गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

हजारे की व्यवस्था परिवर्तन की जंग


नई दिल्ली स्थित जंतर-मंतर पर अपने समर्थकों के साथ अन्ना हजारे



गांधीवादी नेता अन्ना हजारे ने राजनीतिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध जंग का पहला मोर्चा मात्र 4 दिनों में फतह कर लिया। उनकी इस मुहिम को जैसा देशव्यापी समर्थन मिला, वह असाधारण है। कल तक जो असंभव समझा जा रहा था, वह अब संभव लगने लगा है। देश का पूरा युवा वर्ग और समाज के हर क्षेत्र के लोग जिस तरह अन्ना के समर्थन में उमड़ पड़े, उसकी कल तक कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। निश्चय ही यह इस बात का प्रमाण है कि देश बदल रहा है। लेकिन अन्ना की इस पहली जीत से बहुत अधिक खुश होने की जरूरत नहीं है। यह मात्र शुरुआत है। भ्रष्टाचारी तंत्र इतनी जल्दी पराजित होने वाला नहीं। फिर एक जनलोकपाल की नियुक्ति हो जाना भी भ्रष्टाचार की समाप्ति की कोई गारंटी नहीं। उसके लिए पूरी व्यवस्था व शासनतंत्र में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है। अन्ना मानते हैं कि उनकी यह जंग वास्तव में पूरी व्यवस्था को बदलने की जंग है। सवाल है क्या उनके समर्थक इस लंबी व मुश्किल जंग के लिए तैयार हैं ?



यह कहा जा सकता है कि अन्ना हजारे के नाम से लोकप्रिय प्रसिद्ध गांधीवादी नेता किसन बापट बाबू राव हजारे ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी लड़ाई का पहला मोर्चा फतह कर लिया है। अन्ना को मिले देशव्यापी विराट समर्थन के आगे हठी सरकार को अंततः झुकना ही पड़ा। उसने अन्ना की मांग के अनुसार जन लोकपाल बिल का प्रारूप तैयार करने के लिए सरकार और नागरिक समाज /सिविल सोसायटी/ के प्रतिनिधियों की संयुक्त समिति बनाना स्वीकार कर लिया है। उसने इस समिति के दो अध्यक्ष बनाये जाने की मांग भी मान ली है और यह भी स्वीकार कर लिया है कि समिति द्वारा तैयार ‘प्रारूप‘ को सरकारी स्तर पर अधिसूचित किया जायेगा। लेकिन यह वास्तविक लड़ाई के मार्ग में मिली एक प्रतीकात्मक विजय मात्र है, वास्तविक लक्ष्य अभी भी बहुत दूर है। अन्ना को इसका बोध न हो, ऐसा नहीं है। उन्होंने स्वयं कहा है कि उनकी यह जंग अभी आगे भी जारी रहेगी। 5 अप्रैल को शुरू अनिश्चिकालीन अनशन के साथ प्रारंभ इस संघर्ष को इसके अंजाम तक पहुंचाना है। अभी इस प्रारूप समिति के गठन का जो प्रारूप तय किया गया है, उसके अनुसार सरकारी पक्ष के पांच और नागरिक पक्ष के पांच प्रतिनिधि होंगे। समिति की अध्यक्षता केंद्रीय मंत्री प्रणव मुखर्जी करेंगे, जिनके साथ नागरिक पक्ष का सह अध्यक्ष होगा। पूर्व केंद्रीय मंत्री तथा वरिष्ठ अधिवक्ता शांतिभूषण सह अध्यक्ष का पद संभालेंगे। सरकार फिलहाल इस बात पर सहमत है कि जन लोकपाल बिल संसद के आगामी पावस सत्र में पेश कर दिया जायेगा, लेकिन जैसी की कहावत है कि प्याले और होंठों के बीच की दूरी भी काफी होती है, जिसके बीच कई बाधाएं आ सकती हैं, इस विधेयक का प्रारूप तैयार होने और उसके सदन में पेश होने और पास होने के बीच कम बाधाओं के आसान नहीं हैं।

