बुधवार, 26 जून 2013

ओबामा का दुबारा जीतना भारत के लिए एक अवसर
 

अमेरिका के राष्ट्रपतीय चुनाव में डेमोक्रेट पार्टी के प्रत्याशी बराक हुसैन ओबामा दूसरी बार भी चुनाव जीत अवश्य गए हैं, लेकिन पिछले सौ से भी अधिक वर्षों में दुबारा चुनाव जीतने वाले वे ऐसे पहले राष्ट्रपति हैं, जिन्हें अपने दूसरे  चुनाव में पहली बार के मुकाबले कम वोट मिला| अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव कुछ ऐसा होता है, मानो वहां पूरी दुनिया चुनाव लड़ रही हो, क्योंकि अमेरिकी राजनीति से किसी न किसी रूप में पूरी दुनिया प्रभावित होती है|

अमेरिका के राष्ट्रपतीय चुनाव में डेमोक्रेट पार्टी के प्रत्याशी बराक हुसैन ओबामा दूसरी बार भी चुनाव जीत अवश्य गए हैं, लेकिन पिछले सौ से भी अधिक वर्षों में दुबारा चुनाव जीतने वाले वे ऐसे पहले राष्ट्रपति हैं, जिन्हें अपने दूसरे चुनाव में पहली बार के मुकाबले कम वोट मिले| अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव कुछ ऐसा होता है, मानो वहॉं पूरी दुनिया चुनाव लड़ रही हो, क्योंकि अमेरिकी राजनीति से किसी न किसी रूप में पूरी दुनिया प्रभावित होती है| यह सही है कि अमेरिकी सत्ता में पार्टी बदलने या नेतृत्व बदलने का उसकी विदेश नीति पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता, फिर भी नए नेता के सामने आने पर उसके साथ नए सिरे से तालमेल बैठाने की चिंता तो रहती है| इसलिए ओबामा की इस जीत का प्रायः पूरी दुनिया में स्वागत ही किया गया है| उनकी जीत से इतना तो तय है कि अमेरिकी नीतियॉं कमोबेश आगे भी वही रहेंगी, जो इस चुनाव के पहले थीं, उनकी सरकार के ज्यादातर चेहरे भी वही रहेंगे, जो पहले थे| पहले से जाने-पहचाने चेहरे और जानी-पहचानी नीतियों के साथ आगे बढ़ना प्रायः सभी के लिए सुविधाजनक होता है|
ओबामा की दूसरी पारी वाली सरकार में एक जो सबसे बड़ा परिवर्तन संभावित है, वह है विदेश मंत्री का महत्वपूर्ण पदभार संभालने वाले व्यक्ति का| वर्तमान विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन यह संकेत दे चुकी हैं कि वे आगे अब और इस पद पर रहने की इच्छुक नहीं हैं| उनका स्थान कौन व्यक्ति लेगा, यह अभी तय नहीं हो सका है, इसलिए पूरी दुनिया बड़ी उत्सुकता से इस प्रतीक्षा में है कि ओबामा अब किस व्यक्ति को यह पदभार सौंपते हैं|
वास्तव में इस समय प्रायः पूरी दुनिया राजनीतिक व सामाजिक संकटों से आक्रांत है| अमेरिका स्वयं अपनी आर्थिक समस्याओं से जूझ रहा है, बेरोजगारी का संकट बढ़ता जा रहा है| अमेरिका यों अभी भी दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक व सैनिक शक्ति है, फिर भी नई उभरती शक्तियों की तरफ से उसे कड़ी चुनौती मिल रही है| ऐसी संभावना है कि २०१४ या २०१६ तक चीन आर्थिक क्षेत्र में अमेरिका को पीछे छोड़ देगा| सामरिक क्षेत्र में भी उसने इतनी क्षमता अर्जित कर ली है कि किसी तरह की अमेरिकी धौंस उस पर कारगर नहीं हो सकती| अमेरिका एशियायी प्रशांत क्षेत्र में पुनः अपना वर्चस्व कायम करना चाहता है, लेकिन चीन उसे पूरी तरह अपने आधिपत्य में रखना चाहता है और अमेरिका को कोई मौका नहीं देना चाहता कि इस क्षेत्र में वह किसी तरह की दखलंदाजी करे| इधर चीन में भी सत्ता परिवर्तन हो रहा है और वहॉं नया नेतृत्व कार्यभार संभालने जा रहा है| यह नया नेतृत्व अमेरिका के लिए नई चुनौतियॉं खड़ी कर सकता है|
वैसे आंतरिक मामलों को छोड़ दें, तो ओबामा के लिए सर्वाधिक चुनौती भरा क्षेत्र खाड़ी क्षेत्र है| भारत, चीन एवं पाकिस्तान का मामला तो कमोबेश पुराने ढर्रे पर चलता रहेगा, लेकिन खाड़ी के क्षेत्र में निश्‍चय ही ओबामा को अपने राजनीतिक कौशल की सबसे कठिन परीक्षा देनी होगी| यहॉं इजरायल और ईरान की तनातनी बढ़ती जा रही है, जिसके कारण इस क्षेत्र में शांति भंग का खतरा बढ़ गया है| इजरायल ईरान के परमाणु प्रतिष्ठानों को ध्वस्त करने के लिए आकस्मिक सैनिक कार्रवाई करने पर आमादा है| ओबामा पर्दे के पीछे कूटनीतिक दबाव बनाकर उसे दबाने की कोशिश में लगे हैं| इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू अपना इरादा व्यक्त कर चुके हैं, फिर भी वह संयम बनाए हुए हैं, क्योंकि अगले वर्ष जनवरी में वहॉं भी चुनाव होने जा रहे हैं| ईरान ने घोषित कर रखा है कि यदि उसके विरुद्ध किसी भी तरह  की सैनिक कार्रवाई हुई, तो वह इजरायल को नेस्तनाबूद कर देगा| इजरायल के विरुद्ध अपने इस संकल्प के पक्ष में वह पूरे मुस्लिम जगत को एकजुट करना चाहता है, किंतु सऊदी अरब उसके इस प्रयास की सबसे बड़ी बाधा है| सऊदी में अरब सुन्नी राजशाही है, जबकि ईरान शियाबहुल देश है|  इसलिए खाड़ी या मध्यपूर्व का पूरा इलाका भीतर से शिया-सुन्नी खेमों में बँटा है| ईरान के परमाणु शस्त्र कार्यक्रम से इजरायल ही नहीं, सऊदी अरब भी चिंतित है| परमाणु शस्त्र संपन्न ईरान सुन्नी अरब जगत के लिए भी खतरा बन सकता है, इसलिए सऊदी अरब भी नहीं चाहता कि ईरान का परमाणु संवर्धन कार्यक्रम परवान चढ़े|
जहॉं तक भारत का सवाल है, तो उसके लिए ओबामा का बने रहना कमोबेश अच्छा ही है| ओबामा भारत को दक्षिण एशिया की प्रमुख शक्ति स्वीकार करते हैं| अफगानिस्तान में वह भारत की प्रमुख भूमिका को सुनिश्‍चित करने के पक्षधर हैं| अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर वह भारत के समर्थक हैं| अब देखना केवल यह है कि रोजगार या व्यापार के मामले में वह आगे कैसी नीति अपनाते हैं| ‘आउट सोर्सिंग’ पर लगाम लगाने की नीति उनकी पुरानी है, जिस पर वह आगे भी अमल करेंगे, क्योंकि यह अमेरिकी नागरिकों के लिए नौकरियॉं जुटाने के सवाल से जुड़ा है| भारतीय तकनीशियों को अमेरिका में रोजगार का वीसा देने के मामले में उनकी कठोर नीति भारतीयों को रास नहीं आ रही है| लेकिन इन मामलों को भारत अमेरिका संबंधों के विकास में कोई रोड़ा नहीं माना जा सकता| भारतीय कार्पोरेट क्षेत्र ने भी अब इसे बहुत अधिक महत्व देना छोड़ दिया है| भारत अमेरिका आर्थिक सहयोग केवल कुछ नौकरियों तक सीमित नहीं है| अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के साथ व्यापारिक व तकनीकी क्षेत्र में भी दोनों देशों के बीच सहयोग की असीमित संभावनाएँ हैं| लगता तो है अमेरिका भी भारत के साथ विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग विस्तार के प्रति गंभीर है| चुनाव के पहले २५ सितंबर से अक्टूबर के अंत तक मात्र एक महीने कुछ दिन की अवधि में करीब एक दर्जन अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल भारत आए, जिनमें से चार का नेतृत्व वहॉं के कैबिनेट स्तर के मंत्री कर रहे थे| मतदान से केवल दो दिन पहले एक अमेरिकी राजनयिक दिल्ली पहुँचे, जिन्होंने भारत-जापान-अमेरिका की त्रिपक्षीय बैठक की पृष्ठभूमि तैयार करने के बारे में बातचीत की| अमेरिका प्रतिरक्षा विभाग पेंटागन का एक सैन्य प्रतिनिधिमंडल भारतीय नौसेना के साथ अमेरिकी नौसेना का युद्धाभ्यास कार्यक्रम तय करने के लिए दिल्ली आया|
इस सबका यह मतलब नहीं है कि भारत अमेरिका के बीच कोई समस्या ही नहीं है| दोनों के बीच कई ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर वे कभी सहमत नहीं हो सकते| ईरान तथा अरब क्षेत्र का मसला ऐसा ही है| लेकिन बहुत से ऐसे मसले हैं, जिन पर अगले स्तर की बातचीत में सहमति बन सकती है| परमाणु क्षेत्र में सहयोग का मसला ऐसा ही है| ‘सिविलियन न्यूक्लियर कोऑपरेशन’ के मामले में भारत के ‘नाभिकीय दायित्व कानून’ (न्यूक्लियर लायबिलिटी ऐक्ट) को लेकर मतभेद अभी बरकरार है| भारत की मनमोहन सिंह की पहली सरकार ने अमेरिका के साथ नाभिकीय सहयोग के लिए अपनी सत्ता को भी दॉंव पर लगा दिया था, किंतु उसका अभी तक भारत को समुचित लाभ नहीं मिला है| अमेरिकी कंपनियॉं २००४-२००५ से लेकर अब तक करीब १० अरब डॉलर का सैनिक हार्डवेयर भारत को बेच चुकी हैं| भारत को इनकी जरूरत भी थी, लेकिन अब वह अनुसंधान एवं विकास (आर एंड डी) तथा संयुक्त क्षेत्र में उत्पादन की दिशा में आगे बढ़ना चाहता है| अमेरिका के साथ परमाणु समझौते के बाद आशा थी कि अब भारत को अमेरिका से दोहरे उपयोग वाली संवेदनशील उच्च तकनीक मिलने में कोई रुकावट नहीं आएगी, किंतु अमेरिका अभी उस क्षेत्र में अपनी मुट्ठी बंद ही रखे है| इसलिए ओबामा की इस नई पारी के चार वर्षों में भारत को अपना यह सारा लक्ष्य पूरा कर लेना है|
इसमें दो राय नहीं कि आज की दुनिया में अमेरिका और भारत का घनिष्ठ सहयोग अत्यावश्यक है| दोनों ही दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं और विश्‍व राजनीतिक व्यवस्था में लोकतंत्र के प्रगतिशील मूल्यों की रक्षा का दायित्व इन दोनों देशों पर सर्वाधिक है| इसके लिए जरूरी है कि इन दोनों देशों के बीच परस्पर विश्‍वास का घनिष्ठ वातावरण बने| विश्‍वास किया जाना चाहिए कि ओबामा के इस दूसरे चरण के शासनकाल में भारत-अमेरिका संबंध परस्पर सहयोग के वांछित स्तर तक पहुँच सकेंगे, जिसका लाभ शायद पूरी दुनिया के सभी लोकतंत्रों को मिल सके|
अमेरिकी कांग्रेस की पहली हिंदू सदस्य
तुलसी गब्बार्ड
 
३१ वर्षीया तुलसी गब्बार्ड ने डेमोक्रेटिक पार्टी के टिकट पर अमेरिकी कांग्रेस का चुनाव भारी बहुमत से जीत कर एक ऐसा इतिहास रचा है, जिस पर भारत गर्व कर सकता है| वह अमेरिका की पहली हिंदू राजनेता हैं, जिन्होंने अमेरिकी कांग्रेस में अपना स्थान बनाया है| यद्यपि वह भारतीय मूल की नहीं है, किंतु भारतीय हिंदू धर्म एवं संस्कृति की पक्की अनुयायी हैं| वह गर्वपूर्वक अपने को हिंदू कहती हैं और वह अन्य अमेरिकी हिंदुओं एवं भारतीय मूल के हिंदुओं को भी यह सलाह देती हैं कि वे अपने धर्म के प्रदर्शन पर शर्मिंदा न हों और अपनी पहचान के साथ राजनीतिक व सामाजिक कार्यों में आगे बढ़कर भाग लें| गब्बार्ड का कहना है कि यह चुनाव जीतकर उन्होंने अमेरिका में बसे हिंदुओं को विश्‍वास दिलाया है कि वे बिना किसी दबाव के या भय के यहॉं न केवल राजनीति कर सकते हैं, बल्कि चुनाव भी जीत सकते हैं|
यहॉं यह उल्लेखनीय है कि अमेरिकी राजनीति में भारतीय मूल के दो नाम सर्वाधिक चर्चित हैं एक बाबी जिंदल और दूसरे निकी हेली, लेकिन इन दोनों ने वहॉं अपना धर्म बदल लिया है और ईसाई बन गए हैं| बाबी जिंदल पहले हिंदू थे और निकी हेली सिख, मगर उन्हें शायद लगा कि इस धार्मिक पहचान के साथ वे अमेरिका में राजनीति नहीं कर सकते| ऐसा उन्होंने अपनी निजी सोच से किया या किसी दबाव में, लेकिन उन्होंने राजनीतिक लाभ के लोभ में अपने धर्म, परंपरा व संस्कृति का परित्याग तो किया ही| ऐसे में तुलसी गब्बार्ड भारतीय मूल की न होते हुए भी अमेरिका में भारतीयों के गर्व एवं स्वाभिमान की सबसे बड़ी प्रतीक बन गई हैं| उनकी जीत पर अमेरिकी भारतीयों तथा हिंदू अमेरिकियों ने उनका बहुत शानदार स्वागत किया है| गब्बार्ड हवाई की रहने वाली हैं और वहॉं के ‘सेकंड कांग्रेसनल डिस्ट्रिक्ट’ से चुनाव जीती हैं| उन्होंने कुल ८१ प्रतिशत मत पाकर अपने प्रतिद्वंद्वी को जबर्दस्त शिकस्त दी है|
गब्बार्ड केवल हिंदू मत की ही अनुयायी नहीं हैं, वह भारत की भी जबर्दस्त समर्थक हैं| उन्होंने कश्मीरी पंडितों को उनका अधिकार         दिलाने, पाकिस्तान के हिंदू अल्पसंख्यकों को सुरक्षा दिलाने तथा भारत को संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता दिलाने का  आह्वान किया है| गब्बार्ड रुढ़िवादी हिंदू नहीं हैं, बल्कि वह प्रगतिशील हिंदू धर्म की अनुयायी हैं| उन्होंने समलैंगिक विवाह तथा आवश्यक होने पर गर्भपात के पक्ष में विचार व्यक्त किया है|



भारतीय जनता पार्टी के नेता तथा राज्य सभा सदस्य राम जेठमलानी ऐसे अकेले व्यक्ति नहीं हैं जो शुद्ध अज्ञानतावश इतिहास पुरुषों या सांस्कृतिक परंपरा के स्थापित प्रतीकों के विरुद्ध आए दिन ऐसी बेतुकी  और अनर्गल प्रतिक्रिया करते रहते हैं जिससे उन पुरुषों और प्रतीकों का तो कुछ नहीं बिगड़ता किंतु संबंधित समाज में नाहक ऐसा क्षोभ उत्पन्न होता है, जिससे अशांति पैदा होने की संभावना रहती है|
गुरुवार ८ नवंबर को स्त्री-पुरुष संबंधों पर आधारित एक पुस्तक का अनावरण करते हुए जेठमलानी ने टिप्पणी की कि ‘राम अच्छे पति नहीं थे| मैं बिल्कुल उन्हें पसंद नहीं करता| बस एक मछुआरे ने कुछ कह दिया और उन्होंने उस बेचारी औरत को वनवास दे दिया|’ उन्होंने लक्ष्मण पर भी टिप्पणी की और कहा कि वह तो ‘और बुरे थे|’ जब सीता का अपहरण हुआ और राम ने उनसे उसे ढूँढ़ने के लिए कहा तो उन्होंने कहा कि वह उनकी भौजाई है और उन्होंने कभी उनका चेहरा नहीं देखा इसलिए वह उन्हें पहचान नहीं सकते|फ मतलब जेठमलानी की दृष्टि में लक्ष्मण ने सीता की खोज में जाने से इनकार कर दिया|
अब उनकी इस टिप्पणी से साफ जाहिर है कि उन्हें रामकथा का कुछ भी पता नहीं है और उन्होंने सुनी सुनाई बातों को लेकर अपने ढंग से उस पर टिप्पणी कर दी| ये तो बेचारे तथाकथित हिंदू इतने सीधे सादे और सहिष्णु होते हैं कि उन्होंने मुस्कराकर टाल दिया, केवल थोड़ी सी प्रतिक्रिया इधर-उधर अखबारों में सामने आई| किसी दूसरे मजहबी समुदाय के शीर्ष पुरुष पर उन्होंने ऐसी टिप्पणी की होती तो अब तक लेने के देने पड़ जाते| शायद इस तरह की सहिष्णुता का ही यह परिणाम है कि जेठमलानी जैसे लोग बिना जाने समझे हुए भी जबान चलाने में कोई परहेज नहीं करते|
यह जरूरी नहीं कि वाल्मीकि या तुलसी के महाकाव्यों में वर्णित राम के जीवनादर्श आज के जीवन के भी आदर्श हों, किंतु यदि आपको उनके आदर्शों पर कोई टिप्पणी करनी हो तो पहले उन काव्यों को ठीक से पढ़ना  और उसके चरित्रों को ठीक से समझना चाहिए, उसके बाद भी उस पर कोई तार्किक टिप्पणी तभी करनी चाहिए जब वह लोकहित में आवश्यक हो| अन्यथा केवल ज्ञान प्रदर्शन या आधुनिकता के मिथ्या दंभ में कोई विरोधी टिप्पणी नहीं करना चाहिए| जेठमलानी बड़े वकील हो सकते हैं किंतु इसका मतलब यह नहीं कि वह इतिहास, संस्कृति, पुरा कथाओं या प्राचीन महाकाव्यों के चरित्रों पर टिप्पणी करने के अधिकारी बन गए| उन्हें जब कथासूत्र तक का पता नहीं है फिर वह कैसे कोई टिप्पणी कर सकते हैं| उन्हें इतना तो सोचना चाहिए था कि उनके पिता ने उनका नाम राम जेठमलानी क्यों रखा| यदि राम उन्हें इतने ज्यादा नापसंद है तो उन्हें पहले अपना नाम बदल लेना चाहिए|
खबर है कि कानपुर में एक सूचनाधिकार कार्यकर्ता (आरटीआई एक्टिविस्ट) संदीप शुक्ल ने कानपुर के चीफ मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट की अदालत में भारतीय दंडसंहिता की धारा २९५ ए तथा २४८ के अंतर्गत मुकदमा दायर किया है कि जेठमलानी ने उनकी तथा और बहुत से लोगों की धार्मिक भावनाओं को आहत किया है| यहॉं यह उल्लेखनीय है कि देश के कानून में धार्मिक (मजहबी) भावना को आहत करना तो दंडनीय अपराध है कि  किंतु सांस्कृतिक भावनाओं एवं संस्कृति के पात्रों को कोई भी कहीं भी बेधड़क चोट पहुँचा सकता है| इसलिए यदि राम के विरुद्ध टिप्पणी के लिए अदालत में जाना है तो मजहबी भावनाओं का सहारा लेना ही पड़ेगा| वास्तव में राम कोई मजहबी देवता नहीं है| वाल्मीकि रामायण में उन्हें ङ्गविग्रहवान धर्मफ (रामोविग्रहवान धर्मः) कहा गया है| यहॉं धर्म का अर्थ है आचार व व्यवहार के श्रेष्ठ नियम| इतिहास पुरुष राम राजा हैं, साधारण नागरिक नहीं| राम का राज्य (भले वह कल्पित हो) आज तक एक आदर्श राज्य (आइडियल स्टेट) के रूप में इसीलिए प्रतिष्ठित है कि वहॉं कानून या न्याय का राज्य था और राजा के लिए प्रजा उसके परिवार से ऊपर थी| धोबी का प्रकरण काव्य का सत्य है, इतिहास का नहीं| सीता के विरुद्ध प्रवाद का प्रकरण तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के एक सबसे निचले वर्ग के माध्यम से इसलिए उठाया गया कि एक राजा को अपनी प्रजा के सबसे अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति की भावनाओं को अपने परिवार तो क्या अपनी प्रियपत्नी और अपने बच्चों के ऊपर भी तरजीह देना चाहिए| आज के अपराधशास्त्र के पंडितों को यह बात जरा मुश्किल से समझ में आएगी या शायद कभी समझ में न आए| इसलिए समाज को चाहिए कि ऐसे अज्ञानियों की किसी टिप्पणी को अधिक तूल न दे और उन्हें माफ कर दे|
अंग्रेजी का भूत झाड़ने की जरूरत

