रविवार, 18 सितंबर 2011

ये हिंदी किस ‘भाषा‘ का नाम है ?-3


राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को देशव्यापी रूप देने के प्रबल समर्थक महात्मा गांधी
एवं सी. राजगोपालाचारी

अपने देश की प्रायः हर समस्या बहुत ही उलझी हुई है। भाषा समस्या कोई इसका अपवाद नहीं। अन्य समस्याओं की तरह इसे भी उलझाने में मुख्य भूमिका मजहब और जाति की है। जिसे औपनिवेषिक शासन काल की राजनीति ने जटिलता के उस स्तर पर पहुंचा दिया, जहां से वापस लौटना ही असंभव लगने लगा है। क्या इस देश के राजनेता व बुद्धिजीवी कभी इतना आत्मबल एकत्र कर पायेंगे कि वे इस उलझन से टकराएं और देश की राष्ट्रभाषा को मजहब एवं जाति के दलदल से बाहर निकालकर उसे राष्ट्रीयता की पहचान के रूप में स्थापित कर सकें।

इस देश में इस्लामी आक्रमण होने तक भाषा, मजहब, जाति आदि का कोई विवाद नहीं था। कम से कम इनको लेकर कोई राजनीतिक संघर्ष नहीं था। इसके पहले यूनानी, शक, कुषाण, हूण, पह्लव आदि के हमले तो हुए, उन्होंने देश के भीतर दूर तक अपने राज्य भी कायम किये, लेकिन उनके कारण देश में कोई मजहबी, जातीय व भाषाई संकट नहीं पैदा हुआ। यूनानी तो भारतीयों की तरह ही खुले दिमाग के थे। इसलिए उनकी राजीतिक महत्वाकांक्षा ने यहां और किसी तरह की हलचल नहीं पैदा की। जो अन्य जातियां आयी, उन्हें भी यहां की भाषा-लिपि रीति-रिवाज या यहां के देवी-देवताओं को लेकर कोई परेशानी नहीं थी। भाषा के मामले में देश के भीतर तथा बाहर- जहां तक यहां के व्यापारिक संपर्क थे- उच्च स्तर पर संस्कृत तथा निचले व आम नागरिकों के स्तर पर अपभ्रंश का बोलबाला था। प्राकृत भाषाएं भी अपने-अपने क्षेत्रों में विद्यमान थी, लेकिन व्यापार के विस्तार और सैनिक आवागमन के कारण अपभ्रंश का पूरे देश में व्यापक प्रयोग हो रहा था। 900 ई. तक तो अपभ्रंश की देशव्यापी उपस्थिति की बाकायदे पहचान भी हो चुकी है। लेकिन इस्लामी आक्रमणों और उनके साम्राज्य विस्तार के कारण संस्कृत और अपभ्रंश दोनों का देशव्यापी या अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप छिन्न-भिन्न होने लगा और 13वीं शताब्दी के अंत तक अपभ्रंश और संस्कृत दोनों का अखिल भारतीय स्वरूप समाप्त हो गया। और दुर्भाग्य यह कि उस समय पूरे देश में बोलचाल का माध्यम बन सकने वाली कोई तीसरी भाषा उनका स्थान लेने के लिए सामने न आ सकी। कारण स्पष्ट था कि ये हमलावर अपनी लाख कोशिशों, भारी रक्तपात तथा शिक्षा केंद्रों व मंदिरों के ध्वंस के बावजूद पूरे देश पर अपना शासन कायम नहीं कर सके। उन्होंने पारंपरिक व्यवस्था को ध्वस्त तो किया, लेकिन वे कोई वैकल्पिक देशव्यापी व्यवस्था दे नहीं सके। उत्तर का उनका साम्राज्य सीमित क्षेत्रों तक ही रहा। दक्षिण में उन्होंने हमले तो किये, लेकिन दक्षिण उत्तर को मिलाकर कोई टिकाउ बड़ा साम्राज्य कायम नहीं हो सका। राजपुताना कभी पूरी तरह उनके कब्जे में नहीं आ पाया। गुजरात, बंगाल व महाराष्ट्र के क्षत्रपों ने अपनी अलग सत्ता कायम कर ली। यह विखंडित राजनीतिक स्थिति मुगल साम्राज्य के उदय तक बनी रही। क्षेत्रीय शासकों का कोई राष्ट्रीय सरोकार न रह जाने से उनके लिए किसी राष्ट्रीय संपर्क भाषा की जरूरत ही नहीं रही। मुस्लिम शासक फारसी व क्षेत्रीय भाषा में अपना काम चला रहे थे, तो क्षेत्रीय देशी रियासतें अब अपनी क्षेत्रीय प्राकृतों अथवा अपभ्रंश व प्राकृतों के मिश्रण से विकसित हुई नई क्षेत्रीय भाषाओं पर निर्भर होने लगीं। उन क्षेत्रों के विद्वान देश की प्राचीन ज्ञान संपदा को अपनी क्षेत्रीय भाषाओं में लाने के लिए संस्कृत के काव्यों व पुराण कथाओं के अनुवाद करने लगे। धीरे-धीरे इन क्षेत्रीय भाषाओं में स्वतंत्र रचनाएं भी होने लगी।

वास्तव में देश में फैली राजनीतिक व सांस्कृतिक अराजकता का सबसे बड़ा कुप्रभाव भाषा पर पड़ा और राष्ट्र की सांस्कृतिक, भाषाई, राजनीतिक व मजहबी इकाइयां बन जाने के कारण उनके बीच प्रतिस्पर्धा की भावना भी शुरू हो गयी। इस प्रतिस्पर्धा ने हर तरह की अराजकता को और बढ़ा दिया, जिसका बाद में आने वाले ईसाइयों ने भरपूर फायदा उठाया।

इतिहास की इस स्थिति को समझना और उस काम के परिवेश की कल्पना कर पाना काफी कठिन काम है। भारत वर्ष भले ही कभी एक राजनीतिक इकाई का नाम न रहा हो और केवल एक भौगोलिक इकाई के रूप में पहचाना जाता रहा हो, लेकिन यह पूरा क्षेत्र सदैव एक सांस्कृतिक और आर्थिक इकाई बना रहा। इस सांस्कृतिक और आर्थिक एकता के कारण ही इस पूरे क्षेत्र में कितने ही राजा या रियासतें क्यों न रही हों, लेकिन उनके बीच शासन शैली व न्याय शैली की समानता थी। व्यापारिक व सांस्कृतिक संबंधों के लिए सारी सिमाएं खुली हुई थीं। इसीलिए पूरे देश में वैदिक काल से आज तक के सांस्कृतिक विकास क्रम का अक्षुण प्रवाह पूरे देश में एक साथ समान रूप से देखा जा सकता है। इसीलिए क्षेत्रीय भेदों के बावजूद पूरे देश के स्तर पर भाषाई व लिपिगत एकता भी बनी रही। लेकिन जब बाहरी आक्रमणों से यह सांस्कृतिक व आर्थिक एकरूपता भंग हुई, तो बाहर आक्रांताओं में क्षेत्रीय संकीर्णता का विकास होने लगा। दक्षिण के जो राज्य मुस्लिम शासन के अंग नहीं बने, उनका भी अब गंगा घाटी के इलाकों व मध्य देश से कोई वास्ता नहीं रह गया। अब इन राज्यों को भी पूरे राष्ट्र से संपर्क कायम करने वाली अपभ्रंश व संस्कृत भाषा का कोई उपयोग नहीं रह गया। संस्कृत उच्च शिक्षित व कुलीन वर्ग में बची भी रह गयी, लेकिन अपभ्रंश का तो लोप हो ही गया। जन सामान्य के लिए अब अपनी क्षेत्रीय भाषा व लिपि के अलावा अन्य किसी भाषा व लिपि की जरूरत नहीं रह गयी। हां, राजस्थान के राजपूत राजाओं ने करीब 16वीं शताब्दी तक अपभ्रंश को अपने राजकाज के साथ अपनी साहित्यिक रचना की भी भाषा बनाए रखा। पश्चिम भारत के जैन संगठन भी इन राजपूत राजाओं के संरक्षण में थे, इसलिए उन्होंने भी अपनी रचनाएं ज्यादातर अपभ्रंश भाषा में की, क्योंकि वही क्षेत्र की जनभाषा थी।

दिल्ली तथा उत्तर भारत के अन्य केंद्रों पर जो मुस्लिम राज्य कायम हुए, उन्होंने पहले तो क्षेत्रीय भाषा को ही अपने कामकाज की भाषा बनाया, जिसे उन्होंने हिन्दी, हिन्दवी या हिन्दुस्तानी की संज्ञा दी। उसमें उनके अरबी, फारसी व तुर्की के शब्द भी शामिल हो गये, जिससे इस क्षेत्र की भाषा का एक नया ही रूप बन गया। दिल्ली के सुल्तानों ने दक्षिण में अपना साम्राज्य बढ़ाया, तो उनके साथ इस क्षेत्र की यह भाषा वहां भी पहुंची। यह ध्यान देने की बात है कि अरबी, फारसी, तुर्की मिश्रित इस उत्तरी भाषा (हिन्दी) को दक्षिण के लोगों ने कभी दिल से स्वीकार नहीं किया, क्योंकि इसे वे मुसलमानों की भाषा समझते थे। इसकी प्रतिक्रिया में उनका अपनी क्षेत्रीय भाषाओं व लिपियों के प्रति आग्रह बढ़ता गया। विडंबना देखिए कि बाद में मुस्लिम शासकों व विद्वानों ने भी इसी हिन्दी भाषा और उसकी लिपि का परित्याग कर दिया, क्योंकि वे यहां के लोगों यानी हिन्दुओं या भारतीयों से अपनी अलग पहचान बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अपनी भाषा को ‘उर्दू‘ नाम दिया और उसके लिए पर्सियन लिपि स्वीकार की। मुगलों के काल में जब फारसी राजकाज की मुख्य भाषा बन गयी, तो उर्दू को दूसरी भाषा का दर्जा दिया गया। अब वहां हिन्दी के लिए कोई स्थान नहीं था। उर्दू के नाम वाली भाषा वही थी, लेकिन उसका नाम व लेखनशैली बदल गयी थी। साहित्य रचना में भारतीय शिल्प (छंद आदि) को छोड़कर फारसी शैली तथा विषय वस्तु व कथानक भी अरबी फारसी दुनिया से लिये जाने लगे।