लोकपाल विधेयक लाने की यह पहली तैयारी नहीं है। कम से कम 8 बार इसे लोकसभा या राज्यसभा में पेश किया जा चुका है, लेकिन कभी यह पारित नहीं हो सका। पहली बार 1969 में यह लोकसभा में पारित हुआ, लेकिन राज्यसभा तक नहीं पहुंच सका। इसके बाद 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 2001 तथा 2005 में इसे राज्यसभा में रखा गया, लेकिन रखे जाने के बाद उसमें कोई प्रगति नहीं हो सकी। 2004 में सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने इसे पास कराने का जनता से वायदा किया था, लेकिन अब तक वह क्या कर सके, यह सबके सामने है। इसके पास कराये जाने में सबसे बड़ा अवरोध यह खड़ा होता रहा कि किसे-किसे इसके दायरे में लाया जाए। इस पर अभी भी बहस चल रही है कि प्रधानमंत्री को इसकी सीमा में लाया जाए या नहीं और जो लोकपाल नियुक्त हो, उसका अधिकार क्षेत्र क्या हो। अभी सरकार द्वारा विधेयक का जो प्रारूप तैयार किया गया है, उसका लोकपाल पूरी तरह नख-दंत विहीन है। इसे शक्तिशाली बनाने के लिए ही अन्ना हजारे ने बार-बार सरकार को लिखा और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह तथा कानून मंत्री वीरप्पा मोइली से मुलाकातें भी की, लेकिन किसी ने उनकी बातों की ओर कान नहीं किया, जिससे हारकर उन्होंने दिल्ली में आमरण अनशन पर बैठने का निर्णय लिया।

सरकार ने पहले तो उनके अनशन की कोई परवाह नहीं की। लेकिन इस अनशन को जैसा देशव्यापी समर्थन मिला, उसे देखकर निश्चय ही सरकार घबड़ा गयी। उसे इस आंदोलन को ऐसे समर्थन की कतई उम्मीद नहीं थी। शायद इसकी उम्मीद अन्ना को भी नहीं रही होगी। पिछले दिनों मिस्र में हुई क्रांति /जिसमें वहां के राष्ट्रप8ति को गद्दी छोड़कर भागना पड़ा/ के संदर्भ में जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि जैसा वहां काहिरा के तहरीर चौक पर हुआ, वैसा यहां कुछ नहीं हो सकता, क्योंकि यहां एक सफल लोकतांत्रिक व्यवस्था काम कर रही है। आम जनता के बीच भी इस तरह के सवाल उठ रहे थे कि क्या ‘रिवोल्यूशन जस्मिन‘ /जिसने प्रायः पूरे अरब जगत को अपनी चपेट में ले लिया है/ जैसा अपने देश में भी कुछ हो सकता है। जवाब नकारात्मक मिल रहा था, लेकिन 5 अप्रैल को जंतर-मंतर पर शुरू हुए अन्ना के अनशन के बाद जो नजारा देखने को मिला, वह चकित करने वाला था। यह तहरीर चौक की क्रांति से कुछ भिन्न भले रहा हो, लेकिन यह किसी तरह उससे कम नहीं था। 72 वर्ष की आयु में अन्ना द्वारा उठाये गये एक छोटे से गांधीवादी कदम ने प्रायः पूरे देश को एक जुनून से भर दिया। उन्हें जिस तरह का चौतरफा समर्थन मिलना शुरू हुआ, वैसा समर्थन तो संपूर्ण क्रांति के आह्वानकर्ता जयप्रकाश नारायण को भी नहीं मिला था। जयप्रकाश नारायण ने बिहार की राजधानी पटना के गांधी मैदान से अपने क्रांति का बिगुल फूंका था। यद्यपि इसमें पुरानी पीढ़ी के राजनीतिक नेतागण भी शामिल थे, किंतु यह एक युवा आंदोलन था। बिहार का पूरा युवा समुदाय उनके साथ था। आश्चर्य की बात थी कि बिहार के इस आंदोलन की प्रतिध्वनि उससे हजारों मील दूर गुजरात में गूंजी। वहां का भी युवा व छात्र समुदाय सड़कों पर निकल आया। लेकिन यह पूरा आंदोलन देश के केवल इन दो प्रांतों तक सीमित रह गया था, जबकि आज अन्ना हजारे के आंदोलन की प्रतिध्वनि न केवल देश के हर कोने में गूंज उठी, बल्कि विदेशों में बसे भारतीय समाज के लोग भी उनके साथ एकजुटता दिखाने के लिए उठ खड़े हुए। यू.एस. में लॉस एंजेलस सहित कई नगरों में प्रवासी भारतीयों ने एक दिन का उपवास रखा। यहां देश के भीतर दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, पंजाब, तमिलनाडु, गुजरात, कर्नाटक, उड़ीसा, झारखंड आदि प्रायः सारे प्रांतों में युवा छात्र-छात्राओं, शिक्षकों, वकीलों तथा अन्य तमाम क्षेत्रों के लोगों ने धरना-प्रदर्शन, अनशन आदि करके भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष में अपनी एकजुटता का प्रदर्शन किया।