आश्‍चर्य होता है कि हिंदी की बात उठाने या अंग्रेजी के वर्चस्व से बाहर निकलने की बात करते ही कुछ लोग भड़क उठते हैं| क्यों उनको इससे चोट लगती है यह समझ में नहीं आता| अभी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ‘दत्तोपंत ठेंगड़ी रिसर्च आर्गनाइजेशन’ द्वारा आयोजित एक समारोह (११ नवंबर) में अंग्रेजी के वर्चस्व का विरोध करते हुए कहा कि अब समय आ गया है कि हम अंग्रेजी के भूत को उतार फेंके| उनका कहना था कि देश के केवल मुट्ठी भर लोग अंग्रेजी बोलते हैं, लेकिन उन्होंने कुछ ऐसा वातावरण बना रखा है कि इस भाषा के बिना कुछ नहीं हो सकता| उन्होंने यह भी कहा कि यह अंग्रेजी बोलने वाला वर्ग कभी नहीं चाहता कि अंग्रेजी की बाध्यता समाप्त हो, क्योंकि उन्हें डर है कि यदि ऐसा हुआ तो सुदूरवर्ती गांवों तक के लोग आई.ए.एस. और आई.पी.एस. की नौकरियों पर कब्जा जमा लेंगे|
उनके इस कथन में कोई आपत्तिजनक बात नहीं थी, लेकिन राज्य विधानसभा में विपक्ष के नेता कांग्रेस के विधायक अजय सिंह भड़क उठे| उन्होंने अगले ही दिन चौहान के वक्तव्य का विरोध करते हुए कहा कि यदि मुख्यमंत्री वास्तव में हिंदी के प्रति अपना प्रेम प्रदर्शन करना चाहते हैं, तो उन्हें सबसे पहले अपने बेटों को अंगे्रजी माध्यम स्कूलों से निकाल कर हिंदी माध्यम स्कूलों में भर्ती कराना चाहिए| उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री, अन्य मंत्रियों तथा भाजपा एवं संघ के नेताओं के सारे बच्चे अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढ़ते हैं और कुछ तो विदेशों में भी शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं| इससे एक वर्ग संघर्ष की स्थिति पैदा हो गई है, क्योंकि केवल आम लोगों के बच्चे हिंदी माध्यम स्कूलों में पढ़ने के लिए बाध्य होते हैं|
आजकल यह तर्क बहुत आम हो गया है कि जो लोग अंग्रेजी का वर्चस्व हटाने और उसकी जगह भारतीय भाषाओं या हिंदी को लाने की बात करते हैं, उन्हें यह कहने के पहले अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों से हटाकर हिंदी माध्यम स्कूलों में भर्ती करा देना चाहिए| यह बात बड़ी तर्कसंगत लगती है कि हिंदी की वकालत करने वाले अपने बच्चों को अ्रंगेजी माध्यम स्कूलों में क्यों पढ़ने के लिए भेजते हैं, वे उन्हें हिंदी माध्यम स्कूलों में क्यों नहीं भेजते| लेकिन इस तरह का तर्क करने वाले यह भूल जाते हैं कि यह परिस्थिति इन अंग्रेजी समर्थकों विशेषकर कांग्रेस पार्टी ने ही खड़ी की है| उन्होंने ही अंग्रेजी को शासन की भाषा बनाया है और हिंदी को केवल उन लोगों के लिए छोड़ दिया है, जो अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में प्रवेश नहीं ले सकते| जब देश का राजकाज अंग्रेजी में चलेगा, संसद का कामकाज अंग्रेजी में होगा, उच्चतर न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी रहेगी, उच्च शिक्षा अंग्रेजी बिना संभव नहीं रहेगी, तब निश्‍चय ही देशवासियों की मजबूरी रहेगी कि यदि वे ऊंची नौकरियां चाहते हैं, राजनीति में आगे बढ़ना चाहते हैं, न्यायाधीश, वकील या प्राध्यापक बनना चाहते हैं, तो वे अंग्रेजी सीखें और इसके लिए अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की शरण लें| सत्ताधारियों ने जानबूझकर हिंदी या अन्य भारतीय भाषा माध्यम वाली शिक्षा का स्तर गिरा रखा है| उनमें आज उन्हीं परिवारों के बच्चे शिक्षा प्राप्त करने जाते हैं, जो आर्थिक रूप से विपन्न हैं तथा अंग्रेजी माध्यम की महंगी शिक्षा हासिल करने में असमर्थ हैं| यदि उच्च स्तरीय राजनीति से, विश्‍वविद्यालयों से, संसद से तथा न्यायपालिकाओं से अंग्रेजी का वर्चस्व समाप्त हो जाए, तो अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों का मोह भी समाप्त हो जाएगा| लोग अंग्रेजी सीखेंगे लेकिन एक भाषा की तरह, वे अपने देश के इतिहास, भूगोल और साहित्य की जानकारी के लिए अंगे्रजी जानने के लिए बाध्य नहीं होंगे| अजय सिंह जैसे लोगों को जानना चाहिए कि यह उनकी पार्टी के नेताओं की ही कारगुजारी रही है कि उन्होंने पार्टी के शीर्ष नेता महात्मा गांधी तक की अनसुनी करके अंग्रेजी को राजकाज की भाषा बनाए रखा और उसे ही उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में स्थापित किया| उनके वक्तव्य से तो ऐसा लगता है कि हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं के प्रचार प्रसार की जिम्मेदारी केवल भाजपा व संघ के लोगों के पास है और वे तथा उनकी पार्टी के नेताओं ने केवल अंग्रेजी का ठेका ले रखा है|
कितने आश्‍चर्य की बात है कि रायटर जैसी अंग्रेजी की संवाद एजेंसी के संपादक व स्तंभकार राबर्ट मैकमिलन अपने स्तंभ में लिखते हैं- मुख्यमंत्री चौहान की बात में वजन है| भारत को जरूर अंग्रेजी के भूत को उतार देना चाहिए, लेकिन यहां भारत के अपने राजनेता उनकी बात के विरोध में ताल ठोंक कर खड़े नजर आ रहे है| राबर्ट मैकमिलन ने लिखा है कि विकीपीडिया पर दिए गए आंकड़ों के अनुसार केवल २ लाख २६ हजार के लगभग लोग भारत में अंग्रेजी भाषी हैं| इनमें दस साढ़े दस करोड़ उन लोगों को जोड़ लें, जो अपनी भाषा के अतिरिक्त अंगे्रजी भी बोलते हैं| इनमें आप चाहें तो उन लोगों को भी जोड़ लें, जो प्रवाहपूर्ण तो नहीं, लेकिन थोड़ी बहुत अंग्रेजी बोल लेते हैं| लेकिन कुल मिलाकर भी इस १ अरब २१ करोड़ जनसंख्या वाले देश का केवल एक छोटा टुकड़ा ही ऐसा है, जो अंग्रेजी वाला है| बाकी बहुसंख्य समुदाय हिंदी, बंगला, तेलुगु, मराठी, तमिल आदि बोलता है| यही नहीं, अंगे्रजी वास्तव में इस देश का दमन करने वालों की ऐतिहासिक भाषा है| यह अभी भी दमन और शोषण की प्रतीक है| ब्रिटेन ने इसी भाषा के बल पर इस देश का शताब्दियों तक शोषण किया, यहॉं के लोगों को गुलाम बनाया और स्वतंत्रता के मात्र ६५ वर्षों के बाद अभी उसने घोषणा की है कि अब वह भारत को दी जाने वाली सहायता बंद करने जा रहा है, क्योंकि अब तक वह उसे काफी सहायता दे चुका है|
मैकमिलन आगे यह भी सवाल उठाते हैं कि जरा सोचिए कि अंगे्रजी ने यहॉं के लोगों के लिए क्या किया| आज आलम यह है कि आप यह पक्के तौर पर नहीं बता सकते कि जो व्यक्ति आपके बगल में बैठा काम कर रहा है, वह आपकी भाषा बोल सकता है| देश के ज्यादातर हिस्से में आप हिंदी से काम चला सकते हैं| यह अधिकृत राष्ट्रीय भाषा है, किंतु हिंदी के साथ समस्या यह है कि हिंदी की अनिवार्य शिक्षा होने तथा हिंदी जानने के बावजूद लाखों लोग ऐसे हैं, जो हिंदी नहीं बोलते या हिंदी बोलने से इनकार करते हैं| जैसा कि मैंने समझा है इसका मुख्य कारण है क्षेत्रीय अभिमान या जातीय अहंकार विशेषकर तमिल तथा कुछ भारतीय वर्गों के लोगों की धारणा है कि उत्तर के निहित स्वार्थियों द्वारा हिंदी उन पर थोपी जा रही है| तो फिर और कौन सी भाषा बचती है, जिसमें विभिन्न राज्यों तथा सांस्कृतिक सीमाओं के आर-पार संपर्क किया जा सकता है| जाहिर है कि इसका एक ही जवाब है अंग्रेजी| यह सही है कि अंगे्रजी से आर्थिक समृद्धि के द्वार खुलते हैं| यदि आप अपने यहॉं विदेशी निवेश को बढ़ावा देना चाहते हैं, तो आपको अंगे्रजी बोलने और समझने में सक्षम होना चाहिए| इससे किसी को कहीं इनकार नहीं हो सकता| एक भाषा के रूप में हमें अंगे्रजी पढ़ना ही चाहिए| जो महत्वाकांक्षी हों उन्हें उसमें ही नहीं अन्य विदेशी भाषाओं में भी विशेषज्ञता हासिल करनी चाहिए, लेकिन इसके लिए यह कहॉं जरूरी है कि हमारी संसद का कामकाज अंग्रेजी में हो, हमारी न्यायपालिकाएँ अंग्रेजी में विवादों का फैसला करें या हम अपने देश का इतिहास, भूगोल, धर्म-दर्शन आदि भी अंग्रेजी में ही पढ़ें| हमें अपने सिर पर चढ़े अंगे्रजी के भूत को झाड़ने की जरूरत है, अंगे्रजी भाषा को दूर फेंकने की नहीं| लेकिन अंगे्रजी को हम रोजमर्रा की आम जिंदगी से बाहर तभी कर सकते हैं, जब हम उसके स्थान पर हिंदी को स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त कर सकें|
गोरक्षा के लिए
कृष्ण जैसे पराक्रमी की प्रतीक्षा
 
भारतीय परंपरा में गाय संपूर्ण प्रकृति की प्रतीक है और प्रकृति का सबसे बड़ा आश्रय यह अपनी पृथ्वी है| जब कोई भारतीय गाय की पूजा करता है, तो वस्तुतः वह संपूर्ण पृथ्वी या कि संपूर्ण प्रकृति की पूजा करता है| इस प्रकृति  में जड़चेतन सभी आ जाते हैं| गाय प्रकृति रूपा है, इसलिए प्रकृति के सारे देवी-देवता भी उस गोरूप में समाहित हो जाते हैं| गाय एक पशु के रूप में भी पूज्य है और एक प्रतीक के रूप में भी| पशु उसका स्थूल रूप है और उसमें निहित प्रतीक उसके सूक्ष्म आयाम है|
भगवान कृष्ण गोपालक है, इसका सीधा आशय है कि वे संपूर्ण प्रकृति के पालक हैं, उसके संरक्षक हैं| वे इस प्रकृति या जीव मंडल के बाहर किसी देवी-देवता का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते| इसीलिए वह ब्रज क्षेत्र में प्रचलित इंद्र की पूजा बंद करवाकर गोवर्धन पर्वत की पूजा परंपरा शुरू करते हैं| गोवर्धन पूजा भी प्रतीकात्मक है| उसकी पूजा का अर्थ है उस पर स्थित वृक्षों, झाड़ियों, लता, गुल्मों, पशु-पक्षियों एवं कीट पतंगांें की पूजा, उनका संरक्षण, उनका संवर्धन| उसके नाम से ही स्पष्ट है कि उसकी प्राकृतिक संपदा से गोकुल का गौसंवर्धन होता था|
अपने देश में गाय-बैल-बछड़ों के माध्यम से प्रकृति के सम्मान और संरक्षण की परंपरा बहुत पुरानी है| भाद्रपद में पड़ने वाला हलषष्ठी व्रत बैलों के सम्मान में किया जाता है| इस दिन ग्राम स्त्रियां जो व्रत रहती हैं, उसमें बैलों के श्रम से उत्पन्न अन्न का आहार नहीं किया जाता| उस दिन उनसे कोई काम नहीं लिया जाता और उनको नहला-धुला कर, अच्छा आहार देकर पूरा आराम करने का अवसर दिया जाता है| इसी तरह कार्तिक कृष्णपक्ष में गोवत्स द्वादशी का व्रत होता है, जो बछड़ों को समर्पित है| कार्तिक शुक्ल पक्ष अष्टमी को होने वाला गोपाष्टमी व्रतोत्सव तो पूरे देश में प्रसिद्ध है, क्योंकि इस दिन वासुदेव कृष्ण पूर्ण गोपालक बन गये थे|
शुक्लाष्टमी कार्तिकेतु
स्मृता गोपाष्टमी बुधैः
ताद्दनाद वासुदेवा भूद्
गोपः पूर्णम तु वत्सपः
पौराणिक परंपरा के अनुसार इस दिन गोपाल कृष्ण कुमार से पौगंड (किशोर) आयु में प्रवेश करते हैं और उन्हें अब वन में गायों को चराने और उनकी रक्षा का अधिकार दिया जाता है| अब तक वे केवल छोटे बछड़ों की देखभाल करते थे, किंतु अब पूरे गोपालक बन गए थे, इसलिए इस समारोह को उनकी स्मृति में हर वर्ष मनाने की परंपरा चल पड़ी| पुराण तो विविध कथाओं से भरे हैं| इसलिए उसकी ऐसी एक कथा के अनुसार इस दिन कृष्ण ने वत्सासुर नामक एक राक्षस को मारा था, जो गायों के बीच बछड़ा बनकर आ छिपा था और कृष्ण को मारने की घात में था| गायों में छिपे इस असुर को पहचान कर मारने का पराक्रम करने के कारण यह मान लिया गया कि कृष्ण अब स्वतंत्र रूप से गायों की रक्षा करने में समर्थ हैं, इसलिए उन्हें इस दिन गायों की रखवाली का पूर्ण अधिकार मिल गया| एक अन्य परंपरा के अनुसार अपनी पूजा बंद किए जाने से नाराज इंद्र ने जब भारी वर्षा करके गोकुल को डुबा देने का प्रयास किया, तो कृष्ण ने गोवर्धन को उंगलियों पर उठाकर उसकी छाया में संपूर्ण गोकुल के मनुष्यों और पशुओं की रक्षा की थी| सात दिनों की अनवरत वर्षा के बाद हार कर जब इंद्र ने वर्षा बंद की और क्षमायाचना की मुद्रा में कृष्ण के समक्ष उपस्थित हुए, तब कृष्ण ने उस पर्वत को यथास्थान स्थापित किया| उनके इस चमत्कारी साहस और संकल्प के सम्मान में सबने मिलकर कृष्ण की पूजा की और कृष्ण ने गो रूपा प्रकृति और गोवर्धन के माध्यम से पृथ्वी की पूजा की| इसी समय से उनका एक नाम गगोविंदा’ भी पड़ गया|
वास्तव में कहानियॉं जो भी हों, वे कवि की कल्पनाएँ भी हो सकती हैं, लेकिन इन कहानियों और इस व्रतोत्सव का स्पष्ट संदेश यही है कि हमें प्रकृति की रक्षा करनी चाहिए| अपने पोषण और उपभोग में इतना संयम बरतना चाहिए कि प्रकृति को किसी तरह कोई क्षति न पहुँचे| उसकी संपूर्ण पादप व जीव संपदा का निरंतर संरक्षण हो, संवर्धन हो|
अपने देश में बहुत पुराने समय में हो सकता है कभी गोमांस का भक्षण किया जाता रहा हो, किंतु सभ्यता के विकासक्रम में सभी जीवों के प्रति दया एवं करुणा का भाव विकसित हो गया| और गाय तो पहले से सम्मानित थी, इसलिए वह न केवल पूजनीय हो गई, बल्कि भारतीय संस्कृति की आत्मा बन गई| वह भारतीयता या भारतीय संस्कृति से इस तरह जुड़ गई कि विदेशी आक्रमणकारियों ने भारतीयों को अपमानित करने तथा उन पर अपनी ताकत का सिक्का कायम करने के लिए गायों को निशाना बनाना शुरू कर दिया| इन लोगों द्वारा कुरबानी के नाम पर गोकशी करना एक परंपरा बन गई| इतना ही नहीं, अंग्रेजों के शासनकाल में गोमांस का व्यापार भी शुरू हो गया|
भारतीय परंपरा में आस्था रखने वालों को भरोसा था कि जब देश स्वतंत्र होगा, तो गोवध पर पूर्ण प्रतिबंध लग जाएगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ| बल्कि स्वतंत्रता के बाद इसमें और वृद्धि हो गई| इस प्रवृत्ति से आहत भारतीयों ने ७ दिसंबर १९५२ को दिल्ली में पहली अखिल भारतीय गोहत्या विरेाधी रैली का आयोजन किया| इसमें देश भर के संस्कृतिप्रेमी गोभक्त प्रतिनिधियों ने भाग लिया और सरकार से गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने की पुरजोर मॉंग की, लेकिन तत्कालीन पंडित नेहरू की सरकार ने इस तरफ तनिक भी ध्यान नहीं दिया| इसके बाद दूसरी रैली १३-१४ दिसंबर १९५८ को फिर दिल्ली में आयोजित हुई, किंतु वह भी विफल रही| इसके बाद ७ नवंबर १९६६ को दिल्ली में गोरक्षा के निमित्त पुनः एक विराट प्रदर्शन हुआ, जिसका आयोजन अखिल भारतीय गोरक्षा महाभियान समिति द्वारा किया गया था और नेतृत्व कर रहे थे प्रसिद्ध संत करपात्री जी| प्रशासन ने इस प्रदर्शन को विफल करने के लिए जिस तरह का बल प्रयोग किया उसकी किसी को आशंका न थी| गोभक्त आंदोलनकारियों पर लाठियॉं ही नहीं बरसाई गई, आँसू गैस के गोले और गोलियॉं भी चलाई| इसके बाद आज तक गोरक्षा के लिए दिल्ली में कोई बड़ा प्रदर्शन करने का किसी को साहस नहीं हुआ| यों देश में यत्र तत्र अनगिनत गोरक्षा समितियॉं काम कर रही हैं| छिटपुट आंदोलन भी चलाए जा रहे हैं, लेकिन अखिल भारतीय स्तर पर किसी संगठित प्रयास की अभी भी प्रतीक्षा है|
गोपाष्टमी पर गो पूजा के आयोजन तो होते हैं, लेकिन कृष्ण की तरह कोई ऐसा साहसी अभी सामने नहीं आ रहा है, जो गायों के लिए, वन,  पर्वतों तथा पर्यावरण के लिए देवराज इंद्र जैसे हठी एवं अहंकारी सत्ताधीशों  से टकराने की घोषणा कर सके और ऐसा पराक्रम कर सके कि कोई भी सत्ताधीश क्यों न हो, उसे झुकना पड़े|
प्रकाश एवं ऐश्‍वर्य साधना का उत्सव


दीपावली की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं पौराणिक परंपरा जो भी हो, लेकिन प्रकाशोत्सव और लक्ष्मी पूजन के रूप में अब यह एक सार्वभौम उत्सव है| दुनिया में कौन ऐसा व्यक्ति है, जो प्रकाश नहीं चाहता, समृद्धि नहीं चाहता, ज्ञान नहीं चाहता, ऐश्‍वर्य नहीं चाहता| यदि इस सब की चाहत है, तो दीपोत्सव मनाना चाहिए| लक्ष्मी एक देवी के रूप में मात्र एक प्रतीक हैं, असली उपासना तो ऐश्‍वर्य एवं धन-धान्य की है| पूरी दुनिया से दारिद्र्य मिटे, कुरूपता मिटे, अज्ञान मिटे, अनाचार मिटे, कुंठा एवं वैरभाव मिटे और उसकी जगह समृद्धि, ज्ञान, सदाचार, स्वास्थ्य, भ्रातृत्व एवं आनंद की स्थापना हो, यही तो संदेश है दीपावली का| और इसी की उपासना में सार्थकता है दीपावली की|


