शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

साहित्यिक आयोजनों पर भी राजनीति की छाया


सलमान रश्दी : बिना आए ही छा गये पूरे साहित्यिक मेले पर


यद्यपि आजकल ऐसे किसी साहित्यिकसांस्कृतिक आयोजन की कल्पना करना कठिन है, जिसके भीतर या बाहर कोई राजनीति न हो, फिर भी जयपुर का इस वर्ष का साहित्यिक मेला तो सीधे चुनावी राजनीति की छाया तले हो रहा है। भारतीय मूल के ब्रिटिश लेखक सलमान रश्दी को इस आयोजन में केवल इसलिए आने से रोकने का प्रयास किया गया कि इसका प्रभाव उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति पर प़ड सकता था।  विवादास्पद पुस्तक ‘द सैटनिक वर्सेज’ के लेखक रश्दी इस विवाद के बाद भी दो बार भारत आ चुके हैं। २००७ में तो वह जयपुर के इस साहित्यिक मेले में ही भाग लेने आए थे। मगर तब कहीं कोई आपत्ति नहीं ख़डी हुई। फिर इस बार ऐसा क्या है कि दारुल उलूम देवबंद के मुखिया मौलाना नोमानी कह रहे हैं कि रश्दी को भारत आने से रोका जाए और राजस्थान के मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि रश्दी यदि आए, तो राज्य में कानून व व्यवस्था का संकट ख़डा हो सकता है।



भारतीय मूल के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त ब्रिटिश लेखक सलमान रश्दी जयपुर के सातवें साहित्य मेले में शामिल हों या नहीं, लेकिन उनकी भारत यात्रा को लेकर देश के मुस्लिम कट्‌टरपंथियों द्वारा ख़डा किया गया विवाद और उस पर भारत सरकार की प्रतिक्रिया ने प्राय: पूरी दुनिया में भारत की प्रतिष्ठा को गिराया है।
जयपुर का यह साहित्यिक मेला एशिया का अपने ढंग का सबसे ब़डा आयोजन है, जिसमें दुनिया भर के सैक़डों प्रतिष्ठित साहित्यकार व चिंतक भाग लेते हैं और हजारों की संख्या में दर्शक व श्रोता एकत्र होते हैं। भारतीय तथा दक्षिण एशियायी साहित्य व सोच के साथ विश्व साहित्य व सोच की साझेदारी का यह उत्सव अपने ढंग का अनूठा है।
इस उत्सव का महत्व इसलिए भी है कि यह एक ऐसे देश में आयोजित होता है, जहां मुक्त चिंतन तथा स्वतंत्र अभिव्यक्ति के लिए पूरा अवकाश है, लेकिन अफसोस कि इस पर भी संकीर्णता, चुनावी राजनीति तथा तुष्टीकरण की सरकारी नीति अपनी काली छाया डालने में सफल हो गयी।
सलमान रश्दी दुनिया के बहुचर्चित व ख्यातिलब्ध साहित्यकार अवश्य है, लेकिन वे किन्हीं श्रेष्ठ साहित्यकारों में नहीं गिने जाते। सामान्य स्थिति में उनके आने न आने से इस साहित्यिक उत्सव पर कोई प्रभाव नहीं प़डने वाला था, लेकिन जिन कारणों से और जिस तरह से इस समारोह में उनका आना रोका गया, वह अवश्य ही अत्यंत गहरा प्रभाव डालने वाला है।
सलमान रश्दी अपने ‘मिडनाइट चिल्ड्रेन’ उपन्यास के लिए ‘बुकर प्राइज’ से सम्मानित हुए, लेकिन १९८८ में प्रकाशित अपने उपन्यास ‘द सैटनिक वर्सेज’ के लिए उन्हें पूरी दुनिया के मुस्लिम समुदाय के बीच निंदा का पात्र बनना प़डा। यह बात अलग है कि उनकी अंतर्राष्ट्रीय ख्याति में उनके इस विवादास्पद उपन्यास की भूमिका अधिक है। भारत में भी इस पर अब तक प्रतिबंध लगा हुआ है। इस उपन्यास के प्रकाशन के लगभग तुरंत बाद ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातोल्लाह खोमेनी ने उनकी मौत का फतवा जारी कर दिया। रश्दी को गुप्तवास में जाना प़डा।
ब्रिटिश सरकार ने उनकी सुरक्षा का विशेष प्रबंध किया। किसी तरह उनकी जान बची रही। १९९८ में ईरान के राष्ट्रपति मोहम्मद खातमी ने फतवे में कुछ ढील दी। उन्होंने उसे वापस तो नहीं लिया, लेकिन इतना जरूर कह दिया कि वह इसे कार्यान्वित करने पर जोर नहीं देंगे। इसके बाद रश्दी फिर सार्वजनिक जीवन में सामने आए और सामान्य जीवन जीना शुरू किया। अपने उपन्यास पर प्रतिबंध के बावजूद वह तबसे दो बार भारत की यात्रा पर भी आ चुके हैं।
पहली बार सन्‌ २००० में और फिर २००७ में। २००७ में तो वह इस जयपुर के साहित्यिक मेले में ही भाग लेने के लिए आए थे, लेकिन तब उनकी यात्रा का कोई विरोध नहीं हुआ। २००० की यात्रा के दौरान भी किसी ने उनके भारत आने पर सवाल नहीं उठाया। इसलिए कोई भी आश्चर्य कर सकता है कि फिर इस २०१२ के आयोजन में उनके भारत आने का विरोध क्यों किया गया और क्यों सरकार ने बिना कोई न नुकुर किये कट्‌टरपंथियों की इच्छा का सम्मान करना अपना कर्तव्य मान लिया।
२०१२ की खास बात यह है कि इस समय देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं, जिनमें उत्तर प्रदेश जैसा राज्य भी है, जो जनसंख्या व राजनीतिक प्रभाव दोनों ही दृष्टियों से देश का सबसे ब़डा राज्य है और यहां मुस्लिम वोटों का खास महत्व है। राज्य के १८ प्रतिशत मुस्लिम कम से कम एक चौथाई विधानसभा सीटों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। अन्यत्र भी उनका प्रभाव नगूय नहीं कहा जा सकता। इसलिए भारतीय जनता पार्टी को छ़ोड कर प्राय: सारे प्रमुख प्रतिद्वंद्वी दल मुस्लिम वोटों के लिए उनकी मनुहार में लगे रहते हैं। यों भारतीय जनता पार्टी भी मुस्लिम वोटों के लिए कम लालायित नहीं रहती, लेकिन वह करे क्या, देश का मुस्लिम समुदाय किसी भी तरह उस पर भरोसा करने के लिए तैयार नहीं है।
इस राजनीति का ही चक्कर है कि देश के सर्वोच्च इस्लामिक प्रतिष्ठान दारुल उलूम देवबंद के मुखिया मौलाना अब्दुल कासिम नोमानी ने केंद्र के सामने यह मांग पेश कर दी कि सलमान रश्दी को भारत में प्रवेश न करने दिया जाए। उन्होंने मुसलमानों की भावनाओं को आहत किया है, इसलिए उनका भारत आने का वीजा रद्‌द किया जाए और उन्हें जयपुर के साहित्य समागम में शामिल होने से रोका जाए।
इस मांग से सरकार सकते में आ गयी, लेकिन उसमें यह साहस नहीं है कि वह मौलाना नोमानी साहब से पूछे कि यदि सन्‌ २००० तथा २००७ में रश्दी के आने से भारतीय मुसलमानों को कोई तकलीफ नहीं हुई, तो अब ऐसा क्या हो गया कि उनकी यात्रा का विरोध किया जा रहा है। केंद्रीय विधि मंत्री तथा अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद ने केवल इतना कहा कि सरकार किसी कानून के तहत रश्दी को भारत आने से नहीं रोक सकती।
उन्हें भारत आने के लिए किसी वीजा की जरूरत नहीं, क्योंकि वह भारतीय मूल के हैं, इसलिए वीजा देने या रद्‌द करने का कोई सवाल ही नहीं उठता। लेकिन मौलाना नोमानी इससे संतुष्ट नहीं हुए। उनके अतिरिक्त कई अन्य मुस्लिम संगठनों तथा नेताओं ने सरकार पर दबाव बनाना शुरू किया।
राजस्थान के अनेक मुस्लिम संगठनों ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से संपर्क किया और उन पर दबाव डाला कि यदि कांग्रेस मुस्लिम समुदाय का विश्वास हासिल करना चाहती है, तो उसे रश्दी को भारत आने से रोकना चाहिए।
अब इस संदर्भ में खबर है कि मुख्यमंत्री गहलोत ने इस मसले को लेकर केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम से मुलाकात की और उनके सामने कानूनव्यवस्था बनाए रखने की समस्या पेश की। वास्तव में यह कानून व्यवस्था की समस्या उठाना कांग्रेस की अपनी कूटनीति का हिस्सा है। जब यह सवाल पैदा हुआ कि सलमान रश्दी को किस आधार पर जयपुर आने से रोका जाए, तो इसके अलावा कोई चारा नजर नहीं आया कि उनके आने से कानून व्यवस्था बिग़डने का मसला उठाया जाए और इसके आधार पर स्वयं रश्दी पर इस तरह का अनौपचारिक दबाव डाला जाए कि वे नाहक इस मेले का वातावरण खराब न करें और स्वयं भारत आने का अपना इरादा रद्‌द कर दें। इससे सरकार का काम भी बन जाएगा और उसके साथसाथ आयोजकों की भी इज्जत बच जाएगी।
आयोजक अंतिम क्षण तक यह कहते रहे कि उन्होंने रश्दी का आमंत्रण रद्द नहीं किया है। पत्रकारों को उन्होंने बताया कि वे यह तो नहीं कह सकते कि रश्दी आएंगे या नहीं, लेकिन उनका आमंत्रण रद्‌द नहीं किया गया है और रश्दी ने स्वयं इस बात की पुष्टि की है कि वह इस मेले में शामिल होंगे और इसके लिए उन्हें भारत सरकार से वीजा लेने की कोई जरूरत नहीं है।
आयोजकों ने केवल इतना स्वीकार किया कि रश्दी का २० जनवरी का उद्‌घाटन का कार्यक्रम टाल दिया गया है, क्योंकि राज्य के मुस्लिम संगठनों ने उस दिन मेला परिसर के समक्ष विरोध प्रदर्शन करने की चेतावनी दी है। वास्तव में सरकार की तरह आयोजक भी अपना दोहरा चरित्र निभा रहे हैं, एक तरफ वे लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की आजादी, सेकुलरिज्म तथा लेखकीय अधिकार के सम्मान की बात करते हैं, दूसरी तरफ वे देश के कट्‌टरपंथी संगठनों को भी संतुष्ट रखना चाहते हैं, इसलिए वे रश्दी का आमंत्रण रद्‌द करने से भी बच रहे हैं और सरकार के साथ इस कोशिश में भी लगे हैं कि रश्दी न आएं। उधर देश का, विशेषकर उत्तर प्रदेश का मुस्लिम तबका कांग्रेस की परीक्षा लेने में लगा है कि वह कहां तक झुक सकती है।
केंद्र में सत्ताऱूढ कांग्रेस पार्टी के युवराज राहुल गांधी की प्रतिष्ठा इस बार के उत्तर प्रदेश के चुनाव में पूरी तरह दांव पर लगी है। यद्यपि पार्टी के वरिष्ठ नेता बारबार यह साफ करते रहते हैं कि उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव परिणामों को किसी भी तरह २०१४ के आम चुनाव के संकेतक के तौर पर नहीं देखना चाहिए।
इसकी सफलता विफलता पार्टी के भविष्य से ज़ोडना उचित नहीं होगा। फिर भी राहुल गांधी ने जिस तरह अपनी पूरी शक्ति उत्तर प्रदेश में लगा रखी है, उससे मतदाताओं पर उनके प्रभाव का आकलन अवश्य किया जाएगा। राहुल गांधी का उत्तर प्रदेश में पूरा दांव ही मुस्लिम वोट बैंक पर टिका हुआ है। वह जानते हैं कि दलित मायावती का साथ छ़ोडकर उनके साथ आने वाला नहीं । पिछ़डा वर्ग भी विभिन्न दलों के बीच बंटे रहने के लिए बाध्य है।
यही दशा सवर्ण जातियों की भी है। केवल मुस्लिम वर्ग ऐसा है, जो थोक में यदि कांग्रेस के पक्ष में आ जाए, तो कांग्रेस का भाग्य परिवर्तन हो सकता है। इसलिए राहुल गांधी मुस्लिम वर्ग की प्राय: हर मांग मानने के लिए तैयार हैं। उन्होंने मकतबों, मदरसों के लिए केंद्रीय सहायता ब़ढाने के साथ उन्हें केद्रीय कानूनों से बाहर रखने का भी आश्वासन दिया है। नौकरियों व शिक्षा में पिछ़डे मुस्लिमों को स़ाढे चार प्रतिशत आरक्षण दिलाने का भी वायदा किया है, जिसे उनकी पार्टी के एक वरिष्ठ मंत्री सलमान खुर्शीद ने ९ प्रतिशत तक ब़ढाने का भी आश्वासन दे दिया है।
इसके बावजूद भी अभी यह नहीं कहा जा सकता कि मुस्लिम समुदाय थोक में कांग्रेस को वोट देने के लिए तैयार हो जायेगा। आरक्षण का वायदा कुछ बहुत कारगर होने वाला नहीं। पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी पार्टी ने पिछले विधानसभा चुनावों में मुसलमानों को १० प्रतिशत आरक्षण देने का वायदा किया था, लेकिन मुसलमान उससे कतई प्रभावित नहीं हुए। मुसलमानों का एक ब़डा तबका अभी भी बाबरी मस्जिद ध्वंस मामले को लेकर कांग्रेस से नाराज है। वह समझता है कि केंद्र में स्थित तत्कालीन कांग्रेस की सरकार के सहयोग के बिना वह मस्जिद नहीं गिर सकती थी।
उसे यह भी शिकायत है कि बाद में आने वाली केंद्र की कांग्रेस सरकारें भी ध्वंस के दोषियों को ठीक से सजा दिलाने में असफल रही हैं। केंद्र सरकार इसका भी यथासंभव इलाज करने में लगी है। उसने लालकृष्ण आडवाणी, उमा भारती, बाल ठाकरे आदि के विरुद्ध बाबरी मामले में आपराधिक षडयंत्र (क्रिमिनल कांस्पिरेसी) के जिन आरोपों को रायबरेली की विशेष अदालत में रद्‌द कर दिया था तथा जिसकी हाईकोर्ट ने भी पुष्टि कर दी थी, उसे सीबीआई ने फिर से खोलने के लिए सुप्रीमकोर्ट में याचिका दायर कर रखी है। वास्तव में केंद्र की कांग्रेस सरकार इस तरह यह सिद्ध करने में लगी है कि वह दोषियों को पूरी सजा दिलाने के लिए प्रतिबद्ध है।
अब मौलाना नोमानी ने कांग्रेस की इसी निष्ठा की जांच के लिए रश्दी का मसला फिर से उछाला। कांग्रेस इस परीक्षा में भी विफल नहीं होना चाहती, इसलिए उसने गहलोत द्वारा कानून व्यवस्था का मामला उठवाया और उसके बहाने रश्दी पर दबाव बनाने की कोशिश की कि वह स्वत: भारत आने का कार्यक्रम रद्‌द कर दें, जिससे सरकार को किसी मोर्चे पर क्षति न उठानी प़डे।
मुस्लिम भावनाओं का भी सम्मान हो जाए और उसकी प्रगतिशीलता और सेकुलरवाद पर भी कोई आंच न आने पाए। और शायद वह यह कर दिखाने में सफल हो गयी है। अब यह बात दूसरी है कि उत्तर प्रदेश में उसे इसका कोई प्रतिदान मिलता है या नहीं।
पाकिस्तान में आधुनिक लोकतंत्र संभव नहीं !


