह काम अराजनीतिक पद्धति से नहीं हो सकता। इसके लिए राजनीति में उतरना होगा। वे स्वयं यदि कोई राजनीतिक पार्टी बनाकर यह लड़ाई नहीं लड़ सकते, तो उन्हें ऐसी राजनीतिक पार्टियों का मंच बनाना चाहिए, जो उनकी नीतियों को स्वीकार करती हों या जिनमें तथाकथित दूसरी आजादी की लड़ाई लड़ने का जज्बा हो। उन्हें अब इस नाटकीय सिद्धांत की ओट नहीं लेनी चाहिए कि वे न तो किसी पार्टी के खिलाफ हैं और न वह किसी सरकार को गिराना चाहते हैं।

वह अहिंसा में विश्वास रखते हैं, यह तो निश्चय ही अच्छी बात है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में व्यवस्था परिवर्तन के लिए हिंसा की कोई जरूरत भी नहीं है। यहां तो केवल ऐसी वैचारिक क्रांति की जरूरत है, जिसके साथ देश की आम जनता जुड़ सके। किसी अराजनीतिक क्रांति द्वारा व्यवस्था परिवर्तन का सपना कभी पूरा नहीं किया जा सकता। अन्ना को समझना चाहिए कि देश के तमाम भ्रष्ट लोगों ने प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों तरीके अपनाकर संसद, संविधान तथा न्याय व्यवस्था तीनों पर अपना कब्जा जमा रखा है। देश की वर्तमान संसद व देश का संविधान ही उनका रक्षा कवच बना हुआ है, इसलिए वह अपने इस किले में किसी को भी सेंध लगाने की कभी इजाजत नहीं देंगे।

इस देश में तमाम बुद्धिजीवी, पत्रकार व लेखक प्रायः सत्ता की दलाली में अपनी सारी मेधा खर्च करने में लगे रहते हैं। वे संविधान, कानून व परंपरा की ऐसी व्याख्या करेंगे कि नायक खलनायक और खलनायक नायक बन जाए। कांग्रेस के, विशेषकर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के एक चहेते बुद्धिजीवी व पत्रकार हैं दिलीप पडगांवकर, वह अन्ना को फासिस्ट और जिहादियों की श्रृंखला में सिद्ध करने में लगे हैं। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया‘ में प्रकाशित अपने एक आलेख में उन्होंने अन्ना को पोप, कम्युनिस्ट कमांडरों, फासिस्ट नेताओं व जिहादी सिद्धांतकारों की पंक्ति में गिनते हुए कहा कि वह भी अपने ही विचारों को सर्वोच्च व अकाट्य समझते हैं। वे उसी सिद्धांत को मानते हैं, जिसके प्रमाण अकेले वहीं हैं। उन्होंने अन्ना के विचारों की खिल्ली उड़ाते हुए लिखा है कि वह अपनी ‘अंतरात्मा‘ की आवाज पर लक्ष्य पाना चाहते हैं। वह उसे संसद- जो जनता की इच्छाओं का प्रतिरूप है- और संविधान (जो लोकतंत्र की कसौटी है) के भी उपर मानते हैं।

मतलब यह कि क्या सही है क्या गलत यह वे ही तय करेंगे। अकेले वे ही जानते हैं कि सत्य क्या है और जनता को किस लक्ष्य तक पहुंचना है। उस लक्ष्य तक पहुंचने का मार्ग अकेला वही है जिसे उन्होंने तैयार किया है। दूसरे शब्दों में भ्रष्टाचार दूर करने का उनका ही एक तरीका है, जिसे वे ही लागू करने के अधिकारी हैं। अब इस तरह वह क्या कहना चाहते हैं, इसे कोई भी समझ सकता है। वह हिंसक नक्सली नेताओं और जिहादियों से अन्ना और उनके समर्थकों को अलग नहीं मानते, क्योंकि वे भी संविधान और संसद के तौर-तरीकों को नहीं मानते और अपने मन की व्यवस्था लागू करना चाहते हैं।

उन्होंने अपनी बात की पुष्टि के लिए बाबा साहेब अम्बेडकर के एक वक्तव्य को भी उद्धृत किया है, जो उन्होंने संविधान सभा की बैठक में नवंबर 1949 में दिया था। उस समय तक संविधान निर्माण का कार्य पूरा हो चुका था। अंबेडकर ने उस वक्तव्य में कहा था कि यदि भारत को अपना लोकतंत्र बनाये रखना है, केवल बाहरी ढांचे के रूप में नहीं, बल्कि वास्तव में, तो इसके लिए सबसे पहले यह करना होगा कि देश को जो भी सामाजिक, आर्थिक लक्ष्य प्राप्त करने हैं, उसके लिए केवल संवैधानिक तरीके अपनाएं जाएं। इसका मतलब यह है कि अब हमें क्रांति यानी धरना-प्रदर्शन-आंदोलन आदि के तौर-तरीकों को छोड़ना होगा (वी मस्ट एबैंडन द ब्लडी मेथड्स ऑफ रिवोल्यूशन)। उन्होंने इसे और स्पष्ट करते हुए कहा कि हमें नागरिक अवज्ञा (सिविल डिस ओबिडियेंस) असहयोग (नॉन कोऑपरेशन) तथा सत्याग्रह जैसे तरीकों का परित्याग करना होगा। जहां संवैधानिक तौर तरीकों के रास्ते खुले हों, वहां इनको इस्तेमाल करने का कोई औचित्य नहीं है। ये तौर तरीके और कुछ नहीं, बल्कि अराजकता पैदा करने के साधन (ग्रामर ऑफ एनार्की) हैं, इसलिए इन्हें जितनी जल्दी छोड़ दिया जाए, उतना ही अच्छा होगा। इसके आगे अम्बेडकर ने जॉन स्टुअर्ट मिल की उस चेतावनी को उद्धृत किया, जिसे उन्होंने लोकतंत्र की रक्षा के लिए दिया था। मिल ने कहा था कि जो लोग लोकतंत्र की रक्षा करना चाहते हैं, उन्हें अपनी स्वतंत्रता किसी महापुरुष के आगे भी नहीं समर्पित करना चाहिए (चाहे वह कितना ही महान क्यों न हो) और न उसे इसका अधिकार देना चाहिए कि वह उनकी संस्थाओं को उलट पलट कर दे। अम्बेडकर ने इस चेतावनी को भारत के संदर्भ में विशेष रूप से रेखांकित करते हुए कहा था कि भारत एक ऐसा देश है, जहां भक्ति की प्रधानता है। यहां की राजनीति में भी व्यक्ति पूजा और भक्ति मार्ग की जैसी प्रधानता व प्रभाव है, वैसा किसी अन्य देश में नहीं है। उन्होंने सावधान किया था कि अपने देश में भक्ति या व्यक्ति पूजा का ऐसा प्रभाव है कि उससे लोकतांत्रिक संस्थाओं का पतन हो सकता है और तानाशाही उसका स्थान ले सकती है।

