बुधवार, 26 जून 2013

प्रकाश एवं ऐश्‍वर्य साधना का उत्सव


दीपावली की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं पौराणिक परंपरा जो भी हो, लेकिन प्रकाशोत्सव और लक्ष्मी पूजन के रूप में अब यह एक सार्वभौम उत्सव है| दुनिया में कौन ऐसा व्यक्ति है, जो प्रकाश नहीं चाहता, समृद्धि नहीं चाहता, ज्ञान नहीं चाहता, ऐश्‍वर्य नहीं चाहता| यदि इस सब की चाहत है, तो दीपोत्सव मनाना चाहिए| लक्ष्मी एक देवी के रूप में मात्र एक प्रतीक हैं, असली उपासना तो ऐश्‍वर्य एवं धन-धान्य की है| पूरी दुनिया से दारिद्र्य मिटे, कुरूपता मिटे, अज्ञान मिटे, अनाचार मिटे, कुंठा एवं वैरभाव मिटे और उसकी जगह समृद्धि, ज्ञान, सदाचार, स्वास्थ्य, भ्रातृत्व एवं आनंद की स्थापना हो, यही तो संदेश है दीपावली का| और इसी की उपासना में सार्थकता है दीपावली की|


भारत के अधिकांश त्यौहारोत्सव ऐतिहासिक ऋतुचक्र की विशिष्ट स्थितियों एवं दार्शानिक परिकल्पनाओं तथा विश्‍वासों पर आधारित हैं| इन त्यौहारों का मूल तत्व आंतरिक एवं बाह्य सुख एवं आनंद की प्राप्ति है, लेकिन यह सुख या आनंद बिना पराक्रम, सत्संकल्प, धर्मनिष्ठा (कर्तव्यनिष्ठा) तथा वैश्‍विक तादात्म्य के संभव नहीं है, इसलिए प्राय: प्रत्येक ऐसे उत्सव के साथ ये तत्व भी जुड़ जाते हैं| रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, मकर संक्रांति, दशहरा, शरदपूर्णिमा, होली, दीपावली ऐसे ही त्यौहार हैं| इनमें भी दीपावली शायद इन सबमें विशिष्ट है| यह धार्मिक व आध्यात्मिक से अधिक एक भौतिक उत्सव है| इसके आयोजन में ऋतुचक्र की तो अपनी भूमिका है ही, लेकिन इसका मुख्य प्राप्तव्य है उन्नत स्वास्थ्य, समृद्धि एवं शाश्‍वत सुख की प्राप्ति तथा अज्ञान, दारिद्र्य, मृत्युभय आदि से आत्यंतिक मुक्ति और संपूर्ण पृथ्वी पर आनंद के आह्लादकारी प्रकाश का विस्तार| इसीलिए इसे कौमुदी महोत्सव की संज्ञा दी गई है| ऐसा उत्सव जिसमें पूरी पृथ्वी (कु- पृथ्वी, मोद- आनंद) सुख से खिल उठे और आनंद के प्रकाश से भर उठे| वस्तुत: यह कोई एक त्यौहार नहीं, बल्कि पांच त्यौहारों का समुच्चय है, जो परस्पर ऐतिहासिक व पौराणिक गाथाओं से परस्पर गुथे हुए हैं| कार्तिक (दक्षिण में आश्‍विन) कृष्ण त्रयोदशी को स्वास्थ्य के देवता भगवान धनवंतरि की पूजा की जाती है और उत्तम स्वास्थ्य की कामना की जाती है| इस तिथि को धन के देवता के साथ भी जोड़ दिया गया है| लोग इस दिन मूल्यवान धातुएं- स्वर्ण, रजत तथा रत्नों की खरीदारी करते हैं| अगले दिन यानी चतुर्दशी को मृत्यु के देवता यम की आराधना की जाती है और उनसे अकाल मृत्यु से मुक्ति की कामना की जाती है| इस दिन यम के नाम पर दो दीप जलाने का विधान है| पुराणों के अनुसार नरक से बचने के लिए चतुर्दशी के प्रात:काल सूर्योदय के समय तेल की मालिश करके स्नान करना चाहिए और फिर तेल युक्त जल से यम को तर्पण करना चाहिए| नरक में न जाना पड़े, इसलिए सायंकाल यम के नाम पर एक दीप जलाना चाहिए और उसी संध्या में ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि के मंदिरों में, मठों, अस्त्रागारों, चैत्यों, सभाभवनों, नदियों, भवन प्राकारों (चहारदिवारी) उद्यानों, कूपों, राजपथों, अंतःपुरों तथा सिद्धों, अर्हतों, बुद्ध, चामुंडा व भैरव के मंदिरों तथा अश्‍व व गजशालाओं में दीप जलाने चाहिए| यह विवरण भविष्योत्तर पुराण में दिया गया है| कई पुराणों में यह भी कहा गया है कि चतुर्दशी के अवसर पर भगवती लक्ष्मी तेल में तथा भगवती गंगा सभी प्रकार के जल में निवास करने आ जाती हैं और पूरे दीपोत्सव भर वहॉं बनी रहती हैं| इसलिए कहा जाता है कि इन दिनों में जो व्यक्ति प्रात:काल शरीर पर तेल मर्दन करके जल में स्नान करता है, वह यमलोक नहीं जाता और ऐश्‍वर्यवान बनता है| इसके साथ बाद में नरकासुर की एक कहानी भी जुड़ गई है, इसलिए इसे नरक चतुर्दशी की भी संज्ञा दी गई है| मूलत: इस दिन अकाल मृत्यु के साथ नरक से मुक्ति की अभिलाषा की जाती है, लेकिन नरकासुर का वध करके उसके संत्रास से संसार को बचाने के लिए भगवान विष्णु या कृष्ण की पूजा भी इस तिथि से जुड़ गई| इसका अगला दिन दीपावली का होता है| एक पुराण (भविष्योत्तर) में ‘दीपालिका’ शब्द भी आया है| इस रात्रि को सुखारात्रि या ‘सुख सुप्तिका’ भी कहा गया है| वात्स्यायन के कामसूत्र में इसे ‘यक्षरात्रि’ कहा गया है| यक्षों को धन-धान्य संपन्न और विलासी, सदा आनंदोत्सव में लीन माना जाता है, शायद इसीलिए इसे यक्ष-रात्रि की भी संज्ञा दी गई है| यक्षों के राजा कुबेर भी देवताओं में धन के देवता हैं, इसलिए प्राचीनकाल में इस रात्रि में यक्ष राज कुबेर की उपासना तथा उनके लिए दीपदान का विधान था| कालांतर में इसे ऐश्‍वर्य, सौंदर्य, सौभाग्य और धन-धान्य की देवी लक्ष्मी का जन्मदिन भी माना जाने लगा और मुख्य रूप से उनकी पूजा होने लगी| प्राचीन ऋषियों ने इसके साथ ही शायद यह भी सोचा कि बिना ज्ञान या बुद्धि के देवता गणेश के लक्ष्मी स्थिर ही नहीं रह सकती, इसलिए उनके साथ गणेश की पूजा भी जुड़ गई| वैष्ण्व मत व रामकथा के प्रचार के बाद इस दीपावली की तिथि का संबंध भगवान राम की लंका से अयोध्या वापसी के साथ भी जुड़ गया| दीपोत्सव राक्षसत्व पर रामत्व की विजय के स्वागत का प्रतीक पर्व बन गया| संयोगवश इसी तिथि को २४वें जैन तीर्थंकर स्वामी महावीर का परिनिर्वाण हो गया| उनके भक्तों, अनुयायियों व प्रेमियों ने इस अवसर पर दीप मालिका का आयोजन किया| कल्पना थी कि धरती पर जीवित प्रकाश स्वरूप जिनेंद्र महावीर के न रहने से धरती पर जो अज्ञान रूपी अंधकार पसर गया है, उसे मिटाने के लिए हजारों हजार दीप जलाए जाएँ| इस रात्रि में आकाशदीप जलाने का भी विधान है| प्राचीन काल में लोग आकाश की ओर उल्काएँ (जलती मशालें) फेंकते थे या उसे हाथ में ऊँचा उठाकर दौड़ते थे| यह पितरों को प्रकाश दिखाने का प्रतीक था, जिससे वे सुखपूर्वक अपने लोक में चले जाएँ| अभी कुछ दशक पहले तक लोग घरों के सबसे ऊंचे स्थानों पर या बॉंस के खंभे लगाकर उनके सिर पर कदीलें जलाया करते थे| उत्तर भारत में इसे आकाशदीप कहा जाता था| यह भी पितरों के निमित्त अर्पित था| असल में प्राचीन काल में प्राय: हर पर्व, त्यौहार, उत्सव, विवाह आदि के अवसर पर पितरों का अवश्य स्मरण किया जाता था और उन्हें पिंड दान किया जाता था| यह कृत्य इस दीपावली की सुखरात्रि में भी किया जाता था| चूंकि अमावस्या की रात्रि घोर अंधकारमय होती है, इसलिए आकाश मार्ग से वापस जाने वाले पितरों के लिए इस प्रकाश दीप की व्यवस्था की गई| ग्रामांचल में लक्ष्मी-गणेशादि के पूजनोपरांत नृत्य-गीत, खान-पान, उपहार वितरणादि के बाद जब पुरुषवर्ग निद्रालस शयनोन्मुख हो जाता था, स्त्रियां ढोल, डफ, सूप आदि बजाते हुए तथा कंठ से भी शोर करते हुए अलक्ष्मी या दारिद्र्य लक्ष्मी को गांव-नगर से बाहर भगाने का यत्न करती थीं| और उन्हें गांव-कस्बे की सीमा से बाहर करके और पुरानी वस्तुओं सूप, झाडू आदि वहीं फेंककर वापस आ जातीं| कई इलाकों में यह कृत्य इस अमावस्मा के बजाय कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी (देवोत्थानी एकादशी) की रात्रि में किया जाता है और ढोल, डफ, सूप आदि बजाने के लिए गन्ने के टुकड़े का इस्तेमाल किया जाता है| दशहरे की दशमी तिथि की तरह यह अमावस्या की तिथि भी अत्यंत पवित्र और शुभ मानी जाती है, इसलिए इस रात्रि में तंत्र-मंत्र की साधना करने वाले अनेक प्रकार का अनुष्ठान भी करते हैं| बंगाल में इस रात्रि लक्ष्मी के बजाय मुख्यत: काली की पूजा की जाती है| यह भी मूलत: तांत्रिक अनुष्ठान से संबद्ध पूजा थी| बंगप्रदेश को (जिसमें उड़ीसा से लेकर असम तक का क्षेत्र आ जाता है) प्राचीन काल में तंत्र साधना की मुख्य भूमि माना जाता था| भविष्योत्तर पुराण में अमावस्या को क्या करना चाहिए, यह विस्तार से बताया गया है| संक्षेप में उसका उल्लेख रोचक होगा| प्रात:काल सूर्योदय के समय तैलमर्दन के साथ स्नान (अभ्यंगस्नान), देव पितरों की पूजा, दही-दूध-घृत से पितरों का श्राद्ध तथा विविध व्यंजनों के साथ ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए| अपराह्न राजा को अपनी राजधानी में ऐसी घोषणा करनी चाहिए कि आज बलि का आधिपत्य है, हे लोगों, आनंद मनाओ| लोगों को अपने-अपने घरों में नृत्य-संगीत का आयोजन करना चाहिए, एक-दूसरे को ताम्बूल देना चाहिए, कुंकुम लगाना चाहिए, रेशमी वस्त्र धारण करना चाहिए, सोने और रत्नों के आभूषण पहनने चाहिए| स्त्रियों को सजधज कर समूह में निकलना चाहिए| रूपवती कुमारियों को इधर-उधर आनंद के प्रतीक चावल बिखेरने चाहिए| राजा को चाहिए कि वह अर्धरात्रि में निकलकर राजधानी में भ्रमण करे और लोगों के आनंदोत्सव को देखे|
