भारत का अंतिम विक्रमादित्य
हेमचंद्र राय
हेमचंद्र राय
यूरोपीय साहित्यकारों के बीच भारतीय नेपोलियन के नाम से विख्यात सम्राट हेमचंद्र राय भारत के ऐसे अंतिम सम्राट थे, जिन्होंने मुगलों से दिल्ली छीनने के बाद पूरी तरह भारतीय प्राचीन परंपरा के अनुसार अपना राज्याभिषेक कराया तथा विक्रमादित्य की उपाधि धारण की| उनका साम्राज्य पश्चिम में पंजाब व राजस्थान से लेकर बंगाल तक व्याप्त था| दक्षिण के पठारी प्रदेश को छोड़कर प्रायः पूरा उत्तर भारत उनके अधीन था| दुनिया में भारत शायद एकमात्र ऐसा देश है, जहॉं इस्लाम के आक्रमण के पूर्व राजनीति में मजहब को कभी कोई तरजीह नहीं मिली| यहॉं राजनीति व सत्ता संचालन का आधार सदैव धर्म (रूल ऑफ लॉ) रहा, मजहब नहीं| आज की भाषा में भारतीय राजनीति अनादिकाल से ‘सेकुलरफ मूल्यों के आधार पर ही चलती रही| इन मूल्यों का निर्वाह करने वाले भी हेमचंद्र राय अंतिम शासक थे| उनका राज्याभिषेक भारतीयों (जिन्हें आजकल हिंदू कहकर पुकारा जाता है) और मुस्लिमों ने मिलकर किया था| ये मुस्लिम अफगान थे, जो भारतीय समाज का अंग बन चुके थे| हेमचंद्र राय ने अपने जीवनकाल में २२ लड़ाइयॉं लड़ीं और सभी में विजय हासिल की| वह केवल अपनी वह अंतिम लड़ाई ही हारे, जिसमें उनके प्राण गए| यह पानीपत की दूसरी लड़ाई थी, जिसमें भारत के दुर्भाग्यवश एक घातक तीर सम्राट हेमचंद्र की आँख में आ लगा, इसके साथ ही वह न केवल अपनी एक सुनिश्चित जीत वाली लड़ाई हार गए, बल्कि अपने प्राण भी गँवा बैठे| इस पराजय के साथ भारत के इतिहास का एक युग भी पराजय की गोद में समा गया और गुलामी का दुर्दैव उसके सीने पर आ सवार हुआ| हेमचंद्र राय ने करीब ३५० वर्षों के इस्लामी शासन का अंत करके भारत की अपहृत राज्यलक्ष्मी को पुनः स्थापित किया था, किंतु पराक्रम के इस अप्रतिम आदित्य के अकल्प्य आकस्मिक पराभव ने फिर उसे वनवासिनी बना दिया|
सम्राट हेमचंद्र राय भारतीय राजनीतिक परंपरा का अनुसरण करने वाला अंतिम सम्राट था| दिल्ली में मुस्लिम शासन के करीब ३५० वर्ष बाद उसने अकबर की मुगल सेना को हराकर दिल्ली का तख्त अपने कब्जे में कर लिया था, वैदिक विधि-विधान से दिल्ली के पुराने किले में (जिसे पांडवों के किले के नाम से भी जाना जाता है और जो दिल्ली की प्राचीनतम इमारत है) अपना राज्याभिषेक कराया था और विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी| यह भारतीयता का दुर्भाग्य था कि वह अधिक दिनों तक सत्ता में नहीं रह सका और राजा बनने के मात्र एक महीने बाद ही पानीपत के दूसरे प्रसिद्ध युद्ध में संयोगवश मारा गया| युद्ध वह बस जीतने ही वाला था, शत्रु सेना के पॉंव उखड़ गए थे, उसकी सैन्य शक्ति के आगे उस आक्रमणकारी सेना का कोई मुकाबला भी नहीं था, लेकिन भारत का दुर्दैव उसकी मदद में खड़ा था| अचानक शत्रु धनुर्धर का एक तीर उसकी आँख में आ लगा और उसके भेजे को चीर दिया और इसके साथ ही पूरा पासा ही पलट गया| हेमचंद्र की अपराजेय सेना किंकर्तव्यविमूढ़ होकर बिखर गई और अकबर के संरक्षक बैरम खॉं की हारती सेना ने भारत की भविष्य रेखा को फिर अपनी मुट्ठी में कर लिया| हेमचंद्र ने अपने जीवनकाल में २२ मुख्य लड़ाइयों में मोर्चा सँभाला और किसी में भी पराजय का मुँह नहीं देखा, लेकिन पानीपत की अंतिम लड़ाई ने न केवल उसकी अप्रतिम विजेता की कीर्ति को धो दिया, बल्कि उसके प्राण भी ले लिए और उसके साथ भारतीयता के भी प्राण क्षीण हो चले|
