बुधवार, 4 जनवरी 2012

खुदरा व्यापार में विदेशियों के आने का भय !



कहा जाता है कि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने अब तक के संपूर्ण कार्यकाल में यदि एकमात्र कोई सार्थक निर्णय लिया है, तो वह है खुदरा व्यापार के क्षेत्र में विदेश्ी पूंजी निवेश बढ़ाने का, लेकिन उन्होंने जिस तरह अपने इस निर्णय की घेषणा की उससे उनकी नीयत पर ही संदेह होने लगा। क्या उन्होंने इसे देश् के व्यापक हत में घोषित किया या महंगाई, लोकपाल, कालाधन, भ्रष्टाचार व तेलंगाना आदि मुद्दों से संसद व देश् का ध्यान हटाने के लिए इसका शिगूफा छोड़ा। देश् के सामाजिक व आर्थिक आधुनिकीकरण के लिए उत्पादक-विरतक-उपभोक्ता संबंधों की उपनिवेशकाल की संस्कृति बदलने की सख्त जरूरत है। विदेशी खुदरा कंपनियों को आने का अवसर देकर इसकी एक अच्छी शुरुआत हो सकती है, लेकिन इसके लिए पहले पूरे देश को विश्वास में लेने की जरूरत है।



संसद का पिछला शीतकालीन सत्र बिना कोई कामकाज किये समाप्त हो गया था, अब इस बार का स. भी उसी तरह के गतिरोध की स्थिति में आ फंसा है। शुरुआत तो महंगाई, भ्रष्टाचार, काला धन, तेलंगाना आदि के मुद्दों को लेकर हुई, लेकिन बीच में आ धमका खुदरा व्यापार के क्षेत्र में प्रत्यक्ष निवेश -एफ.डी.आई.- का। सरकार ने शायद अन्य मसलों की तरफ से विपक्ष व जनता का ध्यान बंटाने के लिए एफ.डी.आई. का धमाका किया, लेकिन वह खुद उसके गले की हड्डी बन गया। एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश में लगी रहने वाली दलीय राजनीति को यदि दरकिनार कर दें, तो खुदरा व्यापार के क्षेत्र में विदेशी पूंजी के निवेश का मार्ग प्रशस्त करना देश के व्यापक हित में बहुत जरूरी था, लेकिन सरकार ने बिना उचित तैयारी के जिस तरह से उसकी घोषणा की, उससे न केवल उनकी नीयत पर, बल्कि उसकी राजनीतिक कार्यदक्षता पर भी संदेह होने लगता है।

