बुधवार, 23 जून 2010

लोग केवल एंडर्सन के पीछे क्यों पड़े हैं ?




भोपाल गैस दुर्घटना के दायित्व से एंडर्सन को मुक्त नहीं किया जा सकता, लेकिन उसे इसका मुख्य दोषी भी करार नहीं दिया जा सकता। मुख्य दोषी यदि कोई है, तो वह यूनियन कार्बाइड की भारतीय इकाई के अध्यक्ष केशव महेंद्र और मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह, जिनकी आपराधिक लापरवाही से यह दुर्घटना हुई। लेकिन प्रायः सारे लोग एंडर्सन के पीछे पड़े हैं, क्योंकि वह विदेशी है और उसकी ओट में सारे देशी लोगों के पाप छिपाए जा सकते हैं। एंडर्सन को वापस भेजना नहीं उसे गिरफ्तार किया जाना गलत कदम था। दुर्घटना के बाद भारत आना उसकी कोई बाध्यता नहीं थी। वह संवेदना व सहानुभूतिवश यहां आया था, लेकिन गिरफ्तारी ने सारा मामला ही बदल दिया। वर्तमान कानूनी दायरे में एंडर्सन को भारत वापस बुलाना लगभग असंभव है, इसलिए बेहतर है कि भारत सरकार, राहत, पुनर्वास, चिकित्सा, पर्यावरण सुरक्षा पर ध्यान दे और मुआवजे की राशि को यथार्थपरक बनाए, जिससे पीड़ितों को शांति मिले, क्योंकि अब 25 साल बाद दोषियों को उचित सजा दिलाना उसके वश का काम नहीं।





बुरा जो देखन मैं चला बुरा न दीखा कोय
जो घट सौधों आपना तो मुझसा बुरा न कोय

कबीरदास की यह वाणी तो संतवाणी है, जो अध्यात्मिक यथार्थ की ओर संकेत करती हैं, किंतु अपने देश की राजनीतिक स्थिति पर यदि दृष्टि डाली जाए, तो वह भी कमोबेश हमें ऐसी ही नजर आएगी। अपने देश की यह प्रवृत्ति बहुत पुरानी है कि अपना दोष मढ़ने के लिए किसी दूसरे का गला या सिर ढूंढ़ लिया जाए। अपने देश की सांप्रदायिकता की समस्या हो, जातिवाद की समस्या हो, सांस्कृतिक पतन की समस्या हो, हम इस सबके लिए विदेशियों को खासतौर से अंग्रेजों, यूरोपियनों व अमेरिकियों को आसानी से जिम्मेदार ठहरा देते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि विदेशी सब दूध के धोए, पवित्र देव पुरुष हैं और सारे पाप की खान हम स्वयं हैं, लेकिन सच यही है कि विदेशियों ने केवल हमारे दोषों व दुर्बलताओं का लाभ उठाया। उन्होंने हमें ईमानदार से बेईमान व वीर से कायर नहीं बनाया, बल्कि हमारे भीतर जो बेईमानी व कायरता थी, उसका अपने लिए इस्तेमाल किया। यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन के भोपाल कारखाने और दिसंबर 1984 में हुई उसकी दुर्घटना तथा उसके बाद की अब तक की त्रासदी की कहानी भी यही है। 1984 से आज तक हम अमेरिकी बहुराष्ट्र्ीय कंपनी यू.सी.सी.(यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन, अमेरिका)के पूर्व अध्यक्ष व मुख्य कार्यकारी अधिकारी वारेन एंडर्सन के पीछे पड़े हैं, लेकिन हमारी अपनी सरकारों, अपने राजनेताओं, अपने अफसरों व अपने न्यायाधीशों के अपराधों की तरफ हमारी कोई नजर नहीं है। यह कहने का मतलब भी एंडर्सन का बचाव करना या उसे निर्दोष साबित करना नहीं, बल्कि यह बताना है कि हमारे अपने लोग उसके मुकाबले कहीं अधिक दोषी हैं।

7 जून 2010 को भोपाल के मुख्य न्यायिक अधिकारी की अदालत से दुर्घटना के 25 लंबे वर्षों बाद सुनाये गये फैसले के बाद से रहस्यों की रोज एक न एक नई परत खुलती जा रही है। अब सारी कवायद अपने-अपने राजनीतिक बचाव की चल रही है। भला हो उस अदालत व कानून का, जिसने दोषियों को इतनी कम सजा सुनाई कि लगभग पूरा देश गुस्से से भड़क उठा। जिस दुर्घटना में 20 से 25 हजार तक लोग मारे गये और करीब 6 लाख उत्पीड़ित हुए, उसके दोषियों को मात्र दो साल के कारावास की सजा और उस पर भी तत्काल जमानत। किसी को एक मिनट के लिए भी जेल जाने की नौबत नहीं। अदालत में मात्र एक-दो घंटे की पेशी और फिर अपने क्लब या गोल्फ के मैदान में जाकर मौज मनाने की फुरसत।

7 जून के फैसले के बाद जब प्रायः पूरे देश के मीडिया में हंगामा खड़ा हुआ, तो पहले तो एक दूसरे पर दोषारोपण का दौर चला, फिर जब ऐसा लगा कि इससे भड़की आग की सारी आंच केंद्र सरकार व कांग्रेस पार्टी की तरफ आ रही है, तो उसके बचाव के विशेष प्रबंध किये जाने लगे। केंद्र सरकार ने सारे मामले के एकमुश्त निपटारे के लिए 9 सदस्यों की एक मंत्रिमंडलीय समिति गठित की, जिसके अध्यक्ष गृहमंत्री पी. चिदंबरम बनाए गये। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने मंत्रियों के इस समूह को आदेश दिया कि वह फौरन अपनी बैठकें शुरू करें और 10 दिन के अंदर अपनी रिपोर्ट पेश करे, जिससे इस मामले में तत्काल कार्रवाई शुरू की जा सके। बीते शुक्रवार को इस दल की पहली बैठक हुई। तय हुआ कि इसकी रोज बैठक होगी और 4 दिन के अंदर यानी 10 दिन की अवधि पूरी होने के 2 दिन पहले ही सोमवार तक उसकी रिपोर्ट दे दी जाएगी।

शुक्रवार को यह बैठक अभी शुरू ही होने वाली थी कि उसके पहले ही योजना आयोग ने भोपाल गैस पीड़ितों की सहायता के लिए 982 करोड़ रुपये की विशेष धनराशि जारी करने की घोषणा की। यह राशि इस मामले पर विचार के लिए गठित मंत्रिसमूह की संस्तुति के बाद राज्य सरकार को दी जाएगी। यहां यह उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश की राज्य सरकार ने भोपाल गैस पीड़ितों के सहायतार्थ एक ‘एक्शन प्लान’ 2008 में योजना आयोग के समक्ष पेश किया था, लेकिन आयोग ने उस समय उसे रद्द कर दिया था और कहा थ कि यह प्रस्ताव तर्कसंगत नहीं है, इसलिए इसके लिए कोई धन आवंटित नहीं किया जा सकता, मगर अब फटाफट उसी ‘एक्शन प्लान’ के अनुसार 982 करोड़ की धनराशि दिये जाने की घोषणा कर दी गयी। एक्शन प्लान में राज्य सरकार ने कहा था कि इस दुर्घटना में 16,000 लोग मरे हैं, 5000 से अधिक औरतें विधवा हुई हैं, लाखें बीमार हैं, इसलिए उनकी चिकित्सकीय, आर्थिक, सामाजिक तथा पर्यावरणीय सहायता के लिए बड़ी धनराशि की जरूरत है। यह प्रस्ताव शायद इसलिए भी रद्द कर दिया गया कि राज्य की भारतीय जनता पार्टी की सरकार द्वार पेश किया गया था। धन केंद्र सरकार देती और उसका श्रेय राज्य सरकार को मिलता, इसलिए प्रस्ताव ही रद्द कर दिया गया।

मंत्रियों के समूह की पहले दिन बैठक में शामिल मंत्रियों की भावनाओं को पढ़ने वाली अखबारी रिपोर्टों में कहा गया है कि प्रायः सभी मंत्रियों की एक ही चिंता थी कि ‘कुछ तो करना ही पड़ेगा और वह भी जल्दी।’ चिदंबरम ने बैठक के बाद पत्रकारों को बताया कि ‘हम लोग पीड़ितों के प्रति अत्यंत सहानुभूतिपूर्वक अधिकतम जो कुछ संभव हो सकेगा वह करेंगे। पूरे मुद्दे को मुख्य रूप से दो हिस्सों में बांटा गया है। एक तो कानूनी मुद्दा है, जिसके अंतर्गत यह देखा जाएगा कि क्या इस आपराधिक मामले को फिर से खोला जा सकता है और क्या यूनियन कार्बाइड के पूर्व अध्यक्ष एंडर्सन को भारत लाया जा सकता है। दूसरा हिस्सा मुआवजे एवं पर्यावरण की साफ-सफाई से संबंधित है। इसके अंतर्गत मुआवजे की राशि बढ़ाने के अलावा विशैले कचरे की सफाई, भूगर्भ जल का परिशोधन तथा दूषित हुए इलाके में शुद्ध पेयजल की आपूर्ति आदि का मामला है। इसके लिए कानून, स्वास्थ्य, रसायन व पर्यावरण मंत्री तथ उनके विभाग रातदिन श्रम करने में लगे हैं।

विधि मंत्रालय ने एक विस्तृत नोट तैयार किया है, जिसमें मंत्रिसमूह को सलाह दी गयी है कि दोषियों की सजा बढ़ाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में एक ‘क्यायेरेटिव पिटीशन’ (संशोधन याचिका) दायर की जाए तथा इस कानूनी संभावना का भी पता लगाया जाए कि क्या एंडर्सन को वापस बुलाया जा सकता है। स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने भी इस बीच अपने स्वास्थ्य अधिकारियों की कई बैठकें की तथा आई.सी.एम.आर. (इंडियन कौंसिल आॅफ मंडिकल रिसर्च) के वैज्ञानिकों के साथ भी मुलाकातें की। वह अब व्यक्तिगत रूप से यह जानकारी हासिल करने में गे हैं कि ‘मिथाइल आइसो सायनाइट’ (मिक) जैसी विशैली गैस का अब तक क्या प्रभाव पड़ा है, विशेषकर बच्चों और गर्भवती स्त्रियों को इससे क्या नुकसान पहुंचा है। भोपाल में कैंसर के रोगियों की संख्या वृद्धि में इसकी क्या भूमिका है तथा पीड़ितों का इलाज करने वाले अस्पतालों की वर्तमान स्थिति क्या है। मंत्रिसमूह की इस बैठक में रसायन एवं उर्वरक विभाग के सचिव विजय चटर्जी ने दुर्घटना के बाद से अब तक की विस्तृत जानकारी दी। अब तक सारी कानूनी कार्रवाई, मुआवजा साफ-सफाई तथा चिकित्सा के मोर्चे पर अब तक जो कुछ हुआ, वह सारी जानकारी उन्होंने दी, क्योंकि मूलतः इस दुर्घटना का सारा मामला उनके विभाग से ही संबंधित था। उन्होंने यह भी बताया कि कचरा हटो का दायित्व ‘डाउ’ कंपनी पर डालने के लिए जबलपुर की हाईकोर्ट पीठ में मामला चल रहा है। करीब 350 मीट्र्कि टन का यह कचरा अंकलेश्वर (गुजरात) भेजा जाने वाला था, लेकिन गुजरात ने इसकी अनुमति नहीं दी। जब रामविलास पासवान केंद्र में रसायन व उर्वरक मंत्री थे, तो उन्होंने यह कचरा हटाने के लिए डाउ कंपनी से 100 करोड़ रुपये की मांग की थी। तो न तो उसने पैसे दिये न कचरा हटा और कचरा हटाने के दायित्व का विवाद हाईकोर्ट में लटका हुआ है। उन्होंने यह भी बताया कि दुर्घटना के कारण प्रदूषित पर्यावरण के सुधार के लिए सीएसआईआर (केंद्रीय वैज्ञानिक व औद्योगिक अनुसंधान संस्थान) शोधकार्य कर रहा है, जिसकी रिपोर्ट इसी महीने आने वाली है।

