बुधवार, 23 जून 2010

लोग केवल एंडर्सन के पीछे क्यों पड़े हैं ?




भोपाल गैस दुर्घटना के दायित्व से एंडर्सन को मुक्त नहीं किया जा सकता, लेकिन उसे इसका मुख्य दोषी भी करार नहीं दिया जा सकता। मुख्य दोषी यदि कोई है, तो वह यूनियन कार्बाइड की भारतीय इकाई के अध्यक्ष केशव महेंद्र और मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह, जिनकी आपराधिक लापरवाही से यह दुर्घटना हुई। लेकिन प्रायः सारे लोग एंडर्सन के पीछे पड़े हैं, क्योंकि वह विदेशी है और उसकी ओट में सारे देशी लोगों के पाप छिपाए जा सकते हैं। एंडर्सन को वापस भेजना नहीं उसे गिरफ्तार किया जाना गलत कदम था। दुर्घटना के बाद भारत आना उसकी कोई बाध्यता नहीं थी। वह संवेदना व सहानुभूतिवश यहां आया था, लेकिन गिरफ्तारी ने सारा मामला ही बदल दिया। वर्तमान कानूनी दायरे में एंडर्सन को भारत वापस बुलाना लगभग असंभव है, इसलिए बेहतर है कि भारत सरकार, राहत, पुनर्वास, चिकित्सा, पर्यावरण सुरक्षा पर ध्यान दे और मुआवजे की राशि को यथार्थपरक बनाए, जिससे पीड़ितों को शांति मिले, क्योंकि अब 25 साल बाद दोषियों को उचित सजा दिलाना उसके वश का काम नहीं।





बुरा जो देखन मैं चला बुरा न दीखा कोय
जो घट सौधों आपना तो मुझसा बुरा न कोय

कबीरदास की यह वाणी तो संतवाणी है, जो अध्यात्मिक यथार्थ की ओर संकेत करती हैं, किंतु अपने देश की राजनीतिक स्थिति पर यदि दृष्टि डाली जाए, तो वह भी कमोबेश हमें ऐसी ही नजर आएगी। अपने देश की यह प्रवृत्ति बहुत पुरानी है कि अपना दोष मढ़ने के लिए किसी दूसरे का गला या सिर ढूंढ़ लिया जाए। अपने देश की सांप्रदायिकता की समस्या हो, जातिवाद की समस्या हो, सांस्कृतिक पतन की समस्या हो, हम इस सबके लिए विदेशियों को खासतौर से अंग्रेजों, यूरोपियनों व अमेरिकियों को आसानी से जिम्मेदार ठहरा देते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि विदेशी सब दूध के धोए, पवित्र देव पुरुष हैं और सारे पाप की खान हम स्वयं हैं, लेकिन सच यही है कि विदेशियों ने केवल हमारे दोषों व दुर्बलताओं का लाभ उठाया। उन्होंने हमें ईमानदार से बेईमान व वीर से कायर नहीं बनाया, बल्कि हमारे भीतर जो बेईमानी व कायरता थी, उसका अपने लिए इस्तेमाल किया। यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन के भोपाल कारखाने और दिसंबर 1984 में हुई उसकी दुर्घटना तथा उसके बाद की अब तक की त्रासदी की कहानी भी यही है। 1984 से आज तक हम अमेरिकी बहुराष्ट्र्ीय कंपनी यू.सी.सी.(यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन, अमेरिका)के पूर्व अध्यक्ष व मुख्य कार्यकारी अधिकारी वारेन एंडर्सन के पीछे पड़े हैं, लेकिन हमारी अपनी सरकारों, अपने राजनेताओं, अपने अफसरों व अपने न्यायाधीशों के अपराधों की तरफ हमारी कोई नजर नहीं है। यह कहने का मतलब भी एंडर्सन का बचाव करना या उसे निर्दोष साबित करना नहीं, बल्कि यह बताना है कि हमारे अपने लोग उसके मुकाबले कहीं अधिक दोषी हैं।