अंग्रेजों के आने के बाद भाषाई अराजकता का एक नया दौर आया। जिन इलाकों में अंग्रेजों का शासन स्थापित हुआ और उन्होंने अपनी शिक्षा पद्धति आरंभ की, वहां अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ने लगा। कलकत्ता, मद्रास व बंबई (मुंबई) अंग्रेजी के केंद्र बने। इनके प्रभाव से एक अंग्रेजी पढ़ा लिखा उच्च मध्य वर्ग विकसित होने लगा। जो इलाके सीधे अंग्रेजों के शासन में नहीं थे, वहां क्षेत्रीय भाषा का वर्चस्व बना रहा, किंतु राजे-रजवाड़ों में अंग्रेजी सीखने की प्रतिस्पर्धा बढ़ी। अंग्रेज शासकों ने इसके लिए प्रोत्साहन भी दिया। जहां अंग्रेजों का सीधा राजनीतिक व प्रशासनिक प्रभाव नहीं था, वहां ईसाई मिशनरियों ने यूरोपीय मजहब के साथ यूरोपीय भाषा के प्रसार का काम भी संभाला। उन्होंने क्षेत्रीय भाषाओं को क्षेत्रीय संस्कृति की पहचान से जोड़ा और उनके भीतर अलग-अलग स्वतंत्र अस्मिता का बीज बोया। इस देश में भाषाई सर्वेक्षण कराकर भाषागत सामाजिक इकाइयां स्थापित की गयीं। ये इकाइयां अपनी इस विशिष्ट पहचान के लिए एक अंग्रेज विद्वानों की अत्यंत शुक्रगुजार थीं। उन्होंने भौगोलिक आधार पर विकसित होने वाली सहज भाषाई भिन्नता व उच्चारण भेद की पहचान न करके उनके भिन्नतापरक विशिष्ट लक्षणों की पहचान पर जोर दिया और यह बताने के बजाए कि देश की विभिन्न भाषाओं में क्या-क्या समानता है, यह बताने पर जोर दिया कि उनमें क्या-क्या भिन्नता है।

जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन के भाषा सर्वेक्षण से हम सब भली भांति परिचित हैं। ग्रियर्सन एक आई.सी.एस. ऑफिसर के तौर पर 1873 बंगाल प्रेसीडेंसी पहुंचे। वह पहले पटना में मजिस्ट्रेट व कलेक्टर के पद पर थे, फिर उन्हें वहां का ‘अफीम एजेंट‘ बना दिया गया। 1898 में जब अंग्रेज सरकार ने भारतीय भाषा सर्वेक्षण विभाग का गठन किया, तो ग्रियर्सन उसके पहले ‘सुपरिटेंडेंट‘ (अधीक्षक) बनाये गये। यह पद ग्रहण करने के बाद वे भारतीय भाषाओं के संदर्भ में यूरोपीय विद्वानों व पुस्तकालयों से संपर्क के लिए इंग्लैंड चले गये। यह वही ग्रियर्सन साहब थे, जो भारत के भक्ति आंदोलन को ईसाई धर्म के प्रभाव से उपजा आंदोलन मानते थे। बाद में उन्होंने यह तो स्वीकार किया कि भारत में भक्ति की भावना ईसाई धर्म से पुरानी है, लेकिन वह इसमें आयी गतिशीलता का श्रेय ईसाई धर्म से हुए भारत के संपर्क को ही देते थे। खैर, आशय यह कि दक्षिण में काल्डवेल जैसे मिशनरी व ग्रियर्सन जैसे भाषाविज्ञानी इस देश की भाषाई व सांस्कृतिक एकता को तोड़ने वाले नये यंत्रों के रूप में काम कर रहे थे। ब्रिटिश शासन काल में चाहे ब्रिटिश शासित इलाके हों या स्वायत्त रियासतें, इन सबका राष्ट्रीय स्तर पर वास्ता केवल अंग्रेजी शासन के अफसरों तक रह गया था। रियासतों या अंग्रेजी शासन के अफसरों तक रह गया था। रियासतों या अंग्रेजी राज के बीच आपस का सामान्य जनों के बीच का संपर्क न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया था। क्योंकि विभिन्न राज्यों रियासतों के बीच व्यापारिक व राजनीतिक संपर्क को सदैव हतोत्साहित किया गया। अंग्रेजों से डरे रजवाड़े स्वयं इससे दूर रहते थे। परिणाम यह हुआ कि आम लोगों के बीच क्षेत्रीय संकीर्णता और बढ़ती ही गयी। अंग्रेजी शासन तो खैर यह चाहता ही था।

यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि राष्ट्रवादी शक्तियां इन विपरीत परिस्थितियों के बीच भी यत्र-तत्र अपनी चेतना का दीप जलाए घटाटोप अंधकार से लड़ने की कोशिश में लगी हुई थी, लेकिन उनके वैयक्तिक प्रयास कोई व्यापक प्रभाव नहीं डाल पा रहे थे। लगातार विखंडन का शिकार भारतीय देश व समाज इतने टुकड़ों में बंट चुका था और क्षेत्रीयता के अहंकार में ऐसे दृष्टिबंध का शिकार हो गया था कि उसे राष्ट्रीयता की बात ही निरर्थक लगने लगी थी। ऐसे में दयानंद सरस्वती जैसे व्यक्ति सामने आए, जिन्होंने आर्यसमाज की स्थापना की। दयानंद शायद पहले ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्होंने विखंडित भारतीय समाज के एकीकरण का अभियान शुरू किया और उन्होंने इसके लिए जनभाषा हिन्दी और प्राचीनतम भारतीय ग्रंथ वेद को आधार बनाया। उनके अनुयायी और कनिष्ठ समकालीन स्वामी श्रद्धानंद ने पहली बार मैकाले की शिक्षा पद्धति को चुनौती देने का संकल्प लिया और हरिद्वार के गंगातट पर स्थित कांगड़ी गांव में संस्कृत व हिन्दी माध्यम से उच्च शिक्षा देने के लिए एक ‘गुरुकुल‘ की स्थापना की। लेकिन अपने इस तरह के नवजागरण अभियान के लिए दोनों को अपनी जान गंवानी पड़ी। दोनों हत्या के षड्यंत्र के शिकार हुए। आर्य समाज का यह प्रभाव उत्तर भारत तक ही सीमित रह गया। यद्यपि आज आर्य समाज की शाखाएं पूरी दुनिया में फैली हुई हैं और दक्षिण भारत में निजामशाही के अत्याचारों के खिलाफ आर्यवीरों ने अद्भुत संघर्षशीलता तथा बलिदानी भावना का प्रदर्शन किया, लेकिन वह दक्षिण पर अपना सांस्कृतिक व भाषाई प्रभाव नहीं डाल सके। राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक व राजनीतिक एकता के लिए हिन्दी को माध्यम बनाने का अगला अभियान महात्मा गांधी ने शुरू किया, जिन्होंने 1918 में मद्रास में दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की नींव डाली। लेकिन वह भी हिन्दू-उर्दू के मसले में उलझ कर रह गये। उनके पूरे जीवनकाल में यह तय नहीं हो पाया कि हिन्दी का स्वरूप क्या हो। गांधीजी हिन्दी के बोलचाल के स्वरूप हिन्दुस्तानी के समर्थक थे।उनके सामने भाषा के स्तर पर असली समस्या हिन्दू-मुस्लिम एकीकरण की थी। यद्यपि मुसलमान अपनी भाषा उर्दू घोषित कर चुका था और वह देश की राजभाषा भी उर्दू ही चाहता था। अंग्रेजों ने तथाकथित हिन्दी क्षेत्रों में उसे यह दर्जा दे भी रखा था। इस भाषा का स्वरूप तय ना हो पाने के कारण हिन्दी के नाम पर भी कांग्रेस दो भागों में विभाजित हो गयी थी। नेहरू और अबुल कलाम आजाद अरब फारसी बहुल हिन्दुस्तानी के पक्षधर थे, तो पुरुषोत्तमदास टंडन, सेठ गोविंददास, प्रकाशवीर शास्त्री आदि संस्कृत प्रधान हिन्दी के। इस लड़ाई में बड़ी मुश्किल से संविधान सभा में यह तय हो पाया था कि देश की एक राजभाषा हिन्दी होगी, जो नागरी लिपि में लिखी जाएगी, किंतु दक्षिण के तमिलनाडु जैसे राज्य को यह हिन्दी भी स्वीकार नहीं थी। स्वीकार तो यह अबुल कलाम आजाद को भी नहीं थी (वह उर्दू के समर्थक थे), लेकिन उन्होंने इस मसले पर चुप रहना ही श्रेयस्कर समझा था।

वास्तव में उर्दू-हिन्दी का मुद्दा उनकी मजहबी पहचान से जुड़ गया था। विडंबना यही थी कि उर्दू जहां मुसलमानों की भाषा के रूप में स्वीकृत हो चुकी थी और अपवादों को छोड़कर देश का प्रायः पूरा मुस्लिम समुदाय उर्दू के पक्ष में खड़ा था, वहां हिन्दी हिन्दुओं की भाषा कही जाने के बावजूद पूरा तथाकथित हिन्दू समाज इसे अपनी भाषा मानने के लिए तैयार नहीं हुआ और न कभी सामूहिक रूप से उसके पक्ष में खड़ा हुआ। तथाकथित हिन्दुओं की तो यहां 22 प्रमुख भाषाएं हैं (ग्रियर्सन ने उनकी 364 भाषाओं और बोलियों की पहचान की थी)। हिन्दी तो केवल उत्तर भारत में कुछ ‘रेडिकल‘ हिन्दुओं की भाषा है, जिन्होंने पहली बार 1867 में अंग्रेज बहादुर की सरकार के समक्ष अपील की थी कि सरकारी राजकाज की भाषा की ‘परसो-अरबिक‘ लिपि हटाकर उसे देवनागरी किया जाए तथा हिन्दी को द्वितीय राजकीय भाषा का दर्जा दिया जाए। मुस्लिम राजनेता सर सैयद अहमद खां ने इस बदलाव की मांग के खिलाफ बड़ी सख्त आवाज उठाई। वह उर्दू को मुसलमानों की ‘लिगुआफै्रंका‘ (आम व्यवहार की भाषा) मानते थे। चूंकि इसे भारत के मुस्लिम शासकों ने ईजाद किया था, इसलिए मुगल दरबार में यह फारसी के बाद दूसरी राजभाषा के रूप में स्वीकृत थी। मुगल वंश की समाप्ति के बाद सर सैयद अहमद खां चाहते थे कि ब्रिटिश शासन में भी उर्दू का यह दर्जा बना रहे।