9 मंत्रियों के समूह (गृहमंत्री पी. दिंबरम, वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी, विधि मंत्री वीरप्पा मोइली, भूतल परिवहन मंत्री कमलनाथ, स्वास्थ्य मंत्री गुलामनबी आजाद, शहरी विकास मंत्री जयपाल रेड्डी, रसायन एवं उर्वरक मंत्री एम.के. अलागेरी, पर्यावरण राज्यमंत्री जयराम रमेश, पर्यटन मंत्री कुमारी शैलजा, इसके अलावा अतिरिक्त म.प्र. के राहत व पुनर्वास मंत्री बाबूलाल गौर स्थाई आमंत्रित सदस्य हैं) की इस बैठक में इन मंत्रियों के अलावा मंत्रिमंडलीय सचिव (कैबिनेट सेक्रेटरी) के.एम. चंद्रशेखर, गृहसचिव जी.के. पिल्लइ तथा विदेशा सचिव निरूपमा राव भी भग ले रही हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि इस मंत्रिमंडलीय समूह में शामिल पी. चिदंबरम व कमलनाथ ने 2006-07 में जब वे क्रमशः वित्त व वाणिज्य मंत्री थे, राय दी थी कि भोपाल गैस दुर्घटना से दूषित हुए इलाके से कचरा हटाने तथ उस स्थल को विषैले प्रभाव से शुद्धि के लिए एक ट्र्स्ट (साइड रेमिडिएशन ट्र्स्ट) बनाया जाए, जिसमें भारतीय कार्पोरेट क्षेत्र की कंपनियां अंशदान करें और उस धन से सफाई का कार्य किया जाए। तब वे न तो इसकी जिम्मेदारी ‘डाउ’ कंपनी पर भी डालने के लिए तैयार नहीं थे, जिसने यू.सी.सी. को खरीद लिया है। उनके ऐसे सुझावों के कारण न तो कोई कंपनी इस काम के लिए आगे आयी और न सरकार ने ही यह काम अपने हाथ में लिया। ‘डाउ’ कंपनी का कहना है कि उसका भोपाल में कभी कोई कारोबार नहीं था, इसलिए वह इसके लिए जिम्मेदार नहीं है। इसके अतिरिक्त भारत सरकार ने स्वयं उसे यह क्लीन चिट दी है कि यू.सी.आई.एल. (यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड) भोपाल की दुर्घटना का कोई दायित्व उसके उपर नहीं है। ‘डाउ’ के वकील तथा कांग्रेस के वर्तमान प्रवक्ता अभिषेक मनु संघवी ने भी उस समय कंपनी को यही सलाह दी थी कि भोपाल में साफ-सफाई का कोई दायित्व जब यू.सी.सी. पर ही नहीं था, तो वह उसके उपर कैसे आ सकता है। भारत सरकार ने 1989 में यू.सी.सी. से 47 करोड़ डॉलर में अंतिम समझौता कर लिया था। सर्वोच्च न्यायालय के माध्यम से यह समझौता हुआ था, जिसमें यू.सी.सी. को सारे दायित्वों से मुक्त कर दिया गया था और केंद्र सरकार ने उसके विरुद्ध दायर सारे दीवानी (सिविल) व फौजदारी (क्रिमिनल) मामले वापस ले लिये थे। इसके अंतर्गत कारखाना स्थल का कचरा हटाये बिना उसे वह जमीन हस्तांतरित करने का अधिकार भी दे दिया गया था।

दिसंबर 1984 की दुर्घटना के बाद शुरू हुई कानूनी लड़ाई में यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड की तरफ से देश की प्रसिद्ध न्यायिक सेवा कंपनी ‘जे.बी. दादाचांदी एंड कं.’ की सेवाएं ली थीं। इस कंपनी के नानी पालखीवाला, फालीनारीमम व अनिल दीवान जैसे देश के शीर्ष वकीलों की सेवाएं प्राप्त की थी। भारत सरकार के पूर्व एटार्नी जनरल सोली सोराब जी का अकेला ऐसा नाम है, जो इस लड़ाई में यूनियन कार्बाइड की तरफ से खड़े होने से इनकार कर दिया। कंपनी ने जब सोली सोराब जी से संपर्क किया, तो उन्होंने साफ कह दिया कि इस मामले में पीड़ितों को कानूनी सहायता की अधिक जरूरत है, वह उनके खिलाफ अमेरिकी कंपनी के पक्ष में अदालत में नहीं खड़े हो सकते।

इस कांड में 1984 के बाद जितने आंदोलन व विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, उसमें सर्वोच्च खलनायक के रूप में एंडर्सन का नाम ही सबसे उपर है। 20 से 25 हजार तक की मौतों का जिम्मेदार अकेले उसे ही ठहराया जाता रहा है। अब तक शायद ही कोई ऐसा पोस्टर दिखायी दिया हो, जिस पर यू.सी.आई.एल. के अध्यक्ष केशव महेंद्र का फोटो छपा हो। प्रायः पूरे देश की चिंता है कि वह अमेरिकी यहां से कैसे भाग निकला। इसकी जांच कराने की मांग पर अधिक जोर है कि उसे देश से भगाने में किसने मदद की। कोई इसकी जांच कराने की मांग नहीं कर रहा है कि यू.सी.सी. को भोपाल में शहर के बीच कारखाना लगाने का लाइसेंस कैसे मिला। इस कारखाने की डिजाइन दोषपूर्ण थी और सुरक्षा के पर्याप्त साधन नहीं थे, तो इसे उत्पादन की अनुमति कैसे मिली। और दुर्घटना हुई तो उसके प्रत्यक्ष जिम्मेदार अधिकारियों को छोड़कर लोग केवल एंडर्सन के पीछे भागते क्यों नजर आए?

अब पता चल रहा है कि इस कारखाने की स्थापना का लाइसेंस इंदिरा गांधी के शासन में आपातकाल के दौरान दिया गया। इस मामले में कोर्ट में दायर की गयी सी.बी.आई. की एक एफिडेविड (शपथपत्र) के अनुसार यू.सी.सी. ने 1 जनवरी 1970 में 5000 टन कीटनाशक बनाने की क्षमता वाला कारखाना स्थापित करने के लिए लाइसेंस दिये जाने का आवेदन पत्र केंद्र सरकार के उद्योग मंत्रालय -जो उस समय औद्योगिक विकास मंत्रालय कहा जाता था- के समक्ष प्रस्तुत किया। यह आवेदन 5 साल तक पड़ा रहा। तत्कालीन उद्योग विकास मंत्रालय के अधिकारी व संबंधित मंत्री यह लाइसेंस देने के पक्ष में नहीं थे। अतः 31 अक्टूबर 1975 को यह लाइसेंस मिल गया। लाइसेंस कैसे और किसके सहयोग से मिला, वस्तुतः यह भी एक जांच का विषय है। इस शपथ पत्र में यह भी जिक्र है कि उस समय के एक अंतर्राष्ट्र्ीय पर्यावरण रक्षक संगठन ‘टाक्सिक वॉच एलायंस’ ने कहा था कि भारत में आपातकाल न लगता, तो भोपाल में गैस कांड भी न होता। इस संगठन के एक सदस्य गोपाल कृष्ण ने भी कहा है कि इस बात की जांच होनी चाहिए कि यह लाइसेंस कैसे मिला। औद्योगिक विकास मंत्रालय के तत्कालीन उपनिदेशक आर.के. शाही (जो बाद में योजना आयोग के उपसलाहकार बने) के अनुसार लगभग पूरा विभाग यह लाइसेंस देने के खिलाफ था। वास्तव में यह भी जांच का विषय है कि यू.सी.सी. को भोपाल में इस कारखाने को लगाने के लिए इतनी बड़ी सरकारी जमीन कैसे दी गयी। लाइसेंस के आवेदन में यह साफ लिखा गया था कि कीटनाशक का निर्माण के लिए मिथाइल आइसोसायनाइट (मिक) गैस का इस्तेमाल किया जाएगा। क्या इसके भयानक विषैलेपन का अहसास किसी को नहीं था? यहां यह भी उल्लेखनीय है कि केंद्रीय वैज्ञानिकों का दल जब यूसीसी के वर्जीमियां प्लांट को देखने के लिए गया, तो उसे प्लांट के भीतर जाने की अनुमति नहीं दी गयी।

आश्चर्य है कि देश के तमाम लोग अन्य सारी बातों को छोड़कर इस बात के पीछे पड़े हैं कि एंडर्सन 1984 में जब भारत आया, तो उसे बाहर क्यों जाने दिया गया। वास्तव में एंडर्सन की तो इसके लिए प्रशंसा की जानी चाहिए थी कि इस भयावह दुर्घटना की खबर पाकर स्थिति का स्वयं आकलन करने के लिए उसने भारत आने का निश्चय किया। उस समय देश में आम चुनाव होने वाले थे और राजनीतिक माहौल गर्म था, इसलिए एंडर्सन ने पहले से अपनी सुरक्षा की व्यवस्था करना जरूरी समझा। जैसी खबरें मिल रही हैं, उसके अनुसार उसने भारत स्थित अपने दूतावास से संपर्क किया। उस समय दूतावास के उपप्रधान गार्डन स्ट्र्ीब ने इस बारे में भारत सरकार से संपर्क किया। उसने विदेश सचिव से संपर्क किया होगा। चूंकि मामला गृहमंत्रालय से संबद्ध था, इसलिए विदेश विभाग ने गृहविभाग से संपर्क किया गया। उस समय गृहमंत्री पी.वी. नरसिंह राव थे जो बाद में प्रधानमंत्री बने। प्रधानमंत्री उस समय चुनाव प्रचार के सिलसिले में राजधानी से बाहर थे। एंडर्सन को देश में सुरक्षा की गारंटी देने के लिए गृहमंत्री स्वयं सक्षम थे, लेकिन उन्होंने इस बारे में प्रधानमंत्री से संपर्क न किया हो यह कम ही संभव है। केंद्र सरकार की सुरक्षा की गारंटी पाकर एंडर्सन भोपाल पहुंचे। वह दुर्घटनास्थल पर जाने की तैयारी में थे। भोपाल के कलक्टर मोती सिंह ने स्वयं कहा है कि जब वह हवाई अड्डे पहुंचे, तो एंडर्सन हाथ में गैस मास्क लिये टहल रहे थे।

एंडर्सन को सपने में भी यह आशंका नहीं रही होगी कि वहां उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाएगा। भोपाल में दुर्घटना के बाद पुलिस में जो एफ.आई.आर. दर्ज हुई थी, उसमें एंडर्सन का भी नाम था, इसलिए पुलिस अधीक्षक ने उन्हें कैद में ले लिया। एंडर्सन ने केंद्र सरकारक को संपर्क किया होगा। निश्चय ही इस पर मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को केंद्र से निर्देश मिला होगा कि एंडर्सन को पूर्ण सुरक्षा की गारंटी दी गयी है, इसलिए जैसे भी हो, उन्हें फौरन दिल्ली वापस भेजो। एंडर्सन ने दिल्ली में गृहमंत्री पी.वी. नरसिंह राव से तथा राष्ट्र्पति जैल सिंह से मुलाकात की। उन्होंने तत्कालीन विदेश सचिव महाराज कृष्ण रसगोत्रा से भी मुलाकात की। शायद धन्यवाद देने के लिए उन्होंने ये मुलाकातें की।

गार्डन स्ट्र्ीव ने अपने एक बयान में इस बात की पुष्टि की है कि केंद्र सरकार के निर्देश पर एंडर्सन भोपाल से सुरक्षित दिल्ली वापस लाए गये और वहां से उन्हें न्यूयार्क भेजा गया।

तत्कालीन विदेश सचिव रसगोत्रा ने भी सी.एन.एन. आईबीएन न्यूज चैनल पर करण थापर के साथ एक साक्षत्कार में स्वीकार किया कि केंद्र के निर्देश पर उन्हें गिरफ्तारी से मुक्त कराकर वापस भेजा गया। उनकी राय में यह आवश्यक था। यदि ऐसा न किया जाता, तो उसके लिए केंद्र सरकार पर अंतर्राष्ट्र्ीय स्तर पर विश्वास हनन का आरोप लगता।

