शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

परमात्मा के वाङ्मयावतार भगवान व्यास
 

पुराणों के अनुवार कृष्ण द्वैपायन बादरायण भगवान व्यास, परमात्मा नारायण के वाङ्मयावतार हैं| वह मूर्तमान ज्ञान है| वेद, उपनिषद, शास्त्र, पुराण, इतिहास, दर्शन व महाकाव्य रूप में जो साहित्य या वाङ्मय उपलब्ध है, वही उनका मूर्तरूप है, जो अजर-अमर है| इसीलिए व्यास को अमर माना जाता है और कहीं भी उनका आह्वान किया जा सकता है| जाहिर है कि भगवान व्यास की आराधना का सीधा अर्थ है विशुद्ध ज्ञान की आराधना|

भारत में आषाढ़ पूर्णिमा का असाधारण धार्मिक व सांस्कृतिक महत्व है| एक तो यह प्रायः संपूर्ण भारतीय, ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, पुराण एवं इतिहास के आदि संकलनकर्ता संपादक एवं प्रसारक भगवान वेदव्यास का जन्मदिन है, दूसरे यह वह तिथि है जब प्रायः सारे संन्यासी व परिव्राजक अपनी यात्राएँ स्थगित करके चार महीने की स्थायी आवास व्यवस्था में प्रवेश करते हैं, जिसे शास्त्रों में ‘चातुर्मास प्रवेश' की संज्ञा दी गयी है| यह वह तिथि है जब लगभग पूरे देश में वर्षा प्रारंभ हो चुकी रहती है, किसान भी बीज बो चुका होता है, प्रकृति हरियाली से भर चुकी होती है और वर्षा की नन्ही-नन्ही बूँदे कहीं राग तो कहीं वैराग्य की भावसृष्टि करने लगती हैं| आज भी समय यद्यपि बहुत बदल चुका है| वैज्ञानिक व तकनीकी विकास ने जीवन के तमाम अवरोधों को मिटा दिया है, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि ऋतुएँ अब जीवन को प्रभावित नहीं करतीं| हॉं यह बात जरूर है कि ऋतुएँ अब जीवन की गति को रोक नहीं पातीं| जबकि प्राचीनकाल में वर्षा ऋतु अपने आने के साथ ही पथिकों के पॉंव बॉंध देती थी| जिनके लिए संभव होता था वे वर्षाकाल शुरू होने के पूर्व घर-गॉंव वापस आ जाते थे, लंबी दूरी के व्यापार रुक जाते थे, विजय यात्राएँ भी थम जाती थीं, साधु संन्यासी, वानप्रस्थी किसी सुखद सुरक्षित स्थान पर वर्षाकाल बिताने के लिए ठहर जाते थे| वे जहॉं ठहरते थे, वहॉं के निवासी हर्षित हो उठते थे, क्योंकि उन्हें इन सतत यात्रा करने वाले ज्ञानियों के अध्ययन, अनुभव तथा चिंतन का लाभ उठाने का अवसर मिल जाता था| वे उनके साथ मिलकर धर्म, दर्शन, इतिहास, पुराण, राजनीति, अर्थशास्त्र तथा विदेश यात्राओं आदि पर चर्चा करके अपना ज्ञानवर्धन करते थे| प्रेमी-प्रेमिकाएँ, नव-विवाहित दंपत्ति, तरुण तरुणियॉं इस रसवर्षिणी ऋतु में राग-रंग, रास-विहार आदि में समय बिताते थे| संगीत गोष्ठियॉं, वाटिका विहारों में आयोजन होते थे| किसी व्यापार, शिक्षा, नौकरी आदि के कारण यदि वे वर्षाकाल में कहीं बाहर फंस जाते गये तो वे भी यह समय दुख में काटते थे और उधर उनकी प्रेयसियॉं भी आँसू बहाती थीं| कवियों, साहित्यकारों एवं चित्रकारों ने इन स्थितियों में संयोग एवं वियोग के बड़े ही ललित चित्र खींचे हैं, जिनसे काव्य एवं कलाजगत की अद्भुत श्रीवृद्धि हुई है|