भारत के अधिकांश त्यौहारोत्सव ऐतिहासिक ऋतुचक्र की विशिष्ट स्थितियों एवं दार्शानिक परिकल्पनाओं तथा विश्‍वासों पर आधारित हैं| इन त्यौहारों का मूल तत्व आंतरिक एवं बाह्य सुख एवं आनंद की प्राप्ति है, लेकिन यह सुख या आनंद बिना पराक्रम, सत्संकल्प, धर्मनिष्ठा (कर्तव्यनिष्ठा) तथा वैश्‍विक तादात्म्य के संभव नहीं है, इसलिए प्राय: प्रत्येक ऐसे उत्सव के साथ ये तत्व भी जुड़ जाते हैं| रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, मकर संक्रांति, दशहरा, शरदपूर्णिमा, होली, दीपावली ऐसे ही त्यौहार हैं| इनमें भी दीपावली शायद इन सबमें विशिष्ट है| यह धार्मिक व आध्यात्मिक से अधिक एक भौतिक उत्सव है| इसके आयोजन में ऋतुचक्र की तो अपनी भूमिका है ही, लेकिन इसका मुख्य प्राप्तव्य है उन्नत स्वास्थ्य, समृद्धि एवं शाश्‍वत सुख की प्राप्ति तथा अज्ञान, दारिद्र्य, मृत्युभय आदि से आत्यंतिक मुक्ति और संपूर्ण पृथ्वी पर आनंद के आह्लादकारी प्रकाश का विस्तार| इसीलिए इसे कौमुदी महोत्सव की संज्ञा दी गई है| ऐसा उत्सव जिसमें पूरी पृथ्वी (कु- पृथ्वी, मोद- आनंद) सुख से खिल उठे और आनंद के प्रकाश से भर उठे| वस्तुत: यह कोई एक त्यौहार नहीं, बल्कि पांच त्यौहारों का समुच्चय है, जो परस्पर ऐतिहासिक व पौराणिक गाथाओं से परस्पर गुथे हुए हैं| कार्तिक (दक्षिण में आश्‍विन) कृष्ण त्रयोदशी को स्वास्थ्य के देवता भगवान धनवंतरि की पूजा की जाती है और उत्तम स्वास्थ्य की कामना की जाती है| इस तिथि को धन के देवता के साथ भी जोड़ दिया गया है| लोग इस दिन मूल्यवान धातुएं- स्वर्ण, रजत तथा रत्नों की खरीदारी करते हैं| अगले दिन यानी चतुर्दशी को मृत्यु के देवता यम की आराधना की जाती है और उनसे अकाल मृत्यु से मुक्ति की कामना की जाती है| इस दिन यम के नाम पर दो दीप जलाने का विधान है| पुराणों के अनुसार नरक से बचने के लिए चतुर्दशी के प्रात:काल सूर्योदय के समय तेल की मालिश करके स्नान करना चाहिए और फिर तेल युक्त जल से यम को तर्पण करना चाहिए| नरक में न जाना पड़े, इसलिए सायंकाल यम के नाम पर एक दीप जलाना चाहिए और उसी संध्या में ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि के मंदिरों में, मठों, अस्त्रागारों, चैत्यों, सभाभवनों, नदियों, भवन प्राकारों (चहारदिवारी) उद्यानों, कूपों, राजपथों, अंतःपुरों तथा सिद्धों, अर्हतों, बुद्ध, चामुंडा व भैरव के मंदिरों तथा अश्‍व व गजशालाओं में दीप जलाने चाहिए| यह विवरण भविष्योत्तर पुराण में दिया गया है| कई पुराणों में यह भी कहा गया है कि चतुर्दशी के अवसर पर भगवती लक्ष्मी तेल में तथा भगवती गंगा सभी प्रकार के जल में निवास करने आ जाती हैं और पूरे दीपोत्सव भर वहॉं बनी रहती हैं| इसलिए कहा जाता है कि इन दिनों में जो व्यक्ति प्रात:काल शरीर पर तेल मर्दन करके जल में स्नान करता है, वह यमलोक नहीं जाता और ऐश्‍वर्यवान बनता है| इसके साथ बाद में नरकासुर की एक कहानी भी जुड़ गई है, इसलिए इसे नरक चतुर्दशी की भी संज्ञा दी गई है| मूलत: इस दिन अकाल मृत्यु के साथ नरक से मुक्ति की अभिलाषा की जाती है, लेकिन नरकासुर का वध करके उसके संत्रास से संसार को बचाने के लिए भगवान विष्णु या कृष्ण की पूजा भी इस तिथि से जुड़ गई| इसका अगला दिन दीपावली का होता है| एक पुराण (भविष्योत्तर) में ‘दीपालिका’ शब्द भी आया है| इस रात्रि को सुखारात्रि या ‘सुख सुप्तिका’ भी कहा गया है| वात्स्यायन के कामसूत्र में इसे ‘यक्षरात्रि’ कहा गया है| यक्षों को धन-धान्य संपन्न और विलासी, सदा आनंदोत्सव में लीन माना जाता है, शायद इसीलिए इसे यक्ष-रात्रि की भी संज्ञा दी गई है| यक्षों के राजा कुबेर भी देवताओं में धन के देवता हैं, इसलिए प्राचीनकाल में इस रात्रि में यक्ष राज कुबेर की उपासना तथा उनके लिए दीपदान का विधान था| कालांतर में इसे ऐश्‍वर्य, सौंदर्य, सौभाग्य और धन-धान्य की देवी लक्ष्मी का जन्मदिन भी माना जाने लगा और मुख्य रूप से उनकी पूजा होने लगी| प्राचीन ऋषियों ने इसके साथ ही शायद यह भी सोचा कि बिना ज्ञान या बुद्धि के देवता गणेश के लक्ष्मी स्थिर ही नहीं रह सकती, इसलिए उनके साथ गणेश की पूजा भी जुड़ गई| वैष्ण्व मत व रामकथा के प्रचार के बाद इस दीपावली की तिथि का संबंध भगवान राम की लंका से अयोध्या वापसी के साथ भी जुड़ गया| दीपोत्सव राक्षसत्व पर रामत्व की विजय के स्वागत का प्रतीक पर्व बन गया| संयोगवश इसी तिथि को २४वें जैन तीर्थंकर स्वामी महावीर का परिनिर्वाण हो गया| उनके भक्तों, अनुयायियों व प्रेमियों ने इस अवसर पर दीप मालिका का आयोजन किया| कल्पना थी कि धरती पर जीवित प्रकाश स्वरूप जिनेंद्र महावीर के न रहने से धरती पर जो अज्ञान रूपी अंधकार पसर गया है, उसे मिटाने के लिए हजारों हजार दीप जलाए जाएँ| इस रात्रि में आकाशदीप जलाने का भी विधान है| प्राचीन काल में लोग आकाश की ओर उल्काएँ (जलती मशालें) फेंकते थे या उसे हाथ में ऊँचा उठाकर दौड़ते थे| यह पितरों को प्रकाश दिखाने का प्रतीक था, जिससे वे सुखपूर्वक अपने लोक में चले जाएँ| अभी कुछ दशक पहले तक लोग घरों के सबसे ऊंचे स्थानों पर या बॉंस के खंभे लगाकर उनके सिर पर कदीलें जलाया करते थे| उत्तर भारत में इसे आकाशदीप कहा जाता था| यह भी पितरों के निमित्त अर्पित था| असल में प्राचीन काल में प्राय: हर पर्व, त्यौहार, उत्सव, विवाह आदि के अवसर पर पितरों का अवश्य स्मरण किया जाता था और उन्हें पिंड दान किया जाता था| यह कृत्य इस दीपावली की सुखरात्रि में भी किया जाता था| चूंकि अमावस्या की रात्रि घोर अंधकारमय होती है, इसलिए आकाश मार्ग से वापस जाने वाले पितरों के लिए इस प्रकाश दीप की व्यवस्था की गई| ग्रामांचल में लक्ष्मी-गणेशादि के पूजनोपरांत नृत्य-गीत, खान-पान, उपहार वितरणादि के बाद जब पुरुषवर्ग निद्रालस शयनोन्मुख हो जाता था, स्त्रियां ढोल, डफ, सूप आदि बजाते हुए तथा कंठ से भी शोर करते हुए अलक्ष्मी या दारिद्र्य लक्ष्मी को गांव-नगर से बाहर भगाने का यत्न करती थीं| और उन्हें गांव-कस्बे की सीमा से बाहर करके और पुरानी वस्तुओं सूप, झाडू आदि वहीं फेंककर वापस आ जातीं| कई इलाकों में यह कृत्य इस अमावस्मा के बजाय कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी (देवोत्थानी एकादशी) की रात्रि में किया जाता है और ढोल, डफ, सूप आदि बजाने के लिए गन्ने के टुकड़े का इस्तेमाल किया जाता है| दशहरे की दशमी तिथि की तरह यह अमावस्या की तिथि भी अत्यंत पवित्र और शुभ मानी जाती है, इसलिए इस रात्रि में तंत्र-मंत्र की साधना करने वाले अनेक प्रकार का अनुष्ठान भी करते हैं| बंगाल में इस रात्रि लक्ष्मी के बजाय मुख्यत: काली की पूजा की जाती है| यह भी मूलत: तांत्रिक अनुष्ठान से संबद्ध पूजा थी| बंगप्रदेश को (जिसमें उड़ीसा से लेकर असम तक का क्षेत्र आ जाता है) प्राचीन काल में तंत्र साधना की मुख्य भूमि माना जाता था| भविष्योत्तर पुराण में अमावस्या को क्या करना चाहिए, यह विस्तार से बताया गया है| संक्षेप में उसका उल्लेख रोचक होगा| प्रात:काल सूर्योदय के समय तैलमर्दन के साथ स्नान (अभ्यंगस्नान), देव पितरों की पूजा, दही-दूध-घृत से पितरों का श्राद्ध तथा विविध व्यंजनों के साथ ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए| अपराह्न राजा को अपनी राजधानी में ऐसी घोषणा करनी चाहिए कि आज बलि का आधिपत्य है, हे लोगों, आनंद मनाओ| लोगों को अपने-अपने घरों में नृत्य-संगीत का आयोजन करना चाहिए, एक-दूसरे को ताम्बूल देना चाहिए, कुंकुम लगाना चाहिए, रेशमी वस्त्र धारण करना चाहिए, सोने और रत्नों के आभूषण पहनने चाहिए| स्त्रियों को सजधज कर समूह में निकलना चाहिए| रूपवती कुमारियों को इधर-उधर आनंद के प्रतीक चावल बिखेरने चाहिए| राजा को चाहिए कि वह अर्धरात्रि में निकलकर राजधानी में भ्रमण करे और लोगों के आनंदोत्सव को देखे|
यह दिन वैश्य-व्यापारियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि लक्ष्मी की असली आराधना तो उनके उद्यम से ही होती है| इसीलिए कहा भी गया है कि ‘व्यापारे वसति लक्ष्मी’| वे इस रात्रि अपने बही-खातों की पूजा करते हैं| पुराने बही-खाते बंद करते हैं, नए का प्रारंभ करते हैं| परंपरा से इस अवसर पर वे अपने मित्रों, ग्राहकों एवं अन्य व्यापारियों को आमंत्रित करते हैं और उनका ताम्बूल एवं मिठाइयों से सत्कार करते हैं| आजकल इसकी जगह दीपावली-मिलन के आयोजन होने लगे हैं और त्यौहार के अवसर पर मिठाइयों व मेवे के पैकेट भेजे जाने लगे हैं|
अगले दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा की तिथि आती है| इस दिन प्राचीनकाल में राजा बलि की पूजा की जाती थी| इस दिन भी प्रात:काल तैलाभ्यंग के साथ स्नान के उपरांत पूजा और तदनंतर आनंदोत्सव की परंपरा थी| विश्‍वास था कि इस दिन किए दान का कई गुना अधिक और अक्षय फल मिलता है| वामन और बलि की कथा भी इस तिथि से जुड़ी है| यज्ञ में वामनरूप विष्णु द्वारा बलि से तीन पग भूमि मॉंगने की कथा बहुत प्रचलित है| इस दिन भी सायंकाल दीपदान की प्रथा है| बलिराज्य के दिन दीपदान से लक्ष्मी स्थिर होती हैं | वैष्णव काल में कृष्ण द्वारा की गयी गोवर्धन पूजा का कृत्य इस दिन जुड़ गया| संभवत: कृष्ण ने बलि या इंद्र की पूजा बंद करवा के गोवर्धन पूजा का प्रारंभ किया| इस दिन परंपरया गायों और बैलों की पूजा की जाती है| गायों को दुहा नहीं जाता और बैलों से कोई काम नहीं कराया जाता| आजकल इस दिन विष्णु, राम व कृष्ण मंदिरों में भोग के आयोजन किए जाते हैं| अन्न (भोजन) का कूट (पर्वत) बनाया जाता है, फिर उसे वितरित कर दिया जाता है, इसलिए इसे ‘अन्नकूट’ भी कहा जाने लगा| कार्तिक शुक्ल द्वितीया का उत्सव भी अनूठा है| इसे भ्रातृद्वितीया (भाईदूज) के रूप में जाना जाता है| भविष्य पुराण की कथा है कि इस तिथि को यमुना ने अपने भाई यम को अपने घर भोजन के लिए आमंत्रित किया था| इसलिए इस तिथि को यम द्वितीया नाम मिल गया| धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि इस दिन व्यक्ति को दोपहर का भोजन अपने घर में नहीं, बल्कि बहन के घर में जाकर करना चाहिए| बहन को भेंट-उपहार देना चाहिए| यदि सहोदरा बहन न हो, तो चाचा या मौसी की पुत्री या अपने मित्र की बहन के यहॉं जाकर भोजन करना चाहिए और उपहार देना चाहिए|
दीपावली उत्सव का मूल कृत्य केवल तीन दिन का होता है, लेकिन एक दिन पहले धनतेरस और एक दिन बाद की यम द्वितीया ने इसे पंचदिवसीय बना दिया है| भाई-बहन के स्नेह संबंध के जुड़ जाने से इस उत्सव को एक अनूठा सामाजिक विस्तार मिल गया है, जो प्राचीन काल में स्त्री के महत्व और पुरुषों के उसके प्रति दायित्व को भी रेखांकित करता है, क्योंकि प्रत्येक स्त्री किसी न किसी की बहन भी होती ही है| इसलिए आज भी यह उत्सव अत्यंत प्रासंगिक है|
दीपोत्सव के तमाम धार्मिक कृत्य तो अब काल के गाल में लुप्त हो गए हैं, उन्हें केवल पुराणों व धर्मशास्त्रों में देखा जा सकता है, लेकिन प्रकाशोत्सव और लक्ष्मीपूजन उत्सव के रूप में इसकी अंतर्राष्ट्रीय व्माप्ति हो गई है| दुनिया में जहॉं-जहॉं भारतवंशी गये, वहॉं-वहॉं भारतीय संस्कृति भी पहुँची| यह क्रम हजारों साल से चला आ रहा है| आज दुनिया का शायद ही कोई एकाध देश ऐसा हो, जहॉं भारतीय न बसे हों| और दुनिया में जहॉं कहीं भी कोई भारतीय है, वह दीपावली का उत्सव अवश्य मनाता है| हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध सभी दीपोत्सव में समान रूप से भाग लेते हैं| सिखों के छठे गुरु हरगोविंद जी को मुगल जहांगीर ने कैद करवा लिया था| वह ५२ अन्य राजाओं के साथ ग्वालियर के किले में कैद थे| जहांगीर से गुरु को मुक्त करने के लिए कहा गया, वह राजी हो गए, लेकिन गुरु ने अन्य ५२ राजाओं की रिहाई का भी आग्रह किया| अपनी युक्ति से गुरु जी ने उन्हें भी मुक्त कर लिया| वे सब दीपावली के दिन ही जेल से रिहा हुए, इसलिए सिखों ने इस दिन विशेष रूप से उत्सव मनाया और इसे ‘बंदी छोड़ दिवस’ की संज्ञा दी|
नेपाल सांस्कृतिक रूप से भारत का ही अंग है, इसलिए प्राय: सभी भारतीय त्यौहार वहॉं भी पूरे उत्साह से मनाए जाते हैं| दीपावली भी वैसे ही मनाई जाती है, लेकिन कृत्यों में कुछ भेद है| जैसे यहॉं पॉंच दिन के त्यौहार का पहला दिन ङ्गकागतिहारफ कहा जाता है और उस दिन कौवों को खिलाया जाता है| कौवा शुभ संदेश लानेवाला पक्षी माना जाता है, इसलिए उसे यह सम्मान दिया जाता है| अगला दिन ‘कूकुरतिहार’ कहा जाता है| उस दिन कुत्तों को उनकी वफादारी के लिए खिलाया-पिलाया जाता है तथा सम्मान दिया जाता है| तीसरे दिन लक्ष्मी पूजा होती है और इस दिन गाय की भी पूजा की जाती है| जाहिर है, यहॉं त्यौहार पर पशुओं को अधिक महत्व दिया जाता है| लक्ष्मी पूजा का दिन नेपाली संवत् का अंतिम दिन भी होता है| अगला दिन नेपालियों का नववर्ष दिवस होता है| इस दिन शरीर की आराधना की जाती है| यानी अगले पूरे वर्ष के लिए स्वस्थ होने की कामना की जाती है| इसे वहॉं यम्हा पूजा कहा जाता है| अगला दिन भारत की तरह ही ‘भाई टीका’ का होता है, जिसमें भाई-बहन मिलते हैं| बहन-भाई को टीका करती है, भोजन कराती है और भाई उसे उपहार देता है| आज दुनिया के तमाम अन्य देशों, ब्रिटेन, नीदरलैंड, न्मूजीलैंड, सूरीनाम, कनाडा, गुयाना, केन्या, मॉरिशस, फिजी, जापान, इंडोनेशिया, मलेशिया, म्यांमार, सिंगापुर, श्रीलंका, दक्षिण अफ्रीका, तंजानियां, ट्रिनीडाड, टोबैगो, जमैका, थाईलैंड, आस्ट्रेलिया, संयुक्त अरब अमीरात तथा अमेरिका आदि में बड़े उत्साह से दीपोत्सव मनाया जाता है, जिसमें स्थानीय मूल के लोग भी भाग लेते हैं|
वास्तव में यह एक सार्वभौम त्यौहार है, जो अज्ञान, अनैतिकता, अन्याय, अनाचार, अंधकार एवं मृत्यु के विरुद्ध ज्ञान, नैतिकता, न्माम, सदाचार, प्रकाश एवं अमरता की विजय का उत्सव है| इसीलिए इस त्यौहार का महामंत्र है-
असतो मा सद्गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योमा अमृतंगमय
दारिद्र्यात् समृद्धिंगमय

