अंग्रेजी का भूत झाड़ने की जरूरत
आश्चर्य होता है कि हिंदी की बात उठाने या अंग्रेजी के वर्चस्व से बाहर निकलने की बात करते ही कुछ लोग भड़क उठते हैं| क्यों उनको इससे चोट लगती है यह समझ में नहीं आता| अभी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ‘दत्तोपंत ठेंगड़ी रिसर्च आर्गनाइजेशन’ द्वारा आयोजित एक समारोह (११ नवंबर) में अंग्रेजी के वर्चस्व का विरोध करते हुए कहा कि अब समय आ गया है कि हम अंग्रेजी के भूत को उतार फेंके| उनका कहना था कि देश के केवल मुट्ठी भर लोग अंग्रेजी बोलते हैं, लेकिन उन्होंने कुछ ऐसा वातावरण बना रखा है कि इस भाषा के बिना कुछ नहीं हो सकता| उन्होंने यह भी कहा कि यह अंग्रेजी बोलने वाला वर्ग कभी नहीं चाहता कि अंग्रेजी की बाध्यता समाप्त हो, क्योंकि उन्हें डर है कि यदि ऐसा हुआ तो सुदूरवर्ती गांवों तक के लोग आई.ए.एस. और आई.पी.एस. की नौकरियों पर कब्जा जमा लेंगे|
उनके इस कथन में कोई आपत्तिजनक बात नहीं थी, लेकिन राज्य विधानसभा में विपक्ष के नेता कांग्रेस के विधायक अजय सिंह भड़क उठे| उन्होंने अगले ही दिन चौहान के वक्तव्य का विरोध करते हुए कहा कि यदि मुख्यमंत्री वास्तव में हिंदी के प्रति अपना प्रेम प्रदर्शन करना चाहते हैं, तो उन्हें सबसे पहले अपने बेटों को अंगे्रजी माध्यम स्कूलों से निकाल कर हिंदी माध्यम स्कूलों में भर्ती कराना चाहिए| उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री, अन्य मंत्रियों तथा भाजपा एवं संघ के नेताओं के सारे बच्चे अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढ़ते हैं और कुछ तो विदेशों में भी शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं| इससे एक वर्ग संघर्ष की स्थिति पैदा हो गई है, क्योंकि केवल आम लोगों के बच्चे हिंदी माध्यम स्कूलों में पढ़ने के लिए बाध्य होते हैं|
आजकल यह तर्क बहुत आम हो गया है कि जो लोग अंग्रेजी का वर्चस्व हटाने और उसकी जगह भारतीय भाषाओं या हिंदी को लाने की बात करते हैं, उन्हें यह कहने के पहले अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों से हटाकर हिंदी माध्यम स्कूलों में भर्ती करा देना चाहिए| यह बात बड़ी तर्कसंगत लगती है कि हिंदी की वकालत करने वाले अपने बच्चों को अ्रंगेजी माध्यम स्कूलों में क्यों पढ़ने के लिए भेजते हैं, वे उन्हें हिंदी माध्यम स्कूलों में क्यों नहीं भेजते| लेकिन इस तरह का तर्क करने वाले यह भूल जाते हैं कि यह परिस्थिति इन अंग्रेजी समर्थकों विशेषकर कांग्रेस पार्टी ने ही खड़ी की है| उन्होंने ही अंग्रेजी को शासन की भाषा बनाया है और हिंदी को केवल उन लोगों के लिए छोड़ दिया है, जो अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में प्रवेश नहीं ले सकते| जब देश का राजकाज अंग्रेजी में चलेगा, संसद का कामकाज अंग्रेजी में होगा, उच्चतर न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी रहेगी, उच्च शिक्षा अंग्रेजी बिना संभव नहीं रहेगी, तब निश्चय ही देशवासियों की मजबूरी रहेगी कि यदि वे ऊंची नौकरियां चाहते हैं, राजनीति में आगे बढ़ना चाहते हैं, न्यायाधीश, वकील या प्राध्यापक बनना चाहते हैं, तो वे अंग्रेजी सीखें और इसके लिए अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की शरण लें| सत्ताधारियों ने जानबूझकर हिंदी या अन्य भारतीय भाषा माध्यम वाली शिक्षा का स्तर गिरा रखा है| उनमें आज उन्हीं परिवारों के बच्चे शिक्षा प्राप्त करने जाते हैं, जो आर्थिक रूप से विपन्न हैं तथा अंग्रेजी माध्यम की महंगी शिक्षा हासिल करने में असमर्थ हैं| यदि उच्च स्तरीय राजनीति से, विश्वविद्यालयों से, संसद से तथा न्यायपालिकाओं से अंग्रेजी का वर्चस्व समाप्त हो जाए, तो अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों का मोह भी समाप्त हो जाएगा| लोग अंग्रेजी सीखेंगे लेकिन एक भाषा की तरह, वे अपने देश के इतिहास, भूगोल और साहित्य की जानकारी के लिए अंगे्रजी जानने के लिए बाध्य नहीं होंगे| अजय सिंह जैसे लोगों को जानना चाहिए कि यह उनकी पार्टी के नेताओं की ही कारगुजारी रही है कि उन्होंने पार्टी के शीर्ष नेता महात्मा गांधी तक की अनसुनी करके अंग्रेजी को राजकाज की भाषा बनाए रखा और उसे ही उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में स्थापित किया| उनके वक्तव्य से तो ऐसा लगता है कि हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं के प्रचार प्रसार की जिम्मेदारी केवल भाजपा व संघ के लोगों के पास है और वे तथा उनकी पार्टी के नेताओं ने केवल अंग्रेजी का ठेका ले रखा है|
