शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

आडवाणी यों ही हार मानने वाले नहीं


भाजपा में प्रधानमंत्री पद के दो संभावित चेहरे: एक हिन्दूवादी, एक सेकुलर


राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आर.एस.एस.) नहीं चाहता कि लालकृष्ण आडवाणी फिर अपने को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाएं, इसलिए वह यह भी नहीं चाहता कि वे विपक्षी राजनीति का केंद्रीय आकर्षण बनने की कोशिश करें। उसके अनुसार 2009 में उनके लिए अंतिम मौका था, जो जा चुका है। अब आगे पार्टी के किसी युवा नेता को आगे आने का अवसर दिया जाना चाहिए। आडवाणी ने इसका कोई खुला प्रतिवाद नहीं किया है, लेकिन वे इसे स्वीकार करने के लिए भी तैयार नहीं। संघ और पार्टी क्या करेगी यह वो जाने, मगर उन्होंने तो एक और मुकाबले में उतरना तय कर लिया है। संघ, मोदी के पीछे खड़ा है, तो परवाह नहीं, उन्होंने गुजरात का आश्रय छोड़ अब बिहार का दामन थाम लिया है।


भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी ने बुधवार 21 सितंबर को नागपुर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ् के प्रधान मोहन भागवत के साथ मुलाकात के बाद यद्यपि पत्रकारों से बातचीत करते हुए यह संकेत दिया कि वह स्वयं अब प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल नहीं हैं, किंतु ऐसा लगता नहीं कि वह दशकों से संजोई अपनी इस महत्वाकांक्षा का यों ही परित्याग कर देंगे। आडवाणी एक जुझारू नेता है, वह यों ही पराजय स्वीकार कर लेने वाले नहीं। उन्होंने इसका संकेत दे भी दिया है कि उनमें अभी काफी दम खम है और 2014 के चुनावों में उनके लिए अभी एक संभावना शेष है।

नागपुर में आडवाणी ने कहा था कि पार्टी तथा देश की जनता ने अब तक उन्हें जो दिया है, वह किसी प्रधानमंत्री पद से कहीं अधिक है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से प्रारंभ करके, जनसंघ तथा भाजपा तक की अपनी इस राजनीतिक यात्रा में वह पार्टी का अंग बने रहकर प्रसन्न हैं। उनके ऐसा कहते हुए लग रहा था कि वह परम वीतरागी हो गये हैं, लेकिन निश्चय ही उनके भीतर आगे की संघर्ष योजना का मंथल चल रहा था। ऐसा समझा जाता है कि संघ नेतृत्व ने आडवाणी को अपने दरबार में तलब किया था, क्योंकि वह उनकी अगली रथ यात्रा की घोषणा से नाराज था। आडवाणी ने संसद के पिछले सत्र के अंतिक दिन भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी देशव्यापी रथ यात्रा की घोषणा की थी। संघ की नाराजगी इस बात को लेकर थी कि उन्होंने अपनी इस रथ यात्रा के बारे में संघ के नेताओं से कोई विचार-विमर्श नहीं किया था। आडवाणी ने शायद इसके लिए संघ से पूर्व अनुमति लेने की कोई जरूरत नहीं समझाी होगी। यथार्थ की बात करें, तो संघ और भाजपा दोनों में आडवाणी इस समय आयु और राजनीतिक कद दोनों ही दृष्टियों से वरिष्ठतम स्थान पर हैं, इसलिए यदि उन्होंने अपनी घोषणा के लिए किसी पूर्व अनुमति लेना जरूरी न समझा हो, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। लेकिन इस घोषणा में संघ के अधिकारियों को यह बू आई कि आडवाणी शायद एक बार फिर अपने को विपक्षी राजनीति के केन्द्र में लाना चाहते हैं, इसलिए उसने अपनी नाराजगी का स्पष्ट संकेत दिया।

