अपने अस्मिता लोप के खतरे में पड़ा उत्तर प्रदेश
प्रस्तावित विभाजन
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने भारत के इस प्रतिनिधि राज्य के चार टुकड़े करने का प्रस्ताव किया है। यह प्रस्ताव यदि केंद्र सरकार द्वारा स्वीकृत कर लिया गया, तो देश् में 4 नये प्रदेश जुड़ जायेंगे और उत्तर प्रदेश का लोप हो जायेगा। यद्यपि किसी देश की भीतरी इकाइयों के विभाजन, पुनर्गठन या नाम परिवर्तन को कोई बड़ी बात नहीं माना जाता, किंतु जैसे किसी राष्ट्र की सीमाओं या स्वरूप का कोई ऐतिहासिक या सांस्कृतिक आधार होता है, उसी तरह इतिहास के विकासक्रम में स्वतः गठित हुए राज्यों की भी एक ऐतिहासिक व सांस्कृतिक अस्मिता होती है, जिसे केवल कुछ व्यक्तियों या दलों के राजनीतिक लाभ के लिए नष्ट नहीं किया जाना चाहिए।
बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष तथा उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने अपने इस राज्य को चार टुकड़ों में विभाजित करके चार नये राज्य बनाने का निर्णय लिया है। उनकी कैबिनेट ने उनके इस प्रस्ताव पर अपनी मुहर भी लगा दी है। अब यह प्रस्ताव विधानमभा के इसी सप्ताह शुरू होने जा रहे सत्र में पेश किया जाने वाला है। उसके पास होने में कोई दिक्कत है नहीं, इसलिए विधानसभा से पारित यह प्रस्ताव केंद्र सरकार के पास भेजा जायेगा। किसी राज्य के विभाजन या नये राज्य के निर्माण का पूरा अधिकार केंद्र के पास है। इसके लिए किसी विधानसभा के प्रस्ताव की कोई आवश्यकता नहीं, किंतु मायावती का कहना है कि इस विभाजन के बारे में वह केंद्र सरकार को कई बार पत्र लिख चुकी हैं, पर वह ध्यान नहीं देती, इसलिए इस बार वह अपना अनुरोध बाकायदे विधानसभा के प्रस्ताव के रूप में उसके पास भेजना चाहती हैं, जिससे केंद्र सरकार इस बात को समझे कि वह कोई अकेली उनकी इच्छा नहीं, बल्कि पूरे राज्य के बहुमत की इच्छा है कि 80 सांसदों वाले इस राज्य को कम से कम चार राज्यों में बांट दिया जाए। मायावती ने इन राज्यों के नाम भी प्रस्तावित कर दिया है- पूर्वांचल, अवध् प्रदेश, बुंदेलखंड तथा पश्चिम प्रदेश। इनका नक्श भी तय हो गया है और इसके साथ ही यह भी तय हो गया है कि किस राज्य में कितने और कौन-कौन से जिले, कितनी लोकसभा सीटें तथा कितनी विधानसभा सीटें आयेंगी।
ऐसे धमाकेदार प्रस्ताव पर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं आना स्वाभाविक है, लेकिन प्रायः सारी प्रतिक्रियाएं राजनीतिक लाभ-हानि तथा प्रशासनिक सुविधा-असुविधा व आर्थिक विकास की संभावनाओं को लेकर ही आ रही हैं। ऐसी कोई भी प्रतिक्रिया प्रमुखता से अब तक सामने नहीं आयी, जो इस प्रदेश के ऐतिहासिक व सांस्कृतिक महत्व या उसको पहुंचने वाली क्षति से जुड़ी हो या उसे रेखांकित करती है। ऐसा नहीं कि यह प्रदेश केवल अपनी विशाल जनसंख्या व सांसदों की संख्याबल से केंद्र की राजनीति को ही प्रभावित करता रहा है, बल्कि यह भरतीयता और भारतीय राष्ट्र की एक ऐतिहासिक व सांस्कृतिक मूर्ति भी गढ़ता रहा है। जहां तक राजनीतिक प्रभाव की बात है, तो यह विखंडित होकर भी वह करने में सक्षम रहेगा, क्योंकि राजनीतिक प्रभाव, क्षेत्र से नहीं, बल्कि उस क्षेत्र में सर्वाधिक प्रभाव वाले राजनीतिक दल के कारण पड़ता है। इस प्रदेश में जब