हेमचंद्र भारतीय इतिहास का अद्भुत राजनेता है, लेकिन हमारे ज्यादातर इतिहासकारों ने उसे भुला दिया है| इतिहास की किताबों में मात्र उसे कुछ पंक्तियों में निपटा दिया जाता है| स्कूली किताबों में तो उसका पूरा नाम भी नहीं रहता| इतिहास के ज्यादातर विद्यार्थी उसे केवल हेमू के नाम से जानते हैं, जिसे बैरम खॉं की बहादुर सेना ने चुटकी बजाते हरा दिया था और उसका सिर काटकर काबुल के किले पर लटकाने के लिए भेज दिया था| भारतीय इतिहास की किताबें अनेक भ्रामक तथ्यों से भरी पड़ी हैं, उनमें एक सर्वाधिक खतरनाक तथ्य यह है कि यहॉं के भारतीय राजाओं को हिंदू धर्म का प्रतिनिधि और मुस्लिम विरोधी के तौर पर पेश किया गया है| विदेशी हमलावरों के साथ भारतीयों की लड़ाई को प्रायः दो मजहबों की लड़ाई के रूप में दिखाया गया है| सच्चाई यह है कि भारतीय राजाओं के साथ मजहब का जुनून नहीं था| वे केवल अपनी राजनीतिक व सामाजिक स्वतंत्रता के लिए तथा अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए लड़ाइयॉं लड़ रहे थे| वे हमलावर मुसलमानों से घृणा करते थे, तो इसलिए नहीं कि वे किसी खास मजहब के अनुयायी थे, बल्कि इसलिए कि वे पूरी भारतीय संस्कृति और परंपरा को नष्ट करना अपना मजहबी कर्तव्य समझते थे| वे क्रूरता की कोई भी सीमा पार करने के लिए तैयार रहते थे| उनकी नृशंसता के आगे मनुष्यता कॉंपती थी| हेमचंद्र की कहानी भारतीयता के राजनीतिक आदर्शों तथा आक्रामक आतताइयों की क्रूरता के प्रतिमानों को एक साथ दुनिया के सामने ला खड़ा करती है|
ब्राह्मण पुरोहित का बेटा-
हेमचंद्र एक ब्राह्मण पुरोहित का लड़का था| राजस्थान में अलवर जिले के देविती-मछेरी गॉंव में वर्ष १५०१ (विक्रमी संवत १५५८) में दशहरे के दिन ही उसका जन्म हुआ था| पिता रायपूरन दास वल्लभ संप्रदाय के कृष्ण भक्त वैष्णव संत थे, जो पुरोहिताई करके परिवार का भरण-पोषण करते थे, किंतु मुगलों के अत्याचार व आतंक के कारण भारतीयों का धर्म-कर्म भी ठंडा हो गया था| पूजा-पाठ का काम मिलना भी कठिन हो गया था| हार कर पूरनदास ने पुरोहिताई का काम छोड़ दिया और अपना गॉंव छोड़कर वर्तमान हरियाणा के रेवाड़ी के निकट स्थित गॉंव कुतुबपुर में आ बसे और यहॉं नमक का व्यापार करने लगे| हेमचंद्र यहीं पला-बढ़ा और यहीं उसकी शिक्षा-दीक्षा हुई| पिता स्वयं संस्कृत के पंडित थे, इसलिए उन्होंने संस्कृत भाषा, इतिहास, पुराण व दर्शन आदि की शिक्षा दी| अन्य शिक्षा अन्य शिक्षकों से प्राप्त की| हेमचंद्र एक प्रतिभाशाली बालक था, इसलिए उसने स्वाध्याय व स्वप्रयत्न से अरबी, फारसी आदि भाषाओं का भी ज्ञान प्राप्त कर लिया| हिंदी तो उसने लोक व्यवहार से ही सीख ली थी| हेमचंद्र को घुड़सवारी, कुश्ती तथा शस्त्रविद्या में भी गहरी रुचि थी| उसने अपने एक राजपूत मित्र सहदेव के साथ घुड़सवारी सीखी| सहदेव उनका ऐसा घनिष्ठ मित्र बन गया था कि आगे चलकर उसने हर उस लड़ाई में भाग लिया, जिसे हेमचंद्र ने लड़ा| हेमचंद्र का विवाह राजपुरोहितों के कुल में गुणचंद्र भार्गव के साथ संपन्न हुआ था| यह उल्लेखनीय है कि भार्गव परसुराम की परंपरा में हेमचंद्र तथा उनके प्रायः सभी संबंधियों ने विदेशी हमलावरों के खिलाफ युद्ध में भाग लिया और प्रायः सबके सब पानीपत की दूसरी लड़ाई में मारे गए|