7 जून 2010 को भोपाल के मुख्य न्यायिक अधिकारी की अदालत से दुर्घटना के 25 लंबे वर्षों बाद सुनाये गये फैसले के बाद से रहस्यों की रोज एक न एक नई परत खुलती जा रही है। अब सारी कवायद अपने-अपने राजनीतिक बचाव की चल रही है। भला हो उस अदालत व कानून का, जिसने दोषियों को इतनी कम सजा सुनाई कि लगभग पूरा देश गुस्से से भड़क उठा। जिस दुर्घटना में 20 से 25 हजार तक लोग मारे गये और करीब 6 लाख उत्पीड़ित हुए, उसके दोषियों को मात्र दो साल के कारावास की सजा और उस पर भी तत्काल जमानत। किसी को एक मिनट के लिए भी जेल जाने की नौबत नहीं। अदालत में मात्र एक-दो घंटे की पेशी और फिर अपने क्लब या गोल्फ के मैदान में जाकर मौज मनाने की फुरसत।

7 जून के फैसले के बाद जब प्रायः पूरे देश के मीडिया में हंगामा खड़ा हुआ, तो पहले तो एक दूसरे पर दोषारोपण का दौर चला, फिर जब ऐसा लगा कि इससे भड़की आग की सारी आंच केंद्र सरकार व कांग्रेस पार्टी की तरफ आ रही है, तो उसके बचाव के विशेष प्रबंध किये जाने लगे। केंद्र सरकार ने सारे मामले के एकमुश्त निपटारे के लिए 9 सदस्यों की एक मंत्रिमंडलीय समिति गठित की, जिसके अध्यक्ष गृहमंत्री पी. चिदंबरम बनाए गये। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने मंत्रियों के इस समूह को आदेश दिया कि वह फौरन अपनी बैठकें शुरू करें और 10 दिन के अंदर अपनी रिपोर्ट पेश करे, जिससे इस मामले में तत्काल कार्रवाई शुरू की जा सके। बीते शुक्रवार को इस दल की पहली बैठक हुई। तय हुआ कि इसकी रोज बैठक होगी और 4 दिन के अंदर यानी 10 दिन की अवधि पूरी होने के 2 दिन पहले ही सोमवार तक उसकी रिपोर्ट दे दी जाएगी।

शुक्रवार को यह बैठक अभी शुरू ही होने वाली थी कि उसके पहले ही योजना आयोग ने भोपाल गैस पीड़ितों की सहायता के लिए 982 करोड़ रुपये की विशेष धनराशि जारी करने की घोषणा की। यह राशि इस मामले पर विचार के लिए गठित मंत्रिसमूह की संस्तुति के बाद राज्य सरकार को दी जाएगी। यहां यह उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश की राज्य सरकार ने भोपाल गैस पीड़ितों के सहायतार्थ एक ‘एक्शन प्लान’ 2008 में योजना आयोग के समक्ष पेश किया था, लेकिन आयोग ने उस समय उसे रद्द कर दिया था और कहा थ कि यह प्रस्ताव तर्कसंगत नहीं है, इसलिए इसके लिए कोई धन आवंटित नहीं किया जा सकता, मगर अब फटाफट उसी ‘एक्शन प्लान’ के अनुसार 982 करोड़ की धनराशि दिये जाने की घोषणा कर दी गयी। एक्शन प्लान में राज्य सरकार ने कहा था कि इस दुर्घटना में 16,000 लोग मरे हैं, 5000 से अधिक औरतें विधवा हुई हैं, लाखें बीमार हैं, इसलिए उनकी चिकित्सकीय, आर्थिक, सामाजिक तथा पर्यावरणीय सहायता के लिए बड़ी धनराशि की जरूरत है। यह प्रस्ताव शायद इसलिए भी रद्द कर दिया गया कि राज्य की भारतीय जनता पार्टी की सरकार द्वार पेश किया गया था। धन केंद्र सरकार देती और उसका श्रेय राज्य सरकार को मिलता, इसलिए प्रस्ताव ही रद्द कर दिया गया।