वास्तव में संघ आडवाणी से तब से क्षुब्ध हैं, जब उन्होंने अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान कराची में मोहम्मद अली जिन्ना की मजार पर पहुंचकर अपनी श्रद्धांजलि दी थी और प्रशंसा करते हुए उन्हें एक सेकुलर नेता बताया था। उनकी इस कारगुजारी पर संघ की त्यौरियां चढ़ना स्वाभाविक था। जिस जिन्ना को संघ देश का दुश्मन नंबर एक, भारत के विखंडन का मुख्य अपराधी मानता है, उसका यदि संघ की ही राजनीतिक शाखा का प्रमुख नेता, शत्रु समझे जाने वाले देश की धरती पर पहुंचकर गुणगान करे, इसे बर्दाश्त करना संघ के लिए निश्चय ही नामुमकिन था। उसने आडवाणी से इस पर स्पष्टीकरण मांगा और अपने वक्तव्य के लिए खेद व्यक्त करने को कहा, लेकिन आडवाणी ने पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ना स्वीकार कर लिया, मगर अपने वक्तव्य पर अड़े रहे। उन्होंने जिन्ना की प्रशंसा अपनी सोची-समझी रणनीति के तहत किया था। इसके पीछे उनका लक्ष्य था अपने को ‘सेकुलर‘ सिद्ध करना और देश के भीतर ‘अटल बिहारी वाजपेयी‘ वाली सर्वस्वीकार्य छवि अर्जित करना। वह जानते थे कि आगे जाने वाले बहुत वर्षों तक पार्टी को अकेले बहुमत तो मिलने वाला नहीं, इसलिए बिना अन्य दलों के साथ गठबंधन किये सत्ता तक पहुंचना असंभव है और इन अन्य दलों का समर्थन पाने के लिए ‘सेकुलर‘ छवि आवश्यक है, क्योंकि ये अधिकांश क्षेत्रीय दल मुस्लिम वोट बैंक पर निर्भर हैं, इसलिए उनकी भावनाओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं। आडवाणी भाजपा के भीतर कट्टर हिन्दूवादियों के नेता समझे जाते थे- जिन्हें संघ का पूरा समर्थन हासिल था- जबकि वाजपेयी को संघ का वैसा प्यार हासिल नहीं था, किंतु वह पार्टी के बाहर सर्वाधिक लोकप्रिय थे, क्योंकि उनकी छवि उदारवादी और सेकुलर थी। गठबंधन की राजनीति में इसीलिए वाजपेयी स्वीकार्य थे, आडवाणी नहीं। वाजपेयी को इफ्तार पार्टियों में कभी भी मुसलमानों की गोल टोपी पहने देखा जा सकता था, किंतु आडवाणी को नहीं। इसलिए आडवाणी अपनी छवि बदलना चाहते थे। उनके सामने 2009 के चुनाव की संभावनाएं थीं, इसलिए उन्होंने छवि बदलने का ठोस प्रयास शुरू किया। संघ की नाराजगी झेलकर भी वह अपने वक्तव्य पर डटे रहे, जिससे कि देश में उनके विचारों की दृढ़ता का संदेश जाए। यह संदेश काफी कुछ गया भी, लेकिन 2009 के चुनाव में भी पार्टी कुछ नहीं कर पायी और कांग्रेस दुबारा सरकार बनाने की स्थिति में आ गयी। संघ ने नाराजगी के बावजूद आडवाणी को 2009 में अपनी किस्मत आजमाने का मौका दे दिया था। आडवाणी का छवि बदलने का प्रयास यदि भाजपा को पुनः सत्ता तक पहुंचा सकता है, तो इसमें तो संघ को कोई आपत्ति थी नहीं, मगर जब पार्टी यह चुनाव भी हार गयी, तो संघ ने आडवाणी को हाशिए में डालने का दो टूक निर्णय लिया। लोकसभा में आडवाणी के होते हुए भी पार्टी व विपक्ष का नेता पद सुषमा स्वराज को दिया गया और राज्यसभा में यह सम्मान अरुण जेटली जैसे युवा नेता को दिया गया। आडवाणी का सम्मान रखने के लिए उन्हें पार्टी के संसदीय दल का नेता बना दिया गया, लेकिन यह स्पष्ट संदेश दे दिया गया कि अब उनका राजनीतिक युग समाप्त हो गया है, अब वह अपने को एक सलाहकार की हैसियत में समझें और पार्टी की सक्रिय राजनीति का नेतृत्व युवा पीढ़ी के हवाले करे। आडवाणी ने मन मसोस कर इसे स्वीकार कर लिया, किंतु उनका जुझारू अंतरमन सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने के लिए तैयार नहीं हुआ। जैसे भी हो पार्टी में अपनी सक्रियता बनाये रखते हुए उन्होंने समय की प्रतीक्षा करने का विकल्प चुना। उनके जैसे अनुभवी नेता जानते हैं कि राजनीति को करवट बदलने में देर नहीं लगती, लेकिन उसका लाभ वही उठा सकता है, जो राजनीति की मुख्यधारा में बना रहे, इसलिए वह थोड़ा अपमान झेलकर भी धारा में बने रहे।