पाकिस्तान की वास्तविक सत्ता के प्रतिनिधि: सेनाध्यक्ष जनरल परवेज कयानी


पाकिस्तान इन दिनों एक गहरे राजनीतिक संकट से गुजर रहा है। सेना और न्यायपालिका दोनों ने नागरिक शासन को अपना निशाना बना रखा है। प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी तानाशाही के मुकाबले लोकतंत्र को बचाने की गुहार लगा रहे हैं, लेकिन उनकी इस गुहार का केवल एक ही अर्थ है अपनी सत्ता को बचाना। लोकतंत्र केवल एक बहाना है, क्योंकि पाकिस्तान में वास्तविक अर्थों में लोकतंत्र की स्ािपना संभव ही नहीं है। अब तक पाकिस्तान में जितनी भी तथाकथित लोकतांत्रिक या नागरिक सरकारें रही हैं, वे मात्र दिखावे के लिए रही हैं, वास्तविक सत्ता तो सीधे सेना के ही हाथ में थी। आज भी स्थिति भिन्न नहीं है, लेकिन दिक्कत यह पैदा हो गयी है कि उसका यह मुल्लमा टूट गया है कि वह किसी लोकतांत्रिक देश की सेना है। अब यह जगजाहिर हो गया है कि वह वास्तव में उन जिहादी शक्तियों का ही प्रतिनिधित्व करती है, जो लोकतंत्र विरोधी हैं।

