रविवार, 26 दिसंबर 2010

विश्व इतिहास का रुख बदलने वाला दशक



21वीं शताब्दी का पहला दशक पूरा होने जा रहा है। यों यह पूरा दशक ही निर्णायक घटनाओं से भरा रहा है, लेकिन इसका अंतिम वर्ष 2010 विशेष रूप से अनुप्रेरक व जागरूकता बढ़ाने वाला सिद्ध हुआ है। मंदी से जूझने के बहाने जहां इसने पौरूष की गहरी प्रेरणा दी है, वहीं विकीलीक्स जैसे खुलासों द्वारा विश्व समाज को अधिक विवेकशील बनाने का काम किया है। भारत को शायद विकीलीक्स से सर्वाधिक लाभ हुआ है और उससे भी ज्यादा लाभ अपने देशी रहस्योद्घाटनों से हुआ है। हम्माम में सब नंगे हैं, इसका यथार्थबोध शायद पहली बार एक साथ पूरे देश को हो सका है। हो सकता है अगला दशक इससे कुछ वाजिब सबक लेकर आगे बढ़े सके।

काल गणना और उनके नामकरण की पद्धतियां भी अजीब हैं। 21वीं शताब्दी के पहले दशक को यूरोपीय पद्धति में सन् 2000 के दशक की संज्ञा दी गयी। यह दशक 2009 में पूरा हो गया। इस तरह दूसरा दशक 2010 से शुरू हुआ, इसलिए 2010 को इस शताब्दी के दूसरे दशक का पहला साल कह सकते हैं। लेकिन विडंबना यह है कि इस शताब्दी के पहले दशक का पहला साल यानी सन् 2000 तो पिछली शताब्दी की गणना में चला गया, इसलिए पहले दशक की व्याप्ति 20वीं और 21वीं दोनों शताब्दियों में हो गयी। इस दृष्टि से शुद्ध रूप से इस शताब्दी का पहला दशक यह 2010 से शुरू होने वाला दशक ही है। और यदि हम दशक के नामकरण के पचड़े में न पड़ें, तो बीत रहा यह वर्ष 2010 इक्कीसवीं शताब्दी के पहले दशक (जो 2001 से प्रारंभ हुआ) का अंतिम वर्ष है और इसके बाद 2011 से दूसरे दशक का पहला वर्ष शुरू होने जा रहा है।

जो भी हो, लेकिन हम कह सकते हैं कि 2001 से शुरू होने वाला इस शताब्दी का पहला दशक पूरी दुनिया के लिए बहुत महत्वपूर्ण रहा है। 2001 से 2010 तक का यह समय दुनिया की राजनीतिक, आर्थिक तथ रणनीतिक दिशा को बदलने वाला रहा है। और इसका अंतिम वर्ष 2010 पूरी दुनिया के लिए भले ही कुछ कम महत्वपूर्ण रहा हो, लेकिन भारत के लिए तो अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है।

2001 की सबसे महत्वपूर्ण घटना न्यूयार्क पर हुए आतंकवादी हमले की थी, जिसने इस शताब्दी को राजनीतिक व सामाजिक सोच-विचार के एक नये धरातल पर ही ला खड़ा किया। इसके साथ अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी आतंकवाद को पहली बार विश्व स्तर पर पहचाना गया और उसके खतरे से लड़ने के लिए पश्चिमी देशों में सबसे पहले अमेरिका ने कमर कसी। इस तरह 2001 विश्व इतिहास में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का एक उल्लेखनीय विभाजक बिंदु बन गया। लोग अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर 2001 के पूर्व व 2001 के बाद की बात कहकर चर्चा करने लगे।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया में कई क्षेत्रीय युद्ध हुए, जिनमें महाशक्तियों का समर्थन और उनकी सेनाएं भी शामिल थीं, लेकिन 11 सितंबर 2001 की इस घटना के बाद विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति अमेरिका सीधे युद्ध में उतरा। उसने वैश्विक इस्लामी आतंकवादी की रीढ़ तोड़ने के लिए पहले अफगानिस्तान और फिर इराक पर हमला किया। अफगानिस्तान में उसका युद्ध अभी भी जारी है। इस दशक के अंतिम वर्षों में अमेरिकी राजनीति में भी बदलाव आया। दशक के अंतिम वर्षों में फिर डेमोक्रेट्स का शासन आया और चमत्कार यह हुआ कि राष्ट्रपतीय चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के पूर्व तक लगभग अज्ञात एक अश्वेत नागरिक को पहली बार अमेरिका के श्वेत सदन (ह्वाइट हाउस) की गद्दी मिली। उनका ख्याल है कि 2010 के साथ युद्धों का अध्याय खत्म होगा और अमेरिकी सेनाएं 2011 के मध्य से अफगानिस्तान छोड़कर वापस लौटने लगेंगी। इराक से अमेरिका की अंतिम लड़ाकू ब्रिगेड 2010 में ही वापस हो चुकी है। कल्पना कर सकते हैं कि 2011 से शुरू होने वाला दशक शांति का दशक हो, लेकिन जीवन-जगत का यथार्थ कुछ सत्ताधारियों की इच्छाओं से ही नियंत्रित नहीं होता। इराक का युद्ध एक व्यक्ति के खिलाफ युद्ध था, इसलिए उसके मरने के साथ वह समाप्त हो गया, लेकिन अफगानिस्तान का युद्ध किसी एक व्यक्ति के खिलाफ नहीं, बल्कि एक प्रवृत्ति, एक विचारधारा और उसकी वैश्विक महत्वाकांक्षा के खिलाफ है। इसलिए यह उतनी आसानी से समाप्त होने वाला नहीं है, जितनी आसानी की कल्पना अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति कर रहे हैं।

खैर, अब यदि अकेले इस 2010 पर ध्यान केंद्रित करें, तो इस वर्ष की विश्व स्तर की सबसे बड़ी घटना है विकीलीक्स द्वारा किया गया अमेरिकी कूटनीति का पर्दाफाश। उसने अमेरिकी विदेश विभाग व रक्षा विभाग के कई लाख दस्तावेजों को गोपनीयता की अंधेरी कोठरी से निकालकर दुनिया की आंखों के सामने फैला दिया है। गत अप्रैल महीने में उसने सबसे पहले इराक युद्ध से संबंधित दस्तावेज अपने वेबसाइट पर प्रसारित किये। उसके बाद जुलाई में अफगान वार से संबंधित गोपनीय दस्तावेजों को उजागर किया। और इसके बाद तीसरे चरण में नवंबर में उसने एक साथ ढाई लाख से अधिक गोपनीय पत्राचार तथा अन्य दस्तावेज दुनिया में फैला दिये। इस पर्दाफाश से अमेरिका ही नहीं, तमाम दुनिया के लोग सकते में आ गये। पश्चिम के तमाम देश व राजनेता इतने घबड़ा गये कि वे विकीलीक्स के संस्थापक पत्रकार जुलियन असांजे को ‘साइबर आतंकवादी' बताने लगे और उस पर कार्रवाई का रास्ता ढूंढ़ने लगे, लेकिन अफसोस कि उन्हें कोई कानून ही नहीं मिला। नया कानून बनाएं, तो भी उसकी गिरफ्त में कम से कम असांजे तो आने वाला नहीं।

अब इसमें अमेरिका व अन्य देशों की भले ही भारी फजीहत हुई हो, लेकिन विकीलीक्स के इस खुलासे से भारत को भारी लाभ हुआ है, क्योंकि इससे सबसे बड़ी बात यह हुई है कि उसके पड़ोसी पाकिस्तान की सारी कलई खुल गयी है और उसके सारे राजनीतिक व सैनिक नेता चौराहे पर नंगे हो गये हैं। अमेरिकी दस्तावेजों ने पाकिस्तान ही नहीं, स्वयं अंकल सैम (अमेरिका) का कोट, पतलून, शर्ट सब उतार लिया। विकीलीक्स ने अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति से सारी पर्तों को इस तरह उघाड़ दिया है कि अग दशकों तक किसी राष्ट्रनेता के कूटनीतिक बयानों पर कोई भरोसा नहीं करेगा। इस दौरान भारत में तो पर्दाफाश की और अद्भुत घटनाएं हुईं। ऐसी घटनाएं, जिन्होंने विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, पत्रकारिता और कार्पोरेट जगत सबको नंगा करके रख दिया। कार्पोरेट लाबीस्ट नीरा राडिया 2010 की सबसे बड़ी शख्सियत के रूप में सामने आयी। ब्रिटिश पासपोर्ट रखने वाली भारतीय मूल की इस महिला की अद्भुत क्षमता से लोग चकित हैं। उद्योग व्यवसाय जगत में सत्ताधारियों से काम निकलवाने के लिए अपने एजेंट नियुक्त करना कोई नई बात नहीं, लेकिन वह एजेंट राडिया जैसी हैसियत पा ले, यह असंभव सी कहानी लगती है। देश की आम जनता को 1 लाख 76 हजार करोड़ का नुकसान पहुंचाने वाला 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला कल्पनातीत व्यापार लगता है। भले ही यह आंकड़ा कल्पित है, लेकिन यह बाजार भाव पर की गयी गणना के यथार्थ पर आधारित है। इसके समानांतर आर्थिक घोटाले का दूसरा कांड राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन से जुड़ा है, जिसके केंद्र में कांग्रेस के नेता और खेल आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी हैं। उनके साथ भी किसके-किसके कितने तार जुड़े हैं, कहना कठिन है।

और 2010 की इससे भी अधिक चौंकाने वाली घटना तो न्यायपालिका से जुड़ी है। पता चला कि किसी राजनेता को बचाने या केंद्र सरकार की मदद करने में भारत के मुख्य न्यायाधीश भी शामिल हैं। क्या कोई विश्वास कर सकता है कि भारत की सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश जो इस समय राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष है, वह झूठ बोल सकता है। लेकिन यह झूठ मीडिया में सबके सामने आया। शायद इस बात पर भी विश्वास करना कठिन होगा कि एक सरकारी अफसर जिस पर खुद भ्रष्टाचार का मुकदमा चल रहा हो और चार्जशीट दाखिल की जा चुकी हो, उसे भ्रष्टाचार पर निगरानी करने वाली देश की सर्वोच्च संस्था का शिखर पुरुष यानी सी.वी.सी. (चीफ विजिलेंस कमिश्नर या मुख्य सतर्कता आयुक्त) नियुक्त किया जा सकता है। लेकिन भारत में ऐसा हुआ और व्यक्ति सर्वोच्च न्यायालय की आलोचना, फटकार के बाद भी अपने पद पर कायम है।

हम्माम में सब नंगे की कहावत तो बहुतों ने सुनी होगी, लेकिन शायद ही किसी को सत्ता के हम्माम में घुसे तमाम लोगों को एक साथ नंगा देखने का अवसर मिला हो, लेकिन भारत में 2010 के इस वर्ष में हर एक को यह देखने का अवसर मिल गया है। सत्ताधीशों के साथ संत और मठाधीशों के चारित्रिक पतन की कहानियां इसी वर्ष में प्रमुखता से उजागर हुई हैं। इसलिए निश्चय ही इस वर्ष 2010 का भारत की आम जनता पर बहुत बड़ा एहसान है, क्योंकि उसने प्रायः पूरी दुनिया का नग्न यथार्थ ब्योरेवार सप्रमाण उसके सामने प्रस्तुत कर दिया है। यों यदि पिछले एक दशक पर मनुष्यता के दूसरे कोण से दृष्टिपात करें- जिसमें राजनीति, कूटनीति के दृश्य ओझल रहें तथा युद्ध और सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाएं भी दरकिनार की जा सके, तो कई रोचक और सुखकर उपलब्धियां भी दिखायी पड़ेंगी। इस अवधि में वैज्ञानिकों ने कृत्रिम रूप से जीवित कोषिका बनाने में सफलता प्राप्त की, चांद पर पानी का भंडार खोज निकाला, मंगल पर खोजी यान उतारा और अपनी आकाशगंगा के परे दूसरी आकाशगंगा में पृथ्वी से मिलता-जुलता एक ग्रह भी ढूंढ़ निकाला। वास्तुविदों ने दुबई में ’बुर्ज खलीफा' जैसी एक चमत्कारी संरचना खड़ी कर दी (जनवरी 2010), जो धरती पर मानवनिर्मित सबसे उंची (828 मीटर यानी 2717 फिट) वस्तु है। और यह भी रोचक है कि इसके विभिन्न अंशों को खरीदने वालों में भारतीयों की संख्या सबसे बड़ी है। यानी इसके बड़े भाग पर भारतीयों का कब्जा है। इसके पहले इसी दशक की (2004) सबसे उंची अट्टालिका ’ताईपेई 101’ (509.2 मीटर) थी। खेलों में 2008 के बीजिंग ओलंपिक का आयोजन भी किसी चमत्कार से कम नहीं था। इस अवधि में पहले कृत्रिम हृदय का प्रत्यारोपण हुआ, तो कृत्रिम किडनी के निर्माण में सफलता प्राप्त हुई। कृत्रिम गर्भाशय निर्माण का काम बस पूरा ही होने वाला है।

विभीषिकाओं में सर्वाधिक गंभीर विभिषिका विश्व व्यापी आर्थिक मंदी रही, जिससे उबरने का संघर्ष अभी भी चल रहा है, लेकिन इसने दुनिया के तमाम धन्नासेठ देशों की जड़ता को तोड़ा है। आने वाला दशक इससे लाभान्वित ही होगा।

दुनिया सतत आशावाद पर टिकी है। और यदि उसके सामने से राजनीति और कूटनीति के भ्रम के पर्दे दूर हो जाएं, तो यथार्थ से जूझने का उसका साहस और बढ़ जाता है। वैश्विक स्तर पर 'विकीलीक्स’, भारत में 'राडिया टेप’ आदि से उजागर हुए तथ्य शायद विश्व मानव समाज को अधिक विवेकशील बनाने में सहायक होगा। भारत भी निश्चय ही इनसे लाभन्वित ही होगा। आज की युवा पीढ़ी यदि इनसे सबक लेगी, तो अगले दशक को आकार देने वाली उसकी भूमिका निश्चय ही अधिक सशक्त और साहसपूर्ण होगी, जिसका लाभ पूरे विश्व समाज को प्राप्त होगा। शताब्दी के इस पहले दशक ने नये युग की भूमिका निर्धारित कर दी है। लेकिन युग के कर्णधारों को अपना रास्ता तो खुद ही बनाना पड़ेगा।

26/12/2010

रविवार, 19 दिसंबर 2010

वेन जियाबाओ की व्यापारिक यात्रा


चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ भी तमाम अन्य व्यापारिक महाशक्तियों की पंक्ति में गत बुधवार को दिल्ली आ गये। उन्होंने मैत्री और सहयोग की बड़ी-बड़ी बातें की, लेकिन वे सारी बातें खोखली थीं। उन्होंने भारत की किसी चिंता की कोई परवाह नहीं की। उनकी नजर एकटक भारत के विशाल बाजार पर टिकी रही। और व्यापारी देश भी अपना व्यापार बढ़ाने आए, लेकिन उन्होंने भारतीय चिंताओं के साथ भी साझेदारी व सहयोग की बात की, लेकिन चीन के प्रधानमंत्री केवल व्यापारीक लाभ के लिए यहां आए। उनकी असली दोस्ती पाकिस्तान के साथ है, इसलिए उन्हें पाकिस्तानी हितों की अधिक परवाह है। जियाबाओ की इस यात्रा के बाद यह सच्चाई और दृढ़ हो गयी है कि चीन कभी भारत का विश्वसनीय मित्र नहीं हो सकता और पाकिस्तान मित्र नहीं हो सकता और पाकिस्तान के साथ उसका गठजोड़ हमेशा भारत के लिए खतरा बना रहेगा।

वर्ष 2010 का अंतिम महिना यों पूरी दुनिया के लिए बहुत महत्वपूर्ण कहा जाएगा, लेकिन भारत के लिए यह विशेष रूप से बहुत महत्वपूर्ण बन गया है। विकीलीक्स के खुलासों को दरकिनार रखें, तो भी देश के आंतरिक रहस्योद्घाटन ने एक तरफ सामान्यजनों को दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर किया है, तो दूसरी तरफ देश की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा यों छलांग लगाती दिखायी दी कि दुनिया की तीन महाशक्तियों के शासनाध्यक्ष अकेले इसी एक महीने में भारत की यात्रा पूरी कर रहे हैं। यदि पिछले महीने यानी नवंबर में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा तथा उसके पहले गत जुलाई में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरून की यात्रा को भी शामिल कर लें, तो इस वर्ष के अंतिम 6 महीनों में विश्व की पांच महाशक्तियां एक के बाद एक भारत की परिक्रमा करती नजर आ रही हैं। इस महीने की शुरुआत में फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी अपनी सेलेब्रिटी पत्नी कार्ला ब्रुनी के साथ पधारे। उसके बाद गत बुधवार को चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ तीन दिन की यात्रा पर दिल्ली पहुंचे। अब 21 दिसंबर को रूस के राष्ट्रपति दिमित्रि मेदवेदेव दो दिन की यात्रा पर यहां पहुंचने वाले हैं।