विपक्ष तो विपक्ष, उसका तो काम ही है विरोध करना। यदि वह अपने राजनीतिक लाभ के लिए सरकार के इस उचित कदम का भी विरोध कर रहा है, तो यह कोई असाधारण बात नहीं, असाधारण् बात तो यह है कि स्वयं गठबंधन सरकार के अपने घटक दल भी उसका विरोध कर रहे हैं। इससे ज्यादा चकित करने वाली बात है खुद कांग्रेस पार्टी के भीतर इसके बारे मे ंएक राय नहीं है। उसकी अपनी कई राज्य इकाइयां चाहती हैं कि सरकार इसे वापस ले ले। उत्तर प्रदेश की कांग्रेस का कहना है कि केंद्र सरकार ने बहुत गलत समय पर इसकी घोषणा की। ऐसे समय यह नहीं किया जाना चाहिए था, जब उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधनसभा चुनाव होने जा रहे हों। पार्टी में मतभेदों का आलम यह है कि पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी तथा युवराज राहुल भी इस पर चुप्पी साधे हुए हैं। युवा कांग्रेस के नवनिर्वाचित पदाधिकारियों के दिल्ली में हुए द्विदिवसीय सम्मेलन में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने किराना व्यापार के क्षेत्र में विदेशी निवेश बढ़ाने के सरकार के फैसले और विपक्ष के विरोध की विस्तार से चर्चा की, लेकिन सोनिया गांधी व राहुल ने अपने वक्तव्यों में उसका नाम तक नहीं लिया। अभी पता चला कि इस सम्मेलन के बाद उत्तर प्रदेश के नेताओं ने एक बैठक में राहुल के सामने जब एफ.डी.आई. और लोकपाल का मुख्य मुद्दा है, इसलिए यहां पार्टी के नेताओं व कार्यकर्ताओं को केवल इसी मुद्दे पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, बाकी को भूल जाना चाहिए। अब अब इससे अनुमान लगा लिया जाना चाहए कि कांग्रेस पार्टी व सरकार राजनीति और सत्ता संचालन में कितनी कुशल है। खुदरा व्यापार के क्षेत्र में प्रत्यक्ष पूंजी निवेश जैसे संवेदनशील व महत्वपूर्ण मुद्दे पर सरकार ने अपनों को भी विश्वास में नहीं लिया, सहयोगी दलों की बात ही और है। सहयोगी दलों की मुख्य शिकायत भी यही है कि कांग्रेस नेतृत्व ने उनसे इस पर कोई विचार-विमर्श नहीं किया, उन्हें विश्वास में लेने की कोई कोशिश नहीं की। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री व तृणमूल कांग्रस की नेता ममता बनर्जी ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में यह वायादा कर रख है क वह खुदरा व्यापार के क्षेत्र में विदेशी निवेश नहीं होने देंगी, यानी विदेशी खुदरा व्यापारियों को देश में नहीं आने देंगी। अब इसके बाद कैसे वह सरकार के इस निर्णय का समर्थन कर सकती हैं। उसके दूसरे सहयोगी दल तमिलनाडु के डी.एम.के. के सामने ऐसी कोई तकनीकी मजबूरी नहीं है, वह सत्ता में भी नहीं है कि राज्य स्तर पर उसके उूपर किसी तरह का दबाव हो, फिर भी सरकार के सामने उसने अपना विरोध व्यक्त किया है। ममता को मनाने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने स्वयं उनके बात की, उन्होंने राज्य के विकास के लिए 8000 करोड़ रुपये का विशेष सहायता पैकेज देने का भी वायदा किया है, लेकिन ममता मानने के लिए तैयार नहीं हैं। उनका कहना है कि उनके राज्य में 50 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण तथा छोटै व्यापारियों की है, वह उन्हें नाराज नहीं कर सकतीं, इसलिए उन्होंने प्रधानमंत्री को विनम्रता पूर्वक बता दिया है कि वह केंद्र की यूपीए सरकार को गिराने के पक्ष में नहीं हैं, लेकिन वह एफ.डी.आई. नीति का समर्थन भी नहीं कर सकतीं। जाहिर है वह सरकार को गिरने का खतरा नहीं पैदा होने देंगी, लेकिन उन्होंने सरकार को एक अपमानजनक स्थिति में तो डाल ही दिया है। यदि प्रधानमंत्री अपनी सरकार में शामिल राजनीतिक दलों का समर्थन भी हासिल नहीं कर सकते, तो फिर वह विपक्ष को भला किस प्रकार समझायेंगे। इस स्थिति से प्रतीत होता है कि सरकार शायद स्वयं भी अभी खुदरा क्षेत्र को विदेशी निवेश के लिए खोलने के लिए तैयार नहीं थी और उसने सरकार की फजीहत करा रहे तमाम मुद्दों की तरफ से जनता का ध्यान बंटाने के लिए एकाएक इसकी घोषणा का निर्णय ले लिया। यद्यपि प्रधानमंत्री बार-बार यह दोहरा रहे हैं कि उन्होंने बहुत सोच विचार के बाद यह निर्णय लिया है, कोई जल्दबाजी नहीं की है, किंतु परिस्थितियां और घटनाक्रम उन्हें गलत सिद्ध कर रहे हैं। वैसे दोनों ही स्थितियों में सरकार की अदूरदर्शिता तथा अक्षमता जाहिर होती है। यदि वह सुविचारित कदम था, तो प्रधानमंत्री ने अपनी पाअभर्् तथ अपनी सहयोगी पार्टियों को पहले से वश्विास में क्यों नहीं लिया। और यदि यह निर्णय आकस्मिक है तो भी वह अपने मकसद में विफल रहे हैं। ध्यान बंटाने का प्रयास तो विफल रहा ही, नाहक ही एक नई मुसीबत और खा खड़ी हुई है

