मंगलवार, 2 जुलाई 2013

समाज में स्त्री का सम्मान और सुरक्षा सुनिश्‍चित करने का प्रश्‍न

बढ़ते यौन अपराध और घुटती जिंदगियॉं

समाज में स्त्री का सम्मान और सुरक्षा सुनिश्‍चित करने का प्रश्‍न


एक तरफ आधुनिक स्त्री की आकांक्षाएँ आकाश छू रही हैं दूसरी तरफ समाज अभी भी पिछड़ी रूढ़ियों में बंधा घिसटता हुआ आगे बढ़ रहा है| आधुनिक स्त्री, पुरुषों की बराबरी ही नहीं करना चाहती, उससे आगे निकलना चाहती है| उसकी स्त्री स्वतंत्रता की आकांक्षा नौकरियों में बराबरी, वोट के अधिकार तथा आर्थिक स्वतंत्रता तक ही सीमित नहीं है| वह अब पुरुषों की तरह रात में अकेले घूमने, पबों में शराब पीने तथा अपनी पहल पर यौन संतुष्टि का अधिकार चाहती है| वह चाहती है कि पुरुष उस पर अंकुश लगाने के बजाए स्वयं संयम बरते तथा अपनी लालसाओं पर काबू रखना सीखे| उनकी बातें सही हैं लेकिन समस्या यह है कि दुनिया का कोई भी समाज अभी इस स्तर तक सभ्य नहीं हुआ है कि वह सारे जैविक आकर्षणों को अपने संयम से पार कर ले| फिर ऐसा क्या रास्ता है कि स्त्रियॉं अपनी स्वतंत्रता की उड़ान भी भर लें और उनका सम्मान भी कहीं आहत न हो|     
          

दिल्ली के विगत अतिक्रूर सामूहिक बलात्कार एवं हत्याकाण्ड के बाद देशभर में जो क्षोभ और आक्रोश का ज्वार उमड़ा उसने स्त्री-पुरुष संबंधों तथा उनके परस्पर आचार व्यवहार को लेकर एक गंभीर बहस छेड़ दी है| यह कोई ऐसा हत्या-बलात्कार काण्ड नहीं था, जैसा पहले कभी न हुआ हो| क्रूरता और नीचता की कोई सीमा नहीं होती किन्तु संयोगवश दिल्ली की उपर्युक्त घटना ने देश को खास कर युवावर्ग को जितना आंदोलित किया उतना और किसी काण्ड ने नहीं किया|
इस संदर्भ में सबसे बड़ा सवाल है कि समाज में स्त्री सम्मान की रक्षा कैसे हो| ऐसा नहीं कि इसकी चिंता समाज में पहली बार पैदा हुई है| आदिम समाज में जब पुरुष स्त्री समान रूप से स्वतंत्र थे| तब कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री के साथ या कोई भी स्त्री किसी भी पुरुष के साथ रमण कर सकती थी| हॉं कभी-कभी एक स्त्री के प्रति कई पुरुष आकर्षित हो जाते थे या कई पुरुषों के बीच एक ही स्त्री उपलब्ध होती थी तो वह पहले किसकी संगिनी बने यह संघर्ष का विषय बन जाता था| इच्छुक पुरुष आपस में लड़कर यह तय करते थे कि कौन सबसे पहले उसे प्राप्त करेगा| पशु जगत की मादाओं की तरह वह भी प्रतीक्षा करती थी कि कौन विजयी होता है और फिर वह विजेता के साथ मैथुन के लिए चली जाती थी| यह व्यवस्था पशुजगत की तरह सभी पुरुषों और स्त्रियों के लिए स्वीकार्य थी|
