ओबामा की इस यात्रा से भारत को क्या मिला ?
अमेरिका के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा अपनी पहली यात्रा में सारे भारतवासियों का दिल जीतने में अवश्य सफल रहे, लेकिन उनके जाने के बाद राजनीतिक समीक्षक अब यह हिसाब-किताब लगाने में लगे हैं कि उनकी इस यात्रा से ठोस रूप में भारत को क्या मिला ? वह बोले तो इतना कुछ, जितने की आशा भी नहीं थी। उन्होंने भारत को उभरती हुई नहीं, उभर चुकी शक्ति बताया। उनके अनुसार भारत के साथ अमेरिका की मैत्री 21वीं शताब्दी की दुनिया का दिशा निर्धारण करने वाली होगी। उन्होंने वक्तव्य का समापन ‘जय हिन्द‘ के नारे के साथ किया। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर गहरी दृष्टि रखने वालों की नजर में उन्होंने तारीफें तो बहुत की, लेकिन वे यहां से ले ज्यादा गये, दे गये कम।
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा निश्चय ही एक व्यापारी की तरह भारत की यात्रा पर आए। उन्हें बढ़ती बेरोजगारी और आर्थिक मंदी से जूझते हुए अपने देश के लिए भारत की सहायता की जरूरत थी। उनके साथ आया अमेरिकी कंपनियों का करीब 250 प्रतिनिधियों का दल उनकी यात्रा के लक्ष्य का परिचायक था। लेकिन ओबामा ने भारत के साथ केवल व्यापार ही नहीं किया, उन्होंने उसके साथ एक स्थाई मैत्री और सहयोग के संबंधों का विश्वास भी दिलाया।
ओबामा ने शायद अमेरिकी राष्ट्रपति की कुर्सी पर आने के बाद अपने अनुभवों से सीखा कि उसकी भ्विष्य की वैश्विक राजनीति के लिए भारत की दोस्ती आवश्यक है। उन्होंने अपनी इस यात्रा के दौरान अविश्वास के उस कुहासे को छांटने में पूरी सफलता हासिल की, जो उनके सत्ता में आने के बाद भारत और अमेरिका के बीच फैल गयी थी। यह समझा जा रहा था कि पिछले राष्ट्रपति जार्ज बुश भारत के जितने नजदीक आ गये थे, ओबामा शायद न आ पाएं। सत्ता में आने के बाद उनके व्यवहार से भी यही संदेश मिला कि भारत के साथ संबंध विस्तार उनकी पहली प्राथमिकता नहीं हैं। उन्होंने अपनी चीन यात्रा के दौरान चीनी नेताओं के साथ जो संयुक्त घोषणा-पत्र जारी किया, उससे भी भारत को निराशा हुई। उस घोषणा-पत्र में ओबामा ने चीन को दक्षिण् एशियायी मामलों में शांति की निगरानी का काम सौंपने की बात की थी। भारत ने इस पर अपना विरोध भी दर्ज कराया था। जिस पर यद्यपि चीन और अमेरिका दोनों की तरफ से सफाई दी गयी थी, लेकिन भारत उससे संतुष्ट नहीं था और संदेह का वातावरण फैल चुका था। चीन ने कहा था कि दक्षिण एशिया के मामले में हस्तक्षेप करने में उसकी कोई रुचि नहीं है। अमेरिका ने भी स्पष्ट किया था कि यह वक्तव्य दक्षिण एशिया में भारत की भूमिका को सीमित करने का कोई प्रयास नहीं है।
फिर अफगानिस्तान का मामला आया। पाकिस्तान की पहल पर अफगान समस्या के समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जो अंतर्राष्ट्रीय बैठक लंदन में बुलायी गयी, उसमें भारत को कोई महत्व नहीं दिया गया, जबकि अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारत अमेरिका के बाद सबसे बड़ी भूमिका निभा रहा है और उसने उसे एक अरब डॉलर की सहायता मंजूर कर रखी है, जो उस समय तक किसी भी अन्य देश को दी जाने वाली भारत की सबसे बड़ी सहायता राशि थी। पाकिस्तान अफगानिस्तान में भारत की उपस्थिति नहीं चाहता, इसलिए वह ओबामा प्रशासन को शायद यह समझाने में सफल हो गया था कि यदि वह अफगानिस्तान समस्या का शीघ्र समाधान चाहते हैं, तो भारत को उससे दूर रखें। अमेरिका ने भारत को दूर रखा। लंदन की बैठक में शामिल तमाम देशों के प्रतिनिधियों की बैठक में भारत के विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा को तीसरी पंक्ति में स्थान दिया गया था। इस सबसे भारत की खिन्नता बढ़ी थी। लेकिन इस यात्रा में ओबामा ने इस सारी खिन्नता को धो दिया।