संसद के पिछले पावस सत्र में उन्होंने अनुभव किया कि कांग्रेस भ्रष्टाचार तथा प्रशासनिक निकम्मेपन के आरोपों से इस तरह घिर गयी है कि अगले आम चुनावों में फिर से बहुमत योग्य जन समर्थन प्राप्त करना बहुत कठिन होगा, इसलिए भाजपा फिर कांग्रेस से आगे निकल सकती है, इसलिए उन्होंने फिर राजनीति के मैदान में अपने को विपक्ष के प्रमुख योद्धा के तौर पर उतारने का संकल्प ले लिया। हो सकता है उनके दिमाग में एकाएक यह विचार कौंधा हो कि वह इस बार भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी रथ यात्रा शुरू करे और उन्होंने संसद की बैठक के अंतिम दिन के अवसर का लाभ उठाते हुए उसकी घोषणा कर दी। संघ तो क्या शायद इसके बारे में तब तक उन्होंने किसी के साथ इसके बारे में कोई विचार-विमर्श नहीं किया था। यात्रा की तिथि और बाकी चीजें तो बाद में तय ही की जानी थी।

उनकी इस घोषणा से संघ के ही नहीं, उनकी पार्टी के भी तमाम नेता चौंके थे और प्रायः सबका ख्याल एक ही था कि आडवाणी फिर अपने को विपक्षी राजनीति के केंद्र में लाना चाहते हैं। लेकिन दिक्कत थी कि कोई इसका विरोध नहीं कर सकता था। इस यात्रा को न करने की सलाह तो संघ भी नहीं दे सकता था, लेकिन संघ उनसे यह आश्वासन जरूर ले लेना चाहता था कि अब वह फिर से अपने को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी नहीं बनायेंगे। इस बीच एकाएक राजनीतिक वातावरण ऐसा बदला कि नरेंद्र मोदी गुजरात से उछलकर राष्ट्रीय राजनीतिक चर्चा के केंद्र में आ गये। एक तरफ तो सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात दंगों के मामले में अपने को मोदी विरोधियों की राजनीति का हथियार बनाये जाने से रोक लिया और सारे मामले की सुनवाई गुजरात की निचली अदालत में करने का निर्देश दिया, जो सांप्रदायिक हिंसा के आरोपों में जकड़े मोदी के लिए बहुत बड़ी राहत थी तथा दूसरी तरफ एक अमेरिकी संसदीय समिति ने मोदी के शासन तथा उनके शासनकाल में हुए विकास की तारीफ करते हुए उन्हें 2014 के चुनाव में प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया। उपर्युक्त समिति ने अपनी रिपोर्ट में लिख है कि अगले आम चुनाव में प्रधानमंत्री के संघर्ष में कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी का मुकाबला मोदी से हो सकता है। इस रिपोर्ट ने एकाएक मोदी का कद कई गुना बढ़ा दिया। उन्होंने भी इन दोनों घटनाओं का जश्न मनाने के लिए अपने जन्मदिन 17 सितंबर पर तीन दिन के उपवास की घोषणा कर दी। जश्न मनाने का यह अनूठा और बेहद नया राजनीतिक तरीका था। मोदी ने अपने इस उपवास को ‘सद्भावना मिशन‘ की संज्ञा दी और कहा कि राज्य के विभिन्न वर्गों के बीच सद्भावना एवं शांति के लिए वह इस प्रतीकात्मक उपवास पर बैठ रहे हैं। उन्हें भी लगा कि यदि राष्ट्रीय राजनीति में उतरना है, तो उन्हें भी एक सेकुलर छवि चाहिए। राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय स्वीकार्यता हासिल करनी है, तो कट्टर हिन्दूवाद से काम नहीं चलेगा। उन्होंने सभी मजहबों के लोगों को इस उपवास समारोह में बुलाकर यह संदेश देने की कोशिश की कि वह किसी जाति या वर्ग के तुष्टीकरण के पक्ष में नहीं है, किंतु वह किसी के विरोधी भी नहीं हैं। लेकिन एक मौलाना ने इसमें भी खलल डाल ही दिया। गुजरात के किसी सुदूर गांव में स्थित एक दरगाह के मौलाना हजरत सूफी इमाम शाही सईद मेंहदी हुसैन उर्फ ‘पीरान बाबा‘ ने मोदी को मंच पर पहुंचकर उन्हें मुस्लिम गोल टोपी पहनाने का प्रयास किया। मोदी ने वह टोपी पहनने से इनकार कर दिया, बदले में मौलाना से कहा कि यदि वह अपनी हरी शॉल उन्हें भेंट करना चाहें, तो उन्हें खुशी होगी। मौलाना ने वह शॉल अपने गले से निकालकर मोदी के गले में डाल दी और वापस आ गये। मिनट-मिनट की घटनाओं पर नजर रखने वाले मीडिया को एक जबर्दस्त शिगूफा मिल गया। मोदी ने इस्लामी टोपी पहनने से इनकार कर दिया। फौरन यह खबर पूरी दुनिया में फैल गयी। मौलाना ‘पीरान बाबा‘ को मीडिया के लोगों ने घेरा, तो उन्होंने मोदी के व्यवहार पर गहरा क्षोभ व्यक्त किया। उनके साथ उपस्थित उनके बेटे ने कहा कि मोदी ने उनके बाबा की बड़ी बेइज्जती की। कितनी हसरत से वह इतनी दूर से मोदी से मिलने आये थे, लेकिन यहॉं पहुंचकर बेइज्जती मिली। मौलाना ने फरमाया यह कोई मेरा अपमान नहीं, बल्कि इस्लाम का अपमान है। उन्होंने बाद में यह भी कहा कि मोदी अब कभी इस देश के प्रधानमंत्री नहीं बन सकते। यहां इस्लाम का अपमान करने वाला कभी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते। यहां इस्लाम का अपमान करने वाला कभी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नहीं पहुंच सकता। मोदी ने खुद अपनी किस्मत पर प्रहार किया है।