भारत की प्राचीन कथाओं के अनुसार इस पर आपत्ति उठाने वाला एक पुत्र था| उस समय पुत्र का मॉं के साथ सबसे निकट का तथा सबसे लम्बा संबंध हुआ करता था| बलात्कार की स्थितियॉं तो तब भी उत्पन्न होती थीं| यदि कोई स्त्री किसी विजेता पुरुष के साथ न जाना चाहे तो? उसके सामने कोई विकल्प नहीं था| आशय यह कि कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री को बाहुबल से अपनी बनाने का अधिकारी था| स्त्री के पास उससे इनकार करने का अधिकार नहीं था| पुरुषों को किसी स्त्री की भावनाओं की कोई चिंता नहीं थी क्योंकि संभोगोपरांत उनका स्त्रियों के साथ कोई संबंध नहीं रहता था| किंतु एक पुत्र शायद मॉं की भावनाओं के प्रति संवेदनशील हो सकता है| पुराण कथा है कि भारत के एक पुत्र ने जबरन सहवास के लिए ले जाई जाती मॉं को रोकने की कोशिश की तो मॉं ने कातर नेत्रों से पुत्र को मना किया कि यही व्यवस्था है| यदि वह न गई तो संघर्ष होगा, हिंसा होगी और कबीले में अशांति पैदा होगी| उस पुत्र ने यह संकल्प लिया कि वह इस व्यवस्था को बदलेगा| उसने विवाह व्यवस्था की शुरुआत की| पति को स्त्री की सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गई| परस्त्रीगमन यानी किसी विवाहिता स्त्री के साथ अन्य पुरुष के सहवास को महापाप तथा दंडनीय अपराध की संज्ञा दी गई| लेकिन अविवाहित स्त्रियॉं अभी भी असुरक्षित थीं| उनकी जिम्मेदारी किसे दी जाए| तो तय किया गया कि विवाहपूर्वकाल में पिता और भाई तथा विवाहोत्तर काल में पति के अशक्त होने पर पुत्र उसकी रक्षा का भार उठाएगा| इस रक्षा दायित्व में दैहिक रक्षा के साथ उसके भरण पोषण का दायित्व भी शामिल था| पिता और पति दोनों शब्दों का अर्थ है पालन करने वाला| पुत्र का भी ऐसा ही अर्थ है- वृद्धावस्था की नारकीयता से त्राण (छुटकारा) दिलाने वाला| स्त्री की सुरक्षा की दृष्टि से विवाह व्यवस्था को लोकप्रियता मिली और धीरे-धीरे सभ्यता के विकास के साथ परिवार संस्कृति का विकास हुआ|
लेकिन समय बदलने या अधिक समय बीतने पर हर व्यवस्था में कुछ विकृतियॉं आ जाती हैं| वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में भी यह हुआ है| स्त्री सुरक्षा के नाम पर स्त्री पर आधिपत्य की भावना रूढ़ हो गई| इसकी प्रतिक्रिया में स्त्री मुक्ति की अवधारणा ने जो जोर पकड़ा वह दूसरे अतिवादी छोर तक जा पहुँचा|
आज स्त्री-पुरुष समानता तथा दोनों के समान अधिकारों की बात चल रही है| यहॉं स्त्री सुरक्षा के सवाल ने एक नया रूप धारण कर लिया है| आज की स्त्री, पुरुष के सारे अधिकारों को चाहती है| वह केवल नौकरियों तथा वेतन में समानता एवं पुरुषों के समान मताधिकार की प्राप्ति से ही संतुष्ट नहीं है| वह पुरुषों की तरह रात में अकेले घूमने, शराब घरों में शराब पीने, मनचाहे कपड़े पहनने, अपनी ओर से सेक्स की पहल करने, अकेले देश-विदेश की यात्राएँ करने तथा हर तरह का एडवेंचर करना चाहती है| उसकी इस आकांक्षा को गलत भी नहीं कहा जा सकता| जो कुछ कोई पुरुष कर सकता है उसे करने से स्त्री को रोकने का किसी को क्या अधिकार है|