पाकिस्तान इस समय ब़डे गहरे राजनीतिक संकट के दौर से गुजर रहा है। ऐसा संकट शायद उसके जन्म से अब तक पहले कभी नहीं आया था। सैनिक तख्ता पलट तो वहां के लिए आम बात है, इसलिए उसे किसी संकट में नहीं गिना जाता। उसके जीवन का सबसे ब़डा संकट १९७१ में आया था, जब पूर्वी पाकिस्तान उससे अलग हो गया था और उसकी गर्वीली सेना को भारत के हाथों अपमानित होना प़डा था, लेकिन उस समय भी पाकिस्तान में किसी राजनीतिक अराजकता का संकट नहीं था। मगर इस समय की स्थिति ब़डी अनूठी है।
पाकिस्तान के प्रशासनिक तंत्र में सेना का सदैव एक स्वतंत्र वर्चस्व रहा है। लोकतांत्रिक व्यवस्था की मान्य धारणा है कि सेना को राजनीतिक नेतृत्व के अधीन रहकर उसके निर्देशानुसार काम करना चाहिए, लेकिन पाकिस्तान में ऐसा नहीं रहा। वहां सदैव सेना सर्वोच्च रही और जब कभी राजनीतिक नेतृत्व जरा भी कमजोर प़डा या सेना के साथ उसका मतभेद ख़डा हुआ, तो फौरन बिना कोई विलंब किये सेना निर्वाचित राजनीतिक तंत्र को अपदस्थ करके सत्ता अपने हाथ में ले लेती रही है।
लेकिन इस बार सेना की राजनीतिक नेतृत्व के साथ भी ठनी हुई है, किंतु सेना नागरिक सत्ता का तख्तापलट करने की पहल नहीं कर रही है। सेना और नागरिक प्रशासन का इतना लंबा रग़डा इस देश में पहले कभी नहीं चला। सेनाध्यक्ष जनरल अशफाक परवेज कयानी के संयम पर सभी को आश्चर्य है, लेकिन लगता है वह कुछ अधिक चार्तुय का प्रदर्शन कर रहे हैं। वह जानते हैं कि उनकी सेना भले ही कितनी शक्तिशाली हो, लेकिन देश में उसकी प्रतिष्ठा गिरी हुई है। ऐबटाबाद में हुए अमेरिकी हमले में ओसामा बिन लादेन की हत्या के बाद उसकी क्षमता पर भी संदेह किया जाने लगा है।
अफगान युद्ध में अमेरिका का साथ देने के कारण उसकी नागरिक प्रतिष्ठा भी गिरी हुई है। देश के विपक्षी दल भी उसका समर्थन करने से दूर हैं। अमेरिका भी इस बार पाकिस्तान के राजनीतिक द्वंद्व में तटस्थ बना हुआ है। अब से पहले प्राय: हर सैनिक तख्तापलट को उसकी मौन स्वीकृति प्राप्त रहा करती थी। इसलिए जनरल कयानी ने इस बार दूसरी रणनीति अख्तियार की है। उन्होंने इस बार देश की न्यायपालिका को नागरिक प्रशासन के मुकाबले में ख़डा कर दिया है और स्वयं को लोकतंत्र का पूर्ण समर्थक सिद्ध करने का प्रयास किया है। उन्होंने साफ शब्दों में कहा भी है कि उनकी देश की राजनीतिक बागडोर अपने हाथ में लेने की कोई महत्वाकांक्षा नहीं है। वह अपनी सीमाएं तथा लोकतांत्रिक शासन में अपनी भूमिका को अच्छी तरह समझते हैं।
यद्यपि इन शब्दों से यह अनुमान नहीं लगाना चाहिए कि कयानी बिल्कुल लोकतंत्र के भक्त हैं और वह कभी किसी सैनिक तख्ता पलट के बारे में सोच ही नहीं सकते, क्योंकि जिस देश में किसी भी उच्चाधिकारी या राजनेता की किसी बात या किसी वायदे का कोई ठिकाना नहीं, वहां जनरल कयानी की बात पर ही भरोसा क्यों किया जाए, फिर भी उनकी बात से उनकी रणनीति का संकेत अवश्य मिलता है।
ऐबटाबाद में अमेरिकी सैनिक कार्रवाई के पहले तक पाकिस्तान की आंतरिक व्यवस्था में सब कुछ सामान्य था। सेना और नागरिक प्रशासन में पूरा तालमेल था, लेकिन इसके बाद से ही संतुलन बिग़डने लगा। इस कार्रवाई के बाद पाकिस्तान का पूरा शीर्ष नेतृत्व चौराहे पर नंगा हो गया। सारे नंगे एकदूसरे पर आरोपप्रत्यारोप म़ढने लगे। अमेरिका का रुख भी बदलता नजर आने लगा। इसी बीच सलाला की सीमावर्ती चौकी पर नाटो के हेलीकॉप्टर हमले में २४ पाकिस्तानी सैनिकों की मौत ने पाक अमेरिका संबंधों को एकदम निचले धरातल पर ला दिया। राजनीतिक नेतृत्व और सेना के बीच तनाव और ब़ढा। राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी अपने को सर्वाधिक खतरे में अनुभव करने लगे। खबर आयी कि जरदारी साहब ने एक गुप्त संदेश भेजकर अमेरिका से गुहार की कि वह अमेरिकी सरकार तथा सेना से हर तरह का सहयोग करने के लिए तैयार हैं, बशर्ते वह पाकिस्तानी सेना से उन्हें बचा ले।
उनका सीधा आरोप था कि पाकिस्तानी सेना उनका तख्ता पलट करना चाहती है। जरदारी की तरफ से अमेरिका को गुप्त ज्ञापन वाशिंगटन स्थित पाक राजदूत के माध्यम से शायद उनकी सलाह पर ही भेजा गया। इसकी पुष्टि अमेरिका के सर्वोच्च सैन्य अधिकारी जनरल मुलेन ने भी की। मुलेन ने स्वीकार किया कि उन्हें ऐसा ज्ञापन मिला था, लेकिन उन्होंने इसे गंभीरता से नहीं लिया। इस गोपनीय संदेश (मेमो) के उजागर होने पर पाकिस्तान में जबर्दस्त हंगामा उठ ख़डा हुआ। इस मामले को ही मीडिया ने ‘मेमोगेट’ कांड की संज्ञा दी। इस ‘मेमोगेट’ कांड के सामने आने के बाद पाकिस्तान में एक नया अस्थिरता का दौर शुरू हो गया और तब से ही सैनिक तख्ता पलट की आशंका व्यक्त की जाने लगी। वाशिंगटन स्थित पाक राजदूत हक्कानी को अपना पद गंवाना प़डा, लेकिन मामला शांत होने के बजाए और उग्रतर होता गया।
सर्वोच्च न्यायालय ने भी ‘मेमोगेट’ को नोटिस में लिया और पूरे मामले की न्यायिक जांच कराने का आदेश दिया। एक तरफ उसने प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी पर आरोप लगाया कि वह ईमानदार नहीं हैं। वह अपनी पार्टी के हितों को देश के संविधान से ऊपर तरजीह दे रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रधानमंत्री को निर्देश दिया था कि वह राष्ट्रपति के पद पर विराजमान आसिफ अली जरदारी के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामलों की जांच कराकर उस पर कार्रवाई शुरू करें, लेकिन गिलानी ने ऐसा कुछ नहीं किया।
यहां यह उल्लेखनीय है कि २००८ में तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के साथ एक समझौते के तहत जरदारी सहित कई हजार लोगों को भ्रष्टाचार के आरोपों से मुक्त कर दिया था, किंतु पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने इस आदेश को निरस्त कर दिया और जरदारी के खिलाफ जांच शुरू करने का सरकार को निर्देश दिया। न्यायालय ने गिलानी को यह चेतावनी भी दी कि वह उन्हें शासन करने के अयोग्य ठहराकर प्रधानमंत्री पद से हटा सकती है। वह राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री दोनों के खिलाफ कार्रवाई करने में सक्षम है। इसके साथ ही उसने मेमोगेट की जांच भी शुरू कर दी। सेनाध्यक्ष जनरल कयानी ने बिना सरकार को बताये या बिना उससे पूर्व अनुमति लिए सर्वोच्च न्यायालय में अपना शपथ युक्त वक्तव्य पेश कर दिया।
प्रधानमंत्री गिलानी का इस पर बिफरना स्वाभाविक था। उन्होंने चीन के सरकारी मुख पत्र ‘पीपुल्स डेली’ के ऑन लाइन संस्करण को दिये गये अपने एक बयान में बताया कि सेनाध्यक्ष अशफाक परवेज कयानी तथा देश की सैन्य गुप्तचर एजेंसी आईएसआई के प्रमुख लेफ्टीनेंट जनरल शुजा पाशा ने बिना सरकार की पूर्व अनुमति लिए मेमोगेट के बारे में सर्वोच्च न्यायालय को अपना एकतरफा वक्तव्य देकर देश के संविधान का उल्लंघन किया है। इस पर जनरल कयानी ने ब़डी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। उन्होंने कहा कि यह एक ऐसी टिप्पणी है, जिसके लिए देश को बहुत गंभीर परिणाम झेलना प़ड सकता है। कयानी के इस तीखे बयान का जवाब प्रधानमंत्री गिलानी ने शब्दों से नहीं, बल्कि एक क़डी कार्रवाई से दिया।
उन्होंने कयानी के एक अत्यंत नजदीकी रहे प्रतिरक्षा सचिव (पूर्व लेफ्टीनेंट जनरल) नईम खालिफ लोधी को तत्काल प्रभाव से बर्खास्त कर दिया। लोधी पर ‘दुर्व्यवहार’ तथा ‘गैरकानूनी कदम उठाने’ का आरोप लगाया गया। लोधी प्रतिरक्षा विभाग में कयानी के अपने विश्वस्त आदमी थे।
उन्होंने अभी हाल में कहा था कि पाकिस्तान में सेना देश की नागरिक सरकार के प्रति जवाबदेह नहीं है। इसके पहले शासन ने सेना की १११वीं ब्रिगेड के मुखिया को हटाने की कार्रवाई की। इस ब्रिगेड को पाकिस्तान में ‘तख्ता पलट ब्रिगेड’ के रूप में जाना जाता है। यह ब्रिगेड ही इस्लामाबाद व रावलपिंडी क्षेत्र की इंचार्ज है और अबसे पहले देश में जितने भी सैनिक तख्ता पलट हुए हैं, उनमें प्रधानमंत्री कार्यालय, राष्ट्रपति भवन तथा देश के टीवी व रेडियो जैसे संचार केंद्रों पर आधिपत्य जमाने की महती जिम्मेदारी इसी ब्रिगेड पर थी। इसलिए यदि इसे ‘तख्ता पलट ब्रिगेड’ कहा जाता है, तो इसमें काई आश्चर्य या अतिशयोक्ति की बात नहीं।
अब एक के बाद एक ताब़डत़ोड इतनी घटनाओं के बीच इस तरह की अटकलों का बाजार गर्म हो गया था कि अब कभी भी कुछ हो सकता है। यदि सेना के दूसरी पंक्ति के अधिकारियों पर राजनीतिक नेतृत्व की पक़ड मजबूत है, तो सेनाध्यक्ष कयानी व आईएसआई प्रमुख पाशा को बर्खास्त किया जा सकता है और नहीं तो कयानी और पाशा मिलकर बागडोर भी अपने हाथ में ले सकते हैं। राष्ट्रपति जरदारी एकाएक दुबई के लिए रवाना हो गये, तो इन अनुमानों को और बल मिला।
लेकिन जैसा अनुमान लगाया गया था, वैसा कुछ नहीं हुआ। प्रधानमंत्री की तरफ से इस बात का खंडन किया गया कि वे कयानी और पाशा को बर्खास्त करना चाहते हैं। कयानी ने भी संकेत दिया कि फिलहाल देश की राजनीतिक सत्ता अपने हाथ में नहीं लेना चाहते। जरदारी भी मात्र एक दिन बाद ही दुबई से वापस इस्लामाबाद पहुंच गये और सारी तात्कालिक अटकलों को विराम लगा दिया।
प्रधानमंत्री गिलानी ने शुक्रवार को देश की ताजा राजनीतिक स्थिति पर विचार के लिए राष्ट्रीय असेम्बली की विशेष बैठक बुला रखी थी। इस बैठक में उन्होंने सारी ताजी स्थिति का ब्यौरा देते हुए कहा कि देश की सर्वोच्च राजनीतिक संस्था संसद को यह फैसला करना है कि वह देश में लोकतंत्र चाहती है या तानाशाही। उन्होंने कहा कि हमें देश का शासन चलाने के लिए विपक्ष का कोई सहयोग नहीं चाहिए, लेकिन लोकतंत्र की रक्षा में विपक्ष की भी उतनी ही जिम्मेदारी है, जितनी की सत्ता पक्ष की। उन्होंने इस संदर्भ में सदन के सामने एक प्रस्ताव भी पेश किया, जिस पर सोमवार १६ जनवरी को मतदान होगा।
तो १६ जनवरी २०१२ को पाकिस्तान में दो महत्वपूर्ण फैसले होने वाले हैं, जिसके बाद ही देश की राजनीति का अगला चरण निर्धारित होगा। एक तो राष्ट्रीय संसद को लोकतंत्र के बारे में अपने संकल्प को व्यक्त करना है, दूसरी तरफ सर्वोच्च न्यायालय को भ्रष्टाचार के मामले में प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति के बारे में अपना फैसला देना है। सर्वोच्च न्यायालय की १७ सदस्यीय पूर्ण पीठ इस मामले में सुनवाई करके अपना फैसला देने वाली है। वह प्रधानमंत्री को न्यायालय की अवमानना का दोषी करार दे सकती है अथवा उन्हें सत्ता के अयोग्य सिद्ध कर सकती है। इसी तरह वह राष्ट्रपति जरदारी के खिलाफ आपराधिक मामले फिर से जीवित हो जाने के बाद उनकी भी पद पर बने रहने की योग्यता के बारे में वह अपना फैसला सुना सकती है।
खैर, कल इन दोनों सर्वोच्च संवैधानिक संस्थाओं के निर्णय के बाद पाकिस्तान की राजनीति कौनसा रुख अख्तियार करती है, यह दीगर बात है। यह भी हो सकता है कि कोई स्पष्ट फैसला न आए और कठोर निर्णयों को टालने की कोशिश की जाए, क्योंकि इस बीच पर्दे के पीछे और आगे भी नागरिक शासन, सेना और न्यायपालिका के बीच टकराव टालने और सुलह सपाटे की भी कोशिशें चल रही हैं।
बीते शनिवार को प्रधानमंत्री गिलानी ने अपनी कैबिनेट की प्रतिरक्षा मामलों की समिति की बैठक बुला रखी थी, जिसमें प्रधानमंत्री के साथ विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार व गृहमंत्री रहमान मलिक सहित सरकार के कई वरिष्ठ मंत्रियों व अफसरों के अतिरिक्त सेनाध्यक्ष जनरल कयानी, आईएसआई प्रमुख शुजा पाशा भी शामिल हुए। फिर भी इतना तो तय है कि पाकिस्तान अब फिर अपने पुराने संतुलन की स्थिति में नहीं आ सकता। वहां आज नहीं तो कल कुछ न कुछ उथलपुथल होनी ही है।
पाकिस्तान का सर्वोच्च न्यायालय प्राय: हमेशा ही एक कठपुतली की तरह काम करता रहा है। इस बार शायद पहली बार वह भी अपनी ताकत दिखाने पर आमादा है। यों इस बार भी उसे सेना की कठपुतली करार दिया जा सकता है, लेकिन पाकिस्तानी न्यायपालिका राष्ट्रपति मुशर्रफ के काल से ही जैसी सामाजिक व राजनीतिक सक्रियता दिखाता आ रहा है, उससे उसकी भी एक स्वतंत्र संवैधानिक पहचान बनी है। 

हां, यह देखना अवश्य रोचक है कि इस बार सर्वोच्च न्यायालय भी सेना के साथ है और दोनों ने मिलकर अपनी बंदूकें नागरिक शासन की तरफ तान रखी है, जिसके कारण नागरिक सत्ता नितांत प्रतिरक्षात्मक रुख अपनाने के लिए विवश है। शनिवार की उपर्युक्त बैठक में, तनातनी के वर्तमान दौर के बाद प्रधानमंत्री गिलानी और सेनाध्यक्ष कयानी पहली बार आमनेसामने मिले। उनके बीच वास्तव में क्या बातें हुई, यह तो ठीकठीक पता नहीं, लेकिन वर्तमान स्थिति दोनों के लिए ही बेहद चुनौतीपूर्ण बन गयी है।
यह सही है कि अब से १०१५ साल पहले की बात होती तो गिलानी के इस तरह के सीधे बयान के बाद कि सेनाध्यक्ष ने देश के संविधान का उल्लंघन किया है, अब तक तख्ता पलट हो गया होता। कोई पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष किसी प्रधानमंत्री की ऐसी टिप्पणी बर्दाश्त नहीं कर सकता था। लेकिन सेनाध्यक्ष कयानी ने संयम बरता। उन्होंने गत गुुरुवार को रावलपिंडी के सैनिक मुख्यालय पर अपने वरिष्ठ सैन्य कमांडरों के साथ बातचीत की, लेकिन उसके बाद अब तक कोई खास बयान नहीं दिया है।
शायद उनके ऊपर देश के मीडिया और अंतर्राष्ट्रीय वातावरण का भी दबाव है। बीते हफ्ते पाकिस्तानी मीडिया में यही सब छाया रहा और प्राय: सभी प्रमुख समाचार पत्रों ने अपने संपादकीयों में अपील की कि इस बार कृपया सैनिक तख्ता पलट नहीं। पाकिस्तान के पिछले राजनीतिक इतिहास का आधे से अधिक का काल सैनिक तानाशाही के अंतर्गत गुजरा है, इसलिए मीडिया में एक तरफ से यह अपील छाई रही कि अब और नहीं। देश में लोकतंत्र को एक बेहतर मौका दिया जाना चाहिए।
लेकिन सवाल है कि क्या पाकिस्तान में वास्तव में लोकतंत्र चल सकता है? जवाब है जी नहीं। वहां लोकतंत्र का नाटक तो चल सकता है, लेकिन वास्तविक लोकतांत्रिक शासन नहीं। इस देश में जितने भी दिन लोकतंत्र रहा है, वह लोकतंत्र का नाटक ही रहा है, वास्तविक सत्ता तो उन दिनों में भी सीधे सेना के ही हाथों मेंं रही है। शायद किसी इस्लामिक देश में लोकतंत्र की गुंजाइश ही नहीं है। इस्लाम यों भी आधुनिक लोकतंत्र के खिलाफ है। जिस देश में वास्तविक आधुनिक लोकतंत्र कायम हो जाएगा, वहां इस्लाम अपनी अस्तित्व रक्षा नहीं कर पायेगा, क्योंकि आधुनिक लोकतंत्र की पहली शर्त है प्रत्येक नागरिक की वैयक्तिक स्वतंत्रता की रक्षा और उसका सम्मान। उसे किसी विश्वास के घेरे में बंधने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।
किसी इस्लामी देश में यह संभव नहीं है। वहां कुछ अफवाहों को नजरंदाज किया जा सकता है, लेकिन एक अनिवार्य सामाजिक व राजनीतिक मूल्य के रूप में उसकी प्रतिष्ठा नहीं की जा सकती। इसके अतिरिक्त प्रत्येक लोकतांत्रिक व्यवस्था में सेना नागरिक सत्ता के हाथ का औजार होती है, जिसका नागरिक आवश्यकताआें के अनुसार इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन किसी इस्लामी या तानाशाही व्यवस्था में यह नहीं चल सकता। इसलिए यह कल्पना करना आकाश कुसुम त़ोड लाने जैसा है कि पाकिस्तान में सेना नागरिक प्रशासन के अंतर्गत काम करेगी। वहां नागरिक शासन दिखावे के लिए भी तभी तक चल सकता है, जब तक वह सेना के निर्देशों के अनुसार चले। इसलिए प्रधानमंत्री गिलानी की लोकतंत्र बचाओ की अपील का इससे अधिक कोई अर्थ नहीं है कि देश में उनकी व आसिफ जरदारी की सरकार को चलने दो।
पाकिस्तान में फिर से प्रत्यक्ष सैनिक तानाशाही आ धमके, इसे रोकने का एक ही रास्ता है कि देश में तत्काल नये आम चुनाव की घोषणा की जाए। लेकिन इस तरह के चुनाव भी कितनी ही बार क्यों न करा लिये जाएं, देश की व्यवस्था ज्यों की त्यों रहेगी, उसमें कोई बदलाव नहीं आ सकता। सबसे अधिक जरूरी चीज है देश में आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना, जो वहां संभव नहीं है। फिर भी यदि किसी तरह देश की विभिन्न शक्तियों के बीच नये चुनाव कराने पर सहमति हो जाती है, तो वह देश के लिए शुभ ही होगा, क्योंकि उससे संभावित राजनीतिक अराजकता की स्थिति तो टल जाएगी। लेकिन पाकिस्तान में आज की स्थिति में यह भी कोई आसान काम नहीं। सबसे ब़डा सवाल तो यही ख़डा होगा कि जब तक चुनाव नहीं होते, देश में किसका शासन रहेगा ? क्या जनरल कयानी व देश की अन्य राजनीतिक शक्तियां यह चाहेंगी कि जरदारी और गिलानी की वर्तमान पीपीपी (पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी) की सरकार के नेतृत्व में ही नए चुनाव हों। पाकिस्तान में नई उभरी राजनीतिक पार्टी ‘पाकिस्तान तहरीके इंसाफ’ के संस्थापक अध्यक्ष पूर्व क्रिकेटर इमरान खान की नजर में वर्तमान संकट को टालने का इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं कि देश में नये चुनाव कराए जाएं, लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना के बारे में उनका भी नजरिया साफ नहीं है।
पाकिस्तान के साथ ज़ुडी यह एक क़डवी सच्चाई है कि वह तभी तक एक देश के रूप में विद्यमान है, जब तक उस पर सेना का नियंत्रण कायम है। यदि सेना का राजनीतिक नियंत्रण हट जाए, तो उसके बिखरने में देर नहीं लगेगी। इस तथ्य को वहां के ज्यादातर राजनीतिक नेता भी समझते हैं, इसलिए वे लोकतंत्र के नाम पर अपनी सत्ता तो चाहते हैं, लेकिन व्यवस्था बदलने के खिलाफ हैं। इसलिए पाकिस्तान में आधारभूत बदलाव की कोई गुंजाइश नहीं। तंत्र कोई सा रहे, लेकिन वर्चस्व सेना व जिहादियों का ही रहेगा। यह स्थिति भारत के नजरिये से वांक्षित नहीं हो सकती, लेकिन वहां अराजकता या बिखराव पैदा हो यह भी भारत के हित में नहीं है।
इसलिए हमें अपनी सीमाओं की बेहतर रखवाली करते हुए बस प्रतीक्षा करना चाहिए और देखते रहना चाहिए कि वहां आने वाले दिनों में किसकिस तरह के गुल खिलते हैं और वर्तमान तनातनी का क्या परिणाम निकलता है।

