ब्रजगोपियों का वह महारास
लीला पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण को ‘रस ब्रह्म’ की भी संज्ञा दी गयी है| वह स्वयं मूर्तमान रस (रसो वै सः) हैं| शरद पूर्णिमा की श्वेता निशा में उन्होंने ब्रजांगनाओं के साथ जिस महारास की सृष्टि की थी, वह प्रेम की पराकाष्ठा का शाश्वत नृत्य है, जो आज भी जारी है| आवश्यकता है इसका अनुभव करने वाले निर्विकार चित्त तथा उस गोपीभाव की, जो लोक-परलोक, यश-अपयश तथा देह बोध से भी ऊपर उठकर अपने को रसार्णव श्रीकृष्ण में ही लीन कर देता है|
वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद जब धरती आकाश दोनों निर्मल हो जाते हैं, सूर्य दक्षिणाभिमुख हो जाता है, तब आह्लादकारी शरद ऋतु का आगमन होता है| षड्ऋतु चक्र में अश्विन और कार्तिक ये दो महीने शरद के माने जाते हैं| इन दोनों महीनों के बीच ही आती है पूर्णिमा की वह रात, जो वर्ष की सारी रात्रियों में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है| शरद पूर्णिमा की रात| कृष्ण के महारास की रात| आत्मा के परमात्मा से पूर्ण रूपेण एकाकार होने की रात| वह रात जिसमें पूर्ण चंद्र की शुभ्र किरणें अमृत वर्षा करती हैं| वह रात जिसमें भावजगत की रसधारा में संपूर्ण सृष्टि विलीन हो जाती है| चतुर्दिक केवल आनंद का पारावार ही हिलोरें लेता है| सारा कलुष नष्ट हो जाता है और शेष रह जाती है केवल रसमयी, आनंदमयी, केलिमयी एक शुभ्र ज्योत्सना|
भारतीय मनीषा ने परम पुरुष परमात्मा के जिन दो विशिष्ट लौकिक रूपों की पहचान की है, उनमें एक भगवान राम यदि धर्मस्वरूप (रामो विग्रहवान धर्मः) हैं, तो भगवान कृष्ण रसावतार पूर्ण आनंदस्वरूप (रसो वै सः) हैं| एक बाह्य जगत की मर्यादाओं के स्थापक (श्रुति सेतु पालक) हैं, तो दूसरे अंतर्जगत के निस्सीम रसार्णव के प्रवाहक| सघन प्रेम की अवस्था में कोई मर्यादा, कोई सामाजिक आवरण शेष नहीं रह पाता| रसावस्था में सारी मर्यादाएँ विलीन हो जाती हैं, सारे आवरण छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और स्व-पर के सारे भेद अपना अस्तित्व खो देते हैं| इसी रसावस्था की सृष्टि हुई थी शरद पूर्णिमा की उस महानिशा में, जब आनंदघन कृष्ण ने ब्रजांगनाओं के साथ महारास का आयोजन किया था|
पूर्ण आनंद के लिए पूर्ण समर्पण की आवश्यकता होती है| स्वाभाविक है कि यह पूर्ण चंद्र की छाया में ही संभव है| जब छिपाने के लिए कुछ भी न हो तो किसी काली रात की क्या जरूरत? भागवत महापुराण में कृष्ण के इस महारास का विधिवत वर्णन है| तमाम परवर्ती कवियों ने भी इस पर अपनी लेखनी चलाई है, लेकिन वैसा रस परिपाक अन्यत्र कहीं नहीं हो सका| सामान्यतया महारास से यही समझा जाता है कि तमाम गोप बालाओं के साथ उस रात कृष्ण ने उन्मुक्त, उद्दाम नृत्य किया| ब्रज की सारी विवाहित, अविवाहित युवतियॉं गोपाल की वंशी की टेर सुनकर वहॉं आ गयी थीं और फिर देह-गेह की सारी सुधि