कहा जाता है कि भारत की एक सबसे बड़ी कमजोरी है कि यह अपने वास्तविक लाभ के बजाए अपनी प्रतिष्ठा या छवि की अधिक चिंता करता है। यह सम्मान के दो शब्दों से ही गदगद हो जाता है। दुनिया के अन्य देश अपने राष्ट्रीय हितों को अधिक तरजीह देते हैं, जबकि हम अपनी छवि व मूल्यों के लिए परेशान होते हैं। देश के स्वतंत्र होते ही पाकिस्तानी सेना ने कश्मीर पर हमला कर दिया, लेकिन हमलावरों को खदेड़ती भारतीय सेना को अपने प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने बीच में ही रोक दिया। उन्होंने राष्ट्रीय हितों की परवाह करने के बजाए एक शांतिप्रिय युद्धविरोधी छवि की अधिक परवाह की। नेहरू ने मान लिया कि जब अंतर्राष्ट्रीय विवादों को निपटाने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्था मौजूद है, तो लड़ाई करके दुश्मन को भगाने की क्या जरूरत। संयुक्त राष्ट्र कहेगा और पाकिस्तान अपनी सेनाएं वापस ले लेगा, फिर काहे की लड़ाई। उन्होंने एक बार भी शायद यह नहीं सोचा कि संयुक्त राष्ट्र संघ का यह अंतर्राष्ट्रीय मंच कुटिल राजनीति का अड्डा है और उसकी कार्यकारिणी यानी सुरक्षा परिषद में बैठे स्थाई सदस्यता वाले देश भारत और पाकिस्तान को हमेशा के लिए उलझा कर रख देंगे।
आज भी हम अपनी असुरक्षित सीमाओं की सुरक्षा व्यवस्था मजबूत करने और विकसित हथियार तथा नवीनतम टेक्नोलॉजी हासिल करने की बजाए सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता प्राप्त करने के लिए अधिक लालायित हैं। आज की दुनिया में क्या मिल जाएगा उस स्थाई सदस्यता से। उससे भी कहीं ज्यादा जरूरी है कि भारत को परमाणु शस्त्र संपन्न देशों के क्लब की औपचारिक सदस्यता उपलब्ध करायी जाए। लेकिन भारत की सबसे बड़ी आकांक्षा है कि उसे दुनिया के सबसे बड़े देशों की पंक्ति में जगह मिले। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता मिलते ही औपचारिक स्तर पर भारत भी अमेरिका, चीन व रूस की बराबरी वाला देश बन जाएगा। यदि यह हो जाए, तो शायद पांच देशों वाले परमाणु क्लब का सदस्य वह अपने आप मान लिया जाएगा।
अमेरिका अब तक इस मामले में भारत को झांसा देता आ रहा था। पिछले राष्ट्रपति जार्ज बुश भी भारत को अभी सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता दिलाने के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने अपने शासनकाल में अकेले केवल जापान का नाम स्थाई सदस्यता के लिए प्रस्तावित किया था। ओबामा से भी इसकी उम्मीद नहीं थी। ओबामा की भारत यात्रा के पहले स्पष्ट रूप से यह कहा गया था कि इससे भारत को कुछ अधिक उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। ओबामा के मुंबई पहुंचने तक भारत को यह आशा नहीं थी कि वह यहां सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता की कोई बात करेंगे। लेकिन गत सोमवार को संसद को संबोधित करते हुए जब उन्होंने इसकी घोषणा की, तो संसद भवन का केंद्रीय कक्ष देर तक तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजता रहा। प्रधानमंत्री की मूंछों के नीचे फैली मुस्कान देखने लायक थी।