यह मसला इतना बड़ा हो गया कि लखनउ (उत्तर प्रदेश) के शिया धर्म गुरु कल्वे जव्वाद ने इस शुक्रवार को वहां स्थित बड़ा इमामबाड़ा में एक दिन के सामूहिक रोजा व उपवास का आयोजन किया, जिसमें आर्यसमाजी नेता स्वामी अग्निवेश सहित कई मजहबों के लोगों ने भाग लिया। इस एकदिवसीय उपवास में मोदी द्वारा इस्लामी टोपी का अपमान किये जाने की निंदा की गयी तथा कहा गया कि मोदी को इस तरह का उपवास करने का कोई हक नहीं है। जिसके हाथ हजारों मुसलमानों के खून से रंगे हों, उसे इस तरह उपवास करने या सद्भाव की बात करने का कोई अधिकार नहीं।

खैर, इस उपवास राजनीति से मोदी को कितना लाभ हुआ, कितना नुकसान, यह अलग बात है, लेकिन उनके इस आयोजन के कारण आडवाणी की रथ यात्रा की घोषणा नेपथ्य में चली गयी। आडवाणी इससे भी क्षुब्ध रहे होंगे। उन्होंने मोदी को इस रथ यात्रा की तैयारी करने के लिए कहा था, लेकिन वह अपने ‘उपवास समारोह‘ में लग गये। आडवाणी यद्यपि पार्टी के अन्य तमाम नेताओं के साथ उनके इस उपवास में शामिल हुए और मोदी के लिए की गयी अमेरिकी संसदीय समिति की टिप्पणी का समर्थन भी किया, लेकिन अंदर कहीं कुछ दरक अवश्य रहा था। इसके तत्काल बाद ही वह नागपुर में मोहन भागवत से मिले। मोहन भागवत ने ठीक-ठीक उनसे क्या कहा, यह तो पता नहीं, लेकिन समझा यही जाता है कि उन्होंने सलाह दी कि वे अगले प्रधानमंत्री की दौड़ में अपने को शामिल न करें और विधिवत इस बात की सार्वजनिक घोषणा करें। बाहर पत्रकारों के पूछने पर उन्होंने सीधे यह तो नहीं कहा कि अब वह प्रधानमंत्री पद स्वीकार नहीं करेंगे और पार्टी के किसी युवा नेता की इस पद पर ताजपोशी का समर्थन करेंगे, लेकिन यह संकेत देने की पूरी कोशिश की कि वह प्रधानमंत्री पद की दौड़ में नहीं हैं। प्रधानमंत्री पद उनके लिए कोई बड़ी चीज नहीं है, अब तक पार्टी तथा इस देश ने उन्हें जो कुछ दिया है, वह किसी प्रधानमंत्री पद की उपलब्धि से बहुत अधिक है। आडवाणी के इस कथन से सामान्यतया लोगों ने समझ लिया कि उन्होंने संघ के अधिकारियों के समक्ष् आत्मसमर्पण कर दिया है। लेकिन यह सच नहीं था। आडवाणी ने संघ के नेताओं का कोई प्रतिवाद नहीं किया, किंतु उन्होंने अपनी रथ यात्रा का संकल्प और दृढ़ कर लिया। उन्होंने मोदी को भी दरकिनार करने की सोच ली।