यह रोचक है कि इन सभी महाशक्तियों के शासनाध्यक्ष मुख्यतः व्यापारिक एजेंडा लेकर भारत आ रहे हैं। अब तक आ चुके चार देश भारत के साथ करीब 40 अरब डॉलर का व्यापारिक सौदा करके जा चुके हैं। रूस के राष्ट्रपति यहां पहुंचेंगे तो उनके साथ भी कुछ 10-15 अरब डॉलर का करार हो जाएगा। चीन के प्रधानमंत्री ने करीब 16 अरब डॉलर का सौदा किया। सरकोजी का सौदा भी 13 अरब डॉलर का था। ओबामा का सौदा भी 10 अरब डॉलर के करीब था। सबसे कम 1 अरब डॉलर का सौदा ब्रिटेन के साथ हुआ। यहां यह उल्लेखनीय है कि चीन के प्रधानमंत्री ने तो स्वयं भारत के प्रधानमंत्री के सामने यह प्रस्ताव रखा कि वह भारत आना चाहते हैं। हनोई में हुए पूर्व एशियाई देशों के शिखर सम्मेलन के दौरान जब वेन जियाबाओ की डॉ. मनमोहन सिंह के साथ अलब से मुलाकात हुई, तो जियाबाओ ने भारत यात्रा की इच्छा व्यक्त की। प्रस्ताव बिल्कुल असंभावित था, लेकिन हमारे सज्जन प्रधानमंत्री भला कैसे इनकार करते, उन्होंने सोत्साह उनके प्रस्ताव का स्वागत किया। और वह शायद अब तक सबसे बड़ा प्रतिनिधिमंडल (400 सदस्यों का) लेकर दिल्ली पधारे। यद्यपि उनके पहले फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी भी 300 सदस्यों का दल लेकर आये थे, लेकिन प्रधानमंत्री जियाबाओ ने तो रिकार्ड ही तोड़ दिया।

वास्तव में जियाबाओ का इस समय एक ही एजेंडा है अपने व्यापार का विस्तार। वह देख रहे हैं कि मंदी के कारण यूरोप और अमेरिका के बाजार में कुछ गिरावट आयी है, तो उसकी कमी वह भारतीय बाजार में अपनी उपस्थिति बढ़ाकर करना चाहते हैं। चीन से व्यापार बढ़ाने में भारत की भी रुचि है, लेकिन चीन भारतीय बाजार का एकतरफा फायदा उठाना चाहता है। वह अपने राजनीतिक रूख में बिना कोई नरमी लाए आर्थिक संबंधों को विस्तार देना चाहते हैं, क्योंकि वह जानते हैं कि इस विस्तार से भारत से अधिक उनका अपना लाभ है। इसीलिए उन्होंने द्विपक्षीय व्यापार को 2015 तक बढ़ाकर 100 अरब डॉलर करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। जियाबाओ को भारतीय मीडिया से बहुत शिकायत है। वह चाहते थे कि अपनी दिल्ली यात्रा में उन्होंने मैत्री और सहयोग के जो खोखले नारे लगाये, उनको मीडिया अपनी सुर्खियां बनाता, लेकिन मीडिया ने उनके यथार्थ को पेश किया। जियाबाओ ने दिल्ली पहुंचने पर कहा कि वह भारत के साथ दोस्ती बढ़ाने की यात्रा पर आए हैं। उन्होंने यह भी कहा कि भारत और चीन प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि साझीदार हैं। इसके पहले भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह यह कह चुके थे कि दुनिया में भारत और चीन दोनों के विकास के लिए पर्याप्त खाली क्षेत्र उपलब्ध है। मतलब यह कि इनमें से किसी को अपने विकास के लिए दूसरेको धक्का देने की जरूरत नहीं है। जियाबाओ ने भी यहां इस बात को दोहराया, साथ ही यह भी कहा कि दोनों के बीच सहयोग के लिए असीमित क्षेत्र हैं। यानी बिना एक दूसरे की राह में रोड़ा बने वे अपना विकास ही नहीं कर सकते, बल्कि एक दूसरे को विकास में सहयोग कर सकते हैं और साथ-साथ मिलकर भी विकास के पथ पर आगे बढ़ सकते हैंे। उन्होंने यहां अपने दीर्घकालिक आपसी संबंधों की भी चर्चा की। लेकिन उनके प्रदर्शित आचरण ने उनके सारे शब्दों का खोखलापन उजागर कर दिया।

जियाबाओ ने अपनी इस यात्रा में भारत की किसी भी चिंता का कोई समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास नहीं किया। पंचशील की बातें तो की, लेकिन किसी शील के प्रति निष्ठा का प्रदर्शन नहीं किया। भारत का चीन के साथ सीमा विवाद तो दोनों देशों के बीच अड़ी सबसे बड़ी समस्या तो है ही, इसके साथ् चीन ने कुछ और भी खटकने वाली समस्याएं खड़ी कर रखी हैं। पाक अधिकृत कश्मीर की विकास योजनाओं में चीन की बढ़ती भागीदारी भारत के लिए एक बड़ी चिंता का विषय है। इधर पिछले कुछ वर्षों से चीन ने कश्मीरी नागरिकों को चीन जाने के लिए अलग से कागज पर वीजा देने की परंपरा शुरू कर रखी है। भारत की बार-बार आपत्ति के बावजूद उसने इसे अभी बंद नहीं किया है। पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद को चीन का लगातार समर्थन भी भारत की गंभीर चिंता का विषय है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चीन ने पाकिस्तानी आतंकवादी नेता के विरुद्ध प्रतिबंध लगाने की कार्रवाई को अपने वीटो अधिकार से रोका। अरुणाचल प्रदेश को लेकर उसकी आपत्तियां अब तक बनी है। उसने उसकी आपत्तियां अब तक बनी है। उसने अरुणाचल प्रदेश में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की यात्रा का भी विरोध किया था। भारत की चीन से लगी प्रायः पूरी करीब 3500 किलोमीटर की सीमा पर चीन सैनिक महत्व की तैयारियां भी खटकती रही हैं। भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील है, जिसके लिए उसे इस संस्था के पांचों स्थाई सदस्य देशों का समर्थन चाहिए। बाकी चार देश तो इसकी खुली घोषणा कर चुके हैं कि वे भारत को सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य के रूप में देखना चाहते हैं, लेकिन चीन अभी भी अपना विरोधी रूख अपनाए हुए है।

अपनी दिल्ली यात्रा में जियाबाओ ने भारत की किसी एक भी चिंता के समाधान में कोई रुचि नहीं दिखायी। भारत को भी कोई बहुत आशा नहीं थी, लेकिन इतनी संभावना तो अवश्य मानी जा रही थी कि वह कम से कम कश्मीर के 'स्टेपल वीजा' के बारे में तो कोई घोषणा अवश्य करेंगे। उनकी यात्रा के कुछ दिन पहले से भारत स्थित चीनी दूतावास ने कश्मीरियों के लिए ‘स्टेपल वीजा' (कागज पर अलग से लिखकर दिया गया वीजा, जो पासपोर्ट के साथ नत्थी कर दिया जाता है) देना बंद कर दिया था। मीडिया की खबरों के अनुसार उसने दो-तीन वीजा मुहर लगाकर भी दिया। इससे ऐसा लगा कि चीन शायद भारत की इस खलिश को दूर करना चाहता है और जियाबाओ की इस यात्रा के दौरान शायद अंतिम रूप से यह ‘स्टेपल वीजा' हमेशा के लिए बंद कर दिया जाए।

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। जियाबाओ साहब ने बड़ी गंभीर मुद्रा में केवल यह कहा कि वह कश्मीरियों के लिए ‘स्टेपल विजा' पर भारत की चिंता से अवगत हैं। उनके अधिकारी इस पर विचार करेंगे। आखिर वह इस पर पहले से विचार करके क्यों नहीं आये। सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता के बारे में भी उन्होंने केवल इतना कहा कि इस बारे में वह भारत की आकांक्षा से अवगत हैं। वह चाहते हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की भूमिका बढ़े। लेकिन इसके आगे कुछ भी कहना उचित नहीं समझा। पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद को रोके जाने पर भी उन्होंने कुछ नहीं कहा।

भारत ने वैज्ञानिक, तकनीकी, सांस्कृतिक व शैक्षिक सहयोग के कई समझौतों पर चीन के साथ हस्ताक्षर किये। मंच पर उसने भी जियाबाओ के सहयोग और मैत्री के स्वर में स्वर मिलाया। लेकिन इस बार भारतीय नेताओं ने पर्दे के पीछे भी बातचीत में अपना सख्त रुख बनाए रखा। इसीलिए यह शायद भारत चीन संबंधों के इतिहास में पहली बार हुआ है कि दोनों देशों के शीर्ष नेताओं के बाद जारी संयुक्त विज्ञप्ति में इस बार एकीकृत चीन के समर्थन का कोई वाक्य शामिल नहीं किया गया है (एकीकृत मतलब चीन के साथ तिब्बत व ताइवान की एकता का समर्थन)। भारत ने पहली बार चीन के समक्ष तिब्बत और कश्मीर के मसले को समान स्तर पर रखने की कोशिश की। उसने बता दिया कि यदि चीन कश्मीर को भारत का स्थाई व अविभाज्य अंग मानने के लिए तैयार नहीं है, तो भारत क्यों तिब्बत के चीन के साथ एकीकरण का राग अलापता रहे।

भारत के साथ सीमा विवाद के बारे में तो उनका कहना था कि इसके पीछे दीर्घकालिक ऐतिहासिक परंपरा का कारक है, लेकिन कश्मीर के बारे में उनके पास कोई शब्द नहीं था कि वे क्यों उसे भारत का अंग मानने के लिए तैयार नहीं है। कश्मीरी नागरिकों को अलग से वीजा देने का साफ अर्थ है कि चीन उसे भारत का अंग नहीं मानता। यह भी कोई छिपी बात नहीं है कि ऐसा वह पाकिस्तान के कहने पर उसके साथ मैत्री प्रदर्शन के लिए कर रहा है।

पाकिस्तान चीन का रणनीतिक मित्र है। उसके साथ चीन के घनिष्ठ कूटनीतिक तथा आर्थिक संबंध हैं। पाकिस्तान का परमाणु व मिसाइल विकास कार्यक्रम चीन की ही देन है। वेन जियाबाओ भारत की तीन दिन की यात्रा के बाद सीधे पाकिस्तान गये। चीनी प्रधानमंत्री की भारत यात्रा कार्यक्रम को जब अंतिम रूप दिया जा रहा था, तो भारत की तरफ से अनुरोध किया गया कि वह अपनी इस यात्रा को पाकिस्तान के साथ नत्थी न करें, किंतु उन्होंने इसे मानने से इनकार कर दिया। दुनिया के तमाम बड़े देशों ने दक्षिण एशिया में भारत और पाकिस्तान के बीच संतुलन की रणनीति छोड़ दी है। लेकिन चीन अभी यह नीति बनाए हुए है। पाकिस्तान पहुंचकर जियाबाओ ने वहां के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी के साथ बातचीत की। गिलानी की तरफ से घोषणा की गयी कि चीन उसका सबसे अच्छा, सबसे घनिष्ठ तथा सबसे अधिक विश्वसनीय मित्र है। पाकिस्तान यद्यपि अभी भी सर्वाधिक अमेरिका पर निर्भर है। अमेरिकी सहायता न मिले, तो पाकिस्तान की सारी व्यवस्था चरमरा जाए, लेकिन अमेरिका, पाकिस्तान का अब भरोसे का मित्र नहीं रह गया। विकीलीक्स द्वारा जारी किये गये दस्तावेजों ने तो अंतिम रूप से यह प्रमाणित कर दिया है कि अमेरिका और पाकिस्तान की दोस्ती केवल स्वार्थ की दोस्ती रह गयी है। दोनों में से किसी को किसी पर कोई भरोसा नहीं है। इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका के वैश्विक संघर्ष में पाकिस्तान मजबूरीवश शामिल है, जबकि चीन के साथ उसका पूरा भरोसे का रिश्ता है। इसीलिए तो इस्लामाबाद में जियाबाओ ने चहकते हुए कहा कि ‘चीन-पाक अच्छे पड़ोसी, अच्छे मित्र, अच्छे साझीदार तथा अच्छे भाई हैं।' प्रधानमंत्री गिलानी के साथ वार्ता के उपरांत जारी संयुक्त वक्तव्य में चीन ने घोषणा की है कि पाकिस्तान के साथ मिलकर वह क्षेत्रीय शांति व स्थिरता के लिए काम करेगा। इस घोषणा का सीधा अर्थ है कि दक्षिण एशियायी मामलों में चीन हमेशा पाकिस्तान का साथ देगा और उसके हितों की रक्षा करेगा। दोनों देशों ने वर्ष 2011 को ‘चीन-पाक मैत्री वर्ष' के रूप में मनाने का निर्णय लिया है।

यह केवल संयोग नहीं है कि जिस दिन चीनी प्रधानमंत्री दिल्ली पहुंचे, उसी दिन अरुणाचल प्रदेश की सीमा से सटे चीनी गांव तक उस पहाड़ी सुरंग का काम पूरा हुआ, जो भारत की सीमा से लगे इस क्षेत्र को सड़क मार्ग से तिब्बत व चीन के मुख्य शहरों को जोड़ती है। चीन भारत के दोनों ओर स्थित पूर्वी व पश्चिमी समुद्रों तक अपने रेल व सड़क राजमार्ग तक पहुंचना चाहता है। इस तरह भारतीय भूखंड तो उसकी दो बांहों के बीच आ जाएगा। एक बांह पाकिस्तान से होकर पश्चिम समुद्र तक पहुंच रही है, तो दूसरी बंगलादेश व म्यामांर से होकर पूर्वी समुद्र तक। कभी कालिदास ने नगाधिराज हिमालय की स्तुति करते हुए कहा था कि भारत वर्ष के उत्तर में स्थित दिक्देवता सदृश यह महान पर्वत जिसकी श्रृंखलाएं पूर्वी व पश्चिमी समुद्र का सपर्श करती हैं, पृथ्वी के मानदंड के समान स्थित है। यह उत्तर में स्थित भारत के रक्षाप्रहरी की स्तुति थी, लेकिन चीन ने उसे निरादृत करके अपनी वे भुजाएं फैला दी हैं, जो आतंकवाद व तानाशाही का समर्थन करती हैं तथा लोकतंत्र का खून करती हैं और उसकी आवाज को जेल की कोठरियों में बंद रखती हैं। कहावत है कि जिसकी रक्षा करता है। हमने हिमालय की रक्षा नहीं की, हमने तिब्बत की रक्षा नहीं की, तो अब हमारी उत्तरी सीमाओं की रक्षा कैसे हो सकती है।

आज का भारत निश्चय ही 1962 का भारत नहीं है। आज के हमारे राजनीतिक नेतृत्व ने थोड़ी ही सही, लेकिन कुछ दृढ़ता दिखायी है। उसने चीन को उसी के सिक्के में जवाब देने की कोशिश की है। लेकिन यह जवाब तब पूरा होगा, जब वह तिब्बत के प्रति वैसा ही व्यवहार शुरू करे, जैसा चीन कश्मीर के प्रति कर रहा है। लेकिन इसके लिए हमें अपना सैन्य मनोबल इजरायल की तरह विकसित करना होगा, क्योंकि तभी हम अपने में वह शक्ति जुटा सकेंगे, जो उस जाल को तोड़ सके, जिसे चीन, भारत के चारों तरफ बुन रहा है। पाक-चीन गठजोड़ भारत के लिए बेहद खतरनाक है, जिससे हमें सदैव सावधान रहना पड़ेगा।
 
19/12/2010

रविवार, 12 दिसंबर 2010

लोकतंत्र व तानाशाही के संघर्षों 
के बीच नोबेल शांति पुरस्कार



वर्ष 2010 का नोबेल शांति पुरस्कार चीन के विद्रोही नेता लियू जियाओबो को दिये जाने का चीन की एकदलीय कम्युनिस्ट सरकार ने तीव्र विरोध किया है। जियाओबो चीन की जेल में 11 वर्ष की कैद की सजा काट रहे हैं। सरकार ने उनकी पत्नी को भी नजरबंद कर रखा है। चीन सरकार का कहना है कि जियाओबो को नोबेल पुरस्कार देना पश्चिमी देशों का चीन की राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था पर हमला है। चीन ने पूरी दुनिया के देशों, खासतौर पर विकासशील देशों से अपील की थी कि वे ओसलो के समारोह का बहिष्कार करें। नार्वे स्थित करीब 65 देशों के मिशन प्रतिनिधियों में से 16 ने चीन के पक्ष में समारोह का बहिष्कार किया। इनमें ज्यादातर कम्युनिस्ट व इस्लामी देश हैं। तो क्या इससे यह संकेत नहीं मिलता कि दुनिया के देशों के बीच भविष्य की विभाजन रेखा (या संघर्ष रेखा) लोकतंत्र और किसी भी तरह की तानाशाही के बीच होगी और लोकतंत्र विरोधी तानाशाही देशों का नेतृत्व चीन करेगा ?


