शांति प्रयास भी पाकिस्तान की युद्ध नीति का ही हिस्सा
शांति प्रयासों को आगे बढ़ाने की बात: मालदीव में भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह (बोलते हुए) व विदेश मंत्री एस.एम. कृष्ण (बाएं) के साथ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी तथा विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार
पाकिस्तान इन दिनों भारत के प्रति बहुत विनम्र हो गया है। वह शांति व सहयोग के प्रयासों को आगे बढ़ाने की बातें कर रहा है। भारतीय राजनेता भी बहुत प्रसन्न हैं। उन्हें लग रहा है कि उनकी ‘डिप्लोमेसी‘ काम आ रही है, पाकिस्तान बदल रहा है। लेकिन यह सच नहीं है, छलावा है। पाकिस्तान इन दिनों चौतरफा संकट में घिरा है, जिससे बाहर निकलने के लिए उसे कुछ समय चाहिए और चाहिए ‘शांतिप्रियता‘ का मुखौटा। समय निकलते ही वह फिर पुराने तेवर पर आ जायेगा। इसलिए उसके बारे में कोई गलतफहमी नहीं पालनी चाहिए। शेर शाकाहारी हो सकता है, तेंदुआ बेदाग बन सकता है, कुत्ते की पूंछ सीधी हो सकती है, किंतु पाकिस्तान नहीं बदल सकता। वह भारत का हितैषी मित्र कभी नहीं बन सकता।
भारत में इन दिनों इस बात पर बड़ा संतोष व्यक्त किया जा रहा है कि पाकिस्तान उसके साथ शांति और सहयोग के रास्ते पर बढ़ना चाहता है। उसने भारत को सर्वाधिक वरीयता प्राप्त देश (मोस्ट फेवर्ड नेशन) का दर्जा देने का प्रस्ताव किया है। यद्यपि भारत उसे यह दर्जा 15 साल पहले ही दे चुका है, फिर भी इतने दिनों बाद भी यदि उसने जवाबी पहल की है, तो यह स्वागत की बात है। 26/11 के मुंबई हमले की तीसरी बरसी के अवसर पर पाकिस्तान के गृहमंत्री रहमान मलिक ने गत शुक्रवार को कहा कि अगले सप्ताह पाकिस्तान का एक न्यायिक आयोग नई दिल्ली की यात्रा करेगा और 26/11 के आरोपियों के विरुद्ध मामलों की सुनवाई तेज करने के लिए भारत से सहयोग करेगा। उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह तथा गृह मंत्री पी. चिदंबरम के प्रति आभार व्यक्त किया कि उन्होंने संबंधों को सामान्य बनाने और आपसी सहयोग बढ़ाने के मामले में गंभीर प्रयास किया है। उनहोंने पिछले ‘सार्क‘ शिखर सम्मेलन के दौरान दोनों देशें के प्रधानमंत्रियों डॉ. मनमोहन सिंह और यूसुफ रजा गिलानी के बीच करीब एक घंटे तक हुई बातचीत का हवाला दिया और कहा कि दोनों शीर्ष नेताओं ने आपसी शांति कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिए महत्वपूर्ण बातचीत की। इस मुलाकात में 26/11 के आरोपियों के विरुद्ध कार्रवाई को तेज करने का मामला भी उठा और हमें खुशी है कि 10 नवंबर को हुई बातचीत के एक पखवाड़े के भीतर ही पाकिस्तान का न्यायिक आयोग भारत जाने के लिए तैयार है। सोम-मंगल तक यदि सुप्रीमकोर्ट ने आयोग में शामिल होने वाले नामों को तय कर दिया, तो इसी हफ्ते में यह आयोग दिल्ली रवाना हो जायेगा। उन्होंने इस बात को गलत बताया कि पाकिस्तान 26/11 के दोषी पाकिस्तानियों को सजा दिलाने के प्रति गंभीर नहीं है। उन्होंने बताया कि भरत की शिकायत पर लश्कर-ए-तैयबा के एक उच्च अधिकारी जकीउर्रहमान लखवी को गिरफ्तार किया गया और वह अभी भी जेल में है। लखवी को मुंबई हमले की पूरी