देश की तत्कालीन स्थिति-
उस समय देश में विदेशियों की क्रूर सत्ता को उखाड़ फेंकने की भावना तेजी से बढ़ रही थी| यह वही समय था, जब दक्षिण में सम्राट कृष्ण देवराय ने भारतीय राजनीतिक प्रभुत्व को पुनः स्थापित किया था और बीजापुर व गोलकोंडा आदि के दक्कनी (दक्षिणी) सुलतानों से लोहा ले रहे थे| हेमचंद्र राय ने उसी शैली का साम्राज्य उत्तर में भी स्थापित करने का प्रयत्न किया था| ७ अक्टूबर १५५६ (विक्रमी संवत १६१३) को जब हेमचंद्र ने अपना राज्याभिषेक संपन्न कराया था, उस समय पंजाब से बंगाल तक पूरा उत्तर भारत उसके अधीन था| यहॉं यह पुनः उल्लेख किया जाना चाहिए कि उस समय हिंदू राजा का एकमात्र अर्थ था भारतीय मूल का (नेटिव इंडियन) राजा| हिंदू शब्द देशवाची था, मजहबवाची नहीं| चूँकि यह भारत या भारतीय का परिचायक था, इसलिए यह भारतीय संस्कृति व परंपरा का प्रतिनिधित्व करने वाला शब्द भी बन गया, फिर भी मजहबी संकीर्णता इससे कोसों दूर थी| भारतीय होने में मजहब का भेद नहीं था| यदि आज की शब्दावली में कहें तो हेमचंद्र एक नितांत सेकुलर सम्राट था और भारतीय सेकुलर राजनीतिक परंपरा का अंतिम सम्राट था|
हेमचंद्र के पूर्व उत्तर भारत में सूरीवंश के अफगान मुसलमानों का शासन था| हेमचंद्र ने सूरी वंश के शासकों के काल में विभिन्न प्रशासनिक पदों पर होते हुए सेनापति एवं प्रधानमंत्री का पदभार संभाला था| यहॉं यह उल्लेखनीय है कि अफगान मुसलमानों को इस देश के तथाकथित हिंदू (वैदिक परंपरा के अनुयायी) पराया नहीं समझते थे| वे व्यापक भारतीय समाज का अंग बन गए थे| इन अफगान मुसलमानों ने हिंदुओं के प्रति कभी किसी क्रूरता का प्रदर्शन भी नहीं किया| किसी तरह का राजनीतिक भेदभाव भी उनके शासन में नहीं था| इन्हें ‘अफगान’ का नाम भी फारस वालों ने ही दिया था, जिन्होंने भारतीयों को हिंदू नाम दिया अन्यथा ये पश्तो भाषी पश्तून या पठान कहे जाते थे और हजारों वर्षों से भारत के भौगोलिक-सांस्कृतिक क्षेत्र के अंग थे| इस्लामी मजहब स्वीकार कर लेने के बावजूद उनका पूरे भारत देश के साथ पुराना भाईचारा तथा सांस्कृतिक समानता का भाव बना रहा| इनके विपरीत भारत की सांस्कृतिक सीमा के बाहरी क्षेत्र से आए मुसलमान हमलावर अत्यंत क्रूर तथा आतताई थे| वे अपना राजनीतिक साम्राज्य कायम करने के साथ-साथ यहां की सांस्कृतिक परंपरा को भी नष्ट कर देना चाहते थे| उनका लक्ष्य इस पूरे उपमहाद्वीप को इस्लामी झंडे के नीचे लाना और यहॉं के मूर्तिपूजक उदार भारतीयों को नेस्तनाबूद कर देना था| इतिहास का यह बहुत महत्वपूर्ण तथ्य है कि अफगान मुसलमान मुगलिया वंश के क्रूर मुस्लिम हमलावरों के खिलाफ भारतीय हिंदुओं के साथ थे| हेमचंद्र ने जब दिल्ली में वैदिक रीति से अपना राज्याभिषेक कराया और विक्रमादित्य की उपाधि धारण की, तो उसके बाईं तरफ उसका हिंदू सिपहसालार था, तो दाईं तरफ उसका मुस्लिम अफगान सेनापति| पानीपत की लड़ाई में भी उसके अगल-बगल इसी तरह दोनों सेनापति तैनात थे|