यहां यह ध्यान देने की बात है कि दुर्घटना के बाद एंडर्सन का भारत आना आवश्यक नहीं था। संवेदना व सहानुभूतवश वह यहां आया था। राहत व मुआवजे के लिए उसकी मदद ली जानी चाहिए थी। रसगोत्रा के अनुसार भी एंडर्सन दुर्घटना का उत्तर दायित्व महसूस करके ही यहां आया था और पीड़ितों की अधिकतम सहायता करना चाहता था। अब यदि दुर्घटना के अपराध की जिम्मेदारी ही तय करनी हो, तो उसकी सर्वाधिक जिम्मेदारी यू.सी.आई.एल. के अध्यक्ष व अन्य अधिकारियों पर जाती है। एंडर्सन पर नहीं। उसके लिए मध्य प्रदेश की सरकार व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह जिम्मेदार ठहराये जा सकते हैं, जिन्होंने असुरक्षा की शिकायतों पर स्वयं कारखाने का दौरा करके यहा प्रमाण-पत्र दिया कि वहां कोई समस्या नहीं है, बल्कि सब कुछ ठीक-ठाक है। अर्जुन सिंह ने तो एंडर्सन से भी अधिक गैरजिम्मेदारी दिखायी। एंडर्सन अमेरिका से चलकर भोपाल पहुंचा, लेकिन अर्जुन सिंह दुर्घटना की सुबह अपने चुरहट महल में रहने चले गये कि कहीं गैस का कोई प्रभाव उन तक न पहुंच पाए।

वास्तव में केंद्र सरकार की गलती यह नहीं है कि उसने एंडर्सन को वापस भेजा, बल्कि गलती यह है कि आज के केंद्रीय नेताओं में इसे स्वीकार करने का साहस नहीं है, क्योंकि पूरे देश की यह मानसिकता है कि यदि किसी मामले में कोई विदेशी हाथ लग जाए, तो उसकी ओट में अपने सारे पाप छिपा लो। अर्जुन सिंह ने भी लंबे मौन के बाद अब अपनी जबान खोल दी है। उनका साफ कहना है कि एंडर्सन को दिल्ली भेजवाने से उनका कोई लेना-देना नहीं है। उन्होंने विस्तार से तो कुछ नहीं बताया, लेकिन शनिवार को उन्होंने एंडर्सन के मामले से अपनी गर्दन छुड़ाकर उसे केंद्र के उूपर डाल दिया।

अब इसका निपटारा 10 सदस्यीय ‘मंत्री समूह’ को करना है। एंडर्सन का मामला राज्य सरकार के सिर थोपने की केंद्रीय नेताओं की कोशिश नाकाम हो गयी है। देश का कोई एक व्यक्ति भी यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि बिना केंद्र की अनुमति के एंडर्सन देश के बाहर जा सकता है। इसलिए मंत्रिसमूह को अब एंडर्सन का मसला भी हल करना है। अपने नेताओं, अफसरों तथा केशव महेंद्र जैसे भारतीय उद्यमियों का बचाव करने के लिए एंडर्सन को ‘स्केप गोट’ बनाना आवश्यक है। देश भर से यह मांग उठ रही है कि भोपाल गैस मामले को दुबारा खोला जाए और ताजा आंकड़ों के आधार पर नया आरोप पत्र दायर किया जाए। सर्वोच्च न्यायालय तथा प्रधानमंत्री के पास ऐसे अनुरोध वाले करीब 76 हजार पुत्र पहुंचे हैं और आते भी जा रहे हैं। देश के 69 सांसदों ने भी प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इस मामले में अदालती कार्रवाई दुबारा शुरू करने को कहा है।

इस मामले में अब केंद्र और मध्य प्रदेश की राज्य सरकार के बीच प्रतिस्पर्धा है। मध्य प्रदेश सरकार भी इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में ‘क्योरेटिव’ याचिका दायर करने की तैयारी कर रही है। केंद्रीय विधि मंत्रालय ने भी मंत्रियों के समूह को ऐसी ही याचिका दायर करने की सलाह दी है।

खैर, अब अधिक देर नहीं है। 10 सदस्यीय मंत्रिसमूह कल सोमवार या मंगलवार तक अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री को दे देगा, जिसमें राहत, पुनर्वास व मुआवजे बढ़ाने की संस्तुतियों के साथ कुछ कानूनी संस्तुतियां भी होंगी, जिसमें एंडर्सन को भारत बुलाने की संभावनाएं तलाशने की बात भी होगी। जैसे भी हो देश भर में भड़के असंतोष को शांत करने की कोशिश की जाएगी। भोपाल गैस त्रासदी के असली दोषी देश के भीतर हैं, बाहर नहीं। मुश्किल यही है कि इन भीतरवालों को कोई सजा नहीं मिल पाएगी। लेकिन इस सारे हंगामें का लाभ गैस पीड़ितों को अवश्य मिलेगा। कम से कम उनके राहत और पुनर्वास का प्रबंध बेहतर हो जाएगाअ और संभवतः मुआवजा राश् िभी कुछ हजार से बढ़कर एक-दो लाख हो जाए।(20.6.2010)

यह राजनीति और न्याय की त्रासदी

भोपाल गैस त्रासदी के 25 साल से अधिक गुजर गये हैं। एक ऐसी त्रासदी जिसकी कल्पना से भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। लेकिन इन 25 वर्षों में इसे लेकर जो राजनीतिक व न्यायिक प्रक्रिया का खेल खेला गया, वह और भी अधिक त्रासद है। इतना बड़ा अपराध, जिसमें 22 हजार से अधिक लोग मारे गये और 6 लाख से अधिक पीड़ित हुए, उसके लिए किसी को एक घंटे की भी सजा नहीं। कहने को 7 लोगों को 2-2 वर्ष के कारावास की सजा दी गयी, लेकिन कोई एक मिनट के लिए भी जेल नहीं गया। तमाम लोग एंडर्सन के पीछे पड़े हैं, लेकिन भोपाल कांड के असली अपराधी तो इस देश के ही हैं। और एंडर्सन को भी न्याय की पहुंच से दूर पहुंचाने वाले भी इस देश के ही लोग हैं। आखिर उनके लिए सजा का कौनसा प्रावधान है।





अब से करीब 26 वर्ष पूर्व भोपाल मेंे एक भयावह औद्योगिक दुर्घटना हुई थी (जो पूरी दुनिया की अब तक की सबसे बड़ी दुर्घटना मानी जाती है) जिसमें 22000 से अधिक लोग (अधिकृत आंकड़ा 15134) मारे गये थे और करीब 6 लाख लोग प्रभावित हुए थे, यानी विभिन्न स्तर की विकलांग जिंदगी जीने के लिए मजबूर हुए थे। इनमें भी तब से हर दिन औसतन एक व्यक्ति की उस दुर्घटना के प्रभाव से मौत हो रही है।

2-3 दिसंबर 1984 की रात मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के शहरी इलाके में स्थित ‘यूनियन कार्बाइड इंडिया लि. (यूसीआईएल)’ के कीटनाशक कारखाने का अत्यंत विषैली गैस ‘मिथाइल आइसो साइनेट’ (मिक) से भरा टैंक फट गया था और इस घातक गैस ने शहर के एक बड़े भाग को अपनी चपेट में ले लिया था। पहले ही दिन 4000 से अधिक लोग मारे गये और फिर तो मौतों का सिलसिला चल निकला, जिसके आंकड़े 22 हजार की संख्या भी पार कर गये।

यह ऐसी दुर्घटना थी कि पूरा देश दहल उठा। उस समय केंद्र और राज्य दोनों ही स्थानों पर कांग्रेस पार्टी की सरकार थी। केंद्र में राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे और राज्य में ठाकुर अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री। देश में उपचुनाव होने वाले थे। प्रधानमंत्री राजीव गांधी चुनाव प्रचार अभियान पर थे। वह प्रचार अभियान बीच में छोड़कर भोपाल आए और पीड़ितों से मिले। 3 दिसंबर को नगर के हनुमान गंज पुलिस स्टेश्न पर घटना की प्राथमिक रिपोर्ट पुलिस ने दर्ज की, जिसमें यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन के अध्यक्ष एवं मुख्य कार्यकारी अधिकारी वारेन एंडर्सन सहित 14 लोगों के उूपर आरोप दर्ज किया गया। कुछ ही दिनों के भीतर इस पूरे कांड की जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो (सी.बी.आई.न) को सौंप दी गयी। दुर्घटना की खबर पाकर स्थिति का जायजा लेने के लिए यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन (यू.सी.सी.) के अध्यक्ष वारेन एंडर्सन 7 दिसंबर को प्रातः भोपाल पहुंच। वह दुर्घटना स्थल पर जाकर स्थिति का जायजा लेना चाहते थे, किंतु भोपाल के जिलाधिकारी (कलक्टर) मोती सिंह और पुलिस अधीक्षक ने हवाई अड्डे पर पहुंचकर उन्हें सूचित किया कि उन्हें गिरफ्तार किया जा रहा है। उनके साथ यूसीआईएल के अध्यक्ष केशव महेंद्र तथा उपाध्यक्ष विजय प्रकाश गोखले भी थे। उन तीनों को गिरफ्तार कर लिया गया, क्योंकि उन तीनों के नाम एफ.आई.आर. में थे। उन्हें गिरफ्तार करके किसी सरकारी कार्यालय में नहीं, बल्कि यूनियन कार्बाइड के अतिथि गृह (गेस्टहाउस) में ले जाया गया। बताया जाता है कि एंडर्सन के कमरे में टेलीफोन था, जिससे उन्होंने अपने संपर्क वाले उच्चाधिकारियों को संपर्क किया। किसे संपर्क किया, यह नहीं मालूम, लेकिन उसके बाद फौरन उनकी रिहाई की प्रक्रिया शुरू हो गयी और उन्हें ससम्मान वापस दिल्ली भेजने का प्रबंध किया जाने लगा। उन तीनों को वहीं फटाफट गेस्टहाउस में ही जमानत हो गयी और एंडर्सन को राज्य सरकार के विशेष विमान से अपराह्न दिल्ली के लिए रवाना कर दिया गया। उनसे कहा गया कि उनका यहां रहना ठीक नहीं है, इसलिए वे फौरन निकल जाएं। एंडर्सन दिल्ली पहुंचने के शायद तुरंत बाद न्यूयार्क के लिए रवाना हो गये। उनके साथ उस विशेष विमान में कोई और गया या नहीं, इसकी सही-सही जानकारी नहीं है। केशव महेंद्र और विजय प्रकाश गोखले की आगे की कहानी का भी पता नहीं है।

अब सबसे अहम सवाल यह उठता है कि इतनी भयावह दुर्घटना के जिम्मेदार अधिकारियों को इस तरह गिरफ्तार करने के बाद क्यों छोड़ दिया गया ? और छोड़ ही नहीं दिया गया, उन्हें राज्य सरकार के किसी विशेष राजकीय अतिथि की तरह राज्य सरकार के विमान से दिल्ली भेजा गया और कभी वापस न लौटने के लिए न्यूयार्क रवाना करा दिया गया। यह सब कैसे हुआ ? किसके आदेश से हुआ? वह कौन व्यक्ति है, जिसे अपने देश के हजारों पीड़ित नागरिकों के बजाए उसकी सुरक्षा की चिंता अधिक थी, जो इन हजारों लोगों की मौता और लाखों लोगों की असीमित पीड़ा का उत्तरदायी था?