यह दिन वैश्य-व्यापारियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि लक्ष्मी की असली आराधना तो उनके उद्यम से ही होती है| इसीलिए कहा भी गया है कि ‘व्यापारे वसति लक्ष्मी’| वे इस रात्रि अपने बही-खातों की पूजा करते हैं| पुराने बही-खाते बंद करते हैं, नए का प्रारंभ करते हैं| परंपरा से इस अवसर पर वे अपने मित्रों, ग्राहकों एवं अन्य व्यापारियों को आमंत्रित करते हैं और उनका ताम्बूल एवं मिठाइयों से सत्कार करते हैं| आजकल इसकी जगह दीपावली-मिलन के आयोजन होने लगे हैं और त्यौहार के अवसर पर मिठाइयों व मेवे के पैकेट भेजे जाने लगे हैं|
अगले दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा की तिथि आती है| इस दिन प्राचीनकाल में राजा बलि की पूजा की जाती थी| इस दिन भी प्रात:काल तैलाभ्यंग के साथ स्नान के उपरांत पूजा और तदनंतर आनंदोत्सव की परंपरा थी| विश्‍वास था कि इस दिन किए दान का कई गुना अधिक और अक्षय फल मिलता है| वामन और बलि की कथा भी इस तिथि से जुड़ी है| यज्ञ में वामनरूप विष्णु द्वारा बलि से तीन पग भूमि मॉंगने की कथा बहुत प्रचलित है| इस दिन भी सायंकाल दीपदान की प्रथा है| बलिराज्य के दिन दीपदान से लक्ष्मी स्थिर होती हैं | वैष्णव काल में कृष्ण द्वारा की गयी गोवर्धन पूजा का कृत्य इस दिन जुड़ गया| संभवत: कृष्ण ने बलि या इंद्र की पूजा बंद करवा के गोवर्धन पूजा का प्रारंभ किया| इस दिन परंपरया गायों और बैलों की पूजा की जाती है| गायों को दुहा नहीं जाता और बैलों से कोई काम नहीं कराया जाता| आजकल इस दिन विष्णु, राम व कृष्ण मंदिरों में भोग के आयोजन किए जाते हैं| अन्न (भोजन) का कूट (पर्वत) बनाया जाता है, फिर उसे वितरित कर दिया जाता है, इसलिए इसे ‘अन्नकूट’ भी कहा जाने लगा| कार्तिक शुक्ल द्वितीया का उत्सव भी अनूठा है| इसे भ्रातृद्वितीया (भाईदूज) के रूप में जाना जाता है| भविष्य पुराण की कथा है कि इस तिथि को यमुना ने अपने भाई यम को अपने घर भोजन के लिए आमंत्रित किया था| इसलिए इस तिथि को यम द्वितीया नाम मिल गया| धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि इस दिन व्यक्ति को दोपहर का भोजन अपने घर में नहीं, बल्कि बहन के घर में जाकर करना चाहिए| बहन को भेंट-उपहार देना चाहिए| यदि सहोदरा बहन न हो, तो चाचा या मौसी की पुत्री या अपने मित्र की बहन के यहॉं जाकर भोजन करना चाहिए और उपहार देना चाहिए|
दीपावली उत्सव का मूल कृत्य केवल तीन दिन का होता है, लेकिन एक दिन पहले धनतेरस और एक दिन बाद की यम द्वितीया ने इसे पंचदिवसीय बना दिया है| भाई-बहन के स्नेह संबंध के जुड़ जाने से इस उत्सव को एक अनूठा सामाजिक विस्तार मिल गया है, जो प्राचीन काल में स्त्री के महत्व और पुरुषों के उसके प्रति दायित्व को भी रेखांकित करता है, क्योंकि प्रत्येक स्त्री किसी न किसी की बहन भी होती ही है| इसलिए आज भी यह उत्सव अत्यंत प्रासंगिक है|
दीपोत्सव के तमाम धार्मिक कृत्य तो अब काल के गाल में लुप्त हो गए हैं, उन्हें केवल पुराणों व धर्मशास्त्रों में देखा जा सकता है, लेकिन प्रकाशोत्सव और लक्ष्मीपूजन उत्सव के रूप में इसकी अंतर्राष्ट्रीय व्माप्ति हो गई है| दुनिया में जहॉं-जहॉं भारतवंशी गये, वहॉं-वहॉं भारतीय संस्कृति भी पहुँची| यह क्रम हजारों साल से चला आ रहा है| आज दुनिया का शायद ही कोई एकाध देश ऐसा हो, जहॉं भारतीय न बसे हों| और दुनिया में जहॉं कहीं भी कोई भारतीय है, वह दीपावली का उत्सव अवश्य मनाता है| हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध सभी दीपोत्सव में समान रूप से भाग लेते हैं| सिखों के छठे गुरु हरगोविंद जी को मुगल जहांगीर ने कैद करवा लिया था| वह ५२ अन्य राजाओं के साथ ग्वालियर के किले में कैद थे| जहांगीर से गुरु को मुक्त करने के लिए कहा गया, वह राजी हो गए, लेकिन गुरु ने अन्य ५२ राजाओं की रिहाई का भी आग्रह किया| अपनी युक्ति से गुरु जी ने उन्हें भी मुक्त कर लिया| वे सब दीपावली के दिन ही जेल से रिहा हुए, इसलिए सिखों ने इस दिन विशेष रूप से उत्सव मनाया और इसे ‘बंदी छोड़ दिवस’ की संज्ञा दी|