नोबेल शांति पुरस्कार इस बार लोकतंत्र बनाम एकदलीय तानाशाही के संघर्ष का प्रतीक बन गया है। 74 वर्षों बाद पहली बार ऐसी स्थिति पैदा हुई कि 10 दिसंबर को ओसलो में आयोजित पुरस्कार समारोह में पुरस्कार विजेता की कुर्सी खाली रही। अब से 74 वर्ष पूर्व 1936 में ऐसी स्थिति पैदा हुई थी, जब नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किये जाने के लिए आयोजित समारोह में न पुरस्कार गृहीता पहुंच सका था और न कोई उसका प्रतिनिधि। परिणाम यह हुआ कि पुरस्कार उस कुर्सी को ही समर्पित कर दिया गया, जो उसके गृहीता के लिए रखी गयी थी। इस बार भी ऐसा हुआ कि नार्वे की नोबेल कमेटी की अध्यक्ष थार्बजोरेन जागलैंड ने पुरस्कार प्रदान किये जाने से संबंधित अपने संक्षिप्त भाषण के बाद पुरस्कार राशि, गोल्ड मेडल तथा प्रशस्ति पत्र अपने बगल में स्थित उस कुर्सी पर ही रख दिया, जो पुरस्कार गृहीता या उसके प्रतिनिधि के लिए रखी गयी थी। 1936 में जर्मन शांतिवादी कार्ल वोन ओशीत्जकी को नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा हुई थी, लेकिन उस समय के जर्मन तानाशाह हिटलर ने उन्हें पुरस्कार लेने के लिए नहीं जाने दिया था।

पुरस्कार गृहीता लियू जियाओबो चीन की जेल में कैद हैं। वह चीनी कम्युनिस्ट अधिनायकवाद के विरुद्ध आवाज उठाने के आरोप में 11 वर्ष के कारावास की सजा काट रहे हैं। जेल की कोठरी से भेजे गये अपने संदेश में उन्होंने इस पुरस्कार को 1989 में बीजिंग के ‘थ्यानमेन चौक' पर लोकतंत्र समर्थक रैली में पुलिस की गोली से मारे गये शहीदों की आत्माओं को समर्पित किया है। चीन ने पुरस्कार ग्रहण करने के लिए उन्हें तो नहीं ही छोड़ा, उनकी पत्नी को भी ओसलो जाने की इजाजत नहीं दी। जबसे लियू को यह पुरस्कार देने की घोषणा हुई है, उनकी घर पर चीनी पुलिस का गहरा पहरा है, जिससे वह किसी से मिल न सकें। उनका फोन संपर्क भी काट दिया गया है, जिससे वह किसी से बात भी न कर सकें।

नोबेल कमेटी के अध्यक्ष जागलैंड ने अपने भाषण में लियू जियाओबो की तुलना दक्षिण अफ्रीका के नेल्सन मंडेला से की, जो रंगभेद के खिलाफ आवाज उठाने के लिए करीब 28 वर्षों तक जेल में रहे। उन्होंने जियाओबो को तत्काल जेल से रिहा करने की अपील की। इस अपील पर वहां सभागार में आयोजित करीब एक हजार आमंत्रित अतिथियों ने देर तक तालियां बजाकर अपना समर्थन व्यक्त किया। इसके पूर्व उन्होंने उस समय खड़े होकर देर तक तालियां बजायी, जब जागलैंड ने जियाओबो की अनुपस्थिति में उनके संघर्षों का स्मरण करते हुए यह विश्व विश्रुत पुरस्कार देने की घोषणा की। अपने प्रस्तुति भाषण में जागलैंड ने कहा कि 1.3 अरब जनसंख्या वाले देश चीन के कंधे पर पूरी मनुष्य जाति के भाग्य का भार है। इसलिए यदि वह सामाजिक बाजार अर्थव्यवस्था का विकास पूरे नागरिक अधिकारों से करता है, तो यह पूरी दुनिया के लिए हितकर होगा, नहीं तो यह खतरा है कि उस देश में भी सामाजिक और आर्थिक संकट पैदा हों, जिनका नकारात्मक प्रभाव हम सबको यानी पूरी दुनिया को भोगना पड़ेगा।

अमेरिका के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने भी इस अवसर पर अपने वक्तव्य में कहा है कि लियू जियाओबो सार्वभौम मानवीय मूल्यों के प्रतीक हैं और इसके साथ ही चीन से अपील की कि वह जियाओबो को तत्काल रिहा कर दे।

लेकिन चीन इस सबसे बिल्कुल अप्रभावित है। उसने न केवल किसी चीनी नागरिक को इस समारोह में भाग लेने के लिए जाने की अनुमति नहीं दी, बल्कि उसने पुरस्कार प्रदान किये जाने वाले इस समारोह का चीनी मीडिया में प्रसार भी नहीं होने दिया। उसने सी.एन.एन. व बी.बी.सी. तथा अन्य अंतर्राष्ट्रीय चैनलों का प्रसारण बंद रखा, जब तक कि उन पर इस समारोह का प्रसारण हो रहा था। चीन में यों ही इन अंतर्राष्ट्रीय चैनलों की बहुत सीमित पहुंच है। ये केवल बड़े शहरों के होटलों या उन आवासीय क्षेत्रों तक सीमित हैं, जहां ज्यादातर विदेशी नागरिक रहते हैं।

लेकिन नोबेल शांति पुरस्कार दिये जाने की खबर से इन क्षेत्रों को भी वंचित रखा गया। चीन की दृष्टि में यह पूरा आयोजन राजनीतिक था और इसका लक्ष्य चीन की अपनी सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था में हस्तक्षेप करना है। चीन उस समय से इसका विरोध कर रहा है, जिस समय नोबेल शांति पुरस्कारों के लिए चीन के इस विद्रोही प्रोफेसर व लेखक को चुने जाने की घोषणा की गयी। चीनी संवाद समिति सिन्हुआ ने लिखा है कि जियाओबो को शांति पुरस्कार के लिए चुनना वास्तव में पश्चिम का चीन की अपनी सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था पर हमला है। पश्चिमी देश वस्तुतः अपनी राजनीतिक व सामाजिक शैली चीन पर थोपना चाहते हैं, जिसे चीन कभी स्वीकार नहीं करेगा। नार्वे की नोबेल कमेटी ने चीन के एक सजायाफ्ता अपराधी को-जो जेल की सजा काट रहा है तथा जिसके उपर सत्ता के विरुद्ध विद्रोह भड़काने का आरोप है- शांति पुरस्कार के लिए चुनकर न केवल अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की मर्यादा का, बल्कि इस पुरस्कार के संस्थापक अल्फ्रेड नोबेल की घोषणा का भी उल्लंघन किया है। अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का आधारभूत सिद्धांत है एक-दूसरे का सम्मान करना तथा एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना, किंतु नोबेल कमेटी ने इन सिद्धांतों का उल्लंघन किया है। 21 वर्ष पूर्व पश्चिमी देशों ने इसी नोबेल पुरस्कार कमेटी के माध्यम से दलाई लामा को शांति पुरस्कार के लिये चुना था। उस समय इन पश्चिमी देशों का सपना था कि चीन में उसकी वर्तमान राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध कोई आंधी उठेगी और चीन विखंडित हो जाएगा, उसकी वर्तमान व्यवस्था बिखर जायेगी। लेकिन उनका यह सपना पूरा नहीं हुआ। चीन ज्यों का त्यों अपनी जगह खड़ा है और अपने सिद्धांतों के अनुसार विकास कर रहा है। सिन्हुआ के संपादक ने अपने हस्ताक्षरित आलेख में लिखा है कि नोबेल कमेटी की यह बात सरासर झूठी है कि वह ‘सार्वभौम मूल्यों' (यूनिवर्सल वैल्यूज) को यह सम्मान दे रहा है। उन्होंने इस संदर्भ में एक चीनी कहावत का उल्लेख किया कि ‘नदी के दोनों किनारों पर वनमानुस चीखते रहे, किंतु नौका हजार पर्वतों को पार करके आगे निकलती गयी।' चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता जियांग यू ने पश्चिमी देशों के इस हस्तक्षेप का तीव्र विरोध किया। उन्होंने भी दुनिया के देशों को उपदेश दिया कि उन्हें आपसी सद्भाव के अंतर्राष्ट्रीय नियमों का पालन करना चाहिए।

चीनी अधिकारियों ने कई स्तर पर यह प्रसारित करने की कोशिश की है कि जियाओबो वास्तव में चीन का विरोधी है, चीनी मूल्यों का विरोधी है और वह चीन व्यवस्था को नष्ट करना चाहता है। 20 वर्ष पूर्व इस व्यक्ति ने लिखा कि ‘हांगकांग जहां आज है वहां तक पहुंचने में उसे 100 वर्षों के औपनिवेशिक शासन की जरूरत पड़ी। लेकिन वर्तमान चीन को हांगकांग की स्थिति तक पहुंचने के लिए जरूर कम से कम 300 वर्षों के औपनिवेशिक शासन की जरूरत पड़ेगी। यह इतना बड़ा है कि मुझे तो संदेह है कि 300 वर्षों में भी कुछ हो पाएगा।'  उन्होंने यहांतक लिखा कि चीनी जनता नपुंसक है। वह शारीरिक ही नहीं, मानसिक तौर पर भी कायर व पुंसत्वहीन हो गयी है। जियाओबो ने चीनी राजसत्ता, राजनीतिक व्यवस्था तथा समाज के खिलाफ विद्रोह भड़काने के लिए हस्ताक्षर अभियान चलाया। 21 वर्ष पूर्व थ्यानमेन चौक की विद्रोही रैली में भी उसने भाग लिया था। दिसंबर 2008 में उसने चीन की वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध एक घोषणा पत्र जारी किया। इसके उपरांत ही उस पर मुकदमा चलाया गया और चीनी गणतंत्र के संविधान के अनुच्छेद 105 के उल्लंघन के आरोप में उन्हें 11 वर्ष के कैद की सजा सुनायी गयी।

चीनी मीडिया में एक सर्वेक्षण् परिणामों को भी प्रसारित किया गया है, जिसके अनुसार देश के 77.1 प्रतिशत लोग जानते ही नहीं कि यह लियू जियाओबो कौन है और 95 प्रतिशत लोग मानते हैं कि पश्चिमी देश चीन पर यह दबाव डालने में लगे हैं कि वह उनकी पश्चिमी राजनीतिक शैली अपना ले, किंतु चीन ऐसे किसी दबाव के सामने झुकने वाला नहीं है। विश्व स्तर पर तमाम विकासशील देश इस मामले में उसके साथ हैं। दुनिया के करीब 100 से अधिक देशों तथा करीब इतने ही मीडिया संगठनों ने इस मामले में चीन के पक्ष का समर्थन किया है। कई बड़े अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने भी चीन के एक राष्ट्रद्रोही अपराधी को नोबेल पुरस्कार दिये जाने का विरोध किया है। नार्वे में स्थित दुनिया के करीब 65 स्थायी मिशन में से 20 ने ओसलो के इस समारोह का बहिष्कार किया है। इनमें से 4 तो अपना रुख बदलकर समारोह में शामिल हुए, लेकिन 16 ने चीन का साथ दिया। आश्चर्य है कि बहिष्कार करने वाले देशों में कई देश ऐसे हैं, जो अमेरिका के सीधे प्रभाव में समझे जाते हैं। बहिष्कार करने वाले देशों में मुख्य रूप से चीन के बाद रूस, पाकिस्तान, ईरान, इराक, मिस्र, अफगानिस्तान, तजाकिस्तान, सउदी अरब, क्यूबा, श्रीलंका, तंजानियां आदि देश शामिल हैं।

चीन इस पुरस्कार की घोषणा होने के बाद से ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस अभियान में लग गया था कि ज्यादा से ज्यादा देश इस समारोह का बहिष्कार करें। उसका भारत पर भी काफी दबाव था कि वह इस समारोह में भाग न ले। चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाओबो करीब 300 सदस्यों के विशाल प्रतिनिधि मंडल (जिनमें ज्यादातर व्यावसायिक कंपनियों के प्रतिनिधि तथा अधिकारी हैं) के साथ् इसी सप्ताह भारत आने वाले हैं। इसलिए भारत के सामने काफी उहापोह की स्थिति थी, लेकिन अंततः उसने लोकतंत्र की आवाज के पक्ष में खड़ा होने का निर्णय लिया और नार्वे स्थित अपने प्रतिनिधि को समारोह में भाग लेने का निर्देश दिया। इससे चीन का क्षुब्ध होना स्वाभाविक है, लेकिन वह प्रसन्न होकर भी कहां कोई भारत का हित करने वाला है। यदि प्रधानमंत्री जियाओबो अपने लंबे चौड़े प्रतिनिधिमंडल के साथ् यहां आ रहे हैं, तो इसमें उनका अपना स्वार्थ अधिक है। चीनी शासन भारत के साथ अपना व्यापार बढ़ाना चाहता है और अपनी कंपनियों के लिए विशेष राहत की भी दरकार रखता है। भारत-चीन का व्यापार बढ़ जरूर रहा है, लेकिन व्यापार संतुलन अभी भी चीन के पक्ष में है। यानी भारत से चीन को निर्यात कम है, उसके मुकाबले आयात कहीं ज्यादा। व्यापार वृद्धि से भारत का व्यापार घाटा और बढ़ेगा ही, कम नहीं होगा। इसलिए इस क्षेत्र में भी भारत को चीन से सतर्क रहने की जरूरत है।

चीन के किसी विद्रोही नेता को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए चुने जाने का चीन के बाद सर्वाधिक मुखर विरोध रूस की तरफ से किया गया है। रूस के प्रधानमंत्री ब्लादिमिर पुतिन ने तो अगला नोबेल शांति पुरस्कार विकीलीक्स के संस्थापक व संपादक जुलियन असांजे को दिये जाने की मांग की है। उन्होंने ब्रिटेन में असांजे की गिरफ्तारी का विरोध किया है। उन्होंने सवाल उठाया है कि आखिर क्यों असांजे जेल में हैं ? क्या यह लोकतंत्र है। यह तो वैसा ही है जैसे ‘पतीली केतली को कहे कि तुम काले हो।' उनका पश्चिमी लोकतंत्रों पर परोक्ष व्यंग्य था कि वे चीन में तो लोकतांत्रिक मूल्यों के विकास के लिए वहां के विद्रोही नेता को नोबेल शांति पुरस्कार देते हैं, लेकिन यहां सच्चाई को साहसपूर्वक उजागर करने वाले एक पत्रकार को फर्जी आरोपों में गिरफ्तार करके जेल में डाल रहे हैं।

अब यदि इस सारे प्रकरण को भारत के संदर्भ में देखा जाए, तो भारत के पास इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि वह अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देशों के साथ खड़ा हो। भारत के प्रायः सारे पड़ोसी देश पाकिस्तान, श्रीलंका, म्यांमार, नेपाल, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, सउदी अरब, मिस्र तथा संयुक्त अरब अमीरात आदि चीन के साथ खड़े हैं। चीन, भारत के कट्टर विरोधी पाकिस्तान का कट्टर समर्थक है। वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पाकिस्तान के कहने पर आंतकवादी नेताओं की सुरक्षा के लिए तैयार रहता है। खाड़ी क्षेत्र के प्रायः सारे मुस्लिम देश पाकिस्तान के साथ मिलकर चीन के साथ हैं। मध्य एशियायी देश भी अंतर्राष्ट्रीय मामलों में चीन के अधिक नजदीक हैं।

तो यदि लियू जियाओबो के बहाने विश्व की राजनीतिक स्थिति पर नजर डालें, तो खुले लोकतंत्र के विरोधी सारे देश चीन के साथ हैं। इस्लामी देशों ने भी चीन के साथ सहज मैत्री शायद केवल इसलिए विकसित की है कि चीन का भी लोकतंत्र का कोई आग्रह नहीं है। इस्लामी तानाशाही व कम्युनिस्ट तानाशाही में कोई चारित्रगत फर्क नहीं है। इसलिए उनके बीच सहज मैत्री स्थापित हो सकती है। भारत में यह गौर करने लायक बात है कि पाकिस्तान नहीं अफगानिस्तान ने भी चीन के समर्थन में ओसलो के समारोह का बहिष्कार किया है।

दुनिया के तमाम देशों के बीच आपसी द्विपक्षीय संबंध जैसे भी रहें, लेकिन एक बात तो बहुत स्पष्ट है कि दुनिया दो तरह की शासन व सामाजिक व्यवस्थाओं में विभाजित होती नजर आ रही है। एक तरफ लोकतंत्र है, दूसरी तरफ तानाशाही। यह तानाशाही चाहे मजहबी हो, सामाजिक हो या सैनिक, वे सभी एकजुट हैं। इसलिए भविष्य का राजनीतिक संघर्ष विभिन्न संस्कृतियों या मजहबों के बीच हो न हो, लेकिन लोकतंत्र व तानाशाही के बीच का संघर्ष अवश्यम्भावी है। भविष्य की सांस्कृतिक खेमेबंदी का आधार भी शायद यह लोकतंत्र के समर्थन या विरोध की भावना ही बने। यह हटिंगटन की भविष्यवाणी (जिन्होंने संस्कृतियों के बीच अगले अंतर्राष्ट्रीय संघर्षों की कल्पना की थी) का ही संभवतः नया रूप होगा।





रविवार, 5 दिसंबर 2010

क्या विकीलीक्स ने कोई अपराध किया है !