सर सैयद अहमद खां को अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर द्वितीय ने ‘जवादुद्दौला‘ के खिताब से नवाजा था। यह खिताब शाह आलम द्वितीय ने सैयद अहमद खां के बाबा (पितामह) को 18वीं शती के मध्य में कभी अता किया था। तीसरी पीढ़ी में यह खिताब फिर अहमद खां को दिया गया। इसके साथ बहादुरशाह ने उन्हें ‘आरिफ जंग‘ की उपाधि से भी अलंकृत किया।

लेकिन समय के पारखी अहमद खां ने बहादुर शाह जफर के एहसानों की कोई कीमत नहीं दी और 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम में (जिसके नेता बहादुर शाह जफर ही थे) उन्होंने अंग्रेजों का साथ दिया और उनकी मदद की, जिसके कारण ‘सर‘ की उपाधि सहित उन्हें शायद सारे उच्चतर ब्रिटिश सम्मान तथा मेडल हासिल हुए। सर सैयद उर्दू को ही सभ्यजनों की भाषा मानते थे और हिंदी को गंवारू (वल्गर) भाषा का दर्जा देते थे।

देश ही वर्तमान भाषाई स्थिति सबको पता है। तमिलनाडु के लोग अगर हिन्दी का विरोध करते हैं, तो इसलिए कि इसे वह उत्तर के आधिपत्य का प्रतीक मानते हैं, लेकिन यह उत्तर की भाषा है, इसे बार-बार रेखांकित करने का काम जाने अनजाने उत्तर भारत के राजनेताओं व लेखकों-विद्वानों ने ही किया है। एक तरफ तो हिन्दी पर हिन्दू का मजहबी रंग चढ़ा दिया गया है, दूसरी तरफ इसको क्षेत्र विशेष से जोड़ दिया गया है। इन दोनों लक्षणों ने इसे संकीर्ण बना दिया है और इसकी राष्ट्रीय पहचान छीन ली है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इसकी विसंगतियां और बढ़ गयी है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व राष्ट्रभाषा का मुद्दा हिन्दू व मुस्लिम के बीच झूल रहा था, तो उसके बाद यह तमाम क्षेत्रीय भाषाओं के जंगल में उलझ गयी है। संविधान में इसे राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया जा सका और उसकी आठवीं अनुसूची में तमाम क्षेत्रीय प्राकृत भाषाओं के बीच इसे भी डाल दिया गया है।

वास्तव में इस देश की जो राष्ट्रभाषा (राष्ट्रीय जन संपर्क की भाषा) है, वह वस्तुतः संस्कृत और अपभ्रंश की उत्तराधिकारिणी है। लेकिन न तो इसे इस तरह की पहचान ही मिल सकी और न इसका इस तरह का रूप ही विकसित हो सका। वास्तव में इस देश से यह गलतफहमी दूर होनी चाहिए कि हिन्दी किसी क्षेत्र या मजहब की भाषा है। हमारी विडंबना तो यह है कि हमारी प्राचीन भाषा संस्कृत भी उसी तरह हिन्दू मजहब की या आर्य नस्ल की भाषा घोषित कर दी गयी है, जिस तरह अरबी इस्लामी मजहब और अरब जाति की भाषा मानी जाती है। न संस्कृत किसी जाति, क्षेत्र या मजहब की भाषा थी, न अपभ्रंश और न उसकी उत्तराधिकारिणी हिन्दी। इसे उत्तर भारत की कुछ भाषाओं का समूह भी नहीं कहा जाना चाहिए। इस सामूहिकता की अवधारणा से उत्तर भारत की अपनी क्षेत्रीय भाषाओं का बहुत नुकसान हुआ है।

हम जानते हैं कि कालचक्र को पीछे नहीं ले जाया जा सकता है। जो टूट चुका है या लुप्त हो चुका है, उसे वापस भी हासिल नहीं किया जा सकता, लेकन देश और समय की आवश्यकताओं को देखते हुए अपनी भ्रामक और जड़ अवधारणाएं तो बदली जा सकती हैं। आज दुनिया का न कोई देश एक भाषिक हो सकता है न कोई राज्य। अपने देश में एक भाषा पर आधारित राज्य तो बन गये, लेकिन उस एक भाषा में उस राज्य का काम नहीं चलपा रहा है, इसलिए प्रायः हर राज्य ने विकल्पतः अंग्रेजी को अपना लिया है। और यह विकल्प उन सारे राज्यों की अपनी भाषाओं को निगले जा रहा है। यहां इस समस्या का कोई बना बनाया समाधान नहीं परोसा जा सकता। यदि कुछ पेश किया जा सकता है, तो केवल एक निवेदन कि भारत देश के सभी निवासी अपनी संकीर्ण क्षेत्रीयताओं से बाहर निकलें और अपनी पहचान अपने देश के साथ करना शुरू करें। मातृ भाषा केवल जन्म देने वाली मां की बोली-भाषा का नाम नहीं, बल्कि मातृ भूमि व मातृ संस्कृति की भाषा का भी नाम है। और खासकर तब जब हम एक प्राचीन देश की गौरवमई संस्कृति के उत्तराधिकारी होने की बात करते हैं, तब तो यह और भी जरूरी हो जाता है कि हम उस सांस्कृतिक परंपरा का प्रतिनिधित्व करने वाली भाषा को अपनी मातृभाषा का दर्जा प्रदान करें। (समाप्त)

बुधवार, 14 सितंबर 2011

ये हिंदी किस ‘भाषा' का नाम है ?-2

महाराजा कृष्णदेव राय के राज्य काल के अभिलेख और सिक्के:
 देवनागरी का पूरे दक्षिण भारत में (श्रीलंका तक) प्रचलन का मात्र पांच सौ वर्ष पूर्व का प्रमाण।

 
इस देश में अनेक भाषाएं और लिपियां हजारों साल से विद्यमान हैं। किंतु फारसी और अंग्रेजी के आने के पहले यहां कोई भाषा या लिपि का झगड़ा नहीं था। पूरे विशाल भौगोलिक भारत क्षेत्र में व्यापक संपर्क के लिए यहां की तमाम प्राकृत भाषाओं में से एक सर्वस्वीकार्य संस्कृत भाषा का विकास कर लिया गया था और उसी तरह देश भर में प्रचलित लिपियों (ब्राह्मी लिपि की ही संततियों) के बीच से एक बेहतर लिपि ‘नागरी‘ तैयार कर ली गयी थी। ‘नागरी‘ और क्षेत्रीय लिपियों का उसी तरह समानांतर उपयोग होता था, जिस तरह प्राकृत, संस्कृत और उनके परस्पर संपर्क-संघर्षण् से पनपी जनभाषाओं का।

भारत में काम करने के लिए नये नियुक्त अंग्रेज अफसरों को भारत के बारे में जानकारी देने तथा भारतीय भाषा सिखाने के लिए कलकत्ता में 10 जुलाई 1800 को फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना हुई। इसे फोर्ट विलियम नाम इसलिए दिया गया कि इसकी स्थापना ‘फोर्ट विलियम‘ (विलियम भवन) के परिसर में की गयी थी। ‘ब्रिटिश इंडिया‘ के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेजली ने इसकी स्थापना की थी। ‘ईस्ट इंडिया कंपनी‘ के भारत में जम जाने के बाद अंग्रेजों ने 1701 में कलकत्ता में एक किला बनवाना शुरू किया था। इसे इंग्लैंड के राजा विलियम तृतीय के नाम पर ‘फोर्ट विलियम‘ की संज्ञा दी गयी थी। 1756 में बंगाल के नवाब शिराजुद्दौला ने इस पर हमला करके अपने कब्जे में ले लिया और इस परिवार का नाम अलीनगर रख दिया, लेकिन अंग्रेज चुप नहीं बैठे। उन्होंने नई फौज इकट्ठी करके नवाब पर हमला कर दिया और 1757 में पलासी की लड़ाई में नवाब को हराकर बंगाल पर अपना कब्जा जमा लिया। इसके बाद 1758 में विलियम के नाम पर ही नया किला बनना शुरू हुआ, जो अब तक विद्यमान है। इसी नये किले के परिसर में उपर्युक्त कॉलेज की स्थापना हुई। इसके पहले कलकत्ता में दो महत्वपूर्ण शैक्षिक संस्थान स्थापित हो चुके थे। एक तो ‘कलकत्ता मदरसा‘ जो 1781 में स्थापित हुआ और दूसरा ‘एशियाटिक सोसायटी‘ जो 1784 में स्थापित हुई। इस फोर्ट विलियम कॉलेज में भारतीय भाषा विभाग के इंचार्ज जॉन बोर्थविक गिलक्रिस्ट थे। यह कॉलेज यद्यपि थोड़े ही दिन चला, क्योंकि लंदन में बैठे अंग्रेज अफसर यह नहीं चाहते थे कि यह कॉलेज यहॉं भारत की जमीन पर चले। इसलिए 1807 में इंग्लैंड के हेलीबरी शहर में ‘ईस्ट इंडिया कंपनी कॉलेज‘ की स्थापना की गयी। फिर भी कलकत्ता का यह कॉलेज किसी तरह 1854 तक चलता रहा। इस बीच इसने भाषा का विधिवत मजहबीकरण कर दिया था। ‘हिन्दी‘ हिन्दुओं की भाषा तो नहीं बन सकी, लेकिन उर्दू ‘यामनी‘ भाषा बन चुकी थी। उर्दू को ‘यामनी‘ भाषा घोषित करने का पहला श्रेय लल्लू लाल को जाता हे, जो फोर्ट विलियम कॉलेज में नौकर थे। अपने ग्रंथ ‘प्रेम सागर‘ की भाषा के बारे में लिखा- ‘सो पाठशाला के लिए महाराजाधिराज सकल गुण निधान पुण्यवान महाजान मारकुइस बलजलि गवर्नर जनरल प्रतापी के राज में श्रीयुत गुननाह के गुनियन सुखदायक जान गिलकिरिस्त की आज्ञा से संवत 1860 में लल्लू जी लाल कवि आगरे वाले ने जिसका सार ले ‘यामिनी‘ भाषा छोड़ दिल्ली आगरे के खड़ी बोली में कर नाम ‘प्रेम सागर‘ धरा।‘