अम्बेडकर के उपर्युक्त वक्तव्य से असहमति नहीं व्यक्त की जा सकती, किंतु जनाब पडगांवकर साहब इस उद्धरण का जिस संदर्भ में इस्तेमाल कर रहे हैं, वह निश्चय ही उनकी बदनीयती का परिचायक है। वह अम्बेडकर के कथन का इस्तेमाल करके अन्ना हजारे को देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था का विरोधी सिद्ध करना चाहते हैं। यह वही पडगांवकर साहब हैं, जिन्हें प्रधानमंत्री ने कश्मीर समस्या के समाधान के लिए कश्मीरियों से बातचीत करके अपनी रिपोर्ट देने के लिए नियुक्त कर रखा है। ये वही पडगांवकर साहब हैं, जो पाकिस्तानी आई.एस.आई. के अमेरिका स्थित एजेंट गुलाम अहमद फई के भी दोस्त हैं और भारत के प्रधानमंत्री के भी। ये कश्मीरी अलगाववादियों के आंदोलन और विरोध का तो समर्थन करते हैं और भारत सरकार को भी सलाह देते हैं कि उनकी मांगें मानी जानी चाहिए और उनके प्रति उदारता बरतनी चाहिए, लेकिन अन्ना हजारे को यह फासिस्ट और आतंकी सिद्ध करने में लगे हैं। उन्हें नेहरू परिवार की व्यक्ति पूजा का खतरा नहीं दिखयी देता, किंतु अन्ना को मिल रहे जनसमर्थन से देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए गंभीर खतरा नजर आ रहा है। उनके अनुसार आज तो अनशन करके जान देने की धमकी देकर अन्ना हजारे अपने विचारों का लोकपाल बिल पास करना चाहते हैं, कल कोई ‘खाप-न्याय‘ (रिवायत के नाम पर) को लागू करने के लिए कानून बनाने को कहने लगे या किसी पूजा स्थल को गिराने की बात करने लगे या पर्यावरण के नाम पर कल कारखानों व परमाणु रियेक्टरों का निर्माण रोकने के लिए अनशन करने लगे, तो क्या होगा। अब इन बातों से उनके कुतर्कों का कोई भी अनुमान लगा सकता है।

निश्चय ही किसी भी व्यक्ति या समूह को संसदीय या लोकतांत्रिक व्यवस्था के अपहरण की इजाजत नहीं दी जा सकती, लेकिन यहां अहम सवाल यह है कि इस देश के संविधान, संसद व लोकतंत्र का अपहरण किसने कर रखा है। व्यक्ति पूजा किसकी हो रही है। भक्ति मार्ग का अनुसरण सत्तारूढ़ दल कर रहा है या कोई और।

अम्बेडकर ने जो चेतावनी दी थी, वह आदर्श संसदीय स्थिति के लिए थी। आज का सच तो यह है कि देश की संसदीय व्यवस्था का अपहरण हो चुका है। आज की असली समस्या देश के संविधान, संसद तथा लोकतंत्र को अपहर्ताओं के चंगुल से मुक्त कराने की है। आज देश की सबसे बड़ी पार्टी सबसे अधिक भक्तिमार्गी है। यहां उसके एक सर्वोच्च देवता हैं, उनका परिवार है और उनके गणधर, दरबारियों का दल है। बाकी सब कीर्तनिया हैं, जो नाम जप और आरती-भोग में लगे रहते हैं और नित्य प्रसाद की आकांक्षा में मंदिर के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं।

इन पंक्तियों के आपके पास पहुंचने तक हो सकता है कि अन्ना हजारे का 12 दिनों से चला आ रहा अनशन समाप्त हो गया रहे। शायद वह संसद की अपील मान लें। वैसे भी यह अनशन अब उन्हें तोड़ ही देना चाहिए, क्योंकि इससे जनशक्ति के नवजागरण का जितना काम हो सकता था, हो गया है। अब इसके बाद उन्हें स्वस्थ होकर व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई शुरू करनी चाहिए। वह लड़ाई निश्चय ही लंबी होगी, लेकिन उसके लिए अब जमीन तैयार हो चुकी है। देश में वास्तविक जनसापेक्ष लोकतंत्र की स्थापना करनी है, तो हमें नया संविधान और नई राजनीतिक प्रणाली विकसित करनी होगी। इसके लिए हमें ब्रिटिश उत्तराधिकार के बोझ से बाहर निकलकर अपनी जनकेंद्रित व्यवस्था लागू करनी होगी।

28/08/2011

गुरुवार, 18 अगस्त 2011

लंदन का दंगा, दुनिया के लिए एक चेतावनी !

भयावह आगजनी
लंदन में गत 6 अगस्त को एकाएक भड़क उठा दंगा, केवल ब्रिटिश शासकों के लिए ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के आधुनिक लोकतांत्रिक देशों के लिए एक चेतावनी है। यह ब्रिटिश शैली की लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था को भी एक चुनौती है, किंतु सेवा केवल धनी और ताकतवर समुदाय की ही करती है। इस व्यवस्था से यही संदेश मिल रहा है कि केवल कठोर परिश्रम व नियमों के अनुसार करम करके न तो समृद्धि हासिल की जा सकती है और न सम्मानित भविष्य ही सुनिश्चित किया जा सकता है। वास्तव में लोकतंत्र और विधि का शासन एक धोखे की टट्टी है, जिसकी ओट लेकर दबंग और शक्तिशाली वर्ग सारी आर्थिक शक्तियों पर कब्जा जमाए हुए हैं।

ब्रिटेन में भड़के बीते हफते के देश्व्यापी दंगों से ब्रिटेन ही नहीं, शायद पूरे यूरोप के लोग हतप्रभ हैं। शनिवार 6 अगस्त को एकाएक भड़का दंगा कैसे विकराल हो उठा, यह लोगों की समझ में नहीं आ रहा है। टीवी पर देखकर इस घटना का विश्लेषण करने वाले पंडित भी चकित हैं, क्योंकि इस घटना के कारणों को कोई तर्कसंगत व्याख्या नहीं सूझ रही है। मीडिया में आ रही सारी खबरें इस घटना से शुरू हो रही हैं कि पुलिस गोली से मारे गये युवक मार्ग दुग्गन के लिए न्याय मांगने के लिए करीब 300 लोगों की भीड़ उत्तरी लंदन के टोटनेहम पुलिस थाने पर एकत्र हुई थी। मार्ग दुग्गन क्यों मारा गया, यह ठीक-ठीक पता नहीं है, लेकिन शनिवार को उसके लिए न्याय मांगने आयी भीड़ एकाएक इतनी उग्र हो गयी कि वह सीधे तोड़फोड़, आगजनी, हिंसा व लूटपाट पर आमादा हो गयी। कुछ ही समय में यह दंगा पूरे लंदन में फैल गया और फिर देश के अन्य शहरों मैनचेस्टर, बर्मिंघम, लिवरपूल, सैलफर्ड, लैस्टरा, नाटिंघम, बुलवर हैफ्टन, ब्रिस्टल आदि में फैल गया। इन दंगाइयों में ज्यादातर किशोर शामिल थे, बाद में बड़ी उम्र वाले भी शामिल हो गये। लोग टीवी पर यह देखकर चकित थे कि बमुश्किल 10-11 साल तक के बच्चे इस आगजनी व लूट में शामिल थे। वे मकानों व दुकानों में आग लगा रहे थे। लूटने लायक हर सामान लूट रहे थे। शराब व बियर की बोतलें, गहने, बिजली के उपकरण, इलेक्ट्र्ॉनिक सामान, डिजाइनर कपड़े -जो जिसके हाथ लग रहा थ, ले के भागने या बाकी में आग लगाने में जुटा था। सड़क चलते लोगों को भी लूटने की घटनाएं हुईं। सड़क चलते हमले के शिकार ज्यादातर प्रवासी एशियायी थे। हमला करने वालों में काले, गोरे, भूरे हर तरह के लोग थे। खुदरा दुकानदार शायद सबसे ज्यादा लूटे गये। ज्यादातर लुटेरे अपना चेहरा छिपाए हुए थे, जिससे सड़कों व दुकानों में लगे सी.सी. टीवी के कैमरे व पुलिस के वीडियो कैमरों से उनकी पहचान न हो पाए।