इसकी प्रतिक्रिया में प्रायः यह तर्क दिया जाता है कि स्त्री की जैविक संरचना भिन्न है इसलिए उसे भिन्न तरीके से रहना चाहिए, उसे पुरुषों से प्रतिस्पर्धा नहीं करनी चाहिए| और इसके लिए उसके सामने सबसे बड़ा भय प्रस्तुत किया जाता है बलात्कार का| अभी दिल्ली के जघन्य कांड के बाद यह सलाहें दी गईं कि स्त्रियॉं, विशेषकर युवा लड़कियों को रात में अकेले घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए, शराब से दूर रहना चाहिए, अजनबियों के साथ कहीं नहीं जाना चाहिए, अंग प्रदर्शन करने वाले वस्त्र नहीं पहनने चाहिए| कम तथा छोटे परिधानों में सजी युवतियॉं, पुरुषों में उत्तेजना भड़काती हैं जिससे वे बलात्कार के लिए प्रेरित होते हैं| अंधेरे तथा सुनसान स्थानों पर अकेली युवतियॉं वस्तुतः बलात्कार को निमंत्रण देती प्रतीत होती हैं, इत्यादि|
इसके जवाब में आधुनिक स्त्रियों का कहना है- कि वे कैसे भी रहें, यह पुरुषों का काम है कि वे संयम बरतें| यदि यह कहा जाता है कि उनके कम कपड़े पुरुषों में अवांछित लालसा जगाते हैं या भूख पैदा करते हैं तो ऐसा तो बहुत सी चीजों से होता है| कीमती कपड़े, मकान, भोजन या आभूषण भी भूख या लालसा उत्पन्न करते हैं लेकिन उन पर सब टूट तो नहीं पड़ते| यदि वहॉं वे संयम बरतते हैं तो स्त्री के प्रति संयम क्यों नहीं बरत सकते| यह कहना भी गलत है कि पुरुष प्रकृति की तरफ से स्त्रियों को सगर्भ करने के लिए 'प्रोग्राम्डफ है| तथा उसकी यौन बुभुक्षा भी अधिक अर्जेंट है| प्रकृति का वह आदिम दौर बहुत पीछे छूट चुका है इसलिए उसे अब सभ्य व्यवहार करना चाहिए| यही नहीं वे तो यहॉं तक कहती हैं कि यदि वे किसी पुरुष को गले लगाती हैं, उसका चुंबन ले लेती हैं या उसके साथ शराब पी लेती हैं तो उसका यह अर्थ तो नहीं कि इससे उन्हें सेक्स का भी आमंत्रण मिल गया| किसी पुरुष के साथ वह किस सीमा तक जा सकती है यह तय करने का अधिकार उस स्त्री का है| उसे उसके आगे बढ़ने के लिए बाध्य करने का कोई अधिकार पुरुष का नहीं हो सकता|
बात सही है| स्त्री पुरुष समानता का समर्थक कोई पुरुष इसका विरोध नहीं करेगा, लेकिन स्त्रियों तथा स्त्रीवादियों को यह तो समझना ही होगा कि समाज में सभ्यता का स्तर अभी इतना ऊँचा नहीं है जिसमें सभी पुरुष संयम के इस स्तर का निर्वाह कर सकें| वर्तमान समाज में प्रस्तरकाल से लेकर सभ्यता के नवीनतम स्तर के लोग एक साथ निवास कर रहे हैं इसलिए हम सभी पुरुषों से समान व्यवहार की अपेक्षा नहीं कर सकते|
इसलिए किसी स्त्री की इच्छा या आकांक्षा कुछ भी हो लेकिन यदि उसे अपनी सुरक्षा चाहिए तो इस सुरक्षा की व्यवस्था उसे स्वयं करनी होगी| पुरुष को उदार और संयमशील होना चाहिए किन्तु यदि वह वैसा नहीं है तो? सरकार को सख्त कानून की व्यवस्था करनी चाहिए, पुलिस और न्यायपालिका को तेज और त्वरित न्याय करना चाहिए मगर यदि वह ऐसी व्यवस्था नहीं कर पाती तो? क्या ऐसे में स्त्रियॉं अपने को खतरे में डालती रहेंगी और व्यवस्था को कोसती रहेंगी?