हनुमानगंज पुलिस थाने के प्रभारी सुरेंद्र सिंह के अनुसार दुर्घटना के बाद उसके जिम्मेदार लोगों के विरुद्ध भारतीय दंड विधान संहिता (आई.पी.सी.) की धारा 304 (ए), 120 (बी) 278, 284, 426 व 429 के अंतर्गत मुकदमा दर्ज किया गया था। इनमें से 304 (ए) गैरजमानती है। यानी इसकी जमानत पुलिस नहीं ले सकती। खबर है कि एंडर्सन व महेंद्र को जमानत दिलाने के लिए एफ.आई.आर. में से 304 (ए) को हटवा दिया गया -बाद में आगे चलकर सी.बी.आई. ने एंडर्सन, महेंद्र और गोखले पर 304 (प्प्) लगाने की संस्तुति की थी, किंतु उस समय सर्वोच्च न्यायालय ने से 304 (ए) में बदल दिया था। 304 (प्प्) में यदि मुकदमा चलता, तो अपराध सिद्ध होने पर अभियुक्तों को अधिकतम 1 0 वर्ष कैद की सजा हो सकती थी, किंतु 304 (ए) में अधिकतम केवल 2 साल की सजा तथा 1 लाख जुर्माना करने का प्रावधान है और उसमें भी दोषी को तत्काल जमानत भी मिल सकती है। मतलब यह कि दो साल के कारावास की सजा मिल भी जाए, तो अभियुक्त को जेल न जाना पड़े और फौरन मामूली मुचलके पर जमानत मिल जाए। गत 7 जून को वही हुआ कि भोपाल के सत्र न्यायाधीश ने जिन 7 लोगों को 2-2 साल की कैद की सजा सुनाई, उन सबको तत्काल जमानत भी दे दी और वे सजा सुनकर आराम से अपने अपने घर चले गये। कोई भी पूछ सकता है कि किसके आदेश पर यह सारी कार्रवाई हुई। भोपाल के जिलाधिकारी मोती सिंह का कहना है कि उन्हें राज्य के मुख्य सचिव ब्रह्मस्वरूप से निर्देश प्राप्त हुआ थ कि एंडर्सन की तत्काल रिहाई का इंतजाम करके उन्हें वापस भेजना है। उनके ही निर्देश पर पुलिस ने आगे की कार्रवाई की और पुलिस अधीक्षक स्वराजपुरी ने पुलिस के स्तर की सारी व्यवस्था की। मुख्य सचिव ब्रह्मस्वरूप का निधन हो चुका है। इसलिए उनसे किसी बात की पुष्टि नहीं हो सकती, किंतु ब्रह्मस्वरूप के परिवार के लोग मोती सिंह के बयान से बहुत आहत हैं। ब्रह्मस्वरूप के एक संबंधी डॉ. रामस्वरूप का कहना है कि मोती सिंह राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के खास आदमी हैं, इसलिए वह अर्जुन ंिसंह को बचाने के लिए सारे आरोप उस व्यक्ति पर मढ़ रहे हैं, जो अब इस दुनिया में नहीं है। यदि ब्रह्मस्वरूप ने कोई निर्देश दिया भी होगा, तो वह मुख्यमंत्री अर्जुन ंिसंह के कहने पर ही दिया होगा। एंडर्सन की रिहाई और उन्हें विशेष विमान से बाहर भेजने का कार्य बिना मुख्यमंत्री की अनुमति या बिना उनके निर्देश के नहीं हो सकता। कम से कम राज्य सरकार का विमान तो मुख्यमंत्री की अनुमति के बिना एंडर्सन को लेकर नहीं जा सकता था। उस विशेष विमान के पायलट के अनुसार उस विमान से एंडर्सन दिल्ली ले जाने का संदेश मुख्यमंत्री आवास से आया था। अब इस प्रकरण पर तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह चुप्पी साधे हुए हैं। उनका कहना है कि वे उचित समय आने पर ही इस बारे में अपना मुंह खोेलेंगे। वास्तव में यहां लाख टके का सवाल यह उठाया जा रहा है कि यूनियन कार्बाइट कार्पोरेशन (अमेरिका) के अध्यक्ष एंडर्सन को गिरफ्तारी से छुड़ाकर देश से बाहर पहुंचाने का काम किसके निर्देश पर हुआ। राज्य के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के निर्देश पर या प्रधानमंत्री राजीव गांधी के निर्देश पर। क्योंकि केवल मुख्य सचिव, जिला अधिकारी या पुलिस अधीक्षक के स्तर पर यह सब नहीं हो सकता। इतना बड़ा कार्य राज्य सरकार का कोई अफसर बिना मुख्यमंत्री के आदेश के नहीं कर सकता। अब प्रश्न है कि यह फैसला क्या अर्जुन सिंह का अपना था या उन्होंने केंद्र सरकार के निर्देश पर यह सब किया। यदि केंद्र सरकार के निर्देश पर एंडर्सन को बाहर भेजने का इंतजाम किया गया, तो इसका पूरा दायित्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सिर जाता है, लेकिन यह सवाल भी कुछ कम गंभीर नहीं है कि क्या मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह या कोई भी दूसरा मुख्यमंत्री ऐसा निर्णय ले सकता है। एंडर्सन एक   अंतर्राष्ट्रीय कम्पनी  का अध्यक्ष था, कोई मध्य प्रदेश का उद्योगपति नहीं। एक अंतर्राष्ट््रीय हैसियत वाले ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तारी से छुड़ाकर देश के बाहर भेजने का काम कोई मुख्यमंत्री भी बिना केंद्र को सूचित किये या बिना उसकी अनुमति लिए नहीं कर सकता। फिर मान लिया जाए कि अर्जुन सिंह ने अपने स्तर पर ही यह सारी कार्रवाई की तो सवाल है कि फिर इस बारे में केंद्र सरकार ने उनसे कोई जवाब क्यों नहीं तलब किया। ऐसा तो नहीं हो सकता कि प्रधानमंत्री सहित किसी केंद्रीय मंत्री को इस गैस दुर्घटना की भयावहता की कोई जानकारी ही न रही हो। फिर केंद्र सरकार इस घटना की ऐसी अनदेखी कैसे कर सकती है।

राजीव गांधी के तत्कालीन प्रधान सचिव रहे पी.सी. एलेक्जेंडर का वक्तव्य इस संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण हो सकता है। एलेेक्जेंडर ने बताया है कि 10 दिसंबर को प्रधानमंत्री के आवास पर बुलायी गयी मंत्रिमंडल की रजानीतिक मामलों की समिति (सी.सी.पी.ए.) की बैठक में भोपाल गैस त्रासदी के राजनीतिक प्रभावों पर विचार किया गया, किंतु इसमें एंडर्सन का कोई जिक्र नहीं आया। उनके वक्तव्य की सबसे खास बात है कि इस बैठक में अर्जुन सिंह भी शामिल थे। केंद्रीय कैबिनेट की राजनीतिक मामलों की कमेटी की बैठक में कभी कोई मुख्यमंत्री नहीं बुलाया जाता। उसकी उपस्थिति का कोई औचित्य भी नहीं है, किंतु अर्जुन सिंह वहां उपस्थित थे। उनके अनुसार जब वह इस महत्वपूर्ण बैठक के लिए पहुंचे अर्जुन सिंह उसके पहले वहां उपस्थित थे और बैठक के उपरांत उनके जाने के बाद भी वे राजीव गांधी के ही पास थे।

ऐसा समझा जाता है कि राजीव गांधी ने अमेरिकी दबाव में आकर एंडर्सन की रिहाई की व्यवस्था की और इसके लिए मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को कहा, लेकिन राजनीतिक तौर पर दबाव की इस बात कोई सरकार स्वीकार नहीं कर सकती। लेकिन यहां सबसे बड़ी समस्या है कि केंद्र की राजीव गांधी की सरकार खुद भी यह स्वीकार नहीं कर सकती थी कि उसने एंडर्सन को रिहा कराकर बाहर भेजवाया। सच्चाई आइने की तरह साफ होने के बावजूद इस सार्वजनिक तौर स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इसलिए स्वयं अर्जुन सिंह ने उस समय पत्रकारों के समक्ष कहा कि उन्हें एंडर्सन को रिहा करने के लिए केंद्र सरकार की तरफ से कोई निर्देश नहीं दिया गया। 9 दिसंबर 1984 को इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक खबर के अनुसार अर्जुन सिंह ने इस बात से साफ इनकार किया कि उन्हें एंडर्सन को छोड़ने के लिए केंद्र सरकार से कोई आदेश मिला था, लेकिन उन्होंने यह जरूर स्पष्ट किया कि एंडर्सन को पकड़ने और छोड़े जाने की जानकारी प्रधानमंत्री राजीव गांधी को दे दी गयी थी। उन्होंने एंडर्सन को क्यों रिहा कराया और क्यों उसे देश छोड़ने की इजाजत दी, इसके जवाब में उनका कहना था कि पुलिस को लगा कि गैस कांड की जांच के लिए एंडर्सन का यहां रहना जरूरी नहीं है, इसलिए उसे जाने दिया गया। तत्कालीन गृहमंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने भी इस बात की सफाई दी कि एंडर्सन की रिहाई के लिए अमेरिका से कोई दबाव था।

अमेरिका दबाव का मुद्दा नये सिरे से अभी कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह के एक बयान से उठ खड़ा हुआ। अपनी पत्नी के इलाज के लिए अमेरिका गये दिग्विजय सिंह ने वहीं से एक वक्तव्य देते हुए तत्कालीन राज्य सरकार का कोई दोष नहीं है। दिग्विजय सिंह उस समय अर्जुन सिंह के मंत्रिमंडल में मंत्री थे और अर्जुन सिंह उनके राजनीतिक गुरु भी समझे जाते हैं। दिग्विजय सिंह ने कहा कि इस मामले में अमेरिकी दबाव हो सकता है। उन्होंने वास्तव में अर्जुन सिंह और राजीव गांधी दोनों का एक साथ बचाव करने की कोशिश की और यह बताना चाहा कि तत्कालीन सरकार को अमेरिकी दबाव में यह निर्णय लेना पड़ा। लेकिन उनका यह बयान रजानीतिक दृष्टि से उल्टा पड़ गया। इसका अर्थ हुआ कि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अमेरिकी दबाव में आकर राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह एंडर्सन को छोड़ दे और देश के बाहर जाने दे। इससे एंडर्सन के खिलाफ कानूनी मसले को कमजोर करने का आरोप भी उनके ऊपर आ जाता है। इसलिए फौरन दिग्विजय सिंह पर दबाव पड़ा कि वह अपना बयान बदलें। तो उन्हों ने  सारी जिम्मेदारी अपने गुरु अर्जुन सिंह  पर डालते हुए कहा कि उस समय उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था और चुनाव अभियान में शामिल थे, इसलिए उन्हें ठीक-ठीक इसकी कोई जानकारी नहीं कि एंडर्सन की रिहाई कैसे हुई। निश्चय ही इसकी पूरी जानकारी अर्जुन सिंह के पास है और वे ही इसका खुलासा कर सकते हैं। कांग्रेस की प्रवक्ता जयंती नटराजन का कहना है कि वे एक ही बात विश्वासपूर्वक कह सकती हैं कि एंडर्सन की रिहाई में तत्कालीन केंद्र सरकार का कतई कोई हाथ नहीं था। वास्तव में इस समय कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता व तमाम वरिष्ठ नेता राजीव गांधी के बचाव में उतर आए हैं। इस मसले पर गत शुक्रवार की शाम केंद्र सरकार की कोर कमेटी की बैठक हुई। इसमें क्या चर्चा हुई, यह तो पता नहीं, किंतु बाहर जो दिखायी दे रहा है, उसके अनुसार एंडर्सन की फरारी की पूरी जिम्मेदारी अकेले अर्जुन सिंह पर डाली जा रही है। अर्जुन सिंह पार्टी के विशेष रूप से गांधी परिवार के सर्वाधिक वफादार सेवकों में गिने जाते हैं। उन्होंने 1984 में तो राजीव गांधी का साफ बचाव किया था, किंतु इस समय चुप्पी साधे हुए हैं, जो कांग्रेस नेतृत्व के लिए चिंता का विषय है। सारे नेता यही चाहते हैं कि अर्जुन सिंह सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर  लेते हुए बयान दें, लेकिन यदि वे ऐसा करते हैं, तो जीवन के अवासान काल में उन्हें भोपाल के गैस पीड़ितों की गहरी निंदा का सामना करना पड़ेगा। राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने भी उन्हें पत्र लिखकर अनुरोध किया है कि वे सारे मामले का खुलासा करें।

खैर, यह तो एक मुद्दा हुआ कि भोपाल गैस त्रासदी के जिम्मेदारी लोगों के बचाव में राजनीतिक नेताओं, सरकारों व अधिकारियों की किस तरह की भूमिका रही। बातें बहुत साफ हैं। सभी लोग खुले ढंग से अपने निष्कर्ष निकाल सकते हैं और राजनीति के वास्तविक चरित्र का अनुभव भी कर सकते हैं। किंतु इस प्रकरण में इस देश के न्यायपालिका की भूमिका भी अत्यंत संदिग्ध रही है। और आरोपों के दायरे से देश के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश को भी बाहर नहीं रखा जा सकता।