मंत्रियों के समूह की पहले दिन बैठक में शामिल मंत्रियों की भावनाओं को पढ़ने वाली अखबारी रिपोर्टों में कहा गया है कि प्रायः सभी मंत्रियों की एक ही चिंता थी कि ‘कुछ तो करना ही पड़ेगा और वह भी जल्दी।’ चिदंबरम ने बैठक के बाद पत्रकारों को बताया कि ‘हम लोग पीड़ितों के प्रति अत्यंत सहानुभूतिपूर्वक अधिकतम जो कुछ संभव हो सकेगा वह करेंगे। पूरे मुद्दे को मुख्य रूप से दो हिस्सों में बांटा गया है। एक तो कानूनी मुद्दा है, जिसके अंतर्गत यह देखा जाएगा कि क्या इस आपराधिक मामले को फिर से खोला जा सकता है और क्या यूनियन कार्बाइड के पूर्व अध्यक्ष एंडर्सन को भारत लाया जा सकता है। दूसरा हिस्सा मुआवजे एवं पर्यावरण की साफ-सफाई से संबंधित है। इसके अंतर्गत मुआवजे की राशि बढ़ाने के अलावा विशैले कचरे की सफाई, भूगर्भ जल का परिशोधन तथा दूषित हुए इलाके में शुद्ध पेयजल की आपूर्ति आदि का मामला है। इसके लिए कानून, स्वास्थ्य, रसायन व पर्यावरण मंत्री तथ उनके विभाग रातदिन श्रम करने में लगे हैं।

विधि मंत्रालय ने एक विस्तृत नोट तैयार किया है, जिसमें मंत्रिसमूह को सलाह दी गयी है कि दोषियों की सजा बढ़ाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में एक ‘क्यायेरेटिव पिटीशन’ (संशोधन याचिका) दायर की जाए तथा इस कानूनी संभावना का भी पता लगाया जाए कि क्या एंडर्सन को वापस बुलाया जा सकता है। स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने भी इस बीच अपने स्वास्थ्य अधिकारियों की कई बैठकें की तथा आई.सी.एम.आर. (इंडियन कौंसिल आॅफ मंडिकल रिसर्च) के वैज्ञानिकों के साथ भी मुलाकातें की। वह अब व्यक्तिगत रूप से यह जानकारी हासिल करने में गे हैं कि ‘मिथाइल आइसो सायनाइट’ (मिक) जैसी विशैली गैस का अब तक क्या प्रभाव पड़ा है, विशेषकर बच्चों और गर्भवती स्त्रियों को इससे क्या नुकसान पहुंचा है। भोपाल में कैंसर के रोगियों की संख्या वृद्धि में इसकी क्या भूमिका है तथा पीड़ितों का इलाज करने वाले अस्पतालों की वर्तमान स्थिति क्या है। मंत्रिसमूह की इस बैठक में रसायन एवं उर्वरक विभाग के सचिव विजय चटर्जी ने दुर्घटना के बाद से अब तक की विस्तृत जानकारी दी। अब तक सारी कानूनी कार्रवाई, मुआवजा साफ-सफाई तथा चिकित्सा के मोर्चे पर अब तक जो कुछ हुआ, वह सारी जानकारी उन्होंने दी, क्योंकि मूलतः इस दुर्घटना का सारा मामला उनके विभाग से ही संबंधित था। उन्होंने यह भी बताया कि कचरा हटो का दायित्व ‘डाउ’ कंपनी पर डालने के लिए जबलपुर की हाईकोर्ट पीठ में मामला चल रहा है। करीब 350 मीट्र्कि टन का यह कचरा अंकलेश्वर (गुजरात) भेजा जाने वाला था, लेकिन गुजरात ने इसकी अनुमति नहीं दी। जब रामविलास पासवान केंद्र में रसायन व उर्वरक मंत्री थे, तो उन्होंने यह कचरा हटाने के लिए डाउ कंपनी से 100 करोड़ रुपये की मांग की थी। तो न तो उसने पैसे दिये न कचरा हटा और कचरा हटाने के दायित्व का विवाद हाईकोर्ट में लटका हुआ है। उन्होंने यह भी बताया कि दुर्घटना के कारण प्रदूषित पर्यावरण के सुधार के लिए सीएसआईआर (केंद्रीय वैज्ञानिक व औद्योगिक अनुसंधान संस्थान) शोधकार्य कर रहा है, जिसकी रिपोर्ट इसी महीने आने वाली है।