इस सारी घटना का एक रोचक पक्ष यह भी रहा कि प्रारंभिक दौर में इस लूटपाट व आगजनी में पुलिस ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया। वह मूक दर्शक बनी रही। भीड़ खुलेआम आग लगा रही थी, दुकानों को लूट रही थी, लेकिन पुलिस खड़ी थी। अव्वल तो शहर में इतनी पुलिस ही नहीं थी कि इतने व्यापक उपद्रव को रोक सके। दूसरे जहां वह थी भी, वहां वह तटस्थ दर्शक बनी रही। प्रशासन भी पूरी तरह किंकर्तव्यविमूढ़ नजर आ रहा था। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। प्रधानमंत्री इस समय छुट्टी मनाने के लिए इटली गये हुए थे। अनियंत्रित दंगे की खबर सुनकर वह छुट्टी बीच में ही छोड़कर लंदन भागे। उनके आने पर अवश्य प्रशासन में हरकत नजर आई। लंदन में अतिरिक्त पुलिस फोर्स मंगाई गई। शहर की गश्त में लगी करीब 6000 पुलिस की संख्या बढ़ाकर 16,000 की गयी। तीन दिन की आगजनी व लूटपाट के बाद लंदन में तो शांति वापस आ गयी, लेकिन अन्य शहरों में यथेष्ट पुलिस बल के अभाव में यह हिंसा बुधवार तक चलती रही।

प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने दंगों पर उतरी इस भीड़ को उद्दंड अपराधियों की संज्ञा दी है और उनकी इस प्रवृत्ति के लिए उनके पालकों को जिम्मेदार ठहराया है। उन्होंने हर कीमत पर शांति व कानून व्यवस्था कायम करने का आश्वासन दिया है, तथा उन सबको उचित सजा देने की बात की है, जो इस हिंसा व उपद्रव में शामिल थे। उनके अनुसार सी.सी. टीवी कैमरों द्वारा लिये गये चित्रों का विश्लेषण किया जा रहा है तथा हमलावरों की पहचान की जा रही है। पुलिस इन वीडिया फुटेज को आम जनता के लिए भी जारी कर रहे हैं, जिससे दंगाइयों की पहचान की जा सके। दंगों के दौरान पुलिस तथा फौजदारी की अदालतें दिन रात चौबीसों घंटों काम करती रहीं। करीब साढ़े सात सौ से अधिक गिरफ्तारियां की गयीं, जिनके विरुद्ध अदालती मामले दर्ज करने की तैयारी चल रही है।

दुनिया इन दंगों व लूटपाट की बात देख सुनकर इसलिए चकित है कि उसकी नजर में ऐसी घटनाएं तो गरीब, पिछड़े, विकासशील देशों में हुआ करती है। दंगे फसाद करना और छोटी-छोटी उपभोग वस्तुओं की लूटपाट करना तो असभ्य, कुसंस्कृत और गरीब समाज के लक्षण है। ब्रिटेन तो दुनिया के समृद्धतम देशों में गिना जाता है और आधुनिक सभ्यता व संस्कृति का तो वह गुरु समझा जाता है। माना जाता है कि आधुनिक मनुष्यता के सारे आदर्श और आचरण के श्रेष्ठतम नियम वहीं से दुनिया में फैले हैं। फिर ये क्या हो गया। कहां गये सभ्यता के उंूचे संस्कार, कहां गयी औद्योगिक समृद्धि की गर्वोन्नत श्रेष्ठता! ऐसा नहीं कि इन दंगों के दौरान ब्रिटेन का उन्नत संस्कारों वाला सामाजिक चेहरा नहीं दिखायी पड़ा। दंगों की तोड़फोड़ व हिंसा की वारदातों के बीच ऐसे लोग भी घरों से बाहर आये, जो हाथों में झाड़ू व ब्रश लिए हुए थे और फौरन दुकानेां के टूटे कांच तथा सड़कों पर बिखरे मलबे को साफ करने में लग गये। नागरिक कर्तव्य तथा सामुदायिकता की भावना का ऐसा प्रदर्शन भी कम देखने को मिलता है, लेकिन पूरे ब्रिटेन में हिंसा का जैसा दृश्य देखा गया, उसे ढकने में यह सामाजिक प्रदर्शन नाकामयाब रहा। ऐसे भले लोग थोड़ी संख्या में तो हर देश व हर समाज का चारित्रिक प्रतिनिधित्व नहीं करते। प्रतिनिधित्व करने वाला तो वह वर्ग था, जो पांच दिन तक ब्रिटेन की सारी उदात्त पहचान को रौंदता रहा।

राजनीति व समाज शास्त्र के पंडित इन घटनाओं की तरह-तरह से व्याख्या कर रहे हैं। एक सर्वाधिक तर्कसंगत लगने वाली व्याख्या आर्थिक है। लगभग पूरा यूरोप पिछले कुछ वर्षों से जिस आर्थिक संकट से जूझ रहा है, यह उसका परिणाम है। मंदी के दौर में ब्रिटिश सरकार ने शिक्षा, स्वास्थ्य तथा जनसेवाओं के मद में भारी आर्थिक कटौती की। जन कल्याणकारी योजनाओं में कटौती के कारण पिछड़े व गरीब तबके में उफन रहा असंतोष इस दंगे के रूप में फूट पड़ा। आंकड़े बताते हैं कि इस समय देश का हर पांचवां युवक बेरोजगार है। लेकिन केवल इस सिद्धांत से उपर्युक्त लूटपाट, हिंसा व आगजनी की व्याख्या नहीं हो सकती। दुकानों में लूटपाट करते जो युवक पकड़े गये हैं, उनमें सब बेरोजगार ही नहीं हैं। उनमें नियमित रोजगार वाले नौकरीपेशा शिक्षक, होटलों के शेफ तथा छोटे कर्मचारी भी हैं। एक तर्क यह दिया जा रहा है कि ब्रिटेन में बड़ी संख्या में आ बसे अफ्रीकी व एशियायी मूल के लोगों ने यह दंगा किया। पुलिस द्वारा की गयी एक युवक की हत्या से बस उन्हें एक मौका मिल गया और उन्होंने मनमाना उपद्रव शुरू कर दिया, लेकिन यह भी पूरी तरह सही नहीं है, क्योंकि टीवी पर आ रही दंगों की रिपोर्टों में साफ दिखायी दे रहा है था कि लूटपाट करने वालों में काले या भूरे लोगों के मुकाबले गोरों की संख्या ज्यादा थी। दंगे की जो रिपोर्टें मिल रही हैं, उनके अनुसार जिन खुदरा दुकानों को लूट व आगजनी का शिकार बनाया गया, उनमें ज्यादातर एशियायी मूल के लोगों की हैं। यह निश्चय ही ब्रिटिश युवकों के बीच एशियायियों की बढ़ती समृद्धि के प्रति उग्र होती ईर्ष्या का परिणाम है। उन्हें लग रहा है कि उनके रोजगार के अवसर ये बाहर से आए प्रवासी हड़प ले रहे हैं। इन दंगों में एक चौथा कारण नस्ली व मजहबी घृणा का भी देखा जा सकता है। दंगे के दौरान केवल तीन मौतों की खबर है। ये तीनों ही मुस्लिम हैं। वे तीनों अपने धार्मिक व व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को दंगाइयों के हमलों से बचाने के लिए सड़क की पटरी -पेवमेंट- पर आ गये थे। तभी एक तेज रफ्तार कार उन तीनों को कुचलती निकल गयी। यह कोई अजनाने हुई दुर्घटना नहीं, बल्कि जानबूझकर की गयी हत्या थी। इसके अलावा सड़कों पर हुई लूट का शिकार भी ज्यादातर मुस्लिम प्रवासियों को बनाया गया। ’यू ट्यूब‘ पर डाले गये एक चित्र में मुहम्मद अशरफ हाजिक नामक एक छात्र को दिखाया गया है। उसे कम उम्र गोरे लड़कों ने मिलकर बुरी तरह पीटा और उसका सामान छीन लिया। उसके किसी दोस्त ने अस्पताल में पहंुंचकर उससे बात की और बातचीत का कुछ उसमा चित्र ‘यू ट्यूब‘ पर डाल दिया। इस बातचीत में हाजिक बताता है कि किस तरह कुछ कम उम्र के गोरे लड़कों ने उस पर हमला किया और किस तरह करीब 11 वर्ष के एक गोरे लड़के ने उसे चाकू मार देने की धमकी दी। अभी मात्र एक महीने पहले वह एक छात्रवृत्ति जीतकर मलेशिया से यहां पढ़ने आया था। उसका जबड़ा टूट गया है और रायल लंदन अस्पताल में उसका इलाज चल रहा है।