तक कांग्रेस शक्तिशाली थी, तब तक ही लगता था कि पूरा देश इसी प्रदेश से नियंत्रित हो रहा है, लेकिन उसके हाशिये में जाने के बाद इसकी वह स्थिति नहीं रही। इसलिए विभाजन के बाद भी क्षेत्र की राजनीतिक हैसियत में कोई बदलाव आने वाला नहीं है। किंतु यह प्रदेश इस देश का जो सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व करता था, वह अवश्य टूट जायेगा। उत्तर प्रदेश अब तक क्षेत्रवादी भावनाओं से मुक्त सचमुच इस देश का प्रतिनिधित्व करता रहा है। यह अपने को पूरे भारत का सम्पिंडित रूप समझता रहा है। देश के किसी कोने के व्यक्ति के लिए यहां पराएपन का भाव नहीं था। स्वयं के लिए भ्ी कोई भिन्न भाव बोध नहीं था। इसलिए इसके पास कोई आंचलिक अहंकार भी नहीं था। सबके साथ मिल जाना और सबको मिला लेना इसकी प्रकृति रही है। इस देश को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में बांधने वाले राम, कृष्ण और शिव के मूल केंद्र और अनादि भारतीय सांस्कृतिक प्रवाह का प्रतिनिधित्व करने वाली गंगा-यमुना की धाराएं इसी प्रदेश में बहती रही हैं। उनका महान संगम भी इसी प्रदेश के हृदयस्थल में हुआ। संयोगवशात ही इस प्रदेश ने वह रूप ले लिया था कि गंगा-यमुना का उद्गम, उनका पर्वतों से मैदान में अवतरण और फिर उनका संगम सब कुछ इस प्रदेश की सीमा में सिमट गया। लेकिन राजनीतिक स्वार्थ दृष्टि से इस सांस्कृतिक प्रतिमा का विखंडन वर्ष 2000 यानी इस शताब्दी के पहले ही वर्ष में शुरू कर दिया, जब इसका शिरोभाग अलग करके उत्तराखंड नाम से एक अलग राज्य बना दिया गया। अब इसके चार और टुकड़े करने का प्रस्ताव है। यदि यह प्रस्ताव स्वीकृत हो गया और चार नये राज्य बन गये, तो उसके साथ ही ‘उत्तर प्रदेश‘ का यह नाम भी विलीन हो जायेगा। और फिर इसके साथ ही अंत हो जायेगा एक इतिहास का एक सांस्कृतिक बोध का और एक क्षेत्रीयता की भावना से मुक्त सामाजिक सोच था।
वर्तमान उत्तर प्रदेश प्राचीन आर्यावर्त क्षेत्र का मुख्य भाग था। पुराण प्रसिद्ध प्राचीनतम राजवंशों-सूर्यवंश और चंद्रवंश दोनों की क्रीड़ा भूमि यही क्षेत्र था। भारतीय संस्कृति के निर्माता राम, कृष्ण ही नहीं बौद्धदर्शन के प्रवर्तक भगवान बुद्ध भी इसी क्षेत्र के थे। जैन संप्रदाय के अंतिम तीर्थंकर स्वामी महावीर का जन्म और निर्वाण भले ही बिहार में हुआ हो, लेकिन उनकी भी चारिका ज्यादातर इसी क्षेत्र में हुई। 23 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ तो काशी के ही थे, जो उत्तर प्रदेश में आता है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव सहित अधिकांश तीर्थंकरों की जन्मस्थली यही क्षेत्र है। चार तीर्थंकर तो अयोध्या में ही थे। इतिहास प्रसिद्ध प्रमुख वैदिक व वैदिकोत्त ऋषियों वशिष्ठ, विश्वामित्र, भरद्वाज, पतंजलि आदि के आश्रम इसी क्षेत्र में थे।