उनकी यह रथ यात्रा पहले गुजरात से शुरू होने वाली थी और मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ही उसे हरी झंडी दिखाने वाले थे। यात्रा की शुरुआत के लिए सरदार वल्लभ भाई पटेल के पैतृक गांव करमसाद को चुना गया था। किंतु आडवाणी ने इसके बाद कार्यक्रम बदल दिया। उन्होंने गुजरात के बजाए अब यह यात्रा बिहार से शुरू करने का निर्णय लिया। यात्रा का प्रस्थान बिंदु समग्र क्रांति के स्वप्न द्रष्टा जय प्रकाश नारायण के गांव सिताबदियरा को चुना गया। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से आग्रह किया गया है कि वे इस यात्रा का शुभारंभ कराएं। नीतीश ने यह आग्रह खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। आडवाणी ने अपनी आगे की राजनीति के लिए गुजरात को छोड़कर बिहार का आश्रय बहुत सोच-समझकर लिया है। देश में इस समय दो क्षेत्रीय राजनेता ‘विकास पुरुष‘ की ख्याति अर्जित कर रहे हैं, एक नरेंद्र मोदी और दूसरे नीतीश कुमार। लेकिन राजनीति ने दोनों के विकास को दो रंगों में रंग दिया है। मोदी के विकास पर जहां हिन्दू सांप्रदायिकता का आरोपण है, वहां नीतीश के विकास को सेकुलर उदारता का प्रमाण-पत्र मिला हुआ है।

आडवाणी ने फिलहाल मोदी के आश्रय का परित्याग करके नीतीश का आश्रय ग्रहण कर लिया है। आडवाणी की सोच और संकल्प में आए बदलाव का अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि इस बार उन्होंने 25 सितंबर को सोमनाथ जाने का अपना करीब 20 साल पुराना नियमित कार्यक्रम भी रद्द कर दिया। 25 सितंबर 1990 को उन्होंने पहली बार अयोध्या में राम मंदिर के संकल्प को लेकर अपनी रथ यात्रा सोमनाथ से ही शुरू की थी। तबसे वह प्रति वर्ष 25 सितंबर को सोमनाथ अवश्य पहुंचते थे, लेकिन इस बार उन्होंने यह क्रम तोड़ दिया। निश्चय ही उनके इस निर्णय से मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी बहुत हतप्रभ होंगे, क्योंकि उन्होंने इस अवसर पर अहमदाबाद में एक रैली का आयोजन कर रखा था, जिसमें राज्यपाल कमला बेन को वापस बुलाने की मांग बुलंद की जानी थी।