भुलाकर पूरी रात कृष्ण के साथ नृत्याभिसार में निमग्न रहीं| जितनी गोपियॉं थीं, कृष्ण ने भी उतने ही रूप बना लिए थे, जिससे प्रत्येक गोपी यही समझती रही कि कृष्ण उसकी ही बाहों में हैं और वह उनके साथ ही नृत्य कर रही है| इस तरह सारी गोपियों और कृष्ण का एक विशाल नृत्यमंडल बन गया था, जो तब तक विविध नृत्य मुद्राओं व गतियों में चलता रहा, जब तक कि सारी गोपियॉं थककर निढाल नहीं हो गयीं|
वस्तुतः महारास केवल सामूहिक नृत्य नहीं था, यह तन से अधिक मन के संसार का आयोजन था, जहॉं बिना थके अनंतकाल तक यह नृत्य चलता रह सकता है| बाह्य देह व्यापार यहॉं गौण हो जाते हैं| शरीर से क्या हो रहा है, यह महत्वहीन है, मन कहॉं रमा है, यह महत्वपूर्ण है| तन भी वहॉं रह सकता है, लेकिन उसकी उपस्थिति अनिवार्य नहीं| यही इस महारास की विशेषता है, यही इसकी दिव्यता है|
महारास को लौकिक व वैदिक मर्यादाओं तथा सामाजिक आदर्शों की पृष्ठभूमि में नहीं देखा जाना चाहिए| यह प्रेम जगत की बात है और वह भी पराकाष्ठा को प्राप्त प्रेम की| इसीलिए रासबिहारी कृष्ण को लोक एवं वेद की मर्यादाओं का अतिक्रमण करने वाला (भिन्न सेतुः) कहा गया है| उत्कट प्रेम किसी लौकिक-वैदिक मर्यादा की परवाह नहीं करता| ङ्गछोड़ दई कुल की कानि लोक लाज गोई|फ जो प्रेम का दीवाना होता है, वह लोकोत्तर हो जाता है| इसीलिए कृष्ण की महारास लीला नितांत लोकोत्तर लीला है| यहॉं न समाज का अस्तित्व रहा जाता है, न वेद का| इसीलिए यह ज्ञानियों के लिए सर्वथा दुर्लभ है| गोपियॉं इसीलिए ज्ञान का निषेध करती हैं| जो एक बार रसस्वरूप कृष्ण की कंठहार बन चुकी हैं, उसे कोई ज्ञान, कोई ऐश्वर्य भला कहां प्रभावित कर सकता है|
कृष्ण ने महारास की भूमिका बहुत पहले से तैयार कर रखी थी| गोपियों का ङ्गचीरहरणफ इसका पहला चरण था| पूर्ण निरावृत्त चित्त ही महारास की भाव भूमि में प्रवेश कर सकता है| जब तक आवरण का मोह बना रहेगा, जब तक अपने को छिपाने की वृत्ति बनी रहेगी, जब तक देह बोध रहेगा, जब तक लोक वेद की चिंता रहेगी, तब तक उस रसस्वरूप कृष्ण में अवगाहन की योग्यता प्राप्त नहीं हो सकती| इसीलिए कृष्ण ने सर्वप्रथम गोपियों का चीर अर्थात् उनका आवरण, उनकी लज्जा, उनका संकोच, उनका भय, उनका देह बोध, सब कुछ अपहृत कर लिया| वे सारी सांसारिक जड़ताओं व बंधनों से मुक्त हो गयीं|
सभी ब्रज कुमारियॉं कृष्ण के प्रति आत्यंतिक रूप से मोहित थीं| वे सबकी सब उन्हें अपने प्रियतम के रूप में प्राप्त करना चाहती थीं| वे सामूहिक रूप से इसके लिए कात्यायिनी देवी की पूजा कर रही थीं, व्रत रख रही थीं| हेमंत ऋतु की कँपाने वाली सर्दी में प्रातःकाल यमुना में स्नान करने जाती थीं| यह सारी क्लिष्ट साधना केवल कृष्ण को प्रियतम रूप में पाने के लिए, क्योंकि उनका चित्त पूरी तरह कृष्ण में रम चुका था| उन्हें जीवन में और किसी वस्तु की चाह नहीं थी, लेकिन उनकी अहंता अभी शेष बची थी| उनका