शनिवार, 14 जनवरी 2012

ईश्वरीय विधान, नैतिकता और वैज्ञानिक अनुसंधान
बंदरों की 6 अलग-अलग भू्रणें की कोशिकाओं को मिलाकर पहली बार बनाये गये बंदर। चिकित्सा क्षेत्र में इस प्रयोग की असीम संभावनाएं बतायी जा रही हैं।


वैज्ञानिक जीवन के रहस्यों के सूत्र खोजने में तेजी से आगे ब़ढ रहे हैं। प्रयोगशाला में वे एक से एक अनूठी उपलब्धियां हासिल कर रहे हैं। उन्होंने कृत्रिम कोशिका बना ली है, शुक्राणु बना लेने का भी दावा किया है। लक्ष्य एक ही है मनुष्य के जीवन को सुखकर बनाना, उसे रोगों से मुक्त करना और आनुवांशिक ग़डब़डयों को भी सुधार लेना। ब़ुढापा और मृत्यु को शाश्वत कहा जाता है, लेकिन दुनिया के तमाम वैज्ञानिक इसे पराजित करने की कोशिश में लगे हैं। जरा (ब़ुढापा) और मृत्यु को समाप्त शायद न किया जा सके, लेकिन उसे टाला तो जा ही सकता है। लेकिन इस अनुसंधान में भी अनेक बाधाएं हैं। कई तरह की नैतिक रुकावटें हैं। ईसाई सोच की परंपरा ने मनुष्य को एक विशिष्ट स्थान दे रखा है, सभी अन्य प्राणियों से ऊपर। इसलिए वह उसकी जन्ममृत्यु की प्राकृतिक प्रक्रिया में मनुष्य के हस्तक्षेप को ईश्वरीय विधान में हस्तक्षेप मानता है। वह मनुष्य की स्वास्थ्य रक्षा व प्राण रक्षा के उपायों की अनुमति तो देता है। इसके लिए मनुष्येतर प्राणियों के जीवन का भी उपयोग किया जा सकता है, किसी मनुष्य की प्राण रक्षा के लिए किसी दूसरे मनुष्य का उपयोग नहीं किया जा सकता, चाहे वह भ्रूण स्तर का ही क्यों न हो।







यद्यपि प्रत्यक्ष जीवन व्यवहार में हम देखते हैं कि थ़ोडे से कुछ महत्वपूर्ण व्यक्तियों की रक्षा करने या उनकी तरहतरह की लालसा पूरी करने में हजारों लाखों लोग अपने प्राण गंवाते रहते हैं, अंगहीनता के शिकार होते हैं या बीमारियां आमंत्रित करते हैं, लेकिन चिकित्सा कार्य के लिए एक मानव प्रतिकृति (ह्यूमन क्लोन) बनाकर उसका उपयोग करने की भी वैधानिक अनुमति नहीं दी जा सकती। इसलिए वैज्ञानिक प्राय: अन्य प्राणियों पर अपने प्रयोग करते रहते हैं। नैतिकता के सवाल वहां भी उठते हैं, लेकिन उतनी तीव्रता से नहीं, जितने कि मनुष्य को लेकर किये जाने वाले प्रयोगों पर उठते हैं। यद्यपि यह सही भी है कि यदि आज किसी के स्वास्थ्य के लिए किसी गर्भस्थ भ्रूण का प्राण लेने या उसके अंगों के उपयोग की अनुमति दे दी जाए, तो कल इसका विस्तार किसी भी मनुष्य को किसी अन्य के लिए बलि देने तक हो सकता है, फिर भी जीवन के रहस्यों को समझने के लिए तो इसकी अनुमति देनी ही प़डेगी कि कोई एक साधारण सी कोशिका किसी विशिष्ट स्थिति में कैसे एक पूर्ण प्राणी में बदल जाती है। उसमें कोई विकृति कैसे आती है, बीमारियां क्यों उत्पन्न होती हैं तथा इसको रोकने या विकृत अथवा बीमार अंग को बदलने के लिए क्या किया जा सकता है। ईसाई परंपरा गर्भ समापन की अनुमति नहीं देती। अभी कुछ दिन पहले एक चर्च गर्भनिरोधक उपायों के भी खिलाफ था। ब़डे दबावों के बाद अभी वैटिकन ने गर्भ निरोधक उपायों के इस्तेमाल की अनुमति दी है, लेकिन गर्भ समापन की या गर्भस्थ भ्रूण के साथ किसी तरह के छ़ेडछ़ाड की इजाजत अभी भी नहीं है।
जबसे जेनेटिक इंजीनियरिंग का काम आगे ब़ढा है, तब से ये नैतिकता के सवाल अक्सर उठते रहते हैं कि क्या मनुष्य को जन्म मृत्यु के ईश्वरीय या प्राकृतिक विधान में हस्तक्षेप का अधिकार है ? पहली बर जब परखनली शिशु का प्रयोग किया गया, तो यह सवाल उठा, फिर जब पहली बार कृत्रिम ‘जीन’ के निर्माण की घोषणा हुई, तो भी यह सवाल उठा, फिर जब ‘एनिमल क्लोन’ पैदा करने का प्रयास सामने आया, तो भी इस सवाल को लेकर हंगामा ख़डा हुआ। ‘स्टेम सेल’ (ऐसी मास्टर कोशिका, जिससे शरीर का कोई भी अंग बन सकता है) प्राप्त करने के लिए प्रयोगशाला में भ्रूण की खेती करने की बात सामने आयी, तो भी यह सवाल पूरी तीव्रता के साथ ख़डा किया गया। अभी यह सवाल फिर ब़डी तेजी से उभर कर सामने आया, जब वैज्ञानिकों ने कई भ्रूणों की कोशिकाआें को मिलाकर एक प्राणी को जन्म देने की घोषणा की।
अभी इसी बीते हफ्ते यह घोषणा सामने आयी कि पहली बार अमेरिकी वैज्ञानिकों के एक दल ने विभिन्न भ्रूणों की कोशिकाआें को लेकर तीन बंदरों का निर्माण किया है। इन वैज्ञानिकों ने ६ भिन्न बंदरियों के गर्भस्थ भ्रूणों की कोशिकाआें को लेकर फिर उन्हें मिलाकर अन्य बंदरियों के गर्भ में स्थापित किया, जिससे तीन अनूठे बंदर पैदा हुए। इनके एक नहीं, दो नहीं, चार नहीं, १२ जैविक मांबाप है। ‘सेल’ नामक शोध पत्रिका के माध्यम से की गयी इस घोषणा में कहा गया है कि चिकित्सकीय अनुसंधान के क्षेत्र में इस उपलब्धि की असीम उपयोगिता है। वैज्ञानिक अभी तक केवल चुहियों पर इस तरह के प्रयोग करते रहे हैं। १९८४ में ब्रिटिश वैज्ञानिकों के एक दल ने बकरी और भ़ेंड के भ्रूणों को मिलाकर एक प्राणी को जन्म दिया था, जो भ़ेंड और बकरी का मिश्रण था। इस तरह के प्राणियों को गलती से उस तरह का संकर प्राणी नहीं समझ लेना चाहिए, जैसे घ़ोडे और गधे के संवरण से खच्चर पैदा होता है। खच्चर एक ही मांबाप की संतान होते हैं, जिनमें दोनों के गुण आ जाते हैं और वह मध्यवर्ती वर्ग का एक प्राणी बन जाता है। जबकि दो भिन्न भ्रूणों के संलयन से जो प्राणी जन्म लेता है, उसकी कोशिकाएं परस्पर मिलती नहीं।
वे साथसाथ मिलकर अंगों और ऊतकों (टिशूज) का निर्माण तो करती हैं, लेकिन अपना अलग अस्तित्व बनाए रखती हैं। इसलिए इस तरह के संयोग से बने प्राणी का जो अंग जिस भ्रूण की कोशिका से बनता है, उस अंग में उस भ्रूण के गुण ही रहते हैं। जैसे बकरी और भ़ेंड के दो भिन्न भ्रूणों से जो प्राणी बनाया गया उसमें भ़ेंड के भ्रूण से बने अंग भ़ेेंडों जैसे हैं और बकरी के भ्रूण से बने अंग बकरियों जैसे। उसकी देह पर भ़ेंडों के जैसे ऊन भी हैं और बकरियों के जैसे बाल भी। इस तरह से विकसित प्राणियों को ‘किमेरा’ नाम दिया गया है।
अभी इस पद्धति से जो तीन बंदर तैयार किये गये हैं, उनके नाम किमेरो, रोकू और हेक्स रखे गये हैं। उनके ऊतकों का निर्माण ६ विभिन्न भ्रूणों की कोशिकाआे से हुआ है। जैसा कि ऊपर कहा गया है कि ये कोशिकाएं कभी परस्पर लीन नहीं होतीं, लेकिन वे साथसाथ रहकर ऊतकों तथा विभिन्न शरीरांगों का निर्माण करती हैं। इस प्रयोग में शामिल वैज्ञानिक सौख्रात मिताली पोव के अनुसार कई असफल प्रयोगों के बाद यह प्रयोग सफल हुआ। उन्होंने बताया कि किमेराज के माध्यम से भ्रूण में किसी विशिष्ट जीन की भूमिका तथा भ्रूण से प्राणी के पूर्ण विकास की प्रक्रिया को शायद बेहतर ढंग से समझा जा सकता है।
वैज्ञानिकों की सामान्य राय है कि मनुष्य की जीवन प्रक्रिया के हर अंग को चूहों और सुअरों के शरीर से ही नहीं समझा जा सकता। यदि ‘स्टेम सेल’ चिकित्सा पद्धति को प्रयोगशाला से चिकित्सालयों तक या चूहों से मनुष्यों तक पहुंचाना है, तो हमारे लिए यह समझना जरूरी है कि उन्नत प्राणियों में इन आधारभूत कोशिकाआें (प्राइमेट सेल्स) की क्या भूमिका है। हमें इनका अध्ययन सीधे मनुष्य में करना होगा, मनुष्य के भ्रूणों में भी। लेकिन यहां हमें समझ लेना चाहिए कि मनुष्य का ‘किमेरा’ तैयार करने का कोई व्यावहारिक लाभ नहीं है। लेकिन भ्रूण स्तर पर उनका अध्ययन अवश्य उपयोगी है।
अभी तक हम जानते हैं कि स्टेम सेल्स की सहायता से क्षतिग्रस्त शारीरिक कोशिकाआें को दूसरी स्वस्थ उसके जैसी कोशिका से बदला जा सकता है। इससे उन रोगियों को जीवनदान मिल सकता है, जिनके रोग अब तक असाध्य समझे जाते हैं। जैसे ऱीढ की हड्‌डी में चोट पहुंचने के कारण जो लोग ‘पैरालाइज्ड’ हो जाते हैं वे फिर से सक्षम जीवन जी सकते हैं। पार्किंसन बीमारी से ग्रस्त रोगियों की मस्तिष्क की मृत कोशिकाएं पुन: सृजित की जा सकती हैं। लेकिन यह सब तभी संभव है, जब मानव भ्रूण पर भी खुले प्रयोग की सुविधा मिले।
मनुष्य निश्चय ही धरती का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है लेकिन वह भी अपनी आधारभूत संरचना में अन्य प्राणियों जैसा ही एक प्राणी है। फर्क इतना ही है कि विकास क्रम में वह अन्य प्राणियों की अपेक्षा ऊंचे विकास स्तर पर पहुंच गया है। वह अन्य प्राणियों से भिन्न किसी संसार से नहीं आया है।
जैसेजैसे वैज्ञानिक समझ ब़ढ रही है, नईनई तकनीक का विकास हो रहा है, वैसेवैसे यह धारणा मिथ्या सिद्ध होती जा रही है कि किसी सर्वशक्तिमान परमात्मा ने मनुष्य को विशेष रूप से जन्म दिया और बाकी सृष्टि को उसके उपभोग के लिए बनाया, अथवा यह कि सृष्टि के हर प्राणी की रचना परमात्मा करता है या कि जीवन देना परमात्मा का काम है। जब तक मनुष्य को प्रकृति के रहस्यों यानी कि उसके नियमों का ज्ञान नहीं था, वह सृष्टि के प्रत्येक कार्यकलाप को किसी सर्वशक्तिमान सृष्टा या परमात्मा को जिम्मेदार मानता था। वैज्ञानिक विकास की शुरुआत ही इस धारणा को नकारने के साथ शुरू हुई। सृष्टि की हर क्रिया के पीछे प्रकृति के कुछ नियम सक्रिय हैं। जीवन भी इन नियमों और तज्जनित क्रियाआें का सहज परिणाम है। इनमें भी परिस्थितिगत भिन्नता के कारण कुछ असाधारण रचनाएं भी सामने आती रहती हैं। सृष्टि में ऐसे मनुष्यों की संख्या भी हजारों नहीं बल्कि लाखों में है, जिनमें एक साथ पुरुष और स्त्री दोनों के शरीरांग सम्मिलित हैं। ये गर्भ में ल़डकी और ल़डके के दो भिन्न भ्रूणों के मिल जाने के परिणाम है। वे अलगअलग ज़ुडवां संतान के रूप में जन्म लेते हैं, लेकिन किसी परिस्थितिवश यदि वे परस्पर लीन हो गये, तो प्राकृतिक ‘किमेरा’ की उत्पत्ति होगी।
प्रकृति में ऐसा बहुत कुछ होता रहता है, जो चमत्कारी प्रतीत होता है, लेकिन इनके कारणों की जानकारी हो जाने पर वह सहज हो जाता है। संतान ईश्वर की देन है, अब इस कथन का कोई अर्थ नहीं रह गया है। जब प्रयोगशाला में ‘स्टेम सेल’ से शुक्राणु (स्पर्म) का निर्माण हो सकता है, और इसी तरह अंडे (ओवम) का भी निर्माण हो सकता है और कृत्रिम गर्भाशय में बच्चा विकसित हो सकता है, तो फिर उसमें किसी दैवी शक्ति की भूमिका यों ही समाप्त हो जाती है। तो अगर हम किसी सर्वशक्तिमान ईश्वर में विश्वास करना ही चाहें, तो हम इस संपूर्ण सृष्टि को एक इकाई मानकर उसे परमात्मा का नाम दे सकते हैं। अन्यथा इससे परे किसी परमात्मा या उसके विधान की कोई कल्पना नहीं की जा सकती। चर्च या किसी मजहब के विश्वासों की रक्षा के लिए वैज्ञानिकों को उनके काम से रोकने का कोई औचित्य नहीं है। सृष्टि में मनुष्य श्रेष्ठ है तो अपने बुद्धिबल से और यह बुद्धिबल उसने हजारों लाखों वषा] के अध्यवसाय व प्राकृतिक संघातों से अर्जित किया है। वैज्ञानिक अपने अनुसंधानों से इस मानव जाति के विकास में ही लगे हैं। यह सही है कि इस प्रक्रिया में कुछ विनाशकारी तत्व भी जन्म ले रहे हैं, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इनसे बचाव का साधन भी फिर उन वैज्ञानिकों के ही अगले विकास से संभव है। यह प्रक्रिया सदैव जारी रहनी है। विकास और विनाश दोनों ही अन्योन्याश्रित हैं। इनकी गति को धीमा या तेज तो शायद किया जा सकता है, किंतु उन्हें रोका नहीं जा सकता। कानूनी बंदिशें या ऱूढ नैतिकताएं मानवीय विकास यात्रा कभी न रोक सकी हैं, न रोक सकेंगी। इसलिए विकास पथ का अनुगमन करने के अलावा मनुष्यता के पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है।