एक छोटे व्यापारी से सम्राट तक-
सोलहवीं शताब्दी का समय निश्चय ही भारी राजनीतिक अस्थिरता तथा सामाजिक अशांति का काल था| हेमचंद्र के पिता राय पूरनदास दिल्ली के निकट ही जिस कस्बे -रिवाड़ी- में आकर बस गये थे, वह उस समय व्यापार की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण स्थान था| दिल्ली आने वाले ईरानी व इराकी व्यापारियों की दृष्टि से यह एक विश्राम स्थल था| पिता नमक का व्यापार कर रहे थे, तो बेटे ने बड़े होकर अनाज का और बारूद बनाने में काम आने वाले ‘साल्ट पीटर’ का व्यवसाय शुरू किया| हेमचंद्र ने शेरशाह की सेना के लिए अनाज आपूर्ति का व्यवसाय शुरू किया, बाद में वह उसके लिए साल्ट पीटर की भी आपूर्ति करने लगा| १५४० में हुमायूँ को पराजित करके काबुल भागने पर मजबूर करने के बाद शेरशाह ने रिवाड़ी में तोप बनाने का एक कारखाना स्थापित किया| इसके साथ ही उसने यहॉं पीतल, तांबा तथा धातु के बर्तनों का उद्योग भी स्थापित किया| इस समय तक पुर्तगाली गोवा में अपने पैर जमा चुके थे| पुर्तगाली व्यापारी थे और वे भारतीय राजाओं को यूरोप से लाई अपनी विविध वस्तुओं के साथ कुछ यांत्रिक तकनीक भी बेच रहे थे| वे दक्षिण में सम्राट कृष्ण देवराय के हिंदू (भारतीय) साम्राज्य को तोप, बारूद तथा अरबी घोड़ों की आपूर्ति कर रहे थे| हेमचंद्र ने इन्हीं पुर्तगालियों से तोपेें और बारूद बनाने की तकनीक हासिल की| शेरशाह सूरी की सेना के लिए सैनिक-असैनिक सामानों के मुख्य आपूर्तिकर्ता होने के नाते हेमचंद्र का राज परिवार से बहुत निकट का संपर्क बन गया| १५४५ में शेरशाह सूरी के निधन के बाद उसका बेटा इस्लाम शाह गद्दी पर बैठा| इस्लाम शाह ने गद्दी संभालने के बाद अपने राज्य के उद्योग व्यापार की देखभाल के लिए हेमचंद्र को ‘शाहांगी बाज़ार’ नियुक्त किया| फारसी में दिए गए इस पदनाम का अर्थ हुआ बाजार का अधीक्षक| अकबर के समय उसका दरबारी तथा आइने अकबरी का लेखक अबुल फजल लिखता है, ‘इस्लाम शाह हेमचंद्र की योग्यता से बहुत अधिक प्रभावित था और उसका बड़ा सम्मान करता था| उसकी योग्यता को देखते हुए इस्लाम शाह ने थोड़े दिन बाद ही हेमचंद्र को राज्य के गुप्तचर विभाग का मुखिया (दरोगा-ए-चौकी) बना दिया| इस्लाम शाह को उसकी सैनिक योग्यता की भी पहचान थी, इसलिए जब उसका स्वास्थ्य ढलने लगा, तो उसने अपना राज्य मुख्यालय दिल्ली से हटाकर ग्वालियर कर लिया, और साम्राज्य की पश्चिमोत्तर सीमा की रखवाली के लिए हेमचंद्र को पंजाब का सूबेदार (गवर्नर) बना दिया|’ ३० अक्टूबर १५५३ को इस्लाम शाह का निधन हो गया| उसके निधन तक हेमचंद्र पंजाब के सूबेदार पद पर रह कर मुगलों से साम्राज्य की रक्षा करता रहा| इस्लाम शाह के निधन के समय उसका बेटा फिरोज खान मात्र १२ वर्ष का था| उसके उत्तराधिकारी बनते ही तीन दिन के भीतर आदिलशाह सूरी (शेरशाह का भतीजा-उसके छोटे भाई निजाम खान का बेटा) ने उसकी हत्या कर दी और राजसत्ता अपने हाथ में ले ली|