सूक्ष्म देह बोध बरकरार था| वे अभी भी कृष्ण को पुरुष और अपने को स्त्री समझती थीं| अपनी सखी गोपियों के समक्ष निर्वस्त्र होने में उन्हें कोई संकोच नहीं था| वे एक साथ अपने सारे वस्त्र उतारकर यमुना में प्रवेश करती थीं, फिर वैसे ही साथ-साथ बाहर निकलकर फिर अपने-अपने वस्त्र धारण करती थीं| कहीं कोई दुराव नहीं, लेकिन वहीं कृष्ण व अन्य ग्वाल बालकों के सामने निर्वस्त्र आने में उन्हें भारी संकोच था| कारण था, भिन्न देह का बोध| भिन्न देह बोध के साथ महारास के रस संसार में प्रवेश असंभव था| विशुद्ध प्रेम नितांत लिंगभेद के परे होता है| वहॉं लौकिक मर्यादाओं व पाप बोध के लिए कहीं कोई स्थान नहीं रहता है|
चीरहरण एक प्रतीक कथा है| इसे स्थूल व सूक्ष्म दोनों रूपों में ग्रहण किया जा सकता है| कृष्ण ने जब यह देखा कि गोपियॉं उनमें पूर्ण अनुरक्त हो चुकी हैं, तो उन्होंने उनके पूर्ण परिमार्जन-परिशोधन का निर्णय लिया और चीरहरण के बहाने उनके सारे सूक्ष्म दैहिक व आत्मिक आवरणों को छीनकर उन्हें आत्मरूप बना लिया|
सभी गोपियॉं जब यमुना के आकंठ जल में स्नानमग्न थीं, कृष्ण उनके सारे वस्त्र लेकर एक कदम्ब के वृक्ष पर चढ़ गये| उनके साथ के ग्वाल सखा इस ठिठोली पर ठठाकर हँस रहे थे| उनकी हँसी से गोपियों का ध्यान उधर गया| जब उन्होंने देखा कि उनके सारे वस्त्र लेकर कृष्ण वृक्ष पर जा बैठे हैं और साथ में ग्वाल बालों का झुंड हँस रहा है, तो वे भय और लज्जा से सूख गयीं| उन्होंने बड़ी प्रार्थना की, धर्म का वास्ता दिया, गोपराज नंद से शिकायत की धमकी दी, लेकिन सब कुछ बेअसर| यही तो वे सारे आवरण थे, जिन्हें वे नष्ट करना चाहते थे| उन्होंने साफ कहा कि वस्त्र चाहिए तो बाहर आकर ही लेना पड़ेगा| नदी जल में शीत से व्याकुल युवितयॉं मजबूरन अपने गुप्तांगों को हाथ से ढककर बाहर निकलीं और वृक्ष के नीचे पहुँचकर अपने वस्त्रों की याचना करने लगीं| कृष्ण ने देखा कि अभी तो आधा ही संकोच टूटा है| देह बोध अभी भी बरकरार है| उन्होंने कहा कि नग्न स्नान करके तुमने यमुना जी के प्रति अपराध किया है, इसलिए दोनों हाथ सिर से लगाकर प्रणाम करो, फिर वस्त्र ले जाओ| अंततः गोपियों को लज्जा का अंतिम आवरण भी हटाना पड़ा और उन्होंने ग्वाल बालों के समक्ष ही कृष्ण को हाथ जोड़कर प्रणाम किया| इसके बाद फिर उन्होंने वस्त्र की याचना नहीं की, क्योंकि अब तो वस्त्र की आवश्यकता ही समाप्त हो गयी थी| क्रमशः उनका चित्त कृष्ण में इस तरह अनुरक्त होता गया कि देह बोध पूरी तरह समाप्त हो गया| वे अनुरागपूर्ण दृष्टि से कृष्ण की ओर देखने लगीं| वे समागम की आकांक्षी तो थीं हीं और अब संकोच का आवरण भी दूर हो चुका था, लेकिन कृष्ण स्वयं समागम के लिए आकुल नहीं थे| उन्होंने गोपियों के चित्त का परिशोधन करके फिर इस आश्वासन के साथ उन्हें उनके घर-परिवारों में भेज दिया कि आने वाली शरद रात्रियों में वे उनके साथ विहार कर सकेंगी| उनकी साधना पूर्ण हो चुकी है, अब नित्य सुबह पूजा, आराधना व स्नान की कोई जरूरत नहीं|