वास्तव में इस समय ब्रिटेन, अमेरिका व यूरोप के अन्य देश् ही नहीं, बल्कि दुनिया के प्रायः सभी तथाकथित सभ्य व लोकतांत्रिक देश एक भारी सैद्धांतिक विसंगति, सामाजिक विखंडन तथा नैतिक पतन के दौर से गुजर रहे हैं। इनमें भारत भी शामिल हैं। क्योंकि उसन भी पश्चिम के उन्हीं आर्थिक सामाजिक राजनीतिक व नैतिक मूल्यों को अपना रखा है, जिनकी स्थापना इन पश्चिमी देशों द्वारा की गयी है। अब पश्चिम के ये सैद्धांतिक आधार बुरी तरह बिखरने लगे हैं। सिद्धांततः लोकतंत्र, बहुसंस्कृतिवाद, धार्मिक व नस्ली समानता आदि के सिद्धांत बड़े आकर्षक तथा मनुष्यता के आदर्श प्रतीत होते हैं, लेकिन व्यवहार में धनी व ताकतवर लोग ही इस स्थिति का लाभ उठा रहे हैं। मजहबी व नस्ली फासिस्ट ताकतें विस्तार करने में लगी हैं। समाज के धनी व ताकतवर लोगों ने राजनीति सत्ता तथा आर्थिक संसाधनों पर इस तरह कब्जा कर लिया है कि बाकी का जन समुदाय मात्र उनकी दया का मोहताज बनकर रह गया है। लोकतंत्रीक व्यवस्था में यह आशा की गयी थी कि देश के आथर््िाक व औद्योबिक विकास का लाभ देश के प्रत्येक नागरिक को मिल सकेगा, शिक्षा के प्रसार व राजनीतिक व सामाजिक अवसर की समानता से मजहबी अधिनायकवाद का तंत्र टूटेगा। मानवीय समता की भावना का विस्तार होगा, आर्थिक विकास से विषमताओं का गढ़ ढहेगा, लेकिन अब देखा जा रहा है कि यह सपना भारत जैसे विकासशील देश में ही नहीं, ब्रिटेन जैसे विकसित व समृद्ध देश में भी टूट रहा है। ब्रिटेन में हुए इस दंगे ने तो वहां की सामाजिक असलियत को दुनिया के सामने उजागर कर दिया, लेकिन यूरोप के अन्य देशों तथा अमेरिका आदि की स्थिति भी इससे भिन्न नहीं है। पिछली आर्थिक मंदी ने इन सभी देशों का मुलम्मा झाड़ दिया है।

लोकतंत्र केवल कहने को लोकतंत्र है। धनी और ताकतवर वर्ग आम आदमी की कीमत पर अपनी सुख-समृद्धि को बढ़ाने में लगा है। आर्थिक मंदि के दौर में घाटे शिकार बैंगों को तो अरबों डॉलर का पैकेज देकर बचाया जा रहा है, किंतु आम आदमी की कल्याण योजनाओं पर खर्च होने वाले धन में कटौती की जा रही है।ब्रिटेन के शासकों को अगले वर्ष होने जा रही ओलंपिक खेलों की अधिक चिंता है, देश के संकटग्रस्त लोगों की चिंता कम। जैसे अपने देश में राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी के नाम पर अरबों रुपये की लूट चल रही थी और दिल्ली के गरीबों को उजाड़ा जा रहा था। दिल्ली सरकार गरीबों के लिए निर्धारित धन को खेलों के आयोजन पर खर्च कर रही थी।

ब्रिटेन में 6 अगस्त को भड़का यह दंगा आकस्मिक नहीं था। यह एक साल पहले से खदबदा रहा था। गत वर्ष नवंबर महीने में जब कैमरन की कंजरवेटिव सरकार ने शिक्षा व्यय में कटौती की घोषणा की थी, तो लाखों छात्र पुलिस से भिड़े थे। अभी इस वर्ष के मार्च महीने में भी करीब 5 लाख ब्रितानी सड़कों पर उतरे थे। छोटे-छोटे कई गुटों की पुलिस से मुठभेड़ भी हुई थी। आगे और भी आंदोलन हो सकते हैं, क्योंकि शिक्षा, स्वास्थ्य तथा जनकल्याण की योजनाओं में की गयी कटौती के खिलाफ आक्रोश क्रमशः बढ़ रहा है। गत 6 अगस्त को पुलिस द्वारा एक युवक की हत्या निश्चय ही मात्र एक बहाना था। उसे लेकर जो दंगा भडका वह महीनों से जमा हो रहे तरह-तरह के जनाक्रोश का परिणाम था।

लोग इस पर चकित हैं कि कानून का सम्मान करने वाला शांतिप्रिय समुदाय क्यों हिंसा, लूटपाट और आगजनी पर उतर आया, लेकिन वे इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं कि आज का युवक व शांतिप्रिय नागरिक भी भीतर से कितने गुस्से में उबल रहा है। आम आदमी की मामूली सी लूट तो घोर अपराध जैसी दिखायी देती है। किंतु बैंकर, राजनेता, बड़े व्यवसायी तथा अन्य ताकतवर लोग देश की आम जनता को किस तरह लूट रहे हैं, यह किसी को नहीं दिखायी देता।

आज का शिक्षित युवा वर्ग साफ देख रहा है कि औद्योगिक दृष्टि से विकासशील तथा समृद्ध पश्चिम के देशों में भी केवल कठोर परिश्रम व कानून के रास्ते पर चलकर न तो समृद्धि हासिल की जा सकती है और न अपना भविष्य ही सुरक्षित किया जा सकता है। सत्ताधारी समुदाय अपनी शक्तियों का उपयोग धनी व शक्तिशाली लोगों की रक्षा में करता है, आम आदमी के लिए नहीं। पश्चिम के विफल हुए बैंकों के अधिकारी भी करोड़ों में वेतन ले रहे हैं। उनके लिए सरकार भी पैकेज देने के लिए तैयार रहती है और वह भी आम आदमी के जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं में कटौती करके। ब्रिटिश प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि देश के युवकों में गैरजिम्मेदारी की संस्कृति /कल्चर ऑफ इर्रेस्पांसिबिलिटी/ बढ़ रही है। लेकिन शायद वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि यह गैर जिम्मेदारी युवकों में नहीं, बल्कि उनकी राजनीतिक व सत्ता संस्कृति में बढ़ रही है।