गत शक्रवार को संसद के चालू सत्र का लगातार नौंवा दिन था, जब कोई विधायी कामकाज नहीं हो सका और बैठक चार दिनों के लिए स्थगित कर दी गयी। शनिवार, रविवार का अवकाश रहता ही है, संयोग से इसी के साथ मोहर्रम की मुस्लिम त्यौहार भी आ गया, तो सोम, मंगल दो दिन उकसे लिए अवकाश हो गया। अब 7 दिसंबर को संसद की बैठक फिर शुरू होगी, जब एफ.डी.आई. के मसले पर विपक्ष्ज्ञ के कार्य स्थगन प्रस्ताव पर निर्णय लिया जाएगा। इस बीच सत्ता पक्ष के संकट निवारक नेता अपने लोगों को समझाने बुझाने व अपना संख्या बल मजबूत करने का प्रयास करेंगे। जैसी खबरें मिल रही हैं, उसके अनुसार सरकार नहीं चाहती कि कोई कार्य स्थगन प्रस्ताव सदन में आए और उस पर मत विभाजन हो। इसलिए यह हो सकता है कि यदि सरकार अपने सहयोगियों, साथ ही विपक्ष को मनाने में विफल रहती है, तो वह इस फैसले को किसी ठंडे बस्ते के हवाले कर दे। यद्यपि प्रधानमंत्री बार-बार कह रहे हैं कि इस फैसले को वापस लेना कठिन है। सरकार इस दिशा में काफी आगे बढ़ चुकी है, अब इसे वापस लेने से सरकार की साख पर बट्टा लगेगा, फिर भी यह कोई ऐसा मुद्दा नहीं है, जिस पर सरकार अपने अस्तित्व को ही दांव पर लगाने का खतरा मोल ले, जैसा कि परमाणु समझौते के संदर्भ में वर्ष 2008 में लिया था। फिर भी आखिरकार इसे टालना भी सरकार की कमजोरी ही सिद्ध करेगा।

यह तो रही सरकार की बात, अब जरा मूल मुद्दे पर विचार कर लिया जाए। आखिर किराना व्यापार के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेश निवेश को बढ़ाना देश के लिए क्यों उपयोगी है और क्यों इसका विरोध किया जा रहा है। सच कहा जाए, तो विरेाध का कोई कारण नहीं है। इस समय जो भी विरोध हो रहा है, वह राजनीतिक है या भावनात्मक है, अथवा शुद्ध रूप से गलतफहमी पर आधारित है। यदि सरकार समुचित जनमत बनाकर ठीक समय पर इसका प्रस्ताव करती, तो प्रायः हर वर्ग इसका समर्थन करता, लेकिन उसने इस तरह इसका आकस्मिक धमाका किया है कि भावनाएं सारे तर्कों पर हावी हो गयी है और सरकार को पराजित करना या पीछे हटने के लिए मजबूर करना विपक्ष का ही नहीं, अपने सहयोगी घटक दलों का भी राजनीतिक लक्ष्य बन गया है। कें्रद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने कहा भी है कि सरकार के इस निर्णय को लागू करने में विभिन्न दलों का संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ आड़े आ रहा है। यद्यपि उनका यह प्रहार विपक्षी दलों पर था, लेकिन यह जुमला स्वयं उनकी पार्टी पर भी लागू हो रहा है।

भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश के विकास के लिए विदेशी पूंजी व विदेशी तकनीक की जबर्दस्त आवश्यकता है।देश के अनेक क्षेत्रों में विदेशी पूंजी व तकनीक के सहारे विकास हो रहा है। अब तो बीमा और बैंकिंग जैसे क्षेत्र भी विदेशियों के लिए खुल चुके हैं। किराना व्यापार का क्षेत्र इस देश में कृषि के बार रोजगार का दूसरा सबसे बड़ा साधन है, लेकिन यह अत्यंत असंगठित, पिछड़ा तथा असुरक्षित क्षेत्र बना हुआ है। इपने देश में कृषि क्षेत्र भी पिछड़ा हुआ है और किराना व्यापार का क्षेत्र, जबकि ये दोनों ही इस देश की अर्थव्यवस्था व समाज की रीढ़ हैं। वास्तव में इनके विाकस पर ही देश का वास्तविक विकास निर्भर है।

खुली अर्थव्यवस्था और ग्लोबलाइजेशन का जो दौर 90 के दशक मंें पी.वी. नरसिंहा राव सरकार के दौर में शुरू हुआ, उसके उनके बाद भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने बड़े उत्साह से आगे बढ़ाया, जिसमें पहली बार देश की विकास दर 3-4 प्रतिशत की दर से छलांग लगाकर 7-8 प्रतिशत तक पहुंची। औद्योगिक विाकस की दर पहली बार इस स्थिति में पहुंची की चीनी ड्र्ैगन की फुफकार और दक्षिण पूर्व एशियायी टाइगरों की दहाड़ के बीच भारतीय गज की गर्जना भी सुनाई देने लगी। इससे उत्साहित भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने किराना व्यापार के क्षेत्र में 100 प्रतिशत तक विदेशी निवेश को बढ़ाने का प्रस्ताव किया था। पूरे देश में अर्थव्यवस्था की चमक ने ही ‘फील गुड’ का नशीला वातावरण बनाया था, लेकिन 2004 के आम चुनावों में भाजपा की पराजय ने सारे ‘फील गुड’ की चमक उड़ा दी।

