रविवार, 18 सितंबर 2011

ये हिंदी किस ‘भाषा‘ का नाम है ?-3


राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को देशव्यापी रूप देने के प्रबल समर्थक महात्मा गांधी
एवं सी. राजगोपालाचारी

अपने देश की प्रायः हर समस्या बहुत ही उलझी हुई है। भाषा समस्या कोई इसका अपवाद नहीं। अन्य समस्याओं की तरह इसे भी उलझाने में मुख्य भूमिका मजहब और जाति की है। जिसे औपनिवेषिक शासन काल की राजनीति ने जटिलता के उस स्तर पर पहुंचा दिया, जहां से वापस लौटना ही असंभव लगने लगा है। क्या इस देश के राजनेता व बुद्धिजीवी कभी इतना आत्मबल एकत्र कर पायेंगे कि वे इस उलझन से टकराएं और देश की राष्ट्रभाषा को मजहब एवं जाति के दलदल से बाहर निकालकर उसे राष्ट्रीयता की पहचान के रूप में स्थापित कर सकें।

इस देश में इस्लामी आक्रमण होने तक भाषा, मजहब, जाति आदि का कोई विवाद नहीं था। कम से कम इनको लेकर कोई राजनीतिक संघर्ष नहीं था। इसके पहले यूनानी, शक, कुषाण, हूण, पह्लव आदि के हमले तो हुए, उन्होंने देश के भीतर दूर तक अपने राज्य भी कायम किये, लेकिन उनके कारण देश में कोई मजहबी, जातीय व भाषाई संकट नहीं पैदा हुआ। यूनानी तो भारतीयों की तरह ही खुले दिमाग के थे। इसलिए उनकी राजीतिक महत्वाकांक्षा ने यहां और किसी तरह की हलचल नहीं पैदा की। जो अन्य जातियां आयी, उन्हें भी यहां की भाषा-लिपि रीति-रिवाज या यहां के देवी-देवताओं को लेकर कोई परेशानी नहीं थी। भाषा के मामले में देश के भीतर तथा बाहर- जहां तक यहां के व्यापारिक संपर्क थे- उच्च स्तर पर संस्कृत तथा निचले व आम नागरिकों के स्तर पर अपभ्रंश का बोलबाला था। प्राकृत भाषाएं भी अपने-अपने क्षेत्रों में विद्यमान थी, लेकिन व्यापार के विस्तार और सैनिक आवागमन के कारण अपभ्रंश का पूरे देश में व्यापक प्रयोग हो रहा था। 900 ई. तक तो अपभ्रंश की देशव्यापी उपस्थिति की बाकायदे पहचान भी हो चुकी है। लेकिन इस्लामी आक्रमणों और उनके साम्राज्य विस्तार के कारण संस्कृत और अपभ्रंश दोनों का देशव्यापी या अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप छिन्न-भिन्न होने लगा और 13वीं शताब्दी के अंत तक अपभ्रंश और संस्कृत दोनों का अखिल भारतीय स्वरूप समाप्त हो गया। और दुर्भाग्य यह कि उस समय पूरे देश में बोलचाल का माध्यम बन सकने वाली कोई तीसरी भाषा उनका स्थान लेने के लिए सामने न आ सकी। कारण स्पष्ट था कि ये हमलावर अपनी लाख कोशिशों, भारी रक्तपात तथा शिक्षा केंद्रों व मंदिरों के ध्वंस के बावजूद पूरे देश पर अपना शासन कायम नहीं कर सके। उन्होंने पारंपरिक व्यवस्था को ध्वस्त तो किया, लेकिन वे कोई वैकल्पिक देशव्यापी व्यवस्था दे नहीं सके। उत्तर का उनका साम्राज्य सीमित क्षेत्रों तक ही रहा। दक्षिण में उन्होंने हमले तो किये, लेकिन दक्षिण उत्तर को मिलाकर कोई टिकाउ बड़ा साम्राज्य कायम नहीं हो सका। राजपुताना कभी पूरी तरह उनके कब्जे में नहीं आ पाया। गुजरात, बंगाल व महाराष्ट्र के क्षत्रपों ने अपनी अलग सत्ता कायम कर ली। यह विखंडित राजनीतिक स्थिति मुगल साम्राज्य के उदय तक बनी रही। क्षेत्रीय शासकों का कोई राष्ट्रीय सरोकार न रह जाने से उनके लिए किसी राष्ट्रीय संपर्क भाषा की जरूरत ही नहीं रही। मुस्लिम शासक फारसी व क्षेत्रीय भाषा में अपना काम चला रहे थे, तो क्षेत्रीय देशी रियासतें अब अपनी क्षेत्रीय प्राकृतों अथवा अपभ्रंश व प्राकृतों के मिश्रण से विकसित हुई नई क्षेत्रीय भाषाओं पर निर्भर होने लगीं। उन क्षेत्रों के विद्वान देश की प्राचीन ज्ञान संपदा को अपनी क्षेत्रीय भाषाओं में लाने के लिए संस्कृत के काव्यों व पुराण कथाओं के अनुवाद करने लगे। धीरे-धीरे इन क्षेत्रीय भाषाओं में स्वतंत्र रचनाएं भी होने लगी।