कार्रवाई का सूत्रधार माना जाता है, लेकिन भारत की नजर में इस हमले का मुख्य योजनाकार इस खूनी संगठन का संस्थापक अध्यक्ष हाफीज सईद है। उसके संदर्भ में रहमान मलिक का कहना है कि भारत ने उसके विरुद्ध पर्याप्त और पुष्ट प्रमाण नहीं दिये। हमने शुरू में उसे गिरफ्तार किया, किंतु सर्वोच्च न्यायालय ने उसे मुक्त कर दिया। उन्होंने भारत से अनुरोध किया है कि वह यथेष्ट प्रमाण दे, तो पाकिस्तान अवश्य कार्रवाई करेगा। मलिक से हाफिज सईद के भारत विरोधी वक्तव्यों व भड़काउ भाषणों के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि ऐसे भाषणों पर पुलिस ने तीन बार उनके विरुद्ध एफ.आई.आर. दर्ज किया, किंतु कोर्ट ने उन्हें रद्द कर दिया। उनका कहना था कि यदि आगे भी हाफिज सईद इस तरह का भाषण देते हैं, तो मेरा वायदा कि हम फिर उनके खिलाफ मामला दर्ज करेंगे। 26/11 की इस तीसरी बरसी के अवसर पर शनिवार को भारत के विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा ने अपने एक वक्तव्य में पाकिस्तान को स्मरण दिलाया कि भारत अभी भी 26/11 के अभियुक्तों के विरुद्ध ठोस कार्रवाई की प्रतीक्षा में है, लेकिन उनका यह वक्तव्य भी एक कर्मकांड पूरा करने जैसा था। उन्होंने एक दिन पहले रहमान मलिक द्वारा दिये गये वक्तव्य के संदर्भ में कहा कि भारत पर्याप्त प्रमाण पाकिस्तान को सौंप चुका है, अब उसकी तरफ से केवल कार्रवाई की प्रतीक्षा है।
एक तरफ सरकारी नेताओं का इस तरह का वक्तव्य है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी तथा विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार पहले ही भारत के साथ शांतिपूर्ण संबंधों के विकास की दिशा में आगे बढ़ने की बातें कर चुके हैं। ‘सार्क‘ (दक्षिण एशियायी देशों के क्षेत्रीय सहयोग संगठन) की इस वर्ष की मालदीव में हुई शिखर बैठक में शायद पहला अवसर था, जब पाकिस्तान की ओर कश्मीर का मुद्दा नहीं उछाला गया। मनमोहन और गिलानी दोनों की बातचीत बड़े ही सौहार्दपूर्ण वातावरण में हुई, जिससे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बहुत संतुष्ट दिखे।
इस सबको देखते हुए यदि यहां के राजनीतिक नेताओं व आम लोगों को भी इस बात की गलतफहमी होने लगे कि अब पाकिस्तान बदल रहा है और वहां के नेता वास्तव में भारत के साथ शांतिपूर्ण संबंध विकसित करना चाहते हैं, तो यह अस्वाभाविक नहीं है। लेकिन सच्चाई यह है कि पाकिस्तान कभी नहीं बदल सकता। भारत के साथ शत्रुता उसका स्थाई भाव है। भारत के पूर्व विदेश सचिव जी. पार्थसारथी ने सही कहा है कि ‘शेर घास खाना शुरू कर सकता है, तेंदुए की चमड़ी के काले धब्बे धुल सकते हैं, कुत्ते की पूंछ सीधी हो सकती है, लेकिन पाकिस्तान कभी नहीं बदल सकता।‘ उनकी यह बात निश्चय ही सौ प्रतिशत सही है। पायिकस्तान वास्तव में भारत के साथ अपनी रणनीति बदलता रहता है। उसकी नीयत और लक्ष्य में कभी कोई बदलाव नहीं आया। भरतीय राजनेता और कूटनीतिज्ञ अक्सर पाकिस्तानी झांसे में आकर धोखा खाते रहते हैं, लेकिन पिछले अनुभवों से कोई सीख लेने का प्रयास नहीं करते।