आडवाणी अभी 83 साल के हैं। 2014 में वह 86 साल के होंगे। लेकिन वह पूरी तरह फिट हैं। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि वह तब तक इतने बूढ़े हो जायेंगे कि प्रधानमंत्री पद के लायक नहीं रह जायेंगे। इसलिए यदि वह एक अवसर और आजमाना चाहते हों, तो इसे कुछ बहुत गलत तो नहीं कहा जा सकता। लेकिन यह सवाल जरूर किया जा सकता है कि वह इस देश के बहुसंख्यक युवा जनमत को अपनी तरफ आकर्षित कर सकेंगे। सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि क्या वह अपने से आधी उमर वाले राहुल गांधी का राजनीतिक मुकाबला करते हुए अच्छे लगेंगे ? ऐसे और भी सवाल हो सकते हैं, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि 2014 के चुनाव में यदि भाजपा के नेतृत्व वाला गठबंधन एन.डी.ए. सरकार बनाने की स्थिति में आया, तो वह प्रधानमंत्री पद के लिए किसी आगे कर सकता है। आडवाणी को यदि दरकिनार कर दिया जाए, तो भाजपा में संभावित नाम हो सकते हैं- अरुण जेटली, सुषमा स्वराज और नरेंद्र मोदी। एक नाम जसवंत सिन्हा का भी लिया जा सकता है। भाजपा के बाहर केवल एक नाम है नीतीश कुमार का। निश्चय ही एन.डी.ए. के घटकों में सबसे बड़ी संख्या भाजपा की होगी और सत्ता का शीर्ष नेतृत्व वह अपने पास रखना चाहेगी, तो उसे जेटली, सुषमा, मोदी और सिन्हा में से ही चुनना पड़ेगा। आज की राजनीति में ऐसी उदारता की कल्पना तो नहीं ही की जानी चाहिए कि मुख्य घटक दल संसद में सर्वाधिक सदस्य संख्या अपने पास होेेते हुए प्रधानमंत्री पद किसी वरिष्ठ पार्टी के सदस्य को दे दे। और ऐसा हो भी जाए, तो उसमें स्थिरता की उम्मीद नहीं की जा सकती। निश्चय ही बाकी बचे नामों में स्वयं भजपा के भीतर तथा घटक दलों के बीच सहमति कायम कर पाना कठिन होगा। 2014 में यदि विपक्षी गठबंधन बना तो उसमें जनता दल (यू)  के अतिरिक्त नवीन पटनायक के बीजू जनता दल, चंद्रबाबु नायुडू के तेलुगु देशम पार्टी, अजित सिंह व ओमप्रकाश चौटाला के अपने-अपने लोकदलों, जगन मोहन रेड्डी की वाय.एस.आर. कांग्रेस आदि की मुख्य भ्ूमिका होगी। ये सभी कट्टर सेकुलरवादी हैं, यानी ये मोदी के नाम पर तो कतई सहमत नहीं होंगे। केवल बाल ठाकरे की शिवसेना, राजठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना, प्रकाश सिंह बादल के अकाली दल, चंद्रशेखर राव के टी.आर.एस. तथा जयललिता की अन्ना द्रमुक के बारे में कहा जा सकता है कि भाजपा के किसी भी नेता को अपना समर्थन दे सकते हैं। लेकिन उतने से कम नहीं चलेगा। ऐसे में यदि आडवाणी उपलब्ध रहे, तो उन पर सहज ही आम सहमति बन सकेगी। मोदी से दूरी बनाना उनकी सेकुलर छवि को निश्चय ही मजबूत करने वाला सिद्ध होगा।

खैर, आडवाणी ने तो अपनी रणनीति बना ली, मगर अभी भाजपा को सौ बार सोचना पड़ेगा कि क्या आडवाणी को फिर आगे करके 2014 के चुनाव में कांग्रेस को पछाड़ा जा सकता है। कांग्रेस की युवा चुनौती का मुकाबला करने लायक भाजपा के पास एक ही नाम है- नरेंद्र मोदी, जिसके पास अपना भी कोई जनाधार है। उसकी दूसरी पंक्ति के सारे अन्य नेता जमीन से कटे हुए हैं। थोड़ा बहुत जनाधार जसवंत सिन्हा के पास है, लेकिन वह भी केवल अपना चुनाव जीतने तक। अपने अलावा किसी दूसरे को भी जीतवाने की क्षमता मोदी के अलावा और किसी के पास नहीं। पार्टी की अजीब विडंबना है- जो चुनाव जिताने वाला नेता है, वह चुनाव के बाद ही राजनीति में स्वीकार्य नहीं है और जो बाद वाली राजनीति में स्वीकार्य हो सकता है, उसमें चुनाव जिताने की क्षमता का अभाव है। आडवाणी दोनों ही स्थितियों में अपनी क्षमता प्रमाणित करना चाहते हैं, किंतु यह संघ के नेताओं को स्वीकार्य नहीं, क्योंकि आडवाणी तो संघ की पहचान ही समाप्त कर देने लगे हैं। अब यदि पार्टी को 2014 में अपना वर्चस्व कायम करना है, तो उसे इन विडंबनाओं से बाहर निकलना होगा, अन्यथा जैसा भी है, उसे कांग्रेस का शासन उसके आगे भी स्वीकार करना होगा, फिर उसका नेतृत्व मनमोहन या प्रणव जैसे बूढ़े नेता करें या राहुल गांधी जैसे युवा।

1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

भाजपा की यह नियति है कि हर कोई अपनेआप को प्रधानमंत्री पद का दावेदार मानता है। ऐसी स्थिति में पार्टी बँटती दिखाई देती है और उसके सत्ता में आने के लिए काफ़ी त्याग की आवश्यकता है। लाख टके का प्रश्न यह है कि क्या सत्तालोलुप नेता इस त्याग के लिए तैयार हैं???????