नेपाल सांस्कृतिक रूप से भारत का ही अंग है, इसलिए प्राय: सभी भारतीय त्यौहार वहॉं भी पूरे उत्साह से मनाए जाते हैं| दीपावली भी वैसे ही मनाई जाती है, लेकिन कृत्यों में कुछ भेद है| जैसे यहॉं पॉंच दिन के त्यौहार का पहला दिन ङ्गकागतिहारफ कहा जाता है और उस दिन कौवों को खिलाया जाता है| कौवा शुभ संदेश लानेवाला पक्षी माना जाता है, इसलिए उसे यह सम्मान दिया जाता है| अगला दिन ‘कूकुरतिहार’ कहा जाता है| उस दिन कुत्तों को उनकी वफादारी के लिए खिलाया-पिलाया जाता है तथा सम्मान दिया जाता है| तीसरे दिन लक्ष्मी पूजा होती है और इस दिन गाय की भी पूजा की जाती है| जाहिर है, यहॉं त्यौहार पर पशुओं को अधिक महत्व दिया जाता है| लक्ष्मी पूजा का दिन नेपाली संवत् का अंतिम दिन भी होता है| अगला दिन नेपालियों का नववर्ष दिवस होता है| इस दिन शरीर की आराधना की जाती है| यानी अगले पूरे वर्ष के लिए स्वस्थ होने की कामना की जाती है| इसे वहॉं यम्हा पूजा कहा जाता है| अगला दिन भारत की तरह ही ‘भाई टीका’ का होता है, जिसमें भाई-बहन मिलते हैं| बहन-भाई को टीका करती है, भोजन कराती है और भाई उसे उपहार देता है| आज दुनिया के तमाम अन्य देशों, ब्रिटेन, नीदरलैंड, न्मूजीलैंड, सूरीनाम, कनाडा, गुयाना, केन्या, मॉरिशस, फिजी, जापान, इंडोनेशिया, मलेशिया, म्यांमार, सिंगापुर, श्रीलंका, दक्षिण अफ्रीका, तंजानियां, ट्रिनीडाड, टोबैगो, जमैका, थाईलैंड, आस्ट्रेलिया, संयुक्त अरब अमीरात तथा अमेरिका आदि में बड़े उत्साह से दीपोत्सव मनाया जाता है, जिसमें स्थानीय मूल के लोग भी भाग लेते हैं|
वास्तव में यह एक सार्वभौम त्यौहार है, जो अज्ञान, अनैतिकता, अन्याय, अनाचार, अंधकार एवं मृत्यु के विरुद्ध ज्ञान, नैतिकता, न्माम, सदाचार, प्रकाश एवं अमरता की विजय का उत्सव है| इसीलिए इस त्यौहार का महामंत्र है-
असतो मा सद्गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योमा अमृतंगमय
दारिद्र्यात् समृद्धिंगमय

वर्ष का श्रेष्ठतम मास - कार्तिक
 
भारतीय वर्ष गणना (संवत्सर) का आठवॉं महीना ‘कार्तिक’ वर्ष का सर्वाधिक पवित्र तथा महत्वपूर्ण महीना माना गया है| यह चातुर्मास की समाप्ति तथा नए सक्रिय आर्थिक वर्ष के प्रारंभ का महीना तो है ही, साथ ही यह उपासना, उत्सव तथा आध्यात्मिक साधना का भी महीना है| यह लौकिक तथा पारलौकिक दोनों दृष्टियों से वर्ष का सबसे अनूठा महीना माना जाता है|
प्राचीन विश्‍वासों के अनुसाार यह सब पापों से मुक्ति दिलाने वाला महीना है| भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं कि महीनों में कार्तिक मास मैं स्वयं हूँ, यानी भगवान कृष्ण ने भी इसकी श्रेष्ठता पर मुहर लगाई| वैष्णव एवं शैव दोनों ही धर्मोपासना विधियों ने इसके महत्व को स्वीकार किया है, विष्णु को यह मास इतना प्रिय है कि इस अवधि में अल्प उपासना करने वालों को भी वह सारे सांसारिक सुख एवं मोक्ष प्रदान करते हैें|
कार्तिक के महीने में दीपदान का विशेष महत्व है| दीप प्रकाश का स्रोत तथा ज्ञान का प्रतीक है| इसलिए जहॉं सामान्यजन प्रतीकात्मक रूप से दीपदान करते हैं, वहीं विद्वत्जन इस महीने में ज्ञान वितरण का कार्य करते हैं| अभी भी अयोध्या, प्रयाग तथा काशी जैसे तीर्थस्थलों में कल्पवास (तीर्थस्थल पर एक महीने का निवास, पवित्र नदियों में स्नान तथा इतिहास, पुराण एवं धर्मशास्त्रों आदि का अध्ययन, श्रवण करते हुए समय बिताना) करते हैं, तो विद्वत्जन ऐसे समय में वहॉं पहुँचकर अपनी ज्ञान संपदा का वितरण करते हैं|
इस महीने में दान का विशेष महत्व है, लेकिन सभी दानों में ‘दीपदान’ एवं ‘ज्ञानदान’ का विशेष महत्व है| लोग इस महीने के पूरे तीसों दिन तुलसी के बिरवे के निकट दीप जलाते हैं, नदियों-सरोवरों में दीप प्रवाह करते हैं, आकाश दीप जलाते हैं तथा घर के उन कोनों में भी प्रकाश करते हैं, जहॉं प्रायः अंधेरा रहता है|
पद्म पुराण में वर्णित ‘कार्तिक’ माहात्म्य के अनुसार भगवान विष्णु का पहला अवतार यानी ङ्गमत्स्यावतारफ इसी काल में हुआ था| कथा है कि शंख नामक असुर (शंखासुर) ने वेदों का अपहरण करके सागर तल में छिपा दिया था| भगवान विष्णु ने वेदों का (ज्ञान का) उद्धार करने के लिए मत्स्यावतार धारण किया और शंखासुर का वध करके वेदों को मुक्त कराया| पुराण के अनुसार कार्तिक शुक्ल एकादशी को भगवान विष्णु ने मत्स्यावतार ग्रहण किया था| इसलिए इस एकादशी को ‘हरिबोधिनी एकादशी’ भी कहते हैं, क्योंकि इस दिन उन्होंने वेदों का उद्धार करके बोध यानी ज्ञान की पुनर्स्थापना की थी| कार्तिक मास में दामोदर विष्णु की प्रधानता के कारण इसे दामोदर मास भी कहते हैं|