गुरुवार, 12 जनवरी 2012

मंगल पर मानव बस्ती बसाने का सपना





एक चित्रकार की कल्पना में मंगल पर मनुष्य का आवास: वहां सतह के नीचे ही घर बनाए जा सकते हैं या वनस्पतियां उगाना सुविधाजनक हो सकता है।



इस धरती पर पली बढ़ी मनुष्य जाति को बचाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि उसके इस धरती से बाहर भी कहीं धरती पर बसने का इंतजाम किया जाए। इस लिहाज से अपने सौर मंडल में जितने भी ग्रह-उपग्रह उपलब्ध हैं, उनमें सबसे अधिक उपयुक्त मंगल को पाया गया है। धरती के बाहर मानव उपनिवेश के लिए अब तक चंद्रमा और मंगल को ही चुना गया है। मंगल चंद्रमा की अपेक्षा काफी दूर है, लेकिन स्वतंत्र जीवन जी सकने की संभावना मंगल पर अधिक है। इसलिए इधर अंतरिक्ष विज्ञानियों ने मंगल की ओर अपना ध्यान अधिक केंद्रित किया है। कम से कम मंगल पर मौसम बदलने का क्रम तो बहुत कुछ धरती जैसा ही है, क्योंकि मंगल भी अपने अक्ष पर लगभग धरती की तरह ही झुका हुआ है। मंगल पर थोड़ा बहुत वातावरण भी है।



मंगल अपने सौर मंडल में पृथ्वी के सर्वाधिक नजदीक स्थित ग्रह है। अति प्राचीन काल से धरती के लोग इससे परिचित हैं। अपने लाल रंग के कारण शायद छोटे आकार के बावजूद इसने धरती के लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया। भरतीय परंपरा में मंगल को कल्याणकारी एवं शुभ माना जाता है, लेकिन जाने क्यों ज्योतिष में इसकी गणना क्रूर ग्रह के रूप में की गयी है। यूनान में भी इसे युद्ध का देवता माना जाता है। हां, रोमन जरूर इसे कृषि का देता मानते हैं। यूनानी इसे ‘ओरिस’ नाम से पुकारते हैं और रोमन ‘मार्स’। बाद में जाने कब इन दोनों का एकीकरण हो गया और ‘ओरिस’ ‘मार्स’ बन गया। अंग्रेजी वर्ष के तीसरे महीने ‘मार्च’ का नामकरण इसी ‘मार्स’ के आधार पर हुआ। सौर मंडल का दूसरा कोई ग्रह नहीं है, जिसे यह सम्मान मिला हो।

पश्चिम की पुरा कथाओं में जाने कब और कैसे यह धारणा बन गयी कि धरती पर ‘पुरुष’ जाति मंगल से आयी और ‘स्त्री’ शुक्र -वीनस- से। शायद इसमें इन दोनों के रंग रूप का प्रभाव है। मंगल लाल है, तो शुक्र चमकदार सफेद। पश्चिम में शायद उसके चमकदार रूप के कारण उसकी कल्पना स्त्री के रूप में कर ली गयी और उसे सौंदर्य की देवी वीनस का नाम दे दिया गया। अब इसके बाद यदि स्त्री के वहां से धरती पर आने की कल्पना की गयी, तो इसमें आश्चर्य नहीं। जाने कैसे एक समानांतर दंत कथा यह भी चल निकली कि धरती पर जीवन मंगल से ही आया। पहले मंगल जीवन से गुलजार था, लेकिन जाने क्या विपत्ती आयी कि वह उजाड़ हो गया। वहां से जीवन के बीज तत्व किसी उल्का पिंड पर पहुंचे और वह उल्का धरती पर ले आयी। शायद इन्हीं सारी कल्पनाओं के कारण मंगल विज्ञान कथा लेखकों का भी सर्वाधिक प्रिय ग्रह बन गया। धरती चांद और मंगल इन कथाओं में इस तरह गुंथे हुए हैं, मानों वे तीनों किसी एक ही पाणि संसार के अंग हों।

अब वास्तविक विज्ञान इस कल्पना को चरितार्थ करने की दिशा में बढ़ रहा है। धरती पर मानव जीवन दिनों दिन कठिन होता जा रहा है। यहां स्वयं मनुष्य ने अपने विनाश के इतने उपकरण जुटा रखे हैं कि किसी दुर्घटना में अब अपनी ही जाति का अंत कर सकता है। फिर बाहर से संभावित दुर्घटनाओं का भी खतरा है। कब कौनसा भटका हुआ उल्का पिंड आ टकराए क्या ठिकाना। आखिर लाखों या करोड़ों वर्ष पूर्व धरती के विशालकाय जीवों -डायनासोरों- का जीवन इसी तरह तो समाप्त हो गया था। इसीलिए स्टिफेन हाकिंन जैसे ब्रह्मांड विज्ञानी बहुत पहले से यह सलाह दे रहे हैं कि यदि मानव जाति को विनष्ट होने से बचाना है, तो उसके आवास के लिए धरती के बाहर किसी अन्य ग्रह पर भी इंतजाम किये जाने चाहिए। धरती से सबसे निकट का पिंड उसका अपना ही उपग्रह चांद है। इस चांद पर बस्ती बसाने की योजना बहुत दिनों से चल रही है, लेकिन यदि मनुष्य जाति को धरती पर होने वाली किसी बड़ी दुर्घटना से बचाना है, तो उसका नया आवास कुछ अधिक दूरी पर बनाया जाना चाहिए। चांदी काफी नजदीक है और जीवन लायक प्राकृतिक सुविधाएं भी वहां बहुत कम हैं। इसलिए वैज्ञानिकों ने मंगल की ओर देखना शुरू किया है। मंगल थोड़ा दूर भी है और वहां शायद चांद से बेहर परिस्थितियां हैं। इसलिए अंतरिक्ष में चांद के बाद वैज्ञानिक खोजबीन का सबसे बड़ा केंद्र मंगल बन गया।