अन्ना के साथ देश का केवल युवा या छात्र वर्ग ही नहीं, मुंबई, हैदराबाद व चेन्नई के फिल्म जगत तथा देश भर के शीर्ष उद्यमियों का समूह भी अपनी एकजुटता प्रदर्शित करने में पीछे नहीं रहा। इस देश का मनोरंजन जगत तथा उद्योग जगत सामान्यतया सभी राजनीतिक आंदोलनों-प्रदर्शनों से अपने को दूर रखने में ही विश्वास करता रहा है, लेकिन भ्रष्टाचार के मुद्दे ने उन्हें भी अन्ना के साथ खड़े होने को मजबूर कर दिया। अभिनेता अनुपम खेर और आमिर खान ने क्रिकेट से अधिक अन्ना हजारे को समर्थन देने की अपील की। निर्माता-निर्देशक रामगोपाल वर्मा जैसे लोगों को छोड़ दें, जो केवल अपनी फिल्मों में ही मशगूल रहते हैं और यह नहीं जानते कि अन्ना हजारे कौन हैं और दिल्ली में वह क्या कर रहे हैं, तो देश के मनोरंजन व्यवसाय का कोई चर्चित व्यक्ति ऐसा नहीं है, जिसने भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना की मुहिम का समर्थन न किया हो।

भारतीय उद्योग जगत के अनेक शीर्ष उद्यमियों ने खुलकर भ्रष्टाचार विरोधी इस मुहिम का समर्थन किया है। शुक्रवार को गोदरेज समूह के चेयरमैन आदि गोदरेज, बजाज आटो के चेयरमैन राहुल बजाज, कोटक महेंद्र बैंक के वाइस चेयरमैन उदय कोटक तथा बायोकान के चेयरमैन व मैनेजिंग डायरेक्टर किरण मजूमदार शा ने अन्ना को अपना पूरा समर्थन देने की घोषणा की। शा ने कहा कि यह एक बड़ी बात है कि अन्ना जैसा कोई व्यक्ति इस मुद्दे को लेकर आगे आया है और जिसने देश के युवाओं में भी चेतना की एक चिंगारी जगा दी है। उद्यमियों के एक अन्य समूह ने- जिसमें जमशेद गोदरेज, अनु आगा, केशव महिंद्रा और अजीम प्रेमजी आदि शामिल हैं- प्रधानमंत्री को खुला पत्र लिखा हैं, जिसमें प्रशासन की कमियों के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए लोकपाल की नियुक्ति की मांग की गयी है। राहुल बजाज ने कहा है कि नये भ्रष्टाचार विरोधी कानून का प्रारूप तैयार करने वाली कमेटी के सदस्यों का चुनाव करने के लिए एक लोकतांत्रिक ढांचा होना चाहिए। अन्ना के आमरण अनशन का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि यदि उन्हें कुछ हो जाता है, तो यह किसी के लिए अच्छा नहीं होगा, इसलिए सरकार को एक-दो दिन में ही समुचित निर्णय ले लेना चाहिए।

