भारत-अफगान निकटता से तिलमिलाता पाकिस्तान
4 अक्टूबर मंगलवार को भारत-अफगानिस्तान के बीच हुआ ऐतिहासिक रणनीतिक समझौता।
दस्तावेजों का आदान-प्रदान करते भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह (दाएं) तथा अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई।
बीते सप्ताह भारत और अफगानिस्तान के बीच हुए व्यापक रणनीतिक सहयोग समझौते से लगभग पूरा पाकिस्तान तिलमिला उठा है। इस समझौते ने उसका दश्कों पुराना वह सपना तोड़ दिया है कि अफगानिस्तान को मिलाकर वह आकार और शक्ति में भारत को मात देने लायक बन जायेगा। अफगानिस्तान को वह पअने पिछवाड़े की जमीन मानता रहा है, जिसमें भारत की उपस्थिति उसे फूटी आंख् नहीं सुहा रही है। उसे लग रहा है कि काबुल उसके हाथ आते-आते निकल गया है। उसे कूटनीतिक मोर्चे पर अफगानिस्तान में भारत के हाथें मिली यह पराजय 1971 में सैनिक मोर्चे पर बंगलादेश् में मिली पराजय से कम आघात पहुंचाने वाली नहीं प्रतीत हो रही है।
गत मंगलवार 4 अक्टूबर 2011 को भारतीय विदेश नीति के इतिहास में निश्चय ही एक उल्लेखनीय तिथि के रूप में याद किया जाएगा, जब भारत और अफगानिस्तान ने नई दिल्ली में एक-एक व्यापक रणनीतिक समझौते पर हस्ताक्षर किये। करीब पांच महीने से अधिक समय की तैयारी के बाद इन समझौतों को अंतिम रूप दिया जा सका, जिन पर अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई की दो दिवसीय भारत यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के साथ हस्ताक्षर की औपचारिकता पूरी हुई।
इस समझौते से पाकिस्तान बेहद तिलमिलाया हुआ है। उसके नेता अपनी बौखलाहट छिपा नहीं पा रहे हैं। वे खुले आम इसके विरोध में उतर आये हैं और कह रहे हैं कि इससे किसी को कोई लाभ नहीं होगा और इससे भारत और पाकिस्तान के बीच का संघषर्् और बढ़ेगा। अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई को परोक्ष चेतावनियां दी जा रही हैं कि उन्होंने भारत के साथ यह समझौता करके अच्छा नहीं किया। इससे अफगानिस्तान में शांति स्थापना का कार्य और कठिन हो गया है। पाकिस्तान के केवल सत्ताधारी राजनेता ही नहीं राजनयिक, पत्रकार तथा बुद्धिजीवी वर्ग भी इस पर चिंता व्यक्त कर रहा है। पाकिस्तान के अंग्रेजी दैनिक ‘द नेशनब् ने लिखा है कि ‘समझौता बेहद चिंताजनक है।‘ इससे न तो अफगानिस्तान को फायदा होगा, न पाकिस्तान को। इसी तरह ‘द एक्सप्रेस ट्रिब्यून‘ ने लिखा है कि पाकिस्तान के साथ मतभेदों के बीच अफगानिस्तान ने पहली बार भारत के साथ सामरिक समझौता किया है, जो स्पष्ट रूप से पाकिस्तान के खतरे का संकेत है। एक और अखबार ‘पाकिस्तान टुडे‘ ने लिख है कि यह समझौता क्षेत्रीय स्थिरता में पाकिस्तान की भूमिका को खत्म कर देगा। ‘द नेशन‘ का भी कहना है कि यह समझौता पाकिस्तान के हित में नहीं है। पाकिस्तान की सैन्य विशेषज्ञ आयशा सिद्दीकी ने कहा है कि इससे अफगानिस्तान में भारत और पाकिस्तान की जंग और तेज होगी, दोनों के बीच अप्रत्यक्ष युद्ध (प्रॉक्सी वार) बढ़ेगा।