‘विकीलीक्स‘ नामक वेबसाइट ने अमेरिकी गोपनीय दस्तावेजों के करीब ढाई लाख पृ ष्ठ एक साथ प्रकाशित करके अमेरिकी सरकार और उसकी दोमंुही कूटनीति को सरे बाजार नंगा कर दिया है। इससे अमेरिका ही नहीं, दुनिया के वे सारे देश खफा हैं, जिनकी ढकी छुपी सच्चाई उजागर हो गयी है। इस वेबसाइट को बंद कराने तथ इसके संस्थापक पत्रकार जुलियन असांजे को पकड़ने का विश्वव्यापी अभियान शुरू हो गया है। एक पूरी महाशक्ति और उसके संगीसाथी एक व्यक्ति के पीछे पड़ गये हैं। इधर अपने देश में ‘नीरा राडिया टेप' को लेकर हंगामा खड़ा है। राडिया टेप के प्रकाशन को भी निजी गोपनीयता तथ पत्रकारिता व्यवसाय की मर्यादा का उल्लंघन बताया जा रहा है। सवाल है कि क्या ‘विकीलीक्स' के संचालक तथा ‘राडिया टेप' के प्रकाशक अपराधी हैं या इन्होंने जनहित का ऐसा काम किया है, जिसकी प्रशंसा होनी चाहिए।
मीडिया के गोपनीय दस्तावेजों, पत्राचारों तथा वार्तालापों के उजागर होने को लेकर इस समय प्रायः पूरी दुनिया में तहलका मचा हुआ है। यह तहलका मचाने वाले हैं 40 वर्षीय आस्ट्रेलियायी पत्रकार, प्रकाशक तथा ‘विकीलीक्स' एवं ‘व्हिशिल ब्लोअर' नामक वेबसाइटों के संस्थापक जुलियन असांजे। इसी समय भारत में एक और गोपनीयता का मामला भड़का हुआ है, जिसने कई राजनेताओं व उद्यमियों के साथ कई शीर्ष पत्रकारों को भी कटघरे में खड़ा कर रखा है। ‘नीरा राडिया टेपकांड' के नाम से चर्चित इस मसले ने देश में पत्रकारिता की व्यावसायिक सीमाओं व उसके कर्तव्यों तथा लोगों के गोपनीयता के अधिकार को लेकर एक नई बहस खड़ी कर रखी है।

लोकतंत्र में सूचना के अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथ गोपनीयता के सरकारी व वैयक्तिक अधिकारों को लेकर नई सदी में शुरू हुई यह बिल्कुल नई बहस है। अमेरिका जो अभिव्यक्ति स्वतंत्रता व सूचना के अधिकार का अब तक सबसे बड़ा प्रवक्ता था, वह विकीलीक्स द्वारा लीक किये गये दस्तावेजों से सर्वाधिक बौखलाया हुआ है। अमेरिकी विदेश मंत्री हिले क्लिंटन ने इसे दुनिया पर हमला करार दिया है। असांजे की इस करतूत से अमेरिका को सर्वाधिक शर्मिंदगी उठानी पड़ रही है। उसका दोहरा चेहरा पूरी दुनिया के सामने उजागर हो गया है। शर्मिंदगी के कारण् हिलेरी को पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी तथा अर्जेंटीना की राष्ट्रपति क्रिस्टीना किर्सकर से माफी मांगनी पड़ी है।

अमेरिका अब असांजे की वेबसाइट बंद कराने पर लगा हुआ है, लेकिन असांजे कहीं न कहीं से अभी भी अपनी वेबसाइट को जिंदा रखे हुए हैं। अमेरिकी डोमेन सेवा ने अमेरिकी सरकार के दबाव में गत शुक्रवार को अपनी ‘डोमेन नेम‘ प्रणाली से ‘विकीलीक्स डॉट ओआरजी' का नाम हटा दिया। असांजे ने इसके बाद ‘अमेजन सर्वर' से संपर्क किया, लेकिन उसने राजनीतिक दबाव के कारण उनका अनुरोध अस्वीकार कर दिया। असांजे ने इसके बाद एक और अमेरिकी डोमेन सेवा केलीफोर्निया स्थित ‘एवरीडन्स‘ की सेवा ली। उसने पहले तो स्वीकार कर लिया, लेकिन बाद में उसने भी असांजे की वेबसाइट को अपने सर्वर से हटा दिया। उसका कहना था कि इस वेबसाइट के चलते उस पर इतने ‘हैकर‘ हमले हो रहे थे कि उसके अन्य 5 लाख ग्राहकों के लिए खतरा पैदा हो गया था। अंततः स्विट्जरलैंड की एक डोमेन सेवा ने उसे अपने सर्वर में जगह दी और उस पर विकीलीक्स डॉट सीएच के नाम से साइट शुरू हुई। अब खबर है कि उसे भी बंद कर दिया गया है।

वास्तव में अमेरिका ने पूरे देश में अपने दूतावासों तथा अन्य एजेंसियों को इस कार्य पर लगा दिया है कि विकीलीक्स कहीं से कुछ लीक न करा पाए।

अमेरिकी गृह सुरक्षा से संबद्ध सिनेट कमेटी (सिनेट कमेटी आन होम लैंड सिक्योरिटी) के अध्यक्ष सिनेटर जो, लीवरमैन ने इसकी कमान संभाल रखी है। जुलियन असांजे कहां है, इसका कुछ पता नहीं है। अमेरिकी एजेंसियां उसकी तलाश में हैं। एक खबर के अनुसार वह ब्रिटेन के किसी गुप्त स्थान पर छिपा हुआ है, लेकिन नेट पर वह अपनी उपस्थिति बनाए हुए है। उसने अपने ट्विटर पर अमेरिकी राजनीतिक दबाववश अपनी वेबसाइट को हटाने वाली डोमेन सेवाओं की खिल्ली उड़ाई है। मुख्यतः किताबें बेचने का धंधा करने वाली अमेजन को तो उसने कहा है कि यदि वह अभिव्यक्ति स्वतंत्रता की मदद नहीं कर सकती, तो उसे किताबें बेचने का धंधा बंद कर देना चाहिए।

आश्चर्य की बात है कि दुनिया का कोई देश फिलहाल असांजे या उनकी वेबसाइट के साथ नहीं है। ऐसे में स्विट्जरलैंड में ‘इंटरनेट स्वतंत्रता तथा पारदर्शिता’ (इंटरनेट फ्रीडम एंड टं्रासपैरेंसी) के लिए काम करने वाली संस्था ‘स्विस पाइरेट्स पार्टी‘ उनकी मदद के लिए सामने आयी, लेकिन वह भी दूर तक साथ् नहीं दे सकी। एक खबर के अनुसार इसी संस्था के द्वारा असांजे को ‘विकीलीक्स डॉट सीएच‘ के पते से अपनी वेबसाइट चलाने की सुविधा मिली थी। इसकी स्थापना 2009 में हुई थी। इसके संस्थापक डेनिस सिमोनेट के अनुसार विकीलीक्स के लिए यह नया पता 6 महीने पहले ही रजिस्टर कर लिया गया था। अब इस स्विस पते के भी सेवा से बाहर हो जाने के बाद विकीलीक्स का क्या होगा पता नहीं। यद्यपि यह तय है कि असांजे कहीं न कहीं से किसी न किसी माध्यम से इसे जारी रखने का प्रयत्न करेगा, क्योंकि अभी उसके पास काफी ‘गोपनीय‘ मसाला बचा हुआ है। लेकिन अमेरिकी सरकार के साथ उसका यह गुरिल्ला युद्ध कब तक चल पाएगा और खासकर उस स्थिति में जब दुनिया की प्रायः सभी सरकारें इस मामले में अमेरिकी प्रशासन के साथ हों। अमेरिका इस समय एक तरफ दुनिया भर के देशों के साथ अपने कूटनीतिक संबंधों को संभालने में लगा है, क्योंकि विकीलीक्स द्वारा एक साथ करीब ढाई लाख गोपनीय दस्तावेजों के सार्वजनिक कर दिये जाने से उसकी स्थिति काफी शर्मनाक बन गयी है, दूसरी तरफ वह अपने गोपनीय दस्तावेजों की सुरक्षा तथा उस तक लोगों की पहुंच को सीमित करने में लगा है। अमेरिकी सिनेट ने अभी एक प्रस्ताव पारित करके अमेरिकी फौज और खुफिया सेवा में काम करने वाले मुखबिरों के नाम छापने को गैरकानूनी बना दिया है। उसने अपने यूरोपीय मित्र देशों से भी कहा है कि वे असांजे की वेबसाइटों को रोकें तथा अपने गोपनीय दस्तावेजों की सुरक्षा को मजबूत करें। विकीलीक्स के इस खुलासे के प्रथम शिकार जर्मनी के विदेशमंत्री गुइडो वेस्टरवेले के एक सहायक (उनके चीफ ऑफ स्टाफ) हुए हैं, जिन्हें सूचना लीक करने के आरोप में बर्खास्त कर दिया गया है। विकीलीक्स पर आयी कुछ सूचनाओं के लिए माना गया कि उसके बाहर जाने के लिए उपर्युक्त अधिकारी ही जिम्मेदार है। इधर, फ्रांस की सरकार ने कहा है कि वह विकीलीक्स को फ्रांस के सर्वर से ‘ब्लॉक‘ करने के रास्ते तलाश कर रही है। फ्रांस के उद्योग मंत्री एरिक बेसान ने अपने मंत्रालय के अधिकारियों को पत्र लिखकर कहा है कि विकीलीक्स फिलहाल फ्रांस की कंपनी ‘ओ.वी.एच.' के सहारे काम कर रही है। बेसान ने लिखा है कि ‘उन्हें फ्रांस के जरिए ऐसी साइट चलाना कतई कबूल नहीं है, जो कूटनीतिक रिश्ते की गोपनीय बातों को सार्वजनिक करके लोगों की जान को खतरे में डाल रही है। इसलिए आप लोग तुरंत हमें ऐसा तरीका सुझाएं, जिससे कि इस इंटरनेट साइट की फ्रांस में ‘होस्टिंग' तत्काल समाप्त की जा सके।'

वास्तव में विकीलीक्स के खुलासे से अमेरिका के पाकिस्तान, खाड़ी के कुछ देशों, यूरोपीय देशों, रूसी नेताओं आदि के साथ संबंध बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। यद्यपि द्विपक्षीय स्तर पर सभी एक-दूसरे का हाल जानते हैं, लेकिन कोई स्पष्ट प्रमाण न होने से खतरनाक बातें भी संदेह के पर्दे में छिपी रहती हैं, किंतु दस्तावेजी प्रमाणों के सामने आ जाने के बाद सारी सच्चाई जानते हुए भी परस्पर आंखें मिलाना कठिन हो जाता है। सच कहें तो विकीलीक्स ने अब तक एक भी ऐसा दस्तावेज उजागर नहीं किया है, जो वास्तव में चौंकाने वाला हो, लेकिन दस्तावेजों का प्रमाण सार्वजनिक कर देना अपने आपमें एक बहुत बड़ा धमाका है।

यदि भारत के संदर्भ में बात करें, तो ऐसा कुछ भी अब तक सामने नहीं आया है, जिससे भारत को शर्मिंदगी उठानी पड़े, बल्कि पाकिस्तान के बारे में जो भारी खुलासा हुआ है, उससे भारत को कूटनीतिक लाभ ही हुआ है। भारत के संबद्ध अब तक एक ही दस्तावेज विकीलीक्स पर आया है, जो पाकिस्तान-अफगानिस्तान के लिए नियुक्त अमेरिका के विशेष दूत रिचर्ड होलब्रुक तथा भारत की विदेश सचिव निरूपमा राव के बीच बातचीत से संबद्ध है। इससे भारत की प्रतिष्ठा ही बढ़ी है कि वह कितना सिद्धांत निष्ठ है तथा अफगानिस्तान व पाकिस्तान के बारे में उसका दृष्टिकोण कितना रचनात्मक है। हां आगे कुछ यदि भारतीय नेताओं व उनके सिद्धांतों व नीतियों तथा देश की राजनीतिक स्थिति के मूल्यांकन संबंधी कोई दस्तावेज सामने आता है, तो बात दीगर है।

उधर पाकिस्तान व अमेरिका के बीच संबंधों के तो इतने दस्तावेज उजागर हुए हैं कि दोनों ही देश सरे बाजार नंगे हो गये हैं। विकीलीक्स ने पाकिस्तान में अमेरिका की पूर्व राजदूत अन्ने डब्लू पैटर्सन के तमाम उन पत्रों को प्रकाशित किया है, जिसमें उसने पाकिस्तान की राजनीति और उसके नेताओं की सोच का कच्चा चिट्ठा पेश किया है। असांजे ने पैटर्सन को पाकिस्तान की सच्चाई उजागर करने वाली सर्वाधिक महत्वपूर्ण राजनयिक के रूप में पेश किया है। पैटर्सन ने अपने पत्रों में अमेरिकी सरकार को साफ लिखा है कि किसी भी प्रकार की सैनिक व आर्थिक सहायता देकर पाकिस्तान को अफगान तालिबानों के विरुद्ध नहीं खड़ा किया जा सकता। तालिबान वास्तव में पाकिस्तान के अपने रक्षा कवच हैं, जिनसे वह कभी अपने संबंध नहीं तोड़ सकता। अफगानिस्तान में सक्रिय तालिबान संगठन भी वहां पाकिस्तान के हितों की रक्षा कर रहे हैं। वे वहां भारत का वर्चस्व रोकने के सबसे बड़े हथियार हैं। उन्होंने इस बात का भी खुलासा किया है कि पाकिस्तान क्यों ओसामा बिन लादेन तक अमेरिका को नहीं पहुंचने देता। उनके अनुसार पाकिस्तान डरता है कि यदि ओसामा हाथ लग गया, तो फिर अमेरिका पाकिस्तान को छोड़ सकता है। इस सबके बावजूद अमेरिका पाकिस्तान को अरबों डॉलर की सैनिक व असैनिक सहायता दिये जा रहा है। इसकी व्याख्या में पैटर्सन ने लिखा है कि पाकिस्तान यह अच्छी तरह जानता है कि अमेरिका उसे नहीं छोड़ सकता। वह पाकिस्तान सरकार व सेना की मजबूरियों को भी समझता है। वह जानता है कि आम पाकिस्तानी भावना के खिलाफ उसे बहुत अधिक नहीं दबाया जा सकता। दूसरी तरफ अमेरिका यह भी समझता है कि पाकिस्तान उसकी सहायता के बिना जिंदा नहीं रह सकता।