कहा जा रहा है कि इस घोषणा मात्र से भारत को सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता नहीं मिलने वाली है। अमेरिका को यह घोषणा करने में कुछ खर्च नहीं करना था, यदि भारत इतने से ही खुश हो रहा था, तो ओबामा इसमें क्यों कंजूसी करते। इतने भर से यदि वह बिल क्लिंटन व जार्ज बुश की तरह ही या उनसे भी कहीं अधिक भारत के प्रिय बन जाते हैं, तो इसमें हर्ज क्या है। बल्कि इसके बहाने उन्होंने भारत पर और जिम्मेदारी लाद दी है कि वह आने वाले वर्षों में यह प्रमाणित करे कि वह इस ओहदे के लायक है। भारत इस बार सुरक्षा परिषद के अस्थाई सदस्यों में दो वर्ष के लिए चुना गया है। अब इन दो वर्षों यानी 2011 व 2012 में उसके आचरण व फैसलों पर सबकी नजर रहेगी।
बात सही है। भारत भी इसे समझता है कि केवल ओबामा के कह देने मात्र से उसे सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता नहीं मिल जाएगी। उसके रास्ते में ढेरों अड़चनें हैं। वास्तव में सुरक्षा परिषद का कोई स्थाई सदस्य नहीं चाहता कि परिषद में ’वीटो’ का अधिकार रखने वाले सदस्यों की संख्या बढ़े। सुरक्षा परिषद में सुधार तथा उसकी सदस्य संख्या बढ़ाने का विचार पिछले 20 वर्षों से चल रहा है, लेकिन अब तक कोई फैसला नहीं हो पाया है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बने इस संगठन के ढांचे में अब तक केवल एक बार परिवर्तन हुआ है, जब सुरक्षा परिषद के अस्थाई सदस्यों की संख्या 6 से बढ़ाकर 10 कर दी गयी थी /इस समय इस परिषद में 15 सदस्य हैं, अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन ये 5 स्थाई और 10 अस्थाई सदस्य, जिनका प्रत्येक 2 वर्ष बाद चक्रीय ढंग से चयन किया जाता है/। फिलहाल भारत और जापान के अलावा दो और देश परिषद की स्थाई सदस्यता के प्रबल दावेदार हैं, ये हैं ब्राजील और जर्मनी। अमेरिका स्वयं इसमें सीमित वृद्धि चाहता है। जापान के अलावा अब वह तीसरी दुनिया के देशों से भरत का चयन कर चुका है। लेकिन अन्य देश् शायद इतने से संतुष्ट होने वाले नहीं। सबसे बड़ी समस्या चीन की है, जो न जापान को परिषद के स्थाई सदस्य के रूप में देखना चाहता है, न भारत को। एक बार वह भारत का समर्थन करने के लिए तैयार भी हो जाए, लेकिन जापान का समर्थन करने के लिए वह शायद ही कभी तैयार हो।
सुरक्षा परिषद के गठन में बदलाव या किसी भी तरह के संशोधन के लिए पहले तो महासभा के कुल 192 सदस्य देशों के दो तिहाई का समर्थन चाहिए, फिर उसे परिषद के पांचों स्थाई देशों का भी समर्थन चाहिए। इनमें से कोई भी यदि न चाहे, तो कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। इन पांच में चार देश- अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस व रूस अब भारत की स्थाई सदस्यता का समर्थन कर चुके हैं, लेकिन चीन का दृष्टिकोण अभी भी अनिश्चित है। उसकी अब तक की प्रकट राय है कि परिषद में दुनिया के छोटे देशों की आवाज को प्रमुखता मिलनी चाहिए। यह छोटे देशों की बात करना उसकी एक राजनीतिक चाल से अधिक कुछ नहीं है। यह कहकर वह एक तरफ अन्य बड़े या ताकतवर देशों का प्रवेश अवरुद्ध करना चाहता है, दूसरी तरफ वह छोटे देशों को प्रसन्न भी करना चाहता है, इससे छोटे देश यह समझ सकते हैं कि चीन उनका सबसे बड़ा हितैषी है।
वास्तव में इस संदर्भ में न्यूयार्क स्थित एशिया सोसायटी की अध्यक्ष विशाखा देसाई का यह कहना सही है कि संयुक्त सुरक्षा परिषद में सुधार के मामले में एक जड़ता की स्थिति व्याप्त है। इसे तोड़ने के लिए एक मजबूत नेतृत्व की जरूरत है, जो शायद अभी दुनिया के पास नहीं है, इसलिए यथास्थिति कायम है। ओबामा साहब भी अभी इस स्थिति में नहीं हैं कि इस जड़ता को तोड़ सकें। हां वह अगला राष्ट्रपतीय चुनाव भी यदि जीत लें, तो शायद इस स्थिति में पहुंच जाएं कि इस जड़ता को तोड़ सकें। सुरक्षा परिषद में सुधार का प्रारूप तैयार करने के लिए गठित समिति के अध्यक्ष अफगानिस्तान के राजदूत जहीर तानेन का कहना है कि इस सुधार के प्रश्न पर महासभा में दिये गये 30 भाषणों को सुनने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि शीघ्र कुछ भी नया नहीं होने जा रहा है। लगभ्ग इसी तरह के वक्तव्य संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थित अन्य देशें के राजदूतों के भी हैं।