शहरी, अधिकार सम्पन्न एवं समर्थ स्त्रियों को केवल अपने को केंद्र में रखकर नहीं, बल्कि समग्र स्त्री जाति को केंद्र में रखकर, उसकी सुरक्षा और उसके प्रति न्याय को ध्यान में रखकर सोचना चाहिए|
अक्सर यह कहा जाता है कि कम कपड़ों  या उत्तेजक परिधानों का बलात्कार से कोई संबंध नहीं है| यदि ढाई साल की लड़की से लेकर सत्तर साल की विधवा तक का बलात्कार होता है तो यहॉं कम वस्त्रों का प्रश्‍न कहॉं आता है? बलात्कार की शिकार ज्यादातर लड़कियॉं पूरे वस्त्रों वाली रही हैं| इससे साफ सिद्ध होता है कि कम या पारदर्शी वस्त्रों को बलात्कार का जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता| यह भ्रामक तर्क है| लेकिन कम या उत्तेजक वस्त्रों को धारण करने वाली युवतियॉँ ही बलात्कार का शिकार नहीं होतीं इसका यह अर्थ नहीं कि वे बलात्कारी उत्तेजना नहीं फैलातीं| उनके भड़काऊ देहप्रदर्शन का खामियाजा ही निर्दोष सीधी-सादी लड़कियों या छोटी बच्चियों को भुगतना पड़ता है| उत्तेजना कोई भड़काता है, शिकार कोई और होता है|
आज टीवी, फिल्में, नेट तथा मीडिया के अन्य साधन खुलेआम अपने व्यवसाय के विस्तार के लिए स्त्री देह या सेक्स उत्तेजना का इस्तेमाल कर रहे हैं| अपनी यौन उत्तेजक शक्ति को पहचानने वाली तमाम स्त्रियॉं इसका व्यावसायिक उपयोग कर रही हैं और अपनी 'सेक्सुअलिटीफ या 'सेक्स अपीलफ बेचकर करोड़ों रुपये कमा रही हैं| वे तो लालसा भड़काकर और उसका दाम लेकर अपने सुरक्षित किले में समा जाती हैं| शिकार होती हैं, गली-कूचे की संघर्षरत लड़कियॉं जो नौकरी के लिए, शिक्षा के लिए घर से बाहर देर-सबेर इधर-उधर जाने के लिए मजबूर हैं|
आज का यह कड़वा सच है कि 'सेक्स का बाजारफ बलात्कार तथा स्त्री के प्रति अन्य निर्दय कामाचार के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार तत्व है लेकिन इस बाजार से जुड़े लोग इसे कभी स्वीकार नहीं करेंगे| इस व्यवसाय से जुड़ी स्त्रियॉं भी बाजार के पक्ष में ही अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करती हैं| स्त्री-पुरुष दैहिक संबंधों के बारे में सर्वाधिक गैर जिम्मेदार बयान देने वाले लोग समाज के सर्वाधिक प्रगतिशील लोगों में गिने जाते हैं और उन्हें नई सोच का प्रतिनिधि करार दिया जाता है| फिल्म जगत के ख्यातिप्राप्त, प्रगतिशील कहे जाने वाले निर्माता निर्देशक महेश भट्ट फरमाते हैं कि यह 'मल्टी पार्टनर सेक्सफ का जमाना है एक ही पार्टनर से सेक्स का जमाना बीत गया| अब तो छोटे शहरों में भी लोग 'मल्टी सेक्स पार्टनरफ की जीवनशैली अपनाने लगे हैं| अपनी फिल्म 'मर्डर-३फ के फर्स्टलुक की लांचिंग के अवसर पर बोलते हुए उन्होंने गर्वपूर्वक कहा कि उनकी यह फिल्म 'मल्टी सेक्स पार्टनरफ वाली है| उनका कहना था कि आज की युवा पीढ़ी काफी आगे बढ़ गई है और फिल्में पीछे रह गई हैं| उन्होंने बलात्कार जैसी घटनाओं के लिए फिल्मों को दोष देने की प्रवृत्ति को गलत बताया| सेक्स का बाजार चलाने वाले ये लोग भला कैसे स्वीकार कर सकते हैं कि उनके कारण समाज में विकृतियॉं बढ़ रही हैं|