वर्ष का श्रेष्ठतम मास - कार्तिक
 
भारतीय वर्ष गणना (संवत्सर) का आठवॉं महीना ‘कार्तिक’ वर्ष का सर्वाधिक पवित्र तथा महत्वपूर्ण महीना माना गया है| यह चातुर्मास की समाप्ति तथा नए सक्रिय आर्थिक वर्ष के प्रारंभ का महीना तो है ही, साथ ही यह उपासना, उत्सव तथा आध्यात्मिक साधना का भी महीना है| यह लौकिक तथा पारलौकिक दोनों दृष्टियों से वर्ष का सबसे अनूठा महीना माना जाता है|
प्राचीन विश्‍वासों के अनुसाार यह सब पापों से मुक्ति दिलाने वाला महीना है| भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं कि महीनों में कार्तिक मास मैं स्वयं हूँ, यानी भगवान कृष्ण ने भी इसकी श्रेष्ठता पर मुहर लगाई| वैष्णव एवं शैव दोनों ही धर्मोपासना विधियों ने इसके महत्व को स्वीकार किया है, विष्णु को यह मास इतना प्रिय है कि इस अवधि में अल्प उपासना करने वालों को भी वह सारे सांसारिक सुख एवं मोक्ष प्रदान करते हैें|
कार्तिक के महीने में दीपदान का विशेष महत्व है| दीप प्रकाश का स्रोत तथा ज्ञान का प्रतीक है| इसलिए जहॉं सामान्यजन प्रतीकात्मक रूप से दीपदान करते हैं, वहीं विद्वत्जन इस महीने में ज्ञान वितरण का कार्य करते हैं| अभी भी अयोध्या, प्रयाग तथा काशी जैसे तीर्थस्थलों में कल्पवास (तीर्थस्थल पर एक महीने का निवास, पवित्र नदियों में स्नान तथा इतिहास, पुराण एवं धर्मशास्त्रों आदि का अध्ययन, श्रवण करते हुए समय बिताना) करते हैं, तो विद्वत्जन ऐसे समय में वहॉं पहुँचकर अपनी ज्ञान संपदा का वितरण करते हैं|
इस महीने में दान का विशेष महत्व है, लेकिन सभी दानों में ‘दीपदान’ एवं ‘ज्ञानदान’ का विशेष महत्व है| लोग इस महीने के पूरे तीसों दिन तुलसी के बिरवे के निकट दीप जलाते हैं, नदियों-सरोवरों में दीप प्रवाह करते हैं, आकाश दीप जलाते हैं तथा घर के उन कोनों में भी प्रकाश करते हैं, जहॉं प्रायः अंधेरा रहता है|
पद्म पुराण में वर्णित ‘कार्तिक’ माहात्म्य के अनुसार भगवान विष्णु का पहला अवतार यानी ङ्गमत्स्यावतारफ इसी काल में हुआ था| कथा है कि शंख नामक असुर (शंखासुर) ने वेदों का अपहरण करके सागर तल में छिपा दिया था| भगवान विष्णु ने वेदों का (ज्ञान का) उद्धार करने के लिए मत्स्यावतार धारण किया और शंखासुर का वध करके वेदों को मुक्त कराया| पुराण के अनुसार कार्तिक शुक्ल एकादशी को भगवान विष्णु ने मत्स्यावतार ग्रहण किया था| इसलिए इस एकादशी को ‘हरिबोधिनी एकादशी’ भी कहते हैं, क्योंकि इस दिन उन्होंने वेदों का उद्धार करके बोध यानी ज्ञान की पुनर्स्थापना की थी| कार्तिक मास में दामोदर विष्णु की प्रधानता के कारण इसे दामोदर मास भी कहते हैं|
इस महीने के अंतिम पॉंच दिन सर्वाधिक  महत्वपूर्ण माने जाते हैं| इन्हें ‘भीष्म पंचक’ या ‘विष्णु पंचक’ के नाम से भी जाना जाता है| वैष्णव भक्तों का विश्‍वास है कि इन पॉंच दिनों के व्रत, उपवास, जप उपासना से पूरे महीने की उपासना का फल प्राप्त हो जाता है| चैतन्य महाप्रभु के अनुसार कार्तिक सर्वाधिक पवित्र मास है और इसके शुक्ल पक्ष की एकादशी सर्वाधिक महत्वपूर्ण तिथि, यह तो सभी जानते हैं किंतु इस मास के अंतिम पॉँच दिनों का अपार महत्व कम लोग जानते हैं| कुुरुवंशी पितामह भीष्म ने शरशय्या पर पड़े हुए अपनी मृत्यु की तैयारी के पूर्व इन्हीं पॉंच दिनों में पांडवों को राजनीति, समाजविज्ञान एवं अध्यात्म का उपदेश दिया था और कार्तिक मास के ज्ञानदान महोत्सव को पूर्णता प्रदान की थी|
इस वर्ष २०१२ में कार्तिक मास का प्रारंभ ३० अक्टूबर से हुआ और २८ नवंबर को यह समाप्त हो रहा है| महीने की शुरुआत में करवाचौथ का महत्वपूर्ण व्रत पड़ता है| उसके बाद अहोई अष्टमी आती है| करवाचौथ जहॉं पति की दीर्घायु कामना का व्रत है, वहॉं अहोई अष्टमी संतति रक्षा तथा उनके कल्याण के लिए है| इसके बाद दीपावली का पंचदिवसीय उत्सव आता है, जो धनतेरस से लेकर भैयादूज तक चलता है| इसके बाद सूर्योपासना का पर्व छठ पूजा, आमला की नवमी (इस दिन आंवला वृक्ष की पूजा की जाती है| अयोध्या में इस दिन इस तीर्थ नगर की चौदह कोसी - करीब ४२ कि.मी. की - परिक्रमा होती है, जिसमें लाखों लोग शामिल होते हैं), प्रबोधिनी एकादशी, भीष्म पंचक एवं तुलसी विवाहोत्सव का पर्व आता है और अंत होता है पूर्णिमा के स्नान से| पूर्णिमा वेदव्यास की पूजा का दिन है, जो संपूर्ण पारंपरिक भारतीय ज्ञान के प्रतीक हैं| इस दिन संत गुरु नानकदेव की जयंती भी मनाई जाती है| और इसके साथ ज्ञान, ध्यान, प्रकाश, ऐश्‍वर्य, स्वास्थ्य, जप, तप एवं आराधना-उपासना का माह कार्तिक समाप्त होता है|

जैव विविधता का बढ़ता क्षय
प्रकृति पर मंडराता खतरा

भारत सरकार अपनी जैव संपदा के संरक्षण के प्रति चिंतित तो नजर आती है, लेकिन वह उसके लिए गंभीरता से कुछ करती नजर नहीं आती| वह अब तक अपने क्षेत्र में उपलब्ध जीवों तथा वनस्पति प्रजातियों का आंकड़ा तक एकत्र नहीं कर पाई है| सरकार की नेशनल बायोडायवर्सिटी अथॉरिटी (एनबीए) अब तक देश के ७० प्रतिशत इलाके में पाई जाने वाली प्राणि-पादपों की केवल १ लाख ५० हजार प्रजातियों के आंकड़े एकत्र कर सकी है| जाहिर है अभी काफी बड़ी संख्या के आंकड़े एकत्र करना बाकी है| अभी कितनी अनजानी प्रजातियॉं पड़ी होंगी या अनजाने नष्ट हो रही होंगी इसका क्या पता| अभी २००५ में अरुणाचल प्रदेश में एक दुर्लभ जाति का बंदर मिला था| जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने २०११ में १९३ प्राणियों की १९३ नई प्रजातियों का पता लगाया| भारत के जल क्षेत्र में १३ हजार लुप्त प्रायः प्रजातियों की गणना की गई है, लेकिन हास्यास्पद तथ्य यह है कि भारत सरकार के पास इनके बचाव का फिलहाल कोई उपाय नहीं है|

इस अक्टूबर महीने की ८ से १९ तारीख तक हैदराबाद में एकत्र हुए दुनिया के करीब १२ हजार से अधिक विशेषज्ञों ने इस बात पर माथापच्ची की कि दुनिया के लुप्त हो रहे जीव जंतुओं तथा पादपों को कैसे बचाया जाए| इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन (आईयूसीएन) के अनुसार इस दुनिया की ९२९ जैव प्रजातियॉं विनाश के कगार पर में हैं| अब तक कितनी जैव प्रजातियॉं लुप्त हो चुकी हैं, इसका तो अनुमान भी लगाना कठिन है, लेकिन जो प्रजातियॉं खतरे में हैं, उनका तो बचाव किया जा सकता है| इन विशेषज्ञों की राय में विश्‍व की इस अनमोल जैविक संपदा के संरक्षण के लिए कम से कम ४० अरब डॉलर की जरूरत है| भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने इसमें अपनी सरकार की ओर से ५ करोड़ डॉलर के योगदान की घोषणा की है|
विशेषज्ञों का यह भारी दल संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में आयोजित कंवेंशन ऑन बायोलॉजिक डाइवर्सिटी (सी.बी.डी.) यानी जैव विविधता सभा के भागीदार देशों के ११वें सम्मेलन में भाग लेने के लिए हैदराबाद आया हुआ था| इस बार इस सम्मेलन की मेजबानी भारत ने की, क्योंकि वह इस सभा का महत्वपूर्ण सदस्य है| भारत अगले २ वर्षों के लिए सी.बी.डी. का अध्यक्ष भी है, इसलिए उसने काफी आगे बढ़कर इस सम्मेलन का एजेंडा तय किया| जैसे कि उसने समुद्री जीव संरक्षण के प्रस्ताव को विशेष प्रमुखता के साथ पेश किया| भारत के पास करीब ८००० किलोमीटर लंबा विशाल समुद्र तट है, जो जैव विविधताओं से भरपूर है| लेकिन इसके साथ ही यह भी एक दुखद यथार्थ है कि भारत के पास समुद्री जीव संरक्षण की न तो कोई योजना है, न कोई मशीनरी है और न ही कोई कानून| उसने सम्मेलन में आगे बढ़कर कागजी नेतागिरी तो अवश्य की है, लेकिन व्यवहार में उसने इस दिशा में अब तक कुछ नहीं किया है| और आगे भी कुछ खास हो सकने की संभावना नहीं है|
भारत जैव विविधता की दृष्टि से एक अत्यंत समृद्ध क्षेत्र है| यह भारी जनसंख्या वाला क्षेत्र ही नहीं है, भारज जैव-वानस्पतिक प्रजाति संख्या वाला देश भी है, लेकिन इसका परिणाम यह हुआ है कि इस देश में मानव जाति और अन्य जीवों के बीच संघर्ष भी बहुत सघन रहा है, जिसके फलस्वरूप यहॉं के जाने कितने जीव और वनस्पति प्रजातियॉं नष्ट हो चुकी हैं और जाने कितनी नष्ट होने की कगार पर हैं| पिछले कुछ दशकों में ही भारत कई उल्लेखनीय प्रजातियों को खो चुका है| इनमें भारतीय चीता, छोटे कद वाला गैंडा, गुलाबी सिर वाली बत्तख, जंगली उल्लू और हिमालय का पहाड़ी बटेर जैसे प्राणी भी शामिल हैं| भारत के जल क्षेत्र में पाई जाने वाली करीब १३ हजार प्रजातियां ऐसी हैं, जो विलुप्त होने के कगार पर हैं| भारत की कुल आबादी इस समय करीब एक अरब इक्कीस करोड़ है, जो दुनिया की पूरी जनसंख्या का १८ प्रतिशत है, लेकिन भारत के पास उपलब्ध कुल जमीन दुनिया का मात्र २.४ प्रतिशत ही है| इसी २.४ प्रतिशत जमीन में मनुष्यों तथा सारी अन्य जैव एवं पादप प्रजातियों को निवास करना है| मानव जनसंख्या में हो रही तीव्र वृद्धि के कारण जंगली जीवों और पादपों का इलाका लगातार कम होता जा रहा है| अपने आहार तथा आर्थिक विकास के लिए भी मनुष्य न केवल अन्य प्राणिक्षेत्रों को हथियाने में लगा है, बल्कि स्वयं उन प्राणियों और पादप प्रजातियों को भी निगलता जा रहा है| जनसंख्या विस्तार तथा भोग की बढ़ती भूख से मनुष्य तथा वन्य प्राणि समुदाय के बीच का संघर्ष उग्र से उग्रतर होता जा रहा है, जिसमें वन्य प्राणियों को ही पराजय एवं विनाश का शिकार होना पड़ा रहा है|
भारत सरकार अपनी जैव संपदा के संरक्षण के प्रति चिंतित तो नजर आती है, लेकिन वह उसके लिए गंभीरता से कुछ करती नजर नहीं आती| वह अब तक अपने क्षेत्र में उपलब्ध जीवों तथा वनस्पति प्रजातियों का आंकड़ा तक एकत्र नहीं कर पाई है| सरकार की नेशनल बायोडायवर्सिटी अथॉरिटी (एन.बी.ए.) अब तक देश के ७० प्रतिशत इलाके में पाई जाने वाली प्राणि-पादपों की केवल १ लाख ५० हजार प्रजातियों के आंकड़े एकत्र कर सकी है| जाहिर है अभी काफी बड़ी संख्या के आंकड़े एकत्र करना बाकी है| अभी कितनी अनजानी प्रजातियॉं पड़ी होंगी या अनजाने नष्ट हो रही होंगी इसका क्या पता| अभी २००५ में अरुणाचल प्रदेश में एक दुर्लभ जाति का बंदर मिला था| जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने २०११ में १९३ प्राणियों की १९३ नई प्रजातियों का पता लगाया| भारत के जल क्षेत्र में १३ हजार लुप्त प्रायः प्रजातियों की गणना की गई है, लेकिन हास्यास्पद तथ्य यह है कि भारत सरकार के पास इनके बचाव का फिलहाल कोई उपाय नहीं है|
‘बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी’ की नेहा सिन्हा ने उपर्युक्त सम्मेलन के संदर्भ में लिखे अपने एक आलेख में इस बात पर गहरी चिंता व्यक्त की है कि जब भारत सरकार के पास अपने जल क्षेत्र के जीवों के संरक्षण की कोई मशीनरी ही नहीं है, तो वह अपनी लुप्त होती प्रजातियों को विनाश से कैसे बचा सकेगी| उन्होंने गुजरात के ‘समुद्री राष्ट्रीय उद्यान’ (मैरीन नेशनल पार्क) के संदर्भ में एक वाकये का जिक्र किया है| उन्होंने उसके बारे में उसकी देखरेख के लिए नियुक्त एक अधिकारी से कुछ जानना चाहा, तो उसने साफ कहा कि ‘वास्तव में मुझे इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है कि वहॉं समंदर के नीचे क्या है|’ वह अधिकारी वन विभाग में कार्यरत था|  नेहा ने एक अन्य अधिकारी से बात की तो उसको यह भी पता नहीं था कि ‘कोरल रीफ’ जीवित समुद्री प्राणियों से निर्मित होती है| यह तो खैर उस ऑफिसर की बात रही, लेकिन सवाल है कि क्या भारत सरकार के लोगों को पता है कि वहॉं समंदर के नीचे क्या है? क्या हमारे वन विभाग के अधिकारी ही समुद्र जल की भी देखरेख कर लेंगे? हमारे वन विभाग का गठन वास्तव में जंगलों के प्रबंधन, चारागाहों के नियंत्रण, वन पादप आरोपण तथा वन्य जीवोंे के संरक्षण के लिए किया गया था| यद्यपि देश के पास समुद्री जीव संरक्षण की वैज्ञानिक व तकनीकी जानकारी है, किंतु वन विभाग के अधिकारी तो उनसे वाकिफ नहीं हैं| उनका प्रशिक्षण धरती की सतह के लिए किया गया है, समुद्र की तलहटी के लिए नहीं| हमारे पास समुद्री जीव संरक्षण के लिए कानून भी नहीं है| हमारे पास वन्य जीव सुरक्षा कानून (वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन ऐक्ट) है, राज्य स्तर पर वृक्ष संरक्षण कानून (ट्री प्रिजर्वेशन ऐक्ट) है और पर्यावरण सुरक्षा कानून (इनवायर्नमेंट प्रोटेक्शन एक्ट) है, लेकिन इनमें से कोई भी समुद्री क्षेत्र पर लागू नहीं होता| कोरल रीफ (मूँगे की चट्टानों) को प्रायः समुद्री जंगल की संज्ञा दी जाती है और समुद्री घास भी प्राणियों के लिए मैदानी घांसों से कम महत्वपूर्ण नहीं है| जैसे मैदानी चारागाहों की घास गाय, भैंस जैसे प्राणियों के लिए आहार के प्रथम स्रोत हैं, उसी तरह ये समुद्री घास बहुत से समुद्री जानवरों के लिए है| इनमें एक बहुत महत्वपूर्ण प्राणि समुदाय है ‘डुगांग्स’ परिवार| ‘डुगांग्स’ समुद्र तल के विशाल स्तनपायी जंतु है, जिन्हें समुद्री गाय (सी काउ) के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि ये भी गायों की तरह समुद्र तल की घास को चरकर अपना पोषण करती हैं| इन समुद्री गायों की जतियॉं तेजी से विलुप्त हो रही हैं| कुछ तो पूरी तरह विलुप्त भी हो चुकी हैं| केवल दो वर्गों की तीन प्रजातियॉं| शेष बची हैं, वे भी लुप्त होने के निकट है, क्योंकि उनका शिकार तेजी से जारी है| कई देशों में समुद्री गायों के मॉंस के खास रेस्त्राओं का समूह फैला हुआ है|
अंतरर्राष्ट्रीय स्तर पर जैव विविधता की रक्षा की चिंता अब से करीब दो दशक पूर्व शुरू हुई| १९९२ में संयुक्त राष्ट्र संघ ने ‘पर्यावरण और विकास’ विषय पर एक सम्मेलन का आयोजन किया| इस सम्मेलन में शामिल १९२ देशों तथा यूरोपीय संघ ने मिलकर जैव विविधता को हो रही क्षति को रोकने तथा उसके संरक्षण पर विचार के लिए एक सभा ‘कन्वेंशन ऑन बायोलॉजिक डायवर्सिटीज’ (सी.बी.टी.) की स्थापना की| इसके भागीदार देशों (कांफरेंस ऑफ द पार्टीज) २००२ में हुए सम्मेलन में तय किया गया कि २०१० तक जैव विविधता को हो रही क्षति में उल्लेखनीय स्तर तक कमी लाने का काम किया जाएगा| सी.बी.टी. ने जैव विविधता के महत्व को रेखांकित करते हुए अपने वक्तव्य में कहा कि ‘संसार की करीब ३० प्रतिशत अर्थव्यवस्था तथा गरीबों की ८० प्रतिशत आवश्यकताओं की पूर्ति विविध प्राणियों और पादपों पर निर्भर है| इसके अतिरिक्त प्राणियों व पादपों की जितनी अधिक संख्या रहेगी, चिकित्सकीय अनुसंधान, आर्थिक विकास तथा मौसम में बदलाव जैसी चुनौतियों का मुकाबला करने के उतने ही अधिक अवसर उपलब्ध होंगे|’ इससे जाहिर है कि जैव विविधता हमारी धरती, हमारे स्वास्थ्य तथा हमारी अर्थव्यवस्था के लिए कितनी महत्वपूर्ण है| किंतु तमाम सम्मेलनों, प्रस्तावों तथा व्याख्याओं के बावजूद जैव विविधता का क्षरण जारी है| लगातार अनेक प्राणियों व वनस्पतियों की प्रजातियां लुप्त होती जा रही हैं|
हम लोगों में से बहुत से लोगों को यह जानकारी होगी की प्रकृति में हर प्राणी परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर है| उनके परस्पर संबंधों के आधार पर ही प्रकृति की जीवनधारा प्रवाहित होती है| धरती पर सूक्ष्म जीवों की भी एक ऐसी शृंखला है, जिसके बिना मनुष्य जैसा बड़ा प्राणि समुदाय भी अपनी जीवन रक्षा नहीं कर सकता| इस ‘जीवन’ को सहारा देने वाली ‘जीवन प्रणाली’ का सामान्यतया कोई मूल्य नहीं आंका जाता, लेकिन उसके बिना धरती पर सामान्य जीवन स्थिर नहीं रह सकता|
यहॉं यह उल्लेखनीय है कि प्रकृति के अपने जैव संतुलन के बीच बाहरी जीवों का हस्तक्षेप भी भारी संकट खड़ा करता है| इस तरह का हस्तक्षेप करके जैव विनाश करने वालों में मनुष्य अग्रणी है| २०वीं शताब्दी में विश्‍व भर में जैव प्रजातियों की विनाश दर पिछले ६५० लाख वर्षों की औसत विनाश दर से १००० गुना अधिक है| उसके बाद की अर्थात वर्तमान २१वीं शताब्दी में यह दर १०,००० गुना अधिक हो सकती है| मनुष्य ने प्रकृति को कल्पनातीत नुकसान पहुँचाया है| एक अध्ययन के अनुसार १९५० के बाद जबसे मछली पकड़ना एक उद्योग बना, तब से आगे के ५० वर्षों में धरती के बड़े महासागरों में स्थित ९० प्रतिशत मछलियॉं पकड़ ली गईं| जलवायु परिवर्तन और पारिस्थितिकीय दबाव का वर्तमान स्तर बना रहा, तो हम अपने जीवनकाल में ही व्यापक जैव विनाश का नजारा देख लेंगे| २०५० तक १५ से ३७ प्रतिशत (यानी करीब १२ लाख ५० हजार) जीवित प्रजातियॉं नष्ट हो चुकी रहेंगे| वैज्ञानिकों का आकलन है कि यदि विश्‍व तापमान (ग्लोबल टेम्परेचर) में ३.५ सेंटीग्रेड की वृद्धि हो गई, तो धरती पर मौजूद जीवों की ७० प्रतिशत ज्ञात प्रजातियों के विनष्ट हो जाने का खतरा है| सबसे बड़ा खतरा ‘ध्रुवीय हिम पट्टी’ तथा ‘समुद्री कोरल रीफ’ (मूंगे की चट्टानों) के लिए है| यदि ध्रुवीय बर्फ लगातार पिघलती रही, तो गर्मी की ऋतु में आर्कटिक  महासागर का पूरा जीव मंडल समाप्त हो जाएगा| इसके अतिरिक्त आप यह भी जान लें कि धरती के वायु मंडल में कार्बन डाई आक्साइड का स्तर जितना बढ़ता है, उतना ही वह समुद्री जल में बढ़ता है, जिसके कारण समुद्री जल की अम्लीयता का स्तर बढ़ता है| समुद्र में अम्लीयता बढ़ने का सीधा अर्थ है समुद्री जीव विविधता का क्षरण| अधिक कार्बन डाई आक्साइड से समुद्री प्रजातियों की खोल (शेल्स) कमजोर हो जाती हैं और जीव मर जाते हैं| इससे प्रजातियों की संख्या ही नहीं घटती, बल्कि प्राणियों का पूरा भोजनचक्र बिगड़ जाता है| इस बढ़ती अम्लीयता से सर्वाधिक प्रभावित होने वाला समुद्री प्राणी कोरल है| गर्म जल क्षेत्र की कोरल पट्टी में १९८० से अब तक ३० प्रतिशत की कमी आई है| और यदि मौसम की गर्मी बढ़ती रही, तो क्षति की दर और बढ़ती रहेगी|
विलियम क्विन नाम के एक पर्यावरण विज्ञानी ने अपने एक आलेख में लिखा था कि हम जिसे धरती कहते हैं, उसके जटिल प्राकृतिक स्वरूप का निर्माण जैव विविधता से ही हुआ है| यदि यह जैव विविधता नहीं रही, तो अतिवादी मौसम (इक्सट्रीम वेदर) का एक झोंका भी किसी एक जीवन मंडल (बायोम) के समस्त जीवों का सफाया कर देगा| यदि जैव विविधता का स्तर ऊँचा रहा, तो कैसी भी कोई  आपदा आए, प्रजातियों का एक वर्ग तो बचा ही रहेगा, जो फिर से धरती को जीव समृद्ध बना देगा| लेकिन आज तो स्वयं जैव विविधता ही खतरे में है| अपनी जनसंख्या वृद्धि के साथ मनुष्य प्रकृति का सबसे बड़ा विनाशक बन गया है| वह अपने आहार और निवास के लिए तो जैव संपदा का नाश कर ही रहा है, लेकिन उसकी विकास यात्रा में जो प्रदूषण बढ़ रहा है, मौसम बिगड़ रहा है, उसके कारण प्राकृतिक विविधता के लिए और अधिक खतरा पैदा हो गया है| इसलिए यह और अधिक आवश्यक हो गया है कि मनुष्य अपनी जीवनशैली को बदले, अन्यथा उन करोड़ों प्रजातियों के विनाश का खतरा सामने है, जिनको कभी फिर वापस नहीं लाया जा सकेगा| इसका कुल प्रभाव क्या पड़ेगा, यह शायद हम कभी नहीं जान सकेंगे|
अफसोस की बात है कि आज का समृद्ध विश्‍व हो या विकासशील विश्‍व हो, कोई भी इस खतरे के प्रति गंभीर नहीं है| धनी देश अपनी उपभोग शैली बदलने के लिए तैयार नहीं है, तो विकासशील देश समृद्ध देशों की कतार में पहुँचने के लिए प्रकृति का अधिक से अधिक दोहन करने में लगे हैं| फिर भी आशा की किरण अभी शेष है| छोटे स्तर पर ही सही मगर प्रकृति संरक्षण के उपाय शुरू हो गए हैं| आशा है ये कोशिशें तेज होंगी और कम से कम जैव प्रजातियों के और अधिक विनाश की दर तो कुछ रोकी जा सकेगी| जैव विविधता संरक्षण के अभियान का नेतृत्व फिलहाल भारत के हाथ में आने वाला है, इसलिए हम भारतीयों पर कुछ अधिक ही जिम्मेदारी है| हम तो प्रकृति के सबसे निकट उपासक हैं| हमारी पुराण कथाएँ यही उपदेश देती है कि शतरूपा किंवा अनंत रूपा प्रकृति के गर्भ से ही यह मानव सृष्टि हुई है और उसके संरक्षण या स्वास्थ्य पर ही इसका अस्तित्व अवलंबित है| हमने तो अपने जलचर (मत्स्य), उभयचर  (कच्छप) एवं थलचर (वाराह, नरसिंह आदि) प्राणियों को परमात्मा के अवतार के रूप में स्थापित कर रखा है| अगर हम इस अभियान में चूक गए, तो दुनिया की कोई और जाति कोई और देश तो कतई इस जीव विविधता की रक्षा का आधार नहीं बन सकेगा|
हिन्दुत्व की मराठा राजनीति का अवसान