अभी पिछले दिनों नार्वे में एक युवक द्वारा प्रधानमंत्री के कार्यालय के पास कार बम विस्फोट करने तथा सत्तारूढ़ लेबर पार्टी की युवा शाखा के शिविर पर अंधाधुंध गोली चलाने की घटना घटी थी, जिसमें 87 लोग मारे गये थे और कई सौ घायल हुए थे। वह अकेले एक आदमी की करतूत थी। यहां ब्रिटेन में एक साथ हजारों युवकों द्वारा आगजनी, लूटपाट तथा राजजनी जैसी वारदातें की गयीं। दोनों का चरित्र अलग-अलग हो सकता है, उद्देश्य अलग हो सकता है, किंतु एक समानता दोनों में है। दोनों ही अपनी राजनीतिक प्रणाली से असंतुष्ट हैं और उसके खिलाफ हैं।

ब्रिटेन के इस दंगे के संदर्भ में एक आम शिकायत की जा रही है कि आखिर लंदन की पुलिस इतनी तटस्थ क्यों बनी रही। पुलिस सख्ती बरतती है, तो तथाकथित मानवाधिकारवादी उसके पीछे पड़ जाते हैं। जो हालत अपने देश में है, वही ब्रिटेन में भी है। तमाम लंदनवासियों को घोर शिकायत है कि पुलिस वालों ने उनके जानमाल की रक्षा क्यों नहीं की, उन्होंने क्यों उपद्रवियों को नंगा नाच नाचने दिया, किंतु इन पुलिस वालों की पीड़ा कोई समझने के लिए तैयार नहीं है। यदि वे सख्ती बरतते हैं, तो न्यायालय उल्टे उन्हें ही सजा सुनाते हैं, मीडिया भी उनकी निंदा करता है और राजनीतिक चिंतक भी उन्हें अधिक मानवीय व्यवहार का उपदेश झाड़ते हैं। अपने यहां अभी ताजा-ताजा लोगों ने सुना होगा, जब सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी की कि फर्जी मुठभेड़ के दोषी पाये गये पुलिस वालों को फांसी की सजा दे देनी चाहिए। कश्मीर व उत्तर पूर्व में तैनात पुलिस व सेना के जवानों पर मानवाधिकार हनन के आरोप आये दिन लगते रहते हैं और उन्हें इसकी सजा भी झेलनी पड़ती है। ब्रिटेन में पुलिस को ऐसी आलोचनाओं और सजा की स्थितियों से गुजरना पड़ता है। इस दंगे की शुरुआत करने वाले ज्यादातर कम उम्र किशोर थे, इनके विरुद्ध कठोरता बरतना तो पुलिस के लिए और महंगा पड़ सकता था। किसे अनुमान था कि दंगा इस स्तर तक फैल जायेगा, इसलिए प्रारंभिक घटनाओं को पुलिस ने यों ही जाने दिया। बाद में उसी पुलिस ने दंगे पर नियंत्रण भी कायम किया। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि ब्रिटेन में अब स्थई शांति कायम हो गयी है। इस तरह का दंगा भले न दोहराया जाए, लेकिन सरकारी नीतियों के खिलाफ आंदोलन-प्रदर्शन आगे भी हो सकता है। और यदि सरकार ने अपनी नीतियां न बदली तो उसका हिंसक रूप भी सामने आ सकता है।

आज प्रायः पूरी दुनिया का युवा वर्ग असंतोष का शिकार है और बेहद क्षुब्ध है, किंतु इसके लिए दोषी यह युवा वर्ग नहीं, बल्कि वह सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था है, जिसमें वह जी रहा है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन अभी स्वयं युवा हैं और वह इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि ब्रिटेन ने जिस आधुनिक राजनीतिक प्रणाली को स्वीकार किया है, उसमें सैद्धांतिक खामियां हैं। तो जरूरत इस बात की है कि उन खामियों को दूर किया जाए। यदि वे खामियां नहीं दूर की जातीं, तो यह युवा असंतोष व हिंसा एक देशीय नहीं रह जायेगी। इसे यदि हर देश् ने अपने-अपने स्तर पर संभालने की कोशिश नहीं की, तो यह एक विश्वव्यापी समस्या बन सकती है।


 

रविवार, 7 अगस्त 2011

आधुनिक बहुसंस्कृतिवाद और बढ़ता मजहबी उन्माद

कुछ भी हो नार्वेजियन अभी भी शांति और प्रेम के पुजारी हैं।
किंतु क्या मजहबी उन्मादी इसे समझेंगे ?

नार्वे की राजधानी ओस्लो में गत 22 जुलाई शुक्रवार को एक कट्टर ईसाई युवक ऐंडर्स बेहरिंग ब्रीविक /32/ ने प्रधानमंत्री कार्यालय के निकट कार बम विस्फोट के बाद शहर के नजदीक स्थित एक द्वीप पर ग्रीष्मकालीन शिविर में एकत्र सत्तारूढ़ लेबर पार्टी की युवा शाखा के किशोरों पर अंधाधुंध गोली चलाकर कुल 86 लोगों को मौत के घाट उतार दिया। उसका कहना है कि यह दिल दहलाने वाला कांड उसने यूरोप के देशों को जगाने के लिए अंजाम दिया है, जो सो रहे हैं और जिहादी इस्लामी उनकी जमीन पर अपना आधिपत्य जमाते जा रहे हैं। यह शायद पहला अवसर है, जब किसी ईसाई ने अपने ही लोगों को निशाना बनाया है। ब्रीविक का कहना है कि ये सांस्कृतिक मार्क्सवाद के अनुयायी बहुलतावादी राजनीतिक दल तथा उनकी सरकारें हमारी राष्ट्रीय संस्कृति के सबसे बड़े शत्रु हैं, क्योंकि वे उसे नष्ट करने वाली शक्तियों को बढ़ावा दे रहे हैं।