भारत में अंग्रेजी शिक्षा की नई नीति 1835 में लागू हुई। लॉर्ड विलियम बेंटिक ने इसे लागू किया। इसके पूर्व भारतीयों को अंग्रेजी शिक्षा देने के लिए प्रेसीडेंसी कॉलेज की स्थापना हो चुकी थी। 20 जनवरी 1817 को कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज की शुरुआत हुई, जिसकी फाउंडेशन कमेटी में राजाराम मोहन राय भी शामिल थे। राजा साहब भारतीयों को अंग्रेजी में अंग्रेजी शिक्षा देने के प्रबल पक्षधर थे। इस शिक्षा नीति के मूल निर्माता थे ब्रिटिश सांसद थॉमस बैबिंगटन मैकाले। मैकाले 1830 में 30 वर्ष की आयु में सुधरवादी ‘ह्विग पार्टी‘ से चुनाव लड़कर ब्रिटिश संसद (हाउस ऑफ कॉमंस) में पहुंचे थे। संयोगवश इसके 4 वर्ष बाद ही वह भारत में ब्रिटिश शासन पर नियंत्रण के लिए गठित की गयी सर्वोच्च प्रशासनिक परिषद (सुप्रीम कौंसिल ऑफ इंडिया) के संस्थापक सदस्यों में शामिल कर लिये गये। इसके बाद के 4 वर्ष मैकाले ने भारत में बिताए। यहां उन्होंने अपना पूरा समय भारतीय उपनिवेश के लिए तैयार फौजदारी कानून (क्रिमिनल कोड ऑफ द कॉलोनी) में संशोधन करने तथा ब्रिटिश मॉडल पर आधारित एक शिक्षा प्रणाली कायम करने पर लगाया। उन्होंने लगभग पूरे देश का दौरा किया और भारत की सामाजिक व सांस्कृतिक स्थिति को समझने की कोशिश की और फिर अपनी भाषा और शिक्षण नीति निर्धारित की। उनका लक्ष्य भारत में अंग्रेजी उपनिवेश को स्थायित्व प्रदान करना था, इसलिए उन्होंने उसे ही ध्यान में रखकर अपना शिक्षा विधान तय किया। भारत में नई शिक्षा नीति लागू किये जाने के ठीक पहले ब्रिटिश संसद में दिया गया उनका भाषण बहुत महत्वपूर्ण है। उनके भाषण का सार था- ‘मैंने भारत के आर-पार यात्राएं की हैं, लेकिन हमने एक भी ऐसा आदमी नहीं देखा, जो भिखारी या चोर हो। इस देश में मैंने ऐसी समृद्धि देखी, ऐसा उंचा नैतिक मूल्य देखा, लोगों में ऐसी अद्भुत क्षमता देखी कि मुझे नहीं लगता कि यदि हम इसकी रीढ़ नहीं तोड़ सकते, जो इसकी संस्कृति और आध्यात्मिक परंपरा में निहित है, तो हम इस पर कभी विजय प्राप्त नहीं कर सकेंगे, इसलिए मेरा प्रस्ताव है कि हम उसकी प्राचीन शिक्षण प्रणाली और संस्कृति बदल दें, क्योंकि यदि भारतीय यह समझने लगें कि जो कुछ विदेशी है, अंग्रेजी है, वह अच्छा हे और उनकी अपनी संपदा से बेहतर है, तो वे फिर अपनी आत्मशक्ति अपनी देशी संस्कृति खो देंगे और तभी वे वह बन सकेंगे, जो हम चाहते हैं, यानी हमारे गुलाम‘ (आई हैव ट्रैवेल्ड एक्रास द लैंड एंड ब्रेथ ऑफ इंडिया एंड आइ्र हैव नाट सीन वन पर्सन हू इज बेगर, हू इज थीफ। सच वेल्थ आई हैव सीन इन दिस कंट्री, सच हाई मोरल वैल्यूज, पीपुल ऑफ सच कैलिबर दैट आई डोंट थिंक वी वुड एवर कांकेर दिस कंट्री, अनलेस वी ब्रेक द वेरी बैकबोन ऑफ दिस नेशन, व्हिच इज हर स्पिरिचुअल एंड कल्चरल हेरीटेज, एंड दियर फोर, आई प्रोपोज दैट वी रिप्लेस हर ओल्ड एंड एंशियंट एजुकेशन सिस्टम, हर कल्चर, फॉर इफ द इंडियंस थिंक दैट ऑल दैट इज फॉरेन एंड इंग्लिश इज गुड एंड ग्रेटर देन दियर ओन, दे विल लूज दियर सेल्फ एस्टीम, दियर नेटिव सेल्फ कल्चर एंड दे विल बिकम हवाट वी वांट देम, ए ट्रुली डॉमिनिटेड नेशन)। यह अंश प्रसिद्ध शिक्षाविद विनय राय की पुस्तक ‘रिथिंकिंग इंडिया‘ से उद्धृत किया गया है। भगिनी निवेदिता ने भी अपने एक व्याख्यान में मैकाले का एक कथन उद्धृत किया थ, ‘इस समय हमें पूरी शक्ति लगाकर भारतीयों का एक ऐसा वर्ग विकसित करना चाहिए, जो खून और रंग से तो भारतीय हो, किंतु अपनी रुचियों, विचारों, नैतिकता और सोच में अंग्रेज।‘ (वी मस्ट ऐट प्रेजंट डू आवर बेस्ट टू फार्म ए क्लास ऑफ पर्संस इंडियन इन ब्लड एंड कलर बट इंग्लिश इन टेस्ट्स, इन ओपिनियन, इन मॉरल्स एंड इन इंटेलेक्ट‘)।

मैकाले के इस विचार को ब्रिटिश संसद का पूर्ण समर्थन मिला। मैकाले जो चाहते थे, वह सब उन्हें उपलब्ध कराया गया। उन्होंने पूरी सतर्कता और सावधानी के साथ न केवल अंग्रेजी शैली की शिक्षा प्रणाली का भारत में आयात किया, बल्कि उन्होंने अंग्रेजी भाषा को भी शिक्षा का एकमात्र माध्यम बना दिया। पश्चिम में विकसित आधुनिक ज्ञान विज्ञान की शिक्षा भारतीय शिक्षा के माध्यम से भी दी जा सकती थी, किंतु उससे ब्रिटिश उपनिवेशवाद का वह लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकता था, जिसकी कल्पना मैकाले व अन्य ब्रिटिश राजनेताओं ने की थी। मैकाले को पूरी आशा थी कि इस तरह भारत में एक नये अंग्रेजी शिक्षित और अंग्रेजी बोलने वाले कुलीन वर्ग का जन्म होगा, जो धीरे-धीरे समाज के निचले वर्ग तक पहुंच जायेगा। क्योंकि निचला वर्ग प्रतिस्पर्धा में आगे आने के लिए इस कुलीन वर्ग का अनुकरण करेगा।

भारत में यह नई शिक्षा नीति लागू हो जाने से मैकाले गद्गद था। वह भविष्य की कल्पना से आह्लादित था। आज हम कह सकते हैं कि उसका आह्लाद बिल्कुल जायज था। उसने असाधारण बीज का वपन किया था, जो आकाशबेलि की तरह आज पूरे देश पर छा चुका है। 12 अक्टूबर 1836 को मैकाले ने इंग्लैंड में स्थित अपने पिता को भेजे गये पत्र में लिखा था, ‘यद्यपि हम सभी लोगों तक यह शिक्षा नहीं पहुंचा पा रहे हैं, फिर भी हमारे अंग्रेजी स्कूल आश्चर्यजनक ढंग से पुष्पित-पल्लवित हो रहे हैं। हिन्दुओं पर इस शिक्षा का प्रभाव असाधारण है। जो भी हिन्दू यह अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कर ले रहा है, वह कभी निष्ठा से अपने धर्म के साथ नहीं जुड़ा रह सकेगा। यह मेरा पक्का विश्वास है कि यदि हमारी शिक्षा योजना को जारी रखा गया, तो अगले 30 वर्षों में इस देश के सम्मानित वर्ग में एक भी मूर्तिपूजक नहीं रह जायेगा। और यह सब बिना हमारी किसी... कोशिश के हो जायेगा। मैं इस संभावना की कल्पना से ही हार्दिक आनंद का अनुभव कर रहा हूॅं‘ (आवर इंग्लिश स्कूल आर फ्लोरिंग वंडरफुली, वी फाइंड इट डिफीकल्ट टु प्रोवाइड इंस्ट्रक्शन टु ऑल। द इफेक्ट ऑफ दिस एजुकेशन ऑन हिन्दूज इज प्रोडिजियस। नो हिन्दू हू हैज रिसीव्ड इन इंग्लिश एजुकेशन एवर रिमेंस सिंसियरली अटैच्ड टु हिज रिलीजन। इट इज माई फर्म बिलीफ दैट इफ आवर प्लान्स ऑफ एजुकेशन आर फालोड अप दियर विल नाट बी ए सिंगल आइडोलेटर एमंग द रेसपेक्टेड क्लासेस 30 इयर्स हेंस। एंड दिस विल बी एफेक्टेड विदआउट अवर एफटर््स टु प्रॉसिलिटाइज, आई हर्टली रिजॉइस इन द प्रास्पेक्ट)। अब इससे अंदाज लगाया जा सकता है कि किस तरह अंग्रेजी शिक्षा को गुलामी का हथियार बनाया गया।