महाराष्ट्र के एक दबंग नेता और शिव सेना के ‘सर्वेसर्वा’ बाला साहेब ठाकरे का शनिवार (१७ नवंबर २०१२) की दोपहर दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया| उड़ते-उड़ते खबर फैल गई और पूरा महाराष्ट्र और ‘मराठी माणुस’ शोक विह्वल हो गया| एक तरह से पूरा राष्ट्र ‘स्तब्ध’ हो गया| विरोधियों के लिए आतंक तथा युवाओं के प्रेरणा स्रोत माने गए ‘बाल साहेब’ आखिर थे क्या?

बाला साहब ठाकरे के साथ इस देश में राजनीति की एक अनूठी शैली का अंत हो गया है| उनका राजनीतिक व्यक्तित्व इस देश के सारे राजनेताओं से अलग था| निर्भीक और बेलौस| कहीं कोई ‘डिप्लोमेसी’ नहीं| जो कहना डंके की चोट पर कहना| जो बोल दिया वही पार्टी का सिद्धांत| पार्टी के कार्यकर्ता, उनके अनुयायी उनके किसी भी आदेश को पूरा करने के लिए तत्पर| बिना किसी सवाल के| उनकी सभाओं या रैलियों के लिए कभी किराए की भीड़ लाने का प्रयत्न नहीं किया गया| अपने सिद्धांतों से कभी कोई समझौता नहीं| अपनी राजनीति के लिए कभी दिल्ली का चक्कर नहीं लगाया| शायद वह महाराष्ट्र की सीमा छोड़कर कभी बाहर नहीं गए| जिसको मिलना हो उनसे आकर मिले, वह किसी से मिलने नहीं जाते थे| वह राज्य में कांग्रेस के वास्तविक प्रतिपक्ष थे|     राजनेता हो, पूंजीपति हो, व्यापारी हो या आम आदमी, जो कांग्रेस के साथ नहीं था या जिसके लिए कांग्रेस में जगह नहीं थी वह उनके साथ था| वह किसी के दरबारी नहीं थे किंतु उनका दरबार सबके लिए खुला था| उन्होंने कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा, सत्ता में कोई पद नहीं लिया लेकिन जब भी उनकी पार्टी सत्ता में रही तो उसका परोक्ष नियंत्रण सदैव उनके ही हाथों में रहा|
बाला साहब का देश की राजनीति में सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने मुम्बई को मुस्लिम माफिया के हाथों में जाने से बचाया, यदि वह न होते तो आज मुम्बई पूरी तरह दाऊदों के कब्जे में रहती, क्योंकि कांग्रेस इसे कतई नहीं रोक सकती थी| उनकी यदि कोई सबसे बड़ी कमजोरी देखी गई तो वह था उनका पुत्रमोह| उन्होंने अपनी पार्टी की बागडोर अपनी वंशपरंपरा में रखने का निर्णय लिया, इसी निर्णय के कारण अब यह सवाल उठ रहा है कि उनके न रहने पर अब उनकी पार्टी शिव सेना का क्या होगा| उनके पुत्रमोह के कारण ही उनके भतीजे राज ठाकरे अलग हुए| यदि उन्होंने अपना कोई उत्तराधिकारी अपने परिवार के बाहर से तैयार किया होता तो शायद उनकी परंपरा आगे भी बढ़ती, किंतु उनके बेटे उद्धव में ऐसी क्षमता नहीं कि वह उनकी शैली की राजनीति को आगे बढ़ा सकें| देश को उनके जैसे राजनेताओं की सख्त जरूरत है, लेकिन ऐसे लोग सिर्फ चाहने से तो नहीं मिल जाते| कालचक्र कभी-कभी अपने बीच से किसी ऐसे व्यक्तित्व को पैदा कर देता है| उनके सिद्धांतों और तौर तरीकों से, उनकी जातीय संकीर्णता से आप असहमत हो सकते हैं, लेकिन उनकी दृढ़ता, निर्भीकता तथा दोगलेपन से दूर स्पष्टवादिता के सभी कायल हैं| लोकतांत्रिक राजनीति में शायद ऐसी पारदर्शिता और ईमानदारी संभव नहीं है, लेकिन यदि संभव हो जाए तो वैसा लोकतंत्र एक आदर्श लोकतंत्र होगा| बाला साहब दिवंगत हो चुके हैं, लेकिन आधुनिक भारतीय राजनीतिक नेताओं की भीड़ में वह सदैव एक अलग सितारे की तरह चमकते रहेंगे|

मंगलवार, 25 जून 2013

क्या राहुल इस देश को नेतृत्व देने में सक्षम हैं?

युवराज राहुल गांधी को अगले चुनावी महासमर के लिए कांग्रेस का ध्वजवाहक घोषित कर दिया गया है| इस अभियान में यदि विजयश्री हासिल हुई, तो देश के अगले प्रधानमंत्री के रूप में उनका सिहासनारूढ़ होना तय है| लेकिन यहीं यह भी सवाल खड़ा हो रहा है कि क्या राहुल इस विशाल देश का नेतृत्व करने में सक्षम हैं| अभी तक तो उन्होंने ऐसा कोई प्रमाण नहीं दिया है, जिससे आश्‍वस्त हुआ जा सके| संदेह तो कांग्रेस के भीतर भी है, लेकिन वहॉं कोई अपना संदेह व्यक्त करने का साहस नहीं कर सकता, हॉं, इतना जरूर कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने राहुल को आगे करके बड़ा ही साहसपूर्ण दांव खेला है| सफलता मिली तो पौ बारह, मगर पांसा पलटा, तो निश्‍चय ही पार्टी को लेने के देने पड़ जाएँगे|

इस नवंबर महीने भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी घटना है देश की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस द्वारा युवराज राहुल गांधी को देश के अगले आम चुनाव की बागडोर सौंपना| ४२ वर्षीय राहुल गांधी इस समय पार्टी के महासचिव हैं और उन्हें देश के अगले प्रधानमंत्री के तौर पर देखा जा रहा है| राहुल अपनी पार्टी की सरकार में अब तक कोई भी पद लेने से इनकार करते रहे हैं इसलिए महीनों से चर्चा चल रही थी कि उन्हें संगठन में कोई उच्चतर भूमिका दी जा सकती है| उन्हें कार्यकारी अध्यक्ष भी बनाए जाने की चर्चा थी| लेकिन उन्हें क्या बनाया जा रहा है उस पर से पर्दा १५ नवंबर को उठा जब उन्हें पार्टी की चुनाव समन्वय समिति का मुखिया बनाने की घोषणा की गई| इस घोषणा से यह जाहिर हो गया कि पार्टी अगला आम चुनाव राहुल गांधी को आगे करके लड़ेगी| जनता के सामने उनका चेहरा कांग्रेस के चेहरे के रूप में सामने आएगा|
इसका मतलब है कि वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की स्थिति अब सुबह के चॉंद जैसी हो गई है| अगले दिन के सूरज के आने की भी घोषणा के बाद अब केवल समय की प्रतीक्षा है| अगले चुनाव का निर्धारित समय २०१४ है, लेकिन परिस्थितियॉं अनुकूल रहीं तो २०१३ में भी ये चुनाव संपन्न हो सकते हैं| निर्धारित चुनाव के समय से १८ महीने पहले ही चुनाव समन्वय समिति की घोषणा इसी बात का संकेत है कि आम चुनाव समय से पहले हों तो भी पार्टी उसके लिए तैयार रहे|
राहुल की इस चुनाव टीम में उनके सहित छः सदस्य हैं| पांच अन्य सदस्य हैं अहमद पटेल, जनार्दन द्विवेदी, दिग्विजय सिंह, मधुसूदन मिस्त्री और जयराम रमेश| इन पांच में से तीन ऐसे हैं जिनका अपना भी चुनाव लड़ने का कोई अनुभव नहीं है| वे राज्य सभा की सदस्यता के सहारे ही देश की लोकतांत्रिक राजनीति में राजनेता हैं| निश्‍चय ही ये कांग्रेस के प्रमुख रणनीतिकारों में हैं किंतु इनके चुनाव का आधार केवल यह है कि ये राहुल के नजदीकी हैं और उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे देखना चाहते हैं| इस समिति के अंतर्गत तीन अन्य महत्वपूर्ण समितियॉं काम करेंगी, जिन्हें उपसमिति का दर्जा दिया गया है| एक है चुनाव पूर्व गठबंधन समिति, जो चुनावपूर्व देश के विभिन्न राजनीतिक दलों के साथ ताल मेल की संभावनाएँ देखेंगी तथा अनुकूलता दिखी तो उनके साथ गठबंधन का प्रयास करेगी| दूसरी कमेटी चुनाव घोषणापत्र तैयार करने को काम करेगी तथा चुनावी दृष्टि से सरकार के कार्यक्रम का निर्धारण करेगी| तीसरी कमेटी संचार, संपर्क एवं प्रचार कार्य देखने के लिए बनाई गई है| इन तीनों कमेटियों में से प्रथम दो की अध्यक्षता केंद्रीय प्रतिरक्षा मंत्री तथा सोनिया गांधी के परम विश्‍वस्त ए.के. एंटनी करेंगे और तीसरी कमेटी की अध्यक्षता ठाकुर दिग्विजय सिंह संभालेंगे| जो राहुल के राजनीतिक गुरु और पथ प्रदर्शक हैं| पहली समिति के अन्य सदस्य हैं एम. वीरप्पा मोइली, मुकुल वास्निक, सुरेश पचौरी, जितेंद्र सिंह तथा मोहन प्रकाश| दूसरी, घोषणापत्र कमेटी के अन्य सदस्य हैं पी. चिदंबरम, सुशील कुमार शिंदे, आनंद शर्मा, सलमान खुर्शीद, संदीप दीक्षित, अजित जोगी, रेणुका चौधरी और पी.एल. पूनिया| मोहन गोपाल इसके विशेष आमंत्रित सदस्य होंगे| तीसरी कमेटी में दिग्विजय सिंह के अतिरिक्त अंबिका सोनी, मनीश तिवारी, दीपेंद्र हुडा, ज्योतिरादित्य सिंधिया, राजीव शुक्ल तथा भक्त चरन दास शामिल हैं|
अगले दिन यानी शुक्रवार १६ नवंबर को ‘सूरजकुंड’ (हरियाणा) में आयोजित पार्टी की ‘संवाद बैठक’ में इस बात की जानकारी दी गई कि चुनाव अभियान के लिए कमेटियॉं बनाई जा रही हैं| इस बैठक में यों वर्तमान राजनीतिक चुनौतियों के बीच कांग्रेस की स्थिति पर तथा अगामी चुनाव तैयारियों के संदर्भ में चर्चा हुई, लेकिन इसका मुख्य लक्ष्य पार्टी के राजनीतिक मामलों में राहुल को केंद्रीय भूमिका में पेश करना था| कांग्रेस के राजनीतिक मामलों के विशेषज्ञ जेएनयू के जोया हसन जैसे लोगों का मानना है कि राहुल की अगले चुनाव में निर्णायक भूमिका रहेगी| वह केवल प्रत्याशी चयन तक सीमित नहीं रहेंगे, बल्कि चुनाव के कुल प्रबंधन में वह शीर्ष स्थान पर रहेंगे|
यद्यपि कांग्रेस के अधिकांश नेतागण अपनी टिप्पणियॉं करने में बहुत सावधान हैं और राहुल को सीधे देश का अगला प्रधानमंत्री कहने से बच रहे हैं, लेकिन पार्टी की केंद्रीय मंत्री जयंती नटराजन ने साफ शब्दों में कहा है कि यदि कांग्रेस पार्टी अगला चुनाव जीत कर आती है तो राहुल गांधी देश के अगले प्रधानमंत्री बनेंगे| राहुल को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाने के लिए सबसे अधिक उतावले रहे पार्टी नेता दिग्विजय सिंह से जब इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि अगला चुनाव सोनिया गांधी के ही नेतृत्व में लड़ा जाएगा और अगले प्रधानमंत्री के चयन का अधिकार नए चुने गए सांसदों का होगा| जाहिर है वह केवल प्रश्‍न के सीधे उत्तर से बचना चाहते थे इसलिए तकनीकी स्थिति को सामने रखकर जवाब टाल गए| यदि सोनिया गांधी अध्यक्ष हैं तो पार्टी का चुनाव अभियान उनके नेतृत्व में ही चलेगा और संवैधानिक औपचारिकता पूरी करने के लिए प्रधानमंत्री के चयन का कर्मकांड संसदीय दल की बैठक में होता ही है| लेकिन सच्चाई यही है कि अगले चुनावी महासंग्राम के लिए राहुल गांधी को पार्टी का ध्वजवाहक बना दिया गया है, और यदि पार्टी जीतती है तो निश्‍चय ही प्रधानमंत्री पद की प्रथम दावेदारी इस ध्वजवाहक की ही होगी|
अब अहम सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी अभी पार्टी का और फिर आगे देश का नेतृत्व संभालने में सक्षम हैं| अभी तक उन्होंने ऐसी कोई योग्यता नहीं प्रदर्शित की है जिससे लगे कि वह देश का एक सक्षम नेतृत्व प्रदान कर सकेंगे| कांग्रेस के लिए भी वह अब तक कोई उपलब्धि हासिल नहीं कर सके हैं| यद्यपि उन्होंने स्वयं यह घोषणा की है कि वह अब किसी भी बड़ी भूमिका के लिए तैयार हैं, लेकिन वह भूमिका वे निभा सकेंगे इसमें संदेह है| राहुल गांधी युवा हैं, साहसी हैं, परिश्रमी हैं लेकिन ४२ साल की उम्र हो जाने के बावजूद बहुत से लोगों की राय में अभी वह ‘बच्चा है, कच्चा है’, लेकिन अब आगामी आम चुनाव उनके लिए शायद अंतिम कसौटी होगी जिस पर वह खरे न उतरे तो उनकी चमक को ग्रहण लगने में देर नहीं लगेगी|
अब तक राहुल गांधी की छवि को हर खतरे से बचाने का प्रयास जारी है| उन्हें जानबूझकर सत्ता के पदों से दूर रखा जा रहा है, जिससे कि सत्ता की विफलता या उसके भ्रष्टाचार की कोई छाया उन पर न पड़ने पाए| वह पार्टी के भीतर भी विपक्ष की आवाज बोलते नजर आते हैं, जिससे कि यह लगे कि वह पुरानी बूढ़ी पार्टी के बीच एक ताजी हवा हैं| लेकिन आखिर कब तक उन्हें इस तरह बचाया जाता रहेगा, कभी न कभी तो उन्हें असली लड़ाई में उतारना ही पड़ेगा| तो, अब वह समय आ गया हैं जब राहुल के लिए अपनी क्षमता प्रमाणित करना अनिवार्य हो गया है|
राहुल अवश्य इसके लिए तैयार हैं| उपर्युक्त समितियों के निर्माण की घोषणा भले ही १५ नवंबर को की गई हो, लेकिन उसकी बैठकें पहले ही शुरू हो चुकी हैं| प्राप्त जानकारी के अनुसार इस पैनेल कमेटी की चार बैठकें १५ गुरुद्वारा, निकाबगंज रोड स्थित कांग्रेस के ‘वार रूम’ में हो चुकी है, जिसमें आंध्र प्रदेश की स्थिति पर प्रमुखता से विचार किया गया| राहुल ने ५४ सदस्यों की एक ‘आब्जर्वर टीम’ बनाई है, जिसकी अभी कोई औपचारिक घोषणा नहीं की गई है| इस टीम का चयन शायद उन्होंने खुद किया है| इसमें वर्तमान तथा पूर्व एमपी, एमएलए, एमएलसी, युवा कांग्रेस के नेता तथा विभिन्न क्षेत्रों के कुछ प्रोफेशनल शामिल है| इनका काम लोकसभा के सभी क्षेत्रों में जाकर वहां की विभिन्न जातियों-वर्गों का जनसंख्या-अनुपात (डेमोग्राफी) हासिल करना, पार्टी की संभावनाओं यानी उसकी ताकत एवं कमजोरी का पता लगाना तथा वर्तमान सांसद एवं अन्य सक्षम प्रतिनिधियों के बारे में जानकारी इकट्ठा करना होगा| ये अपनी रिपोर्ट सीधे राहुल गांधी को देंगे|
राहुल गांधी ने एके एंटनी की १३ साल पुरानी उस रिपोर्ट को भी धूल झाड़कर बाहर निकाला है जो उन्होंने १९९९ में सोनिया गांधी के कहने पर तैयार की थी| १९९९ में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी के पुनः चुनाव जीत जाने के बाद सोनिया ने अपनी पार्टी की हार के कारणों का पता लगाने के लिए एंटनी के नेतृत्व में एक कमेटी गठित की थी| इस रिपोर्ट में एंटनी ने सुझाव दिया था कि प्रत्याशियों का चुनाव कम से कम तीन महीने पहले कर लिया जाए| अंतिम क्षण तक उम्मीदवार न तय हो पाने के कारण न तो उन्हें प्रचार का पूरा मौका मिलता है और न मतदाताओं को ही अपना निर्णय लेने के लिए पर्याप्त समय मिलता है|
चुनावों के संदर्भ में एंटनी की एक और रिपोर्ट है जो उन्होंने पिछली मई में दी थी| इस वर्ष उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा तथा उत्तराखंड राज्य विधानसभा चुनावों में भी पार्टी को पराजय का सामना करना पड़ा तो चुनावों के तुरंत बाद एंटनी को इस पर एक रिपोर्ट देने को कहा गया| इस रिपोर्ट में एंटनी ने गलत टिकट वितरण को पार्टी की पराजय का मुख्य कारण बताया और सलाह दी कि जब तक जीत बिल्कुल पक्की न हो, तब तक किसी क्षेत्र से कांग्रेस के नेताओं के बेटे, बेटियों, पत्नी, भाई या अन्य रिश्तेदारों को टिकट नहीं देना चाहिए| उन्होंने चुनाव प्रचार के नए इलेक्ट्रानिक तरीकों को भी गलत बताया और कहा कि पार्टी को अपने पारंपरिक प्रचार तरीकों का ही इस्तेमाल करना चाहिए| उनकी यह भी सलाह थी कि पार्टी को राज्यों में अपने मुख्यमंत्री के नाम की घोषणा पहले नहीं करनी चाहिए बल्कि विकास के मुद्दों पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहिए| चुनाव की रणनीति पहले से तय होनी चाहिए तथा जनता का ‘फीडबैक’ सोशल मीडिया से प्राप्त करना चाहिए|
सूरजकुंड की संवाद बैठक में किसने क्या कहा यह तो ठीकठीक पता नहीं, लेकिन राहुल गांधी के बारे में बताया गया कि उन्होंने कहा कि कांग्रेस हमेशा बड़ी से बड़ी चुनौतियों पर विजय प्राप्त करती आई है, आगे भी वह किसी भी चुनौती से निपटने में सक्षम है| इस बैठक में पार्टी के ६६ लोग शामिल हुए| इसके बाद शायद राहुल की ५४ सदस्यीय ‘आब्जर्वर’ टीम की भी बैठक हो चुकी है|
अब उपर्युक्त विभिन्न कमेटियों के प्रारंभिक विचार-विमर्श तथा निरीक्षण के बाद प्राप्त निष्कर्षों  पर जनवरी में जयपुर में होने जा रही पार्टी की मंथन बैठक में विचार किया जाएगा और चुनाव के लिए पार्टी की रणनीति को अंतिम रूप दिया जाएगा|
राहुल यद्यपि पूरी तैयारी के साथ मैदान में उतर रहे हैं| केंद्रीय मंत्रिमंंडल के पिछले फेरबदल तथा नई नियुक्तियों में उनका गहरा हाथ बताया जाता है| उनकी पसंद के युवा बिग्रेड को प्रोन्नत किया गया है तथा नई नियुक्तियॉं भी दी गई हैं| आगामी चुनाव के लिए प्रत्याशियों के चयन में उनकी प्रमुख भूमिका रहेगी ही| पूरी चुनाव मशीनरी का केंद्रीय नियंत्रण उन्हें पहले से ही सौंप दिया गया है| मुकाबले की अंतिम तारीख से १८ महीने पहले ही उन्हें चुनाव अभियान के लिए अधिकृत कर दिया गया है| अनुमान लगाया जा रहा है कि २०१३-१४ का वार्षिक आम बजट इस बार लोकलुभावन चुनावी बजट होगा|
चुनाव कब होगा, वास्तव में यह २०१३ में होने जा रहे कर्नाटक, मध्य प्रदेश एवं दिल्ली के राज्य विधानसभा चुनावों पर निर्भर करेगा| यदि इनमें कांग्रेस को सफलता मिली, तो उसके फौरन बाद आम चुनाव की घोषणा हो सकती है, अन्यथा फिर २०१४ के निर्धारित समय की प्रतीक्षा की जाएगी| राहुल अपने अभ्यास में लग गए हैं| चुनौती बहुत बड़ी है| भारत का आम चुनाव इस धरती का सबसे बड़ा चुनाव होता है| इसके प्रबंधन के लिए यद्यपि सरकारी मशीनरी है, किंतु किसी राष्ट्रीय पार्टी के लिए अपना चुनाव प्रबंधन भी कुछ कम चुनौतीपूर्ण नहीं होता| टिकटों का बँटवारा अपने आप में पार्टी नेताओं के राजनीतिक कौशल की कसौटी होता है| जिन क्षेत्रों में केाई सर्वस्वीकार्य प्रतिनिधि नहीं है, वहॉं टिकट चाहने वालों की संख्या यों ही बढ़ जाती है| टिकटों की खरीद की बातें भी अभी से चर्चा में आ गई हैं| चुनावों के लिए धन संग्रह भी एक बड़ा काम होता है| धन संग्रह से जुड़ी रहती हैं तमाम सौदेबाजियॉं तथा भविष्य के वायदे, जहॉं से अगली सरकार के भ्रष्टाचार के बीज पड़ते है॥ वर्तमान सरकार भ्रष्टाचार और महंगाई के आरोपों से ही सर्वाधिक आक्रांत है और प्रायः हर आम चुनाव के बाद ये दोनों ही समस्याएँ और बढ़ जाती हैं| राहुल को इसी कंटाकाकीर्ण साथ ही दलदली राह से आगे बढ़ कर संसद में अपना विजय ध्वज स्थापित करना है| देखना है वह इस चुनौती पर अपनी विजय की छाप लगा पाते हैं या नहीं|
ब्रजगोपियों का वह महारास