इस महीने के अंतिम पॉंच दिन सर्वाधिक  महत्वपूर्ण माने जाते हैं| इन्हें ‘भीष्म पंचक’ या ‘विष्णु पंचक’ के नाम से भी जाना जाता है| वैष्णव भक्तों का विश्‍वास है कि इन पॉंच दिनों के व्रत, उपवास, जप उपासना से पूरे महीने की उपासना का फल प्राप्त हो जाता है| चैतन्य महाप्रभु के अनुसार कार्तिक सर्वाधिक पवित्र मास है और इसके शुक्ल पक्ष की एकादशी सर्वाधिक महत्वपूर्ण तिथि, यह तो सभी जानते हैं किंतु इस मास के अंतिम पॉँच दिनों का अपार महत्व कम लोग जानते हैं| कुुरुवंशी पितामह भीष्म ने शरशय्या पर पड़े हुए अपनी मृत्यु की तैयारी के पूर्व इन्हीं पॉंच दिनों में पांडवों को राजनीति, समाजविज्ञान एवं अध्यात्म का उपदेश दिया था और कार्तिक मास के ज्ञानदान महोत्सव को पूर्णता प्रदान की थी|
इस वर्ष २०१२ में कार्तिक मास का प्रारंभ ३० अक्टूबर से हुआ और २८ नवंबर को यह समाप्त हो रहा है| महीने की शुरुआत में करवाचौथ का महत्वपूर्ण व्रत पड़ता है| उसके बाद अहोई अष्टमी आती है| करवाचौथ जहॉं पति की दीर्घायु कामना का व्रत है, वहॉं अहोई अष्टमी संतति रक्षा तथा उनके कल्याण के लिए है| इसके बाद दीपावली का पंचदिवसीय उत्सव आता है, जो धनतेरस से लेकर भैयादूज तक चलता है| इसके बाद सूर्योपासना का पर्व छठ पूजा, आमला की नवमी (इस दिन आंवला वृक्ष की पूजा की जाती है| अयोध्या में इस दिन इस तीर्थ नगर की चौदह कोसी - करीब ४२ कि.मी. की - परिक्रमा होती है, जिसमें लाखों लोग शामिल होते हैं), प्रबोधिनी एकादशी, भीष्म पंचक एवं तुलसी विवाहोत्सव का पर्व आता है और अंत होता है पूर्णिमा के स्नान से| पूर्णिमा वेदव्यास की पूजा का दिन है, जो संपूर्ण पारंपरिक भारतीय ज्ञान के प्रतीक हैं| इस दिन संत गुरु नानकदेव की जयंती भी मनाई जाती है| और इसके साथ ज्ञान, ध्यान, प्रकाश, ऐश्‍वर्य, स्वास्थ्य, जप, तप एवं आराधना-उपासना का माह कार्तिक समाप्त होता है|

जैव विविधता का बढ़ता क्षय
प्रकृति पर मंडराता खतरा

भारत सरकार अपनी जैव संपदा के संरक्षण के प्रति चिंतित तो नजर आती है, लेकिन वह उसके लिए गंभीरता से कुछ करती नजर नहीं आती| वह अब तक अपने क्षेत्र में उपलब्ध जीवों तथा वनस्पति प्रजातियों का आंकड़ा तक एकत्र नहीं कर पाई है| सरकार की नेशनल बायोडायवर्सिटी अथॉरिटी (एनबीए) अब तक देश के ७० प्रतिशत इलाके में पाई जाने वाली प्राणि-पादपों की केवल १ लाख ५० हजार प्रजातियों के आंकड़े एकत्र कर सकी है| जाहिर है अभी काफी बड़ी संख्या के आंकड़े एकत्र करना बाकी है| अभी कितनी अनजानी प्रजातियॉं पड़ी होंगी या अनजाने नष्ट हो रही होंगी इसका क्या पता| अभी २००५ में अरुणाचल प्रदेश में एक दुर्लभ जाति का बंदर मिला था| जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने २०११ में १९३ प्राणियों की १९३ नई प्रजातियों का पता लगाया| भारत के जल क्षेत्र में १३ हजार लुप्त प्रायः प्रजातियों की गणना की गई है, लेकिन हास्यास्पद तथ्य यह है कि भारत सरकार के पास इनके बचाव का फिलहाल कोई उपाय नहीं है|

इस अक्टूबर महीने की ८ से १९ तारीख तक हैदराबाद में एकत्र हुए दुनिया के करीब १२ हजार से अधिक विशेषज्ञों ने इस बात पर माथापच्ची की कि दुनिया के लुप्त हो रहे जीव जंतुओं तथा पादपों को कैसे बचाया जाए| इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन (आईयूसीएन) के अनुसार इस दुनिया की ९२९ जैव प्रजातियॉं विनाश के कगार पर में हैं| अब तक कितनी जैव प्रजातियॉं लुप्त हो चुकी हैं, इसका तो अनुमान भी लगाना कठिन है, लेकिन जो प्रजातियॉं खतरे में हैं, उनका तो बचाव किया जा सकता है| इन विशेषज्ञों की राय में विश्‍व की इस अनमोल जैविक संपदा के संरक्षण के लिए कम से कम ४० अरब डॉलर की जरूरत है| भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने इसमें अपनी सरकार की ओर से ५ करोड़ डॉलर के योगदान की घोषणा की है|