पी.वी. नरसिंहा राव के शासन काल में खुली अर्थव्यवस्था का पहला चरण शुरू करने वाले अर्थशास्त्री वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह 2004 में बनी कांग्रेस की सरकार में प्रधानमंत्री के पद स्थापित हुए। अब तो पूरे देश की पूरी लगाम उनके हाथ में थी, लेनिक वह उदारीकरण या ग्लोबलाइजेशन का अगला चरण नहीं शुरू कर सके। कांग्रेस फिर ग्रामीण पिछड़ेपन और गरीबी का सहारा लेकर सत्ता में पहुंची थी, इसलिए उसने आर्थिक क्षेत्र में सुधारों के बजाए देश के ग्रामीण पिछड़े व गरीब तबके को राहत पहुंचाने की ओर ध्यान दिया। किसानों के कर्जे माफ किये, ग्रामीण रोजगार योजना -मनरेगा- की शुरुआत की, मगर ऐसे सारे कार्यक्रमों को ठप रखा, जिससे अतिरिक्त पूंजी का उत्पादन हो या विदेशी पूंजी का आगमन सुनिश्चित हो। सत्ता की पहली पारी में यह सब न हो पाने के लिए वामपंथी दलों को दोषी ठहराया गया। केंद्रीय सत्ता चूंकि वामपंथी दलों के समर्थन पर टिकी थी, इसलिए कहा गया कि उसके विरोध के कारण सरकार अपने वायदे के अनुसार आगे नहीं बढऋ सकी, मगर सत्ता के दूसरे चरण में भी उसने अब तक पूरे कार्यकाल का लगभग आधा समय बीत जाने तक- कोई कदम नहीं उठाया। प्रधानमंत्री पिछले करीब डेढ़ साल से तो एकदम अनिर्णायक स्थिति में नजर आ रहे हैं। जो लोग यह आशा लगाये बैठे थे कि इस दूसरे चरण में आर्थिक सुधरों के सारे लंबित कार्यक्रम तेजी से शरू किये जायेंगे, उनका इस निष्क्रियता से निराश होना स्वाभाविक था। देश के तमाम आर्थिक विशेषज्ञों की राय में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जून-2004 से लेकर अब तक के अपने पूरे कार्यकाल में केवल एक सार्थक निर्णय लिया है और वह है किनारा क्षेत्र में विदेशी निवेश बढ़ाने का, लेकिन इसे भी ईमानदारी से नहीं लिया गया। उन्होंने इसे एक राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल किया। उद्देश्य देश की आर्थिक हालत सुधारना नहीं, बल्कि अन्ना हजारे के लोकपाल बिल, महंगाई तथा राजनीतिक भ्रष्टाचार की ओर से लोगों का ध्यान हटाना था। यों कुछ लोग यह मानते हैं कि इसके पीछे डॉ. मनमोहन सिंह का अपना निजी राजनीतिक उद्देश्य भी है। इतनें दिनों सत्ता में हरकर अब वह अर्थशास्त्री से बड़े राजनीतिक नेता बन गये हैं। इधर सत्तारूढ़ दल की राजनीति राहुल केंद्रित रूप ले रही थी। मनमोहन सिंह को दरकिनार किया जा रहा था। देश में यह वातावरण बनाया जा रहा था कि राहुल बस अब कभी भी देश और सत्ता का नेतृत्व संभालने ही वाले हैं। मनमोहन सिंह बस संक्रमण काल के नेता रह गये हैं। शायद उन्होंने भी अपनी यह स्थिति स्वीकार कर ली थी। मगर किराना क्षेत्र में एफ.डी.आई. बढ़ाने की घोषणा करके वह फिर सत्ता और राजनीति के केंद्रीय चर्चा के विषय बन गये हैं। लेकिन ऐसे महत्वपूर्ण निण्रय के समय सोनिया व राहुल का उनके समर्थन में खड़ा न दिखायी देना पार्टी में आंतरिक मतभेदों का संकेत माना जा रहा है। यों कांग्रेस हमेशा दोहरे चरित्र के साथ जीने वाली पार्टी रही है। सरकार का एक चरित्र दिखायी देता रहा है, पार्टी का दूसरा। शायद अभी भी यही संतुलन साधा जा रहा है। अभी पिछले दिनों महंगाई के प्रश्न पर जब सरकार पेट्र्ोलियम पदार्थों की कीमतें बढ़ाने की वकालत कर रही थी, उस समय पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी उससे इस पर पुनर्विचार करने का अनुरोध कर रही थीं।