वास्तव में यह सेक्स का बाजार चलाने वालों का ही तर्क है कि स्त्री के    उत्तेजक व्यवहार या उसके वस्त्रों को स्त्री के विरुद्ध यौन आक्रमण के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता| ये फिल्मों में परोसे जाने वाले 'आइटम सांग्सफ तथा अभिनेत्रियों के उत्तेजक अंगप्रदर्शन का बचाव करना चाहते हैं|
खैर, ये और अन्य बहुत से तर्क अपनी जगह हैं, किंतु मूल समस्या यह है कि स्त्री को यौन अपराधों से कैसे बचाया जाए तथा कैसे उसके स्त्री सम्मान की रक्षा की जाए| इसके लिए बने पुराने नियम यद्यपि हजारों वर्षों के अनुभव के बाद बने थे, लेकिन आज की स्त्री को वे स्वीकार्य नहीं हैं| तो अब इसके लिए नये नियम बनाने होंगे| इसके लिए हमें सबसे पहले प्रकृति और समाज की सीमाएँ समझ लेनी चाहिए| हमें यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि सभ्यता कितनी भी बढ़ी हो, लेकिन लालसाऍं अपनी जगह अभी भी विद्यमान हैं| काम या सेक्स की लालसा के आगे संयम की अर्गलाएँ हमेशा टूटी हैं| इसलिए 'सेक्सफ या काम को सबसे अधिक शक्तिशाली मनोभाव कहा गया है जिसने शिव जैसे योगी, नारद जैसे ऋषि और विश्‍वामित्र जैसे तपस्वी के संयम को भी तोड़ दिया| इसलिए पुरुष की सभ्यता के सहारे स्त्री अपनी सुरक्षा सुनिश्‍चित नहीं कर सकती| रही कानून, पुलिस और न्यायपालिका की बात तो इसमें कोई दो राय नहीं कि इन्हें सक्षम और सशक्त होना चाहिए| लेकिन सख्त कानून और कारगर पुलिस भी सुरक्षा की गारंटी नहीं हैं|
खैर यह सबसे बड़ी बात है, जिसकी तरफ ध्यान दिया जाना चाहिए कि शहरी युवतियॉं भले अपनी सारी स्वतंत्रता के सामान जुटा लें, अपनी सुरक्षा भी सुनिश्‍चित कर लें लेकिन स्त्री शरीर और सेक्स का बाजार जब तक बंद नहीं होगा तब तक शहरों से लेकर सुदूरवर्ती गॉंवों तक स्त्री के लिए असुरक्षा का वातावरण बना रहेगा| आज का समाज सेक्स उत्तेजना की दृष्टि से इतना आविष्ट (सेक्सुअली चार्ज्ड) है कि जरा सा अनुकूल अवसर मिलते ही किसी भी संयमी का संयम फिसल जाता है| एक तरफ भोग और तृप्ति की इतनी उत्कट आकांक्षा कि स्त्रियॉं भी अपनी पूर्ण तृप्ति और हर संभव विविधता की बाकायदे मांग करने लगी हैं दूसरी तरफ यौन शुचिता अभी भी इतना बड़ा सामाजिक मूल्य बना हुआ है कि उससे बाहर नहीं निकला जा पा रहा है| शहरी उच्चवर्ग के लिए यौन शुचिता का भले ही कोई महत्व न रह गया हो लेकिन बहुसंख्यक समाज उसकी जंजीरों में जकड़ा हुआ है| इससे मुक्ति आसान नहीं है|