विशेषज्ञों का यह भारी दल संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में आयोजित कंवेंशन ऑन बायोलॉजिक डाइवर्सिटी (सी.बी.डी.) यानी जैव विविधता सभा के भागीदार देशों के ११वें सम्मेलन में भाग लेने के लिए हैदराबाद आया हुआ था| इस बार इस सम्मेलन की मेजबानी भारत ने की, क्योंकि वह इस सभा का महत्वपूर्ण सदस्य है| भारत अगले २ वर्षों के लिए सी.बी.डी. का अध्यक्ष भी है, इसलिए उसने काफी आगे बढ़कर इस सम्मेलन का एजेंडा तय किया| जैसे कि उसने समुद्री जीव संरक्षण के प्रस्ताव को विशेष प्रमुखता के साथ पेश किया| भारत के पास करीब ८००० किलोमीटर लंबा विशाल समुद्र तट है, जो जैव विविधताओं से भरपूर है| लेकिन इसके साथ ही यह भी एक दुखद यथार्थ है कि भारत के पास समुद्री जीव संरक्षण की न तो कोई योजना है, न कोई मशीनरी है और न ही कोई कानून| उसने सम्मेलन में आगे बढ़कर कागजी नेतागिरी तो अवश्य की है, लेकिन व्यवहार में उसने इस दिशा में अब तक कुछ नहीं किया है| और आगे भी कुछ खास हो सकने की संभावना नहीं है|
भारत जैव विविधता की दृष्टि से एक अत्यंत समृद्ध क्षेत्र है| यह भारी जनसंख्या वाला क्षेत्र ही नहीं है, भारज जैव-वानस्पतिक प्रजाति संख्या वाला देश भी है, लेकिन इसका परिणाम यह हुआ है कि इस देश में मानव जाति और अन्य जीवों के बीच संघर्ष भी बहुत सघन रहा है, जिसके फलस्वरूप यहॉं के जाने कितने जीव और वनस्पति प्रजातियॉं नष्ट हो चुकी हैं और जाने कितनी नष्ट होने की कगार पर हैं| पिछले कुछ दशकों में ही भारत कई उल्लेखनीय प्रजातियों को खो चुका है| इनमें भारतीय चीता, छोटे कद वाला गैंडा, गुलाबी सिर वाली बत्तख, जंगली उल्लू और हिमालय का पहाड़ी बटेर जैसे प्राणी भी शामिल हैं| भारत के जल क्षेत्र में पाई जाने वाली करीब १३ हजार प्रजातियां ऐसी हैं, जो विलुप्त होने के कगार पर हैं| भारत की कुल आबादी इस समय करीब एक अरब इक्कीस करोड़ है, जो दुनिया की पूरी जनसंख्या का १८ प्रतिशत है, लेकिन भारत के पास उपलब्ध कुल जमीन दुनिया का मात्र २.४ प्रतिशत ही है| इसी २.४ प्रतिशत जमीन में मनुष्यों तथा सारी अन्य जैव एवं पादप प्रजातियों को निवास करना है| मानव जनसंख्या में हो रही तीव्र वृद्धि के कारण जंगली जीवों और पादपों का इलाका लगातार कम होता जा रहा है| अपने आहार तथा आर्थिक विकास के लिए भी मनुष्य न केवल अन्य प्राणिक्षेत्रों को हथियाने में लगा है, बल्कि स्वयं उन प्राणियों और पादप प्रजातियों को भी निगलता जा रहा है| जनसंख्या विस्तार तथा भोग की बढ़ती भूख से मनुष्य तथा वन्य प्राणि समुदाय के बीच का संघर्ष उग्र से उग्रतर होता जा रहा है, जिसमें वन्य प्राणियों को ही पराजय एवं विनाश का शिकार होना पड़ा रहा है|
भारत सरकार अपनी जैव संपदा के संरक्षण के प्रति चिंतित तो नजर आती है, लेकिन वह उसके लिए गंभीरता से कुछ करती नजर नहीं आती| वह अब तक अपने क्षेत्र में उपलब्ध जीवों तथा वनस्पति प्रजातियों का आंकड़ा तक एकत्र नहीं कर पाई है| सरकार की नेशनल बायोडायवर्सिटी अथॉरिटी (एन.बी.ए.) अब तक देश के ७० प्रतिशत इलाके में पाई जाने वाली प्राणि-पादपों की केवल १ लाख ५० हजार प्रजातियों के आंकड़े एकत्र कर सकी है| जाहिर है अभी काफी बड़ी संख्या के आंकड़े एकत्र करना बाकी है| अभी कितनी अनजानी प्रजातियॉं पड़ी होंगी या अनजाने नष्ट हो रही होंगी इसका क्या पता| अभी २००५ में अरुणाचल प्रदेश में एक दुर्लभ जाति का बंदर मिला था| जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने २०११ में १९३ प्राणियों की १९३ नई प्रजातियों का पता लगाया| भारत के जल क्षेत्र में १३ हजार लुप्त प्रायः प्रजातियों की गणना की गई है, लेकिन हास्यास्पद तथ्य यह है कि भारत सरकार के पास इनके बचाव का फिलहाल कोई उपाय नहीं है|
‘बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी’ की नेहा सिन्हा ने उपर्युक्त सम्मेलन के संदर्भ में लिखे अपने एक आलेख में इस बात पर गहरी चिंता व्यक्त की है कि जब भारत सरकार के पास अपने जल क्षेत्र के जीवों के संरक्षण की कोई मशीनरी ही नहीं है, तो वह अपनी लुप्त होती प्रजातियों को विनाश से कैसे बचा सकेगी| उन्होंने गुजरात के ‘समुद्री राष्ट्रीय उद्यान’ (मैरीन नेशनल पार्क) के संदर्भ में एक वाकये का जिक्र किया है| उन्होंने उसके बारे में उसकी देखरेख के लिए नियुक्त एक अधिकारी से कुछ जानना चाहा, तो उसने साफ कहा कि ‘वास्तव में मुझे इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है कि वहॉं समंदर के नीचे क्या है|’ वह अधिकारी वन विभाग में कार्यरत था|  नेहा ने एक अन्य अधिकारी से बात की तो उसको यह भी पता नहीं था कि ‘कोरल रीफ’ जीवित समुद्री प्राणियों से निर्मित