अंतरिक्ष यानों के माध्यम से मंगल की खोज खबर का काम 1965 में शुरू हुआ, जब मैरिनर-4 नाम का पहला अंतरिक्ष यान मंगल की यात्रा पर निकला और उसके पास से गुजरा। इसके पहले के 6 प्रयास विफल हो चुके थे। उसके बाद सफल-असफल करीब 35 प्रयास और हुए, जिनमें कई यानों ने मंगल की परिक्रम की और कुछ उसकी सतह पर उतरे। इस दौरान तीन ‘मंगल गाड़ियां’ -मार्स रोवर- भी वहां उतारी गयीं। पहली ‘मंगल गाड़ी’ ‘मार्स-पाथ फाइंडर‘ द्वारा 1996 में मंगल की सतह पर उतारी गयी। यह एक छोटी सी गाड़ी थी, खिलौने जैसी, लेकिन इसने इतिहास का नया अध्याय लिखा। अगली गाड़ी थी ‘स्पिरिट’ जो 10 जून 2003 को मंगल की सतह पर उतरी। इसके एक महीने से भी कम समय के भीतर तीसरी गाड़ी ‘अपार्चुनिटी मिशन द्वारा 7 जुलाई 2003 को उतारी गयी। और इसके बाद अब तक की सबसे बड़ी -करीब 1 टन भार की गाड़ी- ‘मार्स साइंस लेबोरेटरी’ मिशन के अंतर्गत बीते 26 नवबंर को रवाना की गयी। इसका नाम ‘क्यूरियासिटी’ -जिज्ञासा- रखा गया है। यह करीब 9 महीने की यात्रा करके अगले वर्ष अगस्त 2012 में मंगल की सतह पर पहुंचेगी।

यह रोबोटिक यानी स्वचालित गाड़ी मंगल पर भेजी गयी पिछली गाड़ी से 5 गुना अधिक भरी है। इसमें प्लूटोनियम बैटरी लगायी गयी है, जिसकी उर्जा से यह कम से कम 10 वर्षों तक मंगल का भ्रमण कर सकेगी। इसमें ऐस उपकरण लगे हैं, जो चट्टानों कोचूर्ण कर सकते हैं और सतह से एक मीटर भीतर तक मी मिट्टी का रासायनिक व परमाण्विक संरचना का पता लगा सकते हैं। इस मिशन का मुख्य उद्देश्य मंगल पर जीवन की संभावनाओं का पता लगाना है। क्या वहां पहले किसी स्तर का कोई जीव था या इस समय क्या वहां सूक्ष्म स्तर का भी कोई जीवन है। यहां जीवन के रहने व विकसित होने की कितनी संभावनाएं हैं। करीब ढाई अरब डॉलर के खर्च से भेजे गये इस यान के साथ बहुत सी संभावनाएं जुड़ी हैं। नासा के मंगल अभियान के निदेशके अनुसार ‘हमने न केवल तकनीकी स्तर पर, बल्कि वैज्ञानिक स्तर पर एक नये युग की शुरुआत की है। हमें यकीन है कि जब यह यान मंगल पर उतरेगा, तो हमें मंगल ग्रह के ऐसे अनूठे दृश्य देखने को मिलेंगे, जिन्हें हमने पहले कभी नहीं देखा है तथा ऐसी जानकारियां प्राप्त होंगी, जिनके आधार पर मनुष्य मंगल पर कदम रखने की योजना बना सकेगा।

अपने सौर मंडल में जितने भी ग्रह हैं, उनमें से केवल मंगल ऐसा है, जिस पर मौसम का परिवर्तन उसी तरह होता है, जिस तरह धरती पर होता है। इसका कारण है कि मंगल भी अपने अक्ष पर उसी तरह और करीब उतना ही झुका हुआ है, जितना की पृथ्वी। हां, यह बात दूसरी है कि मंगल पर प्रत्येक मौसम के बने रहने की अवधि धरती की अपेक्षा दो गुनी है। चंूकि मंगल सूर्य से ज्यादा अधिक दूरी पर है, इसलिए मंगल का एक वर्ष धरती के करीब दो वर्षों के बराबर है। यानी मंगल जब तक सूर्य की एक परिक्रमा करता है, तब तक पृथ्वी दो परिक्रमा पूरी कर चुकी रहती है। हां, धरती और मंगल के तापक्रम में जरूर काफी अंतर है। सूर्य से अधिक दूरी होने के कारण उस पर सूर्य की गर्मी कम पहुंचती है, तो वहां की गर्मी में भ्ी जमने वाली ठंड पड़ती है और सर्दी का तो पूछना ही क्या। गर्मी में अधिकतम तापमान -5 डिग्री सेल्सियस रहता है और सर्दी का न्यूनतम -ध्रुवीय क्षेत्र में- -87 डिग्री सेल्सियस । गर्मी और सर्दी के तापमान में इतना ज्यादा फर्क होने का कारण यह है कि मंगल का वातावरण बहुत हल्का या पतला है, जिसके कारण वह सूर्य की गर्मी को अधिक मात्रा में अपने में सुरक्षित नहीं रख पाता । वातावरण् हल्का रहने के कारण वायुदाब भी बहुत कम है। लेकिन इस सबके बावजूद इतना तो कहा ही जा सकता है कि यदि मंगल सूर्य से पृथ्वी जितनी दूरी पर होता, तो इसका मौसम भी पृथ्वी जैसा ही होता, क्योंकिइसका झुकाव पृथ्वी जैसा ही है। मंगल की सूर्य से दूरी करीब 23 करोड़ कि.मी. है। मंगल के वातावरण की यह भी विशेषता है कि उसमें स्वतंत्र ऑक्सीजन की मात्रा बहुत कम है। वातावरण का 95 प्रतिशत कार्बनडाई ऑक्साइड है, 3 प्रतिशत नाइट्र्ोजन और 1.6 प्रतिशत आर्गन। जाहिर है हवा में पानी और ऑक्सीजन की उपस्थिति नाम मात्र को है, किंतु कार्बन के साथ जुड़ी हुई अवस्था में काफी ऑक्सीजन उपलब्ध है। मंगल का आयतन धरती का केवल 15 प्रतिशत है। उसका व्यास धरती के व्यास का केवल आधा है। मंगल का घनत्व धरती के घनत्व से कम है, इसलिए आकार के मुकाबले उसका कुल द्रव्यमान और कम यानी केवल 11 प्रतिशत है। मंगल का कुल धरातल धरती के सूखे क्षेत्र के लगभग बराबर है, इसलिए बसने की जगह बहुत कम नहीं है। हां, उसकी सतह पर न कोई नदी-समंदर है न जंगल, बस बड़े-बड़े गड्ढे हैं या उंचे-उंचे पहाड़। सतह का रंग लाल है, क्योंकि सतह की पूरी मिट्टी व चट्टानों में हेमेटाइड -लोहे का ऑक्साइड- की मात्रा बहुत अधिक है।

बसने की दृष्टि से और ग्रहों पर नजर डालें तो उनकी स्थितियां और खराब हैं। बुध पर दिन में बेहद गर्मी है, रात में बेहद सर्दी, शुक्र की सतह तो तपती भट्टी जैसी है और दूर वाले ग्रह बेहद ठंडे हैं, क्योंकि वहां सूर्य की उर्जा बहुत कम पहुंचती है।

यात्रा की दृष्टि से भी धरती से मंगल तक की यात्रा अपेक्षकृत आसान है। एक ता इस तक पहुंचने में कम उर्जा की जरूरत पड़ती है। यात्रा का समय अभी तो बहुत ज्यादा प्रतीत होता है। अभी 26 नवंबर को भेजा गया यान 9 महीने बाद आगामी अगस्त में वहां पहुंचेगां वास्तव में अभी इस यात्रा के लिए अंतरिक्ष में जो मार्ग अपनाया जाता है -हॉहमान ट्र्ांसफर आरबिट- वह बहुत लंबा है। इसमें सुधार करके यात्रा की अवधि को घटाकर 6 महीने तक किया जा सकता है। यात्रा समय इससे और कम करने के लिए नई टेक्नोलॉजी का सहारा लेना पड़ेगा। उस टेक्नोलॉजी का भी परीक्षण हो गया है, बस उसे इस्तेमाल में लाना है। ये हैं ‘वी.ए.एस.आई.एम.आर.’ टेकनीक और ‘न्यूक्लियर-रॉकेट‘ टेकनीक। इनका इस्तेमाल करके यात्रा की अवधि 2 हफ्ते तक घटाई जा सकती है।

लेकिन केवल यात्रा का समय कम करना ही काफी नहीं है। अगणित और भी चुनौतियां हैं जिनका मुकाबला करने की तैयारी की जा रही है। एक अंतरिक्ष यात्रियों के लिए रास्ते में रेडियेशन का भारी खतरा है, जिससे कैंसर होने की संभावना है। मंगल तक पहुंच जाने के बाद वहां उतरना भी संकट का काम नहीं है। मंगल पर एक तो वातावरण अत्यंत क्षीण है, दूसरे वहां गुरुत्वाकर्षण घनत्व धरती का मात्र 0.38 प्रतिशत है। पर्यावरण का घनत्व धरती का केवल 1 प्रतिशत है।

मंगल के साथ रेडियो संपर्क भी आसान है। धरती जब मंगल के क्षितिज से ठीक उपर होती है, उस समय सबसे सीध संपर्क कायम किया जा सकता है। अमेरिका और रूस द्वारा भेजे गये यान मंगल का चक्कर लगा रहेहैं।इन यानों में संदेश भेजने व ग्रहण करने के उपकरण पहले से ही लगे हैं। इसका मतलब है कि वहां अनेक संचार उपग्रह पहले मौजूद हैं, बस उनका इस्तेमाल करने की जरूरत है। जब तक वे पुराने और बेकार होंगे, तब तक ऐसे और कई यान उनकी कक्ष -आर्बिट- में पहुंच जायेंगे।

मंगल पर यदि मानव बस्ती बसाना है, तो उसकी प्रारंभिक तैयारी का काम रोबोटिक मशीनों द्वारा कराया जा सकता है। ये मशीनें मनुष्ृय के रहने लायक सुविधाएं जुटाने- जैसे विविध उपभोग वस्तुएं, ईंधन, पानी, निर्माण सामग्री आदि तैयार करने या खोजने- का काम कर सकती हैं। पानी की निश्चय ही बड़ी समस्या है। द्रव रूप में पानी वहां रह ही नहीं सकता, क्योंकि वहां वायु दाब बहुत कम है और ठंड काफी अधिक है। ध्रुवीय क्षेत्र में पानी का विशाल जमा हुआ भंडार है। किंतु अभी ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि निचले अक्षांशों पर भी पानी उपलब्ध हो सकता है। ध्रुवीय क्षेत्र में तो इतनी बर्फ है कि यदि वह सब पिघल जाए तो पूरा मंगल ग्रह पानी की 11 मीटर मोटी परत से ढक जाएगा। ऐसा माना जाता है कि पानी की विशाल मात्रा सतह के अन्य क्षेत्रों में भी चट्टानों में कैद हो सकती है। यदि बीच के इलाकों मं पानी मिल गया, तो फिर वहां मानव उपनिवेश बनने की संभावना स्वतः बढ़ जाएगी। असल में अंतरिक्ष विज्ञान में ज्ञान के नये-नये क्षेत्र जिस तरह खुल रहे हैं, उससे भविष्य की तमाम असंभव कल्पनाएं भी संभव लगने लगी हैं। लगातार बढ़ रहे ऐसे नये ज्ञान और नई तकनीक के कारण यह तय हो गया है कि मनुष्य जाति अकेले धरती की सीमाओं में कैद होकर नहीं रह सकती। हो सकता है धरती के बाहर उसका पहला चरण मंगल पर ही पड़े। 11-12-11

बुधवार, 4 जनवरी 2012

खुदरा व्यापार में विदेशियों के आने का भय !