लीला पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण को ‘रस ब्रह्म’ की भी संज्ञा दी गयी है| वह स्वयं मूर्तमान रस (रसो वै सः) हैं| शरद पूर्णिमा की श्‍वेता निशा में उन्होंने ब्रजांगनाओं के साथ जिस महारास की सृष्टि की थी, वह प्रेम की पराकाष्ठा का शाश्‍वत नृत्य है, जो आज भी जारी है| आवश्यकता है इसका अनुभव करने वाले निर्विकार चित्त तथा उस गोपीभाव की, जो लोक-परलोक, यश-अपयश तथा देह बोध से भी ऊपर उठकर अपने को रसार्णव श्रीकृष्ण में ही लीन कर देता है|

वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद जब धरती आकाश दोनों निर्मल हो जाते हैं, सूर्य दक्षिणाभिमुख हो जाता है, तब आह्लादकारी शरद ऋतु का आगमन होता है| षड्ऋतु चक्र में अश्‍विन और कार्तिक ये दो महीने शरद के माने जाते हैं| इन दोनों महीनों के बीच ही आती है पूर्णिमा की वह रात, जो वर्ष की सारी रात्रियों में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है| शरद पूर्णिमा की रात| कृष्ण के महारास की रात| आत्मा के परमात्मा से पूर्ण रूपेण एकाकार होने की रात| वह रात जिसमें पूर्ण चंद्र की शुभ्र किरणें अमृत वर्षा करती हैं| वह रात जिसमें भावजगत की रसधारा में संपूर्ण सृष्टि विलीन हो जाती है| चतुर्दिक केवल आनंद का पारावार ही हिलोरें लेता है| सारा कलुष नष्ट हो जाता है और शेष रह जाती है केवल रसमयी, आनंदमयी, केलिमयी एक शुभ्र ज्योत्सना|
भारतीय मनीषा ने परम पुरुष परमात्मा के जिन दो विशिष्ट लौकिक रूपों की पहचान की है, उनमें एक भगवान राम यदि धर्मस्वरूप (रामो विग्रहवान धर्मः) हैं, तो भगवान कृष्ण रसावतार पूर्ण आनंदस्वरूप (रसो वै सः) हैं| एक बाह्य जगत की मर्यादाओं के स्थापक (श्रुति सेतु पालक) हैं, तो दूसरे अंतर्जगत के निस्सीम रसार्णव के प्रवाहक| सघन प्रेम की अवस्था में कोई मर्यादा, कोई सामाजिक आवरण शेष नहीं रह पाता| रसावस्था में सारी मर्यादाएँ विलीन हो जाती हैं, सारे आवरण छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और स्व-पर के सारे भेद अपना अस्तित्व खो देते हैं| इसी रसावस्था की सृष्टि हुई थी शरद पूर्णिमा की उस महानिशा में, जब आनंदघन कृष्ण ने ब्रजांगनाओं के साथ महारास का आयोजन किया था|
पूर्ण आनंद के लिए पूर्ण समर्पण की आवश्यकता होती है| स्वाभाविक है कि यह पूर्ण चंद्र की छाया में ही संभव है| जब छिपाने के लिए कुछ भी न हो तो किसी काली रात  की क्या जरूरत? भागवत महापुराण में कृष्ण के इस महारास का विधिवत वर्णन है| तमाम परवर्ती कवियों ने भी इस पर अपनी लेखनी चलाई है, लेकिन वैसा रस परिपाक अन्यत्र कहीं नहीं हो सका| सामान्यतया महारास से यही समझा जाता है कि तमाम गोप बालाओं के साथ उस रात कृष्ण ने उन्मुक्त, उद्दाम नृत्य किया| ब्रज की सारी विवाहित, अविवाहित युवतियॉं गोपाल की वंशी की टेर सुनकर वहॉं आ गयी थीं और फिर देह-गेह की सारी सुधि भुलाकर पूरी रात कृष्ण के साथ नृत्याभिसार में निमग्न रहीं| जितनी गोपियॉं थीं, कृष्ण ने भी उतने ही रूप बना लिए थे, जिससे प्रत्येक गोपी यही समझती रही कि कृष्ण उसकी ही बाहों में हैं और वह उनके साथ ही नृत्य कर रही है| इस तरह सारी गोपियों और कृष्ण का एक विशाल नृत्यमंडल बन गया था, जो तब तक विविध नृत्य मुद्राओं व गतियों में चलता रहा, जब तक कि सारी गोपियॉं थककर निढाल नहीं हो गयीं|
वस्तुतः महारास केवल सामूहिक नृत्य नहीं था, यह तन से अधिक मन के संसार का आयोजन था, जहॉं बिना थके अनंतकाल तक यह नृत्य चलता रह सकता है| बाह्य देह व्यापार यहॉं गौण हो जाते हैं| शरीर से क्या हो रहा है, यह महत्वहीन है, मन कहॉं रमा है, यह महत्वपूर्ण है| तन भी वहॉं रह सकता है, लेकिन उसकी उपस्थिति अनिवार्य नहीं| यही इस महारास की विशेषता है, यही इसकी दिव्यता है|
महारास को लौकिक व वैदिक मर्यादाओं तथा सामाजिक आदर्शों की पृष्ठभूमि में नहीं देखा जाना चाहिए| यह प्रेम जगत की बात है और वह भी पराकाष्ठा को प्राप्त प्रेम की| इसीलिए रासबिहारी कृष्ण को लोक एवं वेद की मर्यादाओं का अतिक्रमण करने वाला (भिन्न सेतुः) कहा गया है| उत्कट प्रेम किसी लौकिक-वैदिक मर्यादा की परवाह नहीं करता| ङ्गछोड़ दई कुल की कानि लोक लाज गोई|फ जो प्रेम का दीवाना होता है, वह लोकोत्तर हो जाता है| इसीलिए कृष्ण की महारास लीला नितांत लोकोत्तर लीला है| यहॉं न समाज का अस्तित्व रहा जाता है, न वेद का| इसीलिए यह ज्ञानियों के लिए सर्वथा दुर्लभ है| गोपियॉं इसीलिए ज्ञान का निषेध करती हैं| जो एक बार रसस्वरूप कृष्ण की कंठहार बन चुकी हैं, उसे कोई ज्ञान, कोई ऐश्‍वर्य भला कहां प्रभावित कर सकता है|
कृष्ण ने महारास की भूमिका बहुत पहले से तैयार कर रखी थी| गोपियों का ङ्गचीरहरणफ इसका पहला चरण था| पूर्ण निरावृत्त चित्त ही महारास की भाव भूमि में प्रवेश कर सकता है| जब तक आवरण का मोह बना रहेगा, जब तक अपने को छिपाने की वृत्ति बनी रहेगी, जब तक देह बोध रहेगा, जब तक लोक वेद की चिंता रहेगी, तब तक उस रसस्वरूप कृष्ण में अवगाहन की योग्यता प्राप्त नहीं हो सकती| इसीलिए कृष्ण ने सर्वप्रथम गोपियों का चीर अर्थात् उनका आवरण, उनकी लज्जा, उनका संकोच, उनका भय, उनका देह बोध, सब कुछ अपहृत कर लिया| वे सारी सांसारिक जड़ताओं व बंधनों से मुक्त हो गयीं|
सभी ब्रज कुमारियॉं कृष्ण के प्रति आत्यंतिक रूप से मोहित थीं| वे सबकी सब उन्हें अपने प्रियतम के रूप में प्राप्त करना चाहती थीं| वे सामूहिक रूप से इसके लिए कात्यायिनी देवी की पूजा कर रही थीं, व्रत रख रही थीं| हेमंत ऋतु की कँपाने वाली सर्दी में प्रातःकाल यमुना में स्नान करने जाती थीं| यह सारी क्लिष्ट साधना केवल कृष्ण को प्रियतम रूप में पाने के लिए, क्योंकि उनका चित्त पूरी तरह कृष्ण में रम चुका था| उन्हें जीवन में और किसी वस्तु की चाह नहीं थी, लेकिन उनकी अहंता अभी शेष बची थी| उनका सूक्ष्म देह बोध बरकरार था| वे अभी भी कृष्ण को पुरुष और अपने को स्त्री समझती थीं| अपनी सखी गोपियों के समक्ष निर्वस्त्र होने में उन्हें कोई संकोच नहीं था| वे एक साथ अपने सारे वस्त्र उतारकर यमुना में प्रवेश करती थीं, फिर वैसे ही साथ-साथ बाहर निकलकर फिर अपने-अपने वस्त्र धारण करती थीं| कहीं कोई दुराव नहीं, लेकिन वहीं कृष्ण व अन्य ग्वाल बालकों के सामने निर्वस्त्र आने में उन्हें भारी संकोच था| कारण था, भिन्न देह का बोध| भिन्न देह बोध के साथ महारास के रस संसार में प्रवेश असंभव था| विशुद्ध प्रेम नितांत लिंगभेद के परे होता है| वहॉं लौकिक मर्यादाओं व पाप बोध के लिए कहीं कोई स्थान नहीं रहता है|
चीरहरण एक प्रतीक कथा है| इसे स्थूल व सूक्ष्म दोनों रूपों में ग्रहण किया जा सकता है| कृष्ण ने जब यह देखा कि गोपियॉं उनमें पूर्ण अनुरक्त हो चुकी हैं, तो उन्होंने उनके पूर्ण परिमार्जन-परिशोधन का निर्णय लिया और चीरहरण के बहाने उनके सारे सूक्ष्म दैहिक व आत्मिक आवरणों को छीनकर उन्हें आत्मरूप बना लिया|
सभी गोपियॉं जब यमुना के आकंठ जल में स्नानमग्न थीं, कृष्ण उनके सारे वस्त्र लेकर एक कदम्ब के वृक्ष पर चढ़ गये| उनके साथ के ग्वाल सखा इस ठिठोली पर ठठाकर हँस रहे थे| उनकी हँसी से गोपियों का ध्यान उधर गया| जब उन्होंने देखा कि उनके सारे वस्त्र लेकर कृष्ण वृक्ष पर जा बैठे हैं और साथ में ग्वाल बालों का झुंड हँस रहा है, तो वे भय और लज्जा से सूख गयीं| उन्होंने बड़ी प्रार्थना की, धर्म का वास्ता दिया, गोपराज नंद से शिकायत की धमकी दी, लेकिन सब कुछ बेअसर| यही तो वे सारे आवरण थे, जिन्हें वे नष्ट करना चाहते थे| उन्होंने साफ कहा कि वस्त्र चाहिए तो बाहर आकर ही लेना पड़ेगा| नदी जल में शीत से व्याकुल युवितयॉं मजबूरन अपने गुप्तांगों को हाथ से ढककर बाहर निकलीं और वृक्ष के नीचे पहुँचकर अपने वस्त्रों की याचना करने लगीं| कृष्ण ने देखा कि अभी तो आधा ही संकोच टूटा है| देह बोध अभी भी बरकरार है| उन्होंने कहा कि नग्न स्नान करके तुमने यमुना जी के प्रति अपराध किया है, इसलिए दोनों हाथ सिर से लगाकर प्रणाम करो, फिर वस्त्र ले जाओ| अंततः गोपियों को लज्जा का अंतिम आवरण भी हटाना पड़ा और उन्होंने ग्वाल बालों के समक्ष ही कृष्ण को हाथ जोड़कर प्रणाम किया| इसके बाद फिर उन्होंने वस्त्र की याचना नहीं की, क्योंकि अब तो वस्त्र की आवश्यकता ही समाप्त हो गयी थी| क्रमशः उनका चित्त कृष्ण में इस तरह अनुरक्त होता गया कि देह बोध पूरी तरह समाप्त हो गया| वे अनुरागपूर्ण दृष्टि से कृष्ण की ओर देखने लगीं| वे समागम की आकांक्षी तो थीं हीं और अब संकोच का आवरण भी दूर हो चुका था, लेकिन कृष्ण स्वयं समागम के लिए आकुल नहीं थे| उन्होंने गोपियों के चित्त का परिशोधन करके फिर इस आश्‍वासन के साथ उन्हें उनके घर-परिवारों में भेज दिया कि आने वाली शरद रात्रियों में वे उनके साथ विहार कर सकेंगी| उनकी साधना पूर्ण हो चुकी है, अब नित्य सुबह पूजा, आराधना व स्नान की कोई जरूरत नहीं|
कृष्ण सारी लीला करते हुए कितने निर्विकार हैं कि वे समागम के लिए आतुर, सामने खड़ी निर्वस्त्र गोप सुंदरियों को उनकी कामनातृप्ति के लिए लगभग एक वर्ष बाद का समय देते हैं और उस समय अपने वस्त्र धारण करके घर जाने देते हैं| गोपियों को वस्त्र की अब कोई जरूरत नहीं रह गयी है, फिर भी वे वस्त्र धारण कर लेती हैं| उनके लिए वस्त्र धारण करना या न करना महत्वहीन हो गया है, किंतु सांसारिक जीवन में सांसारिक मर्यादा का भी पालन करना चाहिए, इसलिए वे भी बिना किसी प्रतिकार, बिना किसी रोष के अपने-अपने वस्त्र धारण कर लेती हैं और सहज भाव से अपने घर जाकर अपने पारिवारिक कार्यों में लग जाती हैं| उन्हें कृष्ण की अनुकंपा मिल गयी है, अब कोई परिताप शेष नहीं है| वे सानंद उस शरद पूर्णिमा की श्‍वेत निशा की प्रतीक्षा में हैं, जब के लिए कृष्ण ने महाअभिसार का समय दिया है|
महारास के वर्णन के भगवान व्यास के शब्द अत्यंत मनोहर हैं| शरण पूर्णिमा के दिन सूरज ढलते ही जैसे ही शाम होती है, ऐसा लगता है चंद्रमा ने पूर्व दिशा के मुखमंडल पर अपने किरणकरों से रोली केसर मल दी हो| स्वयं चंद्र देव का अखंड मुखमंडल नवीन केसर की तरह रक्ताभ हो रहा था| वन प्रांतर के कोने-कोने में उनकी रागारुण श्‍वेत चांदनी फैल रही थी| दिन की सूर्य रश्मियों से तप्त प्रकृति चंद्र किरणों का अमृत शीतल स्पर्श पाकर आह्लादित हो उठी थी| इसी बीच मनमोहन कृष्ण ने ब्रज सुंदरियों का मन हरण करने वाली तान अपनी बंसरी पर छेड़ी| गोपियों का चित्त तो पहले से ही कृष्ण के वशीभूत हो चुका था| उनके भय, संकोच, लज्जा, मर्यादा आदि वृत्तियों का भी हरण हो चुका था| इसीलिए वंशी की धुन कान में पड़ते ही वे यंत्रचालित-सी कृष्ण की ओर दौड़ पड़ीं| इस बार किसी ने किसी को साथ लेने के लिए टेरा नहीं, क्योंकि अब इसकी किसी को जरूरत नहीं थी और न किसी को इसकी सुध ही थी| जो गोपी दूध दुह रही थी, वह दूध दुहना छोड़कर चल पड़ी, जो चूल्हे पर दूध औटा रही थी, वह उसे वैसे ही उफनता छोड़कर भाग चली| जो छोटे बच्चे को दूध पिला रही थी, पति की सेवा कर रही थी या स्वयं भोजन कर रही थी, वह सब काम छोड़कर प्रियतम कृष्ण की ओर चल पड़ी| जो शृंगार कर रही थी, वह अपना शृंगार भी अधूरा छोड़कर दौड़ पड़ी| वस्त्र पहन रही गोपी अधूरे वस्त्र में ही चल पड़ी| किसी ने एक क्षण का भी विलंब नहीं किया| जिसकी देह किसी अवरोध में फँसी, वह चित्त रूपा अपनी स्थूल देह का परित्याग करके भी कृष्ण मिलन के लिए निकल पड़ी| महारास में बाह्य शृंगार या बाह्य शुचिता का कोई उपयोग नहीं, वहॉं तो अंतर्मन का उत्कट प्रेम ही महत्वपूर्ण है| इसलिए गोपियों को किसी और चीज की परवाह नहीं थी, शीघ्रातिशीघ्र वह अपने प्राण प्यारे के पास पहुँचना चाहती थीं| उन्हें उस समय देह-गेह की कोई फिक्र नहीं थी|
सारी गोप सुंदरियों के आ जाने के बाद एक बार फिर लीला बिहारी कृष्ण ने उनकी प्रेम परीक्षा ली| उन्हें लौकिक धर्म का उपदेश दिया, सदाचार की शिक्षा दी, जंगल का भय दिखलाया| व्यास के शब्दों में कृष्ण ने उनसे कहा- ब्रज सुंदरियों! रात का समय है, वन बड़ा ही भयावना है, जंगली हिंसक पशु इधर-उधर घूमते रहते हैं| तुम सब यहॉं संकट में पड़ सकती हो| जल्दी से ब्रज लौट जाओ| रात के समय घोर वन में स्त्रियों को नहीं रुकना चाहिए| तुम्हें न देखकर तुम्हारे मॉं-बाप, भाई-बंधु, पति-पुत्र ढूंढ़ रहे होंगे| उन्हें भय में न डालो| तुमने पूर्ण चंद्रिका में रंग-बिरंगे पुष्पों से लदे वृक्षों वाले वन के सौंदर्य को देख लिया है| बस अब देर मत करो, वापस लौट जाओ| तुम लोग कुलीन व सती साध्वी स्त्रियॉं हो, तुम्हारा घर-बार छोड़कर इस तरह रात में वन में आना उचित नहीं| कुलीन स्त्रियों को किसी पर पुरुष के संग में रहना सर्वथा अनुचित है| इससे लोक-परलोक दोनों बिगड़ता है| लोक में बदनामी होती है, परलोक में नरक मिलता है| मेरे अनन्य प्रेम की प्राप्ति के लिए भी मेरे निकट रहना आवश्यक नहीं| इसलिए तुम लोग तत्काल अपने-अपने घरों को लौट जाओ|
कृष्ण ने बहुत तरह से समझाया, किंतु गोपियों के तो सारे भय समाप्त हो चुके थे| वे लोक और वेद की मर्यादा, यश और अपयश से ऊपर उठ चुकी थीं| उनकी परलोक में स्वर्गादि की लालसा समाप्त हो चुकी थी| वे तो स्त्री-पुरुष के दैहिक भेद को भी पार कर चुकी थीं| उनमें रंच-मात्र भी कलुष शेष नहीं रह गया था| वे तो अब निर्विकार विशुद्ध प्रेम पुत्तलिकाएँ थीं, जो प्रेम रस के महार्णव में विलीन होने के लिए वहॉं आयी थीं|
कृष्ण को जब पूर्ण विश्‍वास हो गया कि गोपियों के सांसारिक मोह का आवरण सचमुच छिन्न-भिन्न हो चुका है| यद्यपि एक बार वे सारे आवरण का हरण (चीरहरण) कर चुके थे, फिर भी उन्होंने परीक्षा ली, क्योंकि यह संसार बार-बार मोह के नये-नये आवरण डाल देता है| गोपिकाएँ अनन्य साधिकाएँ थीं| एक बार जब कृष्ण ने सारा आवरण छीन लिया था, तब से उन्होंने अपने चित्त पर कोई दूसरा आवरण पड़ने नहीं दिया| मनमोहन कृष्ण गोपियों की इस चिर निरावरणता पर मुग्ध हो गये और उन्हें अपना अंग-संग देने के लिए तैयार हो गये| उनकी प्रेमभरी मादक चितवन से गोपियों का अंग-अंग प्रफुल्लित हो गया| यमुना के शीतल सैकत पुलिन पर प्रवाहित त्रिविध वायु उन्हें सहज ही रोमांचित कर रही थी और इस पर प्रियतम कृष्ण की सानुकूलता ने उन्हें काम-विह्वल व चंचल कर दिया| उद्दाम साहचर्य में उनके आनंद की सीमा न रही|
लेकिन यहीं फिर कुछ मलिनता आ गयी| गोपियांें में अहंकार का भाव आ गया| उन्हें लगा कि संसार के स्त्री-पुुरुष में वही सर्वश्रेष्ठ हैं, जिन्हें साक्षात रस ब्रह्म कृष्ण का अंग-संग प्राप्त हुआ है| कृष्ण को यह भला कैसे सह्य हो सकता था| वे अभी अपने अधरों, वक्ष, नितंबों व नीवी पर कृष्ण के स्पर्श का आनंद उठा ही रही थीं कि कृष्ण बीच से अंतर्धान हो गये| एकाएक सारी गोप बालाएँ स्तब्ध रह गयीं| वे कृष्ण के बिना अत्यंत विरहकातर हो चलीं| वे हा कृष्ण, हा कृष्ण कहकर उन्हें ढूंढ़ने लगीं| वृक्षों, लताओं, वन गुल्मों से उनके बारे में पूछने लगीं| वे कृष्ण की लीलाओं और गुणों का स्मरण करके विक्षिप्तों जैसा आचरण करने लगीं| कृष्ण का गुणगान करते-करते वे स्वयं इस तरह कृष्णमय हो गयीं कि स्वयं कृष्ण की तरह लीला करने लगीं| विरह की इस अग्नि में उनका रहा-सहा स्वत्व व अहंकार भी जलकर नष्ट हो गया| जब आत्मबोध ही समाप्त हो जाएगा तब आत्म श्रेष्ठता का अहंकार कहॉं बचेगा? इस प्रकार  गोपियॉं जब पुनः निर्मल चित्त हो गयीं, तो लीला बिहारी कृष्ण तत्काल वहीं प्रगट हो गये|
अब महारास की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी| गोपियॉं शरदचंद्रिका की तरह ही निर्मल हो गयी थीं| वे सब एक-दूसरे की बाहों में बाहें डालकर खड़ी थीं| उनमें न ईर्ष्या थी, न दंभ| उनका यह भाव भी तिरोहित हो चुका था कि कृष्ण किसी दूसरी गोपिका को कुछ अधिक चाहते हैं| तब मधुरेश्‍वर कृष्ण ने अपनी रसमई रास क्रीड़ा आरंभ की| प्रत्येक दो गोपियों के बीच एक कृष्ण प्रगट हो गये| हाथ बांधे मंडलाकार खड़ी हर एक गोपी के बाद एक कृष्ण थे| जितनी गोपियॉं, उतने कृष्ण| असंख्य गोपियॉं, असंख्य कृष्ण और जब उनका यह समूह-नृत्य प्रारंभ हुआ, तो असंख्य कंगन, असंख्य पायजेब और असंख्य करधनियों के छोटे-छोटे घुंघरू एक साथ बज उठे| नाचते-नाचते उनके वस्त्र शिथिल हो गये, वेणियॉं खुल गयीं| तीव्र गति से घूमती उन्मुक्त केशराशि व निरावृत्त नील व स्वर्णिम देहयष्टियों से ऐसा लग रहा था, मानो श्याम मेघाम्बर के साथ नील व स्वर्ण ज्योतियों की कोई एकल विराट मेखला नृत्य कर रही है| उस समय लग रहा था सारे ब्रह्माण्ड का संपूर्ण सौंदर्य, संपूर्ण अनुराग, संपूर्ण विलास एवं संपूर्ण आनंद यमुना के उस सैकत पुलिन पर एकत्र हो गया हो|
श्रीकृष्ण की इस महारास लीला से संपूर्ण ब्रह्माण्ड चकित था| चंद्रदेव भी विस्मित थे| उनकी अमृत रश्मियॉं स्वयं इस रसामृत को पीने में लग गयीं| देवांगनाएँ भी ऐसे मिलन की कामना से मोहित हो गयीं, लेकिन उनके लिए यह सुलभ कहॉं? यह तो केवल उन गोपांगनाओं के लिए सुलभ था, जिन्होंने अपना सर्वस्व न्यौछावर करके मात्र प्रेम का वरण किया था| महारास सृष्टि के इसी निरुपाधि, निरुपमेय, निर्विकार एवं शास्वत प्रेम की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति का प्रयास है| यह सांसारिक धर्मों से परे प्रेमी हृदयों के स्वच्छंद आकाश का नृत्य है| हृदय कोई भी हो, रात कोई भी हो, ऋतु कोई भी हो जहॉं संपूर्ण सृष्टि के चराचर रूप श्री कृष्ण के प्रति प्रेम का पारावार छलकेगा, वहॉं शरद पूर्णिमा का अखंड चंद्र स्वयं प्रकट हो जाएगा और उसकी अमृतमय चांदनी में महारास स्वतः मूर्तिमान हो उठेगा|
भारत का अंतिम विक्रमादित्य
 हेमचंद्र राय