इस व्यापक समर्थन का ही परिणाम है कि शुक्रवार के दोपहर तक जो सरकार अन्ना की बात मानने के लिए तैयार नहीं थी, उसने रात होने तक अपने हथियार डाल दिये और उनकी सारी मांगें मान लीं। उसने अपनी केवल यह जिद पूरी कर ली कि प्रारूप समिति का अध्यक्ष सरकार का ही प्रतिनिधि होगा। अन्ना ने भी इस मुद्दे पर इस बात से समझौता कर लिया कि सरकारी अध्यक्ष के समानांतर नागरिक प्रतिनिधियों का एक सह अध्यक्ष होगा, जिसके अधिकार सरकारी अध्यक्ष् के समान ही होंगे।

सरकार ने प्रारूप समिति में नागरिक प्रतिनिधियों को शामिल करना तो पहले ही स्वीकार कर लिया था, लेकिन वह अध्यक्षता के प्रश्न पर समझौता करने के लिए तैयार नहीं थी। वह इसके लिए भी तैयार नहीं थी कि संयुक्त प्रारूप समिति को कोई औपचारिक दर्जा दिया जाए और उसकी अधिसूचना जारी की जाए। इस पर गुरुवार को अन्ना ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को अलग-अलग पत्र लिखा। इस पर शुक्रवार को सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह से मुलाकात की और अन्ना की मांगों पर चर्चा की। उनके साथ केंद्रीय मंत्री प्रणव मुखर्जी, कपिल सिब्बल व वीरप्पा मोइली तथा सोनिया के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल भी उपस्थित थे। इस बैठक में अन्ना की बाकी दोनों मांगों को मानने से साफ इनकार कर दिया गया। इसकी सूचना जब अनशन पर बैठे अन्ना को दी गयी, तो उनका क्षुब्ध होना स्वाभाविक था। उन्होंने सरकार के इस अड़ियल रवैये के विरुद्ध अपना आंदोलन तेज करने के लिए 13 अप्रैल से राष्ट्रव्यापी जेल भरो आंदोलन शुरू करने का आह्वान किया। इस पर पूरे देश में जैसी प्रतिक्रिया शुरू हुई, उसका भी शायद सरकार को अनुमान नहीं था, लेकिन अन्ना के साथ देश की आम जनता की विराट एकजुटता को देखकर सरकार की सारी अकड़ ढीली पड़ गयी और उसने अन्ना के आगे हथियार डाल देने में ही अपनी भलाई समझी।

अन्ना की इस सफलता पर निश्चय ही देश के बहुत सारे लोग चकित हैं। ऐसा क्या हो गया कि लगभग पूरा देश एक साथ भ्रष्टाचार के विरुद्ध इस संघर्ष में उठ खड़ा हुआ। जहां यह समझा जा रहा था कि इस देश में लोग इतने खुदगर्ज हो गये हैं कि उन्हें किसी राष्ट्रीय मसले की कोई चिंता नहीं है। यहां का युवा भी केवल क्रिकेट के मामले में सक्रिय सचेतन और एकजुट दिखायी देता है। इस बार क्रिकेट वर्ल्डकप के फाइनल में भारत की जीत पर जैसा देशव्यापी हर्ष प्रदर्शन हुआ, वह अभूतपूर्व था, लेकिन भ्रष्टाचार के सवाल पर भी देश का युवा ऐसी ही एकजुटता दिखा सकता है, इसकी उम्मीद नहीं थी। मगर अन्ना के आंदोलन के समर्थन में युवा वर्ग जिस तरह आगे आया, वह अभूतपूर्व था। उसने यह सिद्ध कर दिया कि राष्ट्रीय मसलों के प्रति वह संवेदनशून्य नहीं है। जरूरत उसे सही राह दिखाने वालों की है।