वास्तव में देश में फैली राजनीतिक व सांस्कृतिक अराजकता का सबसे बड़ा कुप्रभाव भाषा पर पड़ा और राष्ट्र की सांस्कृतिक, भाषाई, राजनीतिक व मजहबी इकाइयां बन जाने के कारण उनके बीच प्रतिस्पर्धा की भावना भी शुरू हो गयी। इस प्रतिस्पर्धा ने हर तरह की अराजकता को और बढ़ा दिया, जिसका बाद में आने वाले ईसाइयों ने भरपूर फायदा उठाया।

इतिहास की इस स्थिति को समझना और उस काम के परिवेश की कल्पना कर पाना काफी कठिन काम है। भारत वर्ष भले ही कभी एक राजनीतिक इकाई का नाम न रहा हो और केवल एक भौगोलिक इकाई के रूप में पहचाना जाता रहा हो, लेकिन यह पूरा क्षेत्र सदैव एक सांस्कृतिक और आर्थिक इकाई बना रहा। इस सांस्कृतिक और आर्थिक एकता के कारण ही इस पूरे क्षेत्र में कितने ही राजा या रियासतें क्यों न रही हों, लेकिन उनके बीच शासन शैली व न्याय शैली की समानता थी। व्यापारिक व सांस्कृतिक संबंधों के लिए सारी सिमाएं खुली हुई थीं। इसीलिए पूरे देश में वैदिक काल से आज तक के सांस्कृतिक विकास क्रम का अक्षुण प्रवाह पूरे देश में एक साथ समान रूप से देखा जा सकता है। इसीलिए क्षेत्रीय भेदों के बावजूद पूरे देश के स्तर पर भाषाई व लिपिगत एकता भी बनी रही। लेकिन जब बाहरी आक्रमणों से यह सांस्कृतिक व आर्थिक एकरूपता भंग हुई, तो बाहर आक्रांताओं में क्षेत्रीय संकीर्णता का विकास होने लगा। दक्षिण के जो राज्य मुस्लिम शासन के अंग नहीं बने, उनका भी अब गंगा घाटी के इलाकों व मध्य देश से कोई वास्ता नहीं रह गया। अब इन राज्यों को भी पूरे राष्ट्र से संपर्क कायम करने वाली अपभ्रंश व संस्कृत भाषा का कोई उपयोग नहीं रह गया। संस्कृत उच्च शिक्षित व कुलीन वर्ग में बची भी रह गयी, लेकिन अपभ्रंश का तो लोप हो ही गया। जन सामान्य के लिए अब अपनी क्षेत्रीय भाषा व लिपि के अलावा अन्य किसी भाषा व लिपि की जरूरत नहीं रह गयी। हां, राजस्थान के राजपूत राजाओं ने करीब 16वीं शताब्दी तक अपभ्रंश को अपने राजकाज के साथ अपनी साहित्यिक रचना की भी भाषा बनाए रखा। पश्चिम भारत के जैन संगठन भी इन राजपूत राजाओं के संरक्षण में थे, इसलिए उन्होंने भी अपनी रचनाएं ज्यादातर अपभ्रंश भाषा में की, क्योंकि वही क्षेत्र की जनभाषा थी।