एंडर्सन की रिहाई का निर्देश भले ही तत्कालीन केंद्र सरकार से मिला हो, लेकिन अर्जुन ंिसंह इस मामले में पूरी तरह निर्दोष करार नहीं दिये जा सकते, बल्कि ईमानदारी से सारे प्रकरण की समीक्षा की जाए, तो एंडर्सन से अधिक बड़े अपराधी भारत के लोग नजर आते हैं। अब तो अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी सी.आई.ए. के वे पेपर भी सामने आ गये, जिसमें यह स्पष्ट संकेत हैं कि तत्कालीन केंद्र सरकार ने एंडर्सन को बाहर निकलने में मदद की। इसलिए इस प्रकरण पर आगे की बहस छोड़ ही देनी चाहिए, लेकिन अर्जुन सिंह सरकार इस आरोप से तो अपने को मुक्त नहीं कर सकती कि उसकी लापरवाही और गैर जिम्मेदारीपूर्ण रवैये के कारण यह भयावह दुर्घटना हुई। स्वयं यूनियन कार्बाइट के जांच दल ने आकर कारखाने का निरीक्षण किया था और जांच रिपोर्ट दी थी कि वहां सुरक्षा मानकों की घोर अनदेखी की जा रही है। विषैली गैस को ठंडा करने के ‘कूलिंग प्लांट’ बंद पड़े हैं। कर्मचारियों की यूनियनों की तरफ से भी शिकायतें की गयी थीं। 2-3 दिसंबर 84 की रात से पहले भी कारखाने में गैस के रिसाव से छोटी-मोटी कई दुर्घटनाएं हो चुकी थीं, जिसमें कई श्रमिक मारे भी गये थे। लेकिन अुर्जन सिंह ने इस दुर्घटना के कुछ दिन पहले ही राज्य विधानसभा में कहा था कि उन्होंने स्वयं कारखाने का निरीक्षण किया है और वहां सब कुछ ठीक-ठाक है। कोई समस्या नहीं है। इस पूरे प्रकरण के दो स्पष्ट पक्ष हैं। एक तो है वह आपराधिक लापरवाही, जो कारखाने की स्थापना व उसके रख-रखाव में बरती गयी। इसके जिम्मेदार लोग ही वास्तव में उस भयावह दुर्घटना के जिम्मेदार हैं, जिसमें 22000 से अधिक लोग मारे गये। उनकी इस आपराधिक लापरवाही के लिए सख्त से सख्त सजा मिलनी चाहिए, जिससे कि फिर कोई उद्यमी या अधिकारी ऐसी लापरवाही न बरते। दुसरा पक्ष है इस दुर्घटना से प्रभावित परिवारों को राहत पहुंचाने का। उनके इलाज व क्षतिपूर्ति स्वरूप मुआवजा दिलाने का। लेकिन इन दोनों ही मामलों में राजनेताओं, सरकारों तथा सर्वोच्च न्यायालय तक ने घोर संवेदनशून्यता का परिचय दिया है।

दुर्घटना के दो महीने बाद ही भारत सरकार की तरफ से एक अमेरिकी अदालत में यूनियन कार्बाइड के खिलाफ 3.3 अरब डॉलर का मुआवजा देने का दावा ठोका गया। अमेरिकी अदालत ने कहा कि इस मामले की सुनवाई भारत में ही होनी चाहिए, क्योंकि घटना भारत की है और दुर्घटना की शिकार कंपनी भी भारत की है। उसके सभी अधिकारी भारतीय हैं और यू.सी.सी. का इतना दायित्व है कि उसमें उसके 50 प्रतिशत से कुछ अधिक के शेयर हैं। मामला भारतीय अदालत में आ गया। दिसंबर 1987 में एंडर्सन और अन्य आरोपियों के खिलाफ सी.बी.आई. ने अपना आरोप पत्र पेश किया। उसके खिलाफ कार्बाइड की तरफ से सर्वोच्च अदालत में अपील की गयी।

सी.बी.आई. ने जो आरोप पत्र पेश किया था, उसमें एंडर्सन तथा अन्य आरोपियों के खिलाफ आई.पी.सी. की अन्य धाराओं के साथ 304 (2) भी लगाया गया था। सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ए.एम. अहमदी ने जाने क्यों 304 (2) को रद्द करके उसे 304 (ए) करने की सलाह दी। उनका कहना था कि 304 (2) न्यायालय के समक्ष प्रमाणित नहीं होगा।

न्यायाधीश अहमदी आज यह कह रहे हैं कि इस देश के पास ऐसी औद्योगिक दुर्घटनाओं से निपटने के लिए कानून ही नहीं है। उस समय सीबीआई द्वारा एकत्र प्रमाणों के आधार पर उन्होंने उपर्युक्त सलाह दी थी। सवाल है कि उस समय न्यायाधीश अहमदी ने सरकार को यह सलाह क्यों नहीं दी कि वह इस कांड के लिए नये कानून बनाए और उसके अंतर्गत सुनवाई हो। आश्चर्य है कि उन्होंने उपलब्ध कानून को भी और नरम करने का काम किया।

इसके बाद की घटना और रोचक है। अहमदी ने यू.सी.सी. और भारत सरकार के बीच मुआवजे की रकम के बारे में भी एक समझौता कराया। यह समझौता अदालत के बाहर हुआ। और समझौता होने के साथ ही भारत सरकार ने यू.सी.सी. के खिलाफ सारे मामले वापस ले लिये। यह समझौता मात्र 47 कराड़ डॉलर का हुआ। मात्र 3000 मृतक के लिए 75000 रुपये और पीड़ित के लिए 25000 रुपये मात्र थी।

अमेरिकी अदालत में जहां 330 करोड़ डॉलर के मुआवजे का दावा किया गया था और भारत में वह मात्र 47 करोड़ पर तय हो गया। यह समझौता कराने में न्यायाधीश अहमदी की प्रमुख भूमिका थी। भोपाल में यूनियन कार्बाइड द्वारा एक सर्वसुविधा संपन्न 500 बिस्तरों वाला अस्पताल बनावाया गया। कहा गया कि इसमें गैस पीड़ितों की निःशुल्क चिकित्सा होगी। लेकिन यहां अब गैस पीड़ितों को कोई पूछने वाला नहीं है। इस अस्पताल के मुख्य कक्ष में आज भी एक बड़ा चित्र लगा हुआ है, जो बरबस लोगों का ध्यान आकृष्ट करता है- वह चित्र है भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ए.एम. अहमी का। सेवानिवृत्ति के बाद यू.सी.सी. ने उन्हें इसका मैनेजिंग ट्र्स्टी (प्रबंध न्यासी) बना दिया। उनकी सहायता के लिए अमेरिका की तरफ से उन्हें एक और पुरस्कार मिला। अमेरिकी सहयोग से उन्हें अंतर्राष्ट्रीय   न्यायालय (इंटरनेशनल कोर्ट आफ जस्टिस) में स्थान मिल गया। अहमदी साहब इस समय देश में अल्पसंख्यकों के कानूनी अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं।

गत 7 जून को भोपाल के सत्र न्यायाधीश ने 25 वर्षों बाद जो फैसला दिया, उससे पूरे देश का चैंकना स्वाभाविक था। जिन अधिकारियों की घोर लापरवाहीवश इतना बड़ा हादसा हुआ, उन्हें इतनी कम सजा। यह कोई न्याय है या न्याय का मजाक ? लेकिन इस तरह से चैंकने वाले केवल आम लोग हैं, जिन्हें न अदालतों के नाटक की जानकारी है, न राजनेताओं के मायाजाल की। सरकारों तथा कानून के जानकारों को तो पहले से पता था कि इस मामले में किसी को कोई वास्तविक सजा नहीं होनी है। दो साल के कैद की सजा भी एक कागजी कर्मकांड है। लेकिन फैसले की घोषणा के बाद मीडिया में जो हंगामा मचा, तो अब सारी सरकारें बचाव मुद्रा में आ गयी हैं। आलोचनाओं से बचने के लिए केंद्र सरकार ने 10 सदस्यीय मंत्रिमंडलीय समिति बनायी है, तो मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार ने कानूनी विशेषज्ञों की एक उच्चस्तरी समिति। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि वे अभियुक्तों की सजा बढ़वाने के लिए अपील करेंगे, जबकि उन्हें पता ही नहीं है कि इस मामले में न तो वे कोई अपील कर सकते हैं, न किसी की सजा बढ़ सकती है, क्योंकि कानून की सीमा में अधिकतम सजा दी जा चुकी है। और जिस मामले में जांच करके मामला दर्ज कराने वाली सीबीआई जैसी कोई केंद्रीय संस्था हो, उसमें अपील का अधिकार केवल केंद्र सरकार को है, राज्य सरकार को नहीं।

केंद्र सरकार भी कह रही है कि वह एंडर्सन को भारत में प्रत्यर्पण कराकर फिर मुकदमा चला सकती है। अमेरिका के साथ भारत की प्रत्यर्पण संधि है। अमेरिकी सरकार ने भी कहा है कि यदि भारत कोई इस तरह का अनुरोध करता है, तो वह इस पर विचार करने के लिए तैयार है। लेकिन अव्वल तो यह होने वाला नहीं, दूसरे हो भी जाए, तो उससे होगा क्या? हमारे पास इसके लिए जरूरी कानून तो अभी भी नहीं है। और कानून बन भी जाए, तो क्या देश का राजनीतिक चरित्र बदल जाएगा ? क्या वह आगे विदेशी दबावों में नहीं आएगा ? क्या तब यहां के न्यायालय आम आदमी के पक्षधर बन जाएंगे ? 90 वर्षीय एंडर्सन निश्चय ही अमेरिका में बैठा हंस रहा होगा भारत की सरकारों, यहां के राजनेताओं और न्यायालयों पर। लेकिन क्या यहां किसी को उसकी हंसी सुनाई दे रही है। (13-6-2010)

मंगलवार, 8 जून 2010

ओबामा फिर लौटे भारत की ओर


ऐसा लगता है कि राष्ट्र्पति ओबामा का चीन और पाकिस्तान से बहुत जल्दी मोहभंग हो गया है। गत वर्ष की उनकी बीजिंग यात्रा के बाद ऐसा लगने लगा था कि एशिया कि एशिया में भारत अब उनकी प्राथमिकता में नहीं रहा। अपनी अफगान नीति में उन्होंने भारत की जिस तरह उपेक्षा की, उससे भी लगा कि वह फिर अमेरिका की अपनी पाकिस्तान परस्त नीति की तरफ लौट गये हैं। लेकिन गत गुरुवार को वाशिंगटन में भारत-अमेरिका उच्च स्तरीय रणनीतिक वार्ता के दौरान भारतीय प्रतिनिधि मंडल के सम्मान में आयोजित समारोह में उन्होंने जिस तरह की भावनाएं व्यक्त की, उससे लगा कि उन्होंेने जल्दी अपने को सुधार लिया है और यह समझ लिया है कि एशिया में भारत ही उनका विश्वसनीय रणनीतिक सहयोगी हो सकता है।


अमेरिकी राष्ट्र्पति बराक हुसैन ओबामा ने इस गुरुवार को बड़े उत्साह से घोषणा की कि वह आगामी नवंबर महीने की शुरुआत में भारत की यात्रा पर आएंगे। और यह यात्रा उनकी कोई साधरण यात्रा नहीं होगी। वह भारत के साथ अमेरिका के सहयोग का एक इतिहास बनाने के लिए आएंगे। और यह इतिहास केवल वर्तमान पीढ़ी के लिए नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ी के लिए एक उल्लेखनीय संपदा होगी।