भारत की सामान्य मानसिकता किसी भी क्षेत्र में विदेशी हस्तक्षेप के खिलाफ है। लंबे समय की गुलामी के दौर से गुजरने के कारण यदि यह भय पूरी राष्ट्र्ीय मानसिकता में पैठ गया है, तो कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं है, लेकिन अब उसे इस मानकिसता से बाहर निकालने की जरूरत है। आज का जमाना ईस्ट इंडिया का जमाना नहीं है। आज अंतर्राष्ट्र्ीय कंपनियों को भी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। यह सही है कि वे मुनाफे के लिए पूंजी निवेश कर रही हैं, लेकिन यह मुनाफा उनकी कार्यदक्षता और प्रबंध कौशल पर निर्भर है, अन्यथा उन्हें भी घाटा उठाना पड़ता है। अभी गत वर्ष ही शेयर बाजार में विदेशी कंपनियों को 45 प्रतिशत तक का नुकसान उठाना पड़ा। ईस्ट इंडिया कंपनी ने यहां प्रतिस्पर्धा का अवसर ही समाप्त कर दिया था, लेकिन आज कोई विदेशी कंपनी ऐसा कर सकने में सक्षम नहीं है। दुनिया के अन्य देशों के अनुभव बताते हैं कि किराना क्षेत्र में विदेशी पूंजी को मिली छूट से उन देशों को लाभ ही पहुंचा है। यह धारणा तथा इसका प्रचार बिल्कुल गलत है कि इससे रोजगार के अवसर घटेंगे। अपने ही देश के अब तक के आंकड़े लें, तो खुदरा विक्रय की संगठित उन युवक-युवतियों को इसमें रोजगार का अच्छा अवसर मिल रहा है, जो उच्च शिक्षा से वंचित रह गये हैं, क्योंकि इसमें किसी तरह के कौशल या दक्षता से अधिक आपका व्यवहार काम आता है, जिससे कि आप ग्राहकों को संतुष्ट कर सकें। इतना तो साफ देखा जा सकता है कि पारंपरिक व्यापारिक दुकानेां पर काम करने वाले लड़के-लड़कियां बेहतर स्थिति में हैं। उन्हें बेहतर वेतन व सुविधाएं ही नहीं, एक सम्मानित जीवन जीने का भी अवसर मिल रहा है। विनम्रता और शिष्टाचार उनकी व्यावसायिक आवश्यकता बन जाने के कारण उनके सामान्य व पारिवारिक आचरण में भी फर्क आ रहा है। फिलीपिंस, थाईलैंड, मलेशिया और चीन के उदाहरण हमें बताते हैं कि विदेशी खुदरा कंपनियों के प्रवेश से वहां रोजगार की संख्या घटी नहीं, बल्कि बढ़ी है। ब्राजील, थाईलैंड तथा मलेशिया के आंकड़े बताते हैं कि इनके कारणवहां बेरोजगारी घटी है और देश का कुल राजस्व बढ़ा है।

आप कह सकते हैंे कि किराना क्षेत्र में विदेशी पूंजी का आगमन यदि इतना हितकारी है, तो इस देश के किराना व्यापारी क्यों इतने आशंकित हैं कि वे विरेाध में सड़कों पर उतर आये हैं तथ राष्ट्र्ीय स्तर पर बंद का आह्वान करके अपना विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। इसका कारण निश्चय ही उनके अंदर फैला यह भय है कि किराना क्षेत्र में विदेशी कंपनियों के आ जाने के बाद उनकी छुट्टी हो जायेगी। यह धारणा कुछ तो गलतफहमीवश और कुछ राजनीतिक पार्टियों के प्रचारवश है, लेकिन इसका कुछ वाजिब कारण भी है। वाजिब व किसी हद तक वास्तविक कारण यही है कि यहां का किराना या खुदरा व्यापार का क्षेत्र अपने व्यवसाय के स्तर पर संगठित नहीं है और यदि इस देश में कृषि और व्यापार की कोई वैज्ञानिक व्यवस्था कायम करनी है, तो उनका व्यवसायिक स्तर पर संगठित होना जरूरी है। इसके लिए शासन की तरफ से जरूरी आर्थिक, तकनीकी व कानूनी मदद उपलब्ध कराये जाने की जरूरत है। मलेशिया व थाईलैंड आदि देशों की सरकारों ने यही किया। मलेशिया में 1995 में जब विदेशी किराना कंपनियों के प्रवेश की छूट मिली, तो वहां की सरकार अपने पारंपरिक किराना व्यापारियों की मदद के लिए आगे आयी। अपने देश् की राज्य सरकारें भी ऐसे विदेशी अनुभवों का लाभ उठा सकती हैं।

वास्तव में इस देश के राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे विदेशी कंपनियों का भय दूर करें और देशी व्यापारियों को इस तरह संगठित व साहसी बनाएं कि वे अपने देश में ही नहीं, दूसरे देशों में जाकर अपनी खुदरा व्यापार श्रंृखला शुरू कर सकें। देश को यह समझाने की जरूरत है कि विदेशी कंपनियां आएंगी, तो वे अपनी पूंजी के साथ नई तकनीक, नया प्रबंध कौशल तथ नया ज्ञान स्रोत भी लाएंगी, जिसका हम लाभ उठा सकेंगे। अव्वल तो में यह समझ लेना चाहिए कि कितनी भी विदेशी कंपनियां आ जाएं, वे इस विशाल देश की सौ प्रतिशत आवश्यकता को पूरा नहीं कर सकती, किंतु उनके अनुभव, ज्ञान और कौशल का इस्तेमाल करके हम अपने देश् की पूरी कृषि और व्यापार प्रणाली की काया पलट कर सकते हैं।