उपासना, चिंतन, अध्ययन, तप, आमोद-प्रमोद के सम्मिलित समारोह की शुरुआत जिस तिथि से होती हो, उसे यदि उच्चतम सांस्कृतिक महत्व न दिया जाए तभी उस पर आश्‍चर्य होगा| भगवान व्यास के जन्म के लिए भी इससे बेहतर दूसरी तिथि नहीं हो सकती, जिन्होंने ज्ञान, वैराग्य, दर्शन से लेकर भगवान कृष्ण की प्रेम लीलाओं के निकष महारास तक का विशद वर्णन किया है| भगवान के योगेश्‍वर एवं लीला पुरुषोत्तम दोनों रूपों का प्रणयन भगवान व्यास की ही देन है| इतने विपुल साहित्य के प्रणयन, संकलन व संपादन के कारण ही भगवान व्यास को भारतीय विद्वानों-ऋषियों ने भगवान श्रीहरि के ‘वाङ्मयावतार' की संज्ञा दी है|
प्रारंभ में वेद अर्थात ज्ञान का विभाजन नहीं हुआ था| ऋषियों, मुनियों, चिंतकों ने जो कुछ सोचा था, लिखा था, वह सब परस्पर मिला हुआ था| उनका कोई विषयगत या व्यवहार गत विभाजन नहीं था| दर्शन, इतिहास, याज्ञिक कर्मकांड, विज्ञान सब एक में ही गड्ड-मड्ड था| इसलिए कहा जाता है कि प्रारंभ में एक ही वेद था| वेदव्यास पहले ऐसे आचार्य थे, जिन्होंने यत्र-तत्र से सारे उपलब्ध ज्ञान या साहित्य को एकत्र किया तथा विभाजन करके उपयोगिता व व्यवहार की दृष्टि से उनका संपादन किया| सर्वाधिक प्राचीन स्तुतिपरक ऋचाओं को उन्होंने ऋग्वेद में संकलित किया| उसमें भी यज्ञ-याज्ञादि में गाने योग्य रचनाओं को ‘सामवेद' में अलग रखा| याज्ञिक कर्मकांड से जुड़ी ऋचाएँ ‘यजुर्वेद' में संकलित की गई| शेष जो कुछ अन्य उपलब्ध साहित्य था, उसे गौण समझा गया जिसे अथर्वण ऋषि ने एक व्यवस्थित रूप दिया| दार्शनिक चिंतन को उन संबंधित ऋषियों के नाम से ही संकलित किया गया, जिनके चिंतन से ये उपजे थे| महर्षि व्यास ने प्राचीन कथाओं तथा इतिहास आदि की सूचनाओं को पुराण ग्रंथों में संकलित किया| अपने दार्शनिक मत के प्रतिष्ठापन के लिए उन्होंने ‘ब्रह्मसूत्र' नामक एक दर्शन ग्रंथ की रचना की| एक लाख से अधिक श्‍लोकों वाला विशाल महाकाव्य ‘महाभारत' उनकी ही रचना है| भगवद्गीता इसी महाग्रंथ का एक अंश है| आजकल १८ महापुराणों के अतिरिक्त अनेक उपपुराण भी पाये जाते हैं, जिनके अलग-अलग रचयिता या संकलनकर्ता हो सकते हैं, लेकिन पुराण साहित्य के मूल आविष्कर्ता भगवान व्यास ही माने जाते हैं|