एंडर्स बेहरिंग ब्रीविक (32) इन दिनों यूरोप का ही नहीं, शायद दुनिया का सर्वाधिक चर्चित नाम है। 22 जुलाई शुक्रवार को नार्वे के शहर ओस्लो में जो कुछ हुआ, वह कल्पनातीत था। नार्वे यूरोप का शायद सर्वाधिक शांतिप्रिय देश है। यहां की पुलिस बिना हथियार के काम करती है। वहां शायद कहीं भी सुरक्षा जांच की चौकियां नहीं है। प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रवेश द्वार पर भी कोई मेटल डिटेक्टर नहीं है। कहीं किसी के बैग की तलाशी नहीं। इस 22 जुलाई की घटना के बाद वहां पहुंचे यूरोपीय देशों व अमेरिका के पत्रकार भी यह देखकर चकित थे कि कहीं भी उनकी न तो तलाशी ली गयी और न उन्हें ‘मेटल डिटेक्टरों‘ से गुजरना पड़ा। कईयों ने अपने देश में आकर अपनी जो रिपोर्टें लिखीं, उसमें उन्होंने वहां की पुलिस को निकम्मा तथा देश को सर्वाधिक असुरक्षित ठहरा दिया। भला, आज ऐसे भी कोई देश चलता है। इससे भी ज्यादा आश्चर्य उन्हें तब हुआ, जब इतने बड़े हत्याकांड के बाद भी कहीं गुस्से या बदले की भावना का इजहार नहीं, कोई नारेबाजी नहीं, कोई आरोप-प्रत्यारोप नहीं। लोग गमगीन थे, उनकी आंखों में आंसू थे, लेकिन कोई भी पुलिस या सरकार को कोसता हुआ नजर नहीं आ रहा था। कोई उस युवक को फांसी चढ़ाने या मार डालने की बात नहीं कर रहा थ, जिसने प्रधानमंत्री कार्यालय के समक्ष बम विस्फोट किया तथा राजधानी ओस्लो के निकट चल रहे युवाओं के एक शिविर पर अंधधुंध गोलियों की वर्षा कर करीब 87 लोगों को मार डाला। बम विस्फोट में भी कम से कम 7 लोग मारे गये। यह सही है कि नार्वे में मौत की सजा पर प्रतिबंध है और बड़े से बड़े अपराध के लिए अधिकतम केवल 23 साल के कारावास की सजा हो सकती है,फिर भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि इतने बड़े हत्याकांड के बाद भी उसे मौत की सजा देने की कोई मांग कहीं से नहीं उठी। नार्वे मूल के एक ब्रिटिश लेखक ने यह सवाल जरूर उठाया है कि क्या इतनी ही तटस्थता तब भी बरती जाती, यदि हमलावर एक ईसाई न होकर कोई मुस्लिम होताऋ। फिर भी नार्वे वासियों की शालीनता, सहिष्णुता तथा अत्युच्चस्तरीय मनुष्यता की प्रशंसा करनी होगी कि उसने अपनी जीवनशैली तथा सिद्धांतों को पूर्ववत् बनाये रखने का संकल्प दोहराया है। वहां के लोगों ने हिंसा की प्रतिक्रिया में प्रेम तथा खून के जवाब फूलों से देने का प्रयास किया है। इस हिंसक वारदात के जवाब में नार्वेवासियों ने पूरे ओस्लो को फूलों से पाट दिया। हर गली, चौराहे, मकान, दीवाल पर फूल ही फूल। लोगों ने ओस्लो की गलियों में ऐसी तख्तियों को लेकर प्रदर्शन किया, जिस पर प्रेम का संदेश था। तख्तियों पर ‘ओस्लो‘ की जगह ‘ओस्लव‘ लिखा हुआ था और इस शब्द के बीच में आए ‘ओ‘ को गुलाबी दिल का आकार दिया गया था। अगल-बगल में भी इसी तरह दिल के निशान बनाये गये थे। प्रधानमंत्री व लेबर पार्टी के नेता जेन्स स्टाल्टेन बर्ग ने बार-बार अपनी इस घोषणा को दोहराया कि ऐसे हमले हमारी शांत और सहिष्णु जीवनशैली को नहीं बदल सकते। हम इससे डर कर अपनी परंपरा को तोड़ नहीं सकते। निश्चय ही यह अद्भुत साहस का प्रदर्शन है, लेकिन सवाल है कि दुनिया में बढ़ रही धार्मिक या सांस्कृतिक ‘युयुत्सा‘ की भावना इस शांति और प्रेम की जीवनशैली को जीवित रहने देगी।

उस शुक्रवार की सुबह ओस्लो की जिस बिल्डिंग में बम विस्फोट हुआ, उसमें नार्वे सरकार के प्रधानमंत्री व वित्त मंत्री के कार्यालय के अलावा वहां के प्रमुख दैनिक ‘वेड्रेंस गे‘ का मुख्यालय भी था। कई अन्य मंत्रालयों व मीडिया कंपनियों के दफ्तर भी उसके आस-पास ही हैं। इस विस्फोट के कुछ समय बाद ही ओस्लो से केवल 40 कि.मी. दूर एक द्वीप ‘यूतोया‘ में गोलीबारी की खबर मिली। इस द्वीप पर सत्तारूढ़ लेबर पार्टी की ‘युवा शाखा‘ का एक शिविर चल रहा था। हमलावर ने वहां उन युवाओं पर करीब डेढ़ घंटे तक अंधाधुंध गोलियां चलायी, जिसमें कुल 87 लोग मारे गये और सैकड़ों घायल हुए। ओस्लो में हुए विस्फोट में यद्यपि मौत तो केवल 7 लोगों की हुई, लेकिन घायलों की संख्या यहां भी सौ से उपर थी।

करीब 50 लाख की आबादी वाले इस शहर में इस तरह की यह पहली घटना थी। स्वाभाविक था कि पहला अनुमान यही लगाया जाता कि यह किसी इस्लामी आतंकवादी संगठन की ही कारगुजारी है। अफगानिस्तान में ‘नाटो‘ की सेना के साथ ‘नार्वे‘ के सैनिक भी ‘अलकायदा‘ व ‘तालिबान‘ जैसे जिहादी संगठनों से लड़ रहे हैं। इसलिए संभव है किसी जिहादी संगठन ने यह हमला किया हो। नार्वे बहुत आसान ‘टार्गेट‘ था। आतंकवादी तो ऐसे निशाने ढूंढ़ते ही हैं, जहां कम से कम प्रतिरोध का सामना करना पड़े और अधिक से अधिक खून-खराबा किया जा सके। मीडिया में एक ऐसी खबर भी आ गयी कि ‘अलकायदा‘ से सम्बद्ध एक जिहादी संगठन ‘अबू सुलेमान अल नसीर‘ ने इसकी जिम्मेदारी भी ले ली है, लेकिन बाद में पता चला कि यह दावा गलत था। आखिरकार जब यह पता चला कि हमलावर युवक कट्टर ईसाई है, तो लोगों को एकाएक विश्वास ही नहीं हुआ कि उसने क्यों अपने ही लोगों पर इस तरह का नृशंस हमला किया।

नार्वे की विशेष पुलिस /जो हथियार भी रखती है/ जब यूतोया द्वीप पहुंची और हमलावर को काबू में किया, तब पता चला कि 32 वर्षीय एंडर्स बेहरिंग ब्रीविक नार्वे का ही नागरिक है और उसने बहुत सोच विचार और लंबी तैयारी के बाद यह हमला किया। उसने अकेले ही विस्फोट और गोलीबारी दोनों ही घटनाओं को अंजाम दिया। विस्फोट कराने के बाद वह नौका लेकर सीधे यूतोया द्वीप पहुंचा। नार्वे का यह बहुत ही खूबसूरत रिसोर्ट हैं, जहां लोग सप्ताहांत की छुट्टियां मनाने या मौज मस्ती के लिए पहुंचते हैं। ब्रीविक को पता था कि उस दिन वहां सत्तारूढ़ लेबर पार्टी की युवा शाखा का कैंप चल रहा है। उसने वहां पहुंचते समय नार्वे पुलिस का जैकेट पहन लिया था, जिससे कोई उस पर भूलकर भी संदेह न करे। उसके पास एक स्वचालित टेलिस्कोपिक रायफल तथा एक पिस्तौल थी। पकड़े जाने पर उसने बताया कि प्रधानमंत्री कार्यालय के पास बम रखने का काम भी उसने ही किया है।