ओबामा अमेरिकी विदेश विभाग के कार्यालय में भारत-अमेरिका प्रथम रणनीतिक वार्ता के अवसर पर विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन द्वारा भारतीय प्रतिनिधि मंडल के स्वागत में आयोजित समारोह में बोल रहे थे। इस वार्ता को ऐतिहासिक महत्व प्रदान करने के लिए राष्ट्र्पति ओबामा प्रोटोकॉल तोड़कर इस स्वागत समारोह में आए और भारत के साथ विशिष्ट वैश्विक रणनीतिक साझेदारी स्थापित करने का अपना राष्ट्र्य संकल्प दोहराया। भारत-अमेरिका संबंधों की विशिष्टता और साझेदारी की बात इस समय अमेरिका ही नहीं, प्रायः पूरी दुनिया के कूटनीतिक क्षेत्रों में चर्चा का विषय है। भारत-अमेरिका रण्नीतिक वार्ता की इस शुरुआत तथा उसमें व्यक्त किये गये राष्ट्र्पति ओबामा और विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन के विचारों पर चीन और पाकिस्तान की सबसे गहरी नजर है। चीन के सरकारी दैनिक ‘पीपुल्स डेली’ में प्रकाशित एक विश्लेषण में जहां इसे शंका की दृष्टि से देखा जा रहा है, वहीं पाकिस्तान में भी इस पर थोड़ी बेचैनी नजर आ रही है। यद्यपि पाकिस्तान सरकार की तरफ से यह कहने की कोशिश की गयी है कि भारत-अमेरिका की यह निकटता उसके लिए कोई चिंता का विषय नहीं है, फिर भी अफगानिस्तान में भारत की भूमिका का अमेरिका द्वारा समर्थन किये जाने से उसे चिंता हुई है। पाकिस्तानी विदेशा विभाग के प्रवक्ता अब्दुल बासित ने अपनी टिप्प से यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि अमेरिका अभी भी भारत के मुकाबले उसके अधिक नजदीक है। उनका कहना था कि अमेरिका ने पाकिस्तान को विश्वास में लेकर ही भारत के साथ यह वार्ता श्रृंखला शुरू की है। अमेरिका के साथ पाकिस्तान का संबंध इससे प्रभावित नहीं होगा। जबकि उधर चीन की टिप्पणी है कि भारत से अमेरिका की इस बढ़ती निकटता से चीन पर दबाव बढ़ेगा। चीनी विश्लेषकों को यह लग रहा है कि अपनी बीजिंग यात्रा के दौरान ओबामा ने चीनी राष्ट्र्पति के साथ हुई वार्ता के बाद जारी संयुक्त वक्तव्य में जो विचार व्यक्त किया था, वह अवसर के अनुकूल जारी एक समारोहिक वक्तव्य मात्र था। उस संयुक्त वक्तव्य में ओबामा ने कहा था कि दक्षिण एशिया में शांति व स्थिरता के लिए चीन और अमेरिका मिलकर काम करेंगे। इस वक्तव्य से चीन जहां प्रसन्न हुआ था, वहां भारत में खिन्नता फैली थी। क्योंकि इससे यह ध्वनि निकलती थी कि दक्षिण एशिया में भारत का कोई महत्व नहीं है और इस क्षेत्र में भी शांति और स्थिरता कायम करने के लिए अमेरिका चीन को आमंत्रित कर रहा है। इससे भारत में अमेरिकी नीयत के बारे में शंका पैदा होना स्वाभाविक था।

इसके बाद राष्ट्र्पति ओबामा ने अपनी पाक-अफगान नीति के कार्यान्वयन के लिए जो रणनीति अपनायी, उससे भी भारत की चिंता बढ़ी, क्योंकि इसमें भारत की भूमिका को दरकिनार करके पाकिस्तान को अकेले सर्वाधिक महत्व दिया गया। ओबामा ने अपनी अफगान नीति के अंतर्गत घोषणा की थी कि वह 1 जुलाई 2011 से अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी की शुरुआत कर देंगे। इसके पूर्व उन्होंने अफगानिस्तान में आतंकवाद को पराजित करने और शांतिपूर्ण वातावरण कायम करने का वायदा किया था। इस नीति की घोषणा के बाद उन्हें लगा कि अफगानिस्तान में ‘नाटो’ की सेना के सहारे यह लक्ष्य प्राप्त करना तो शायद असंभव है। ऐसे में पाकिस्तानी हुक्मरानों ने उन्हें विश्वास दिलाया कि यदि वे उनकी बात मानें तो काम मुश्किल नहीं है। पाकिस्तान की सलाह थी कि यदि अफगानिस्तान के नरमपंथी तालिबानों को अपनी तरफ मिला लिया जाए और काबुल की सत्ता में हिस्सेदारी दे दी जाए, तो अफगान समस्या का समाधान हो सकता है। इसके लिए उसकी शर्त थी कि इन नरमपंथी तालिबानों के साथ जो बातचीत की जाए, उसमें पाकिस्तान को न केवल शाामिल किया जाए, बल्कि उसे अहम भूमिका प्रदान की जाए। दूसरे अफगानिस्तान से भारत की भूमिका समाप्त की जाए। और तीसरे पाकिस्तान को आधुनिक शस्त्रास्त्रों की पूरी सैनिक सहायता दी जाए। अमेरिका ने सिद्धांततः पाकिस्तान की प्रायः सारी बातें मान ली। भारत की भूमिका के बारे में पाकिस्तान को कोेई स्पष्ट आश्वासन नहीं दिया गया, लेकिन परोक्षतः यह मान लिया गया कि यदि काबुल की सरकार में पाक समर्थक तालिबान का वर्चस्व कायम हो जाएगा, तो भारत को अपने आप काबुल से भागना पड़ेगा, इसीलिए उस पर कुछ अधिक जोर देने की जरूरत नहीं है। अमेरिका ने पाकिस्तान योजना पर बातचीत के लिए वाशिंगटन में एक विशिष्ट वार्ता का आयोजन किया, जिसमें पाकिस्तान सेनाध्यक्ष व आईएसआई प्रमुख को विशेष रूप से आमंत्रित किया गया।

इस बीच न्यूयार्क के टाइम्स स्क्वायर में कार बम रखे जाने की घटना घट गयी। इसकी जब जांच आगे बढ़ी, तो इसके तार सीधे पाकिस्तान से जुड़े पाये गये। अमेरिका द्वारा पाकिस्तान की सारी शर्तें मान लेने के बावजूद पाकिस्तानी सेना ने उत्तरी वजीरिस्तान में अलकायदा व तालिबान नेताओं के गुप्त अड्डों के विरुद्ध अभियान शुरू नहीं किया। सेनाध्यक्ष जनरल कयानी इसमें लगातार अनाकानी करते आ रहे हैं। अमेरिका का इससे निराश होना स्वाभाविक था। राष्ट्र्पति ओबामा को चीन व पाकिस्तान से जो अपेक्षाएं थीं, वे किसी तरह पूरी होती नहीं दिखायी दीं। ओबामा को चीन से अपेक्षा की थी कि वह अमेरिका को मंदी के आर्थिक संकट से उबरने में मदद करने के लिए तैयार हो जाएगा और पाकिस्तान से आशा थी कि वह अफगानिस्तान के मामले में अमेरिका के द्वारा तैयार किये गये ‘रोडमैप’ के अनुसार कार्रवाई शुरू कर देगा, किंतु वे दोनों ही बातें होती नहीं नजर आयीं। उधर इन दोों के चक्कर में भारत के साथ बढ़ी घनिष्ठता भी ढीली पड़ने लगी।

ओबामा की निश्चय ही इसके लिए तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने बहुत जल्दी स्थिति के यथार्थ को भांप लिया और उन्होंने एशियायी क्षेत्र में अपनी राजनीतिक क्षतिपूर्ति की कवायद शुरू कर दी। भारत-अमेरिका उच्चस्तरीय रणनीतिक वार्ता श्रृंखला की शुरुआत इसके कवायद का ही एक हिस्सा है। भारत के साथ संबंधों में आयी उदासीनता या खटास को तोड़ने के लिए ही राष्ट्रपति  ओबामा प्रोटोकॉल तोड़कर भारतीय विदेशमंत्री एस.एम. कृष्णा के सम्मान में आयोजित समारोह में भाग लेने के लिए पहुंचे।

इस समारोह में विदेशमंत्री हिलेरी के साथ राष्ट्र्पति ओबामा ने भी भारत के साथ अमेरिका के मूल्यों पर आधारित स्वाभाविक संबंधों को बार-बार रेखांकित किया। हिलेरी ने अपने वक्तव्य में अमेरिकी लेखक मार्कट्वेन को उद्घृत किया, तो ओबामा ने भारतविद जर्मन विद्वान मैक्समूलर के कथन को दोहराया। मार्कट्वेन ने लिखा था कि, ‘भारत मनुष्य जाति का पालना है, मनुष्य ने यहीं बोलना सीखा यानी भाषा का जन्म हुआ, यह इतिहास की मां, किंवदन्तियों की दादी मां और परंपराओं की तो दादी मां की भी मां है।’ हिलेरी ने इसमें जोड़ा कि मुझे खुशी है कि यह माताओं की श्रृंखला है। इसी तरह मैक्समूलर ने भारत के बारे में लिखा था कि ‘आप अपने विशेष अध्ययन के लिए मानव मस्तिष्क का कोई भी क्षेत्र चुने, चाहे वह भाषा हो, धर्म -रिलीजन- हो, विश्वास हो या दर्शन अथवा कानून या रीति-रिवाज या कि प्रारंभिक कला या विज्ञान आपको इसके लिए भारत जाना पड़ेगा, क्योंकि मानव इतिहास की अधिकांश शिक्षाप्रद व अधिकतम मूल्यवान सामग्रियों का भंडार भारत में और केवल भारत में ही है।’

ऐसा नहीं कि मार्कट्वेन या मैक्समूलर की लिखी ये बातें यूरोप अमेरिका के पढ़े लिखे लोगों को पहले न मालूम रही हों, लेकिन भारत-अमेरिका रणनीतिक वार्ता के अवसर पर अमेरिकी राष्ट्र्पति व विदेशमंत्री द्वारा इनका उद्घृत किया जाना यह प्रदर्शित करता है कि वे भारत के महत्व को थोड़ा-थोड़ा समझने लगे हैं। इसका यह अर्थ नीं निकाला जाना चाहिए कि अब अमेरिका के लिए पाकिस्तान या चीन का महत्व समाप्त हो गया है और वह अपनी सारी रणनीतिक आवश्यकताओं के लिए भारत से बंध गया है। कोई भी देश हो उसकी सारी आंतरिक व बाह्य नीतियां उसके राष्ट्र्ीय हितों से संचालित हैं।

इसमें दो राय नहीं कि भारत और अमेरिका परस्पर स्वाभाविक मित्र हो सकते हैं। दोनों के जीवन मूल्य तथा लोकतंत्र के प्रति आस्था समान है। एक दुनिया का सबसे शक्तिशाली और पुराना लोकतंत्र है, तो दूसरा दुनिया का सबसे बड़ा यानी सर्वाधिक जनसंख्या वाला लोकतांत्रिक देश। दोनों ही मानवमूल्यों की श्रेष्ठता में विश्वास करते हैं। इसके बावजूद वे करीब आधी शताब्दी तक कभी एक दूसरे के प्रति संदेह मुक्त नहीं हो सके। अमेरिका के बारे में सामान्य धारणा है कि उसमें लोकतांत्रिक देशों के बजाए तानाशाही देशों के साथ अधिक दोस्ती निभायी। भारत के राजनीतिक विश्लेषक भी इसीलिए अमेरिका से सर्तक रहने की सलाह देते रहते हैं।

लेकिन अब समय बदल रहा है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की स्थिति भी अब नहीं रह गयी है। शीतयुद्धकाल का दौर भी बीत चुका है। विश्व की सैनिक व आर्थिक महाशक्ति बनने का राष्ट्र्ीय सपना यद्यपि अभी भी बरकरार है, किंतु वैश्विक परस्पर निर्भरता इतनी बढ़ती जा रही है कि मात्र सैन्य शक्ति के सहारे कोई देश महाशक्ति नहीं बन सकता।

भारत की एक अजीब मजबूरी है कि उसके पड़ोस में उसका कोई दोस्त नहीं है। उसके पड़ोसियों पर भी उसका कोई प्रभाव नहीं है। पहले हजारों मील दूर उसका एक दोस्त सोवियत संघ या रूस था, अब एक नया दोस्त अमेरिका बन रहा है। पड़ोस के छोटे देश पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, बंगलादेश, म्यांमार आदि भारत के मुकाबले चीन के प्रभाव में अधिक हैं। चीन और भारत के बीच भाई-भाई व्यावसायिक प्रगति के साझीदार तो हो सकते हैं, लेकिन दोस्त नहीं हो सकते, क्योंकि दोनों ही महत्वाकांक्षी हैं, इसलिए प्रतिस्पर्धी हैं। दोनों ही महान संस्कृतिक परंपराओं के वारिस हैं, लेकिन न तो दोनों की जीवनशैली समान है, न राजनीति। वे पड़ोसी होकर भी सहज मित्र नहीं हो सकते। इसलिए अमेरिकी मैत्री की भारत को भी आवश्यकता है। कम से कम पड़ोस की सैन्य चुनौतियों तथा वैश्विक आतंकवाद से मुकाबले के लिए दूसरा कोई साथी उपलब्ध नहीं है। इसलिए भारत तो अमेरिका के साथ संबंधों को आगे बढ़ाने के लिए तैयार बैठा है। इधर-उधर विचलन की स्थिति में तो अमेरिका ही पड़ा है।