ऐसे महाज्ञानी को यदि जगद्गुरु कहा जाता है, तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है| और यदि उनकी जन्म पूर्णिमा को गुरुपूर्णिमा का व्यापक रूप दे दिया गया है, तो यह भी समीचीन ही है| पुराण कथाओं में ही उनके बारे में जो जानकारी मिलती है, उसके अनुसार वह महर्षि पराशर के पुत्र थे| कैवर्तराज की पोषितपुत्री सत्यवती के गर्भ से यमुना नदी के एक द्वीप पर उनका जन्म हुआ था| उनका वर्ण श्याम था| उन्हें ‘पाराशर्य', ‘कृष्ण', ‘द्वैपायन' या ‘कृष्ण द्वैपायन' के नाम से भी अभिहित किया गया है| ‘बदरीवन' (बेर के जंगल) में रहने के कारण उनका एक नाम ‘बादरायण' भी है| और वेद का विभाजन एवं विस्तार करने के कारण ‘वेदव्यास' नाम तो अत्यंत मशहूर है ही|
भगवान व्यास ‘ब्रह्मसूत्र' जैसे दर्शन ग्रंथ एवं ‘महाभारत' जैसे महाकाव्य के तो रचयिता हैं ही, वेदों-पुराणों के वह संकलनकर्ता, संपादक व प्रसारकर्ता भी हैं| वेदों को इसीलिए ‘अपौरुषेय' कहा गया है कि वे एक पुरुष या एक व्यक्ति की रचना नहीं है| वह एक पूरी अनंत परंपरा के व्यासपर्यंत संचित ज्ञान का कोष हैं| महाभारत के बारे में कहा गया है ‘यन्न भारते, तन्न भारते' यानी जो इस ग्रंथ महाभारत में नहीं है, वह भारत में अन्यत्र कहीं नहीं है| ऐसे सर्वांगपूर्ण ग्रंथ की तुलना में अद्यतन विश्‍वसाहित्य में कोई दूसरा ग्रंथ उपलब्ध नहीं है|
भारतीय परंपरा भगवान व्यास को अजर अमर मानती है| उन्हें आज भी कहीं भी आमंत्रित किया जा सकता है| यह सही भी है क्योंकि जो ‘वाङ्मय स्वरूप' है उनकी मृत्यु कैसे हो सकती है| जब तक वेद, पुराण, उपनिषद, महाभारत, ब्रह्मसूत्र आदि जैसे वाङ्मय धरती पर बने रहेंगे तब तक भगवान व्यास भी मूर्तमान ज्ञान के रूप में इस पृथ्वी पर विचरण करते नजर आएँगे| शास्त्रों में भगवान राम की ही तरह भगवान व्यास को भी ‘मूर्तमान धर्म' कहा गया है| भगवान राम ने इस धरती पर अपने आचरण व उपदेशों से धर्म की स्थापना की तो वेदव्यास ने अपने आचरण, उपदेश तथा अपनी रचनाओं से प्रज्ञामय धर्म की स्थापना की|
यह पर्व एक और महान ऋषि की जन्मतिथि के साथ सम्बद्ध है| यह हैं महर्षि कश्यप के पौत्र तथा विभांडक ऋषि के पुत्र ऋष्यश्रृंग (ऋषियों में शिखरस्थ)| ऋष्यश्रृंग ने ही महाराजा दशरथ के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ कराया था, जिससे उन्हें रामादि चार पुत्रों की प्राप्ति हुई थी| ये ऋषि भी अद्भुत थे| मातृहीन ऋष्यश्रृंग आश्रम में अपने पिता के साथ अकेले रहते थे| वह सर्वशास्त्र निष्णात तथा वैदिक कर्मकांडों एवं यज्ञ विधान के पूर्ण ज्ञाता थे| उनके ज्ञान, तपश्‍चर्या तथा ब्रह्मचर्य की ख्याति दूर-दूर तक थी| कथा है कि एक बार अंगदेश के राजा रोमपाद के राज्य में धर्म का उल्लंघन हो जाने के कारण वर्षा रुक गई| अनावृष्टि के कारण राज्य में हाहाकार मच गया| मंत्रियों ने परामर्श दिया कि ऋष्यश्रृंग जैसे किसी तपस्वी का राज्य में आगमन हो तो अनावृष्टि का यह अभिशाप नष्ट हो जाएगा| सवाल था कि ऋष्यश्रृंग जैसा ऋषि उनके राज्य में क्यों आये| जिस राजा के राज्य में धर्म का उल्लंघन हुआ हो, वहॉं ऋषिगण भी जाना छोड़ देते