आम तौर पर यह कहा जा रहा है कि वह कोई पागल या सिरफिरा युवक है, जिसने इस तरह की भयावह कार्रवाई कर डाली, लेकिन ऐसे भी बहुत से लोग हैं, जो यह मानते हैं कि वह न तो पागल है, न सिरफिरा। उसके साथ पूछताछ करने वाले पुलिस अधिकारी भी मानते हैं कि वह कोई विकृत मस्तिष्क का व्यक्ति नहीं है। वह गहरी सोच का एक विवेकशील व्यक्ति है। उसने जो हिंसा फैलाई है, उसे वह खुद भी अच्छा नहीं मानता। उसने इस सारी कार्रवाई पर गहरा अफसोस व्यक्त किया है, लेकिन इसके साथ ही उसका यह भी कहना है कि इसके अलावा उसके पास कोई और रास्ता भी नहीं था। वह इसे यूरोप को जगाने का शंखनाद (वेक अपकॉल) कहता है। उसका कहना है कि मुस्लिम जिहादी ताकतें यूरोप पर कब्जा करती जा रही हैं और पूरे यूरोपवासी सोए हुए हैं।

जैसी खबरें मिल रही हैं, उसके अनुसार नार्वे में दो तरह की भावनाएं उभरती दिखायी दे रही हैं। एक तो करीब 86 लोगों की मौत /जिसमें अधिकांश किशोर हैं/से दुखी और भावाकुल है। वह समझता है कि यह किसी स्वस्थ दिमाग वाले विवेकशील व्यक्ति का काम तो नहीं हो सकता। निश्चय ही यह किसी शैतानी दिमाग वाले या विवेकहीन पागल और नृशंस व्यक्ति का काम है। तो दूसरी तरफ ऐसे भी लोग हैं- जो उसे पागल नहीं समझते और अपने निजी दुःख के बावजूद उसके राजनीतिक विचारों से सहमत होते नजर आ रहे हैं। ऐसी घटनाओं का अध्ययन करने वालों की राय में भी ऐसे लोग पागल नहीं होते। वाशिंगटन में ‘जेन्स टेररिज्म एंड इंसर्जेंसी सेंटर‘ के संपादक विल हर्टले का कहना है कि आतंकी हमले करने वाले ऐसे ‘अकेले भेड़िये‘ भी पागल या कोई मनोरोगी नहीं होते, बल्कि ‘आतंकवादी‘ तो अन्य लोगों की अपेक्षा कुछ अधिक बुद्धिमान और मानसिक दृष्टि से दृढ़ व्यक्ति होते हैं। उनमें ऐसे गुण भी होते हैं, जिनके लिए वे समाज में अत्यंत सम्मानित व्यक्ति भ्ी बन सकते हैं। उदाहरण के लिए लंदन में 7/7 के बमकांड में पकड़ा गया एक व्यक्ति एक प्रशंसित सामाजिक कार्यकर्ता था, जो बच्चों के कल्याण के लिए काम करता था।

इसमें दो राय नहीं कि ब्रीविक जैसे युवक जिहादी आतंकवाद की प्रतिक्रिया में पैदा हो रहे हैं। क्या ऐसा हो सकता है कि इस्लामी आतंकवादी एकतरफा पूरी दुनिया को रौंदते चले जाएं और उनकी प्रतिक्रिया में उनके जैसा ही कोई संगठन न खड़ा हो। सांस्कृतिक बहुलतावादी केसे यह सोच पा रहे हैं कि कैसे एक समुदाय हमले पर हमले करता जाएगा और बाकी समुदाय के लोग चुपचाप मार झेलते रहें और उन सरकारों और राजनीतिक दलों की भी वाहवाही करते रहेंगे, जो उन जिहादियों के खिलाफ भी कठोर कार्रवाई से इसलिए बचते रहते हैं कि इससे उनका बहुलतावाद का सिद्धांत टूटेगा और उनके मतदाताओं की संख्या घट जायेगी। इसलिए यह बढ़ते इस्लामी आतंकवाद को रोकने में तमाम लोकतांत्रिक, खसकर वामपंथी झुकाव वाली सरकारों की विफलता का भी परिणाम है।

ब्रीविक न तो बर्बर है न संवेदनशून्य। उसने इंटरनेट पर अपनी 15 पृष्ठों की जो डायरी पेश की है (जिसे उसका घोषणा पत्र कहा जा रहा है) उसका उल्लेख करते हुए ‘नार्वेजियन इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेन अफेयर्स‘ के आतंकवाद विशेषज्ञ हेल्गे लुरास ने कहा है कि उसने अपनी आक्रामकता बढ़ाने के लिए ढेरों स्टोरायड की गोलियां खा रखी थी और लोगों की चीख या दया की भीख उसके कानों तक नहीं पहुंचे, इसके लिए उसने ‘इयरफोन‘ से तेज संगीत सुनने की तैयारी कर रखी थी। यह ‘मैनीफेस्टो‘ उसने ओस्लो पर हमले के कुछ घंटे पहले ही नेट पर डाला था। इसका मतलब है कि न तो वह मानसिक रोगी है, न राक्षस। अपने ‘मैनीफेस्टो‘ में वह कहता है कि उसके लिए उन लोगों को मारना कितना मुश्किल है, जिनके प्रति उसे गहरी सहानुभूति है। कोई मनोरोगी इस तरह के संघर्ष से नहीं गुजरता।

22 जुलाई का यह हमला ब्रीविक की 9 वर्षों की सोच और योजना का परिणाम है। उसने अपनी बात कहने या यूरोप को जगाने का जो तरीका अपनाया, निश्चय ही कोई भी व्यक्ति उसका समर्थन नहीं कर सकता। लेकिन जब तक कोई दहलाने वाली घटना न हो, तब तक सरकारों या राजनीतिक दलों के कानों पर कहां कोई जूं रेंगती है। ‘इक्सट्रीम राइट‘ यानी दक्षिणपंथी अतिवादियों के मामले में विशेषज्ञ समझे जाने वाले मैथ्यू फील्डमैन (यूनिवर्सिटी ऑफ नार्थएन में इतिहास के प्रवक्ता) का कहना है कि इस तरह की सामूहिक हत्या करके ब्रीविक केवल दक्षिणपंथी कट्टरपंथियों के लिए जनसंपर्क का काम कर रहा है। उन्हें इसका पक्का विश्वास है कि इस तरह का हमला उसने अपने ऑनलाइन ‘मैनीफेस्टो‘ तथा ‘वीडियो‘ के प्रचार के लिए किया। उसने हमले के ठीक पहले उन्हें नेट पर डाला। यदि वह इस घटना के दो-चार हफ्ते पहले से उसे डाल देता, तो कोई उस पर ध्यान ही न देता और वह नेट के जंगल में खो जाता। उन्होंने ‘हेरल्ड‘ के साथ बातचीत में बताया कि यह ‘जिहादी इस्लामिज्म‘ का ईसाई जवाब ‘क्रुसेडिंग क्रिश्चियनिज्म‘ है।

उसका यह 1500 पेजों का ‘मैनिफेस्टो‘ ‘इधर-उधर‘ से इकट्ठा किये गये विचारों को जोड़कर तैयार किया गया है। ब्रीविक का विश्वास है कि यूरोप की वामपंथी झुकाव वाली सरकारें जिहादी इस्लामियों को यूरोप पर कब्जा करने दे रही हैं, इसलिए यदि ‘क्रिश्चियनिटी‘ को ‘इस्लाम‘ से बचाना है, तो पहले इन दुश्मनों से लोहा लेना है, जो जाने अनजाने ‘जिहादियों‘ की मदद कर रहे हैं। उसका कहना है कि ‘विचार मानव जिंदगी से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।‘ इसलिए हमें ‘अपनी विचार व अपनी संस्कृति‘ को बचाने के लिए अपने जीवन या प्राणों की आहुति देने के लिए तैयार रहना चाहिए।‘ उसने अपने घोषणा पत्र में यह साफ संकेत दिया है कि उसने ‘यूतोया‘ द्वीप में सत्तारूढ़ लेबर पार्टी के युवाओं को क्यों मारा। उसने लिखा है, लेबर पार्टी अपनी ‘बहुसांस्कृतिक नीतियों तथा मुस्लिमों को देश में आने की खुली छूट देने के कारण स्वतः ‘मृत्युदंड‘ की अधिकारी है। यह वास्तव में यूरोप के साथ विश्वासघात है।

ब्रीविक ने प्राचीन ईसाई इतिहास लड़ाकू पात्रों को खोजकर अपने आदर्श के रूप में स्थापित किया है। मध्यकाल में मुस्लिम आधिपत्य से अपनी पवित्र भूमि छुड़ाने के लिए ईसाई लड़ाकों ने जो संगठन बनाया था, उसे ‘नाइट्स टेम्पलर‘ की संज्ञा दी गयी थी। ब्रीविक व उसके जैसे अन्य युवक अब ताजा मुस्लिम आक्रमण का मुकाबला करने के लिए उसी ‘नाइट्स टेम्पलर‘ को पुनर्जीवित कर रहे हैं।

ब्रीविक को यदि आतंकवादी कहें, तो वह एक असाधारण आतंकवादी है। आतंकवादी प्रायः समूह में काम करते हैं, लेकिन अब तक की जांच पड़ताल में पता चला है कि ब्रीविक ने अकेले ही इतने बड़े हमले की योजना बनायी, उसका सैद्धांतिक आधार तैयार किया और फिर उसे कर दिखाया। यद्यपि उसने पुलिस के समक्ष दावा किया है कि अभी भी देश में दो और ईसाई कट्टरपंथी ‘सेल‘ हैं, जिनका संबंध ब्रिटिश दक्षिण पंथी ईसाई संगठन ‘इंग्लिश डिफेंस लीग‘ के साथ संबंध है, लेकिन इनका कोई पता नहीं चल सका है। लीग ने भी इस बात से इनकार किया है। जाहिर है यह भयावह हमला अकेले उसकी ही कारस्तानी है।

अब इस हमले के बाद इतना तो मानना ही पड़ेगा कि उसने दुनिया के हर कोने में ‘जिहादी इस्लाम‘ के खिलाफ एक अनुगूंज तो पहुंचा ही दी है। उसने अपने 1500 पेजों के मैनीफेस्टों में करीब 102 पेज भारत की स्थिति पर खर्च किये हैं और यहां पैदा हो रही जिहादी चुनौतियों और हिन्दुओं की दुर्दशा का उल्लेख किया है। इस उल्लेख के आधार पर यहां इस देश के वामपंथी व वामपंथी झुकाव वाले मध्यमार्गी राजनेताओं व बुद्धिजीवियों ने उसे यहां के ‘हिन्दू कट्टरपंथियों‘ के साथ भी जोड़ने की कोशिश की है।

भारत की राजनीतिक व सामाजिक सोच भी कमोबेश यूरोप जैसी ही है। यहां भी जिहादी कट्टरवाद को बढ़ावा देने में ‘सांस्कृतिक मार्क्सवाद‘ की अहम भूमिका रही है। यह इसी विचारधारा का परिणाम है कि हमारे देश का गृहमंत्री ‘इस्लामी कट्टरतावाद‘ और ‘हिन्दू कट्टरतावाद‘ को एक ही तराजू पर तौल रहा है। यहां के वामपंथी राजनेता व बुद्धिजीवी ही नहीं, कांग्रेस जैसी मध्यमार्गी पार्टी के नेता भी इस्लामी कट्टरतावाद यानी अल्पसंख्यक कट्टरतावाद के मुकाबले हिन्दू कट्टरतावाद या बहुसंख्यक कट्टरतावाद को अधिक बड़ा खतरा बताते आ रहे हैं। वे यह मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि छिटपुट दिखायी देने वाला हिन्दू कट्टरतावाद केवल इस्लामी कट्टरतावाद की प्रतिक्रिया में पैदा हुआ कट्टरतावाद है। तथाकथित हिन्दू कट्टरतावादी हो ही नहीं सकता, क्योंकि यदि ऐसा होता तो दिल्ली में सेकुलर सरकार नहीं बन सकती थी। कट्टरपंथी मुसलमानों ने हिंसा के बल पर अपना मजहबी देश पाकिस्तान बना लिया, लेकिन यहां के हिन्दू बहुसंख्यकों ने हिन्दुओं को हिन्दुस्तान नहीं बनाया, बल्कि यहां एक ऐसे धर्मनिरपेक्ष शासन की स्थापना की, जहां अल्पसंख्यक यानी मुसलमानों को बहुसंख्यकों यानी हिन्दुओं से भी अधिक अधिकार प्राप्त हैं। इसी तरह से यूरोप व अमेरिका के ईसाइयों ने भी मध्यकालीन ‘क्रूसेड‘ को इतिहास में ही दफन करके एक बहुलतावादी राजनीतिक व सामाजिक संस्कृति को स्वीकार किया। अब इस बहुलतावाद को तोड़ने का काम ‘जिहादी‘ कर रहे हैं ‘क्रुसेडवादी‘ नहीं। ‘क्रुसेडवाद‘ इस जिहादी आक्रामकता की प्रतिक्रिया में पैदा हो रहा है और तथाकथित सेकुलर सरकारें जिहादी आक्रामकता पर तो कोई अंकुश लगा नहीं पा रही हैं, उल्टे उसकी प्रतिक्रिया में फिर से खड़े हो रहे ‘नाइट्स टेम्पलर‘ को ‘जिहादी इस्लाम‘ से भी अधिक खतरनाक बता रहे हैं।

ब्रीविक ने पहली बार सीधे इस्लामी कट्टरतावाद पर हमला न करके उसको पोषित करने वाली राजनीतिक व्यवस्था पर हमला किया है। आज दुनिया की ‘बहुलतावादी संस्कृति‘ में विश्वास करने वाली सरकारों को समझ लेना चाहिए कि यदि उन्होंने मिलकर ‘जिहादी कट्टरवाद‘ को पराजित न किया, तो ‘नाइट्स टेम्पलर‘ के पुनरोदय को भी रोका नहीं जा सकेगा। इसका सीधा परिणाम होगा लगभग विश्वव्यापी गृहयुद्ध। ब्रीविक ने यूरोप को ही नहीं भारत को भी एक संदेश दिया हे, जिस पर यहां के सही सोच वाले राष्ट्रवादियों को ही नहीं, तथाकथित सेकुलरवादी मध्यमार्गियों को भी विचार करना चाहिए। यदि भविष्य का गृहयुद्ध बचाना है, तो जिहादी मानसिकता को पराजित करने के लिए स्वयं राज्य सत्ता (स्टेट) को आगे आना होगा। और यदि वह इसमें असफल रही, तो भवितव्य को कोई रोक नहीं सकेगा और आने वाली पीढ़ियों को मध्यकालीन संघर्षों के दौर से गुजरना पड़ेगा।

07/08/2011