यहां यह उल्लेखनीय है कि फोर्ट विलियम कॉलेज ने हिंदी में कुछ किताबें जरूर तैयार करायी, लेकिन इसने शिक्षा के माध्यम के तौर पर हिन्दी को कोई प्रोत्साहन नहीं दिया। वस्तुतः अंग्रेजों ने पर्सियन और उर्दू को तो प्रोत्साहन दिया, लेकिन हिंदी या किसी अन्य भरतीय भाषा को नहीं। भारतीय पंडित वर्ग संस्कृतवादी था। वह चाहता था कि पारंपरिक संस्कृत व्याकरण, दर्शन, साहित्य, ज्योतिष आदि के पठन-पाठन का विस्तार हो और उसे अंग्रेजी सहायता उपलब्ध करायी जाए। लेकिन समय की सच्चाई यह थी कि संस्कृत की पारंपरिक शिक्षा किसी काम की नहीं थी। उससे नौकरी नहीं मिल सकती थी। नई पीढ़ी में इस संस्कृत को पढ़ने में समय गंवाने वालों की संख्या बहुत कम थी। उर्दू चूंकि नवविकसित हिंदी ही थी, इसलिए उसमें नये जमाने की शिक्षा संभव दिख रही थी। संस्कृत में नहीं। हिंदी को शिक्षा का माध्यम बनाने में न पंडितों को कोई रुचि थी न अंग्रेजों को। इसलिए शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ चला। हिन्दी को शिक्षा में शामिल करने का पहला अभियान आर्य समाज ने चलाया, लेकिन वह भी प्रतीकात्मक ही रहा। एक विषय के रूप में तो वहां हिन्दी आ गयी, लेकिन अंग्रेजी माध्यम अंग्रेजी ही बनी रही। स्वामी श्रद्धानंद ने गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना करके मैकाले पद्धति को जवाब देने का प्रयास अवश्य किया, लेकिन वह एक अकेले अपवाद से अधिक कुछ न बन सका।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि जिस समय देश में मैकाले की नई अंग्रेजी शिक्षा नीति लागू हुई, लगभग उसी समय दक्षिण में एक मिशनरी का पदार्पण हुआ, जिसका नाम राबर्ट काल्डवेल था। 1814 में जन्में काल्डवेल 24 वर्ष की आयु में तमिलनाडु पहुंचे। वह इवेंजलिस्ट मिशनरी (जिनका मुख्य लक्ष्य धर्मांतरण था/ भाषा विज्ञान में भी रुचि रखता था। 1838 में वह त्रावणकोर स्थित प्रसिद्ध मिशनरी रेवरेंड चार्ल्स माल्ट (1791-1858) के पास पहुंचा। उसने यहां निम्न जातियों के धर्मांतरण का काम तेजी से चलाया। अपने काम की सफलता के लिए उसे ‘लूथेरेयिम मिशनरीज‘ का तरीका अपनाया। इस मिशनरी के लोगों ने जब जर्मनी की स्थानीय भाषाओं का अध्ययन करके जनसाधारण के बीच अपना स्थान बनाने की कोशिश की। काल्डवेल ने श्रम पूर्वक तमिल भाषा का अध्ययन किया। उसने ताड़पत्रों में लिखित साहित्य तथा संगम साहित्य का अध्ययन किया। उसने कइ्र पुरातात्विक उत्खनन भी कराये।

उसने पहली बार दक्षिण भारत की भाषाओं को एक अलग भाषा परिवार घोषित किया। ‘द्रविड़ियन लैंग्वेज‘- इस शब्द को पहली बार काल्डवेल ने प्रचलित किया। काल्डवेल की इस अनूठी शोध के पहले दक्षिण भारत की भाषाएं भी संस्कृत व अन्य भारतीय भाषाओं से संबंद्ध मानी जाती थीं। दक्षिण की प्राकृत भाषाएं निश्चय ही उत्तर की प्राकृत भाषाओं से भिन्न थीं, लेकिन हिमालय से समुद्र पर्यंत पूरे क्षेत्र के लिए विद्वानों की संपर्क भाषा से प्रयुक्त संस्कृत से दक्षिण की ये भाषाएं भी समान रूप से प्रभावित थीं। दक्षिण् के पांड्य, चोल आदि राजाओं के दरबार में तथा राज्य क्षेत्र में क्षेत्रीय प्राकृत भाषा के साथ संस्कृत भी समादृत थी। पर्यटनशील सामान्य जन संस्कृत के अपभ्रंश मिली क्षेत्रीय भाषा का इस्तेमाल करते थे।

राबर्ट काल्डवेल तमिलों के बीच एक सम्मानित नाम है, क्योंकि उसने तमिलों को एक स्वतंत्र सांस्कृतिक भाषाई तथा जातीय पहचान दी। लेकिन वास्तव में उसका लक्ष्य था दक्षिण की निम्न जातियों तथा कम पढ़े-लिखे पिछड़े लोगों को संस्कृतवादी उंची जाति वालों के खिलाफ खड़ा करना और उन्हें ईसाई मत में दीक्षित करना। दक्षिण भारत, विशेषकर तमिलनाडु में गैरब्राह्मणवादी आंदोलन के ‘रेडिकलाइजेशन‘ का श्रेय काल्डवेल को ही जाता है। मजहबी विस्तार का लक्ष्य पाने के लिए जो पृथकतावादी सिद्धांत गढ़ा, उससे देश आज तक आक्रांत है। अंग्रेज शासकों को इससे दक्षिण में भी अंग्रेजी विस्तार को और मदद मिली।

यह तो मात्र एक उदाहरण है। ईसाई मिशनरियों का जाल तो पूरे देश में फैल चुका था। देश के जो हिस्से सीधे अंग्रेजों के आधिपत्य में नहीं थे, वहां भी मिशनरियों ने अपना झंडा गाड़ रखा था। इन्होंने देश की सांस्कृतिक एकता को तोड़ने और क्षेत्रवाद को विकसित करने में अद्भुत भूमिका निभायी।

यहां हमें नहीं भूलना चाहिए कि राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय संपर्क की माध्यम भाषा के रूप में भी सदैव दो भाषाएं समानांतर चलती रहती हैं। एक विद्वानों, पढ़े-लिखे लोगों का उच्च स्तरीय कुलीन लोगों की भाषा और दूसरी वह जनभाषा जो मजदूरों, सैनिकों, व्यापारियों, साधुओं व घुमक्कड़ों द्वारा इस्तेमाल की जाती हैं। इतिहास में रुचि रखने वाले जानते हैं कि भारत का अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक संबंध सिंधु सभ्यता काल में ही स्थापित हो चुका था। समुद्री और थल मार्ग दोनों का इस्तेमाल होता था। समय के साथ यह व्यापार और विस्तृत तथा सघन होता गया था। अशोक के काल में श्रावस्ती से चलने वाले व्यापारिक कारवां लंका तक जाते थे। ऐसे ही कारवां के साथ अशोक ने अपनी पुत्री संघमित्रा और बेटे राहुल को श्रीलंका भेजा था। भारत के समुद्री व्यापारी अरब और यूरोपीय से लेकर दक्षिण पूर्व एशियायी देशों में वियतनाम और कम्बोड़िया तक जाते थे। चीन से लेकर अरब और यूनान तक यही तो उस जमाने का पूरा संसार था। अमेरिका का तो पता ही नहीं था। यूरोप अंधकार में डूबा बर्बर जातियों का इलाका था। अफ्रीका के भीतरी इलाकों का ठीक-ठीक पता तो अठारहवीं शताब्दी तक नहीं था। कैस्पियन सागर से लेकर जावा, सुमात्रा, बोर्निया, कंबोड़िया, वियतनाम तक मिलने वाले संस्कृत के अभिलेख इस बात के प्रमाण हैं कि भारतीय व्यापारियों, दार्शनिकों, पंडितों की दौड़ कहां तक थी। लेकिन यह संस्कृत तो केवल बड़े व्यापारियों, पंडितों व कुलीनों की भाषा रही होगी, जिनके अभिलेख मिल रहे हैं, लेकिन इनके साथ बहुत से सामान्य जन भी तो इन व्यापारिक समुद्री यात्राओं में आते-जाते रहे होंगे। उनकी भी कोई परस्पर संपर्क की भाषा रही होगी। उनका कोई उदाहरण हमारे पास नहीं है, किंतु उनका अनुमान तो लगा ही सकते हैं कि वह विविध प्राकृतों तथा संस्कृत के अपभ्रंशों की खिचड़ी रही होगी। राष्ट्रीय जनभाषा का वही रूप रहा होगा।

हम जानते हैं कि ईसा काल के पहले ही शकों ने उत्तर भारत में खासकर मथुरा के आस-पास अपना आधिपत्य जमा लिया था। महाभारत के उत्तर काल की उस क्षेत्र की आभीर जातीयों ने उनकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। शकों ने जब दक्षिण में पैर बढ़ाया, तो उनके साथ ये आभीर भी दक्षिण पहुंचे। आभीर एक बहादुर लड़ाकू जाती थी, जो शकों की सेना में उच्च पदों पर आसीन थी। इस आभीर जाति के बहुत से ताकतवर सेना नायकों ने शकों से अलग होकर दक्षिण में अपनी छोटी-छोटी रियासतें कायम की। ईसा की तीसरी शताब्दी तक वे तमिलनाडु तक पहुंच गये। मदुरै शायद उनके द्वारा स्थापित शहर है। उन्होंने मथुरा की कृष्ण भक्ति को वहां तक पहुंचाया। इसके बाद खिलजियों, तुगलकों और मुगलों की सेनाओं तक ने दक्षिण में धावा मारा। जैनों और बौद्धाों के काफिले भी दक्षिण तक पहुंचे। दक्षिण के दार्शनिकों, कवियों व संतों ने उत्तर की यात्राएं की। ईसा की पहली सहस्राब्दी में तो ऐसा लगता है कि दक्षिण-उत्तर का परस्पर मंथन हो गया था। तो क्या यह बिना किसी भाषाई आदान-प्रदान के ही संभव हो गया रहा होगा।

मेरा यहां कहने का आशय केवल यह है कि फारसी और अंग्रेजी के इस देश में कहने का आशय केवल यह है कि फारसी और अंग्रेजी के इस देश में आने के पूर्व संस्कृत के समानांतर एक जनभाषा भी देश में विद्यमान थी, जो सामान्य जनों के स्तर पर राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय संपर्क की भाषा थी। इसकी पहचान जाने अनजाने भाषाई राजनीति के चक्कर में लुप्त हो गयी। हम जानते हैं कि प्रारंभ में मुस्लिम आगंतुकों ने इस जनसंपर्क की आम भाषा को ही अपनी भाषा के रूप में अपनाया और उसे हिन्दी कहा। उन्होंने लिपि के तौर पर नागरी को अस्वीकार नहीं किया । मुहम्मद गौरी के सिक्कों पर देवनागरी का प्रयोग हुआ हे। संतों-सूफियों की भाषा यही हिंदी थी। अगबर सवयं देवनागरी हिन्दी में लिखता था। डॉ. जान मार्शल (1668-1772) ने आलम मीर औरंगजेब के शासन में नागरी भाषा के विषय में जो कुछ सुना, उसे लिखा भी। आचार्य चंद्रबली पांडेय ने ‘राष्ट्रभाषा पर विचार‘ शीर्षक अपनी पुस्तक में मुगलकाल में हिन्दी के प्रयोग पर विस्तार से चर्चा की है। मराठा शासन में राजभाषा के रूप में हिन्दी का प्रयोग आम था। पुणे और बीकानेर के अभिलेखागारों में ऐसे सैकड़ों पत्र हैं। हैदरअली और टीपू सुल्तान यह भाषा अपने समय में केरल तक ले गये। सिकंदर लोदी के शासनकाल में राज्य का हिसाब-किताब हिन्दी में ही होता था। शेरशाह सूरी के सिक्कों पर नागरी और फारसी दोनों लिपियों का इस्तेमाल हुआ है।