थे| तय हुआ कि सुंदर युवती वेश्याओं की मदद से छल से उन्हें राज्य में बुलाया जाए और बाद में इस छल के उजागर होने पर वह क्रोध  न करें, इसके लिए राजा अपनी बेटी शांता का उनके साथ विवाह कर दें| ऋष्यश्रृंग ने एकांत वन में पिता के साथ रहते हुए किसी स्त्री नाम के प्राणी को देखा तक नहीं था, इसलिए सुंदरी वेश्याएँ जब उनके निकट पहुँचीं, तो उन्होंने उन्हें भी सुंदर ऋषिकुमार ही जाना| उनके आलिंगन से भी उन्हें सुख तो मिला, लेकिन कोई काम भावना नहीं जागृत हुई| कहानी बहुत प्रसिद्ध है कि किस तरह गंगा नदी में तैरते बजड़े पर बैठाकर छल से वे वेश्याएँ ऋष्यश्रृंग को अंग देश ले गयीं| रोचक यही है कि उनका नाम भी आषाढ़ी पूर्णिमा के साथ सम्बद्ध है|
ऋष्यश्रृंग भी वस्तुतः लोकसाधना में निरत मुनि थे| पुराणों में उन्हें पूर्ण नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहा गया है| शास्त्रों में स्त्री संसर्ग से पूर्ण विरत व्यक्ति को ही ब्रह्मचारी नहीं कहा गया है| वह व्यक्ति भी ब्रह्मचारी ही है, जो एक पत्नी में निष्ठा रखते हुए केवल ऋतुकाल में संतानोत्पत्ति के लिए ही सहवास करता है, इंद्रिय सुख के लिए नहीं| चातुर्मास्य का यह साधना पर्व भी लोकसाधना के अभ्यास का पर्व है| अपनी निजी सुख-साधना पर नियंत्रण तथा लोकहित के लिए अपने मन, बुद्धि, शरीर का पूर्ण समर्पण ही वास्तविक तप है| भले ही आज समय बदल गया है| मनुष्य ऋतुओं का दास नहीं रह गया है, फिर भी चातुर्मास की आंशिक साधना भी उसके जीवन को उन्नत और पवित्र बना सकती है|
भगवान व्यास को यदि हम एक व्यक्ति न मान कर सद्ज्ञान, सद्विवेक व सद्धर्म (सदाचार) की एक परंपरा माने तो अद्यतन संपूर्ण ज्ञान को हम व्यास ज्ञान परंपरा में शामिल कर सकते हैं| इस तरह उनका यह जन्मदिन वास्तव में किसी व्यक्ति की पूजा का दिन नहीं, बल्कि समग्र ज्ञान, विवेक व सद्धर्म की पूजा का दिन है| यह किसी रुढ़ परंपरा की आराधना का भी दिन नहीं है, यह दिन उस निरंतर विकासशील ज्ञानधारा की आराधना का पर्व है, जो हमें निरंतर बदलते विश्‍व की चुनौतियों का सामना करने की योग्यता एवं सामर्थ्य प्रदान करता है| जीवन का परम  लक्ष्य सुख या आनंद की प्राप्ति है| यह आनंद बिना ज्ञान, बिना भक्ति, बिना साधना के नहीं मिल सकता| किसी को राग में सुख मिलता है, तो किसी को वैराग्य में लेकिन आप रागी हों चाहे विरागी, न्याय, प्रेम, सदाचार, सद्भाव, सेवा, संवेदना तथा इन सबके कारक प्रज्ञा या विवेक के बिना तो कुछ भी संभव नहीं है| इसलिए सर्वप्रथम सब मिलकर ज्ञान व धर्म स्वरूप वाङ्मयावतार भगवान बादरायण कृष्ण द्वैपायन व्यास की आराधना करें, फिर अपने-अपने निर्दिष्ट या चयनित कर्मपथ पर अग्रसर हों|
july 2013

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