यूरोपीय साहित्यकारों के बीच भारतीय नेपोलियन के नाम से विख्यात सम्राट हेमचंद्र राय भारत के ऐसे अंतिम सम्राट थे, जिन्होंने मुगलों से दिल्ली छीनने के बाद पूरी तरह भारतीय प्राचीन परंपरा के अनुसार अपना राज्याभिषेक कराया तथा विक्रमादित्य की उपाधि धारण की| उनका साम्राज्य पश्‍चिम में पंजाब व राजस्थान से लेकर बंगाल तक व्याप्त था| दक्षिण के पठारी प्रदेश को छोड़कर प्रायः पूरा उत्तर भारत उनके अधीन था| दुनिया में भारत शायद एकमात्र ऐसा देश है, जहॉं इस्लाम के आक्रमण के पूर्व राजनीति में मजहब को कभी कोई तरजीह नहीं मिली| यहॉं राजनीति व सत्ता संचालन का आधार सदैव धर्म (रूल ऑफ लॉ) रहा, मजहब नहीं| आज की भाषा में भारतीय राजनीति अनादिकाल से ‘सेकुलरफ मूल्यों के आधार पर ही चलती रही| इन मूल्यों का निर्वाह करने वाले भी हेमचंद्र राय अंतिम शासक थे| उनका राज्याभिषेक भारतीयों (जिन्हें आजकल हिंदू कहकर पुकारा जाता है) और मुस्लिमों ने मिलकर किया था| ये मुस्लिम अफगान थे, जो भारतीय समाज का अंग बन चुके थे| हेमचंद्र राय ने अपने जीवनकाल में २२ लड़ाइयॉं लड़ीं और सभी में विजय हासिल की| वह केवल अपनी वह अंतिम लड़ाई ही हारे, जिसमें उनके प्राण गए| यह पानीपत की दूसरी लड़ाई थी, जिसमें भारत के दुर्भाग्यवश एक घातक तीर सम्राट हेमचंद्र की आँख में आ लगा, इसके साथ ही वह न केवल अपनी एक सुनिश्‍चित जीत वाली लड़ाई हार गए, बल्कि अपने प्राण भी गँवा बैठे| इस पराजय के साथ भारत के इतिहास का एक युग भी पराजय की गोद में समा गया और गुलामी का दुर्दैव उसके सीने पर आ सवार हुआ| हेमचंद्र राय ने करीब ३५० वर्षों के इस्लामी शासन का अंत करके भारत की अपहृत राज्यलक्ष्मी को पुनः स्थापित किया था, किंतु पराक्रम के इस अप्रतिम आदित्य के अकल्प्य आकस्मिक पराभव ने फिर उसे वनवासिनी बना दिया|