इस तरह ब्राह्मण, वैष्णव, जैन, बौद्ध इन चारों धर्मों की मुख्य भूमि यही प्रदेश है। भक्तिकाल के तुलसी, सूर, कबीर, जायसी जैसे महाकवि इसी भूमि के हैं। राजनीतिक दृष्टि से देखें तो उपर्युक्त पौराणिक राजवंशों के बाद इतिहास काल के तीन प्रमुख महाजनपद काशी-कोशल-कुरु इसी क्षेत्र में आते हैं। इस पूरे क्षेत्र पर आधिपत्य के बिना कोई भी राजा-महाराजा सम्राट कहलाने का अधिकारी नहीं बन सका। गुप्तकाल, हर्षवर्धन काल और उसके बाद के राजपूत काल में इस क्षेत्र की अपनी केंद्रीय राजनीतिक भूमिका रही। राजधानियों के केंद्र कहीं रहे हों, लेकिन अधिकतर आर्थिक, राजनीतिक व सामरिक गतिविधियों का केंद्र यह क्षेत्र ही रहा। 10 वीं शताब्दी के बाद दिल्ली के इस्लामी सल्तनत काल में भी यह क्षेत्र एक इकाई बना रहा। मुगलिया सल्तनत काल में भी गंगा-यमुना-रसयू का यह क्षेत्र ही उसका हृदय प्रदेश था और मुगल शासकों ने ही इस क्षेत्र को ‘हिन्दुस्तान‘ का नाम दे रखा था।
मुगलवंश के राजाओं हुमायू और अकबर के बीच के काल में इस पूरे क्षेत्र पर अपना एकछत्र राज्य काम करने वाले भारतीय राजा हेमचंद को तो आज लोग भूल चुके हैं, लेकिन उत्तर मध्यकाल में ‘विक्रमादित्य‘ की उपाधि धारण करने वाला वह एकमात्र भारतीय विजेता है, जिसने मुगलों को भी पराजित किया और उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश तथा बंगाल के कुछ हिस्सों को मिलाकर अपना साम्राज्य स्थापित किया और दिल्ली के पुराने किले में पारंपरिक भारतीय रीति से अपना राज्याभिषेक कराया और ‘सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य‘ का नाम धारण किया। उसने 22 लड़ाइयां लड़ीं और सबमें विजय हासिल की। उसने अकबर की सेना को भी परास्त किया। संयोगवश उसका राज्य अत्यल्पजीवी रहा। अकबर के दुबारा हुए हमले के समय पानीपत के मैदान में चल रहे युद्ध में अचानक एक तीर उसकी आंख में आ गया और वह अपने हाथी के हौदे में गिर गया। हाथी पर अपने सम्राट को न देखकर उसकी सेना ने मैदान छोड़ दिया और अकबर हारी हुई लड़ाई जीत गया। हेमंचद्र का सिर काट कर फरगाना ले जाया गया और वहां दिखाया गया कि देखो उस अजेय कहे जाने वाले हिन्दू सम्राट को मार डाला गया है। वास्तव में नवयुवक अकबर की सेना के तमाम अधिकारी और उसके अपने सलाहकार हेमचंद्र पर हमले के पक्ष में नहीं थे, उन सबका कहना था कि हेमचंद्र बहुत शक्तिशाली है, उसे अभी हजाया नहीं जा सकता, केवल बैरम खां चाहते थे कि जो भी हो, हमें हमला करना चाहिए। अकबर ने बैरम की राय मान ली और उसका सितारा चमक उठा। हेमचंद्र का सिर जहां फरगाना में लटकाया गया, वहीं उसका धड़ दिल्ली के उसके किले पर लटकाया गया, जिससे दिल्ली की जनता अपने सम्राट का हश्र देख ले और अकबर का आधिपत्य स्वीकार कर ले।
उत्तर प्रदेश का यह क्षेत्र सम्राट हेमचंद्र के राज्य का भी हृदय प्रदेश था। दिल्ली के सम्राट के पद पर शायद वह केवल एक महीने ही रह सका, क्योंकि भाग्यलक्ष्मी ने उसका साथ नहीं दिया, फिर भी उसने उत्तर प्रदेश कहे जाने वाले क्षेत्र पर अपनी अमिट छाप छोड़ी, क्योंकि इसकी ही सांस्कृतिक चेतना और शौर्य के बल पर उसने अपना साम्राज्य स्थापित किया था। मुगलकालीन उत्तर प्रदेश के इतिहास पर अब तक बहुत कम काम हुआ है। इतिहास मुगल शासन के बाद सीधे नवाबी शासन पर आ जाता है और लखनउ के नवाबों का गुणगान करने लग जाता है। वह उन स्थानीय संघर्षों का लेखा-जोखा तैयार करने में रुचि नहीं लेता, जो पूरे मुगलकाल में जारी रहा।
देश के स्वतंत्र होने के बाद उत्तर प्रदेश के नाम से जो प्रांत सामने आया, वह अंग्रेज बहादुरों की देन है। इसके बदलते नामों और भौगोलिक आकार का इतिहास भी बड़ा रोचक है, लेकिन एक बात उल्लेखनीय है कि अंग्रेजों की इस संरचना में उत्तर प्रदेश भारतीयता की एक संपूर्ण इकाई बना रहा, जिसे विखंडित करने का कार्य अब स्वतंत्र भारत में शुरू हुआ है।