कृष्ण सारी लीला करते हुए कितने निर्विकार हैं कि वे समागम के लिए आतुर, सामने खड़ी निर्वस्त्र गोप सुंदरियों को उनकी कामनातृप्ति के लिए लगभग एक वर्ष बाद का समय देते हैं और उस समय अपने वस्त्र धारण करके घर जाने देते हैं| गोपियों को वस्त्र की अब कोई जरूरत नहीं रह गयी है, फिर भी वे वस्त्र धारण कर लेती हैं| उनके लिए वस्त्र धारण करना या न करना महत्वहीन हो गया है, किंतु सांसारिक जीवन में सांसारिक मर्यादा का भी पालन करना चाहिए, इसलिए वे भी बिना किसी प्रतिकार, बिना किसी रोष के अपने-अपने वस्त्र धारण कर लेती हैं और सहज भाव से अपने घर जाकर अपने पारिवारिक कार्यों में लग जाती हैं| उन्हें कृष्ण की अनुकंपा मिल गयी है, अब कोई परिताप शेष नहीं है| वे सानंद उस शरद पूर्णिमा की श्वेत निशा की प्रतीक्षा में हैं, जब के लिए कृष्ण ने महाअभिसार का समय दिया है|
महारास के वर्णन के भगवान व्यास के शब्द अत्यंत मनोहर हैं| शरण पूर्णिमा के दिन सूरज ढलते ही जैसे ही शाम होती है, ऐसा लगता है चंद्रमा ने पूर्व दिशा के मुखमंडल पर अपने किरणकरों से रोली केसर मल दी हो| स्वयं चंद्र देव का अखंड मुखमंडल नवीन केसर की तरह रक्ताभ हो रहा था| वन प्रांतर के कोने-कोने में उनकी रागारुण श्वेत चांदनी फैल रही थी| दिन की सूर्य रश्मियों से तप्त प्रकृति चंद्र किरणों का अमृत शीतल स्पर्श पाकर आह्लादित हो उठी थी| इसी बीच मनमोहन कृष्ण ने ब्रज सुंदरियों का मन हरण करने वाली तान अपनी बंसरी पर छेड़ी| गोपियों का चित्त तो पहले से ही कृष्ण के वशीभूत हो चुका था| उनके भय, संकोच, लज्जा, मर्यादा आदि वृत्तियों का भी हरण हो चुका था| इसीलिए वंशी की धुन कान में पड़ते ही वे यंत्रचालित-सी कृष्ण की ओर दौड़ पड़ीं| इस बार किसी ने किसी को साथ लेने के लिए टेरा नहीं, क्योंकि अब इसकी किसी को जरूरत नहीं थी और न किसी को इसकी सुध ही थी| जो गोपी दूध दुह रही थी, वह दूध दुहना छोड़कर चल पड़ी, जो चूल्हे पर दूध औटा रही थी, वह उसे वैसे ही उफनता छोड़कर भाग चली| जो छोटे बच्चे को दूध पिला रही थी, पति की सेवा कर रही थी या स्वयं भोजन कर रही थी, वह सब काम छोड़कर प्रियतम कृष्ण की ओर चल पड़ी| जो शृंगार कर रही थी, वह अपना शृंगार भी अधूरा छोड़कर दौड़ पड़ी| वस्त्र पहन रही गोपी अधूरे वस्त्र में ही चल पड़ी| किसी ने एक क्षण का भी विलंब नहीं किया| जिसकी देह किसी अवरोध में फँसी, वह चित्त रूपा अपनी स्थूल देह का परित्याग करके भी कृष्ण मिलन के लिए निकल पड़ी| महारास में बाह्य शृंगार या बाह्य शुचिता का कोई उपयोग नहीं, वहॉं तो अंतर्मन का उत्कट प्रेम ही महत्वपूर्ण है| इसलिए गोपियों को किसी और चीज की परवाह नहीं थी, शीघ्रातिशीघ्र वह अपने प्राण प्यारे के पास पहुँचना चाहती थीं| उन्हें उस समय देह-गेह की कोई फिक्र नहीं थी|