राबर्ट काल्डवेल के पूर्व दक्षिण में भी कोई भाषाई या लिपि द्वेष के लिए स्थान नहीं था। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि जिस तरह देशव्यापी उच्च स्तरीय व्यवहार के लिए देश भ्र की प्राकृतों के बीच से संस्कृत भाषा का विकास किया गया थ, उसी तरह देश भ्र में प्रचलित लिपियों में से एक नागरी लिपि का चयन या विकास किया गया था। इस देश की सारी लिपियां ब्राह्मी से विकसित हैं। उनकी लेखनशैली भिन्न हो सकती हैं, किंतु उनकी वर्णमाला एक ही है। किसी में कुछ वर्ण अधिक हैं, किसी में कुछ कम। इसलिए जिस तरह देश भर में विभिन्न क्षेत्रों की क्षेत्रीय (प्राकृत) भाषाओं और उसका जनभाषा रूप प्रचलन में था, उसी तरह क्षेत्रीय लिपियों के समानांतर नागरी लिपि भी व्याप्त थी। संस्कृत क्षेत्रीय लिपियों में भी लिखी जाती थी और नागरी में भी ।

दक्षिण के हों या उत्तर के, जिस राजा का भी राज्य विस्तार में बड़ा था (जिसके अंतर्गत कई क्षेत्रीय भाषाएं आ जाती थीं) उसने राजकाज में संस्कृत भाषा व नागरी लिपि को प्रमुखता दी। इसका सबसे प्रामाणिक उदाहरण दक्षिण में कृष्णदेव राय के शासनकाल में देख जा सकता है। आज के भाषाई व लिपि की संकीर्णता में उलझे लोगों को कृष्णदेव राय से शिक्षा लेनी चाहिए। कृष्णदेव राय का शासन वर्तमान भारत में पूर्व में उड़ीसा व पश्चिम में गोवा से लेकर दक्षिण में श्रीलंका तक व्याप्त था। कृष्णदेव राय स्वयं कन्नड़ दोनों के विद्वान थे। लेकिन उनके साम्राज्य में नागरी लिपि और संस्कृत भाषा को प्रथम स्थान प्राप्त था, क्योंकि इतने विस्तृत साम्राज्य में ऐसी भाषा और लिपि की जरूरत थी, जो सर्वत्र समझी जा सके। उनके सारे स्वर्ण सिक्कों तथा बड़े मूल्य के ताम्र सिक्कों पर नागरी लिपि में ही उनका पूरा नाम लिखा है। तांबे के केवल दो छोटे परिणम वाले सिक्कों पर कन्नड़ लिपि में उनका संक्षिप्त नाम ‘कृष्ण‘ लिखा है। उनके काल के अनेक ताम्र पत्र अभिलेख नागरी लिपि में उपलब्ध हैं। कहने का आशय यह कि अीाी मात्र 500 वर्ष पहले पूरे दक्षिण भारत में (श्रीलंका पर्यंत) क्षेत्रीय भाषाओं और लिपियों के साथ संस्कृत भाषा और नागरी लिपि भी प्रचलित थी। उनके साम्राज्य में निश्चय ही सामान्य जन के संपर्क की भी एक जनभाषा रही होगी, जिसका कोई नमूना अभी उपलब्धनहीं है।(अगले रविवार के अंक में समाप्य)

रविवार, 4 सितंबर 2011

ये हिंदी किस 'भाषा' का नाम है? -1

लाल किले में मुगल बादशाह शाहजहां का दरबार, जहां हिन्दुस्तानियों की जुबान
हिंदी या हिंदवी से अलग ‘जुबाने उर्दुए मुअल्ला‘ ने रूपाकार ग्रहण किया।

कभी पूरे हिन्दुस्तान की लोक व्यवहार की भाषा को ‘हिंदी‘ नाम दिया गया था। तब संस्कृत भी हिंदी थी, पाली भी हिंदी थी, अवधी भी हिंदी थी, या यों कहें कि देशभर की सभी प्रकृत व संस्कृत भाषाएं हिंदी थी, लेकिन अब केवल उत्तर के कुछ प्रदेश ही हिंदी भाषी कहे जाते हैं। पूरा देश हिंदी भाषी और हिंदीतर भाषी में बंट गया है। कहने को यह ‘हिंदी‘ देश की राजभाषा है, लेकिन इसे राष्ट्र भाषा का दर्जा अब तक नहीं मिला है और यह संविधान की भाषाई अनुसूची में अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के साथ ही परिगणित है। इसी अंग्रेजी की समकक्षता भी प्राप्त नहीं है। भाषा आधारित प्रांतों की रचना ने इसे और हाशिए की ओर ठेल दिया है।
यह शीर्षक कुछ लोगों को चौंकाने वाला लग सकता है। जो भाषा इस देश की संविधान स्वीकृत राजभाषा है, उसके नाम को लेकर यह सवाल उठाना कि यह किस भाषा का नाम है, सवाल उठाने वाले की अल्पज्ञता व मूर्खता ही नहीं, हिमाकत भी कही जाएगी। अब आप मुझे जो भी कहें या जो भी समझें, लेकिन यह सवाल उठाना मुझे बहुत महत्वपूर्ण लग रहा है, विशेषकर इसके ऐतिहासिक संदर्भ में। हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति व हिन्दू जाति की तरह देशव्यापी (व देश के बाहर भी) उपस्थिति के बावजूद इसकी भी कोई सुस्पष्ट पहचान या परिभाषा नहीं बतायी जा सकती।

वास्तव में इस देश के लोगों को हिंदी नाम की भाषा व हिन्दू नाम की जाति व धर्म की कोई जानकारी नहीं थी। शायद उन्हें अपने देश का नाम भी पता नहीं था। पश्चिम से यानी यूनान, अरब, फारस, मध्येशिया आदि से आये लोगों ने यहां के लोगों को बताया कि वे हिन्दू हैं, उनकी भाषा हिंदी है और उनका देश हिन्दुस्तान। इस देश की धरती, यहां के निवासियों, उनकी भाषा व धर्म को यह नाम तो बहुत पहले मिल चुका था, किंतु यह स्थापित तब हुआ, जब यहां बहुत से मुस्लिम आ गये और मुस्लिम शासन स्थापित हुआ, क्योंकि जब वे बाहर थे, तो इन्हीं नामों से यहां के लोगों को जानते-पहचानते थे। उनके आधिपत्य में रहते-रहते यहां के लोगों ने भी इसी पहचान को अंगीकार कर लिया। यहां यह जानना रोचक होगा कि देश, जाति व धर्म के रूप में तो इस शब्द की राष्ट्रीय पहचान अब भी बनी हुई है, लेकिन भाषा के स्तर पर यह सिकुड़कर केवल उत्तर के कुछ इलाकों तक ही सीमित रह गयी है और उत्तर में भी उसकी एक परजीवी (कृपया शब्दों पर जाएं, बल्कि उसके निहितार्थ को ही ग्रहण करें) की हालत बनी हुई है। यद्यपि इसको बोलने-समझने वाले पूरे देश में क्या दुनिया भर में फैले हुए हैं, लेकिन इसे उत्तर के कुछ प्रातों की ही स्वाभाविक भाषा माना जाता है और उसी को हिंदी क्षेत्र और वहां के निवासियों को ही हिंदीभाषी कहा जाता है। बाकी क्षेत्र को गैर हिंदी क्षेत्र और गैर हिंदी भाषी माना जाता है। वहां के हिंदी विद्वानों को गैर हिंदी भाषी विद्वान की संज्ञा दी जाती है। तो भाषा के स्तर पर आकर हिंदी-हिन्दू-हिन्दुस्तान की परिभाषा इस तरह सिकुड़ गयी कि उसकी ठीक-ठीक पहचान ही मुश्किल हो गयी ।

यहां एक और रोचक बात भी हुई कि देश जब स्वतंत्र हुआ तो हमने भाषा, जाति और धर्म के नाम से तो हिंदी-हिन्दू जोड़े रखा, लेकिन देश के नाम के तौर पर हिन्दुस्तान को नहीं अपनाया। उसके लिए हमने अंग्रेजों द्वारा दिया गया ‘इंडिया‘ अपना लिया।

इस सबका परिणाम यह हुआ कि देश के स्वतंत्र होने पर जब हम अपनी विविध प्रकार की पहचान समेटने की स्थिति में आए, तो हिंदी-हिन्दू-हिन्दुस्तान की सारी संगति बिगड़ चुकी थी। अब न यह देश हिन्दुस्तानल रह गया था, न यहां के निवासी हिन्दू थे और न यहां के निवासियों की भाषा हिंदी रह गयी थी। हिन्दुस्तान तो खैर गुम हो गया, जिसके पुनः आगमन की भी कोई संभावना नहीं रह गयी (शायद कोई जरूरत भी नहीं), क्योंकि यदि किसी ने लाने की कोशिश भी की, तो फौरन कुछ लोग सवाल उठायेंगे कि क्या यह देश केवल हिन्दुओं का है, इसलिए बाकी बचे हिंदु और हिन्दू। किंतु उनकी भी पहचान संकीर्ण हो गयी। यहां केवल कुछ लोग ही हिन्दू रह गये और केवल कुछ लोगों की भाषा हिंदी रह गयी। यानी पूरे देश की पहचान से इनका कोई लेना-देना नहीं बचा। जब राष्ट्र के रूप में अंग्रेजों का दिया देश हमने स्वीकार किया तो भाषा के रूप में उनकी दी हुई भाषा भी अपना ही और उनकी दी ‘बहुधर्मी, बहुजातीय, बहुरंगी, बहुभाषी खिचड़ी (फ्लूरल) पहचान भी स्वीकार कर ली। इतना ही नहीं, उस पर गर्व भी करने लगे। अपनी इस नई पहचान में राष्ट्रीय एकता की भावना का कोई तत्व शेष नहीं रह गया- न भाषा, न संस्कृति, न जाति, न धर्म। किसी खिचड़ी में एकरसता कायम करनी हो, तो दो ही रास्ते रह जाते हैं या तो उसके सारे भेदों को ठुकरा दो या सबको उनकी पृथकता के साथ सम्मान भाव से स्वीकार कर लो। तो इसके लिए हमारे देश के आधुनिक मनीषियों ने धर्म के स्तर पर तो दो महान तत्वों को स्वीकार किया, एक तो ‘धर्मनिरपेक्षता‘ (सेकुलरिज्म) और दूसरा ‘सर्व धर्म समभाव‘। लेकिन इनका भी व्यवहारिक स्तर पर निर्वाह नहीं हो सका। राजनीतिक स्वार्थ व अवसरवाद ने ‘धर्मनिरपेक्षता‘ और ‘भेदभाववाद‘ को अधिक महत्व दिया। और भाषा के संदर्भ में तो इतना भी परवाह करने की जरूरत नहीं समझाी। गयी। क्षेत्रीय भाषाओं के आधार पर प्रांतों का निर्माण करके क्षेत्रीयता को संतुष्ट कर दिया गया और राष्ट्र के स्तर पर तो ‘इंडिया‘ और ‘इंग्लिश‘ स्वीकार की ही जा चुकी थी। विविध धर्म, भाषा, जाति, क्षेत्र के बुद्धिजीवियों व राजनेताओं ने अपनी-अपनी श्रेष्ठता प्रतिपादित करने के प्रयास में ऐसा देशव्यापी भ्रमजाल पैदा किया कि एक राजनीतिक जागीरदारी के अलावा राष्ट्र की कोई सर्वमान्य पहचान ही नहीं रह गयी।