इसलिए सिद्धांततः स्त्रियों की सारी स्वतंत्रता, समानता तथा सम्मान की भावना का आदर करते हुए भी यह कहना ही पड़ेगा कि अपनी सुरक्षा के लिए वे स्वयं सतर्कता बरतें| उनकी आकांक्षा के स्तर तक समाज अभी सभ्य नहीं हुआ है| वे उस सभ्यता स्तर की प्रतीक्षा करें| और तब तक रात्रि में अकेले घूमने, अजनबियों के साथ कहीं भी आने-जाने, पबों में शराब पीने, नौकरियों के झॉंसे में कहीं भी अकेले पहुँचने से बचें, अवसर के अनुकूल वस्त्रों का चयन करें| अपनी देह की नुमाइश करनी है तो सुरक्षा का इंतजाम भी रखें, जैसे फिल्म अभिनेत्रियॉं आदि रखती हैं|
कहा जा रहा है कि बलात्कार की ज्यादातर घटनाएँ घरों के भीतर होती हैं| ९० प्रतिशत मामलों में बलात्कारी घर का आदमी, कोई संबंधी, पड़ोसी या परिचित व्यक्ति ही होता है| तो इसे रोकने के लिए अव्वल तो समाज को सेक्स के प्रति अपना नजरिया बदलना होगा| सेक्स के साथ पवित्रता-अपवित्रता का भाव समाप्त होना चाहिए| बलात्कार अपराध है, बलात्कारी को कड़ी सजा मिलनी चाहिए| लेकिन इससे बलात्कार की शिकार स्त्री क्यों शर्मिंदा होती है| यह समाज द्वारा स्थापित धारणाएँ हैं जो बलात्कार की शिकार स्त्री को मुँह छिपाने को बाध्य करती हैं| पुरुष के साथ बलात्कार हो तो वह तो अपवित्र नहीं हो जाता फिर स्त्री क्यों हो जाती है| आज विवाहपूर्व सेक्स आम बात है लेकिन उसे सामाजिक स्वीकृति नहीं प्राप्त है| इसलिए उससे बचने या छिपाने की प्रवृत्ति यौन अपराध को और बढ़ावा दे रही है| एक तरफ परिवार के भीतर यौन अतृप्ति, दूसरे बाहर का उत्तेजक वातावरण, दोनों मिलकर परिवार के भीतर अनुचित यौन व्यवहार को प्रेरित करते हैं| सहमति से होने वाले अवैध संबंध कभी उजागर हो जाते हैं तो इज्जत बचाने के लिए उसे बलात्कार बता दिया जाता है| स्पष्ट है कि यदि हम समाज की वर्तमान विकास दिशा में आगे बढ़ना चाहते हैं तो हमें अपना नजरिया व पवित्रता-अपवित्रता का भाव बदलना होगा| घड़ी की सुई पीछे नहीं की जा सकती| समाज को पीछे की दिशा में नहीं मोड़ा जा सकता| तो आगे बढ़ने का पहला रास्ता है पुरानी धारणाओं को छोड़ा जाए और दूसरे यदि स्त्री सम्मान की रक्षा करनी है तो तो फिर 'सेक्स का बाजारफ बंद किया जाए| इस बाजार का फायदा स्त्री पुरुष दोनों उठा रहे हैं इसलिए इसे बंद करना भी कठिन है| लेकिन यदि यह नहीं बंद होता तो स्त्रियों को खास तौर पर कम उम्र अबोध लड़कियों को तो खतरे के वातावरण में ही जीना पड़ेगा| क्योंकि वे अपनी सुरक्षा का कोई उपाय भी तो स्वयं नहीं कर सकतीं|

1 टिप्पणी:

अर्चना ठाकुर ने कहा…

अकस्मात् आलेख पढ़ा...बस तारिफ में सुचारू शब्द नहीं मिले...बढ़िया और गठित लेखन रहा..बधाई..