मोटे तौर पर यह बात सभी जानते हैं कि पाकिस्तान की राजनीति तथा सेना में अमेरिका का गहरा दखल है, लेकिन अब विकीलीक्स पर जारी दस्तावेजों से यह प्रमाण मिल रहा है कि पाकिस्तान में सेनाध्यक्ष या इसकी गुप्तचर संस्था आई.एस.आई. प्रमुख की नियुक्ति अमेरिकी स्वीकृति से होती है। एक दस्तावेज के अनुसार पाकिस्तान में फिलहाल विपक्ष के नेता पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने उस समय अमेरिकी सरकार के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया, जब सेनाध्यक्ष के पद पर कयानी की नियुक्ति हुई। इससे अंदाज लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान के मामले में अमेरिका की कितनी गहरी पैठ है। पाक स्थित अमेरिकी दूतावास से अमेरिकी सरकार के बीच हुए पत्राचार से ही यह पता चलता है कि पाक राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी को यह खतरा था कि वहां सैनिक विद्रोह हो सकता है और उनकी हत्या भी की जा सकती थी। इसके लिए उन्होंने पहले से ही प्रबंध कर लिया था। उन्होंने अपने बेटे बिलावल को कहा था कि यदि उनकी हत्या हो जाए, तो वह राष्ट्रपति पद के लिए उनकी बहन फरयाल तालपुर का नाम प्रस्तावित करें।

विकीलीक्स के दस्तावेजों से खाड़ी के देशों का अंतर्द्वंद्व भी उजागर होता है। जैसे सउदी अरब तथा मिस्र आदि देश इजरायल के विरुद्ध फलस्तीन का समर्थन करते हैं तथा अमेरिका के विरुद्ध ईरान के साथ भी खड़े नजर आते हैं, लेकिन वास्तव में ईरानी परमाणु बम से वे सर्वाधिक डरे हैं और इस बात के समर्थक हैं कि अमेरिका या इजरायल ईरानी परमाणु ठिकानों पर हमला करके उन्हें नष्ट कर दें।

ऐसी और भी असंख्य बातें। अब सवाल है कि क्या इन दस्तावेजों को उजागर करके जुलियन असांजे ने कोई अपराध किया है, जिसकी उन्हें सजा मिलनी चाहिए या उन्होंने व्यापक मानवता के हित में भारी खतरा उठाकर एक जनहितैषी पत्रकार की भूमिका निभायी है। निश्चय ही असांजे ने किसी निजी स्वार्थ अथवा किसी देश या संगठन के हित में यह कार्य नहीं किया है। शायद ही कोई इस बात का विरोध करे कि लोकतंत्र का विकास शासन सत्ता की बढ़ती पारदर्शिता में ही निहीत है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक संबंधों में भी यदि पारदर्शिता रखी जाए, तो बहुत सारे संकटों से यों ही बचा जा सकता है। धोखे या छल पर टिकी कूटनीति से मनुष्यता का कोई भला नहीं हो सकता। इसलिए यदि ईमानदारी से कुबूल करें, तो जुलियन असांजे ने अमेरिकी कूटनीति का मुखौटा उतार कर विश्व राजनय का बहुत बड़ा उपकार किया है। उसने गोपनीयता की सीमा तथा क्षेत्र को नये ढंग से परिभाषित करने की आवश्यकता भी रेखांकित की है।

इध्र अपने देश के नीरा राडिया कांड ने भी देश की कलुषित हो चली पत्रकारिता के परिमार्जन की एक शुरुआत की है। यद्यपि नीरा राडिया के फोन स्वयं सरकार द्वारा टेप कराये गये थे, लेकिन देश की दो पत्रिकाओं ने उसे प्रकाशित करने का जो साहस दिखाया, वह प्रशंसनीय है। जिसे लेकर अब देश के भीतर फिर पत्रकारिता के आदर्शोंं और उसकी व्यावसायिक सीमाओं के बारे में एक खुली बहस शुरू हुई है। अब यह भी बात उठ रही है कि बड़े पत्रकारों का संपादकों को भी अपनी संपत्ति की घोषणा करनी चाहिए। भारत के एडिटर्स गिल्ड की बीते सप्ताह हुई बैठक में पत्रकारिता की आचार संहिता को लेकर साहसपूर्ण बहस की शुरुआत हुई। गिल्ड के अध्यक्ष राजदीप सरदेसाई ने यद्यपि निजी गोपनीयता का आदर करना पत्रकारिता के व्यावसायिक आदर्श का हिस्सा बताया और कहा कि राडिया फोन टेप को प्रकाशित करना पत्रकारिता की व्यावसायिक मर्यादा के अनुरूप नहीं है, लेकिन उसी बैठक में उपस्थित अन्य कई संपादकों ने सरदेसाई का खुला विरोध किया और कहा कि किसी तरह के राजनीतिक व आर्थिक कदाचार को उजागर करना पत्रकारिता के व्यावसायिक आदर्शों के प्रतिकूल नहीं, बल्कि उसका मूल आधार है। इस बैठक में ऐसे प्रश्न भी उठाये गये कि कई पत्रकार अपना निजी चैनल शुरू कर लेते हैं, आखिर इसके लिए उनके पास इतना पैसा कहां से आ जाता है। प्रहारों से घिरे सरदेसाई को कहना पड़ा कि एडिटर्स गिल्ड की आगामी 24 दिसंबर को होने वाली बैठक में संपादकों की अपनी संपत्ति की घोषणा करने के बारे में विचार किया जा सकता है।

यह सच्चाई है कि आज भारत की ही नहीं, प्रायः दुनिया भर की पत्रकारिता सूचना और मनोरंजन उद्योग में बदल गयी है और सत्ताधारियों तथा उद्योग व्यवसाय जगत से उसका चोली-दामन का साथ हो गया है। शीर्ष पत्रकार, शीर्ष व्यवसायी और शीर्ष राजनेता तीनों एक ही थैली के चट्टे-बट्टे बन गये हैं। उनमें से बिरला ही कोई सिरफिरा जुलियन असांजे जैसा निकल आता है, जो अपनी जान की बाजी लगाकर भी सत्य को उजागर करने का भार स्वतः अपने कंधे पर उठा लेता है। होना तो यह चाहिए था कि असांजे को 2010 का ’वर्ष पुरुष' (मैन ऑफ द इयर) घोषित किया जाता, लेकिन यह न भी हो तो भी वर्ष 2010 के साथ विकीलीक्स और जुलियन असांजे का संबंध इस तरह स्थापित हो गया है कि इसे सरकारी गोपनीयता कानून की ओट में चलती कपटी और दोगली राजनीति व कूटनीति के विरुद्ध विश्वव्यापी आंदोलन की एक शुरुआत के रूप में सदैव याद किया जाएगा।


5/12/2010

रविवार, 28 नवंबर 2010

सरकार व मीडिया, दोनों विश्वसनीयता के संकट में




2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला कांड को लेकर गत दो हफ्तों से संसद का कामकाज ठप है। विपक्ष की मांग है कि इसकी जांच के लिए संयुक्त संसदीय जांच समिति (जे.पी.सी.) का गठन किया जाए, लेकिन सरकार अड़ी है कि चाहे जो हो जाए, वह जे.पी.सी. का गठन नहीं करेगी। विपक्ष का कहना है कि उसे किसी सरकारी जांच संस्था पर विश्वास नहीं है, क्योंकि वे सबकी सब अपनी निष्पक्षता व विश्वसनीयता खो चुकी हैं। इसलिए वे इस पर अड़े हैं कि जब तक जे.पी.सी. का गठन नहीं होता, वे संसद नहीं चलने देंगे। इसके साथ ही एक फोन टेप भी सामने आया है, जिसने मीडिया के तमाम शीर्षस्थ नामों को विश्वसनीयता के संकट में डाल दिया है। इस टेप ने मीडिया पर प्रायः लगने वाले आरोपों को सही साबित किया है। अब किससे अपेक्षा की जाए, जो देश को इस सर्वग्रासी संकट से उबार सके।


केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार इस बात पर अड़ी हुई है कि वह 2-जी स्पेक्ट्रम मामले की जांच के लिए ’संसदीय जांच समिति’ (जे.पी.सी.) का गठन नहीं करेगी। सवाल है आखिर क्यों ? यदि सरकार का दामन साफ है और जो कुछ हुआ है, वह सब नियमानुसार ही हुआ है, तो सरकार को जे.पी.सी. स्तर की जांच कराने में क्यों आपत्ति है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सी.ए.जी.) की गत 16 नवंबर को संसद में पेश की गयी रिपोर्ट के अनुसार 2-जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस के वितरण में बरती गयी अनियमितताओं के कारण भारत सरकार को 1 लाख 76 हजार करोड़ का नुकसार हुआ है। यह भारत की जनता का नुकसार है, इसलिए भारत की आम जनता को यह जानने का पूरा हक है कि इस नुकसान का जिम्मेदार कौन है और जो अनियमितता बरती गयी है, उसका लाभ किसने उठाया है। इसलिए यह सरकार का प्राथमिक दायित्व बनता है कि जिस स्तर से भी संभव हो, इस मामले की पूरी जांच कराये और उसकी विश्वसनीय रिपोर्ट देश की जनता के सामने पेश करे।

वास्तव में मूल समस्या सरकार की अपनी विश्वसनीयता की है। देश की जनता का उसकी अपनी एजेंसियों पर से भरोसा उठ गया है। इसलिए जब वह सी.बी.आई. (केंद्रीय जांच ब्यूरो), इ.डी. (इंफोर्समेंट डाइरेक्टरेट या प्रवर्तन निदेशालय) या संसद की पी.ए.सी. (पब्लिक एकाउंट कमेटी या लोक लेखा समिति) से इस मामले की जांच कराने की बात करती है, तो उस पर किसी को भरोसा नहीं होता कि ये संस्थाएं ईमानदारी से जांच कर सकती हैं। सी.बी.आई. को सुप्रीम कोर्ट पहले ही फटकार लगा चुकी है कि वह सही जांच करने के बजाए व्यर्थ की झाड़ियां पीट रही है। सुप्रीम कोर्ट ने उससे पूछा है कि उसने तत्कालीन दूर संचार मंत्री ए. राजा तथा उनके विभाग के सचिव से अब तक कोई पूछताछ क्यों नहीं की। वह कहती है कि उसे इससे संबंधित दस्तावेजों के 82 हजार पृष्ठ खंगालने हैं। घोटाले से सीधे जुड़े लोगों को छोड़कर व्यर्थ के दस्तावेजों में सर खपाने का सीधा अर्थ मामले पर लीपापोती करना ही हो सकता है। प्रवर्तन निदेशालय भी वित्त मंत्रालय के अंतर्गत राजस्व विभाग से संबंधित संस्था है, जो विदेशी मुद्रा मामलों की छानबीन करती है। वैसे वह आर्थिक गुप्तचर एजेंसी के तौर पर भी काम करती है और उसके दायित्वों में आर्थिक कानूनों को लागू करवाना तथा आर्थिक अपराधों से लड़ना भी है, लेकिन उसके अब तक के इतिहास से जाहिर है कि उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है और सी.बी.आई. की तरह वह भी सरकार के हाथ का एक औजार मात्र है।

एक केंद्रीय निगरानी आयुक्त (सी.वी.सी.) का भी पद है, जिसका काम सरकारी स्तर के भ्रष्टाचारों की जांच करना और उसे रोकना है। लेकिन इस पर जिस तरह की नियुक्तियां की जा रही हैं, उससे इस पद की विश्वसनीयता भी समाप्त हो गयी है। अभी सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं सरकार के सामने यह सवाल खड़ा किया कि उसने ऐसे व्यक्ति को सी.वी.सी. के पद पर कैसे नियुक्त किया, जिस पर स्वयं भ्रष्टाचार का आरोप है। सरकार ने पिछले दिनों पी.जे. थॉमस को सी.वी.सी. नियुक्त किया, जिन पर 90 के दशक का पाम ऑयल घोटाले का एक केस चल रहा है और जिसमें उनके खिलाफ आरोप पत्र (चार्जशीट) भी दाखिल हो चुकी है। वह उस दौरान दूरसंचार विभाग में सचिव भी थे, जब 2-जी स्पेक्ट्रम का घोटाला हुआ था। अब ऐसा व्यक्ति क्या भ्रष्टाचार की निगरानी करेगा और फिर उस सरकार को कैसे विश्वसनीय माना जाए, जो ऐसे महत्वपूर्ण पद पर इस तरह के व्यक्ति को नियुक्त करती है। जाहिर है 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए केंद्र सरकार की कोई एजेंसी जे.पी.सी. का विकल्प नहीं बर सकती। पूर्ण अधिकार प्राप्त जे.पी.सी. घोटाले से संबंधित सभी रिकार्डों व अन्य दस्तावेजों को मंगा सकती है। वह प्रधानमंत्री सहित किसी भी मंत्री को तलब कर सकती है। वह मामले के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की भी जांच कर सकती है। जैसे कि वह सरकार की दूरसंचार नीति (टेलीकॉम पॉलिसी)तथा गत करीब डेढ़ दशक के सारे कार्यकलापों की जांच पड़ताल कर सकती है। जैसा कांग्रेस व डी.एम.के. नेताओं का कहना है कि 2008 में दूरसंचार मंत्री ए. राजा ने लाइसेंस वितरण का जो काम किया, वह पिछली सरकार यानी अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एन.डी.ए. सरकार की नीतियों के अनुसार ही किया, तो जे.पी.सी. इसकी जांच भी कर सकती है। वह 1994 में बनी सरकार की दूरसंचार नीति की खामिों तथा उसके बाद उसके उपयोग- दुरुपयोग को भी देख सकती है। सच यह है कि जे.पी.सी. ईमानदारी के साथ काम करे और अपने लिए उचित स्टाफ की नियुक्ति करे, तो वह दूध का दूध और पानी का पानी अलग कर सकती है। यदि वह प्रतिदिन बैठक करके इस काम को निपटाना चाहे, तो दो महीने में वह 2-जी स्पेक्ट्रम का सारा कच्चा चिट्ठा देश के सामने पेश कर सकती है। लेकिन सरकार इसके लिए तैयार नहीं है।

केंद्रीय संसदीय कार्यमंत्री पवन बंसल का कहना है कि विपक्ष का लक्ष्य 2-जी स्पेक्ट्रम का भ्रष्टाचार उजागर करना नहीं है, बल्कि वह इस मामले में प्रधानमंत्री को घसीटना चाहती है। उसका लक्ष्य राजनीतिक है, इसलिए हम राजनीतिक स्तर पर उसका मुकाबला करेंगे। प्रधानमंत्री के उच्च पद को इस मामले में घसीटने की हम किसी कीमत पर अनुमति नहीं दे सकते। बंसल का यह भी कहना है कि अब तक 4 बार जे.पी.सी. का गठन हो चुका है, लेकिन एक ‘स्टाक स्कैम’ को छोड़कर किसी भी मामले में एकमत निर्णय नहीं आ सका। हमेशा उसका विभाजित निर्णय आया, इसलिए उसकी कोई उपयोगिता नहीं है। वस्तुतः बंसल की इस बात में पूरी सच्चाई नहीं है। लोगों को पता है कि बोफोर्स तोप घोटाले को लेकर गठित की गयी जे.पी.सी. का लक्ष्य ही पूरे मामले की लीपापोती करना था, इसी कारण विपक्षी सदस्यों ने उसका बहिष्कार भी किया था, फिर भी जे.पी.सी. का गठन पूरी तरह व्यर्थ नहीं गया था। उसमें प्रस्तुत किये गये दस्तावेजों से कई ऐसे तथ्य सामने आए, जिनके आधार पर ’द हिन्दू’ जैसे अखबार ने अपने स्तर पर आगे जांच बढ़ाई थी। हर्षद मेहता कांड में भी यह उपयोगी सिद्ध हुई थी। और फिर यदि यह विफल रही है, तो इसके लिए सरकार ही दोषी रही है, क्योंकि उसने समिति का पूरा सहयोग नहीं किया। बंसल द्वारा यह तर्क देने का भी कोई औचित्य नहीं है कि 2001 के तहलका मामले में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने जे.पी.सी. जांच की मांग नहीं स्वीकार की थी। भाजपा की सरकार ने कोई मांग नहीं मानी थी, इसलिए कांग्रेस की सरकार भी उस तरह की मांग को स्वीकार नहीं करेगी, यह नितांत बचकाना तर्क है। फिर 2-जी का यह मामला 2001 के तहलका मामले से कहीं अधिक गंभीर है। इसमें केवल एक मंत्री के स्तर पर हुए भ्रष्टाचार का मामला ही नहीं है, बल्कि देश के हुए 1760 अरब के भारी नुकसान का भी मामला है, जिसकी सहज ही अनदेखी नहीं की जा सकती।