वस्तुतः हिंदी-हिन्दू-हिन्दुस्तान परस्पर सम्बद्ध शब्द और भाव हैं। प्रारंभ में इनका धर्म (मजहब या रिलीजन) से कोई संबंध नहीं था, लेकिन अब हिन्दू शब्द तो केवल धर्म (रिलीजन) की पहचान बन गया है, वह भी एक ऐसे धर्म की, जिसकी अब तक कोई सर्वमान्य परिभाषा ही नहीं बन सकी है। इसे धर्म मानने का काम अंग्रेजों या यूरोपीय विद्वानों ने किया, बाद में उनके प्रभाव के कारण इस पहचान वाले भारतीयों ने भी उसे स्वीकार कर लिया और इसकी गौरवगाथा लिखने में लग गये। लेकिन इस विडंबना की तरफ लोगों का ध्यान प्रायः नहीं गया कि न तो इस हिन्दू का देश हिन्दुस्तान रह गया और न इस हिन्दू की भाषा हिंदी बन सकी। यह ‘हिन्दू‘ एक जाति और एक संस्कृति के रूप में भी नहीं खड़ा हो सका, इसीलिए यह मान्य अंतर्राष्ट्रीय परिभाषा के अनुसार हिन्दू राष्ट्र (हिन्दू नेशन) भी नहीं बन सका। आज जो ‘इंडिया‘ नाम का देश है, उसे विदेशी विद्वान ‘एक राष्ट्र‘ नहीं, बल्कि ‘बहुराष्ट्रीय देश‘ (मल्टीनेशन कंट्री) कहते हैं। कुल मिलाकर स्थिति यह बन गयी है कि इसे जो जैसे चाहे परिभाषित कर सकता है। खैर, यह पूरा विषय बहुत विस्तृत है, जिसके ऐतिहासिक क्रम में ब्यौरेवार विवेचन की जरूरत है, किंतु यहां इस समय की चर्चा केवल भाषा पर केंद्रित है।

पुराणों तथा अन्य पारंपरिक ग्रंथों से हम जानते हैं कि हिमालय के दक्षिण का समुद्र पर्यंत भूभाग ‘भारत वर्ष‘ कहलाता था, लेकिन ज्ञात इतिहास काल में इस क्षेत्र में ऐसी कोई राजनीतिक इकाई या साम्राज्य नहीं था, जिसकी ‘भारत‘ या ‘भारत वर्ष‘ के नाम से पहचान रही हो। इसलिए इस क्षेत्र से बाहर के लोग अपनी सुविधा से इस क्षेत्र का नामकरण कर लेते थे। पश्चिमी क्षेत्र से इस भूक्षेत्र को अलग करने वाली प्राचीन पहचान ‘सिंधु‘नदी थी, इसलिए पश्चिम के लोगों ने इसके पूर्व के निवासियों को इसी नदी के नाम से पहचान दी। पर्सिया या फारसी में प्रायः ‘स‘ का उच्चारण ‘ह‘ हो जाता है। वहां महाप्राण ‘ध‘ की जगह अल्पप्राण ‘द‘ के उच्चारण की भी प्रवृत्ति देखी जाती है, इसलिए वहां ‘सिन्धु‘ या ‘हिन्दू‘ हो जाना स्वाभाविक था, जैसे संस्कृत का ‘सप्ताह‘ वहां ‘हफ्ता‘ हो गया और ‘असुर‘ का ‘अहुर‘। यूनानियों ने शायद फारस वालों से ही नाम की पहचान प्राप्त की और अपनी सुविधा से ‘हिन्दू‘ का ‘इंडु‘ या ‘इंडस‘ कर लिया। यूरोपियनों ने यूनान से ही इस देश का नाम ‘इंडिया‘ प्राप्त किया। यूनानियों की पहचान के आधार पर ही उन्होंने इस देश की भौगोलिक व सामाजिक पहचान प्राप्त की। अरबी-फारसी परंपरा से प्रभावित लोग इस देश को हिन्दुस्तान कहने लगे, तो यूनानी प्रभाव वाले पश्चिमी देश ‘इंडिया‘। तो विदेशी नजर में इस देश के दो नाम हो गये ‘इंडिया‘ और ‘हिन्दुस्तान‘ (संक्षेप में हिंद-बिल्कुल सिंध की तर्ज पर)। लेकिन आगे की विडंबना यह रही कि जब यहां विदेशियों के शासन का प्रारंभ हुआ, तो शुरुआत में जितने इलाकों पर अफगानों, तुर्कों व फारस वालों का शासन कायम हुआ, उतना ही क्षेत्र हिन्दुस्तान के नाम से चर्चित हुआ, बाकी का इलाका अलग-अलग क्षेत्रीय नामों से ही जाना जाता था। बाद में जब अंग्रेज आए, तो जितने इलाकों पर उनका कब्जा हुआ, वह ‘इंडिया‘ या ‘ब्रिटिश इंडिया‘ कहा जाने लगा और बाकी के इलाके या रियासतें अपने क्षेत्रीय नाम या वंश नाम से चलती रहीं। इस बीच राजनीतिक पहचान के रूप में भारत कहीं नहीं था। प्रारंभिक मुस्लिम काल के प्राकृत व अपभ्रंश साहित्य में प्रायः जहां भी ‘भारत‘ या ‘भारतीय‘ का इस्तेमाल हुआ है, वह गैर मुस्लिमों के अर्थ में हुआ है। जैसे ‘इह भरये‘ यानी ‘यह भारतों का‘। यदि ब्रिटिश काल के गजेटियरों को देखें, तो वहां दंतकथाओं के आधार पर संकलित इतिहास में ‘भर‘ जाति या ‘भ्रों के टीलों‘ का बहुत उल्लेख है। उस पर पूरा भरोसा करें, तो लगेगा कि कम से कम उत्तर भारत में राजस्थान से लेकर बंगाल तक शताब्दियों तक ‘भरों‘ का शासन था, जबकि अन्य इतिहास ग्रंथों या पुराने साहित्य में इनका कहीं उल्लेख नहीं मिलता। वास्तव में ये ‘भरों‘ नहीं, बल्कि ‘भरतों‘ या ‘भारतीयों‘ के टीले यानी उनके नगरों व किलों के ध्वंसावशेष हैं। प्रारंभिक काल में यहां आए मुस्लिम यहीं की भाषा व्यवहार में लाते थे, इसलिए उन्होंने अपना द्वारा स्थापित नगरों, किलों के अतिरिक्त जो कुछ पुराना था, उसे यहां के देशी लोगों की भाषा में ‘भरतों‘ या ‘भरों‘ का करार दे दिया है। आश्चर्य की बात है कि मध्यकाल या उत्तर मध्यकालीन इतिहास के पंडित अभी भी इतिहास की इस गुत्थी में उलझे हैं और भ्रों की पहचान में लगे हैं। यहां थोड़ा विषयांतर हो गया है, लेकिन इसका उद्देश्य यह बताना था कि हमने मध्यकालीन लोकभाषा की सम्यक पड़ताल नहीं की है। हमने ज्यादातर दरबारी कवियों की रचनाओं और मठों में सुरक्षित धार्मिक (रिलीजस) गं्रथों के आधार पर अपने भाषा इतिहास की रचना कर ली है।

यहां इतना तो स्पष्ट है कि बाहर के लोगों ने सिंधु नदी के पूर्व के सारे लोगों को हिन्दू, उनकी भाषा को हिंदी और पूरे समुद्र पर्यंत क्षेत्र को हिन्दुस्तान कहा। उन्होंने यहां के मजहब का कोई जिक्र नहीं किया। अब उनकी मूल बात मानें, तो इस देश की सारी भाषाएं हिंदी हैं। ईरान के प्रसिद्ध बादशाह नौश्ेरवां (531-579 ई.) में बजरोया नाम के एक विद्वान को ‘पंचतंत्र‘ का अनुवाद फारसी में करने के लिए भारत भेजा। ‘पंचतंत्र‘ संस्कृत का गं्रथ है, लेकिन इस अनुवाद की भूमिका में बजरोया पंचतंत्र की भाषा को ‘जबाने हिंदी‘ कहता है। इसी तरह मिनहाजुस्खी की पुस्तक ‘हबकाते नासिरी‘ में बताया गया है कि जबाने हिंदी में ‘बिहार‘ का अर्थ मदरसा होता है। यहां पालि या अप्रभंश के लिए ‘जबाने हिन्दी‘ शब्द का प्रयोग किया गया है। प्रसिद्ध सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी ‘अवधी‘ को हिन्दुई कहते हैं। ‘तुरकी, अरबी, हिन्दुई भाषा जेते आहि जेहिमह मारग प्रेमकर सबै सराहैं ताहि।।‘ नूर मोहम्मद (1764) में अपनी अवधी को हिंदी कहते हैं। ‘हिन्दू मग पर पांव न राखौं, का जौ बहुतै हिंदी भाखौं।‘ इन नूर मुहम्मद साहब से भी 21 वर्ष पहले गिरिधर राय (1743) ब्रजी के लिए हिंदी शब्द का प्रयोग करते हैं। ‘हिंदी मांहि फकीर के अच्छर लागैं तीन।‘ दक्कन के शेख अहमद लिखते हैं, ‘जबां हिंदी, हिंदवी, मुझसूं होर देहलवी- न जानू अरब होर अजब मसनवीं।‘