दिल्ली तथा उत्तर भारत के अन्य केंद्रों पर जो मुस्लिम राज्य कायम हुए, उन्होंने पहले तो क्षेत्रीय भाषा को ही अपने कामकाज की भाषा बनाया, जिसे उन्होंने हिन्दी, हिन्दवी या हिन्दुस्तानी की संज्ञा दी। उसमें उनके अरबी, फारसी व तुर्की के शब्द भी शामिल हो गये, जिससे इस क्षेत्र की भाषा का एक नया ही रूप बन गया। दिल्ली के सुल्तानों ने दक्षिण में अपना साम्राज्य बढ़ाया, तो उनके साथ इस क्षेत्र की यह भाषा वहां भी पहुंची। यह ध्यान देने की बात है कि अरबी, फारसी, तुर्की मिश्रित इस उत्तरी भाषा (हिन्दी) को दक्षिण के लोगों ने कभी दिल से स्वीकार नहीं किया, क्योंकि इसे वे मुसलमानों की भाषा समझते थे। इसकी प्रतिक्रिया में उनका अपनी क्षेत्रीय भाषाओं व लिपियों के प्रति आग्रह बढ़ता गया। विडंबना देखिए कि बाद में मुस्लिम शासकों व विद्वानों ने भी इसी हिन्दी भाषा और उसकी लिपि का परित्याग कर दिया, क्योंकि वे यहां के लोगों यानी हिन्दुओं या भारतीयों से अपनी अलग पहचान बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अपनी भाषा को ‘उर्दू‘ नाम दिया और उसके लिए पर्सियन लिपि स्वीकार की। मुगलों के काल में जब फारसी राजकाज की मुख्य भाषा बन गयी, तो उर्दू को दूसरी भाषा का दर्जा दिया गया। अब वहां हिन्दी के लिए कोई स्थान नहीं था। उर्दू के नाम वाली भाषा वही थी, लेकिन उसका नाम व लेखनशैली बदल गयी थी। साहित्य रचना में भारतीय शिल्प (छंद आदि) को छोड़कर फारसी शैली तथा विषय वस्तु व कथानक भी अरबी फारसी दुनिया से लिये जाने लगे।

अंग्रेजों के आने के बाद भाषाई अराजकता का एक नया दौर आया। जिन इलाकों में अंग्रेजों का शासन स्थापित हुआ और उन्होंने अपनी शिक्षा पद्धति आरंभ की, वहां अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ने लगा। कलकत्ता, मद्रास व बंबई (मुंबई) अंग्रेजी के केंद्र बने। इनके प्रभाव से एक अंग्रेजी पढ़ा लिखा उच्च मध्य वर्ग विकसित होने लगा। जो इलाके सीधे अंग्रेजों के शासन में नहीं थे, वहां क्षेत्रीय भाषा का वर्चस्व बना रहा, किंतु राजे-रजवाड़ों में अंग्रेजी सीखने की प्रतिस्पर्धा बढ़ी। अंग्रेज शासकों ने इसके लिए प्रोत्साहन भी दिया। जहां अंग्रेजों का सीधा राजनीतिक व प्रशासनिक प्रभाव नहीं था, वहां ईसाई मिशनरियों ने यूरोपीय मजहब के साथ यूरोपीय भाषा के प्रसार का काम भी संभाला। उन्होंने क्षेत्रीय भाषाओं को क्षेत्रीय संस्कृति की पहचान से जोड़ा और उनके भीतर अलग-अलग स्वतंत्र अस्मिता का बीज बोया। इस देश में भाषाई सर्वेक्षण कराकर भाषागत सामाजिक इकाइयां स्थापित की गयीं। ये इकाइयां अपनी इस विशिष्ट पहचान के लिए एक अंग्रेज विद्वानों की अत्यंत शुक्रगुजार थीं। उन्होंने भौगोलिक आधार पर विकसित होने वाली सहज भाषाई भिन्नता व उच्चारण भेद की पहचान न करके उनके भिन्नतापरक विशिष्ट लक्षणों की पहचान पर जोर दिया और यह बताने के बजाए कि देश की विभिन्न भाषाओं में क्या-क्या समानता है, यह बताने पर जोर दिया कि उनमें क्या-क्या भिन्नता है।

जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन के भाषा सर्वेक्षण से हम सब भली भांति परिचित हैं। ग्रियर्सन एक आई.सी.एस. ऑफिसर के तौर पर 1873 बंगाल प्रेसीडेंसी पहुंचे। वह पहले पटना में मजिस्ट्रेट व कलेक्टर के पद पर थे, फिर उन्हें वहां का ‘अफीम एजेंट‘ बना दिया गया। 1898 में जब अंग्रेज सरकार ने भारतीय भाषा सर्वेक्षण विभाग का गठन किया, तो ग्रियर्सन उसके पहले ‘सुपरिटेंडेंट‘ (अधीक्षक) बनाये गये। यह पद ग्रहण करने के बाद वे भारतीय भाषाओं के संदर्भ में यूरोपीय विद्वानों व पुस्तकालयों से संपर्क के लिए इंग्लैंड चले गये। यह वही ग्रियर्सन साहब थे, जो भारत के भक्ति आंदोलन को ईसाई धर्म के प्रभाव से उपजा आंदोलन मानते थे। बाद में उन्होंने यह तो स्वीकार किया कि भारत में भक्ति की भावना ईसाई धर्म से पुरानी है, लेकिन वह इसमें आयी गतिशीलता का श्रेय ईसाई धर्म से हुए भारत के संपर्क को ही देते थे। खैर, आशय यह कि दक्षिण में काल्डवेल जैसे मिशनरी व ग्रियर्सन जैसे भाषाविज्ञानी इस देश की भाषाई व सांस्कृतिक एकता को तोड़ने वाले नये यंत्रों के रूप में काम कर रहे थे। ब्रिटिश शासन काल में चाहे ब्रिटिश शासित इलाके हों या स्वायत्त रियासतें, इन सबका राष्ट्रीय स्तर पर वास्ता केवल अंग्रेजी शासन के अफसरों तक रह गया था। रियासतों या अंग्रेजी शासन के अफसरों तक रह गया था। रियासतों या अंग्रेजी राज के बीच आपस का सामान्य जनों के बीच का संपर्क न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया था। क्योंकि विभिन्न राज्यों रियासतों के बीच व्यापारिक व राजनीतिक संपर्क को सदैव हतोत्साहित किया गया। अंग्रेजों से डरे रजवाड़े स्वयं इससे दूर रहते थे। परिणाम यह हुआ कि आम लोगों के बीच क्षेत्रीय संकीर्णता और बढ़ती ही गयी। अंग्रेजी शासन तो खैर यह चाहता ही था।

यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि राष्ट्रवादी शक्तियां इन विपरीत परिस्थितियों के बीच भी यत्र-तत्र अपनी चेतना का दीप जलाए घटाटोप अंधकार से लड़ने की कोशिश में लगी हुई थी, लेकिन उनके वैयक्तिक प्रयास कोई व्यापक प्रभाव नहीं डाल पा रहे थे। लगातार विखंडन का शिकार भारतीय देश व समाज इतने टुकड़ों में बंट चुका था और क्षेत्रीयता के अहंकार में ऐसे दृष्टिबंध का शिकार हो गया था कि उसे राष्ट्रीयता की बात ही निरर्थक लगने लगी थी। ऐसे में दयानंद सरस्वती जैसे व्यक्ति सामने आए, जिन्होंने आर्यसमाज की स्थापना की। दयानंद शायद पहले ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्होंने विखंडित भारतीय समाज के एकीकरण का अभियान शुरू किया और उन्होंने इसके लिए जनभाषा हिन्दी और प्राचीनतम भारतीय ग्रंथ वेद को आधार बनाया। उनके अनुयायी और कनिष्ठ समकालीन स्वामी श्रद्धानंद ने पहली बार मैकाले की शिक्षा पद्धति को चुनौती देने का संकल्प लिया और हरिद्वार के गंगातट पर स्थित कांगड़ी गांव में संस्कृत व हिन्दी माध्यम से उच्च शिक्षा देने के लिए एक ‘गुरुकुल‘ की स्थापना की। लेकिन अपने इस तरह के नवजागरण अभियान के लिए दोनों को अपनी जान गंवानी पड़ी। दोनों हत्या के षड्यंत्र के शिकार हुए। आर्य समाज का यह प्रभाव उत्तर भारत तक ही सीमित रह गया। यद्यपि आज आर्य समाज की शाखाएं पूरी दुनिया में फैली हुई हैं और दक्षिण भारत में निजामशाही के अत्याचारों के खिलाफ आर्यवीरों ने अद्भुत संघर्षशीलता तथा बलिदानी भावना का प्रदर्शन किया, लेकिन वह दक्षिण पर अपना सांस्कृतिक व भाषाई प्रभाव नहीं डाल सके। राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक व राजनीतिक एकता के लिए हिन्दी को माध्यम बनाने का अगला अभियान महात्मा गांधी ने शुरू किया, जिन्होंने 1918 में मद्रास में दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की नींव डाली। लेकिन वह भी हिन्दू-उर्दू के मसले में उलझ कर रह गये। उनके पूरे जीवनकाल में यह तय नहीं हो पाया कि हिन्दी का स्वरूप क्या हो। गांधीजी हिन्दी के बोलचाल के स्वरूप हिन्दुस्तानी के समर्थक थे।उनके सामने भाषा के स्तर पर असली समस्या हिन्दू-मुस्लिम एकीकरण की थी। यद्यपि मुसलमान अपनी भाषा उर्दू घोषित कर चुका था और वह देश की राजभाषा भी उर्दू ही चाहता था। अंग्रेजों ने तथाकथित हिन्दी क्षेत्रों में उसे यह दर्जा दे भी रखा था। इस भाषा का स्वरूप तय ना हो पाने के कारण हिन्दी के नाम पर भी कांग्रेस दो भागों में विभाजित हो गयी थी। नेहरू और अबुल कलाम आजाद अरब फारसी बहुल हिन्दुस्तानी के पक्षधर थे, तो पुरुषोत्तमदास टंडन, सेठ गोविंददास, प्रकाशवीर शास्त्री आदि संस्कृत प्रधान हिन्दी के। इस लड़ाई में बड़ी मुश्किल से संविधान सभा में यह तय हो पाया था कि देश की एक राजभाषा हिन्दी होगी, जो नागरी लिपि में लिखी जाएगी, किंतु दक्षिण के तमिलनाडु जैसे राज्य को यह हिन्दी भी स्वीकार नहीं थी। स्वीकार तो यह अबुल कलाम आजाद को भी नहीं थी (वह उर्दू के समर्थक थे), लेकिन उन्होंने इस मसले पर चुप रहना ही श्रेयस्कर समझा था।