आदिल ऐय्याश और मद्यप्रिय था| राजकाज सँभालने का कठिन काम उसके वश का नहीं था| उसके कमजोर नियंत्रण के कारण चारों तरफ विद्रोह भड़कने लगे| अंततः आदिलशाह ने हेमचंद्र को अपना मुख्य सलाहकार या प्रधानमंत्री बनाकर एक तरह से पूरी सत्ता उसे सौंप दी| उसने सेनाध्यक्ष का पदभार भी उसे सौंप दिया| आदिलशाह की दुर्बलता के कारण अफगान साम्राज्य के प्रायः सारे सूबेदारों ने विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया| विद्रोहियों द्वारा स्वतंत्र सत्ता की घोषणा के कारण राज्य टुकड़े-टुकड़े हो गया| किंतु हेमचंद्र ने हिम्मत नहीं हारी, उसने एक-एक करके सभी विद्रोहियों को पराजित कर दिया| यहॉं यह उल्लेखनीय है कि इस समय तक हेमचंद्र की अफगान क्षत्रपों के विरुद्ध लड़ाई ने धार्मिक लड़ाई का रूप नहीं लिया था| इतिहासकार विन्सेंट स्मिथ अपनी पुस्तक ‘अकबर द ग्रेट मुगल’ में लिखते हैं कि उस समय अफगान अपने को भारतीय (नेटिव इंडियन) समझते थे, जबकि मुगलों को विदेशी समझा जाता था| लेखक के.के. भारद्वाज ने ‘हेमू नेपोलियन आफ मेडिवल इंडियाफ में लिखा है कि हेमचंद्र एक देसी राजा था, जिसने देसी अफगानों की सेना लेकर जीत पर जीत हासिल की| एक दूसरे लेखक के.आर. कानूनगो ने लिखा है कि इससे जाहिर होता है कि जिस साम्राज्य की स्थापना हेमचंद्र ने की वह आज की शब्दावली में पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष और राष्ट्रीय (सेकुलर एंड नेशनलिस्टिक) था| माइकेल ब्रैडविन लिखता है कि हेमचंद्र की सेना अकबर की सेना से पॉंच गुना अधिक ताकतवर थी, जिसमें पैदल, घुड़सवार व तोपखाना के साथ बड़ी संख्या में हाथी भी थे| उसके उच्च सैनिक अधिकारियों में हिंदू (नेटिव भारतीय) और मुस्लिम (नेटिव मुस्लिम) दोनों शामिल थे| राजपूत, अफगान, देसी मुस्लिम, अहीर, गुज्जर, जाट, ब्राह्मण, बनिया आदि वर्गों के लोग उसकी सेना में थे| मौलाना मुहम्मद हुसैन ‘आजाद’ के अनुसार हेमचंद्र को अपने तोपखाने का बड़ा गर्व था| उसके दो सर्वाधिक विश्वस्त व प्रमुख जनरल थे- जनरल रामचंद्र (ब्राह्मण) और शाही खान कक्कर (संभल का अफगान सूबेदार)|
कमजोर सूरी शासन के दौरान २२ जुलाई १५५५ को हुुमायूँ के मुगल सैनिकों ने आदिल शाह के भाई सिकंदर सूरी को हटाकर पंजाब, दिल्ली और आगरा पर फिर से कब्जा कर लिया| हेमचंद्र उस समय बंगाल में था| मुगलों को १५ वर्ष बाद दिल्ली में पैर जमाने का मौका मिला, लेकिन २६ जनवरी १५५६ को हुमायूँ की आकस्मिक मृत्यु ने हेमचंद्र को सुनहरा अवसर दे दिया| उसने वर्तमान बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश के क्षेत्रों से होकर तेजी से दिल्ली की ओर कूच किया| रास्ते में आने वाले मुगल फौजदारों में से किसी ने उसका मुकाबला करने का साहस नहीं किया| हेमचंद्र के हमले की खबर सुनकर आगरा स्थित मुगलों की सबसे मजबूत सेना का कमांडर इस्कंदर खान उजबेग बिना लड़े ही भाग निकला| इतिहासकार के.