आशय यह कि बाहर से आए मुसलमान चाहे जिस भाषा क्षेत्र-तुर्की, अफगानी (पश्तो), फारसी, अरबी आदि- ये आए रहे हों, लेकिन वे यहां के बाजारों, कस्बों व शहरों की भाषा ही यहां इस्तेमाल करते थे। उसमें उनकी अपनी मातृभाषा या क्षेत्र भाषा के शब्द संभवतः मिलते गये होंगे। तो उनके आने से स्थानीय प्राकृत या अपभ्रंश भाषा में विदेशी शब्द भी मिलते गये। इसीलिए इस भाषा को ‘रेख्ता‘ (मिलीजुलीख जैसे आज हिंगलिश दिखायी देती है) भी कहा गया। उत्तर में अपनी सल्तनत कायम करने वाले मुस्लिम शासकों ने जब दक्षिण में हमले किये, तो उनके साथ अरबी-फारसी मिश्रित यह भाषा दक्षिण भी पहुंची। इस देश में निले स्तर पर जनसंपर्क की एक भाषा पहले से विद्यमान थी, जिसे व्यापारी, सैनिक, मजदूर, पर्यटक तथा साधु संत इस्तेमाल करते थे। उपरी स्तर पर व्यवहार के लिए इस्तेमाल होने वाली आम आदमी की भाषा को केवल भाषा ही कहा जाता रहा है। इसमें स्थानीय प्राकृत (स्वाभाविक रूप से विकसित क्षेत्रीय भाषा) के शब्दों के साथ संस्कृत का अपभ््रांश रूप शामिल था। प्राकृत क्षेत्रीय भाषाएं थीं, लेकिन अपभ्रंश और संस्कृत का कोई क्षेत्र विशेष नहीं था, ये राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय रूप से व्याप्त थीं। इनमें खासकर जनभाषा यानी अपभ्रंश में क्षेत्रीय भेद क्षेत्रीय प्राकृत भाषाओं की प्रकृति के अनुरूप ही हुआ है। मुसलमानों के आने से केवल यह हुआ कि इसमें फारसी, तुर्की, पश्तो और अरबी के भी कुछ शब्द मिल गये। मूलतः इसी भाषा को हिंदी या हिंदवी कहा गया है। चूंकि मुस्लिमों का दीर्घकालिक स्थाई शासन उत्तर में ही रहा और उस उत्तरी क्षेत्र का अफगानिस्तान, तुर्किस्तान व फारस से अधिक निकट संपर्क रहा, इसलिए आधुनिक हिंदी का यह नया रूप उत्तर में ज्यादे व्यापकता और गहराई से स्थापित हो सका। लेकिन प्रारंभ में यह भाषा भी हिंदी या हिंदवी ही थी और आम व्यवहार में भारतीय नागरी लिपि में ही लिखी जाती थी। बाहर से आये लोग चूंकि अपनी-अपनी क्षेत्रीय लिपियों में अभ्यस्त थे, इसलिए वे अपने निजी नोट अपनी तुर्की या फारसी लिपि में लिखते थे।

यहां यह उल्लेखनीय है कि मुसलमानों के इस देश में आने के कई सौ साल बाद तक भाषा में कोई मजहबी भेद नहीं पैदा हुआ था। आम बोलचाल और व्यवहार की भाषा बदल रही थी, लेकिन उसकी कोई हिन्दू मुस्लिम पहचान नहीं बन रही थी। लिपि को लेकर भी कोई झगड़ा नहीं था। इस देश में राजकाज की भाषा फारसी बन जाने के बाद भी (जो मुगल बादशाह अकबर के जमाने में हुई) उसकी पहचान मजहब के साथ नहीं जुड़ी। मुसलमान संस्कृत पढ़ते थे, हिन्दू फारसी। केंद्रीय दरबार का कामकाज फारसी में चलता था, लेकिन स्थानीय व्यवहार की भाषा हिंदी या हिंदवी ही थी। टोडर मल संस्कृत के भी पंडित थे, फारसी के भी। खुसरो की बहुभाषी रचनाओं से सभी परिचित हैं। रहीम खन खाना और बीरबल जैसे दरबारी संस्कृत और फारसी दोनों के पंडित थे, लेकिन उनके आम बोलचाल व व्यवहार की भाषा हिंदी थी। वही हिंदी, जो कबीर, रैदास और नानक जैसे संत इस्तेमाल कर रहे थे।

वस्तुतः भाषा पर मजहबी रंग चढ़ना तब शुरू हुआ, जब बादशाह शाहजहां ने दिल्ली का लालकीला बनवाकर तैयार किया (1639 ई.) और उसके आसपास शहजहांनाबाद शहर बसाया तथा राजधानी आगरा से हटाकर शहजहांनाबाद (आधुनिक दिल्ली) के लालकिले में पहुंचाया। अब तक बाहरी इस्लामी मुल्कों के विद्वान, शायरों, मजहबी नेताओं तथा राजनीतिक पंडितों का यहां आना काफी बढ़ गया था। लालकिले की शनदार इमारत बन जाने के बाद मुगल बादशाह शाहजहां की शोहरत और फैली, जिससे और बड़ी संख्या में फारसी अरबी के विद्वान वहां आने लगे। दरबार में एक नयी तरह की नफीस भाषा विकसित होने लगी, जिसमें फारसी से लिये गये। अब इस उच्च स्तरीय दरबारी भाषा को एक नया नाम दिया गया ‘जबाने उर्दूए मुअल्ला‘। इस पर इस्लामी मजहब का गहरा रंग चढ़ा हुआ था। किला जब बना, तो उसके पास बाजार की भी स्थापना होनी थी, सैनिक छावनी भी बननी थी। इस छावनी में अब फारसी व तुर्क सैनिकों की संख्या अधिक थी। उर्दू (ओर्डू) का शब्दार्थ होता है किला, अड्डा या शिविर। यह अंग्रेजी के ‘होर्ड‘ शब्द जैसा है। इस किले को उर्दू संज्ञा मिलने के बाद उसके पास के बाजार का नाम भी उर्दू बाजार पड़ गया। तो यह उर्दू किले के भीतर के सभ्य व कुलीन मुसलमानों की भाषा बनी।

यहां यह ध्यान देने की बात है कि भारत में आने के बासद यहां की भाषा को ‘हिंदी‘ नाम इन मुस्लिम हमलावरों द्वारा ही दिया गया था, लेकिन अब यह ‘हिंद‘ यानी इस देश की भाषा बन गयी थी और यहां के मूल निवासियों को हिंदी की संज्ञा मिल गयी थी। इसलिए दरबार के कुलीन मुस्लिम वर्ग को अपनी एक अलग पहचान वाली भाषा चाहिए थी। इन नये दरबारियों को यहां की भाषा पिछड़ी और कविता फूहड़ लगती थी, लेकिन उनकी आंख तब खुली की खुली रह गयी, जब दखिन के हिंदवी के शायर वली मुहम्मद (1667-1707) वर्ष 1700 में दिल्ली पहुंचे। उनकी शायरी के आगे ‘उर्दुए मुअल्ला‘ के शायर फीके लगे। उनकी ‘रेख्ता‘ व ‘हिंदवी‘ की कविता फारसी के विद्वानों को चमत्कृत करने वाली थी। उन्होंने वली को उर्दू ए मुअल्ला‘ में रचनाएं करने को कहा। वली साहब मान गये और वह उर्दू गजल के ‘बाबा आदम‘ का खिताब पाने के हकदार बन गये। इस लालकिले के दरबार से ही ‘उर्दू‘ (जबाने उर्दू ए मुअल्ला का संक्षिप्त रूप) ने अपना नया भाषाई और मजहबी रंग रूप अख्तियार करना शुरू किया। उसने पर्सियन लिपि की नश्तालिक लिखावट शैली (घसीट वाली)अख्तियार की। दक्षिण एशियायी जरूरी के अनुसार उसमें कुछ अक्षर (हर्फ) बढ़ाये गये और इस रूप में उसे हिंदी या हिंदवी से एक अलग पहचान दिलाने की कोशिश शुरू हुई। अभी तक हिंदी या हिंदवी की एक और लिपि नहीं तय थी। वह पर्सियन व तुर्की लिपि में भी लिखी जाती थी, नागरी में भी और अन्य भारतीय लिपियों में लिखी जाती थी। लेकिन अब उर्दू का नश्तालिक फारसी शैली में लिखना अनिवार्य हो गया। उर्दू का छंद विधान व वूर्य विषय भी फारसी शैली का हो गया। उर्दू के शायर अपना तखल्लुस (उपनाम या पेन नेम) रखने लगे, जो फारसी की परंपरा थी। इन्होंने अपनी उर्दू में फारसी, अरबी व तुर्की के शब्दों को बढ़ा दिया। संस्कृत के अपभं्रश शब्दों को भी लेने से परहेज किया जाने लगा।

भाषा के इस मजहबीकरण की प्रतिक्रिया होनी स्वाभाविक थी। अब हिन्दू के नाम से अभिहित भारतीयों ने अपनी अलग भाषाई पहचान के लिए ‘हिन्दू‘ शब्द से जुड़ी इस ‘हिंदी‘ को अपनी भाषा के रूप में विकसित करना शुरू किया। अब यहां दिक्कत यह पैदा हुई कि इस वर्ग का संस्कृत से नाता बहुत पहले ही टूट चुका था। वह केवल धार्मिक कर्मकांड तथा ऐतिहासिक साहित्य के अध्ययन अध्यापन तक सीमित रह गयी थी। मुस्लिमकाल में जो मिलीजुली भाषा विकसित हुइ्र और उसमें जो लौकिक साहित्य रचा गया, वह ज्यादातर फारसी लिपि में था, जो मुस्लिमों द्वारा लिखा गया था। अब भाषा के मुस्लिम मजहबीकरण की प्रतिक्रिया में जो भाषाई जागरूकता आयी, वह भला मुस्लिम रचनाकारों की रचनाओं को क्यों अपने साथ जोड़ती। उन्होंने केवल उन्हीं मुस्लिम रचनाकारों को अपने इतिहास में जोड़ा, जिन्होंने नागरीलिपि में लिखा या यहां के भक्ति आंदोलन से प्रभावित थे अथवा भारतीय इतिहास के हिन्दू कथानकों को अपना वूर्य विषय बनाया। इन्होंने उर्दू की प्रतिक्रिया में अपनी हिंदी में संस्कृत के शब्दों को अधिक संख्या में शामिल करना शुरू कर दिया। भाषा के इस मजहबी विभाजन को अंग्रेजी सत्ता ने आकर और पुष्ट किया, क्योंकि इसमें उसका दीर्घकालिक राजनीतिक हित था। (जारी)

4/09/2011