जाहिर है कि ओबामा द्वारा की गयी समर्थन की घोषणा के बाद भी भारत को सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता नहीं मिलने जा रही है, फिर भी उनकी यह घोषणा बहुत महत्वपूर्ण है। कम से कम इससे अमेरिका और भरत के बीच फैली संदेह की धुंध तो साफ हो गयी है। दोनों देशों के बीच अविश्वास का फैला जाल तो नष्ट हो गया है। इससे निश्चय ही अमेरिका के प्रति भारत का भरोसा बढ़ा है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि ओबामा ने दोहरे उपयोग की टेक्नोलॉजी के निर्यात पर लगे प्रतिबंधों में भी ढील की घोषणा की है। यद्यपि अभी इस क्षेत्र के सारे अवरोध दूर नहीं हुए हैं, लेकिन यदि एक बार परस्पर विश्वास का वातावरण बन जाए, तो फिर सारे अवरोध् धीरे-धीरे अपने आप दूर होते जाते हैं। ओबामा ने भारत की इस यात्रा में 26 नवंबर के हमले के शिकार मुंबई के ताज होटल में सबसे पहले पहुंचकर दुनिया को स्पष्ट संदेश दिया है कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में वह पूरी तरह भारत के साथ है। संसद को संबोधित करते हुए उन्होंने मुंबई के इस आतंकवादी हमले के संदर्भ में पाकिस्तान का नाम लेने से परहेज नहीं किया। भारत में तमाम लोगों को शिकायत है कि अमेरिका एक तरफ पाकिस्तान को अरबों डॉलर के ऐसे सैनिक उपकरण उपलब्ध कराता है, जिसे वह केवल भरत के खिलाफ इस्तेमाल कर सकता है, दूसरी तरफ वह भारत के साथ घनिष्ठ दोस्ती और भविष्य की साझेदारी की भी बात करता है, ऐसे लोगों को यह समझना चाहिए कि पाकिस्तान या अफगानिस्तान में अमेरिका जिहादी आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ रहा है, वह वास्तव में भारत की ही लड़ाई है। पाकिस्तान व अफगानिस्तान के जिहादी संगठन यदि वहां न उलझे होते, तो वे भरत में कहर बरपा करते।
भरत की दो बड़ी समस्याएं हैं, एक इस्लामी आतंकवाद, दूसरे सीमाओं के चतुर्दिक की जा रही चीन की सैनिक घेराबंदी । इनसे निजात पाने के लिए भारत के पास अमेरिका के अलावा और कोई सहायक या दोस्त नहीं है। एशिया में या आस-पास जो भी देश भारत के संभावित दोस्त हो सकते हैं, वे सभी अमेरिकी खेमे के हैं, इसलिए भारत के लिए अमेरिकी दोस्ती अपरिहार्य है। कोई भी दोस्ती एकतरफा नहीं होती। दोस्तों के भी अपने-अपने हित होते हैं। एक दूसरे के हितों को पूरा करने वाले ही आपस में दोस्त हो सकते हैं। इसलिए भारत और अमेरिका दोनों को एक दूसरे के हितों की परवाह करनी चाहिए। चीन से निश्चय ही अमेरिका के गहरे आर्थिक हित जुड़े हैं, इसी तरह पाकिस्तान उसके लिए अत्यधिक रणनीतिक महत्व का देश है, इसलिए अमेरिका भारत से दोस्ती के लिए उनसे सीधी दुश्मनी तो नहीं कर सकता। आज की अत्यधिक जटिल अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में कोई भी संबंध बहुत सीधा नहीं होता, इसलिए हमें अपनी जरूरतों और अपने हितों के अनुसार ही किसी संबंध का मूल्यांकन करना चाहिए। हमें अमेरिका से आर्थिक नहीं, रणनीतिक सहायता चाहिए और ओबामा की इस यात्रा में हमें इस सहायता का पूरा और विश्वसनीय आश्वासन प्राप्त हुआ है, जिसका हमें स्वागत करना चाहिए।(17-11-2010)
1 टिप्पणी:
आश्वासन :)
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