9 मंत्रियों के समूह (गृहमंत्री पी. दिंबरम, वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी, विधि मंत्री वीरप्पा मोइली, भूतल परिवहन मंत्री कमलनाथ, स्वास्थ्य मंत्री गुलामनबी आजाद, शहरी विकास मंत्री जयपाल रेड्डी, रसायन एवं उर्वरक मंत्री एम.के. अलागेरी, पर्यावरण राज्यमंत्री जयराम रमेश, पर्यटन मंत्री कुमारी शैलजा, इसके अलावा अतिरिक्त म.प्र. के राहत व पुनर्वास मंत्री बाबूलाल गौर स्थाई आमंत्रित सदस्य हैं) की इस बैठक में इन मंत्रियों के अलावा मंत्रिमंडलीय सचिव (कैबिनेट सेक्रेटरी) के.एम. चंद्रशेखर, गृहसचिव जी.के. पिल्लइ तथा विदेशा सचिव निरूपमा राव भी भग ले रही हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि इस मंत्रिमंडलीय समूह में शामिल पी. चिदंबरम व कमलनाथ ने 2006-07 में जब वे क्रमशः वित्त व वाणिज्य मंत्री थे, राय दी थी कि भोपाल गैस दुर्घटना से दूषित हुए इलाके से कचरा हटाने तथ उस स्थल को विषैले प्रभाव से शुद्धि के लिए एक ट्र्स्ट (साइड रेमिडिएशन ट्र्स्ट) बनाया जाए, जिसमें भारतीय कार्पोरेट क्षेत्र की कंपनियां अंशदान करें और उस धन से सफाई का कार्य किया जाए। तब वे न तो इसकी जिम्मेदारी ‘डाउ’ कंपनी पर भी डालने के लिए तैयार नहीं थे, जिसने यू.सी.सी. को खरीद लिया है। उनके ऐसे सुझावों के कारण न तो कोई कंपनी इस काम के लिए आगे आयी और न सरकार ने ही यह काम अपने हाथ में लिया। ‘डाउ’ कंपनी का कहना है कि उसका भोपाल में कभी कोई कारोबार नहीं था, इसलिए वह इसके लिए जिम्मेदार नहीं है। इसके अतिरिक्त भारत सरकार ने स्वयं उसे यह क्लीन चिट दी है कि यू.सी.आई.एल. (यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड) भोपाल की दुर्घटना का कोई दायित्व उसके उपर नहीं है। ‘डाउ’ के वकील तथा कांग्रेस के वर्तमान प्रवक्ता अभिषेक मनु संघवी ने भी उस समय कंपनी को यही सलाह दी थी कि भोपाल में साफ-सफाई का कोई दायित्व जब यू.सी.सी. पर ही नहीं था, तो वह उसके उपर कैसे आ सकता है। भारत सरकार ने 1989 में यू.सी.सी. से 47 करोड़ डॉलर में अंतिम समझौता कर लिया था। सर्वोच्च न्यायालय के माध्यम से यह समझौता हुआ था, जिसमें यू.सी.सी. को सारे दायित्वों से मुक्त कर दिया गया था और केंद्र सरकार ने उसके विरुद्ध दायर सारे दीवानी (सिविल) व फौजदारी (क्रिमिनल) मामले वापस ले लिये थे। इसके अंतर्गत कारखाना स्थल का कचरा हटाये बिना उसे वह जमीन हस्तांतरित करने का अधिकार भी दे दिया गया था।

दिसंबर 1984 की दुर्घटना के बाद शुरू हुई कानूनी लड़ाई में यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड की तरफ से देश की प्रसिद्ध न्यायिक सेवा कंपनी ‘जे.बी. दादाचांदी एंड कं.’ की सेवाएं ली थीं। इस कंपनी के नानी पालखीवाला, फालीनारीमम व अनिल दीवान जैसे देश के शीर्ष वकीलों की सेवाएं प्राप्त की थी। भारत सरकार के पूर्व एटार्नी जनरल सोली सोराब जी का अकेला ऐसा नाम है, जो इस लड़ाई में यूनियन कार्बाइड की तरफ से खड़े होने से इनकार कर दिया। कंपनी ने जब सोली सोराब जी से संपर्क किया, तो उन्होंने साफ कह दिया कि इस मामले में पीड़ितों को कानूनी सहायता की अधिक जरूरत है, वह उनके खिलाफ अमेरिकी कंपनी के पक्ष में अदालत में नहीं खड़े हो सकते।