यहां यह सवाल उठाया जाना बहुत स्वाभाविक है कि आखिर पाकिस्तान, भारत और अफगानिस्तान के बीच हुए समझौते से इतना क्षुब्ध क्यों है ? अफगानिस्तान में हामिद करजई की सरकार के बाद से भारत उसे अब तक 2 अरब डॉलर की सहायता दे चुका है। वह वहां पूरी तरह रचनात्मक भूमिका निभा रहा है। वह वहां व्यापारिक राजमार्गों, स्कूलों व अस्पतालों का निर्माण कर रहा है, औद्योगिक आधारभूत ढांचे तैयार कर रहा है तथा राजधानी काबुल के नवनिर्माण के साथ वहां संसद भवन का निर्माण कर रहा है। पाकिस्तान के लिए वहां यह सब करना संभव नहीं था। न तो उसके पास इसके लिए धन था और न इसके लिए जरूरी तकनीकी जनशक्ति। भारत वहां काबुल सरकार को अपनी सुरक्षा व्यवस्था को भी मजबूत करने में मदद दे रहा है। पिछले कई वर्षों से भारतीय सैन्य अधिकारी वहां अफगान सेना को प्रशिक्षित करने के काम में लगे हैं। कुछ अफगान उच्च सैनिक अधिकारी यहां भारत आकर भी प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं। ऐसे में यदि अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई भारत के साथ् ऐसा व्यापक समझौता करते हैं, जिसमें आथर््िाक व तकनीकी सहयोग ऐसा व्यापक समझौता करते हैं, जिसमें आर्थिक तकनीकी सहयोग के साथ् सामरिक सहयोग भी शामिल है, तो उससे पाकिस्तान को इतनी जलन क्यों हो रही है।
इसका उत्तर पाना कुछ बहुत मुश्किल नहीं है। जो लोग पाकिस्तान को जानते हैं, उनके लिए इस समझौते पर उसका बिफरना कोई चकित करने वाला नहीं है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान भारत व भारतीयों के प्रति मुस्लिम घृणा, द्वेष, प्रतिस्पर्धा व जलन की उपज है। उसका सपना कैसे भी हो, इसे पराजित करके उस पर अपना प्रभुत्व कायम करना है। बंगलादेश के अलग हो जाने के बाद पाकिस्तान के इन मुस्लिम नेताओं की जलन और बढ़ गयी। पहले अमेरिका व यूरोप की मदद लेकर अपने सैन्य बल से वे इसे कुचलना चाहते थे, लेकिन उनका सपना साकार होता, इसके पहले ही अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियां बदल गयीं। सोवियत संघ का पतन हो गया। नई विश्व व्यवस्था सामने आयी। नेय अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक समीकरण बनने लगे। अंतर्राष्ट्रीय सामरिक रणनीति में अमेरिका के लिए पाकिस्तान का महत्व कम हो गया। उसने भारत के साथ भी संबंध सुधार के प्रयास शुरू किये। यह देखते हुए पाकिस्तान ने भी अपनी रणनीति बदली। उसने ‘प्रत्यक्ष चयुद्ध‘ की जगह ‘परोक्ष युद्ध‘ को अध्कि महत्व देना शुरू किया। उसने जिहादी संगठनों के रूप में अपनी नियमित सेना का अलग से विस्तार किया। प्रारंभ में ऐसे संगठनों के निर्माण् में अमेरिका ने भी भ्रपूर मदद की, क्योंकि उसे भ्ी अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं को भगाना था। ‘तालिबान‘ का गठन मूलतः सोवियत सैनिकों को अफगानिस्तान से भ्गाने के लिए ही किया गया था। इन्हें पाकिस्तानी सेना ने ही प्रशिक्षित करके तैयार किया थ। इसके लिए जरूरी आर्थिक सहायता व हथियारों की मदद अमेरिका ने की थी पाकिस्तान ने इसके साथ ही कुछ और संगठनों को भी खड़ा किया थ जैसे लश्कर-ए-तैयबा, हिजबुल मुजाहिदीन, हरकतुल मुजाहिदीन जैश-ए-मोहम्मद, अलबदर, अंजुमन सिपाहे सहाबा आदि, जिनको भारत के खिलाफ इस्तेमाल किया जाना था। उसने भारत पर अब घोष्ति प्रत्यक्ष सैनिक आक्रमण करने के बजाए आतंकवादी हमले करने शुरू किये। बहाना कश्मीर को बनाया गया। किंतु यह अप्रत्यक्ष युद्ध समूचे भारत के खिलाफ था।