के. भारद्वाज के अनुसार बिहार से दिल्ली तक के उसके धावे की तुलना नेपोलियन के धावे से की जा सकती है- वह आया, उसने देखा और जीत लिया (ही केम, ही सा, ही कांकर्ड)| आगरा जीतने के बाद हेमचंद्र ने सीधे दिल्ली पर हमला किया| अकबर की तरफ से दिल्ली में नियुक्त सूबेदार ताड़दी बेग खान ने अकबर और उसके संरक्षक बैरम खान को लिखा कि ‘हेमू (हेमचंद्र का संक्षिप्त नाम) ने आगरा जीत लिया है और दिल्ली पर हमला करने वाला है| यदि और फौज नहीं भेजी गई, तो दिल्ली की रक्षा नहीं की जा सकती|’ स्थिति की गंभीरता को देखते हुए बैरम खान ने अपने सर्वाधिक योग्य सिपहसालार पीर मुहम्मद सारवानी को ताड़दी बेग के पास भेजा| आसपास की सारी मुगल सेना दिल्ली बुला ली गई, सभी सेनापति वहॉं जुटे, लेकिन हेमचंद्र के आगे टिक नहीं सके| केवल एक दिन के युद्ध में उसने (६ अक्टूबर १५५६) दिल्ली मुगलों से छीन ली|
अगले दिन यानी ७ अक्टूबर १५५६ (विक्रमी संवत १६१३ चतुर्थी, कार्तिक शुक्ल पक्ष) को अपने सारे अफगान सरदारों तथा भारतीय (हिंदू) सेनापतियों की उपस्थिति में हेमचंद्र ने वैदिक विधि-विधान से अपना राज्याभिषेक कराया तथा विक्रमादित्य की उपाधि धारण की| इस अवसर को अंकित करने वाली पेंटिंग (आलेख के पहले पृष्ठ पर) पर यदि नजर डालें, तो देखेंगे कि उसके अगल-बगल अफगान (मुस्लिम) व राजपूत (हिंदू) सरदार लगभग समान संख्या व बराबरी के दर्जे में उपस्थित हैं| इस अवसर पर हजारों गणमान्य लोगों को आमंत्रित किया गया था, जिनमें क्षत्रप अफगान सूबेदार तथा अनगिनत विद्वान व पंडित शामिल थे| समारोह करीब तीन-चार दिन लगातार चलता रहा| अबुल फजल ने इस अवसर का जिक्र करते हुए लिखा है कि महत्वाकांक्षी सम्राट हेमचंद्र ने इसके बाद अपनी सेना का पुनर्गठन किया, क्योंकि वह काबुल पर हमला करना चाहता था| उसने अपनी सेना में बहुत से हिंदुओं को भर्ती किया, लेकिन किसी अफगान को बाहर नहीं किया| इससे जाहिर है कि हेमचंद्र को अपने मुस्लिम अफगान सरदारों की वफादारी पर तनिक भी संदेह नहीं था| कारण स्पष्ट है कि उस समय राष्ट्रीयता का भाव मजहबी भ्रातृत्व के मुकाबले कहीं अधिक प्रबल था| अफसोस भारतीयता की इस राष्ट्रीय सोच का भी हेमचंद्र राय के साथ अंत हो गया, क्योंकि एक महीने बाद ही मुगलों की जिस सेना ने दिल्ली पर हमला किया, उसने यहॉं मजहबी राजनीति का झंडा गाड़ दिया और फिर उस समय पारस्परिक घृणा का जो बीज बोया गया, उसकी विषलता आज भी न केवल जीवित है, बल्कि और तेजी से फैलती जा रही है|
हेमचंद्र अद्भुत प्रतिभा तथा विराट अनुभव संपन्न शासक था| सूरी शासन में वाणिज्य अधीक्षक, आंतरिक सुरक्षा मंत्री, पंजाब के सूबेदार, प्रधानमंत्री एवं सेनाध्यक्ष जैसे पदों पर कार्य करने के कारण उसे नीचे से ऊपर तक राई-रत्ती की पूरी जानकारी थी| उसने देशव्यापी व्यापार को सुगठित करने की नई योजना बनाई| उसे सेना और सैन्य उपकरणों तथा उसके लिए आवश्यक तकनीक की भी अच्छी जानकारी थी| व्यापार में उसने काला बाजारी, जमाखोरी, मुनाफाखोरी तथा माल की कम तौल पर कठोर अंकुश लगाया| ऐसे अपराधों के लिए उसने किसी को माफ नहीं किया| प्रशासनिक भ्रष्टाचार पर भी उसकी कड़ी नजर थी| आगरा एवं दिल्ली पर कब्जा