इस कांड में 1984 के बाद जितने आंदोलन व विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, उसमें सर्वोच्च खलनायक के रूप में एंडर्सन का नाम ही सबसे उपर है। 20 से 25 हजार तक की मौतों का जिम्मेदार अकेले उसे ही ठहराया जाता रहा है। अब तक शायद ही कोई ऐसा पोस्टर दिखायी दिया हो, जिस पर यू.सी.आई.एल. के अध्यक्ष केशव महेंद्र का फोटो छपा हो। प्रायः पूरे देश की चिंता है कि वह अमेरिकी यहां से कैसे भाग निकला। इसकी जांच कराने की मांग पर अधिक जोर है कि उसे देश से भगाने में किसने मदद की। कोई इसकी जांच कराने की मांग नहीं कर रहा है कि यू.सी.सी. को भोपाल में शहर के बीच कारखाना लगाने का लाइसेंस कैसे मिला। इस कारखाने की डिजाइन दोषपूर्ण थी और सुरक्षा के पर्याप्त साधन नहीं थे, तो इसे उत्पादन की अनुमति कैसे मिली। और दुर्घटना हुई तो उसके प्रत्यक्ष जिम्मेदार अधिकारियों को छोड़कर लोग केवल एंडर्सन के पीछे भागते क्यों नजर आए?

अब पता चल रहा है कि इस कारखाने की स्थापना का लाइसेंस इंदिरा गांधी के शासन में आपातकाल के दौरान दिया गया। इस मामले में कोर्ट में दायर की गयी सी.बी.आई. की एक एफिडेविड (शपथपत्र) के अनुसार यू.सी.सी. ने 1 जनवरी 1970 में 5000 टन कीटनाशक बनाने की क्षमता वाला कारखाना स्थापित करने के लिए लाइसेंस दिये जाने का आवेदन पत्र केंद्र सरकार के उद्योग मंत्रालय -जो उस समय औद्योगिक विकास मंत्रालय कहा जाता था- के समक्ष प्रस्तुत किया। यह आवेदन 5 साल तक पड़ा रहा। तत्कालीन उद्योग विकास मंत्रालय के अधिकारी व संबंधित मंत्री यह लाइसेंस देने के पक्ष में नहीं थे। अतः 31 अक्टूबर 1975 को यह लाइसेंस मिल गया। लाइसेंस कैसे और किसके सहयोग से मिला, वस्तुतः यह भी एक जांच का विषय है। इस शपथ पत्र में यह भी जिक्र है कि उस समय के एक अंतर्राष्ट्र्ीय पर्यावरण रक्षक संगठन ‘टाक्सिक वॉच एलायंस’ ने कहा था कि भारत में आपातकाल न लगता, तो भोपाल में गैस कांड भी न होता। इस संगठन के एक सदस्य गोपाल कृष्ण ने भी कहा है कि इस बात की जांच होनी चाहिए कि यह लाइसेंस कैसे मिला। औद्योगिक विकास मंत्रालय के तत्कालीन उपनिदेशक आर.के. शाही (जो बाद में योजना आयोग के उपसलाहकार बने) के अनुसार लगभग पूरा विभाग यह लाइसेंस देने के खिलाफ था। वास्तव में यह भी जांच का विषय है कि यू.सी.सी. को भोपाल में इस कारखाने को लगाने के लिए इतनी बड़ी सरकारी जमीन कैसे दी गयी। लाइसेंस के आवेदन में यह साफ लिखा गया था कि कीटनाशक का निर्माण के लिए मिथाइल आइसोसायनाइट (मिक) गैस का इस्तेमाल किया जाएगा। क्या इसके भयानक विषैलेपन का अहसास किसी को नहीं था? यहां यह भी उल्लेखनीय है कि केंद्रीय वैज्ञानिकों का दल जब यूसीसी के वर्जीमियां प्लांट को देखने के लिए गया, तो उसे प्लांट के भीतर जाने की अनुमति नहीं दी गयी।