ऐसे में अफगानिस्तान को लेकर भी उसने एक बड़ा सपना देखा था। उसके सामने यह बहुत साफ था कि सोवियत सेना के पलायन के बाद इस पड़ोस के अत्यंत रणनीतिक महत्व वाले देश पर उसका आधिपत्य कायम हो जायेगा और तब वह आकार और शक्ति में इतना बड़ा हो जायेगा कि वह भारत को आसानी से मात दे दे। उसके पास अपनी नियमित सेना के अतिरिक्त तालिबान तथा अन्य मुजाहिद संगठनों की एक विशाल जुनूनी सेना होगी, जिसका मुकाबला करना भारत के लिए असंभव होगा। ऐसा लगता हो भी गया था। काबुल में पाकिस्तान के द्वारा तैयार की गयी तालिबान फौजों ने अपनी सरकार कायम कर ली थी। तालिबान नेता मुल्ला उमर वहां का राष्ट्रपति बन बैठा था। अलकायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन के लिए भी यह अद्भुत उपलब्धि थी। अब उसे जंगल व पहाड़ी गुफाओं में छिपने की जरूरत नहीं थी। वह भी अब शान से काबुल के राष्ट्रपति निवास में मुल्ला उमर के साथ रह रहा था। लेकिन भारत के सौभाग्य तथा पाकिस्तान के दुर्भाग्यवश ओसामा की मति मारी गयी और उसने अमेरिका को ही सबक सिखाने की ठान ली और सीधे न्यूयार्क व वाशिंगटन पर हमला करा दिया। इस हमले ने पूरे इतिहास चक्र की दिशा ही बदल दी। अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला बोल दिया। इस हमले में काबुल में स्थापित तालिबान की सत्ता ही नहीं उखड़ गयी, उसका अफगानिस्तान में स्थापित पूरा गढ़ ध्वस्त हो गया। इसके साथ पाकिस्तानी सपना भी तार-तार हो गया। उसे शुक्रगुजार होना चाहिए अपने सेनाध्यक्ष से राष्ट्रपति बने जनरल परवेज मुशर्रफ का कि उन्होंने अत्यंत साहसिक कूअनीतिक चतुराई का परिचय देते हुए अमेरिकी कोप से पाकिस्तान की रक्षा की और तालिबान नेताओं की भी जान बचाई। इस कौशल ने अफगानिस्तान की मदद से भारत को मात देने के सपने को फिर से प्राणदान दे दिया।
अमेरिका ने अफगानिस्तान से रूसी फौजों को भगाने के लिए तो अपने सैनिकों को वहां नहीं उतारा, मगर तालिबान और अलकायदा के खिलाफ लड़ाई में उसे वहां अपने सैनिकों को उतारना पड़ा। पाकिस्तान इस लड़ाई में अमेरिका का सबसे निकट का मददगार बन गया। पाकिस्तान की भौगोलिक निकटता ने अमेरिका को भी मजबूर किया कि वह इस लड़ाई में उसे भी अपना साझीदार बनाए। पाकिस्तान ने इस साझेदारी के बदले अमेरिका से काफी मोटी रकम वसूली। 2001 से अब तक वह अमेरिका से करीब 22 अरब डॉलर की रकम ले चुका है। वास्तव में इस सहयोग के पीछे भी पाकिस्तान का रकम ले चुका है। वास्तव में इस सहयोग के पीछे भी पाकिस्तान का दोहरा स्वार्थ था। एक तो सहयोग के बदले में अमेरिका से अरबों उॉलर की नकद व सैनिक साजो-सामान की सहायता प्राप्त करना तथ दूसरे एक बार फिर काबुल पर अपना प्रभुत्व कायम करने का सपना पूरा करना।
पाकिस्तान अच्छी तरह यह समझ रहा था कि अमेरिका सैनिक अनंतकाल तक अफगानिस्तान में नहीं ठहर सकते। उसके नेतृत्व वाली ‘उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन‘ /नाटो/ का भी कोई देश अपनी सेना वहां सदैव के लिए नहीं रख सकता। इसलिए जब ये विदेशी सैनिक वहां से हटेंगे, तो अपने आप उनके द्वारा खाली की गयी जगह पाकिस्तान के कब्जे में आ जाएगी। और जब अमेरिकी और अन्य नाटो देशों की सेना वहां नहीं रह जाएगी, तो अमेरिकी मदद से स्थापित की गयी काबुल की सरकार भी वहां नहीं टिक सकेगी। और तब फिर 2001 के पूर्व की स्थिति वहां वापस मिल जायेगी और पाकिस्तान तब फिर से भारत के खिलाफ वह अभियान शुरू कर सकेगा, जो न्यूयार्क पर हमले के बाद शुरू हुए घटनाक्रम में ध्वस्त हो गया था। लेकिन अफसोस, इस बीच अमेरिका के साथ बरती जा रही पाकिस्तान की कपट नीति के सारे पर्दे एकाएक फट गये और एक छली, धोखेबाज पाकिस्तान चौराहे पर नंगा खड़ा नजर आने लगा। उसकी कुरूप सच्चाई पर पड़ा अंतिम चीथड़ा भी तब उतर गया, जब राजधानी इस्लामाबाद के निकट उसकी सैन्य अकादमी की नाक के नीचे रह रहा अलकायदा नेता ओसामा बिन लादेन मारा गया। पाकिस्तान हतप्रभ था। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि अमेरिका ऐसा कदम भी उठा सकता है। रात के तीसरे पहर अमेरिकी कमांडो दस्ते ने पाकिस्तान में भीतर घुसकर लादेन को मार डाला और उसकी लाश तक लेकर चंपत हो गये और पाकिस्तानी सेना व सरकार को इसकी तब भनक लगी, जब स्वयं अमेरिका द्वारा इसकी घोषणा की गयी। पाकिस्तान सरकार और उसकी सेना की विश्वसनीयता पर यह सबसे बड़ा आघात था। जिसके बारे में पाकिस्तान सरकार अक्सर बयान देती रहती थी कि वह शायद मर चुका है या पाकिस्तान छोड़कर जा चुका है या शायद कहीं उत्तरी वजीरिस्तान की पहाड़ियों में छिपा हो सकता है, वह राजधानी के निकट, सैन्य अकादमी के सुरक्षित इलाके में एक बड़ी इमारत में शान से रह रहा था।
पाकिस्तान अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए प्रायः सभी को धोखा दे रहा था, सभी से झूठ बोल रहा था, लेकिन उसका यह धोखा, यह झूठ, यह फरेब आखिर कब तक छिपा रह सकता था। उसे काबुल में भारत की उपस्थिति फटी आंख नहीं सहा रही थी। वह उसके पांव उखाड़ने के लिए अपने तालिबान गुर्गों से लगातार हमले करवा रहा था। राष्ट्रपति हादि करजई से भी उसकी नाराजगी इसीलिए थी कि करजई को भारत पर अधिक भरोसा था, इसलिए वह करजई सरकार का भी तख्ता पलटने की साजिश करता रहा। अमेरिकी सहायता के कारण वह इसमें सफल नहीं हो पा रहा था, तो उसने करजई की हत्या की साजिश रचनी शुरू कर दी। अमेरिका को भी यह झांसा देने की कोशिश करता रहा कि वह तालिबान के नरमगुट के साथ उसका समझौता करा सकता है, जिससे अफगानिस्तान में शांति कायम हो जाएगी और अमेरिका अपने सैनिकों को आराम से वापस बुला सकेगा। लेकिन जैसी की कहावत है कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती, आखिर हरेक को धोखा देकर अपना उल्लू सीधा करने की साजिश कब तक काम करती। अंततः वही हुआ, जो होना चाहिए था। अमेरिका को भी यह समझ में आ गया कि पाकिस्तान की नीयत क्या है और वह चाहता क्या है। राष्ट्रपति ओबामा ने पाकिस्तान को सार्वजनिक रूप से सलाह दी है कि वह भारत को अपना शत्रु मानना बंद करे। भारत उसका शत्रु नहीं है, लेकिन वह एकतरफा तौर पर भारत से शत्रुता रखता है, जो उसके लिए ठीक नहीं है।
भारत के साथ हुए अफगान समझौते से पाकिस्तान इसीलिए तिलमिला रहा है कि इससे उसका दशकों पुराना सपना विफल होता नजर आ रहा है। उसने अफगानिस्तान को मिलाकर उसे मात देने की सोच रखा था, लेकिन अब यह संभव नहीं रह गया है। अमेरिका चला भी जायेगा, तो भी काबुल में भारत की उपस्थिति बनी रहेगी और उसके लिए सैनिक दृष्टि से पांव जमाने के लिए वहां कोई अवसर नहीं रह जायेगा। उसको सर्वाधिक खीझ इस बात को लेकर है कि अफगानिस्तान ने अपनी सुरक्षा सेना के गठन और प्रशिक्षण का अधिकार भारत को दे दिया है। इस प्रशिक्षण के बहाने भारत की सैन उपस्थिति भी काबुल में बनी रहेगी। अफगानिस्तान के पास अकूत खनिज संपदा है। उसकी धरती के नीचे लौह खनिज तथा तेल और गैस के विशाल भंडार हैं। भारत उसे खोजने और निकालने में अफगानिस्तान का साझीदार होगा। यह सब सोच-सोचकर पाकिस्तान का कलेजा राख हुआ जा रहा है। भारत के साथ नागरिक स्तर की मैत्री का दम भरने वाले बुद्धिजीवी, कलाकार, लेखक व पत्रकार भी इसे बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं।
पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति व सेनाध्यक्ष परवेज मुशर्रफ जैसे देश निकाल पाए राजनीतिक नेता ऋभी कह रहे हैं कि भारत, अफगानिस्तान को पाकिस्तान के विरुद्ध खड़ा करने में लगा है। उनके अनुसार अफगानिस्तान, भारत और पाकिस्तान का परोक्ष युद्ध केंद्र बना हुआ है। उन्होंने यह तो नहीं बताया कि इस परोक्ष युद्ध की शुरुआत करने वाला कौन है, लेकिन उन्हें लग रहा है कि इस परोक्ष् युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को मात दे दी है। वह जानते हैं कि पाकिस्तान इतनी आसानी से यह मोर्चा छोड़ने वाला नहीं, इसलिए उन्होंने पाकिस्तानी बुद्धिजीवियों के स्वर में स्वर मिलाते हुए कहा है कि इससे अफगानिस्तान में शांति कायम करने में कोई मदद नहीं मिलेगी, बल्कि वहां भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष और बढ़ेगा, जिसका प्रभाव पूरे दक्षिण एशिया पर पड़ेगा। मुशर्रफ ने बड़ी खीझ के साथ् कहा है कि जब वह सत्ता में थे, तो उन्होंने कई बार अफगान सरकार के समक्ष उसकी सेना को प्रशिक्षित करने का प्रस्ताव रखा, किंतु वहां से कभी एक आदमी भी आने के लिए तैयार नहीं हुआ। अब इन मुशर्रफ साहब को कौन बताए कि काबुल के शासक मूर्ख नहीं हैं। वे भारत और पाकिस्तान दोनों के प्रशिक्षण का फर्क समझते हैं। भारत के निश्चय ही अफगानिस्तान में अपने सामरिक हित हैं, लेकिन वह अफगानिस्तान को किसी के खिलाफ इस्तेमाल करने का सपना नहीं देख रहा है। वह केवल इतना चाहता है कि अफगानिस्तान किसी भारत विरोधी शक्ति के हाथ में न चला जाए। भारत सरकार के राजनीतिक नेताओं को भी इसके लिए बधाई दी जानी चाहिए कि उन्होंने देश के इतिहास में पहली बार एक ऐसी विदेशी नीति को अगली जामा पहनाया, जो देश के दीर्घकालिक सामरिक व आर्थिक हितों से जुड़ी थी। 2001 में जब अफगानिस्तान में अमेरिकी सैन्य कार्रवाई शुरू हुई, तब इस देश में भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन का शासन था। तीन साल बाद कांग्रेस की सत्ता आयी, तो उसने भी अपनी अफगान नीति को सही दिशा में आगे बढ़ाया। भारतीय नीति को अमेरिका का भी समर्थन मिला, क्योंकि भारत जो कार्य अफगानिस्तान में कर रहा है, वह अमेरिका के लिए भी मुश्किल था।
कितने आश्चर्य की बात है कि पाकिस्तान के प्रायः सारे नेता एक स्वर में यह कह रहे हैं कि भारत वहां अपना सारा विकास कार्य बंद कर दे। पाकिस्तान के नेताओं में जनरल मुशर्रफ से लेकर यूसुफ रजा गिलानी तक सभी अमेरिका पर इसके लिए दबाव डालते रहे कि वह भारत को वहां अपना कामकाज फैलाने से रोके, क्योंकि वह पाकिस्तानी हितों के खिलाफ है। मुशर्रफ साहब तो अभी भी कह रहे हैं कि भारत को वहां अपना विकास कार्य बंद करने को कहा जाए। पाकिस्तानी राजनेता भी अमेरिका को चेतावनी दे रहे हैं कि पाकिस्तान पर दबाव डालने की उसकी कार्रवाई उलटी पड़ सकती है। पाकिस्तानी सिनेट की विदेश मामलों की कमेटी के चेयरमैन सलीम सैफुल्लाह ने कहा है कि अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने में पाकिस्तान की अहम भूमिका रही है, ऐसे में यदि पाकिस्तान पर ही दबाव बढ़ाया गया, जो इससे वहां अमेरिकी विरोधी भावना भड़क सकती है। कितने आश्चर्य की बात है कि पाकिस्तानी नेता समझते हैं कि अमेरिका को अभी भी मूर्ख बनाया जा सकता है।