वास्तव में उर्दू-हिन्दी का मुद्दा उनकी मजहबी पहचान से जुड़ गया था। विडंबना यही थी कि उर्दू जहां मुसलमानों की भाषा के रूप में स्वीकृत हो चुकी थी और अपवादों को छोड़कर देश का प्रायः पूरा मुस्लिम समुदाय उर्दू के पक्ष में खड़ा था, वहां हिन्दी हिन्दुओं की भाषा कही जाने के बावजूद पूरा तथाकथित हिन्दू समाज इसे अपनी भाषा मानने के लिए तैयार नहीं हुआ और न कभी सामूहिक रूप से उसके पक्ष में खड़ा हुआ। तथाकथित हिन्दुओं की तो यहां 22 प्रमुख भाषाएं हैं (ग्रियर्सन ने उनकी 364 भाषाओं और बोलियों की पहचान की थी)। हिन्दी तो केवल उत्तर भारत में कुछ ‘रेडिकल‘ हिन्दुओं की भाषा है, जिन्होंने पहली बार 1867 में अंग्रेज बहादुर की सरकार के समक्ष अपील की थी कि सरकारी राजकाज की भाषा की ‘परसो-अरबिक‘ लिपि हटाकर उसे देवनागरी किया जाए तथा हिन्दी को द्वितीय राजकीय भाषा का दर्जा दिया जाए। मुस्लिम राजनेता सर सैयद अहमद खां ने इस बदलाव की मांग के खिलाफ बड़ी सख्त आवाज उठाई। वह उर्दू को मुसलमानों की ‘लिगुआफै्रंका‘ (आम व्यवहार की भाषा) मानते थे। चूंकि इसे भारत के मुस्लिम शासकों ने ईजाद किया था, इसलिए मुगल दरबार में यह फारसी के बाद दूसरी राजभाषा के रूप में स्वीकृत थी। मुगल वंश की समाप्ति के बाद सर सैयद अहमद खां चाहते थे कि ब्रिटिश शासन में भी उर्दू का यह दर्जा बना रहे।

सर सैयद अहमद खां को अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर द्वितीय ने ‘जवादुद्दौला‘ के खिताब से नवाजा था। यह खिताब शाह आलम द्वितीय ने सैयद अहमद खां के बाबा (पितामह) को 18वीं शती के मध्य में कभी अता किया था। तीसरी पीढ़ी में यह खिताब फिर अहमद खां को दिया गया। इसके साथ बहादुरशाह ने उन्हें ‘आरिफ जंग‘ की उपाधि से भी अलंकृत किया।

लेकिन समय के पारखी अहमद खां ने बहादुर शाह जफर के एहसानों की कोई कीमत नहीं दी और 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम में (जिसके नेता बहादुर शाह जफर ही थे) उन्होंने अंग्रेजों का साथ दिया और उनकी मदद की, जिसके कारण ‘सर‘ की उपाधि सहित उन्हें शायद सारे उच्चतर ब्रिटिश सम्मान तथा मेडल हासिल हुए। सर सैयद उर्दू को ही सभ्यजनों की भाषा मानते थे और हिंदी को गंवारू (वल्गर) भाषा का दर्जा देते थे।

देश ही वर्तमान भाषाई स्थिति सबको पता है। तमिलनाडु के लोग अगर हिन्दी का विरोध करते हैं, तो इसलिए कि इसे वह उत्तर के आधिपत्य का प्रतीक मानते हैं, लेकिन यह उत्तर की भाषा है, इसे बार-बार रेखांकित करने का काम जाने अनजाने उत्तर भारत के राजनेताओं व लेखकों-विद्वानों ने ही किया है। एक तरफ तो हिन्दी पर हिन्दू का मजहबी रंग चढ़ा दिया गया है, दूसरी तरफ इसको क्षेत्र विशेष से जोड़ दिया गया है। इन दोनों लक्षणों ने इसे संकीर्ण बना दिया है और इसकी राष्ट्रीय पहचान छीन ली है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इसकी विसंगतियां और बढ़ गयी है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व राष्ट्रभाषा का मुद्दा हिन्दू व मुस्लिम के बीच झूल रहा था, तो उसके बाद यह तमाम क्षेत्रीय भाषाओं के जंगल में उलझ गयी है। संविधान में इसे राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया जा सका और उसकी आठवीं अनुसूची में तमाम क्षेत्रीय प्राकृत भाषाओं के बीच इसे भी डाल दिया गया है।