कहा जाता है कि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने अब तक के संपूर्ण कार्यकाल में यदि एकमात्र कोई सार्थक निर्णय लिया है, तो वह है खुदरा व्यापार के क्षेत्र में विदेश्ी पूंजी निवेश बढ़ाने का, लेकिन उन्होंने जिस तरह अपने इस निर्णय की घेषणा की उससे उनकी नीयत पर ही संदेह होने लगा। क्या उन्होंने इसे देश् के व्यापक हत में घोषित किया या महंगाई, लोकपाल, कालाधन, भ्रष्टाचार व तेलंगाना आदि मुद्दों से संसद व देश् का ध्यान हटाने के लिए इसका शिगूफा छोड़ा। देश् के सामाजिक व आर्थिक आधुनिकीकरण के लिए उत्पादक-विरतक-उपभोक्ता संबंधों की उपनिवेशकाल की संस्कृति बदलने की सख्त जरूरत है। विदेशी खुदरा कंपनियों को आने का अवसर देकर इसकी एक अच्छी शुरुआत हो सकती है, लेकिन इसके लिए पहले पूरे देश को विश्वास में लेने की जरूरत है।



संसद का पिछला शीतकालीन सत्र बिना कोई कामकाज किये समाप्त हो गया था, अब इस बार का स. भी उसी तरह के गतिरोध की स्थिति में आ फंसा है। शुरुआत तो महंगाई, भ्रष्टाचार, काला धन, तेलंगाना आदि के मुद्दों को लेकर हुई, लेकिन बीच में आ धमका खुदरा व्यापार के क्षेत्र में प्रत्यक्ष निवेश -एफ.डी.आई.- का। सरकार ने शायद अन्य मसलों की तरफ से विपक्ष व जनता का ध्यान बंटाने के लिए एफ.डी.आई. का धमाका किया, लेकिन वह खुद उसके गले की हड्डी बन गया। एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश में लगी रहने वाली दलीय राजनीति को यदि दरकिनार कर दें, तो खुदरा व्यापार के क्षेत्र में विदेशी पूंजी के निवेश का मार्ग प्रशस्त करना देश के व्यापक हित में बहुत जरूरी था, लेकिन सरकार ने बिना उचित तैयारी के जिस तरह से उसकी घोषणा की, उससे न केवल उनकी नीयत पर, बल्कि उसकी राजनीतिक कार्यदक्षता पर भी संदेह होने लगता है।

विपक्ष तो विपक्ष, उसका तो काम ही है विरोध करना। यदि वह अपने राजनीतिक लाभ के लिए सरकार के इस उचित कदम का भी विरोध कर रहा है, तो यह कोई असाधारण बात नहीं, असाधारण् बात तो यह है कि स्वयं गठबंधन सरकार के अपने घटक दल भी उसका विरोध कर रहे हैं। इससे ज्यादा चकित करने वाली बात है खुद कांग्रेस पार्टी के भीतर इसके बारे मे ंएक राय नहीं है। उसकी अपनी कई राज्य इकाइयां चाहती हैं कि सरकार इसे वापस ले ले। उत्तर प्रदेश की कांग्रेस का कहना है कि केंद्र सरकार ने बहुत गलत समय पर इसकी घोषणा की। ऐसे समय यह नहीं किया जाना चाहिए था, जब उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधनसभा चुनाव होने जा रहे हों। पार्टी में मतभेदों का आलम यह है कि पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी तथा युवराज राहुल भी इस पर चुप्पी साधे हुए हैं। युवा कांग्रेस के नवनिर्वाचित पदाधिकारियों के दिल्ली में हुए द्विदिवसीय सम्मेलन में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने किराना व्यापार के क्षेत्र में विदेशी निवेश बढ़ाने के सरकार के फैसले और विपक्ष के विरोध की विस्तार से चर्चा की, लेकिन सोनिया गांधी व राहुल ने अपने वक्तव्यों में उसका नाम तक नहीं लिया। अभी पता चला कि इस सम्मेलन के बाद उत्तर प्रदेश के नेताओं ने एक बैठक में राहुल के सामने जब एफ.डी.आई. और लोकपाल का मुख्य मुद्दा है, इसलिए यहां पार्टी के नेताओं व कार्यकर्ताओं को केवल इसी मुद्दे पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, बाकी को भूल जाना चाहिए। अब अब इससे अनुमान लगा लिया जाना चाहए कि कांग्रेस पार्टी व सरकार राजनीति और सत्ता संचालन में कितनी कुशल है। खुदरा व्यापार के क्षेत्र में प्रत्यक्ष पूंजी निवेश जैसे संवेदनशील व महत्वपूर्ण मुद्दे पर सरकार ने अपनों को भी विश्वास में नहीं लिया, सहयोगी दलों की बात ही और है। सहयोगी दलों की मुख्य शिकायत भी यही है कि कांग्रेस नेतृत्व ने उनसे इस पर कोई विचार-विमर्श नहीं किया, उन्हें विश्वास में लेने की कोई कोशिश नहीं की। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री व तृणमूल कांग्रस की नेता ममता बनर्जी ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में यह वायादा कर रख है क वह खुदरा व्यापार के क्षेत्र में विदेशी निवेश नहीं होने देंगी, यानी विदेशी खुदरा व्यापारियों को देश में नहीं आने देंगी। अब इसके बाद कैसे वह सरकार के इस निर्णय का समर्थन कर सकती हैं। उसके दूसरे सहयोगी दल तमिलनाडु के डी.एम.के. के सामने ऐसी कोई तकनीकी मजबूरी नहीं है, वह सत्ता में भी नहीं है कि राज्य स्तर पर उसके उूपर किसी तरह का दबाव हो, फिर भी सरकार के सामने उसने अपना विरोध व्यक्त किया है। ममता को मनाने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने स्वयं उनके बात की, उन्होंने राज्य के विकास के लिए 8000 करोड़ रुपये का विशेष सहायता पैकेज देने का भी वायदा किया है, लेकिन ममता मानने के लिए तैयार नहीं हैं। उनका कहना है कि उनके राज्य में 50 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण तथा छोटै व्यापारियों की है, वह उन्हें नाराज नहीं कर सकतीं, इसलिए उन्होंने प्रधानमंत्री को विनम्रता पूर्वक बता दिया है कि वह केंद्र की यूपीए सरकार को गिराने के पक्ष में नहीं हैं, लेकिन वह एफ.डी.आई. नीति का समर्थन भी नहीं कर सकतीं। जाहिर है वह सरकार को गिरने का खतरा नहीं पैदा होने देंगी, लेकिन उन्होंने सरकार को एक अपमानजनक स्थिति में तो डाल ही दिया है। यदि प्रधानमंत्री अपनी सरकार में शामिल राजनीतिक दलों का समर्थन भी हासिल नहीं कर सकते, तो फिर वह विपक्ष को भला किस प्रकार समझायेंगे। इस स्थिति से प्रतीत होता है कि सरकार शायद स्वयं भी अभी खुदरा क्षेत्र को विदेशी निवेश के लिए खोलने के लिए तैयार नहीं थी और उसने सरकार की फजीहत करा रहे तमाम मुद्दों की तरफ से जनता का ध्यान बंटाने के लिए एकाएक इसकी घोषणा का निर्णय ले लिया। यद्यपि प्रधानमंत्री बार-बार यह दोहरा रहे हैं कि उन्होंने बहुत सोच विचार के बाद यह निर्णय लिया है, कोई जल्दबाजी नहीं की है, किंतु परिस्थितियां और घटनाक्रम उन्हें गलत सिद्ध कर रहे हैं। वैसे दोनों ही स्थितियों में सरकार की अदूरदर्शिता तथा अक्षमता जाहिर होती है। यदि वह सुविचारित कदम था, तो प्रधानमंत्री ने अपनी पाअभर्् तथ अपनी सहयोगी पार्टियों को पहले से वश्विास में क्यों नहीं लिया। और यदि यह निर्णय आकस्मिक है तो भी वह अपने मकसद में विफल रहे हैं। ध्यान बंटाने का प्रयास तो विफल रहा ही, नाहक ही एक नई मुसीबत और खा खड़ी हुई है

गत शक्रवार को संसद के चालू सत्र का लगातार नौंवा दिन था, जब कोई विधायी कामकाज नहीं हो सका और बैठक चार दिनों के लिए स्थगित कर दी गयी। शनिवार, रविवार का अवकाश रहता ही है, संयोग से इसी के साथ मोहर्रम की मुस्लिम त्यौहार भी आ गया, तो सोम, मंगल दो दिन उकसे लिए अवकाश हो गया। अब 7 दिसंबर को संसद की बैठक फिर शुरू होगी, जब एफ.डी.आई. के मसले पर विपक्ष्ज्ञ के कार्य स्थगन प्रस्ताव पर निर्णय लिया जाएगा। इस बीच सत्ता पक्ष के संकट निवारक नेता अपने लोगों को समझाने बुझाने व अपना संख्या बल मजबूत करने का प्रयास करेंगे। जैसी खबरें मिल रही हैं, उसके अनुसार सरकार नहीं चाहती कि कोई कार्य स्थगन प्रस्ताव सदन में आए और उस पर मत विभाजन हो। इसलिए यह हो सकता है कि यदि सरकार अपने सहयोगियों, साथ ही विपक्ष को मनाने में विफल रहती है, तो वह इस फैसले को किसी ठंडे बस्ते के हवाले कर दे। यद्यपि प्रधानमंत्री बार-बार कह रहे हैं कि इस फैसले को वापस लेना कठिन है। सरकार इस दिशा में काफी आगे बढ़ चुकी है, अब इसे वापस लेने से सरकार की साख पर बट्टा लगेगा, फिर भी यह कोई ऐसा मुद्दा नहीं है, जिस पर सरकार अपने अस्तित्व को ही दांव पर लगाने का खतरा मोल ले, जैसा कि परमाणु समझौते के संदर्भ में वर्ष 2008 में लिया था। फिर भी आखिरकार इसे टालना भी सरकार की कमजोरी ही सिद्ध करेगा।

यह तो रही सरकार की बात, अब जरा मूल मुद्दे पर विचार कर लिया जाए। आखिर किराना व्यापार के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेश निवेश को बढ़ाना देश के लिए क्यों उपयोगी है और क्यों इसका विरोध किया जा रहा है। सच कहा जाए, तो विरेाध का कोई कारण नहीं है। इस समय जो भी विरोध हो रहा है, वह राजनीतिक है या भावनात्मक है, अथवा शुद्ध रूप से गलतफहमी पर आधारित है। यदि सरकार समुचित जनमत बनाकर ठीक समय पर इसका प्रस्ताव करती, तो प्रायः हर वर्ग इसका समर्थन करता, लेकिन उसने इस तरह इसका आकस्मिक धमाका किया है कि भावनाएं सारे तर्कों पर हावी हो गयी है और सरकार को पराजित करना या पीछे हटने के लिए मजबूर करना विपक्ष का ही नहीं, अपने सहयोगी घटक दलों का भी राजनीतिक लक्ष्य बन गया है। कें्रद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने कहा भी है कि सरकार के इस निर्णय को लागू करने में विभिन्न दलों का संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ आड़े आ रहा है। यद्यपि उनका यह प्रहार विपक्षी दलों पर था, लेकिन यह जुमला स्वयं उनकी पार्टी पर भी लागू हो रहा है।

भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश के विकास के लिए विदेशी पूंजी व विदेशी तकनीक की जबर्दस्त आवश्यकता है।देश के अनेक क्षेत्रों में विदेशी पूंजी व तकनीक के सहारे विकास हो रहा है। अब तो बीमा और बैंकिंग जैसे क्षेत्र भी विदेशियों के लिए खुल चुके हैं। किराना व्यापार का क्षेत्र इस देश में कृषि के बार रोजगार का दूसरा सबसे बड़ा साधन है, लेकिन यह अत्यंत असंगठित, पिछड़ा तथा असुरक्षित क्षेत्र बना हुआ है। इपने देश में कृषि क्षेत्र भी पिछड़ा हुआ है और किराना व्यापार का क्षेत्र, जबकि ये दोनों ही इस देश की अर्थव्यवस्था व समाज की रीढ़ हैं। वास्तव में इनके विाकस पर ही देश का वास्तविक विकास निर्भर है।

खुली अर्थव्यवस्था और ग्लोबलाइजेशन का जो दौर 90 के दशक मंें पी.वी. नरसिंहा राव सरकार के दौर में शुरू हुआ, उसके उनके बाद भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने बड़े उत्साह से आगे बढ़ाया, जिसमें पहली बार देश की विकास दर 3-4 प्रतिशत की दर से छलांग लगाकर 7-8 प्रतिशत तक पहुंची। औद्योगिक विाकस की दर पहली बार इस स्थिति में पहुंची की चीनी ड्र्ैगन की फुफकार और दक्षिण पूर्व एशियायी टाइगरों की दहाड़ के बीच भारतीय गज की गर्जना भी सुनाई देने लगी। इससे उत्साहित भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने किराना व्यापार के क्षेत्र में 100 प्रतिशत तक विदेशी निवेश को बढ़ाने का प्रस्ताव किया था। पूरे देश में अर्थव्यवस्था की चमक ने ही ‘फील गुड’ का नशीला वातावरण बनाया था, लेकिन 2004 के आम चुनावों में भाजपा की पराजय ने सारे ‘फील गुड’ की चमक उड़ा दी।