कितने आश्चर्य की बात है कि रायटर जैसी अंग्रेजी की संवाद एजेंसी के संपादक व स्तंभकार राबर्ट मैकमिलन अपने स्तंभ में लिखते हैं- मुख्यमंत्री चौहान की बात में वजन है| भारत को जरूर अंग्रेजी के भूत को उतार देना चाहिए, लेकिन यहां भारत के अपने राजनेता उनकी बात के विरोध में ताल ठोंक कर खड़े नजर आ रहे है| राबर्ट मैकमिलन ने लिखा है कि विकीपीडिया पर दिए गए आंकड़ों के अनुसार केवल २ लाख २६ हजार के लगभग लोग भारत में अंग्रेजी भाषी हैं| इनमें दस साढ़े दस करोड़ उन लोगों को जोड़ लें, जो अपनी भाषा के अतिरिक्त अंगे्रजी भी बोलते हैं| इनमें आप चाहें तो उन लोगों को भी जोड़ लें, जो प्रवाहपूर्ण तो नहीं, लेकिन थोड़ी बहुत अंग्रेजी बोल लेते हैं| लेकिन कुल मिलाकर भी इस १ अरब २१ करोड़ जनसंख्या वाले देश का केवल एक छोटा टुकड़ा ही ऐसा है, जो अंग्रेजी वाला है| बाकी बहुसंख्य समुदाय हिंदी, बंगला, तेलुगु, मराठी, तमिल आदि बोलता है| यही नहीं, अंगे्रजी वास्तव में इस देश का दमन करने वालों की ऐतिहासिक भाषा है| यह अभी भी दमन और शोषण की प्रतीक है| ब्रिटेन ने इसी भाषा के बल पर इस देश का शताब्दियों तक शोषण किया, यहॉं के लोगों को गुलाम बनाया और स्वतंत्रता के मात्र ६५ वर्षों के बाद अभी उसने घोषणा की है कि अब वह भारत को दी जाने वाली सहायता बंद करने जा रहा है, क्योंकि अब तक वह उसे काफी सहायता दे चुका है|
मैकमिलन आगे यह भी सवाल उठाते हैं कि जरा सोचिए कि अंगे्रजी ने यहॉं के लोगों के लिए क्या किया| आज आलम यह है कि आप यह पक्के तौर पर नहीं बता सकते कि जो व्यक्ति आपके बगल में बैठा काम कर रहा है, वह आपकी भाषा बोल सकता है| देश के ज्यादातर हिस्से में आप हिंदी से काम चला सकते हैं| यह अधिकृत राष्ट्रीय भाषा है, किंतु हिंदी के साथ समस्या यह है कि हिंदी की अनिवार्य शिक्षा होने तथा हिंदी जानने के बावजूद लाखों लोग ऐसे हैं, जो हिंदी नहीं बोलते या हिंदी बोलने से इनकार करते हैं| जैसा कि मैंने समझा है इसका मुख्य कारण है क्षेत्रीय अभिमान या जातीय अहंकार विशेषकर तमिल तथा कुछ भारतीय वर्गों के लोगों की धारणा है कि उत्तर के निहित स्वार्थियों द्वारा हिंदी उन पर थोपी जा रही है| तो फिर और कौन सी भाषा बचती है, जिसमें विभिन्न राज्यों तथा सांस्कृतिक सीमाओं के आर-पार संपर्क किया जा सकता है| जाहिर है कि इसका एक ही जवाब है अंग्रेजी| यह सही है कि अंगे्रजी से आर्थिक समृद्धि के द्वार खुलते हैं| यदि आप अपने यहॉं विदेशी निवेश को बढ़ावा देना चाहते हैं, तो आपको अंगे्रजी बोलने और समझने में सक्षम होना चाहिए| इससे किसी को कहीं इनकार नहीं हो सकता| एक भाषा के रूप में हमें अंगे्रजी पढ़ना ही चाहिए| जो महत्वाकांक्षी हों उन्हें उसमें ही नहीं अन्य विदेशी भाषाओं में भी विशेषज्ञता हासिल करनी चाहिए, लेकिन इसके लिए यह कहॉं जरूरी है कि हमारी संसद का कामकाज अंग्रेजी में हो, हमारी न्यायपालिकाएँ अंग्रेजी में विवादों का फैसला करें या हम अपने देश का इतिहास, भूगोल, धर्म-दर्शन आदि भी अंग्रेजी में ही पढ़ें| हमें अपने सिर पर चढ़े अंगे्रजी के भूत को झाड़ने की जरूरत है, अंगे्रजी भाषा को दूर फेंकने की नहीं| लेकिन अंगे्रजी को हम रोजमर्रा की आम जिंदगी से बाहर तभी कर सकते हैं, जब हम उसके स्थान पर हिंदी को स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त कर सकें|
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