ऐसी खबर है कि सरकार की तरफ से इस मामले में विपक्ष को मनाने की एक और कोशिश की जाने वाली है, जिससे इस हफ्ते संसद की बैठक का अवरोध दूर हो सके, लेकिन इसमें भी इतना तो तय है कि सरकार जे.पी.सी. के गठन के लिए तैयार नहीं होगी। वह संसद की विशेषाधिकार समिति (प्रिविलेज कमेटी) या नैतिकता समिति (एथिक्स कमेटी) द्वारा जांच कराने की बात कर रही है, लेकिन विपक्ष शायद ही उसके इस तरह के झांसे में आए। संसद की निष्क्रियता के लिए विपक्ष को नैतिक रूप से जिम्मेदार ठहराने के लिए कांग्रेस की तरफ से एक और कदम उठाने का प्रयास किया गया है। ’काम नहीं तो वेतन नहीं‘ के सिद्धांत पर कांग्रेस पार्टी के करीब 80 सांसदों ने घोषणा की है कि जिन तारीखों में संसद की बैठकें नहीं चल सकी हैं, उन तारीखों का दैनिक भत्ता वे नहीं लेंगे। उनका यह आरोप है कि विपक्षी नेता संसद का बहिष्कार नहीं करके संसद भवन में आकर हस्ताक्षर केवल इसलिए कर रहे हैं कि उनके 2000 रुपये दैनिक भत्ते का नुकसान न हो। सांसदों के लिए 2000 रुपये का यह दैनिक भत्ता कितना महत्वपूर्ण हो सकता है, इसका कोई भी अनुमान लगा सकता है, किंतु उन्हें इस लोभ की राजनीति में लपेटने की कोश्श् िकी जा रही है, किंतु विपक्षी इससे तनिक भी प्रभावित नहीं हैं।

इधर इस 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर एक और मामला आकाश् में धूमकेतु की तरह आ टपका है। यह है नीरा राडिया का टेप कांड। इस टेप के लपेटे में देश के कई शीर्ष व्यवसायी व राजनेता ही नहीं, कई शीर्ष पत्रकार भी आ गये हैं। कौन है यह नीरा राडिया? अभी कुछ दिन पहले तक देश के आम लोगों को इसकी भनक तक नहीं थी, लेकिन नीरा राडिया का टेप एक अलग शिगूफा बनकर खड़ा हो गया है।

नीरा राडिया केनिया में जन्मीं एक ब्रिटिश नागरिक हैं, जिसने भारत में आकर अपनी एक पब्लिक रिलेशन कंपनी कायम की है। यह कंपनी देश के करीब 50 शीर्ष औद्योगिक घरानों के लिए काम करती रही है, जिसमें टाटा उद्योग समूह व रिलायंस जैसी कंपनियां शामिल हैं। 2008-2009 में गृह मंत्रालय के निर्देश पर आयकर विभाग ने 300 दिनों तक नीरा राडिया का फोन टेप किया। इसमें 5851 फोन कॉल शामिल हैं। सी.बी.आई. ने सरकार की तरफ से यह फोन टेप भी सुप्रीम कोर्ट में पेश किया है। यद्यपि यह टेप सार्वजनिक रूप से जारी नहीं किया गया है, लेकिन दो पत्रिकाओं ’ओेपेन’ और ’आउट लुक’ ने अपनी वेबसाइटों पर इसे डाल दिया, जिससे ये सार्वजनिक हो गयी। अब शायद इन पत्रिकाओं ने भी इन्हें अपनी वेबसाइटों से हटा लिया है, लेकिन इनके द्वारा जो हंगामा खड़ा होना था, वह खड़ा हो चुका है।

इस टेप में राडिया की टाटा ग्रुप के चेयरमैन रतन टाटा, रिलायंस समूह के चेयरमैन मुकेश अंबानी सहित तमाम उद्यमियों के अलावा ए. राजा (डी.एम.के. नेता व पूर्व दूरसंचार मंत्री), कनीमोझी (राज्यसभा सदस्य व डी.एम.के. नेता करुणानिधि की पुत्री) जैसे नेताओं और बरखा दत्त (एन.डी.टी.वी. की ग्र्रुप एडिटर), वीर संघवी (हिन्दुस्तान टाइम्स के एडिटोरियल एडवाइजरी के डाइरेक्टर), प्रभू चावला (इंडिया टुडे के ग्रुप एडिटर), राजदीप सरदेसाई (सी.एन.एन. आई.बी.एन. के कर्ताधर्ता), एम.के. वेणु (वरिष्ठ बिजनेस जर्नलिस्ट) आदि शामिल हैं। सी.बी.आई. ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि उसे करीब 82 हजार दस्तावेजों के साथ् इस राडिया टेप का भी अध्ययन विश्लेषण करना है, इसलिए उसकी जांच में समय लग सकता है, फिर भी मार्च 2011 तक वह अपनी जांच पूरी कर लेगी।

ये जो फोन टेप किये गये हैं, उनकी बातचीत से यह लगता है कि राडिया बड़े बिजनेस हाउसेस के लिए काम करती थी तथा राजनेताओं को भी मदद पहुंचाती थी और इसमें शीर्ष पत्रकारों की भी मदद लेती थी। इन वार्ताओं से ये शीर्ष पत्रकारगण पत्रकार कम सत्ता के दलाल अधिक लगते हैं। उनकी बातें पत्रकारिता कर्म से या व्यापक जनहित से जुड़ी हुई नहीं हैं। शायद यही कारण है कि उन्हें सार्वजनिक होने से रोकने के सारे उपाय किये गये हैं।

टाटा ग्रुप के चेयरमैन रतन टाटा ने एन.डी.टी.वी. पर शेखर गुप्ता के साथ बातचीत में इस टेप पर अपनी गहरी आपत्ति व्यक्त की है और इसे चरित्र हनन का प्रयास बताया है। रतन टाटा का कहना है कि इस टेप को ’स्मोक स्क्रीन‘ की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है, जिससे कि 2-जी स्पेक्ट्रम के बारे में हुए वास्तविक भ्रष्टाचार को छिपाया जा सके। उनका सुझाव है कि सरकार को एक आडीटर की नियुक्ति करके इस पूरे मामले की जांच करायी जानी चाहिए और बेसिर पैर के आधारहीन आरोप नहीं लगाने चाहिए। उनका कहना है कि बारी के बाहर किये गये आवंटन (आउट ऑफ टर्न एलोकेशन) तथा कुछ लोगों द्वारा स्पेक्ट्रम की जमाखोरी (होर्डिंग ऑफ स्पेक्ट्रम) और इस जैसी अन्य बातों की पूरी जांच करायी जानी चाहिए।

ए. राजा ने जनवरी 2008 में 9 कंपनियों को 122 टेलीकॉम लाइसेंस जारी किये। इन 9 कंपनियों को 2-जी स्पेक्ट्रम वाले जो लाइसेंस दिये गये वे 2001 में तय की गयी कीमत के आधार पर दिये गये, लेकिन इसमें वितरण नियमों का भी पालन नहीं किया गया। दूरसंचार विभाग की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत हुए सालीसिटर जनरल ने कोर्ट के सामने इस तरह का शपथ पत्र (एफिडेविट) पेश किया, जिसमें कहा गया था कि दूरसंचार विभाग ने जो कुछ किया, उसकी प्रधानमंत्री कार्यालय को न केवल जानकारी थी, बल्कि उसे उसका पूरा समर्थन भी प्राप्त था। केंद्र सरकार के लिए यह शपथ पत्र गले की फांस बन गया है, क्योंकि इसने दूरसंचार की करतूतों में प्रधानमंत्री कार्यालय को भी शामिल कर लिया है।

कांग्रेस पार्टी प्रधानमंत्री की छवि पर कोई आंच नहीं आने देना चाहती, इसलिए वह ऐसी किसी संस्था को 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए नियुक्त नहीं करना चाहती, जो प्रधानमंत्री या उनके कार्यालय को भी अपने दायरे में खींच सके। इसमें दो राय नहीं कि प्रधानमंत्री व्यक्तिगत रूप से नितांत बेदाग व उज्ज्वल चरित्र के व्यक्ति हैं, लेकिन वे जिस सरकार के मुखिया हैं, वह उनकी तरह स्वच्छ नहीं है, बल्कि उनकी स्वच्छता को अपनी चादर बनाए हुए है। हो सकता है कि प्रधानमंत्री जी की प्राथमिक निष्ठा अपनी पार्टी के प्रति हो, लेकिन प्रधानमंत्री के तौर पर देश के प्रति उनकी बड़ी जवाबदेही बनती है। आज की स्थिति में पूरी सरकार की विश्वसनीयता दांव लगी है। प्रधानमंत्री जी को सरकार के साथ स्वयं अपनी विश्वसनीयता बहाल करने के लिए ऐसा कुछ करना चाहिए, जिस पर देश की आम जनता विश्वास कर सके।

उधर, राडिया टेप का मामला यद्यपि 2-जी स्पेक्ट्रम के साथ ही उछला है, किंतु उनकी अलग से जांच पड़ताल की जानी चाहिए। यह भी पता चलना चाहिए कि एक ब्रिटिश नागरिक इस देश में आकर 10 वर्ष के भीतर इतनी ताकतवर कैसे हो गयी कि उसने शीर्ष उद्यमियों, शीर्ष पत्रकारों और सत्ता के शक्तिशाली केंद्रों के बीच ऐसी घुसपैठ बना ली कि वह मंत्रियों की नियुक्ति तक में लॉबींग करने वाली बन गयी। बताया जाता है कि वह सिंगापुर एयरलाइंस को भारत की विमानन सेवा में स्थान दिलाने के लिए 1990 के दशक में भारत आयी और उसने रतन टाटा तथा तत्कालीन नागरिक उड्डयन मंत्री से संपर्क किया। टाटा ने सिंगापुर एयर लाइंस के साथ मिलकर भारत में निजी विमान कंपनी शुरू करने की कोशिश की। इसे भारत में विदेशी पूंजी निवेश की मंजूरी भी मिल गयी, लेकिन एयर लाइंस को अनुमति नहीं मिल सकी। यहां सिंगापुर एयर लाइन का काम तो नहीं हो पाया, लेकिन राडिया का अनंत कुमार जैसे राजनेता व रतन टाटा जैसे शीर्ष उद्यमी के साथ संपर्क रंग लाया। रतन टाटा तो उससे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उसे टाटा ग्रुप के कार्पोरेट कम्युनिकेशन के लिए नियुक्त कर लिया। राडिया ने 2001 में ‘वैष्णवी कार्पोरेट कम्युनिकेशंस‘ के नाम से एक पब्लिक रिलेशन फर्म की स्थापना की। पहले काफी दिनों तक यह कंपनी केवल टाटा ग्रुप के लिए काम करती थी, जिससे बहुत लोगों को भ्रम था कि यह कंपनी भी टाटा समूह की अपनी ही कंपनी है। राडिया ने धीरे-धीरे अपना संपर्क विस्तार किया। मुकेश अंबानी भी उनसे बहुत प्रभावित हुए। और अब तो उनके पास 50 से अधिक कंपनियां हैं। और उनके साथ घनिष्ठ संपर्क रखने वालों में ट्राई के पूर्व चेयरमैन प्रदीप बैजल, आर्थिक मामलों में पूर्व केंद्रीय सचिव सी.एम. वासुदेव, डी.आई.पी.पी. के पूर्व सचिव अजय दुआ, ट्राई के पूर्व सदस्य डी.पी.एस. सेठ जैसे लोगों के नाम गिनाये जाते हैं। अभी जो उनका फोन टेप सामने आया है, उसमें मीडिया जगत के 85 शीर्ष लोगों के नाम हैं। उनका मीडिया मैनेजमेंट का व्यवसाय अब करीब डेढ़ सौ करोड़ वार्षिक से उपर पहुंच चुका है।

खबर है कि प्रवर्तन निदेशालय (इंफोर्समेंट डाइरेक्टरेट) राडिया से पूछताछ कर रहा है। किंतु इतना स्पष्ट है कि प्रवर्तन निदेशालय की पूछताछ से उनके पूरे संपर्क जाल व कारनामें सामने नहीं आ पाएंगे। इसलिए विपक्षी नेता यदि यह मांग कर रहे हैं कि 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले के साथ-साथ राडिया मामले में भी जे.पी.सी. की परिधि में लाया जाए, तो कोई गलत नहीं है।

सरकार यदि प्रधानमंत्री की छवि रक्षा करना चाहती है, तो वह यह काम उन्हें किसी भी जांच दायरे से बाहर रखकर नहीं कर सकती। 2-जी स्पेक्ट्रम कांड की जांच के लिए किसी भी कीमत पर जे.पी.सी. का गठन न होने देने की हठ करके सरकार अपनी विश्वसनीयता को और संदिग्ध ही बना रही है। इसी तरह देश के शीर्ष पत्रकार राडिया टेप को आम आदमी की नजरों से दूर करके अपनी विश्वसनीयता नष्ट कर रहे हैं। अगर ये शीर्ष पत्रकार यह समझते हैं कि राडिया के साथ उनकी बातचीत उनके मीडिया व्यवसाय के अंतर्गत थी, तो उन्हें स्वयं अक्षरशः उसे आम जनता के सामने पेश करना चाहिए और उसे स्वयं निर्णय लेने देना चाहिए कि वह बातचीत कैसी थी। यदि ऐसा नहीं किया गया, तो लोकतंत्र का यह तथाकथित चौथा स्तंभ भी अपनी विश्वसनीयता खो देगा और इसकी भी गिनती सत्ता के दलाल वर्ग में की जाने लगेगी।

 
28/11/2010

सोमवार, 22 नवंबर 2010

‘काजर की कोठरी‘ में डॉ. मनमोहन सिंह



प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की निजी छवि की स्वच्छता पर किसी को संदेह नहीं है, उनके कट्टर आलोचकों को भी नहीं, लेकिन यदि वह अपनी स्वच्छ छवि के पीछे चलने वाले काले कारनामों की लगातार अनदेखी करते रहेंगे, तो उसकी कालिख भी उन पर लगेगी जरूर। यदि वह अपनी सरकार में चलने वाले भ्रष्टाचार के वीभत्स खुले नृत्य को रोकने में असमर्थ रहते हैं, तो उन्हें कम से कम इतना आरोप तो झेलना ही पड़ेगा कि वह एक कायर और कमजोर प्रधानमंत्री हैं। इसलिए यदि वह इन आरोपों से मुक्त होना चाहते हैं, तो उन्हें कुछ कठोर निर्णयों के लिए कमर कसना पड़ेगा। लेकिन ऐसा लगता है कि ऐसी अपेक्षा करना भी उनके साथ ज्यादती करना है।



कहावत है कि ‘काजर की कोठरी में कितने हू सयानो जाय, काजर की रेख एक लगि है पै लगि है‘। राजनीतिक सत्ता ऐसी ही ‘काजर की कोठरी‘ है, जिसमें बेदाग रह पाना सचमुच ही बहुत कठिन है, या यों कहें कि असंभव है। अपने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की ऐसी ही स्थिति है। वह स्वयं कितने ही ईमानदार क्यों न हों या उनकी छवि कितनी ही निर्मल क्यों न हो, लेकिन प्रधानमंत्री पद पर रहकर बेईमानी को संरक्षण देने या भ्रष्टाचार को अपनी उज्ज्वल छवि के पीछे ढकने के आरोप से तो वह नहीं बच सकते। कम से कम इतना करना तो उनकी राजनीतिक पद की अपरिहार्यता है। फिर साझेदारी की सरकार चलाने के लिए तो यह और भी आवश्यक हो जाता है कि सहयोगियों के भ्रष्टाचार व कदाचार की तरफ से आंखें बंद रखी जाएं, नहीं तो सरकार को बनाये रखना भी कठिन हो जाएगा।

यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि डॉ. मनमोहन सिंह केवल प्रधानमंत्री हैं, इस देश के नेता नहीं । वह योग्य हैं, वाक्पटु हैं, मिलनसार हैं, राष्ट्र हितैषी हैं और सबसे बड़ी बात कि राजनीतिक सत्ता के शिखर पर रहते हुुए भी ईमानदार और अहंकार मुक्त हैं। वे अपने विचारों व सिद्धांतों के प्रति अडिग हैं, लेकिन राजनीतिक निर्णयों के लिए वह पूरी तरह पराश्रित हैं। वहां उनका कोई निजी आग्रह नहीं है, कोई निजी सिद्धांत नहीं है। पार्टी नेतृत्व अंततः जो निर्णय ले लेता है, उसे वह शिरोधार्य कर लेते हैं और उसे पूरा करने के लिए चल पड़ते हैं। विपरीत स्थितियों व निजी टिप्पणियों से वह आहत अवश्य होते हैं, लेकिन पार्टी के लिए वह सब कुछ बर्दाश्त कर लेते हैं। इस मामले में वह स्थिति प्रज्ञता की प्रतिमूर्ति है। पार्टी एक बार उनके पीछे एकजुट हो जाती है, तो वह फिर आगे बढ़कर मोर्चा संभाल लेते हैं।