18वीं शताब्दी में बंगाल पर कब्जे के बाद उत्तर प्रदेश में अंग्रेजों की जो विजय यात्रा शुरू हुई, वह 19वीं शताब्दी के प्रारंभ तक बनारस, बुंदेलखंड, कुमायूं, गढ़वाल व गंगा के दो आब से होकर दिल्ली, अजमेर और जयपुर तक पहुंच गया। यह पूरा क्षेत्र पहले बंगाल, प्रेसीडेंसी के अंतर्गत था और वहीं से शासित होता था, लेकिन बंगाल से इतनी दूर तक का शासन सूत्र संभालना उस समय मुश्किल था, इसलिए 1833 में बंगाल प्रेसीडेंसी का विभाजन कर दिया गया और उसके पश्चिमी हिस्से को ‘प्रेसीडेंसी ऑफ आगरा‘ नाम दिया गया। फिर 3 साल बाद ही इसे ‘नार्थ वेस्टर्न प्राविंसेज‘ (ऑफ आगरा) का नाम दिया गया और इसके लिए अलग ‘लेफ्टीनेंट गवर्नर‘ की नियुक्ति की गयी। 1857 की क्रांति के विफल होने के बाद अवध का क्षेत्र भी 1858 में अंग्रेजों के हाथ में आ गया, तो कुछ दिन बाद फिर प्रशासनिक फेरबदल हुए। अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ स्थानीय विद्रोह को कमजोर करने के लिए ‘नार्थ वेस्टर्न प्राविंसेज ऑफ आगरा‘ से दिल्ली क्षेत्र को काटकर पंजाब के साथ जोड़ दिया गया तथा अजमेर और मारवाड़ क्षेत्र को काटकर राजपूताना में मिला दिया गया। और इसके बाद 1877 में अवध को आगरा के साथ जोड़कर इस प्रांत को नया नाम दिया गया ‘नार्थ वेस्टर्न प्राविंसेज ऑफ आगरा एंड अवध‘। 1902 में इसका नाम फिर बदला गया और इसे ‘यूनाइटेड प्राविंसेज ऑफ आगरा एंड अवध‘ कहा जाने लगा। यहीं से इसके संक्षिप्त नाम ‘यू.पी.‘ की शुरुआत हुई। पहले इस प्रांत की राजधानी आगरा और इलाहाबाद के बीच बदलती रही, अंत में 1920 में इसे इलाहाबाद से हटाकर लखनउ कर दिया गया, लेकिन प्रांत का हाईकोर्ट अभी भी इलाहाबाद में ही बना हुआ हे, हां राजधानी लखनउ पहुंच जाने के कारण उसकी एक पीठ लखनउ में स्थापित कर दी गयी। यह स्थिति स्वतंत्रता प्राप्ति तब बनी रही । 1947 में स्वतंत्रता मिलने के बाद राज्य के पहले मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने इसका अंग्रेजी नाम बदलकर इसे वर्तमान ‘उत्तर प्रदेश‘ का नाम दिया। इस क्षेत्र में कुमायूं गढ़वाल से लेकर बलिया तक का क्षेत्र शामिल था। मगर स्वतंत्र भारत में वर्ष 2000 में केंद्र की भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार ने राज्य का विभाजन करके इसके पर्वतीय अंचल को काटकर ‘उत्तराखंड‘ के नाम से एक नया राज्य बना दिया। इस विभाजन के साथ ही देवभूमि कहा जाने वाला उत्तरांचल क्षेत्र इस राज्य से अलग हो गया, जिसके साथ ही गंगा और यमुना के उद्गम स्थल, बद्री और केदारधाम तथा हरिद्वार का गंगा अवतरण तीर्थ भी इसकी सीमा से बाहर हो गया। इसका दोनों विभाजित क्षेत्रों को भी जो राजनीतिक व आर्थिक लाभ मिला हो, किंतु उत्तर प्रदेश के रूप में सांचे में ढलकर निकली इस सांस्कृतिक भू प्रतिमा का अवश्य अंगभंग हो गया।
अब शेष बचे इस उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती इस बचे प्रदेश को भी चार टुकड़ों में बांटना चाहती हैं। बदरिकाश्रम और हरिद्वार तो अलग हो ही चुके थे, अब काशी और मथुरा भी अलग-अलग प्रांतों में बंट जाएंगे। प्रत्येक टुकड़ा अब अपनी स्वतंत्र सांस्कृतिक पहचान बनाने की कोशिश करेगा और क्षेत्रीय गौरव गाथाएं गढ़ेगा। क्षेत्रीय भाषाओं का आग्रह भी तेज हो सकता है। होना भी चाहिए, यदि देश के अन्य राज्य अपनी भाषाई इकाइयों के आधार पर गठित हुए हैं, तो ये प्रांत भी क्यों न इसका दावा करें।