वास्तव में पाकिस्तान इस समय चौतरफा संकट में है। इस संकट से बाहर निकलने के लिए उसने अपनी रणनीति बदली है। सच कहा जाए तो ‘शांति‘ भी उसके लिए भारत के विरुद्ध इस्तेमाल किये जाने वाला एक हथियार है। जब सेना नाकाम हो गयी, आतंकवादी हमले भी काम में नहीं आए, तो अब उसने ‘शांति‘ के अस्त्र से भारत को परास्त करने या कम से कम उसकी आक्रामकता को कुंठित करने का निश्चय किया है। पाकिस्तान का सबसे बड़ा संकट यह है कि उसका दोगलापन अब पूरी दुनिया के सामने जाहिर हो गया है। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में साथ देने का वायदा करके पश्चिमी देशों को ठगने की उसकी चाल का पूरा भंडाफोड़ हो गया है। अब सब लोग यह जान गये हैं कि पूरी दुनिया में इस्लामी आतंकवाद का निर्यात करने वाला देश पाकिस्तान ही है। अब यह पता चल गया है कि पिछले 10-11 वर्षों से वह लगातार अमेरिका को धोखा देता आ रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ संघर्ष में पाकिस्तान का सहयोग पाने के लिए उसकी आर्थिक सहायता बढ़ाने का निर्णय लिया। लेकिन जब से यह पता चला है कि अमेरिका अफगानिस्तान में जिन तालिबानों से लड़ रहा है, वे सब तो पाकिस्तान के ही पिट्ठू हैं और पाकिस्तानी सेना की मदद लेकर स्वयं अमेरिकी सेना पर हमला कर रहे हैं। उसके बाद अब अमेरिकी विपक्ष संसद में सरकार पर दबाव डाल रहा है कि पाकिस्तान की सहायता बंद की जाए या उसे अत्यधिक कम किया जाए।
इससे पाकिस्तानी सरकार का संकट बढ़ गया है। उसके कुछ नेता व सैन्य अधिकारी अपने बड़बोले पर में यह कह जरूर रहे हैं कि उन्हें कोई अमेरिकी सहायता नहीं चाहिए। उनका देश बिना अमेरिकी सहायता के भी काम चला सकता है। लेकिन उन्हें पता है कि अमेरिकी सहायता के बिना उनका जीना मुश्किल हो जायेगा। कोई दूसरा देश उन्हें उतनी सहायता नहीं दे सकता, जितनी अमेरिका दे रहा है। पाकिस्तानी नेताओं ने चीन को अमेरिका का विकल्प बनाने की संभावना को भी तलाश लिया है। चीन पाकिस्तान को सैनिक सुरक्षा संभावना को भी तलाश लिया है। चीन पाकिस्तान को सैनिक सुरक्षा का आश्वासन दे सकता है, उसे हथियार दे सकता है, उसके सैनिक अड्डों का विकास कर सकता है, लेकिन वह उसे सारी सैनिक सहायता के अतिरिक्त हर वर्ष डेढ़ अरब डॉलर की नकद सहायता नहीं कर सकता। अमेरिकी सरकार पाकिस्तान से धोखा खाने के बाद भी उसकी सहायता करने के लिए तैयार है, क्योंकि वह उसे अपने आधिपत्य से बाहर नहीं जाने देना चाहता, लेकिन वह अपने देश की प्रबुद्ध जनता व विपक्ष को क्या समझाए। यद्यपि बहुत से पारंपरिक सोच वाले अमेरिकी अभी भी पाकिस्तान को अपना मित्र मानते हैं और उसे ‘नाटो‘ (नाथर्् एटलांटिक ट्रीटी आर्गनाइजेशन)के बाहर का सबसे बड़ा सहयोगी देश (मेजर नान नाटो एलाई) मानते हैं, लेकिन ज्यादातर जागरूक अमेरिकी अब पाकिस्तान को अपना शत्रु मानते हैं। इसीलिए शायद एक अमेरिकी पत्रकार ने पाकिस्तान के लिए एक नया वाक्यांक्ष गढ़ा है- ‘फ्रेनेमी ऑफ यू.एस.‘ (अमेरिका का दुश्मन-दोस्त)। ऐसे में अमेरिकी सरकार का पाकिस्तान पर दबाव पड़ रहा है कि यदि वह अमेरिकी सहायता पाते रहना चाहता है, तो अपने को बदले। नहीं बदलेगा तो अमेरिका उसकी सहायता जारी नहीं रख सकेगा। जाहिर है कि पाकिस्तान इस संकट से उबरने के लिए भारत के साथ थोड़े दिन का संघर्ष विराम चाहता है।