आश्चर्य है कि देश के तमाम लोग अन्य सारी बातों को छोड़कर इस बात के पीछे पड़े हैं कि एंडर्सन 1984 में जब भारत आया, तो उसे बाहर क्यों जाने दिया गया। वास्तव में एंडर्सन की तो इसके लिए प्रशंसा की जानी चाहिए थी कि इस भयावह दुर्घटना की खबर पाकर स्थिति का स्वयं आकलन करने के लिए उसने भारत आने का निश्चय किया। उस समय देश में आम चुनाव होने वाले थे और राजनीतिक माहौल गर्म था, इसलिए एंडर्सन ने पहले से अपनी सुरक्षा की व्यवस्था करना जरूरी समझा। जैसी खबरें मिल रही हैं, उसके अनुसार उसने भारत स्थित अपने दूतावास से संपर्क किया। उस समय दूतावास के उपप्रधान गार्डन स्ट्र्ीब ने इस बारे में भारत सरकार से संपर्क किया। उसने विदेश सचिव से संपर्क किया होगा। चूंकि मामला गृहमंत्रालय से संबद्ध था, इसलिए विदेश विभाग ने गृहविभाग से संपर्क किया गया। उस समय गृहमंत्री पी.वी. नरसिंह राव थे जो बाद में प्रधानमंत्री बने। प्रधानमंत्री उस समय चुनाव प्रचार के सिलसिले में राजधानी से बाहर थे। एंडर्सन को देश में सुरक्षा की गारंटी देने के लिए गृहमंत्री स्वयं सक्षम थे, लेकिन उन्होंने इस बारे में प्रधानमंत्री से संपर्क न किया हो यह कम ही संभव है। केंद्र सरकार की सुरक्षा की गारंटी पाकर एंडर्सन भोपाल पहुंचे। वह दुर्घटनास्थल पर जाने की तैयारी में थे। भोपाल के कलक्टर मोती सिंह ने स्वयं कहा है कि जब वह हवाई अड्डे पहुंचे, तो एंडर्सन हाथ में गैस मास्क लिये टहल रहे थे।

एंडर्सन को सपने में भी यह आशंका नहीं रही होगी कि वहां उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाएगा। भोपाल में दुर्घटना के बाद पुलिस में जो एफ.आई.आर. दर्ज हुई थी, उसमें एंडर्सन का भी नाम था, इसलिए पुलिस अधीक्षक ने उन्हें कैद में ले लिया। एंडर्सन ने केंद्र सरकारक को संपर्क किया होगा। निश्चय ही इस पर मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को केंद्र से निर्देश मिला होगा कि एंडर्सन को पूर्ण सुरक्षा की गारंटी दी गयी है, इसलिए जैसे भी हो, उन्हें फौरन दिल्ली वापस भेजो। एंडर्सन ने दिल्ली में गृहमंत्री पी.वी. नरसिंह राव से तथा राष्ट्र्पति जैल सिंह से मुलाकात की। उन्होंने तत्कालीन विदेश सचिव महाराज कृष्ण रसगोत्रा से भी मुलाकात की। शायद धन्यवाद देने के लिए उन्होंने ये मुलाकातें की।

गार्डन स्ट्र्ीव ने अपने एक बयान में इस बात की पुष्टि की है कि केंद्र सरकार के निर्देश पर एंडर्सन भोपाल से सुरक्षित दिल्ली वापस लाए गये और वहां से उन्हें न्यूयार्क भेजा गया।

तत्कालीन विदेश सचिव रसगोत्रा ने भी सी.एन.एन. आईबीएन न्यूज चैनल पर करण थापर के साथ एक साक्षत्कार में स्वीकार किया कि केंद्र के निर्देश पर उन्हें गिरफ्तारी से मुक्त कराकर वापस भेजा गया। उनकी राय में यह आवश्यक था। यदि ऐसा न किया जाता, तो उसके लिए केंद्र सरकार पर अंतर्राष्ट्र्ीय स्तर पर विश्वास हनन का आरोप लगता।

यहां यह ध्यान देने की बात है कि दुर्घटना के बाद एंडर्सन का भारत आना आवश्यक नहीं था। संवेदना व सहानुभूतवश वह यहां आया था। राहत व मुआवजे के लिए उसकी मदद ली जानी चाहिए थी। रसगोत्रा के अनुसार भी एंडर्सन दुर्घटना का उत्तर दायित्व महसूस करके ही यहां आया था और पीड़ितों की अधिकतम सहायता करना चाहता था। अब यदि दुर्घटना के अपराध की जिम्मेदारी ही तय करनी हो, तो उसकी सर्वाधिक जिम्मेदारी यू.सी.आई.एल. के अध्यक्ष व अन्य अधिकारियों पर जाती है। एंडर्सन पर नहीं। उसके लिए मध्य प्रदेश की सरकार व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह जिम्मेदार ठहराये जा सकते हैं, जिन्होंने असुरक्षा की शिकायतों पर स्वयं कारखाने का दौरा करके यहा प्रमाण-पत्र दिया कि वहां कोई समस्या नहीं है, बल्कि सब कुछ ठीक-ठाक है। अर्जुन सिंह ने तो एंडर्सन से भी अधिक गैरजिम्मेदारी दिखायी। एंडर्सन अमेरिका से चलकर भोपाल पहुंचा, लेकिन अर्जुन सिंह दुर्घटना की सुबह अपने चुरहट महल में रहने चले गये कि कहीं गैस का कोई प्रभाव उन तक न पहुंच पाए।