सम्राट हेमचंद्र राय भारतीय राजनीतिक परंपरा का अनुसरण करने वाला अंतिम सम्राट था| दिल्ली में मुस्लिम शासन के करीब ३५० वर्ष बाद उसने अकबर की मुगल सेना को हराकर दिल्ली का तख्त अपने कब्जे में कर लिया था, वैदिक विधि-विधान से दिल्ली के पुराने किले में (जिसे पांडवों के किले के नाम से भी जाना जाता है और जो दिल्ली की प्राचीनतम इमारत है) अपना राज्याभिषेक कराया था और विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी| यह भारतीयता का दुर्भाग्य था कि वह अधिक दिनों तक सत्ता में नहीं रह सका और राजा बनने के मात्र एक महीने बाद ही पानीपत के दूसरे प्रसिद्ध युद्ध में संयोगवश मारा गया| युद्ध वह बस जीतने ही वाला था, शत्रु सेना के पॉंव उखड़ गए थे, उसकी सैन्य शक्ति के आगे उस आक्रमणकारी सेना का कोई मुकाबला भी नहीं था, लेकिन भारत का दुर्दैव उसकी मदद में खड़ा था| अचानक शत्रु धनुर्धर का एक तीर उसकी आँख में आ लगा और उसके भेजे को चीर दिया और इसके साथ ही पूरा पासा ही पलट गया| हेमचंद्र की अपराजेय सेना किंकर्तव्यविमूढ़ होकर बिखर गई और अकबर के संरक्षक बैरम खॉं की हारती सेना ने भारत की भविष्य रेखा को फिर अपनी मुट्ठी में कर लिया| हेमचंद्र ने अपने जीवनकाल में २२ मुख्य लड़ाइयों में मोर्चा सँभाला और किसी में भी पराजय का मुँह नहीं देखा, लेकिन पानीपत की अंतिम लड़ाई ने न केवल उसकी अप्रतिम विजेता की कीर्ति को धो दिया, बल्कि उसके प्राण भी ले लिए और उसके साथ भारतीयता के भी प्राण क्षीण हो चले|
हेमचंद्र भारतीय इतिहास का अद्भुत राजनेता है, लेकिन हमारे ज्यादातर इतिहासकारों ने उसे भुला दिया है| इतिहास की किताबों में मात्र उसे कुछ पंक्तियों में निपटा दिया जाता है| स्कूली किताबों में तो उसका पूरा नाम भी नहीं रहता| इतिहास के ज्यादातर विद्यार्थी उसे केवल हेमू के नाम से जानते हैं, जिसे बैरम खॉं की बहादुर सेना ने चुटकी बजाते हरा दिया था और उसका सिर काटकर काबुल के किले पर लटकाने के लिए भेज दिया था| भारतीय इतिहास की किताबें अनेक भ्रामक तथ्यों से भरी पड़ी हैं, उनमें एक सर्वाधिक खतरनाक तथ्य यह है कि यहॉं के भारतीय राजाओं को हिंदू धर्म का प्रतिनिधि और मुस्लिम विरोधी के तौर पर पेश किया गया है| विदेशी हमलावरों के साथ भारतीयों की लड़ाई को प्रायः दो मजहबों की लड़ाई के रूप में दिखाया गया है| सच्चाई यह है कि भारतीय राजाओं के साथ मजहब का जुनून नहीं था| वे केवल अपनी राजनीतिक व सामाजिक स्वतंत्रता के लिए तथा अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए लड़ाइयॉं लड़ रहे थे| वे हमलावर मुसलमानों से घृणा करते थे, तो इसलिए नहीं कि वे किसी खास मजहब के अनुयायी थे, बल्कि इसलिए कि वे पूरी भारतीय संस्कृति और परंपरा को नष्ट करना अपना मजहबी कर्तव्य समझते थे| वे क्रूरता की कोई भी सीमा पार करने के लिए तैयार रहते थे| उनकी नृशंसता के आगे मनुष्यता कॉंपती थी| हेमचंद्र की कहानी भारतीयता के राजनीतिक आदर्शों तथा आक्रामक आतताइयों की क्रूरता के प्रतिमानों को एक साथ दुनिया के सामने ला खड़ा करती है|
ब्राह्मण पुरोहित का बेटा-
हेमचंद्र एक ब्राह्मण पुरोहित का लड़का था| राजस्थान में अलवर जिले के देविती-मछेरी गॉंव में वर्ष १५०१ (विक्रमी संवत १५५८) में दशहरे के दिन ही उसका जन्म हुआ था| पिता रायपूरन दास वल्लभ संप्रदाय के कृष्ण भक्त वैष्णव संत थे, जो पुरोहिताई करके परिवार का भरण-पोषण करते थे, किंतु मुगलों के अत्याचार व आतंक के कारण भारतीयों का धर्म-कर्म भी ठंडा हो गया था| पूजा-पाठ का काम मिलना भी कठिन हो गया था| हार कर पूरनदास ने पुरोहिताई का काम छोड़ दिया और अपना गॉंव छोड़कर वर्तमान हरियाणा के रेवाड़ी के निकट स्थित गॉंव कुतुबपुर में आ बसे और यहॉं नमक का व्यापार करने लगे| हेमचंद्र यहीं पला-बढ़ा और यहीं उसकी शिक्षा-दीक्षा हुई| पिता स्वयं संस्कृत के पंडित थे, इसलिए उन्होंने संस्कृत भाषा, इतिहास, पुराण व दर्शन आदि की शिक्षा दी| अन्य शिक्षा अन्य शिक्षकों से प्राप्त की| हेमचंद्र एक प्रतिभाशाली बालक था, इसलिए उसने स्वाध्याय व स्वप्रयत्न से अरबी, फारसी आदि भाषाओं का भी ज्ञान प्राप्त कर लिया| हिंदी तो उसने लोक व्यवहार से ही सीख ली थी| हेमचंद्र को घुड़सवारी, कुश्ती तथा शस्त्रविद्या में भी गहरी रुचि थी| उसने अपने एक राजपूत मित्र सहदेव के साथ घुड़सवारी सीखी| सहदेव उनका ऐसा घनिष्ठ मित्र बन गया था कि आगे चलकर उसने हर उस लड़ाई में भाग लिया, जिसे हेमचंद्र ने लड़ा| हेमचंद्र का विवाह राजपुरोहितों के कुल में गुणचंद्र भार्गव के साथ संपन्न हुआ था| यह उल्लेखनीय है कि भार्गव परसुराम की परंपरा में हेमचंद्र तथा उनके प्रायः सभी संबंधियों ने विदेशी हमलावरों के खिलाफ युद्ध में भाग लिया और प्रायः सबके सब पानीपत की दूसरी लड़ाई में मारे गए|
देश की तत्कालीन स्थिति-
उस समय देश में विदेशियों की क्रूर सत्ता को उखाड़ फेंकने की भावना तेजी से बढ़ रही थी| यह वही समय था, जब दक्षिण में सम्राट कृष्ण देवराय ने भारतीय राजनीतिक प्रभुत्व को पुनः स्थापित किया था और बीजापुर व गोलकोंडा आदि के दक्कनी (दक्षिणी) सुलतानों से लोहा ले रहे थे| हेमचंद्र राय ने उसी शैली का साम्राज्य उत्तर में भी स्थापित करने का प्रयत्न किया था| ७ अक्टूबर १५५६ (विक्रमी संवत १६१३) को जब हेमचंद्र ने अपना राज्याभिषेक संपन्न कराया था, उस समय पंजाब से बंगाल तक पूरा उत्तर भारत उसके अधीन था| यहॉं यह पुनः उल्लेख किया जाना चाहिए कि उस समय हिंदू राजा का एकमात्र अर्थ था भारतीय मूल का (नेटिव इंडियन) राजा| हिंदू शब्द देशवाची था, मजहबवाची नहीं| चूँकि यह भारत या भारतीय का परिचायक था, इसलिए यह भारतीय संस्कृति व परंपरा का प्रतिनिधित्व करने वाला शब्द भी बन गया, फिर भी मजहबी संकीर्णता इससे कोसों दूर थी| भारतीय होने में मजहब का भेद नहीं था| यदि आज की शब्दावली में कहें तो हेमचंद्र एक नितांत सेकुलर सम्राट था और भारतीय सेकुलर राजनीतिक परंपरा का अंतिम सम्राट था|
हेमचंद्र के पूर्व उत्तर भारत में सूरीवंश के अफगान मुसलमानों का शासन था| हेमचंद्र ने सूरी वंश के शासकों के काल में विभिन्न प्रशासनिक पदों पर होते हुए सेनापति एवं प्रधानमंत्री का पदभार संभाला था| यहॉं यह उल्लेखनीय है कि अफगान मुसलमानों को इस देश के तथाकथित हिंदू (वैदिक परंपरा के अनुयायी) पराया नहीं समझते थे| वे व्यापक भारतीय समाज का अंग बन गए थे| इन अफगान मुसलमानों ने हिंदुओं के प्रति कभी किसी क्रूरता का प्रदर्शन भी नहीं किया| किसी तरह का राजनीतिक भेदभाव भी उनके शासन में नहीं था| इन्हें ‘अफगान’ का नाम भी फारस वालों ने ही दिया था, जिन्होंने भारतीयों को हिंदू नाम दिया अन्यथा ये पश्तो भाषी पश्तून या पठान कहे जाते थे और हजारों वर्षों से भारत के भौगोलिक-सांस्कृतिक क्षेत्र के अंग थे| इस्लामी मजहब स्वीकार कर लेने के बावजूद उनका पूरे भारत देश के साथ पुराना भाईचारा तथा सांस्कृतिक समानता का भाव बना रहा| इनके विपरीत भारत की सांस्कृतिक सीमा के बाहरी क्षेत्र से आए मुसलमान हमलावर अत्यंत क्रूर तथा आतताई थे| वे अपना राजनीतिक साम्राज्य कायम करने के साथ-साथ यहां की सांस्कृतिक परंपरा को भी नष्ट कर देना चाहते थे| उनका लक्ष्य इस पूरे उपमहाद्वीप को इस्लामी झंडे के नीचे लाना और यहॉं के मूर्तिपूजक उदार भारतीयों को नेस्तनाबूद कर देना था| इतिहास का यह बहुत महत्वपूर्ण तथ्य है कि अफगान मुसलमान मुगलिया वंश के क्रूर मुस्लिम हमलावरों के खिलाफ भारतीय हिंदुओं के साथ थे| हेमचंद्र ने जब दिल्ली में वैदिक रीति से अपना राज्याभिषेक कराया और विक्रमादित्य की उपाधि धारण की, तो उसके बाईं तरफ उसका हिंदू सिपहसालार था, तो दाईं तरफ उसका मुस्लिम अफगान सेनापति| पानीपत की लड़ाई में भी उसके अगल-बगल इसी तरह दोनों सेनापति तैनात थे|
एक छोटे व्यापारी से सम्राट तक-
सोलहवीं शताब्दी का समय निश्‍चय ही भारी राजनीतिक अस्थिरता तथा सामाजिक अशांति का काल था| हेमचंद्र के पिता राय पूरनदास दिल्ली के निकट ही जिस कस्बे -रिवाड़ी- में आकर बस गये थे, वह उस समय व्यापार की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण स्थान था| दिल्ली आने वाले ईरानी व इराकी व्यापारियों की दृष्टि से यह एक विश्राम स्थल था| पिता नमक का व्यापार कर रहे थे, तो बेटे ने बड़े होकर अनाज का और बारूद बनाने में काम आने वाले ‘साल्ट पीटर’ का व्यवसाय शुरू किया| हेमचंद्र ने शेरशाह की सेना के लिए अनाज आपूर्ति का व्यवसाय शुरू किया, बाद में वह उसके लिए साल्ट पीटर की भी आपूर्ति करने लगा| १५४० में हुमायूँ को पराजित करके काबुल भागने पर मजबूर करने के बाद शेरशाह ने रिवाड़ी में तोप बनाने का एक कारखाना स्थापित किया| इसके साथ ही उसने यहॉं पीतल, तांबा तथा धातु के बर्तनों का उद्योग भी स्थापित किया| इस समय तक पुर्तगाली गोवा में अपने पैर जमा चुके थे| पुर्तगाली व्यापारी थे और वे भारतीय राजाओं को यूरोप से लाई अपनी विविध वस्तुओं के साथ कुछ यांत्रिक तकनीक भी बेच रहे थे| वे दक्षिण में सम्राट कृष्ण देवराय के हिंदू (भारतीय) साम्राज्य को तोप, बारूद तथा अरबी घोड़ों की आपूर्ति कर रहे थे| हेमचंद्र ने इन्हीं पुर्तगालियों से तोपेें और बारूद बनाने की तकनीक हासिल की| शेरशाह सूरी की सेना के लिए सैनिक-असैनिक सामानों के मुख्य आपूर्तिकर्ता होने के नाते हेमचंद्र का राज परिवार से बहुत निकट का संपर्क बन गया| १५४५ में शेरशाह सूरी के निधन के बाद उसका बेटा इस्लाम शाह गद्दी पर बैठा| इस्लाम शाह ने गद्दी संभालने के बाद अपने राज्य के उद्योग व्यापार की देखभाल के लिए हेमचंद्र  को ‘शाहांगी बाज़ार’ नियुक्त किया| फारसी में दिए गए इस पदनाम का अर्थ हुआ बाजार का अधीक्षक| अकबर के समय उसका दरबारी तथा आइने अकबरी का लेखक अबुल फजल लिखता है, ‘इस्लाम शाह हेमचंद्र की योग्यता से बहुत अधिक प्रभावित था और उसका बड़ा सम्मान करता था| उसकी योग्यता को देखते हुए इस्लाम शाह ने थोड़े दिन बाद ही हेमचंद्र को राज्य के गुप्तचर विभाग का मुखिया (दरोगा-ए-चौकी) बना दिया| इस्लाम शाह को उसकी सैनिक योग्यता की भी पहचान थी, इसलिए जब उसका स्वास्थ्य ढलने लगा, तो उसने अपना राज्य मुख्यालय दिल्ली से हटाकर ग्वालियर कर लिया, और साम्राज्य की पश्‍चिमोत्तर सीमा की रखवाली के लिए हेमचंद्र को पंजाब का सूबेदार (गवर्नर) बना दिया|’ ३० अक्टूबर १५५३ को इस्लाम शाह का निधन हो गया| उसके निधन तक हेमचंद्र पंजाब के सूबेदार पद पर रह कर मुगलों से साम्राज्य की रक्षा करता रहा| इस्लाम शाह के निधन के समय उसका बेटा फिरोज खान मात्र १२ वर्ष का था| उसके उत्तराधिकारी बनते ही तीन दिन के भीतर आदिलशाह सूरी (शेरशाह का भतीजा-उसके छोटे भाई निजाम खान का बेटा) ने उसकी हत्या कर दी और राजसत्ता अपने हाथ में ले ली|
आदिल ऐय्याश और मद्यप्रिय था| राजकाज सँभालने का कठिन काम उसके वश का नहीं था| उसके कमजोर नियंत्रण के कारण चारों तरफ विद्रोह भड़कने लगे| अंततः आदिलशाह ने हेमचंद्र को अपना मुख्य सलाहकार या प्रधानमंत्री बनाकर एक तरह से पूरी सत्ता उसे सौंप दी| उसने सेनाध्यक्ष का पदभार भी उसे सौंप दिया| आदिलशाह की दुर्बलता के कारण अफगान साम्राज्य के प्रायः सारे सूबेदारों ने विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया| विद्रोहियों द्वारा स्वतंत्र सत्ता की घोषणा के कारण राज्य टुकड़े-टुकड़े हो गया| किंतु हेमचंद्र ने हिम्मत नहीं हारी, उसने एक-एक करके सभी विद्रोहियों को पराजित कर दिया| यहॉं यह उल्लेखनीय है कि इस समय तक हेमचंद्र की अफगान क्षत्रपों के विरुद्ध लड़ाई ने धार्मिक लड़ाई का रूप नहीं लिया था| इतिहासकार विन्सेंट स्मिथ अपनी पुस्तक ‘अकबर द ग्रेट मुगल’ में लिखते हैं कि उस समय अफगान अपने को भारतीय (नेटिव इंडियन) समझते थे, जबकि मुगलों को विदेशी समझा जाता था| लेखक के.के. भारद्वाज ने ‘हेमू नेपोलियन आफ मेडिवल इंडियाफ में लिखा है कि हेमचंद्र एक देसी राजा था, जिसने देसी अफगानों की सेना लेकर जीत पर जीत हासिल की| एक दूसरे लेखक के.आर. कानूनगो ने लिखा है कि इससे जाहिर होता है कि जिस साम्राज्य की स्थापना हेमचंद्र ने की वह आज की शब्दावली में पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष और राष्ट्रीय (सेकुलर एंड नेशनलिस्टिक) था| माइकेल ब्रैडविन लिखता है कि हेमचंद्र की सेना अकबर की सेना से पॉंच गुना अधिक ताकतवर थी, जिसमें पैदल, घुड़सवार व तोपखाना के साथ बड़ी संख्या में हाथी भी थे| उसके उच्च सैनिक अधिकारियों में हिंदू (नेटिव भारतीय) और मुस्लिम (नेटिव मुस्लिम) दोनों शामिल थे| राजपूत, अफगान, देसी मुस्लिम, अहीर, गुज्जर, जाट, ब्राह्मण, बनिया आदि वर्गों के लोग उसकी सेना में थे| मौलाना मुहम्मद हुसैन ‘आजाद’ के अनुसार हेमचंद्र को अपने तोपखाने का बड़ा गर्व था| उसके दो सर्वाधिक विश्‍वस्त व प्रमुख जनरल थे- जनरल रामचंद्र (ब्राह्मण) और शाही खान कक्कर (संभल का अफगान सूबेदार)|
कमजोर सूरी शासन के दौरान २२ जुलाई १५५५ को हुुमायूँ के मुगल सैनिकों ने आदिल शाह के भाई सिकंदर सूरी को हटाकर पंजाब, दिल्ली और आगरा पर फिर से कब्जा कर लिया| हेमचंद्र उस समय बंगाल में था| मुगलों को १५ वर्ष बाद दिल्ली में पैर जमाने का मौका मिला, लेकिन २६ जनवरी १५५६ को हुमायूँ की आकस्मिक मृत्यु ने हेमचंद्र को सुनहरा अवसर दे दिया| उसने वर्तमान बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश के क्षेत्रों से होकर तेजी से दिल्ली की ओर कूच किया| रास्ते में आने वाले मुगल फौजदारों में से किसी ने उसका मुकाबला करने का साहस नहीं किया|  हेमचंद्र के हमले की खबर सुनकर आगरा स्थित मुगलों की सबसे मजबूत सेना का कमांडर इस्कंदर खान उजबेग बिना लड़े ही भाग निकला| इतिहासकार के.के. भारद्वाज के अनुसार बिहार से दिल्ली तक के उसके धावे की तुलना नेपोलियन के धावे से की जा सकती है- वह आया, उसने देखा और जीत लिया (ही केम, ही सा, ही कांकर्ड)| आगरा जीतने के बाद हेमचंद्र ने सीधे दिल्ली पर हमला किया| अकबर की तरफ से दिल्ली में नियुक्त सूबेदार ताड़दी बेग खान ने अकबर और उसके संरक्षक बैरम खान को लिखा कि ‘हेमू (हेमचंद्र का संक्षिप्त नाम) ने आगरा जीत लिया है और दिल्ली पर हमला करने वाला है| यदि और फौज नहीं भेजी गई, तो दिल्ली की रक्षा नहीं की जा सकती|’ स्थिति की गंभीरता को देखते हुए बैरम खान ने अपने सर्वाधिक योग्य सिपहसालार पीर मुहम्मद सारवानी को ताड़दी बेग के पास भेजा| आसपास की सारी मुगल सेना दिल्ली बुला ली गई, सभी सेनापति वहॉं जुटे, लेकिन हेमचंद्र के आगे टिक नहीं सके| केवल एक दिन के युद्ध में उसने (६ अक्टूबर १५५६) दिल्ली मुगलों से छीन ली|
अगले दिन यानी ७ अक्टूबर १५५६ (विक्रमी संवत १६१३ चतुर्थी, कार्तिक शुक्ल पक्ष) को अपने सारे अफगान सरदारों तथा भारतीय (हिंदू) सेनापतियों की उपस्थिति में हेमचंद्र ने वैदिक विधि-विधान से अपना राज्याभिषेक कराया तथा विक्रमादित्य की उपाधि धारण की| इस अवसर को अंकित करने वाली पेंटिंग (आलेख के पहले पृष्ठ पर) पर यदि नजर डालें, तो देखेंगे कि उसके अगल-बगल अफगान (मुस्लिम) व राजपूत (हिंदू) सरदार लगभग समान संख्या व बराबरी के दर्जे में उपस्थित हैं| इस अवसर पर हजारों गणमान्य लोगों को आमंत्रित किया गया था, जिनमें क्षत्रप अफगान सूबेदार तथा अनगिनत विद्वान व पंडित शामिल थे| समारोह करीब तीन-चार दिन लगातार चलता रहा| अबुल फजल ने इस अवसर का जिक्र करते हुए लिखा है कि महत्वाकांक्षी सम्राट हेमचंद्र ने इसके बाद अपनी सेना का पुनर्गठन किया, क्योंकि वह काबुल पर हमला करना चाहता था| उसने अपनी सेना में बहुत से हिंदुओं को भर्ती किया, लेकिन किसी अफगान को बाहर नहीं किया| इससे जाहिर है कि हेमचंद्र को अपने मुस्लिम अफगान सरदारों की वफादारी पर तनिक भी संदेह नहीं था| कारण स्पष्ट है कि उस समय राष्ट्रीयता का भाव मजहबी भ्रातृत्व के मुकाबले कहीं अधिक प्रबल था| अफसोस भारतीयता की इस राष्ट्रीय सोच का भी हेमचंद्र राय के साथ अंत हो गया, क्योंकि एक महीने बाद ही मुगलों की जिस सेना ने दिल्ली पर हमला किया, उसने यहॉं मजहबी राजनीति का झंडा गाड़ दिया और फिर उस समय पारस्परिक घृणा का जो बीज बोया गया, उसकी विषलता आज भी न केवल जीवित है, बल्कि और तेजी से फैलती जा रही है|
हेमचंद्र अद्भुत प्रतिभा तथा विराट अनुभव संपन्न शासक था| सूरी शासन में वाणिज्य अधीक्षक, आंतरिक सुरक्षा मंत्री, पंजाब के सूबेदार, प्रधानमंत्री एवं सेनाध्यक्ष जैसे पदों पर कार्य करने के कारण उसे नीचे से ऊपर तक राई-रत्ती की पूरी जानकारी थी| उसने देशव्यापी व्यापार को सुगठित करने की नई योजना बनाई| उसे सेना और सैन्य उपकरणों तथा उसके लिए आवश्यक तकनीक की भी अच्छी जानकारी थी| व्यापार में उसने काला बाजारी, जमाखोरी, मुनाफाखोरी तथा माल की कम तौल पर कठोर अंकुश लगाया| ऐसे अपराधों के लिए उसने किसी को माफ नहीं किया| प्रशासनिक भ्रष्टाचार पर भी उसकी कड़ी नजर थी| आगरा एवं दिल्ली पर कब्जा होने के बाद उसने सारे भ्रष्ट अधिकारियों को हटाकर प्रशासन को चुस्त और ईमानदार बनाया| थोड़े ही समय में उसने अपनी जैसी छवि बनाई उसे देखकर मुगलों का तो दिल ही बैठ गया था| दिल्ली से भागकर ‘कलनौर’ में जमा हुई मुगल सेना के अधिकारियों ने अकबर को सलाह दी कि वह काबुल वापस लौट चले, वहॉं अधिक सुरक्षा रहेगी| यहॉं इस समय हेमू से फिर टकराना आत्मघाती होगा| मगर अकबर के संरक्षक और उसके मुख्य सैनिक रणनीतिकार बैरम खॉं की राय अलग थी| उसका ख्याल था कि दिल्ली को हथियाने की एक कोशिश तो अवश्य करनी चाहिए| उसने सारे सेनानायकों तथा हिम्मत हार चुके सैनिकों को एकत्र किया और उन्हें इस्लाम का हवाला देकर जबर्दस्त भाषण पिलाया| यह दिन ५ नवंबर १५५६ (विक्रमी संवत १६१३, तृतीया, मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष) का था| मजहबी जोश में भरी मुगलिया सेना पानीपत के मैदान में एकत्रित हुई| बैरम खॉं ने अकबर के साथ सेना के पीछे, युद्ध क्षेत्र से ८ मील (१२ कि.मी.) दूर अपना शिविर लगाया, जिससे यदि सेना पराजित हो, तो वहां से तेजी के साथ काबुल की तरफ पलायन किया जा सके| मुगल सेना का नेतृत्व तीन सेनानायकों अली कुली खान, सिकंदर खान और अब्दुल्ला खान उजबेग के हाथ में था| इसके विपरीत हेमचंद्र ने अपनी सेना का नेतृत्व स्वयं संभाला और वह हाथी पर सवार होकर सेना में सबसे आगे था, वह जीत के एकदम नजदीक था कि अचानक किसी शत्रु सैनिक का एक बाण उसकी आँख में आ लगा|
मरणासन्न, बेहोश हेमचंद्र को पकड़ लिया गया| शाह कुली खान उसे लेकर अकबर के कैम्प में पहुँचा| इतिहासकार अब्दुल कादिर बदायूंनी की पुस्तक ‘मुंतखिब-उल-तवारीख’ (खंड १, पृष्ठ ६) के अनुसार बैरम खॉं ने अकबर से कहा कि वह हेमू का सिर काट दे और गाजी की उपाधि अर्जित कर ले| अकबर ने जवाब दिया कि वह तो पहले ही मर चुका है| यदि उसमें कोई हरकत होती या वह सांस ले रहा होता, तो मैं उसे मार सकता था| बहरहाल बैरम खॉं के आग्रह पर अकबर ने उस शव पर एक वार किया, जिससे कि गाजी की उपाधि मिल सके, फिर बैरम खॉं ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया| यहॉं से उसका सिर काबुल भेजा गया, जहॉं उसे दिल्ली दरवाजा के बाहर लटकाया गया, जिससे कि सारे अफगानों को यह बताया जा सके कि अजेय समझा जाने वाला हिंदू राजा मारा जा चुका है और धड़ को दिल्ली के पुराना किला के बाहर एक तख्ते पर टॉंग दिया गया|
इसके बाद मुगलिया सेना ने अलवर की गद्दी पर कब्जा कर लिया, जहॉं हेमचंद्र के पिता रह रहे थे| आइने अकबरी के लेखक अकबर के विश्‍वस्त मित्र एवं उनके दरबारी नौरत्नों में से एक अबुल फजल ने (इतिहासकार माइकेल एडवर्ड की पुस्तक ‘ए हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ में उद्धृत) इसके बाद की घटनाओं का बड़ा जीवंत वर्णन किया है| उनके अनुसार ‘वह जगह बहुत मजबूत थी, उसके लिए भारी लड़ाई हुई| हेमू के बाप को जिंदा पकड़ लिया गया और उसे ‘नसीर-उल-मुल्क’ के सामने लाया गया| नसीर-उल-मुल्क ने उनसे अपना मजहब बदलने के लिए कहा| उस बूढ़े आदमी ने कहा कि करीब ८० वर्षों तक मैंने अपने धर्म के अनुसार अपने भगवान की पूजा की है| अब इस समय, इस आयु में केवल अपनी जान जाने के भय से और बिना आपकी पूजा पद्धति को समझे भला मैं उसे क्यों बदल दूं|  पीर मुहम्मद ने मानो उनके शब्दों को सुना ही न हो, बस उसने इसका जवाब अपनी तलवार से दिया|’ हेमचंद्र के मरने के बाद बैरम खॉं ने उनके पूरे परिवार का सगोत्र सफाया करवा दिया| उसने उनके अनुयायी अफगान सरदारों (देसी मुस्लिम) को भी माफ नहीं किया| उनकी भी सामूहिक हत्या का आदेश दिया, जिससे कि देशी यानी राष्ट्रवादी हिंदू व मुसलमान दोनों में आतंक व्याप्त हो| दिल्ली और उसके आसपास इतनी खोपड़ियॉं धड़ से अलग की गयीं कि उनका अम्बार लग गया और उन खोपड़ियों से मीनारें बनाई गईं| जहॉंगीर के जमाने में आए ब्रिटिश यात्री पीटर मुंडे के हवाले पर विश्‍वास करें, तो खोपड़ियों की ये मीनार घटना के ६० साल बाद भी मौजूद थी| इसकी याद में बनाई गई एक पेंटिंग अभी भी हरियाणा के पानीपत शहर में स्थापित ‘पानीपत वार म्यूजियम’ में रखी हुई है|
विक्रमादित्य हेमचंद्र राय अब इतिहास के पृष्ठों में खो चुका एक नाम भर रह गया है| लेकिन हमें इतिहास के इन पन्नों को फिर पलटना चाहिए, ऐसे नायकों का चरित्र बाहर लाना चाहिए और उनका विश्‍लेषण करना चाहिए| हेमचंद्र ने भी प्रायः वही गलतियॉं कीं, जो ज्यादातर देशी राजा करते रहे| लड़ाइयॉं जीतने पर वे सीमाओं की सुरक्षा सुनिश्‍चित करने के बजाय जश्‍न मनाने में मशगूल हो जाते रहे हैं| बहादुरी के जोश में प्रायः सारे हिंदू राजा सेना का स्वयं नेतृत्व करने के लिए सबसे आगे आकर डट जाते रहे हैं| हेमचंद्र ने यदि दिल्ली फतह करने के बाद पहले मुगलों का पीछा किया होता और काबुल तक खदेड़ा होता, तो उन्हें असमय काल के गाल में न समाना पड़ता और देश का इतिहास दूसरा होता| उनकी विक्रमादित्य की उपाधि धारण करने की जल्दबाजी ने उनके साथ इस देश की भाग्यलक्ष्मी को भी अंधेरे के गर्त में डाल दिया| ऐसी जल्दबाजियॉं उनके बाद भी की गईं| सबसे ताजा घटना के रूप में अपने देश की स्वतंत्रता को ही ले सकते हैं| इस देश के राजनेताओं को पता था कि मजहब के आधार पर देश के विभाजन का फैसला भारी हिंसा तथा खून-खराबे का कारण बनेगा| नक्शे पर तय की गई भारतीय सीमा को बदलने का प्रयास किया जा सकता है| फिर भी, इस सबकी व्यवस्था किए बिना वे दिल्ली में स्वतंत्रता का जश्‍न मनाने में मशगूल हो गए| वह दशहरे की ही रात थी, जब पाकिस्तानियों ने कश्मीर पर हमला किया था और श्रीनगर की बिजली आपूर्ति काट दी थी| उस रात दिल्ली में भी जश्‍न चल रहा था और कश्मीर का राजदरबार भी बिजली की रोशनी में रंगीनियॉं बिखेर रहा था| तभी एकाएक बिजली चली गई| पूरा दरबार अंधेरे में डूब गया| शायद उस समय सपने में भी यह कल्पना नहीं रही होगी कि यह सद्यःजात पड़ोसी के हमले का परिणाम था| इतिहास साक्षी है कि हम बार-बार धोखा खाते रहे हैं, किंतु सबक सीखने का काम हमेशा भविष्य पर छोड़ते रहे हैं| खैर, इतिहास की गलतियॉं हम आज नहीं सुधार सकते, किंतु आगे के लिए सावधानी पर तो ध्यान रख सकते हैं|