सारी गोप सुंदरियों के आ जाने के बाद एक बार फिर लीला बिहारी कृष्ण ने उनकी प्रेम परीक्षा ली| उन्हें लौकिक धर्म का उपदेश दिया, सदाचार की शिक्षा दी, जंगल का भय दिखलाया| व्यास के शब्दों में कृष्ण ने उनसे कहा- ब्रज सुंदरियों! रात का समय है, वन बड़ा ही भयावना है, जंगली हिंसक पशु इधर-उधर घूमते रहते हैं| तुम सब यहॉं संकट में पड़ सकती हो| जल्दी से ब्रज लौट जाओ| रात के समय घोर वन में स्त्रियों को नहीं रुकना चाहिए| तुम्हें न देखकर तुम्हारे मॉं-बाप, भाई-बंधु, पति-पुत्र ढूंढ़ रहे होंगे| उन्हें भय में न डालो| तुमने पूर्ण चंद्रिका में रंग-बिरंगे पुष्पों से लदे वृक्षों वाले वन के सौंदर्य को देख लिया है| बस अब देर मत करो, वापस लौट जाओ| तुम लोग कुलीन व सती साध्वी स्त्रियॉं हो, तुम्हारा घर-बार छोड़कर इस तरह रात में वन में आना उचित नहीं| कुलीन स्त्रियों को किसी पर पुरुष के संग में रहना सर्वथा अनुचित है| इससे लोक-परलोक दोनों बिगड़ता है| लोक में बदनामी होती है, परलोक में नरक मिलता है| मेरे अनन्य प्रेम की प्राप्ति के लिए भी मेरे निकट रहना आवश्यक नहीं| इसलिए तुम लोग तत्काल अपने-अपने घरों को लौट जाओ|
कृष्ण ने बहुत तरह से समझाया, किंतु गोपियों के तो सारे भय समाप्त हो चुके थे| वे लोक और वेद की मर्यादा, यश और अपयश से ऊपर उठ चुकी थीं| उनकी परलोक में स्वर्गादि की लालसा समाप्त हो चुकी थी| वे तो स्त्री-पुरुष के दैहिक भेद को भी पार कर चुकी थीं| उनमें रंच-मात्र भी कलुष शेष नहीं रह गया था| वे तो अब निर्विकार विशुद्ध प्रेम पुत्तलिकाएँ थीं, जो प्रेम रस के महार्णव में विलीन होने के लिए वहॉं आयी थीं|
कृष्ण को जब पूर्ण विश्वास हो गया कि गोपियों के सांसारिक मोह का आवरण सचमुच छिन्न-भिन्न हो चुका है| यद्यपि एक बार वे सारे आवरण का हरण (चीरहरण) कर चुके थे, फिर भी उन्होंने परीक्षा ली, क्योंकि यह संसार बार-बार मोह के नये-नये आवरण डाल देता है| गोपिकाएँ अनन्य साधिकाएँ थीं| एक बार जब कृष्ण ने सारा आवरण छीन लिया था, तब से उन्होंने अपने चित्त पर कोई दूसरा आवरण पड़ने नहीं दिया| मनमोहन कृष्ण गोपियों की इस चिर निरावरणता पर मुग्ध हो गये और उन्हें अपना अंग-संग देने के लिए तैयार हो गये| उनकी प्रेमभरी मादक चितवन से गोपियों का अंग-अंग प्रफुल्लित हो गया| यमुना के शीतल सैकत पुलिन पर प्रवाहित त्रिविध वायु उन्हें सहज ही रोमांचित कर रही थी और इस पर प्रियतम कृष्ण की सानुकूलता ने उन्हें काम-विह्वल व चंचल कर दिया| उद्दाम साहचर्य में उनके आनंद की सीमा न रही|