होने के बाद उसने सारे भ्रष्ट अधिकारियों को हटाकर प्रशासन को चुस्त और ईमानदार बनाया| थोड़े ही समय में उसने अपनी जैसी छवि बनाई उसे देखकर मुगलों का तो दिल ही बैठ गया था| दिल्ली से भागकर ‘कलनौर’ में जमा हुई मुगल सेना के अधिकारियों ने अकबर को सलाह दी कि वह काबुल वापस लौट चले, वहॉं अधिक सुरक्षा रहेगी| यहॉं इस समय हेमू से फिर टकराना आत्मघाती होगा| मगर अकबर के संरक्षक और उसके मुख्य सैनिक रणनीतिकार बैरम खॉं की राय अलग थी| उसका ख्याल था कि दिल्ली को हथियाने की एक कोशिश तो अवश्य करनी चाहिए| उसने सारे सेनानायकों तथा हिम्मत हार चुके सैनिकों को एकत्र किया और उन्हें इस्लाम का हवाला देकर जबर्दस्त भाषण पिलाया| यह दिन ५ नवंबर १५५६ (विक्रमी संवत १६१३, तृतीया, मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष) का था| मजहबी जोश में भरी मुगलिया सेना पानीपत के मैदान में एकत्रित हुई| बैरम खॉं ने अकबर के साथ सेना के पीछे, युद्ध क्षेत्र से ८ मील (१२ कि.मी.) दूर अपना शिविर लगाया, जिससे यदि सेना पराजित हो, तो वहां से तेजी के साथ काबुल की तरफ पलायन किया जा सके| मुगल सेना का नेतृत्व तीन सेनानायकों अली कुली खान, सिकंदर खान और अब्दुल्ला खान उजबेग के हाथ में था| इसके विपरीत हेमचंद्र ने अपनी सेना का नेतृत्व स्वयं संभाला और वह हाथी पर सवार होकर सेना में सबसे आगे था, वह जीत के एकदम नजदीक था कि अचानक किसी शत्रु सैनिक का एक बाण उसकी आँख में आ लगा|
मरणासन्न, बेहोश हेमचंद्र को पकड़ लिया गया| शाह कुली खान उसे लेकर अकबर के कैम्प में पहुँचा| इतिहासकार अब्दुल कादिर बदायूंनी की पुस्तक ‘मुंतखिब-उल-तवारीख’ (खंड १, पृष्ठ ६) के अनुसार बैरम खॉं ने अकबर से कहा कि वह हेमू का सिर काट दे और गाजी की उपाधि अर्जित कर ले| अकबर ने जवाब दिया कि वह तो पहले ही मर चुका है| यदि उसमें कोई हरकत होती या वह सांस ले रहा होता, तो मैं उसे मार सकता था| बहरहाल बैरम खॉं के आग्रह पर अकबर ने उस शव पर एक वार किया, जिससे कि गाजी की उपाधि मिल सके, फिर बैरम खॉं ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया| यहॉं से उसका सिर काबुल भेजा गया, जहॉं उसे दिल्ली दरवाजा के बाहर लटकाया गया, जिससे कि सारे अफगानों को यह बताया जा सके कि अजेय समझा जाने वाला हिंदू राजा मारा जा चुका है और धड़ को दिल्ली के पुराना किला के बाहर एक तख्ते पर टॉंग दिया गया|
इसके बाद मुगलिया सेना ने अलवर की गद्दी पर कब्जा कर लिया, जहॉं हेमचंद्र के पिता रह रहे थे| आइने अकबरी के लेखक अकबर के विश्वस्त मित्र एवं उनके दरबारी नौरत्नों में से एक अबुल फजल ने (इतिहासकार माइकेल एडवर्ड की पुस्तक ‘ए हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ में उद्धृत) इसके बाद की घटनाओं का बड़ा जीवंत वर्णन किया है| उनके अनुसार ‘वह जगह बहुत मजबूत थी, उसके लिए भारी लड़ाई हुई| हेमू के बाप को जिंदा पकड़ लिया गया और उसे ‘नसीर-उल-मुल्क’ के सामने लाया गया| नसीर-उल-मुल्क ने उनसे अपना मजहब बदलने के लिए कहा| उस बूढ़े आदमी ने कहा कि करीब ८० वर्षों तक मैंने अपने धर्म के अनुसार अपने