इसमें दो राय नहीं कि भारत और अमेरिका यदि ईमानदारी से परस्पर मैत्री गठबंधन कर लें, तो 21वीं सदी का इतिहास उनके नाम ही रहेगा, लेकिन इसके लिए विश्वास की आधारभूमि अमेरिका को बनानी है। 2-3 जून को वाशिंगटन में हुई रणनीतिक वार्ता तो अभी शुरुआत है। यह कितना आगे बढ़ सकती है, इसका पता अगली वार्ता में चलेगा, जो अगले वर्ष नई दिल्ली में होगी। इसके पूर्व भारत को सर्वाधिक उत्सुकता के साथ प्रतीक्षा रहेगी आगामी नवंबर में राष्ट्र्पति ओबामा की भारत यात्रा की। यदि राष्ट्र्पति ओबामा अपने शब्दों के प्रति ईमानदार हैं, तो नवंबर में होने जा रही उनकी यात्रा भारत-अमेरिका संबंधों के इतिहास में विश्व इतिहास की किताब का एक नया अध्याय लिखेगी। संदेह और विश्वास की स्थितियां बनती बिगड़ती रहती हैं, लेकिन मनुष्यता के विकास के लिए यह आवश्यक है कि मानवीय स्वतंत्रता और श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों में विश्वास करने वाले देश् व समाज परस्पर निकट आएं। हिंसक आतंकवादी विचारधाराओं और उसकी पोषक शक्तियों को पराजित करने के लिए यह अत्यावश्यक है।

शनिवार, 5 जून 2010

संकट में घिरा रोमन कैथोलिक साम्राज्य

दुनिया को रोमन कैथोलिक साम्राज्य आज जैसे संकट में घिरा है, वैसा पहले शायद कभी नहीं था। बच्चों के साथ यौन दुराचार के आरोपों में वैटिकन के महामहिम पोप बेनेडिक्ट 16वें को भी अपने घेरे में ले लिया है। उनके उुपर पद छोड़ने तक का दबाव बढ़ रहा है। पोप बेनेडिक्ट पर सीधा आरोप है कि उन्होंने बच्चों के साथ यौन दुराचार करने वाले पादरियों को सजा दिलाने की जगह उन्हें संरक्षण प्रदान किया। शताब्दियों से लोग सब कुछ देखते, सुनते तथा सहते हुए चुप रहे, लेकिन अब लोग चुप रहने के लिए तैयार नहीं हैं। वे खुलकर बाहर आ रहे हैं और आरोप लगा रहे हैं। पोप के पास शिकायती चिट्ठियों का अंबार लग गया है, जिसमें से बहुत सी स्वयं उनके खिलाफ हैं। क्या पोप अब इस सद्धर्म में सुधार की कोई पहल करेंगे या उसे अपने पुराने पापों के बोझ तले निष्प्राण होते जाने देंगे।



रोमन कैथोलिक चर्च इस समय लगभग पूरी दुनिया में बच्चों और स्त्रियों के यौन उत्पीड़न के आरोपों से घिरा हुआ है। पोप बेनेडिक्ट 16वें से खुलेआम इन सारे आरोपों की जिम्मेदारी अपने उुपर लेने और पद छोड़ने की मांग की जा रही है। कई देशों में यह मांग उठ रही है कि ईसाई साधु (प्रीस्ट्स) साध्वियों (नन्स) के आचरण नियमों में से ब्रह्मचर्य (सेलीबेसी) का नियम हटाया जाए। स्वयं इटली की 40 औरतों ने पोप को खुला पत्र लिखा है कि ‘सेलीबेसी’ का सिद्धांत हटाया जाए। ये वे औरतें हैं, जिनका रोमन कैथोलिक चर्च के किसी न किसी प्रीस्ट-पादरी से प्रेम संबंध है। इन स्त्रियों ने पत्र में लिखा है कि पादरियों को भी प्रम करने या प्रेम पाने या शारीरिक सुख उठाने की इच्छा होती है। कई देशों में यह सवाल उठाया जा रहा है कि ‘सेलीबेसी’ कोई ईश्वरीय या ‘डिवाइन’ सिद्धांत नहीं है। यह मानव निर्मित नियम है, इसलिए यह बदला जा सकता है। अभी पिछले महीने जर्मनी में की गयी एक जांच में 250 लोगों ने शिकायत की है कि बचपन में चर्च के किसी न किसी ‘पादरी’ ने उनके साथ जोर-जबर्दस्ती से शारीरिक संबंध बनाया। पोप बेनेडिक्ट के पास तो पूरी दुनिया के देशों से आए ऐसे पत्रों का अंबार लगा है।

वर्तमान पापे बेनेडिक्ट पर तो यह भी आरोप है कि जब वह जर्मनी में कार्डिनल थे, तो उन्होंने पादरियों द्वारा बच्चों और स्त्रियों के साथ किये गये व्यभिचार को छिपाने की कोशिश की। यदि उनके पास कोई शिकायत पहुंचती, तो वे ज्यादा से ज्यादा संबंधित पादरी को उस चर्च से हटाकर किसी और चर्च में भेज देते थे। कई बार उन्होंने स्वयं ऐसे अपराधियों को अपने पास बुलाकर संरक्षण दिया। वास्तव में जबसे चर्चों की स्थापना हुई है, तभी से वे यौन अपराधों के केंद्र बने हुए हैं, लेकिन वहां की ऐसी शिकायतों को हमेशा बाहर आने से रोका गया। ईसाई धर्म संघ को कोई क्षति न पहुंचे, इसके लिए किसी धर्म गुरु-पादरी या प्रीस्ट को कभी कोई सजा नहीं दी गयी। यहां तक कि उसकी सार्वजनिक निंदा से भी बचा गया। लेकिन ईसा के दो हजार वर्ष बाद इस 21वीं सदी में अब लोग चुप रहने को तैयार नहीं है। कल के यौन शोषण के शिकार बच्चे अब बड़े ही नहीं, प्रौढ़ावस्था को प्राप्त कर चुके हैं। अब उन्होंने अपने सारे कटु अनुभवों को सार्वजनिक करने का बीड़ा उठाया है। कई एक ने तो पूरे विस्तार से सारे सूक्ष्म विवरण के साथ अपनी कहानी पेश की है। पुरुषों-स्त्रियों सबने संकोच त्यागकर चर्च के काले कारनामों को उजागर करना शुरू कर दिया है। इस नैथ्तक भ्रष्टाचार की कहानी कहने के लिए कई ‘प्रीस्ट’ भी सामने आ रहे हैं। एक ऐसे ईसाई साधु ने लिखा है- ‘कैथोलिज्म के पास एक बड़ा शानदार फार्मूला है। इसकी शुरुआत इस बात से होती है कि मूलतः हम सब पापी (सिनर्स) हैं, इसलिए हमें पाप मुक्त होने या अच्छा बनने की हर संभव कोशिश करनी चाहिए और यदि हम ऐसा नहीं कर पाते, तो हमारे पस एक ओर आसान रास्ता है- पश्चाताप का। हम पश्चाताप करके अपने को पवित्र कर सकते हैं। प्रभु ईसा तो हमारे पापों को क्षमा करने के लिए ही सूली पर चढ़ गये थे। फिर हमें क्या करना। हम तो किसी ‘प्रीस्ट’ के सामने अपने पापों को स्वीकार करके भी पाप मुक्त हो सकते हैं।

वैटिकन ने दुनियाभर की चर्चों में तमाम धर्मगुरुओं, पादरियों व अन्य धर्माधिकारियों द्वारा किये गये सारे पापाचारों, अपराधों, उत्पीड़न व अन्याय की माफी के लिए वर्ष 2000 में एक विशााल क्षमा दिवस कार्यक्रम का आयोजन किया। इसमें पूर्व पोप जॉन पॉल द्वितीय भी शामिल हुए थे। इसके आयोजनकर्ता कार्डिनल जोसेफ रैटजिंगर ही थे, जो वर्तमान समय में पोप की गद्दी पर हैं। 12 मार्च 2000 को आयोजित इस क्षमा दिवस समारोह में पिछली तमाम शताब्दियों में चर्च द्वारा स्त्रियों, बच्चों, अल्पसंख्यकों आदि के प्रति किये गये अपराधों के लिए क्षमा मांग ली गयीं। इस तरह उन्होंने चर्च को दो हजार साल के इतिहास की सारी गंदगी से मुक्ति दिलाकर उसे पवित्र किया।

इधर जब जर्मनी में तथा अन्य देशों में बच्चों के साथ व्यभिचार के असंख्य मामले सामने आये, तो फिर कुछ लोगों ने एक और क्षमा दिवस (द डे आफ पारडन) का आयोजन करने की सलाह दी, किंतु उसे नहीं स्वीकार किया गया। समझा गया कि ऐसा करने से चर्च पर ऐसे व्यभिचार का स्थाई दाग लग जाएगा। पादरियों द्वारा किये जा रहे व्यभिचारों की शिकायत करने वाले भी अब इस ‘धार्मिक ढोंग’ को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। उनकी मांग है कि इसके लिए दोषी धर्माधिकारियों के खिलाफ वर्तमान कानूनों के अंतर्गत कार्रवाई की जाए। दुनिया के करीब सवा अरब रोमन कैथोलिक इस स्थिति से बेहद क्षुब्ध हैं और व्यवस्था में आमूल-चूल सुधार करना चाहते हैं।

वास्तव में ‘सेलीबेसी’ या ‘ब्रह्मचर्य’ को दुनिया में जहां कहीं भी किसी भी धर्म का आधारभूत सिद्धांत बनाया गया, वहां मठ या चर्च के भीतर यौन अपराध बढ़े ओर स्वभावतः उनका शिकार छोटे बच्चे-बच्चियों को होना पड़ा। दुनिया के कई धर्मों में ब्रह्मचर्य या सेलीबेसी को बहुत महत्वपूर्ण स्थान दियाग या है। ईसाई धर्म के अलावा जैन, बौद्ध तथा वैरागी वैष्णव व साधु समाज में भी स्त्री संग को पूरी तरह वर्जित किया गया। ईसाई मत में तो औरत पाप की खान है। वह पुरुष को गुमराह करके पाप की तरफ ले जाती है। पाप की ऐसी कल्पना जैन, बौद्ध, वैष्णव आदि धर्मों में नहीं थी, फिर भी निर्वाण, मोक्ष या मुक्ति के लिए ब्रह्मचर्य को अत्यधिक महत्वपूर्ण माना गया । जैन और बौद्ध धर्मों में सत्य, अहिंसा, अस्तेय (चोरी न करना), अपरिहग्रह (संग्रह न करना) तथा ब्रह्मचर्य (स्त्री संग से दूर रहना), ये पांच पवित्र, साध्नामय जीवन के आधारभूत अंग हैं। इसलिए इन धर्मों के आदि आचार्यों ने पहले तो कोशिश की कि स्त्रियों को उससे दूर रखा जाए, लेकिन आत्यंतिक दृष्टि से यह किसी के लिए संभव नहीं हो सका।

भगवान बुद्ध ने जब अपने पहले ‘धर्म संघ’ की स्थापना की, तो उन्होंने उसमें स्त्री का प्रवेश वर्जित रखा। लेकिन जब स्त्रियों के ऐसे सवालों का जवाब देना उनके लिए मुश्किल हो गया कि क्या स्त्रियां निर्वाण या मोक्ष की अधिकारिणी नहीं हैं। क्या धर्म की संपदा केवल पुरुषों के लिए है। क्या स्त्रियां पुरुषों से कुछ हीन हैं कि उन्हें इस लाभ से वंचित किया जा रहा है । भगवान बुद्ध पहले तो चुप रहकर इन सवालों को टालते रहे, लेकिन जब उनकी मौसी महाप्रजापति गौतमी ने उनके सामने यही सवाल रखा और धर्म संघ में अपने प्रवेश की इच्छा व्यक्त की, तो बुद्ध के सामने इसे टालने का कोई मार्ग नहीं रह गया। जन्म के समय ही मां का निधन हो जाने के कारण मौसी गौतमी ने ही उनका पालन-पोषण किया था, उन्हें बड़ा किया था। उनकी बात टालना उनके वश में नहीं था। इसलिए उनके आग्रह पर सिर झुकाते हुए उन्होंने बड़े अनमने भाव से स्त्रियों को भी संघ में प्रवेश की अनुमति दे दी। लेकिन इसके साथ ही बुद्ध ने कहा कि अब इस धर्म संघ की आयु आधी रह गयी है। उन्होंने पहले घोषित किया था कि उनका धर्म संघ एक हजार वर्ष तक चलेगा, किंतु स्त्रियों को प्रवेश की अनुमति देने के बाद कहा कि अब इसकी आयु केवल 500 वर्ष रह गयी है।