बल्कि सच कहें तो मायावती के इस प्रस्ताव के कारण ‘द्वितीय राज्य पुनर्गठन आयोग‘ की जरूरत और तीव्रता से महसूस की जाने लगी है। दक्षिण में आंध्र प्रदेश का विभाजन करके तेलंगाना को अलग राज्य बनाने के लिए या महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र को अलग राज्य का दर्जा देने के लिए तो किसी नये आयोग की जरूरत नहीं, बस थोड़ी राजनीतिक निर्णय शक्ति की जरूरत है, लेकिन मायावती के इस प्रस्ताव को तो ज्यों का त्यों कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। यदि देश में एक बार भाषा आधारित प्रांत निर्माण का सिद्धांत स्वीकार कर लिया गया है, तो उत्तर भारत में भी इसे लागू होना चाहिए। ब्रज भाषा के आधार पर ब्रजमंडल, बुंदेली के आधार पर बुंदेलखंड, अवधी के आधार पर अवध प्रदेश तो पूर्व में भोजपुरी या काशिका के आधार पर उसे भोजपुर या काशीराज्य का नाम दिया जा सकता है। वर्तमान प्रस्तावित नामों में अवध एवं बुंदेलखंड के नाम तो ठीक हैं, किंतु ‘पूर्वांचल‘ व ‘पश्चिमी प्रदेश‘ जैसे नाम का कोई औचित्य नहीं है। एक प्रदेश की सीमा में तो उन्हें पश्चिमी या पूर्वी कहना ठीक था, लेकिन जब वे भारत देश के स्वतंत्र प्रांत बन जायेंगे, तब उनका यह नाम अवश्य अटपटा लगेगा। क्योंकि वे तो देश के मध्य में हैं, कोई पश्चिमी या पूर्वी छोर पर तो नहीं। और यदि उन्हें भाषाई आधार दिया गया, तो क्षेत्र निर्धारण की समस्या निश्चय ही जटिल हो जाएगी और कई नये विवाद भी खड़े हो सकते हैं। लेकिन मायावती का प्रस्ताव भी ज्यों का त्यों मानने के योग्य नहीं है, भले ही उसे उत्तर प्रदेश विधानसभा पारित ही क्यों न कर दे। यों भी यदि ऐसा हुआ, तो यह पहला अवसर होगा, जब उत्तर प्रदेश राज्य और उसकी विधानसभा 4 बच्चों को जन्म देकर अपना अस्तित्व ही समाप्त कर दे।
उत्तर प्रदेश सदैव भारतीय राजनीति साहित्य और सांस्कृतिक जीवन के केंद्र में रहा है। भारत के प्राचीन या मध्यकालीन ही नहीं, आधुनिक इतिहास में भी इसकी भूमिका अग्रणी रही है। 1857 की क्रांति हो या उसके बाद का स्वातंत्र्य आंदोलन, इस प्रांत की भूमिका उसमें स्पष्ट रूप से पहचानी जा सकती है। पाकिस्तान के निर्माण का अभियान भी यहीं जन्मा और यहीं से आगे बढ़ा। समाजवादी आंदोलन का भी यह प्रदेश गढ़ रहा। जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव, राम मनोहर लोहिया, चंद्रशेखर, राजनारायण आदि ने कांग्रेस के भीतर जो समाजवादी गुट बना रखा था, उसका आधार उत्तर प्रदेश ही प्रदान कर रहा था। प्रथम अखिल भारतीय किसान सभा का गठन लखनउ में हुई (11 अप्रैल 1936) की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की महासभा में हुआ था, जिसमें प्रख्यात राष्ट्रवादी स्वामी सहजानंद सरस्वती को इसका पहला अध्यक्ष चुना गया था। ब्रिटिश कालीन जमींदारी प्रथा के विरुद्ध पहला आंदोलन इसी प्रदेश में शुरू हुआ था। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा अवश्य बॉम्बे (मुंबई) में हुई थी, किंतु उपनिवेशवादी सत्ता को उखाड़ फेंकने का पहला कार्य उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में चित्तू पांडेय ने कर दिखाया था। बलिया तभी से अंग्रेजों की शब्दावली में ‘बागी बलिया‘ बन गया था। स्वतंत्र भारत में इंदिरा गांधी के आपातकाल के विरोध में भी उत्तर प्रदेश ने अहम भूमिका अदा की।