होती है| यह तो खैर उस ऑफिसर की बात रही, लेकिन सवाल है कि क्या भारत सरकार के लोगों को पता है कि वहॉं समंदर के नीचे क्या है? क्या हमारे वन विभाग के अधिकारी ही समुद्र जल की भी देखरेख कर लेंगे? हमारे वन विभाग का गठन वास्तव में जंगलों के प्रबंधन, चारागाहों के नियंत्रण, वन पादप आरोपण तथा वन्य जीवोंे के संरक्षण के लिए किया गया था| यद्यपि देश के पास समुद्री जीव संरक्षण की वैज्ञानिक व तकनीकी जानकारी है, किंतु वन विभाग के अधिकारी तो उनसे वाकिफ नहीं हैं| उनका प्रशिक्षण धरती की सतह के लिए किया गया है, समुद्र की तलहटी के लिए नहीं| हमारे पास समुद्री जीव संरक्षण के लिए कानून भी नहीं है| हमारे पास वन्य जीव सुरक्षा कानून (वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन ऐक्ट) है, राज्य स्तर पर वृक्ष संरक्षण कानून (ट्री प्रिजर्वेशन ऐक्ट) है और पर्यावरण सुरक्षा कानून (इनवायर्नमेंट प्रोटेक्शन एक्ट) है, लेकिन इनमें से कोई भी समुद्री क्षेत्र पर लागू नहीं होता| कोरल रीफ (मूँगे की चट्टानों) को प्रायः समुद्री जंगल की संज्ञा दी जाती है और समुद्री घास भी प्राणियों के लिए मैदानी घांसों से कम महत्वपूर्ण नहीं है| जैसे मैदानी चारागाहों की घास गाय, भैंस जैसे प्राणियों के लिए आहार के प्रथम स्रोत हैं, उसी तरह ये समुद्री घास बहुत से समुद्री जानवरों के लिए है| इनमें एक बहुत महत्वपूर्ण प्राणि समुदाय है ‘डुगांग्स’ परिवार| ‘डुगांग्स’ समुद्र तल के विशाल स्तनपायी जंतु है, जिन्हें समुद्री गाय (सी काउ) के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि ये भी गायों की तरह समुद्र तल की घास को चरकर अपना पोषण करती हैं| इन समुद्री गायों की जतियॉं तेजी से विलुप्त हो रही हैं| कुछ तो पूरी तरह विलुप्त भी हो चुकी हैं| केवल दो वर्गों की तीन प्रजातियॉं| शेष बची हैं, वे भी लुप्त होने के निकट है, क्योंकि उनका शिकार तेजी से जारी है| कई देशों में समुद्री गायों के मॉंस के खास रेस्त्राओं का समूह फैला हुआ है|
अंतरर्राष्ट्रीय स्तर पर जैव विविधता की रक्षा की चिंता अब से करीब दो दशक पूर्व शुरू हुई| १९९२ में संयुक्त राष्ट्र संघ ने ‘पर्यावरण और विकास’ विषय पर एक सम्मेलन का आयोजन किया| इस सम्मेलन में शामिल १९२ देशों तथा यूरोपीय संघ ने मिलकर जैव विविधता को हो रही क्षति को रोकने तथा उसके संरक्षण पर विचार के लिए एक सभा ‘कन्वेंशन ऑन बायोलॉजिक डायवर्सिटीज’ (सी.बी.टी.) की स्थापना की| इसके भागीदार देशों (कांफरेंस ऑफ द पार्टीज) २००२ में हुए सम्मेलन में तय किया गया कि २०१० तक जैव विविधता को हो रही क्षति में उल्लेखनीय स्तर तक कमी लाने का काम किया जाएगा| सी.बी.टी. ने जैव विविधता के महत्व को रेखांकित करते हुए अपने वक्तव्य में कहा कि ‘संसार की करीब ३० प्रतिशत अर्थव्यवस्था तथा गरीबों की ८० प्रतिशत आवश्यकताओं की पूर्ति विविध प्राणियों और पादपों पर निर्भर है| इसके अतिरिक्त प्राणियों व पादपों की जितनी अधिक संख्या रहेगी, चिकित्सकीय अनुसंधान, आर्थिक विकास तथा मौसम में बदलाव जैसी चुनौतियों का मुकाबला करने के उतने ही अधिक अवसर उपलब्ध होंगे|’ इससे जाहिर है कि जैव विविधता हमारी धरती, हमारे स्वास्थ्य तथा हमारी अर्थव्यवस्था के लिए कितनी महत्वपूर्ण है| किंतु तमाम सम्मेलनों, प्रस्तावों तथा व्याख्याओं के बावजूद जैव विविधता का क्षरण जारी है| लगातार अनेक प्राणियों व वनस्पतियों की प्रजातियां लुप्त होती जा रही हैं|
हम लोगों में से बहुत से लोगों को यह जानकारी होगी की प्रकृति में हर प्राणी परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर है| उनके परस्पर संबंधों के आधार पर ही प्रकृति की जीवनधारा प्रवाहित होती है| धरती पर सूक्ष्म जीवों की भी एक ऐसी शृंखला है, जिसके बिना मनुष्य जैसा बड़ा प्राणि समुदाय भी अपनी जीवन रक्षा नहीं कर सकता| इस ‘जीवन’ को सहारा देने वाली ‘जीवन प्रणाली’ का सामान्यतया कोई मूल्य नहीं आंका जाता, लेकिन उसके बिना धरती पर सामान्य जीवन स्थिर नहीं रह सकता|