यद्यपि उन्होंने संघ में स्त्री-पुरुषों को साथ नहीं रखा। पुरुषों का अलग संघ था और स्त्रियों का अलग। दोनों सर्वथा अलग-अलग रहकर धर्म साधना करते थे। लेकिन केवल कुछ गज जमीन या एक दीवाल की दूरी उन्हें कब तक अलग रख सकती थी। बौद्ध गं्रथों के अध्येता जानते हैं कि इससे बौद्ध भिक्षु-भिक्षुओं के बीच किस तरह का भ्रष्टाचार फैला। थेरी गाथाएं इसकी प्रमाण् हैं। और अंततः यही बौद्ध धर्म वामाचार की पतनशीलता तक जा पहुंचा। इस स्थिति से जैन धर्म भी अपने को बचा नहीं सका। धर्म की प्रतिष्ठा रक्षा के लिए इन धर्मों के अनुयायी ऐसी घटनाओं को दबाने-छिपाने के प्रयत्न में लगे रहते हैं। रोमन कैथोलिक ईसाई भी हजारों वर्षों से आखिर इसे छिपाते ही तो आ रहे थे। लेकिन अब उन्होंने साहस करके इस कदाचार का सफाया करने का ही निर्णय ले लिया है।

वास्तव में ‘सेलीबेसी’ या ‘ब्रह्मचर्य’ एक प्रकृति विरोधी कार्य है। अपनी प्राचीन भारतीय परंपरा में भी ‘ब्रह्मचर्य’ का जिक्र आता है, लेकिन उसका अर्थ केवल ‘सेलीबेसी’ नहीं है। यदि आजकल यह इसी अर्थ में रुढ़ हो गया है, लेकिन मूलतः ‘ब्रह्मचर्य’ मनुष्य जीवन के एक आश्रम का नाम था, जो विद्याध्ययन काल के आचार व नियमों से सम्बद्ध था। ब्रह्म का शब्दार्थ है ज्ञान। ‘ब्रह्मचर्य’ का अर्थ हुआ ज्ञान का आचार या आचरण। इसलिए विद्याध्ययनकाल की जीवनशैली या चर्या को ‘ब्रह्मचर्य’ कहा गया। विद्याध्ययन में व्यवधान न पैदा हो, इसलिए इस काल में स्त्री सहवास करना, नाच रंग में शामिल होना, श्रृंगार करना, बहुविध स्वाद वाला भोजन करना आदि वर्जित था। ज्ञानर्जान या विद्याध्ययन काल बीतते ही ‘ब्रह्मचर्य’ काल समाप्त हो जाता था और फिर व्यक्ति गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने और उसके सारे सुखों का उपभोग करने का पुनः अधिकारी हो जाता था। उस समय यदि कोई गृहस्थ भी अल्पकाल के लिए ही सही किसी विद्याध्ययन के लिए जाना चाहता था, तो उसे उस काल में ‘ब्रह्मचर्य’ का पालन करना होता था।

भारतीय समाज चिंतकों ने आश्रम व्यवस्था उसी विचार के साथ तैयार की थी कि व्यक्ति पहले विद्याध्ययन द्वारा जीवन के लिए सारे कौशल अर्जित करे। फिर धर्मानुकूल अर्थोपार्जन करते हुए जीवन के सारे सुखों -जिनमें यौन सुख भी शामिल था- का उपभोग करने के उपरांत फिर विरत होकर अपने को समाज सेवा के लिए अर्पित कर दे। और जब शरीर असक्त हो जाए, जीवन की सक्रियता क्षीण हो जाए, तो वह अपने मन और चित्त को मृत्यु की तैयारी की तरफ मोड़ दे और मुमुक्षु या संन्यासी की जीवनचर्या अपना ले। उसने कैशोर्य या युवावस्था में भिक्षु, संन्यासी या मुनि बनने की कभी सलाह नहीं दी। लेकिन मुक्ति या निर्वाण पाने के लिए उतावले कुछ आचार्यों ने किशोरों या नव युवक-युवतियों को भी संन्यास की दीक्षा देना शुरू किया। भगवान बुद्ध ने भी यही किया। उन्होंने युवा कुमार व कुमारियों को दीक्षा देनी शुरू कर दी। वे धर्म संघ के सदस्य बन गये। वैश्य कुमार अनाथपिडक अभी अविवाहित युवा ही था, जब वह भिक्षु बन गया। कोशा जैसी युवा राजनर्तकी व स्थूलभद्र जैसे अविवाहित क्षत्रिय कुमार जैन भिक्षु बन गये।

ईसाई धर्म में यह सब और व्यापक स्तर पर हुआ। करीब 2000 वर्षों तक यह सब चलता आया, लेकिन अब विद्रोह की स्थिति खड़ी हो गयी है और पोप बेनेडिक्ट 16वें के लिए धर्म के नैतिक आधार की ही नहीं, अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा करना भी कठिन हो रहा है। पिछले दिनों पोप बेनेडिक्ट के वरिष्ठ सलाहकार तथा वियना के आर्कबिशप कार्डिनल क्रिस्टोफ स्कोन्बर्न ने सलाह दी कि ‘सेक्स एब्यूज’ को खत्म करने के लिए ‘सेलीबेसी’ के सिद्धांत को ईसाई आचार संहिता से हटा दिया जाए, तो शायद पापे की उन्हें फटकार पड़ी और उन्होंने अपना प्रस्ताव वापस ले लिया। लेकिन समस्या यह है कि ‘सेक्स एब्यूज’ की यह समस्या खत्म कैसे हो।

वैटिकन के एक अधिकारी तथा ‘स्पेनिश प्रीस्ट’ ने अपना एक संस्मरण सुनाते हुए बताया कि वह अमेरिका की एक सड़क से गुजर रहा था, तो उसे देखकर बगल की गाड़ी से एक व्यक्ति ‘पोर्को’ -सुअर- कहकर चिल्लाया। अब वह क्या करे। मीडिया में रोमन कैथोलिक चर्चा के पादरियों के कारनामों का जैसा प्रचार हुआ है, उसमें अब कोई ‘प्रीस्ट’ किसी बच्चे को गले से नहीं लगा सकता। ‘सेक्स एब्यूज’ के विवाद ने पूरे रोमन कैथोलिक चर्च को चारों तरफ से इस तरह घेर लिया है कि उसके किसी धर्म गुरु के पास कहीं सिर उठाने के लिए जगह नहीं बची है। इस अपराध ने चर्च के तमाम अच्छे कामों को भी ढक लिया है। चर्च तमाम अस्पताल, स्कूल, अनाथालय व सेवाश्रम चला रहे हैं, जिनसे करोड़ों लोगों को लाभ पहुंच रहा है। लेकिन इस अकेले ‘सेक्स एब्यूज’ ने पूरे चर्च साम्राज्य पर कालिख पोत दी है। मीडिया के प्रचार से प्रभावित बच्चे तो अब किसी पादरी के नजदीक जाने से डरते हैंं। वैटिकन के कई अधिकारियों ने अमेरिकी समाचार पत्र न्यूयार्क टाइम्स को इसके लिए सर्वाधिक दोषी ठहराया है, क्योंकि उसने ही सबसे पहले रोमन कैथोलिक धर्म गुरुओं के पापमय यौनाचारों का खुलासा किया था और उन पुरुष-स्त्रियों की अपनी शिकायतों को छापा था, जो अपनी कहानी लेकर प्रेस के सामने आयी और इसके बाद तो दुनिया भर के प्रेस में ये कहानियां धड़ा-धड़ छपने लगीं। पोप बेनेडिक्ट सोलहवें ने उन पादरियों की तरफ से स्वयं क्षमायाचना की, जिन्होंने बच्चों को व्याभिचार का शिकार बनाया, लेकिन इस क्षमायाचना से भी मामला शांत नहीं हो पा रहा है।

बहुत से लोग आश्चर्य कर रहे हैं कि आखिर ज्यादातर बच्चे ही इसके शिकार क्यों हो रहे हैं। लेकिन इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। चाहत तो स्त्री की ही रहती है, लेकिन वांक्षित स्त्री की उपलब्धता मुश्किल है। वहां गर्भाधान का खतरा है, किसी के देख लेने का खतरा है, किसी आश्रम में स्त्री की उपस्थिति ही शक पैदा करती है। स्त्री ब्लैकमेल कर सकती है और फिर वह पाप की ओर ले जाने वाली तो है ही। ऐसे में किशोर लड़कों को शिकार बनाना सर्वाधिक सुरक्षित रहता है। यह तो केवल ईसाई जगत की कहानी है। थाईलैंड, जापान, बर्मा, चीन आदि के बौद्ध साधुओं की स्थिति भी कुछ अधिक भिन्न नहीं है। बस उनके मीडिया में आने की देर है। वैसे अनेक उपन्यासों व क्षेत्रीय कहानियों में उनके तरह-तरह के विवरण यदा-कदा आते रहते हैं, लेकिन अभी उनके संस्थानों पर पीड़ित अनुयायियों द्वारा वैसा हमला नहीं शुरू हुआ है, जैसा कि रोमन कैथोलिक चर्च पर शुरू हो चुका है।

वैसे सच कहा जाए, तो इस तरह के सारे धर्म व मजहब काल बाह्य हो गये हैं। वे अपने सेवा व शिक्षा प्रकल्पों द्वारा अपनी उपयोगिता बनाए हुए हैं, अन्यथा सिद्धांततः उनकी सारी उपादेयता समाप्त हो चुकी है। लेकिन संकट यही है कि संगठित धर्म भी आज एक उद्योग बन गया है, जसका राजनीति व व्यापार में भी अच्छा खासा दखल है। असंख्य लोगों का निहित स्वार्थ उसके साथ जुड़ा हुआ है। फिर भी अब समय आ गया है कि इन धार्मिक संस्थानों और संगठनों के स्वरूप और उनकी उपादेयता पर पुनर्विचार किया जाए। वास्तव में पाप और मुक्ति की मिथ्या धारणाओं से दुनिया को मुक्त कराना आधुनिक युग का सबसे बड़ा लक्ष्य होना चाहिए।

पिछले गुरुवार को जर्मन की ईसाई स्कूलों में ‘सेक्स एब्यूज’ की जो जांच रिपोर्ट जारी हुई है, उसने पूरी दुनिया के रोमन कैथोलिक साम्राज्य को हिला दिया है। रिपोर्ट छोटी सी है, लेकिन उसका प्रभाव बहुत व्यापक है। जांच करने वाली महिला उर्सुला राउए ने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया है कि दशकों से ऐसे अत्याचार हो रहे हैं और चर्च के सारे अधिकारियों को सब कुछ पता है, फिर भी उन्होंने अब तक कोई कार्रवाई क्यों नहीं की। उर्सुला ने यह जांच हाल के एक-दो दशकों की है, जिसमें ईसाई स्कूलों के करीब 205 छात्र अपनी कहानी के साथ सामने आए हैं। उर्सुला के अनुसार यह संख्या बड़ी हो सकती है, लेकिन स्थिति की जानकारी के लिए यह कम नहीं है। चर्च के अधिकारियों का केवल यही कहना है कि उन्हें क्षमा कर दिया जाना चाहिए। उन्होंने वास्तव में चर्च या ईसाई पंथ की प्रतिष्ठा रक्षा के लिए ऐसी सारी घटनाओं को नजरंदाज करना या उन्हें दबाना ही ठीक समझा। वैटिकन के उच्चाधिकारी भी तक यही करते आए हैं।

लेकिन सवाल है कि कब तक यह सब कुछ क्षमा किया जाता रहेगा। जो गलत है, उसे गलत की तरह स्वीकार करने का साहस कब तक आ पाएगा। वैज्ञानिक विकास और शिक्षा के प्रसार के वर्तमान दौर में मिथ्या विश्वासों पर आधारित कोई धर्म नहीं चल सकता। अच्छा हो कि वैटिकन के रोमन कैथोलिक सम्राट धर्मगुरु पोप ही नहीं, अन्य धर्मों के शीर्ष धर्माचार्य भी अपने पंथों की आचार संहिता और व्यवहारिक  स्थिति का पुनरावलोकन करें और उनमें युगानुरूप परिवर्तन लाने का प्रयत्न करें।