किसी इतिहास के विद्यार्थी या भारतीय संस्कृति व परंपरा के प्रति आस्थावान नागरिक के लिए तो यह कल्पना ही कंपित करने वाली प्रतीत होती है कि ऐसा भी कोई समय आ सकता है, जब भारत के नक्शे से उत्तर प्रदेश के नाम का ही लोप हो जाए। माना की आज की पीढ़ी को केवल अधिक से अधिक राजनीतिक अधिकार और आर्थिक समृद्धि चाहिए और शायद उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों के विभाजन से उन राज्यों के रहने वालों की आकांक्षा पूरी हो जाए, किंतु यदि भारत के सांस्कृतिक व राजनीतिक इतिहास के प्रतीकों को सहेज कर नहीं रखा गया, तो भारतीयता की और उसकी रक्षा के संघर्षों की पहचान ही समाप्त हो जायेगी।
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को और शायद उनके समर्थकों को भी राष्ट्र और राष्ट्रीयता के किसी प्रतीक की आवश्कता ही नहीं रह गयी है। उन्होंने तो बुद्ध जैसे दार्शनिक आचार्य को अपनी जातीय राजनीति का प्रतीक बनाकर छोड़ दिया है, फिर उत्तर प्रदेश जैसे जमीनी टुकड़े को ऐतिहासिक व सांस्कृतिक अस्मिता का उनके लिए क्या मूल्य। यद्यपि अभी यह नहीं कहा जा सकता कि केंद्र सरकार उत्तर प्रदेश विधानसभा द्वारा पारित मायावती का प्रस्ताव स्वीकार ही कर लेगी, लेकिन मायावती को इसकी चिंता नहीं है। उनके तो दोनों हाथों में लड्डू हैं। कांग्रेस सरकार उनका प्रस्ताव माने तो ठीक, न माने तो ठीक। दोनों ही स्थितियों में उनकी अपनी राजनीति का रंग चोखा रहेगा।
कम से कम उत्तर प्रदेश में अलग-अलग राज्य बनाने की राजनीति करने वाले तो अब मायावती के खिलाफ कोई टिप्पणी नहीं कर सकेंगे। इसलिए विधानसभा चुनावों के ठीक पहले छेड़े गये उनके इस शिगूफे के लिए निश्चय ही उनके राजनीतिक कौशल की दाद देनी पड़ेगी, लेकिन कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश का नाम लोप करके चार नये राज्य बनाने की यह राजनीति वांछनीय नहीं कही जा सकती है।
साधारणतया दुनिया में राज्य की राजनीतिक सीमाओं, उनके भौगोलिक आकारों या उनके नामों में बदलाव की प्रक्रियाएं तो चलती ही रहती हैं। तमाम राज्य लुप्त होते रहते हैं, नये बनते रहते हैं । और उत्तर प्रदेश तो एक राष्ट्र राज्य (नेशन स्टेट) का एक खंड मात्र (सब स्टेट) है, फिर उसके टुकड़े होने, नाम बदलने या नाम लोप होनेकी चिंता क्यों की जाए। बात किसी हद तक सही है, लेकिन उत्तर प्रदेश इस भारत देश के लिए मात्र एक प्रांतीय प्रशासनिक इकाई भर नहीं है। वह अपनी समग्रता में भारतीय राष्ट्रीयता की आत्मा को संजोए हुए है। उसमें भारत निहित है, भारतीयता निहित है और भारतीयता की रक्षा करने वाले संघर्ष की प्रेरणा निहित है। इस प्रांत का इस तरह हथौड़ा मार विखंडन इस आत्मा के लिए क्षतिकारक है, जिसे रोका ही जाना चाहिए। वैसे काल प्रवाह किसके रोके रुका है, किंतु उदात्त एवं श्रेष्ठ सांस्कृतिक प्रतीकों की रक्षा तो काल से लड़कर भी की जानी चाहिए।
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