लेकिन यहीं फिर कुछ मलिनता आ गयी| गोपियांें में अहंकार का भाव आ गया| उन्हें लगा कि संसार के स्त्री-पुुरुष में वही सर्वश्रेष्ठ हैं, जिन्हें साक्षात रस ब्रह्म कृष्ण का अंग-संग प्राप्त हुआ है| कृष्ण को यह भला कैसे सह्य हो सकता था| वे अभी अपने अधरों, वक्ष, नितंबों व नीवी पर कृष्ण के स्पर्श का आनंद उठा ही रही थीं कि कृष्ण बीच से अंतर्धान हो गये| एकाएक सारी गोप बालाएँ स्तब्ध रह गयीं| वे कृष्ण के बिना अत्यंत विरहकातर हो चलीं| वे हा कृष्ण, हा कृष्ण कहकर उन्हें ढूंढ़ने लगीं| वृक्षों, लताओं, वन गुल्मों से उनके बारे में पूछने लगीं| वे कृष्ण की लीलाओं और गुणों का स्मरण करके विक्षिप्तों जैसा आचरण करने लगीं| कृष्ण का गुणगान करते-करते वे स्वयं इस तरह कृष्णमय हो गयीं कि स्वयं कृष्ण की तरह लीला करने लगीं| विरह की इस अग्नि में उनका रहा-सहा स्वत्व व अहंकार भी जलकर नष्ट हो गया| जब आत्मबोध ही समाप्त हो जाएगा तब आत्म श्रेष्ठता का अहंकार कहॉं बचेगा? इस प्रकार गोपियॉं जब पुनः निर्मल चित्त हो गयीं, तो लीला बिहारी कृष्ण तत्काल वहीं प्रगट हो गये|
अब महारास की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी| गोपियॉं शरदचंद्रिका की तरह ही निर्मल हो गयी थीं| वे सब एक-दूसरे की बाहों में बाहें डालकर खड़ी थीं| उनमें न ईर्ष्या थी, न दंभ| उनका यह भाव भी तिरोहित हो चुका था कि कृष्ण किसी दूसरी गोपिका को कुछ अधिक चाहते हैं| तब मधुरेश्वर कृष्ण ने अपनी रसमई रास क्रीड़ा आरंभ की| प्रत्येक दो गोपियों के बीच एक कृष्ण प्रगट हो गये| हाथ बांधे मंडलाकार खड़ी हर एक गोपी के बाद एक कृष्ण थे| जितनी गोपियॉं, उतने कृष्ण| असंख्य गोपियॉं, असंख्य कृष्ण और जब उनका यह समूह-नृत्य प्रारंभ हुआ, तो असंख्य कंगन, असंख्य पायजेब और असंख्य करधनियों के छोटे-छोटे घुंघरू एक साथ बज उठे| नाचते-नाचते उनके वस्त्र शिथिल हो गये, वेणियॉं खुल गयीं| तीव्र गति से घूमती उन्मुक्त केशराशि व निरावृत्त नील व स्वर्णिम देहयष्टियों से ऐसा लग रहा था, मानो श्याम मेघाम्बर के साथ नील व स्वर्ण ज्योतियों की कोई एकल विराट मेखला नृत्य कर रही है| उस समय लग रहा था सारे ब्रह्माण्ड का संपूर्ण सौंदर्य, संपूर्ण अनुराग, संपूर्ण विलास एवं संपूर्ण आनंद यमुना के उस सैकत पुलिन पर एकत्र हो गया हो|
श्रीकृष्ण की इस महारास लीला से संपूर्ण ब्रह्माण्ड चकित था| चंद्रदेव भी विस्मित थे| उनकी अमृत रश्मियॉं स्वयं इस रसामृत को पीने में लग गयीं| देवांगनाएँ भी ऐसे मिलन की कामना से मोहित हो गयीं, लेकिन उनके लिए यह सुलभ कहॉं? यह तो केवल उन गोपांगनाओं के लिए सुलभ था, जिन्होंने अपना सर्वस्व न्यौछावर करके मात्र प्रेम का वरण किया था| महारास सृष्टि के इसी निरुपाधि, निरुपमेय, निर्विकार एवं शास्वत प्रेम की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति का प्रयास है| यह सांसारिक धर्मों से परे प्रेमी हृदयों के स्वच्छंद आकाश का नृत्य है| हृदय कोई भी हो, रात कोई भी हो, ऋतु कोई भी हो जहॉं संपूर्ण सृष्टि के चराचर रूप श्री कृष्ण के प्रति प्रेम का पारावार छलकेगा, वहॉं शरद पूर्णिमा का अखंड चंद्र स्वयं प्रकट हो जाएगा और उसकी अमृतमय चांदनी में महारास स्वतः मूर्तिमान हो उठेगा|
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