यहॉं यह उल्लेखनीय है कि प्रकृति के अपने जैव संतुलन के बीच बाहरी जीवों का हस्तक्षेप भी भारी संकट खड़ा करता है| इस तरह का हस्तक्षेप करके जैव विनाश करने वालों में मनुष्य अग्रणी है| २०वीं शताब्दी में विश्‍व भर में जैव प्रजातियों की विनाश दर पिछले ६५० लाख वर्षों की औसत विनाश दर से १००० गुना अधिक है| उसके बाद की अर्थात वर्तमान २१वीं शताब्दी में यह दर १०,००० गुना अधिक हो सकती है| मनुष्य ने प्रकृति को कल्पनातीत नुकसान पहुँचाया है| एक अध्ययन के अनुसार १९५० के बाद जबसे मछली पकड़ना एक उद्योग बना, तब से आगे के ५० वर्षों में धरती के बड़े महासागरों में स्थित ९० प्रतिशत मछलियॉं पकड़ ली गईं| जलवायु परिवर्तन और पारिस्थितिकीय दबाव का वर्तमान स्तर बना रहा, तो हम अपने जीवनकाल में ही व्यापक जैव विनाश का नजारा देख लेंगे| २०५० तक १५ से ३७ प्रतिशत (यानी करीब १२ लाख ५० हजार) जीवित प्रजातियॉं नष्ट हो चुकी रहेंगे| वैज्ञानिकों का आकलन है कि यदि विश्‍व तापमान (ग्लोबल टेम्परेचर) में ३.५ सेंटीग्रेड की वृद्धि हो गई, तो धरती पर मौजूद जीवों की ७० प्रतिशत ज्ञात प्रजातियों के विनष्ट हो जाने का खतरा है| सबसे बड़ा खतरा ‘ध्रुवीय हिम पट्टी’ तथा ‘समुद्री कोरल रीफ’ (मूंगे की चट्टानों) के लिए है| यदि ध्रुवीय बर्फ लगातार पिघलती रही, तो गर्मी की ऋतु में आर्कटिक  महासागर का पूरा जीव मंडल समाप्त हो जाएगा| इसके अतिरिक्त आप यह भी जान लें कि धरती के वायु मंडल में कार्बन डाई आक्साइड का स्तर जितना बढ़ता है, उतना ही वह समुद्री जल में बढ़ता है, जिसके कारण समुद्री जल की अम्लीयता का स्तर बढ़ता है| समुद्र में अम्लीयता बढ़ने का सीधा अर्थ है समुद्री जीव विविधता का क्षरण| अधिक कार्बन डाई आक्साइड से समुद्री प्रजातियों की खोल (शेल्स) कमजोर हो जाती हैं और जीव मर जाते हैं| इससे प्रजातियों की संख्या ही नहीं घटती, बल्कि प्राणियों का पूरा भोजनचक्र बिगड़ जाता है| इस बढ़ती अम्लीयता से सर्वाधिक प्रभावित होने वाला समुद्री प्राणी कोरल है| गर्म जल क्षेत्र की कोरल पट्टी में १९८० से अब तक ३० प्रतिशत की कमी आई है| और यदि मौसम की गर्मी बढ़ती रही, तो क्षति की दर और बढ़ती रहेगी|
विलियम क्विन नाम के एक पर्यावरण विज्ञानी ने अपने एक आलेख में लिखा था कि हम जिसे धरती कहते हैं, उसके जटिल प्राकृतिक स्वरूप का निर्माण जैव विविधता से ही हुआ है| यदि यह जैव विविधता नहीं रही, तो अतिवादी मौसम (इक्सट्रीम वेदर) का एक झोंका भी किसी एक जीवन मंडल (बायोम) के समस्त जीवों का सफाया कर देगा| यदि जैव विविधता का स्तर ऊँचा रहा, तो कैसी भी कोई  आपदा आए, प्रजातियों का एक वर्ग तो बचा ही रहेगा, जो फिर से धरती को जीव समृद्ध बना देगा| लेकिन आज तो स्वयं जैव विविधता ही खतरे में है| अपनी जनसंख्या वृद्धि के साथ मनुष्य प्रकृति का सबसे बड़ा विनाशक बन गया है| वह अपने आहार और निवास के लिए तो जैव संपदा का नाश कर ही रहा है, लेकिन उसकी विकास यात्रा में जो प्रदूषण बढ़ रहा है, मौसम बिगड़ रहा है, उसके कारण प्राकृतिक विविधता के लिए और अधिक खतरा पैदा हो गया है| इसलिए यह और अधिक आवश्यक हो गया है कि मनुष्य अपनी जीवनशैली को बदले, अन्यथा उन करोड़ों प्रजातियों के विनाश का खतरा सामने है, जिनको कभी फिर वापस नहीं लाया जा सकेगा| इसका कुल प्रभाव क्या पड़ेगा, यह शायद हम कभी नहीं जान सकेंगे|
अफसोस की बात है कि आज का समृद्ध विश्‍व हो या विकासशील विश्‍व हो, कोई भी इस खतरे के प्रति गंभीर नहीं है| धनी देश अपनी उपभोग शैली बदलने के लिए तैयार नहीं है, तो विकासशील देश समृद्ध देशों की कतार में पहुँचने के लिए प्रकृति का अधिक से अधिक दोहन करने में लगे हैं| फिर भी आशा की किरण अभी शेष है| छोटे स्तर पर ही सही मगर प्रकृति संरक्षण के उपाय शुरू हो गए हैं| आशा है ये कोशिशें तेज होंगी और कम से कम जैव प्रजातियों के और अधिक विनाश की दर तो कुछ रोकी जा सकेगी| जैव विविधता संरक्षण के अभियान का नेतृत्व फिलहाल भारत के हाथ में आने वाला है, इसलिए हम भारतीयों पर कुछ अधिक ही जिम्मेदारी है| हम तो प्रकृति के सबसे निकट उपासक हैं| हमारी पुराण कथाएँ यही उपदेश देती है कि शतरूपा किंवा अनंत रूपा प्रकृति के गर्भ से ही यह मानव सृष्टि हुई है और उसके संरक्षण या स्वास्थ्य पर ही इसका अस्तित्व अवलंबित है| हमने तो अपने जलचर (मत्स्य), उभयचर  (कच्छप) एवं थलचर (वाराह, नरसिंह आदि) प्राणियों को परमात्मा के अवतार के रूप में स्थापित कर रखा है| अगर हम इस अभियान में चूक गए, तो दुनिया की कोई और जाति कोई और देश तो कतई इस जीव विविधता की रक्षा का आधार नहीं बन सकेगा|