यह कए कड़वी सच्चाई है कि हमारा देश अभी भी औपनिवेश्काल वाली गुलामी की मानसिकता में जी रहा है। हमारा उत्पादक-वितरक-उपभोक्ता संबंध बिगड़ा हुआ है। वितरक या व्यापारी को उत्पादक व उपभोक्ता दोनों को शोषक समझा जाता है। अंग्रेज व्यापारियों ने इसी संस्कृति को जन्म दिया था, जिसे यहां के क्या, औपनिवेशिक क्षेत्र के सारे देशी व्यापारियों ने भी अपना लिया। कम्युनिस्ट राजनेताओं ने आम आदमी-कृषक व मजदूरों को व्यापारियों व उद्योगपतियों के खिलाफ भड़काया। उन्होंने उत्पादक-वितरक व उपभोक्ता के बीच सहयोगपूर्ण सौहार्द्य का संबंध स्थापित करने की कभी कोशिश नहीं की।

खुदरा व्यापार की नई संस्कृति उत्पादक व वितरक के बीच घनिष्ठ संबंधों पर आधारित है। नई टेक्नोलॉजी इसमें उसकी मदद कर रही है। हमारे देश के पास हजारों वर्षों का एक समृद्ध व्यापारिक अनुभव है, लेकिन यह अलग-अलग व्यावसायिक घरानों के पास कैद है। इसके साथ यदि आधुनिक वैज्ञानिक प्रणाली व तकनीकी कौशल जुड़ जाए, तो यहां का खुदरा व्यापारी भी चमत्कार कर सकता है, लेकिन इसके लिए अंतर्राष्ट्र्ीय सहयोग व अनुभव एवं तकनीकी ज्ञान का आदान-प्रदान आवश्यक है।

अभी इस देश का वातावरण बहुत ही संवेदनशील और उत्तेजनापूर्ण है, इसलिए सरकार के लिए बेहतर है कि एफ.डी.आई. के वर्तमान मसले को कुछ समय के लिए टाल दे। भ्रष्टाचार पर नियंत्रण, काले धन की वापसी आदि कम महत्वपूर्ण मुद्दे नहीं हैं, इनको निपटाने के बाद उसे पूरी गंभीरता के साथ खुदरा व्यापार के क्षेत्र में पूंजी निवेश बढ़ाने के मसले को हाथ में लेना चाहिए। मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महाथिर मोहम्मद ने अभी नई दिल्ली में हिन्दुस्तान टाइम्स के एक आयोजन में कहा कि ज्यादा लोकतंत्र भी आर्थिक विकास में बाधक होता है। भातर यदि चीन जैसा होता, तो अधिक विकास किया होता। यह बात किसी हद तक सही हो सकती है, लेकिन भारत में छलपूर्ण लोकतंत्र विकास में बाधक बना रहा है। लोकतंत्र यदि पारदर्शी हो और उसमें निहित स्वार्थ आड़े न आता हो, तो वह आर्थिक विकास में हमेशा सहायक ही बनेगा, बाधक नहीं। भारतीय मानसिकता सहज लोकतांत्रिक है, इसे उपनिवेश काल की शोषक संस्कृति ने भ्रष्ट कर रखा है, यदि वह एक बार उससे बाहर निकल जाए, तो फिर उसकी प्रगति के लिए चीन जैसी जकड़न वाली व्यवस्था को कभी आदर्श नहीं बताया जाएगा। 4-12-2011



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