वास्तव में इस देश की जो राष्ट्रभाषा (राष्ट्रीय जन संपर्क की भाषा) है, वह वस्तुतः संस्कृत और अपभ्रंश की उत्तराधिकारिणी है। लेकिन न तो इसे इस तरह की पहचान ही मिल सकी और न इसका इस तरह का रूप ही विकसित हो सका। वास्तव में इस देश से यह गलतफहमी दूर होनी चाहिए कि हिन्दी किसी क्षेत्र या मजहब की भाषा है। हमारी विडंबना तो यह है कि हमारी प्राचीन भाषा संस्कृत भी उसी तरह हिन्दू मजहब की या आर्य नस्ल की भाषा घोषित कर दी गयी है, जिस तरह अरबी इस्लामी मजहब और अरब जाति की भाषा मानी जाती है। न संस्कृत किसी जाति, क्षेत्र या मजहब की भाषा थी, न अपभ्रंश और न उसकी उत्तराधिकारिणी हिन्दी। इसे उत्तर भारत की कुछ भाषाओं का समूह भी नहीं कहा जाना चाहिए। इस सामूहिकता की अवधारणा से उत्तर भारत की अपनी क्षेत्रीय भाषाओं का बहुत नुकसान हुआ है।

हम जानते हैं कि कालचक्र को पीछे नहीं ले जाया जा सकता है। जो टूट चुका है या लुप्त हो चुका है, उसे वापस भी हासिल नहीं किया जा सकता, लेकन देश और समय की आवश्यकताओं को देखते हुए अपनी भ्रामक और जड़ अवधारणाएं तो बदली जा सकती हैं। आज दुनिया का न कोई देश एक भाषिक हो सकता है न कोई राज्य। अपने देश में एक भाषा पर आधारित राज्य तो बन गये, लेकिन उस एक भाषा में उस राज्य का काम नहीं चलपा रहा है, इसलिए प्रायः हर राज्य ने विकल्पतः अंग्रेजी को अपना लिया है। और यह विकल्प उन सारे राज्यों की अपनी भाषाओं को निगले जा रहा है। यहां इस समस्या का कोई बना बनाया समाधान नहीं परोसा जा सकता। यदि कुछ पेश किया जा सकता है, तो केवल एक निवेदन कि भारत देश के सभी निवासी अपनी संकीर्ण क्षेत्रीयताओं से बाहर निकलें और अपनी पहचान अपने देश के साथ करना शुरू करें। मातृ भाषा केवल जन्म देने वाली मां की बोली-भाषा का नाम नहीं, बल्कि मातृ भूमि व मातृ संस्कृति की भाषा का भी नाम है। और खासकर तब जब हम एक प्राचीन देश की गौरवमई संस्कृति के उत्तराधिकारी होने की बात करते हैं, तब तो यह और भी जरूरी हो जाता है कि हम उस सांस्कृतिक परंपरा का प्रतिनिधित्व करने वाली भाषा को अपनी मातृभाषा का दर्जा प्रदान करें। (समाप्त)

2 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

यह तथ्य उजागर होना चाहिए कि हिंदी भारत के किसी विशेष क्षेत्र की भाषा नहीं है। वह केवल संस्कृत की उत्तराधिकारी भाषा के रूप में समस्त भारत की संपर्क भाषा है। इसी के साथ हमें उत्तर तथा दक्षिण की सारी भाषाओं/बोलियों को बचाए/जोड़े रखना है। इस लेख-माला के लिए बधाई।

Vineet Mishra ने कहा…

swagat hai

tanhaayaadein.blogspot.com