अमेरिका के पास अब इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि पाकिस्तान सरकार के स्वयं पाकिस्तान व अफगानिस्तान में सक्रिय आतंकवादी संगठनों से सीध संबंध है और पाकिस्तानी सैन्य गुप्तचर संस्थ आई.एस.आई. उनका संचालन करती है। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई ने अभी दो दिन की अपनी भारत यात्रा से वापस जाने के बाद गुरुवार को काबुल में प्रेस के सामने कहा कि बिना पाकिस्तानी सहायता के तालिबान आतंकवादी एक उंगली तक नहीं हिला सकते। अभी जब करजई दिल्ली में थे, तभी अफगानिस्तान में उनकी हत्या की साजिश में शामिल 6 लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिसमें एक स्वयं करजई का अपना सुरक्षा गार्ड भी शामिल है। इन सभी के संबंध तालिबान के हक्कानी गुट से बताया जाता है। अफगान राष्ट्रीय सुरक्षा निदेशालय के प्रवक्ता लुत्फुल्लाह मशाल के अनुसार करजई की हत्या का यह तीसरा प्रयास था, जिसे समय रहते विफल कर दिया गया। पिछले कुछ दिनों से करजई तथा उनके निकटस्थ लोगों की हत्या का एक पूरा अभियान चलाया जा रहा है, जिसमें हमलावरों को कुछ सफलता भी मिली है। जैसे वे करजई के सौतेले भाई अहमद वली करजई तथा अफगानी शांति मिशन के अध्यक्ष पूर्व राष्ट्रपति वजी उल्लाह रब्बानी की हत्या करने में सफल हो गये।
इसलिए अब पाकिस्तान लाख दावा करे कि अफगानिस्तान में शांति कायम करने में उसकी महान भूमिका रही है, यानि उसकी सहायता के बिना अमेरिका वहां कोई कामयाबी हासिल नहीं कर सकता था अथवा उसने भी आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में भारी कुर्बानी दी है, लेकिन फिलहाल वहां उसकी दाल गलने वाली नहीं है, क्योंकि अब यह पूरी दुनिया के सामने उजागर हो चुका है कि उसने जो कुछ भी किया है, वह अपने स्वार्थवश किया है और विश्व समुदाय के समक्ष लगातार झूठ बोलता रहा है और धोखा देता रहा है। हां, यह बात सही है कि अब भारत-पाक संघर्ष और बढ़ेगा। बंगलादेश में हुई पराजय के बाद अफगानिस्तान में यह उसकी दूसरी बड़ी पराजय है। वह सैनिक पराजय थी, तो यह कूटनीतिक। जिस तरह वह बंगलादेश की पराजय को अब तक नहीं भुला सका है और उसे याद करके तिलमिलाता रहता है, उसी तरह वह अफगानिस्तान की कूटनीतिक पराजय कभी नहीं भुला सकेगा। जाहिर है कि वह अब दुगुनी ताकत से भारत पर हमले करने की कोशिश करेगा। यह कोशिश् निश्चय ही प्रत्यक्ष नहीं, परोक्ष युद्ध की होगी।
यह खबरें पहले से ही मिलती आ रही हैं कि पाकिस्तान गुप्तचर संस्थ आई.एस.आई. ने भारत के नक्सलवादी संगठनों तथा उत्तर-पूर्व के विद्रोही संगठनों (जैसे मणिपुर की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) से निकट संपर्क बना रखा है तथा उन्हें हथियारों के साथ नकद सहायता भी उपलब्ध करवा रहा है। अब वह अपनी इस कार्रवाई को और तेज कर सकता है। देश में फैली जिहादी इकाइयों के साथ इन हिंसक विद्रोही संगठनों को जोड़कर पाकिस्तान देश में हिंसा व अशांति फैलाने के नये प्रयास कर सकता है। अभी तो वह अफगानिस्तान में भी भारत विरोधी कार्रवाइयां तेज करने की कोशिश करेगा। यद्यपि भारत में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो समझते हैं कि भारत ने नाहक अपने को अफगानिस्तान में फंसा रखा है, लेकिन ऐसे लोग या तो बेहद भोले और नासमझ हैं अथवा वे भारत विरोधी शक्तियों के दलाल हैं। भारतीय उपमहाद्वीप के इस क्षेत्र में शांति बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि पाकिस्तान और उसके जिहादी संगठनों से अफगान मोर्चे पर ही निपट लिया जाए। इसके लिए कोई भी कीमत अदा करना महंगा सौदा नहीं होगा।
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