वास्तव में केंद्र सरकार की गलती यह नहीं है कि उसने एंडर्सन को वापस भेजा, बल्कि गलती यह है कि आज के केंद्रीय नेताओं में इसे स्वीकार करने का साहस नहीं है, क्योंकि पूरे देश की यह मानसिकता है कि यदि किसी मामले में कोई विदेशी हाथ लग जाए, तो उसकी ओट में अपने सारे पाप छिपा लो। अर्जुन सिंह ने भी लंबे मौन के बाद अब अपनी जबान खोल दी है। उनका साफ कहना है कि एंडर्सन को दिल्ली भेजवाने से उनका कोई लेना-देना नहीं है। उन्होंने विस्तार से तो कुछ नहीं बताया, लेकिन शनिवार को उन्होंने एंडर्सन के मामले से अपनी गर्दन छुड़ाकर उसे केंद्र के उूपर डाल दिया।

अब इसका निपटारा 10 सदस्यीय ‘मंत्री समूह’ को करना है। एंडर्सन का मामला राज्य सरकार के सिर थोपने की केंद्रीय नेताओं की कोशिश नाकाम हो गयी है। देश का कोई एक व्यक्ति भी यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि बिना केंद्र की अनुमति के एंडर्सन देश के बाहर जा सकता है। इसलिए मंत्रिसमूह को अब एंडर्सन का मसला भी हल करना है। अपने नेताओं, अफसरों तथा केशव महेंद्र जैसे भारतीय उद्यमियों का बचाव करने के लिए एंडर्सन को ‘स्केप गोट’ बनाना आवश्यक है। देश भर से यह मांग उठ रही है कि भोपाल गैस मामले को दुबारा खोला जाए और ताजा आंकड़ों के आधार पर नया आरोप पत्र दायर किया जाए। सर्वोच्च न्यायालय तथा प्रधानमंत्री के पास ऐसे अनुरोध वाले करीब 76 हजार पुत्र पहुंचे हैं और आते भी जा रहे हैं। देश के 69 सांसदों ने भी प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इस मामले में अदालती कार्रवाई दुबारा शुरू करने को कहा है।

इस मामले में अब केंद्र और मध्य प्रदेश की राज्य सरकार के बीच प्रतिस्पर्धा है। मध्य प्रदेश सरकार भी इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में ‘क्योरेटिव’ याचिका दायर करने की तैयारी कर रही है। केंद्रीय विधि मंत्रालय ने भी मंत्रियों के समूह को ऐसी ही याचिका दायर करने की सलाह दी है।

खैर, अब अधिक देर नहीं है। 10 सदस्यीय मंत्रिसमूह कल सोमवार या मंगलवार तक अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री को दे देगा, जिसमें राहत, पुनर्वास व मुआवजे बढ़ाने की संस्तुतियों के साथ कुछ कानूनी संस्तुतियां भी होंगी, जिसमें एंडर्सन को भारत बुलाने की संभावनाएं तलाशने की बात भी होगी। जैसे भी हो देश भर में भड़के असंतोष को शांत करने की कोशिश की जाएगी। भोपाल गैस त्रासदी के असली दोषी देश के भीतर हैं, बाहर नहीं। मुश्किल यही है कि इन भीतरवालों को कोई सजा नहीं मिल पाएगी। लेकिन इस सारे हंगामें का लाभ गैस पीड़ितों को अवश्य मिलेगा। कम से कम उनके राहत और पुनर्वास का प्रबंध बेहतर हो जाएगाअ और संभवतः मुआवजा राश् िभी कुछ हजार से बढ़कर एक-दो लाख हो जाए।(20.6.2010)

1 टिप्पणी:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

एंडरसन का प्रत्यर्पण संभव भी हो जाए तो होते होते वह खुद ही निबट लेगा। लेकिन इस देश में बहुत सारे एंडरसन हैं जिन्हें यह व्यवस्था पैदा करती है। जब तक यह व्यवस्था रहेगी उन्हें पैदा करती रहेगी।