प्रधानमंत्री के रूप में डॉ. मनमोहन सिंह देश की अपेक्षाओं पर भले ही खरे न उतर रहे हों, लेकिन पार्टी की अपेक्षाओं पर वह सदैव खरे उतरे हैं। उन्होंने निजी मान-अपमान से प्रभावित होकर पलायन का रास्ता कभी नहीं चुना। और जहां तक अराजनीतिक क्षेत्रों में निभायी जाने वाली भूमिका का सवाल है, वहां उन्होंने सदैव देशहित को ही सर्वोच्च रखा है और उसके लिए ही काम किया है। देश की आंतरिक नीतियों में बदलाव का मामला हो या विदेश नीति में संशोधन का, उन्होंने विशुद्ध देशहित को ही अपने फैसले की कसौटी बनाया। हां, पाकिस्तान के मामले में वह जरूर बार-बार कमजोरी के शिकार हुए हैं, लेकिन उसके लिए भी उनकी पार्टी का आंतरिक दबाव ही अधिक जिम्मेदार रहा है।

इधर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह 2-जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस बंटवारे के मामले में सीध्े आरोपों के निशाने पर आए हैं। देश के लोकतांत्रिक इतिहास में पहली बार सर्वोच्च न्यायालय ने भी प्रधानमंत्री के रूप में डॉ. सिंह के कटघरे में खड़ा किया है। उन पर आरोप है कि उन्होंने अपने दूरसंचार विभाग में चल रहे भरी भ्रष्टाचार की तरफ से अपनी आंखें बंद रखी, जिससे देश को 1,760 अरब रुपये (करीब 40 अरब डॉलर) का नुकसान हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें निर्देश किया कि वह अपनी इस निष्क्रियता व चुप्पी पर लिखित बयान अदालत में पेश करें। गणपति सिंह सिंघवी तथा ए.के. गांगुली की द्विसदस्यीय न्यायिक पीठ ने गत गुरुवार को कहा कि केंद्र सरकार का कोई अधिकारी दो दिन के भी प्रधानमंत्री की तरफ से शपथ पत्र के साथ यह बयान पेश करे कि इस भ्रष्टाचार की तरफ ध्यान आकृष्ट किये जाने पर भी वह क्यों चुप्पी साधे रहे और यदि कोई कार्रवाई की, तो वह क्या थी।

डॉ. सिंह ऐसे कठोर निर्देश पर निश्चय ही विचलित हुए होंगे, लेकिन जब पूरी पार्टी और सरकार उनके बचाव के लिए उठ खड़ी हुई, तो उन्होंने भी चुनौती का सामना करने के लिए कमर कस ली। शनिवार को अदालत में पेश किये गये 11 पृष्ठ के हलफनामे में उन्होंने इस आरोप से पूरी तरह इनकार किया है कि उन्होंने इस मामले में किसी तरह की कोई निष्क्रियता बरती है। प्रधानमंत्री कार्यालय (पी.एम.ओ.) की डाइरेक्टर वी. विद्यावती द्वारा फाइल किये गये बयान पर अदालत का क्या रुख सामने आता है, यह तो आगामी मंगलवार को सामने आएगा, जब अदालत आगे सुनवाई करेगी, लेकिन इससे इतना तो जाहिर ही है कि प्रधानमंत्री किसी पलायन के मूड में नहीं हैं और वह स्थिति का मुकाबला करने के लिए तैयार हैं।

प्रधानमंत्री ने सर्वोच्च न्यायालय में अपना पक्ष प्रस्तुत करने वाला वकील बदल दिया है। पहले सालिसिटर जनरल गोपाल सुब्रह््मण्यम भारतीय संघ तथा प्रधानमंत्री की तरफ से अदालत में पेश हो रहे थे, लेकिन अब उनकी जगह पर एटार्नी जनरल गुलाम ई. वाहनवर्ती को नियुक्त किया गया है। गोपाल सुब्रह््मण्यम अब दूरसंचार विभाग (डी.ओ.टी.) की तरफ से प्रस्तुत होंगे। केंद्रीय जांच ब्यूरो (सी.बी.आई.) की तरफ से पेश होने के लिए एक अन्य लॉ ऑफिसर को नियुक्त किया गया है।

इसके साथ ही प्रधानमंत्री ने स्वयं भी पहली बार इस मामले में मीडिया के सामने अपनी जुबान खोली है। शनिवार को उन्होंने अपने बचाव में वायदा किया कि 2-जी स्पेक्ट्रम बंटवारे में जो कोई भी दोषी पाया जाएगा, उसके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। भ्रष्टाचार के इस गंभीर मामले को लेकर करीब 2 हफ्ते से संसद में कोई कामकाज नहीं हो पा रहा है, लेकिन इस शनिवार को पहली बार प्रधानमंत्री जी सामने आए और सभी राजनीतिक दलों से विनती की कि वे संसद को चलने दें। संसद में वह किसी भी मुद््दे पर चर्चा कराने के लिए तैयार हैं, इसलिए विपक्ष को उनका सहयोग करना चाहिए।

विपक्ष वास्तव में अपनी इस बात पर अड़ा है कि केंद्रीय सरकार के स्तर पर भ्रष्टाचार के बड़े मामलों की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया जाए। उसका यही कहना है कि सरकार जब तक संयुक्त संसदीय जांच समिति (जे.पी.सी.) के गठन की मांग स्वीकार नहीं करती, तब तक वे संसद को चलने नहीं देंगे। मगर सरकार किसी भी कीमत पर जे.पी.सी. का गठनह करने के लिए तैयार नहीं है। दोनों अपनी-अपनी जिद पर अड़े हैं, इसलिए संसदीय कार्रवाई ठप्प है। विपक्ष अभी भी प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य से संतुष्ट नहीं है कि 2-जी स्पेक्ट्रम मामले में यदि किसी ने कुछ गलत किया है, तो उसे माफ नहीं किया जाएगा। लेकिन प्रधानमंत्री लगता है इस मामले के प्रारंभिक आघात से उतर गये हैं। उनका कहना है कि इस तरह के संकट तो आते रहते हैं, लेकिन प्रायः हर बार वह संकट को सफलता के एक अवसर में बदलने में सफल हुए हैं। उन्होंने बातों को हल्का करते हुए यहां तक कहा कि कभी-कभी तो लगता है कि वह हाईस्कूल के कोई छात्र हैं, जिसे एक के बाद एक हमेशा कोई न कोई टेस्ट देते रहना पड़ता है। उनका संकेत साफ था कि जिस तरह वे पिछले सारे ’टेस्ट’ पास करते आए हैं, इस टेस्ट को भी पास कर लेंगे।

लेकिन गंभीरता से यदि सोचा जाए, तो यहां मसला कोई टेस्ट पास करने का नहीं है। मुद्दा केवल यह नहीं है कि प्रधानमंत्री अपने उपर लगे निष्क्रियता के आरोप से मुक्त हो जाते हैं या नहीं। कानून के धुरंध्र तकनीकी दृष्टि से उन्हें सारे संकटों के पार ले जा सकते हैं, मगर यही सच्चाई फिर भी अपनी जगह बनी रह जाएगी कि केंद्र सरकार के दूरसंचार मंत्री ए.राजा सारे नियम कानून तथा सलाह-मशविरों को ताक पर रखकर मनमानी करते रहे और देश का एक ईमानदार व कर्तव्यनिष्ठ प्रधानमंत्री इसे चुपचाप बिना विचलित हुए देखता रहा। क्या प्रधानमंत्री सरकार चलाने वाले कोई यंत्र मानव हैं, जिनका काम केवल हर हालत में सरकार को बचाव रख्ना है भ्रष्टाचार व कदाचार के प्रति कोई संवेदनात्मक हलचल नहीं अनुभव करते।

जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रह्मण्यम स्वामी ने 2008 में ही 2-जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस बंटवारे में हो रहे भ्रष्टाचार को सूंघ लिया था। उन्होंने इसके बारे में प्रमाणों के साथ प्रधानमंत्री को पत्र लिखा। एक नहीं, दो नहीं, पांच पत्र, जिसमें हर एक में कुछ नये प्रमाण दिये गये, लेकिन उन्हें किसी पत्र का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। पत्र की प्राप्ति स्वीकृति भेजना कोई जवाब नहीं होता। आखिर प्रधानमंत्री ने यह रवैया क्यों अपनाया। सुब्रह्मण्यम स्वामी ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर यही तो कहा था कि दूरसंचार मंत्री ए. राजा 2-जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस वितरण में भ्रष्ट तरीके अपना रहे हैं, इसलिए उन्हें उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की अनुमति दी जाए। प्रधानमंत्री ही इस तरह की अनुमति देने के अधिकारी हैं, इसलिए उनके पास पत्र लिखा गया। उन्हें इसका अधिकार है कि वह अनुमति दें या कारणों को अपर्याप्त बताकर अनुमति न दें। वे उस पत्र में दिये गये प्रमाणों के आधार पर स्वयं अपनी तरफ से मामले की जांच करा सकते हैं या एकतरफा कानूनी कार्रवाई भी शुरू कर सकते थे। लेकिन उन्होंने न तो स्वयं कोई कार्रवाई की और न ही स्वामी को कोई जवाब दिया। अंततः सुब्रह्मण्यम स्वामी इस मामले को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की शरण में गये। सर्वोच्च न्यायालय के अपने ही एक पूर्व फैसले के अनुसार प्रधानमंत्री को यह अधिकार है कि वह ऐसे किसी आवेदन को निरस्त कर दें, लेकिन उस पर कुंडली मारकर बैठ जाने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है। कानून के अनुसार 3 महीने के भीतर उन्हें अपना कोई न कोई फैसला दे ही देना चाहिए था। स्वामी ने अपना पहला पत्र नवंबर 2008 में लिखा था, लेकिन प्रधानमंत्री की तरफ से 11 महीने बाद तक कोई जवाब नहीं दिया गया। और 11 महीनों के बाद कार्मिक विभाग की तरफ से कोई जवाब भी गया, तो उसमें केवल यह बताया गया कि 2-जी मामले में चूंकि सी.बी.आई. जांच कर रही है, इसलिए उसके रिपोर्ट की प्रतीक्षा की जानी चाहिए। मंत्री के खिलाफ किसी कानूनी कार्रवाई की बात करना अभी ‘प्रिमेच्योर‘ (अपरिपक्व) है।

सुप्रीम कोर्ट में प्रधानमंत्री की तरफ से प्रस्तुत हुए सालिसिटर जनरल ने भी यही दलील दी कि सी.बी.आई. की रिपोर्ट आने के पहले प्रधानमंत्री कैसे अनुमति देने या न देने का फैसला कर सकते थे। इस पर न्यायालय का क्षुब्ध होना स्वाभाविक था, क्योंकि सुब्रह्मण्यम स्वामी ने जब पत्र लिखा था, तब तक 2-जी मामले में सी.बी.आई. में कोई एफ.आई.आर. दर्ज नहीं हुई थी। स्वामी ने पत्र नवंबर 2008 में लिखा था, जबकि सी.बी.आई. की एफ.आई.आर. अक्टूबर 2009 में दर्ज हुई थी।

नियंत्रक व महालेखा परीक्षक (सी.ए.जी.) की रिपोर्ट के अनुसार (जो गत मंगलवार को संसद में पेश की गयी) 2-जी स्पेक्ट्रम के कुल आवंटित 127 लाइसेंसों में से 85 लाइसेंस उन कंपनियों को दिये गये, जिन्होंने तथ्यों को छिपाया, अधूरी जानकारी दी या जाली दस्तावेज पेश किये। संचार मंत्रालय ने न केवल 2001 की कीमतों पर 2008 में लाइसेंस का बंटवारा किया, बल्कि उन कंपनियों को इसका लाइसेंस दिया, जो इसकी योग्यता नहीं रखती थी। मंत्रालय ने न केवल वित्त विभाग व स्वयं प्रधानमंत्री कार्यालय के सुझावों को नजरंदाज किया, बल्कि अपने विभाग की ‘पहले आओ पहले पाओ‘ की परंपरा को भी बदल दिया।

टेलीकॉम रेगुलेटरी अथारिटी ऑफ इंडिया (ट्राई) ने प्रारंभिक जांच पड़ताल के बाद 70 कंपनियों के लाइसेंस रद्द करने तथा 127 में से 122 पर जुर्माना लगाने की सिफारिश की है। लेकिन ऐसी खबर है कि अब सरकार के अनेक मंत्री व अधिकारी इन कंपनियों के बचाव की कोशिश में लग गये हैं।

इस तरह लाइसेंस वितरण का काम कोई चोरी छिपे नहीं हो सकता था, फिर यह तो कतई संभव नहीं कि इसकी भनक तक प्रधानमंत्री को न लग पायी हो। 2-जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस के मूल्य निर्धारण का काम कैबिनेट के एक मंत्रिसमूह को करना था, किंतु मंत्रिसमूह से लेकर यह अधिकार अकेले संचार मंत्रालय को दे दिया गया। यह काम तो कतई बिना प्रधानमंत्री की अनुमति के नहीं हो सकता था। फिर यह कैसे हुआ। प्रधानमंत्री ने ऐसा क्यों किया?

कहा जाता है कि प्रधानमंत्री तथा डी.एम.के. नेता करुणानिधि के बीच इस तरह का एक समझौता हुआ था कि दूरसंचार का मंत्रालय उनके आदमी को मिलेगा और उसके कामकाज में प्रधानमंत्री या किसी अन्य मंत्रालय का कोई हस्तक्षेप नहीं रहेगा। यह सबको पता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह डी.एम.के. के टी.आर. बालू व ए.राजा को अपने मंत्रिमंडल में लेने के लिए तैयार नहीं थे, लेकिन सरकार बनाने के लिए डीएमके के साथ समझौता करना आवश्यक था और उस समझौते के लिए ये शर्तें माननी पड़ी। निश्चय ही यह समझौता अकेले मनमोहन सिंह के स्तर पर नहीं हुआ होगा, लेकिन उसकी प्रत्यक्ष जिम्मेदारी तो मनमोहन सिंह पर ही आएगी। उनसे ही यह पूछा जाएगा कि उन्होंने अपने एक मंत्री को ऐसी खुली छूट क्यों दी, जिससे कि देश को 1 लाख 76 हजार करोड़ का नुकसान हुआ, जो भारत के कुल घरेलू उत्पाद का करीब 3 प्रतिशत है।

मसला यहां प्रधानमंत्री के अपने चरित्र या छवि का नहीं है, मसला यह है कि यदि उनकी ओट में अरबों खरबों का भ्रष्टाचार हो रहा है, तो क्या उसका दोष उन पर नहीं आता ? क्या यह उनकी जिम्मेदारी नहीं कि वह अपनी पार्टी से अधिक अपने देश को प्राथमिकता दें ? लेकिन इस सबके बावजूद अब फिर उनसे ही यह अपेक्षा है कि वह सत्ता को यथासंभव स्वच्छता प्रधान करने की कोशिश करें, क्योंकि दुर्भाग्यवश देश में इस समय न कांग्रेस का कोई विकल्प है, न मनमोहन सिंह का। भ्रष्टाचार, अनैतिकता व सार्वजनिक संपदा की लूट की प्रवृत्ति ने देश के प्रायः सभी राजनीतिक दलों को चारों तरफ से लपेट रखा है। कुछ राज्य सरकारों को छोड़ दें, तो राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी की हालत तो और बादतर है। प्रधानमंत्री ने यदि डॉ. स्वामी को जवाब नहीं दिया, तो यह कोई उनकी निजी अयोग्यता नहीं, बल्कि उनकी राजनीतिक मजबूरी का प्रमाण है। राजा के भ्रष्टाचार पर अब जो लीपापोती की जा रही है, वह और बड़ा अपराध है, लेकिन यह भी देश के राजनीतिक चरित्र का एक हिस्सा बन गया है, जिससे निजात दिलाना शायद सर्वोच्च न्यायालय की क्षमता के भी बाहर है।

21/11/2010




































ओबामा की इस यात्रा से भारत को क्या मिला ?