भगवान की पूजा की है| अब इस समय, इस आयु में केवल अपनी जान जाने के भय से और बिना आपकी पूजा पद्धति को समझे भला मैं उसे क्यों बदल दूं| पीर मुहम्मद ने मानो उनके शब्दों को सुना ही न हो, बस उसने इसका जवाब अपनी तलवार से दिया|’ हेमचंद्र के मरने के बाद बैरम खॉं ने उनके पूरे परिवार का सगोत्र सफाया करवा दिया| उसने उनके अनुयायी अफगान सरदारों (देसी मुस्लिम) को भी माफ नहीं किया| उनकी भी सामूहिक हत्या का आदेश दिया, जिससे कि देशी यानी राष्ट्रवादी हिंदू व मुसलमान दोनों में आतंक व्याप्त हो| दिल्ली और उसके आसपास इतनी खोपड़ियॉं धड़ से अलग की गयीं कि उनका अम्बार लग गया और उन खोपड़ियों से मीनारें बनाई गईं| जहॉंगीर के जमाने में आए ब्रिटिश यात्री पीटर मुंडे के हवाले पर विश्वास करें, तो खोपड़ियों की ये मीनार घटना के ६० साल बाद भी मौजूद थी| इसकी याद में बनाई गई एक पेंटिंग अभी भी हरियाणा के पानीपत शहर में स्थापित ‘पानीपत वार म्यूजियम’ में रखी हुई है|
विक्रमादित्य हेमचंद्र राय अब इतिहास के पृष्ठों में खो चुका एक नाम भर रह गया है| लेकिन हमें इतिहास के इन पन्नों को फिर पलटना चाहिए, ऐसे नायकों का चरित्र बाहर लाना चाहिए और उनका विश्लेषण करना चाहिए| हेमचंद्र ने भी प्रायः वही गलतियॉं कीं, जो ज्यादातर देशी राजा करते रहे| लड़ाइयॉं जीतने पर वे सीमाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के बजाय जश्न मनाने में मशगूल हो जाते रहे हैं| बहादुरी के जोश में प्रायः सारे हिंदू राजा सेना का स्वयं नेतृत्व करने के लिए सबसे आगे आकर डट जाते रहे हैं| हेमचंद्र ने यदि दिल्ली फतह करने के बाद पहले मुगलों का पीछा किया होता और काबुल तक खदेड़ा होता, तो उन्हें असमय काल के गाल में न समाना पड़ता और देश का इतिहास दूसरा होता| उनकी विक्रमादित्य की उपाधि धारण करने की जल्दबाजी ने उनके साथ इस देश की भाग्यलक्ष्मी को भी अंधेरे के गर्त में डाल दिया| ऐसी जल्दबाजियॉं उनके बाद भी की गईं| सबसे ताजा घटना के रूप में अपने देश की स्वतंत्रता को ही ले सकते हैं| इस देश के राजनेताओं को पता था कि मजहब के आधार पर देश के विभाजन का फैसला भारी हिंसा तथा खून-खराबे का कारण बनेगा| नक्शे पर तय की गई भारतीय सीमा को बदलने का प्रयास किया जा सकता है| फिर भी, इस सबकी व्यवस्था किए बिना वे दिल्ली में स्वतंत्रता का जश्न मनाने में मशगूल हो गए| वह दशहरे की ही रात थी, जब पाकिस्तानियों ने कश्मीर पर हमला किया था और श्रीनगर की बिजली आपूर्ति काट दी थी| उस रात दिल्ली में भी जश्न चल रहा था और कश्मीर का राजदरबार भी बिजली की रोशनी में रंगीनियॉं बिखेर रहा था| तभी एकाएक बिजली चली गई| पूरा दरबार अंधेरे में डूब गया| शायद उस समय सपने में भी यह कल्पना नहीं रही होगी कि यह सद्यःजात पड़ोसी के हमले का परिणाम था| इतिहास साक्षी है कि हम बार-बार धोखा खाते रहे हैं, किंतु सबक सीखने का काम हमेशा भविष्य पर छोड़ते रहे हैं| खैर, इतिहास की गलतियॉं हम आज नहीं सुधार सकते, किंतु आगे के लिए सावधानी पर तो ध्यान रख सकते हैं|
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