सरकारी व राजनीतिक भ्रष्टाचार के एक के बाद एक होते भंडाफोड़ से इस देश का पूरा प्रबुद्ध समाज पक गया था, लेकिन उसे अपनी अभिव्यक्ति का कोई मार्ग नहीं मिल रहा था। राजनीतिक दलों में से किसी पर उसका कोई भरोसा नहीं रह गया था। विपक्षी दलों में भारतीय जनता पार्टी व अन्य दलों ने इस भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद की, लेकिन उन्हें कोई जनसमर्थन नहीं मिला। लगा कि देश के आम आदमी में इसको लेकर कोई चिंता नहीं है, भ्रष्टाचार को प्रायः सभी लोगों ने सत्ता और राजनीति का अभिन्न अंग मान लिया है। लेकिन ऐसा नहीं था। इन विपक्षी दलों की भी तो कोई ईमानदार छवि नहीं थी, इसलिए उनके साथ अपना स्वर मिलाने के लिए कोई तैयार नहीं था। लेकिन अन्ना हजारे जैसा एक स्वच्छ छवि का व्यक्ति सामने आया, तो यह पूरा समूह उसके समर्थन में उमड़ पड़ा। इस देश के उद्योगपतियों की ऐसी छवि बना दी गयी है कि मानो भ्रष्टाचार की काली गंगा उन्हीं के बीच से निकलकर देश में प्रवाहित होती है। किंतु सच्चाई यह है कि आज का उद्यमी भ्रष्टाचार के सहारे नहीं, अपने कौशल और श्रम के सहारे धन कमाना चाहता है। वह भ्रष्टाचार के लिए मजबूर है, क्योंकि देश की राजनीतिक व्यवस्था उसे भ्रष्ट आचरण अपनाने के लिए मजबूर करती है। बिना भ्रष्टाचार के वह व्यवसाय कर ही नहीं सकता, इसलिए उसने इसे व्यवसाय में आगे बढ़ने की अनिवार्य शर्त मान लिया है। लेकिन अन्ना के समर्थन में जिस तरह इस देश का उच्च व्यवसायी वर्ग सामने आया है, उससे स्पष्ट है कि वह भी भ्रष्टाचार मुक्त व्यवसाय करना चाहता है। वह स्वयं देश के राजनीतिक भ्रष्टाचार से ग्रस्त है।