अभी इस 26/11 की बरसी के ठीक पहले गुरुवार तथा शुक्रवार को लश्कर-ए-तैयबा ने लाहौर तथा मुजफ्फराबाद में भारत के विरुद्ध जबर्दस्त रैली का आयोजन किया। रैली लश्कर-ए-तैयबा के नये अवतार जमात-उद-दवा के झंडे तले आयोजित की गयी, जिसमें भारत के विरुद्ध जमकर जहर उगला गया। भारतीय राष्ट्रध्वज को आग लगायी गयी तथा उसे जूतों तले रौंदा गया। लाहौर की रैली में पूरे सूबे से लोग आए। बसों, ट्रैक्टर ट्रालियों तथा मोटर साइकिलों पर सवार दूर-दूर से लोग इसमें भाग लेने पहुंचे। जमात-उद-दवा व लश्कर-ए-तैयबा के अलावा अन्य जिहादी संगठनों के लोग भी इसमें शामिल हुए। सब ने भारत को सर्वाधिक तरजीही देश (मोस्टर फेवर्ड नेशन) का दर्जा देने का प्रस्ताव का तिव्र विरोध किया और कहा कि भारत के साथ केवल ‘नफरत और गोली‘ का संबंध हो सकता है, दूसरा कोई संबंध संभव नहीं। भारत कभी भी पाकिस्तान का सर्वाधिक तरजीही देश नहीं बन सकता।
लाहौर की रैली में जमात के नेता अमीर हम्जा ने कहा कि हमारे नेता हाफिज सईद ने कश्मीर हुर्रियत कांफ्रेंस के नेता अली शाह गिलानी को विश्वास दिलाया है कि वह भारत को तरजीही राष्ट्र का दर्जा दिये जाने का तीव्र विरोध करेंगे। भारत कभी भी पाकिस्तान का पसंदीदा मुल्क नहीं हो सकता। यहां यह ध्यान देने की बात है कि लाहौर की रैली में सिर्फ जिहादी संगठनों के लोग ही नहीं शामिल हुए थे, बल्कि पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज गुट) के लोग भी शरीक हुए थे। पाकिस्तान ने भारत को सर्वाधिक तरजीही राष्ट्र का दर्जा अभी दिया नहीं है, केवल प्रस्ताव किया है, जिसके बारे में निर्णय पाकिस्तानी संसद को करना है। रहमान मलिक साहब फरमाते हैं कि हाफिज सईद यदि भरत के विरुद्ध कोई भड़काउ बयानबाजी करते हैं, तो वह फिर उनके खिलाफ मामला दर्ज करायेंगे। पाकिस्तान में इस तरह का मामला दर्ज कराये जाने का अर्थ क्या है? जहां न्यायालय, सेना, पुलिस, गुप्तचर संगठनों तथा जिहादी संगठनों में कोई फर्क नहीं है। मुंबई में 170 लोगों की हत्या के अभियुक्त जिस हाफिज सईद को गिरफ्तार किया जाता है, उसे किसी जेल में नहीं डाला जाता, बल्कि उसके अपने महल में नजरबंद किया जाता है और पुलिस उसकी चौतरफा सुरक्षा करती है। अदालत उन्हें बाइज्जत रिया कर देती है। सरकार उन्हें गिरफ्तार तो करती है, लेकिन अदालत में उनके खिलाफ कोई आरोप पेश ही नहीं करती, इसलिए अदालत को भी उन्हें बाइज्जत रिहा करने में सुविधा होती है। जिन्हें गिरफ्तार करके जेल में रखा भी जाता है, उन्हें वहां वी.आई.पी. की सुविधा दी जाती है। वे केवल दुनिया को दिखाने के लिए जेल में होते हैं, अन्यथा वे अपने घ्र से भी अधिक सुविधाओं का वहां उपभोग करते रहते हैं। जैसे लखवी, जिन्हें जेल में मोबाइल के उपयोग की सुविधा भी प्राप्त है और वह वहां रहकर भी अपने संगठन के उपयोग की संचालन करता रहता है।