अमेरिका के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा अपनी पहली यात्रा में सारे भारतवासियों का दिल जीतने में अवश्य सफल रहे, लेकिन उनके जाने के बाद राजनीतिक समीक्षक अब यह हिसाब-किताब लगाने में लगे हैं कि उनकी इस यात्रा से ठोस रूप में भारत को क्या मिला ? वह बोले तो इतना कुछ, जितने की आशा भी नहीं थी। उन्होंने भारत को उभरती हुई नहीं, उभर चुकी शक्ति बताया। उनके अनुसार भारत के साथ अमेरिका की मैत्री 21वीं शताब्दी की दुनिया का दिशा निर्धारण करने वाली होगी। उन्होंने वक्तव्य का समापन ‘जय हिन्द‘ के नारे के साथ किया। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर गहरी दृष्टि रखने वालों की नजर में उन्होंने तारीफें तो बहुत की, लेकिन वे यहां से ले ज्यादा गये, दे गये कम।





अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा निश्चय ही एक व्यापारी की तरह भारत की यात्रा पर आए। उन्हें बढ़ती बेरोजगारी और आर्थिक मंदी से जूझते हुए अपने देश के लिए भारत की सहायता की जरूरत थी। उनके साथ आया अमेरिकी कंपनियों का करीब 250 प्रतिनिधियों का दल उनकी यात्रा के लक्ष्य का परिचायक था। लेकिन ओबामा ने भारत के साथ केवल व्यापार ही नहीं किया, उन्होंने उसके साथ एक स्थाई मैत्री और सहयोग के संबंधों का विश्वास भी दिलाया।

ओबामा ने शायद अमेरिकी राष्ट्रपति की कुर्सी पर आने के बाद अपने अनुभवों से सीखा कि उसकी भ्विष्य की वैश्विक राजनीति के लिए भारत की दोस्ती आवश्यक है। उन्होंने अपनी इस यात्रा के दौरान अविश्वास के उस कुहासे को छांटने में पूरी सफलता हासिल की, जो उनके सत्ता में आने के बाद भारत और अमेरिका के बीच फैल गयी थी। यह समझा जा रहा था कि पिछले राष्ट्रपति जार्ज बुश भारत के जितने नजदीक आ गये थे, ओबामा शायद न आ पाएं। सत्ता में आने के बाद उनके व्यवहार से भी यही संदेश मिला कि भारत के साथ संबंध विस्तार उनकी पहली प्राथमिकता नहीं हैं। उन्होंने अपनी चीन यात्रा के दौरान चीनी नेताओं के साथ जो संयुक्त घोषणा-पत्र जारी किया, उससे भी भारत को निराशा हुई। उस घोषणा-पत्र में ओबामा ने चीन को दक्षिण् एशियायी मामलों में शांति की निगरानी का काम सौंपने की बात की थी। भारत ने इस पर अपना विरोध भी दर्ज कराया था। जिस पर यद्यपि चीन और अमेरिका दोनों की तरफ से सफाई दी गयी थी, लेकिन भारत उससे संतुष्ट नहीं था और संदेह का वातावरण फैल चुका था। चीन ने कहा था कि दक्षिण एशिया के मामले में हस्तक्षेप करने में उसकी कोई रुचि नहीं है। अमेरिका ने भी स्पष्ट किया था कि यह वक्तव्य दक्षिण एशिया में भारत की भूमिका को सीमित करने का कोई प्रयास नहीं है।

फिर अफगानिस्तान का मामला आया। पाकिस्तान की पहल पर अफगान समस्या के समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जो अंतर्राष्ट्रीय बैठक लंदन में बुलायी गयी, उसमें भारत को कोई महत्व नहीं दिया गया, जबकि अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारत अमेरिका के बाद सबसे बड़ी भूमिका निभा रहा है और उसने उसे एक अरब डॉलर की सहायता मंजूर कर रखी है, जो उस समय तक किसी भी अन्य देश को दी जाने वाली भारत की सबसे बड़ी सहायता राशि थी। पाकिस्तान अफगानिस्तान में भारत की उपस्थिति नहीं चाहता, इसलिए वह ओबामा प्रशासन को शायद यह समझाने में सफल हो गया था कि यदि वह अफगानिस्तान समस्या का शीघ्र समाधान चाहते हैं, तो भारत को उससे दूर रखें। अमेरिका ने भारत को दूर रखा। लंदन की बैठक में शामिल तमाम देशों के प्रतिनिधियों की बैठक में भारत के विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा को तीसरी पंक्ति में स्थान दिया गया था। इस सबसे भारत की खिन्नता बढ़ी थी। लेकिन इस यात्रा में ओबामा ने इस सारी खिन्नता को धो दिया।

कहा जाता है कि भारत की एक सबसे बड़ी कमजोरी है कि यह अपने वास्तविक लाभ के बजाए अपनी प्रतिष्ठा या छवि की अधिक चिंता करता है। यह सम्मान के दो शब्दों से ही गदगद हो जाता है। दुनिया के अन्य देश अपने राष्ट्रीय हितों को अधिक तरजीह देते हैं, जबकि हम अपनी छवि व मूल्यों के लिए परेशान होते हैं। देश के स्वतंत्र होते ही पाकिस्तानी सेना ने कश्मीर पर हमला कर दिया, लेकिन हमलावरों को खदेड़ती भारतीय सेना को अपने प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने बीच में ही रोक दिया। उन्होंने राष्ट्रीय हितों की परवाह करने के बजाए एक शांतिप्रिय युद्धविरोधी छवि की अधिक परवाह की। नेहरू ने मान लिया कि जब अंतर्राष्ट्रीय विवादों को निपटाने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्था मौजूद है, तो लड़ाई करके दुश्मन को भगाने की क्या जरूरत। संयुक्त राष्ट्र कहेगा और पाकिस्तान अपनी सेनाएं वापस ले लेगा, फिर काहे की लड़ाई। उन्होंने एक बार भी शायद यह नहीं सोचा कि संयुक्त राष्ट्र संघ का यह अंतर्राष्ट्रीय मंच कुटिल राजनीति का अड्डा है और उसकी कार्यकारिणी यानी सुरक्षा परिषद में बैठे स्थाई सदस्यता वाले देश भारत और पाकिस्तान को हमेशा के लिए उलझा कर रख देंगे।

आज भी हम अपनी असुरक्षित सीमाओं की सुरक्षा व्यवस्था मजबूत करने और विकसित हथियार तथा नवीनतम टेक्नोलॉजी हासिल करने की बजाए सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता प्राप्त करने के लिए अधिक लालायित हैं। आज की दुनिया में क्या मिल जाएगा उस स्थाई सदस्यता से। उससे भी कहीं ज्यादा जरूरी है कि भारत को परमाणु शस्त्र संपन्न देशों के क्लब की औपचारिक सदस्यता उपलब्ध करायी जाए। लेकिन भारत की सबसे बड़ी आकांक्षा है कि उसे दुनिया के सबसे बड़े देशों की पंक्ति में जगह मिले। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता मिलते ही औपचारिक स्तर पर भारत भी अमेरिका, चीन व रूस की बराबरी वाला देश बन जाएगा। यदि यह हो जाए, तो शायद पांच देशों वाले परमाणु क्लब का सदस्य वह अपने आप मान लिया जाएगा।

अमेरिका अब तक इस मामले में भारत को झांसा देता आ रहा था। पिछले राष्ट्रपति जार्ज बुश भी भारत को अभी सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता दिलाने के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने अपने शासनकाल में अकेले केवल जापान का नाम स्थाई सदस्यता के लिए प्रस्तावित किया था। ओबामा से भी इसकी उम्मीद नहीं थी। ओबामा की भारत यात्रा के पहले स्पष्ट रूप से यह कहा गया था कि इससे भारत को कुछ अधिक उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। ओबामा के मुंबई पहुंचने तक भारत को यह आशा नहीं थी कि वह यहां सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता की कोई बात करेंगे। लेकिन गत सोमवार को संसद को संबोधित करते हुए जब उन्होंने इसकी घोषणा की, तो संसद भवन का केंद्रीय कक्ष देर तक तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजता रहा। प्रधानमंत्री की मूंछों के नीचे फैली मुस्कान देखने लायक थी।

कहा जा रहा है कि इस घोषणा मात्र से भारत को सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता नहीं मिलने वाली है। अमेरिका को यह घोषणा करने में कुछ खर्च नहीं करना था, यदि भारत इतने से ही खुश हो रहा था, तो ओबामा इसमें क्यों कंजूसी करते। इतने भर से यदि वह बिल क्लिंटन व जार्ज बुश की तरह ही या उनसे भी कहीं अधिक भारत के प्रिय बन जाते हैं, तो इसमें हर्ज क्या है। बल्कि इसके बहाने उन्होंने भारत पर और जिम्मेदारी लाद दी है कि वह आने वाले वर्षों में यह प्रमाणित करे कि वह इस ओहदे के लायक है। भारत इस बार सुरक्षा परिषद के अस्थाई सदस्यों में दो वर्ष के लिए चुना गया है। अब इन दो वर्षों यानी 2011 व 2012 में उसके आचरण व फैसलों पर सबकी नजर रहेगी।

बात सही है। भारत भी इसे समझता है कि केवल ओबामा के कह देने मात्र से उसे सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता नहीं मिल जाएगी। उसके रास्ते में ढेरों अड़चनें हैं। वास्तव में सुरक्षा परिषद का कोई स्थाई सदस्य नहीं चाहता कि परिषद में ’वीटो’ का अधिकार रखने वाले सदस्यों की संख्या बढ़े। सुरक्षा परिषद में सुधार तथा उसकी सदस्य संख्या बढ़ाने का विचार पिछले 20 वर्षों से चल रहा है, लेकिन अब तक कोई फैसला नहीं हो पाया है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बने इस संगठन के ढांचे में अब तक केवल एक बार परिवर्तन हुआ है, जब सुरक्षा परिषद के अस्थाई सदस्यों की संख्या 6 से बढ़ाकर 10 कर दी गयी थी /इस समय इस परिषद में 15 सदस्य हैं, अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन ये 5 स्थाई और 10 अस्थाई सदस्य, जिनका प्रत्येक 2 वर्ष बाद चक्रीय ढंग से चयन किया जाता है/। फिलहाल भारत और जापान के अलावा दो और देश परिषद की स्थाई सदस्यता के प्रबल दावेदार हैं, ये हैं ब्राजील और जर्मनी। अमेरिका स्वयं इसमें सीमित वृद्धि चाहता है। जापान के अलावा अब वह तीसरी दुनिया के देशों से भरत का चयन कर चुका है। लेकिन अन्य देश् शायद इतने से संतुष्ट होने वाले नहीं। सबसे बड़ी समस्या चीन की है, जो न जापान को परिषद के स्थाई सदस्य के रूप में देखना चाहता है, न भारत को। एक बार वह भारत का समर्थन करने के लिए तैयार भी हो जाए, लेकिन जापान का समर्थन करने के लिए वह शायद ही कभी तैयार हो।

सुरक्षा परिषद के गठन में बदलाव या किसी भी तरह के संशोधन के लिए पहले तो महासभा के कुल 192 सदस्य देशों के दो तिहाई का समर्थन चाहिए, फिर उसे परिषद के पांचों स्थाई देशों का भी समर्थन चाहिए। इनमें से कोई भी यदि न चाहे, तो कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। इन पांच में चार देश- अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस व रूस अब भारत की स्थाई सदस्यता का समर्थन कर चुके हैं, लेकिन चीन का दृष्टिकोण अभी भी अनिश्चित है। उसकी अब तक की प्रकट राय है कि परिषद में दुनिया के छोटे देशों की आवाज को प्रमुखता मिलनी चाहिए। यह छोटे देशों की बात करना उसकी एक राजनीतिक चाल से अधिक कुछ नहीं है। यह कहकर वह एक तरफ अन्य बड़े या ताकतवर देशों का प्रवेश अवरुद्ध करना चाहता है, दूसरी तरफ वह छोटे देशों को प्रसन्न भी करना चाहता है, इससे छोटे देश यह समझ सकते हैं कि चीन उनका सबसे बड़ा हितैषी है।

वास्तव में इस संदर्भ में न्यूयार्क स्थित एशिया सोसायटी की अध्यक्ष विशाखा देसाई का यह कहना सही है कि संयुक्त सुरक्षा परिषद में सुधार के मामले में एक जड़ता की स्थिति व्याप्त है। इसे तोड़ने के लिए एक मजबूत नेतृत्व की जरूरत है, जो शायद अभी दुनिया के पास नहीं है, इसलिए यथास्थिति कायम है। ओबामा साहब भी अभी इस स्थिति में नहीं हैं कि इस जड़ता को तोड़ सकें। हां वह अगला राष्ट्रपतीय चुनाव भी यदि जीत लें, तो शायद इस स्थिति में पहुंच जाएं कि इस जड़ता को तोड़ सकें। सुरक्षा परिषद में सुधार का प्रारूप तैयार करने के लिए गठित समिति के अध्यक्ष अफगानिस्तान के राजदूत जहीर तानेन का कहना है कि इस सुधार के प्रश्न पर महासभा में दिये गये 30 भाषणों को सुनने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि शीघ्र कुछ भी नया नहीं होने जा रहा है। लगभ्ग इसी तरह के वक्तव्य संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थित अन्य देशें के राजदूतों के भी हैं।

जाहिर है कि ओबामा द्वारा की गयी समर्थन की घोषणा के बाद भी भारत को सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता नहीं मिलने जा रही है, फिर भी उनकी यह घोषणा बहुत महत्वपूर्ण है। कम से कम इससे अमेरिका और भरत के बीच फैली संदेह की धुंध तो साफ हो गयी है। दोनों देशों के बीच अविश्वास का फैला जाल तो नष्ट हो गया है। इससे निश्चय ही अमेरिका के प्रति भारत का भरोसा बढ़ा है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि ओबामा ने दोहरे उपयोग की टेक्नोलॉजी के निर्यात पर लगे प्रतिबंधों में भी ढील की घोषणा की है। यद्यपि अभी इस क्षेत्र के सारे अवरोध दूर नहीं हुए हैं, लेकिन यदि एक बार परस्पर विश्वास का वातावरण बन जाए, तो फिर सारे अवरोध् धीरे-धीरे अपने आप दूर होते जाते हैं। ओबामा ने भारत की इस यात्रा में 26 नवंबर के हमले के शिकार मुंबई के ताज होटल में सबसे पहले पहुंचकर दुनिया को स्पष्ट संदेश दिया है कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में वह पूरी तरह भारत के साथ है। संसद को संबोधित करते हुए उन्होंने मुंबई के इस आतंकवादी हमले के संदर्भ में पाकिस्तान का नाम लेने से परहेज नहीं किया। भारत में तमाम लोगों को शिकायत है कि अमेरिका एक तरफ पाकिस्तान को अरबों डॉलर के ऐसे सैनिक उपकरण उपलब्ध कराता है, जिसे वह केवल भरत के खिलाफ इस्तेमाल कर सकता है, दूसरी तरफ वह भारत के साथ घनिष्ठ दोस्ती और भविष्य की साझेदारी की भी बात करता है, ऐसे लोगों को यह समझना चाहिए कि पाकिस्तान या अफगानिस्तान में अमेरिका जिहादी आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ रहा है, वह वास्तव में भारत की ही लड़ाई है। पाकिस्तान व अफगानिस्तान के जिहादी संगठन यदि वहां न उलझे होते, तो वे भरत में कहर बरपा करते।

भरत की दो बड़ी समस्याएं हैं, एक इस्लामी आतंकवाद, दूसरे सीमाओं के चतुर्दिक की जा रही चीन की सैनिक घेराबंदी । इनसे निजात पाने के लिए भारत के पास अमेरिका के अलावा और कोई सहायक या दोस्त नहीं है। एशिया में या आस-पास जो भी देश भारत के संभावित दोस्त हो सकते हैं, वे सभी अमेरिकी खेमे के हैं, इसलिए भारत के लिए अमेरिकी दोस्ती अपरिहार्य है। कोई भी दोस्ती एकतरफा नहीं होती। दोस्तों के भी अपने-अपने हित होते हैं। एक दूसरे के हितों को पूरा करने वाले ही आपस में दोस्त हो सकते हैं। इसलिए भारत और अमेरिका दोनों को एक दूसरे के हितों की परवाह करनी चाहिए। चीन से निश्चय ही अमेरिका के गहरे आर्थिक हित जुड़े हैं, इसी तरह पाकिस्तान उसके लिए अत्यधिक रणनीतिक महत्व का देश है, इसलिए अमेरिका भारत से दोस्ती के लिए उनसे सीधी दुश्मनी तो नहीं कर सकता। आज की अत्यधिक जटिल अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में कोई भी संबंध बहुत सीधा नहीं होता, इसलिए हमें अपनी जरूरतों और अपने हितों के अनुसार ही किसी संबंध का मूल्यांकन करना चाहिए। हमें अमेरिका से आर्थिक नहीं, रणनीतिक सहायता चाहिए और ओबामा की इस यात्रा में हमें इस सहायता का पूरा और विश्वसनीय आश्वासन प्राप्त हुआ है, जिसका हमें स्वागत करना चाहिए।(17-11-2010)