पुरानी पीढ़ी के लोग आज की युवा पीढ़ी को सर्वाधिक दोषी करार देते हैं। वे उसे उच्छ्र्रृंखल, मूल्यहीन तथा केवल पैसा कमाने के लिए पागल समझते हैं। मगर अन्ना हजारे के इस आंदोलन ने सिद्ध कर दिया है कि नहीं आज का युवा वर्ग ऐसा नहीं है। वह जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति युगीन युवाओं से भी अधिक सचेतन, ईमानदार और उर्जावान युवा है। आज देश की करीब 75 प्रतिशत आबादी युवा वर्ग के अंतर्गत आती है। लोगों को विश्वास नहीं होगा कि इस समय देश की आधी युवा आबादी बोफोर्स कांड के बाद पैदा हुए युवाओं की है। यह उनका दुर्भाग्य है कि वे लगातार भ्रष्टाचार की कहानियां पढ़ते-सुनते युवा हुए हैं और प्रौढ़ावस्था की ओर बढ़ रहे हैं। वह अभी बोफोर्स की कहानी ही पढ़-सुनकर चकित होते थे कि किस तरह नई दिल्ली स्थित उसके एजेंट विन चड्ढा को संसद के पिछले दरवाजे से निकालकर विदेश भगाया गया, किस तरह दलाली का पैसा खाने वाले इतालवी व्यवसायी और गांधी परिवार के घनिष्ठ मित्र क्वात्रोच्ची को बचाया गया, सी.बी.आई. ने किस तरह इस पूरे मामले को खत्म करने के लिए अदालत में झूठ बोला कि इस मामले की जांच पर अब तक ढाई सौ करोड़ रुपया खर्च हो चुका है, जबकि वास्तविक खर्च मात्र 5 करोड़ है, लेकिन पिछले कई महीनों से वह राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला सुनती आ रही है। वह देख रही है कि ’मि. क्लीन‘ समझे जाने वाले प्रधानमंत्री भ्रष्टाचारियों को संरक्षण दे रहे हैं, भ्रष्टाचार के आरोपी अधिकारी को भ्रष्टाचार पर नियंत्रण करने वाले सी.वी.सी. /मुख्य सतर्कता आयुक्त/ के पद पर नियुक्त कर रहे हैं, भ्रष्टाचार में सपरिवार लिप्त देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद पर बैठे हुए हैं। भ्रष्टाचार का ऐसा संस्थागत संरक्षण, निर्लज्जता की ऐसी पराकाष्ठा। चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा। ऐसे में आशा की एक किरण बनकर सामने आये अन्ना हजारे, तो उनके साथ इस अंधकार से लड़ने के लिए कोलकाता से लेकर अहमदाबाद और शिमला से लेकर चेन्नई तक युवा वर्ग मोमबत्तियां जलाकर सड़कों पर निकल पड़ा।

निश्चय ही इससे देश में रोशनी की एक नई आभा प्रकट हुई है। लेकिन अंधेरा इतना कमजोर नहीं है, जितना कि अन्ना की इस पहली जीत से समझ लिया गया है। आज हवा का रुख देखते हुए परम भ्रष्ट भी भ्रष्टाचार के खिलाफ छिड़ी मुहिम में आ खड़े हुए हैं। इनसे सर्वाधिक सतर्क रहने की जरूरत है। देश में निश्चय ही बदलाव की एक हवा बही है। पूर्व सैनिक अन्ना हजारे ने इस हवा को एक दिशा प्रदान की है। यह हवा परिवर्तन की एक आंधी बन सकती है, लेकिन इसके लिए देश के युवा वर्ग को एक निर्णायक लड़ाई के लिए तैयार होना होगा। केवल जन लोकपाल की नियुक्ति हो जाने से ही देश से भ्रष्टाचार का अंत नहीं हो जायेगा, न इस देश का चेहरा ही बदल जायेगा। राज्यों में इसी उद्देश्य से नियुक्त लोकायुक्तों का क्या हश्र हुआ, यह प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। जरूरत है पूरी राजनीतिक व्यवस्था व शासनतंत्र में आमूलचूल परिवर्तन की। बिना इसके कोई भी संस्था या कोई भी किसी तरह की कोई सार्थक भूमिका नहीं अदा कर सकेगा। और यह व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई निश्चय ही बहुत लंबी और बहुत कष्ट साध्य है। क्या देश के नव कर्णधार इसके लिए तैयार हैं ?



2 टिप्‍पणियां:

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

आपका यह आलेख बहुत महत्वपूर्ण है....
अत्यंत तथ्यपरक एवं सारगर्भित लेख के लिये हार्दिक बधाई।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

यह एक विडम्बना ही कही जाएगी कि जो भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज़ उठाता है, उसी पर कीचड़ उछाली जाती है... शांति भूषण, रामदेव... न जाने और कितने इस कीचड़ की ज़द में आएंगे :(

थक हार कर राष्ट्र उसी ढर्रे पर चलता रहेगा॥ आपके विश्लेषण से सहमत॥