पी.वी. नरसिंहा राव के शासन काल में खुली अर्थव्यवस्था का पहला चरण शुरू करने वाले अर्थशास्त्री वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह 2004 में बनी कांग्रेस की सरकार में प्रधानमंत्री के पद स्थापित हुए। अब तो पूरे देश की पूरी लगाम उनके हाथ में थी, लेनिक वह उदारीकरण या ग्लोबलाइजेशन का अगला चरण नहीं शुरू कर सके। कांग्रेस फिर ग्रामीण पिछड़ेपन और गरीबी का सहारा लेकर सत्ता में पहुंची थी, इसलिए उसने आर्थिक क्षेत्र में सुधारों के बजाए देश के ग्रामीण पिछड़े व गरीब तबके को राहत पहुंचाने की ओर ध्यान दिया। किसानों के कर्जे माफ किये, ग्रामीण रोजगार योजना -मनरेगा- की शुरुआत की, मगर ऐसे सारे कार्यक्रमों को ठप रखा, जिससे अतिरिक्त पूंजी का उत्पादन हो या विदेशी पूंजी का आगमन सुनिश्चित हो। सत्ता की पहली पारी में यह सब न हो पाने के लिए वामपंथी दलों को दोषी ठहराया गया। केंद्रीय सत्ता चूंकि वामपंथी दलों के समर्थन पर टिकी थी, इसलिए कहा गया कि उसके विरोध के कारण सरकार अपने वायदे के अनुसार आगे नहीं बढऋ सकी, मगर सत्ता के दूसरे चरण में भी उसने अब तक पूरे कार्यकाल का लगभग आधा समय बीत जाने तक- कोई कदम नहीं उठाया। प्रधानमंत्री पिछले करीब डेढ़ साल से तो एकदम अनिर्णायक स्थिति में नजर आ रहे हैं। जो लोग यह आशा लगाये बैठे थे कि इस दूसरे चरण में आर्थिक सुधरों के सारे लंबित कार्यक्रम तेजी से शरू किये जायेंगे, उनका इस निष्क्रियता से निराश होना स्वाभाविक था। देश के तमाम आर्थिक विशेषज्ञों की राय में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जून-2004 से लेकर अब तक के अपने पूरे कार्यकाल में केवल एक सार्थक निर्णय लिया है और वह है किनारा क्षेत्र में विदेशी निवेश बढ़ाने का, लेकिन इसे भी ईमानदारी से नहीं लिया गया। उन्होंने इसे एक राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल किया। उद्देश्य देश की आर्थिक हालत सुधारना नहीं, बल्कि अन्ना हजारे के लोकपाल बिल, महंगाई तथा राजनीतिक भ्रष्टाचार की ओर से लोगों का ध्यान हटाना था। यों कुछ लोग यह मानते हैं कि इसके पीछे डॉ. मनमोहन सिंह का अपना निजी राजनीतिक उद्देश्य भी है। इतनें दिनों सत्ता में हरकर अब वह अर्थशास्त्री से बड़े राजनीतिक नेता बन गये हैं। इधर सत्तारूढ़ दल की राजनीति राहुल केंद्रित रूप ले रही थी। मनमोहन सिंह को दरकिनार किया जा रहा था। देश में यह वातावरण बनाया जा रहा था कि राहुल बस अब कभी भी देश और सत्ता का नेतृत्व संभालने ही वाले हैं। मनमोहन सिंह बस संक्रमण काल के नेता रह गये हैं। शायद उन्होंने भी अपनी यह स्थिति स्वीकार कर ली थी। मगर किराना क्षेत्र में एफ.डी.आई. बढ़ाने की घोषणा करके वह फिर सत्ता और राजनीति के केंद्रीय चर्चा के विषय बन गये हैं। लेकिन ऐसे महत्वपूर्ण निण्रय के समय सोनिया व राहुल का उनके समर्थन में खड़ा न दिखायी देना पार्टी में आंतरिक मतभेदों का संकेत माना जा रहा है। यों कांग्रेस हमेशा दोहरे चरित्र के साथ जीने वाली पार्टी रही है। सरकार का एक चरित्र दिखायी देता रहा है, पार्टी का दूसरा। शायद अभी भी यही संतुलन साधा जा रहा है। अभी पिछले दिनों महंगाई के प्रश्न पर जब सरकार पेट्र्ोलियम पदार्थों की कीमतें बढ़ाने की वकालत कर रही थी, उस समय पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी उससे इस पर पुनर्विचार करने का अनुरोध कर रही थीं।

भारत की सामान्य मानसिकता किसी भी क्षेत्र में विदेशी हस्तक्षेप के खिलाफ है। लंबे समय की गुलामी के दौर से गुजरने के कारण यदि यह भय पूरी राष्ट्र्ीय मानसिकता में पैठ गया है, तो कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं है, लेकिन अब उसे इस मानकिसता से बाहर निकालने की जरूरत है। आज का जमाना ईस्ट इंडिया का जमाना नहीं है। आज अंतर्राष्ट्र्ीय कंपनियों को भी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। यह सही है कि वे मुनाफे के लिए पूंजी निवेश कर रही हैं, लेकिन यह मुनाफा उनकी कार्यदक्षता और प्रबंध कौशल पर निर्भर है, अन्यथा उन्हें भी घाटा उठाना पड़ता है। अभी गत वर्ष ही शेयर बाजार में विदेशी कंपनियों को 45 प्रतिशत तक का नुकसान उठाना पड़ा। ईस्ट इंडिया कंपनी ने यहां प्रतिस्पर्धा का अवसर ही समाप्त कर दिया था, लेकिन आज कोई विदेशी कंपनी ऐसा कर सकने में सक्षम नहीं है। दुनिया के अन्य देशों के अनुभव बताते हैं कि किराना क्षेत्र में विदेशी पूंजी को मिली छूट से उन देशों को लाभ ही पहुंचा है। यह धारणा तथा इसका प्रचार बिल्कुल गलत है कि इससे रोजगार के अवसर घटेंगे। अपने ही देश के अब तक के आंकड़े लें, तो खुदरा विक्रय की संगठित उन युवक-युवतियों को इसमें रोजगार का अच्छा अवसर मिल रहा है, जो उच्च शिक्षा से वंचित रह गये हैं, क्योंकि इसमें किसी तरह के कौशल या दक्षता से अधिक आपका व्यवहार काम आता है, जिससे कि आप ग्राहकों को संतुष्ट कर सकें। इतना तो साफ देखा जा सकता है कि पारंपरिक व्यापारिक दुकानेां पर काम करने वाले लड़के-लड़कियां बेहतर स्थिति में हैं। उन्हें बेहतर वेतन व सुविधाएं ही नहीं, एक सम्मानित जीवन जीने का भी अवसर मिल रहा है। विनम्रता और शिष्टाचार उनकी व्यावसायिक आवश्यकता बन जाने के कारण उनके सामान्य व पारिवारिक आचरण में भी फर्क आ रहा है। फिलीपिंस, थाईलैंड, मलेशिया और चीन के उदाहरण हमें बताते हैं कि विदेशी खुदरा कंपनियों के प्रवेश से वहां रोजगार की संख्या घटी नहीं, बल्कि बढ़ी है। ब्राजील, थाईलैंड तथा मलेशिया के आंकड़े बताते हैं कि इनके कारणवहां बेरोजगारी घटी है और देश का कुल राजस्व बढ़ा है।

आप कह सकते हैंे कि किराना क्षेत्र में विदेशी पूंजी का आगमन यदि इतना हितकारी है, तो इस देश के किराना व्यापारी क्यों इतने आशंकित हैं कि वे विरेाध में सड़कों पर उतर आये हैं तथ राष्ट्र्ीय स्तर पर बंद का आह्वान करके अपना विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। इसका कारण निश्चय ही उनके अंदर फैला यह भय है कि किराना क्षेत्र में विदेशी कंपनियों के आ जाने के बाद उनकी छुट्टी हो जायेगी। यह धारणा कुछ तो गलतफहमीवश और कुछ राजनीतिक पार्टियों के प्रचारवश है, लेकिन इसका कुछ वाजिब कारण भी है। वाजिब व किसी हद तक वास्तविक कारण यही है कि यहां का किराना या खुदरा व्यापार का क्षेत्र अपने व्यवसाय के स्तर पर संगठित नहीं है और यदि इस देश में कृषि और व्यापार की कोई वैज्ञानिक व्यवस्था कायम करनी है, तो उनका व्यवसायिक स्तर पर संगठित होना जरूरी है। इसके लिए शासन की तरफ से जरूरी आर्थिक, तकनीकी व कानूनी मदद उपलब्ध कराये जाने की जरूरत है। मलेशिया व थाईलैंड आदि देशों की सरकारों ने यही किया। मलेशिया में 1995 में जब विदेशी किराना कंपनियों के प्रवेश की छूट मिली, तो वहां की सरकार अपने पारंपरिक किराना व्यापारियों की मदद के लिए आगे आयी। अपने देश् की राज्य सरकारें भी ऐसे विदेशी अनुभवों का लाभ उठा सकती हैं।

वास्तव में इस देश के राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे विदेशी कंपनियों का भय दूर करें और देशी व्यापारियों को इस तरह संगठित व साहसी बनाएं कि वे अपने देश में ही नहीं, दूसरे देशों में जाकर अपनी खुदरा व्यापार श्रंृखला शुरू कर सकें। देश को यह समझाने की जरूरत है कि विदेशी कंपनियां आएंगी, तो वे अपनी पूंजी के साथ नई तकनीक, नया प्रबंध कौशल तथ नया ज्ञान स्रोत भी लाएंगी, जिसका हम लाभ उठा सकेंगे। अव्वल तो में यह समझ लेना चाहिए कि कितनी भी विदेशी कंपनियां आ जाएं, वे इस विशाल देश की सौ प्रतिशत आवश्यकता को पूरा नहीं कर सकती, किंतु उनके अनुभव, ज्ञान और कौशल का इस्तेमाल करके हम अपने देश् की पूरी कृषि और व्यापार प्रणाली की काया पलट कर सकते हैं।

यह कए कड़वी सच्चाई है कि हमारा देश अभी भी औपनिवेश्काल वाली गुलामी की मानसिकता में जी रहा है। हमारा उत्पादक-वितरक-उपभोक्ता संबंध बिगड़ा हुआ है। वितरक या व्यापारी को उत्पादक व उपभोक्ता दोनों को शोषक समझा जाता है। अंग्रेज व्यापारियों ने इसी संस्कृति को जन्म दिया था, जिसे यहां के क्या, औपनिवेशिक क्षेत्र के सारे देशी व्यापारियों ने भी अपना लिया। कम्युनिस्ट राजनेताओं ने आम आदमी-कृषक व मजदूरों को व्यापारियों व उद्योगपतियों के खिलाफ भड़काया। उन्होंने उत्पादक-वितरक व उपभोक्ता के बीच सहयोगपूर्ण सौहार्द्य का संबंध स्थापित करने की कभी कोशिश नहीं की।

खुदरा व्यापार की नई संस्कृति उत्पादक व वितरक के बीच घनिष्ठ संबंधों पर आधारित है। नई टेक्नोलॉजी इसमें उसकी मदद कर रही है। हमारे देश के पास हजारों वर्षों का एक समृद्ध व्यापारिक अनुभव है, लेकिन यह अलग-अलग व्यावसायिक घरानों के पास कैद है। इसके साथ यदि आधुनिक वैज्ञानिक प्रणाली व तकनीकी कौशल जुड़ जाए, तो यहां का खुदरा व्यापारी भी चमत्कार कर सकता है, लेकिन इसके लिए अंतर्राष्ट्र्ीय सहयोग व अनुभव एवं तकनीकी ज्ञान का आदान-प्रदान आवश्यक है।

अभी इस देश का वातावरण बहुत ही संवेदनशील और उत्तेजनापूर्ण है, इसलिए सरकार के लिए बेहतर है कि एफ.डी.आई. के वर्तमान मसले को कुछ समय के लिए टाल दे। भ्रष्टाचार पर नियंत्रण, काले धन की वापसी आदि कम महत्वपूर्ण मुद्दे नहीं हैं, इनको निपटाने के बाद उसे पूरी गंभीरता के साथ खुदरा व्यापार के क्षेत्र में पूंजी निवेश बढ़ाने के मसले को हाथ में लेना चाहिए। मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महाथिर मोहम्मद ने अभी नई दिल्ली में हिन्दुस्तान टाइम्स के एक आयोजन में कहा कि ज्यादा लोकतंत्र भी आर्थिक विकास में बाधक होता है। भातर यदि चीन जैसा होता, तो अधिक विकास किया होता। यह बात किसी हद तक सही हो सकती है, लेकिन भारत में छलपूर्ण लोकतंत्र विकास में बाधक बना रहा है। लोकतंत्र यदि पारदर्शी हो और उसमें निहित स्वार्थ आड़े न आता हो, तो वह आर्थिक विकास में हमेशा सहायक ही बनेगा, बाधक नहीं। भारतीय मानसिकता सहज लोकतांत्रिक है, इसे उपनिवेश काल की शोषक संस्कृति ने भ्रष्ट कर रखा है, यदि वह एक बार उससे बाहर निकल जाए, तो फिर उसकी प्रगति के लिए चीन जैसी जकड़न वाली व्यवस्था को कभी आदर्श नहीं बताया जाएगा। 4-12-2011