पाकिस्तान जब भी दबाव में पड़ता है, तो उसके राजनेता उपर से मैत्री का दिखावा शुरू कर देते हैं, जिससे कि उन्हें संभलने का अवसर मिल जाए और वे अपनी भारत विरोधी रणनीति और पुख्ता कर लें। 1970 के दशक में राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक ने यही रणनीति चली थी। उस समय भारत के नेताओं और अधिकारियों ने उसका गलत आकलन किया। तत्कालीन विदेश सचिव जगत मेहता ने जिया उल हक को उदार (माडरेट) नेता समझाा था और उनका आकलन था कि जिया उल हक अपदस्थ प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी की सजा नहीं देंगे। लेकिन आकलन गलत निकला। भुट्टो को फांसी दी गयी और जिया के समय में पाकिस्तान का इस्लामी कट्टरपन और सख्त हुआ। संविधान में संशोधन हुआ। ईशनिंदा कानून बना। स्कूलों में भारत विरोधी शिक्षा को प्रोत्साहन दिया गया। पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम तेज हुआ। चीनी सहयोग से पाकिस्तान परमाणु बम बनाने में सफल हुआ। यह सब भारत की कूटनीतिक विफलता का परिणाम था। भारत ने यह मान लिया था कि पाकिस्तान की तरफ से अब कोई खतरा नहीं है, क्योंकि पाकिस्तानी शासक उपरी तौर पर मैत्री संबंध बढ़ाने का दिखावा करते रहे। पिछली शताब्दी के अंतिम वर्षों की कहानी लोग जानते ही है कि किस तरह भारत के पूर्व प्रधानमंत्री पाकिस्तान के लिए मैत्री का संदेश लेकर एक बस में बैठकर लाहौर गये और पाग प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने उनका स्वागत करते हुए शांति और मैत्री की मीठी-मीठी बातें की, ठीक उसी समय पाकिस्तानी सेना के घुसपैठिये कारगिल पहाड़ी के भारतीय क्षेत्र में अपना कब्जा जमाने में लगे थे।
आज की स्थिति भी कमोबेश वैसी ही है। हम पाकिस्तान को एकतरफा सुविधाएं देकर शांति खरीदना चाहते हैं। पाकिस्तान ने अभी भारत को तरजीही राष्ट्र का दर्जा देने की औपचारिकता भी पूरी नहीं की है, लेकिन हमने पाकिस्तानी व्यापारियों के लिए वीसा के नियम सरल करने, पूरे एक वर्ष के लिए विशेष वीसा देने का आदेश जारी कर दिया है।
भारत के लोग वास्तव में पाकिस्तान की मानसिकता को नहीं समझते। मजहबी रुढ़िवाद व कट्टरतावाद तो उसका एक हिस्सा मात्र है। वास्तव में पाकिस्तान की नई पीढ़ी का इस तरह ‘ब्रेन वाश‘ कर दिया गया है कि वह भारत को भी पाकिस्तान का अंग मानती है। दक्षिण एशिया के पूरे इलाके के मालिक मुस्लिम रहे हैं, हिन्दू नहीं, यह धारणा तो इस क्षेत्र के प्रायः पूरे मुस्लिम समाज की रही है, केवल पाकिस्तान की नहीं, मगर पाकिस्तान के लोग तो हिन्दुस्तान की अवधारण को ही स्वीकार नहीं करते। उनका कहना है कि हिन्दुस्तान तो उनका दिया हुआ नाम है, जो गंगा घाटी पर कब्जा करने के बाद उन्होंने उसे दिया। पाकिस्तानी इतिहासकार मानते हैं कि मोहम्मद बिन कासिम पहला पाकिस्तानी था, जिसने सिंध और पंजाब पर हमला किया और उस पूरे क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। उनकी धारणा है कि अधिकांश पाकिस्तानी अरब से आए हुए या वहां के विस्थापित लोग हैं। वे यह भी समझते हैं कि अंग्रेजों के या यूरोपियों को दक्षिण एशिया में आने के पूर्व इस पूरे इलाके पर मुसलमानों का ही अधिकार था, इसलिए यदि अंग्रेज इस इलाके को छोड़कर गये, तो वास्तव में इस पूरे क्षेत्र पर मुसलमानों को कब्जा मिला चाहिए था। इस क्षेत्र में 1857 का प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम भी मुस्लिम नेतृत्व में लड़ा गया। क्रांतिकारियों ने अंतिम मुगल शासक बहादुर शह जफर को ही अपना नेता स्वीकार करके स्वातंत्र्य का संघर्ष छेड़ा था। यह लड़ाई उनकी थी, यह देश उनका था, किंतु हिन्दुओं ने तिकड़म करके मुसलमानों का यह अधिकार छीन लिया और उन्हें पाकिस्तान के नाम पर एक छोटा इलाका ही मिल सका। इसलिए जैसे भी हो, उन्हें इस पूरे इलाके पर अपना अधिकार कायम करना है। उनकी इस धारणा को कई अंग्रेज इतिहासकारों से भी जाने अनजाने समर्थन मिला। प्रख्यात पुरातत्वज्ञ ह्वीलर ने एक पुस्तक लिखी ‘5000 इयर्स ऑफ पाकिस्तान‘ (पाकिस्तान के 5000 वर्ष)। उन्होंने पाकिस्तानी क्षेत्र के 5 हजार साल के पुरातात्विक इतिहास का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया, लेकिन अपनी पुस्तक के शीर्षक से उन्होंने पाकिस्तान के इतिहास को 5000 साल पुराना बता दिया।
यह सही है कि मुहम्मद बिन कासिम से इस क्षेत्र में मुस्लिम राजनीतिक आधिपत्य की शुरुआत होती है। कासिम का जन्म आज सउदी अरब इलाके के शहर तैफ में हुआ था। वह उम्मैद खलीफा का सैनिक कमांडर था। सिंध और पंजाब के क्षेत्र को जीत कर उसने भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लामी शासन की स्थापना की । इसका ज्यादातर इलाका इस समय पाकिस्तान में है। इसलिए पाकिस्तान की आज की पीढ़ी यह मानती है कि वे भारतीय मूल के नहीं, बल्कि अरबी मूल या अरबी नस्ल के हैं, तो कोई बहुत गलत बात नहीं। उन्हें जिस तरह की शिक्षा दी जाएगी, वैसी ही उनकी मानसिकता बनेगी। 695 ई. में जब मुहम्मद बिन कासिम का भारत पर हमला हुआ, यहां सम्राटों का युग समाप्त हो चुका था। लेकिन इस देश का सांस्कृतिक अस्तित्व किसी सम्राट या उसके साम्राज्य के राजनीतिक प्रभाव पर निर्भर नहीं था, इसलिए भारतीय संस्कृति का अस्तित्व या उसकी सांस्कृतिक राष्ट्रीयता सदैव विद्यमान नहीं, जिसके कारण मुस्लिम साम्राज्य भले कुछ समय के लिए इस पूरे उपमहाद्वीप पर छा गया हो, लेकिन इस्लाम का अधिपत्य कभी कायम नहीं हो सका। यह सांस्कृतिक युद्ध लगातार तबसे चला आ रहा है, जब कासिम ने हमला किया था और अब भी जारी है। आज का पाकिस्तान अभी भी अपने को मुहम्मद बिन कासिम या उसके बाद के उन बादशाहों का उत्तराधिकारी समझता है, जिन्होंने इस भारत देश पर राज्य किया और उस हैसियत को फिर से पाना चाहता है। इसलिए पाकिस्तान ने कभी बदल सकता है, न भारत का कभी मित्र हो सकता है और न कभी सेकुलर लोकतंत्र का समर्थक बन सकता है। वह अवसर देख कर अपनी रणनीति बदलने में कुशल है, क्योंकि कुशल युद्ध नीति का यही तकाजा है कि विपरीत समय में दो कदम पीछे हट लो, जरूरत पड़े तो अधीनता भी स्वीकार कर लो, अपनी रक्षा करो और शक्ति बढ़ाओ, जिससे अवसर मिलने पर दुगुनी ताकत से हमला करके निर्णायक विजय हासिल की जा सके। भारत के राजनेता और रणनीतिकार यदि इसे नहीं समझें, तो भविष्य की पीढ़ी की नजर में अपनी साख तो गंवाएंगे ही, साथ ही इस देश को पहले से घेरे हुए खतरे को और बढ़ाने का भी काम करेंगे। हमें इतिहास से सबक सीखना चाहिए, नहीं तो भविष्य हमारा अस्तित्व मिटा देगा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें