शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

उत्तराखंड का जल तांडव

उत्तराखंड का जल तांडव
विकास की विवेकहीन लालसा का परिणाम

सभ्यता के विकास के साथ ही मनुष्य और प्रकृति का द्वंद्व भी बढ़ता गया है| तथाकथित वैज्ञानिक तथा तकनीकी उन्नति ने मनुष्य की लालसा को और बढ़ा दिया है| वह अधिक से अधिक शक्ति और समृद्धि हासिल करने के लिए सागर तल से हिम शिखरों तक प्रकृति को झिंझोड़ने में लगा है| विकास के ताजा दौर में तो मनुष्य यह भी भूल गया है कि उसका जीवन प्रकृति के संतुलन पर ही निर्भर है| पिछले दिनों उत्तराखंड के चार धाम क्षेत्र में आई बाढ़ की विभीषिका किसी दैवी प्रकोप का परिणाम नहीं, बल्कि मनुष्य की विवेकहीन विकास की भूख का परिणाम थी| नेताओं, ठेकेदारों, कंपनियों के अनैतिक गठजोड़ ने मनुष्य और प्रकृति के संबंधों को और बिगाड़ दिया है|

मनुष्य यों प्रकृति का ही अंग है, किंतु तीव्र बौद्धिक विकास ने उसे उस प्रकृति के खिलाफ ही खड़ा कर दिया है, जिससे उसने जन्म लिया है| वह प्रकृति का दोहन करके ही अपनी विकास यात्रा पर आगे बढ़ रहा है| बढ़ती जनसंख्या ने उसके इस दोहन को और बढ़ा दिया है| यह धरती जिस पर उसका आज का साम्राज्य फैला हुआ है, त्राहि त्राहि करने लगी है| इस धरती के समतल मैदान ही नहीं, पर्वत मालाएँ और उत्तुंग शिखर तथा महासागरों की तलहटी तक में मनुष्य की क्रूरता के निशान देखे जा सकते हैं| उसने पहाड़ोंं को नंगा और धरती को खोखला कर दिया है| प्रकृति शांति प्रिय है, वह सब कुछ सह लेती है, किसी से बदला लेने का तो सवाल ही नहीं उठता, फिर भी उसे अपना संतुलन तो बनाए ही रखना पड़ता है| यह संतुलन बनाने की प्रक्रिया ही कभी-कभी मनुष्य के लिए भारी आपदा का रूप ले लेती है| मनुष्य प्रकृति को ही दोष देने लगता है| बहुत से प्रकृतिवादी भी इन आपदाओं को प्रकृति का प्रकोप बताने लगते हैं| प्रकृति तो मॉं है, वह अपनी संततियों पर भला कैसे कोई जानलेवा कोप कर सकती है| और धरती तो धैर्य और क्षमा की प्रतिमूर्ति ही है| उसने तो अपना सर्वस्व ज्यों का त्यों मनुष्य को समर्पित कर दिया है| मनुष्य यदि किसी प्राकृतिक आपदा का शिकार होता है, तो ज्यादातर वह अपनी ही करतूतों का शिकार होता है| हॉं, कुछ आपदाएँ ऐसी भी जरूर आती हैं, जो धरती की भीतरी हलचल का परिणाम होती हैं, जिस पर किसी का कोई वश नहीं है, स्वयं प्रकृति का भी नहीं|
अभी उत्तराखंड में जो कुछ हुआ, उसमें प्रकृति की तरफ से असाधारण या अस्वाभाविक कुछ भी नहीं था, किंतु उसके कारण विनाश का जो भयावह तांडव समाने आया, उसके लिए तो पूरी तरह स्वयं मनुष्य जिम्मेदार है| उसके लिए प्रकृति को, भगवान शिव को या धारी देवी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता| कई टीवी चैनलों पर यह समाचार प्रायः दिन भर चलता रहा कि यह विनाश लीला धारी देवी के कोप का परिणाम था| गढ़वाल में धारी देवी का एक प्रसिद्ध मंदिर है, जिसे हटाया जा रहा है| चैनलों पर बताया गया कि धारी देवी की प्रतिमा को उनके स्थान से हटाए जाने के घंटे दो घंटे के भीतर ही बादल फटने और उसके साथ ही एक लघु जल प्रलय की स्थिति आ धमकी| किंतु यह मात्र संयोग है| भारत की कोई देवी, कोई देवता कोप करके किसी का अनिष्ट करने की सोच भी नहीं सकता| मनुष्य की अपनी लापरवाही अपने अहंकार और अपनी अज्ञानता के परिणामों के लिए किसी देवी-देवता को दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए|
मानव सभ्यता की शुरुआत ही प्रकृति के दोहन से शुरू हुई है, लेकिन ज्यों-ज्यों मनुष्य अधिक बुद्धिमान होता गया, त्यों-त्यों उसका लोभ भी बढ़ता गया और वह पूरी प्रकृति को अपने काबू में करने की सोचने लगा| उसने बहुत कुछ उसे अपने काबू में कर भी लिया, उच्चतम पर्वत शिखर तथा गहनतम सागरतलीय गुफाएँ भी अब उसकी पहुँच के बाहर नहीं हैं| असीमित समृद्धि की लालसा ने धरती को तो झिंझोड़ कर रख ही दिया है और आगे अब अन्य ग्रहों के शोषण पर भी उसकी नजर लगी है|
उत्तराखंड में जिस भयावह विभीषिका का विनाश नृत्य देखने को मिला, उसके लिए मनुष्य के अलावा और कोई दूसरा जिम्मेदार नहीं| हिमालय के कच्चे पहाड़ मनुष्य की अप्रतिहत लालसा से दहल उठे हैं| विद्युत उत्पादन के लिए बड़े-बड़े बॉंधों का निर्माण, नदियों के जलपथ परिवर्तन के लिए खोदी जा रही लंबी-लंबी सुरंगे, सड़कें बनाने के लिए लगातार तोड़े जा रहे पर्वत स्कंध| डायनामाइट के विस्फोटों से दूर-दूर तक दरकती चट्टानें| विकास के इन उपक्रमों की लगातार चोट से पहाड़ भी कमजोर और भंगुर हो गए हैं| इन खुदाइयों से निकला सारा मलबा नदियों के प्रवाह मार्ग में डाला जा रहा है|
उत्तराखंड के पहाड़ों को पहले वृक्षहीन किया गया| लोगों को शायद याद हो १९७० के दशक का चिपको आंदोलन जब इस खंड की स्त्रियों और बच्चों ने पेड़ों से चिपक कर जंगल काटने वाले ठेकेदारों को चुनौती दी थी कि वृक्षों को काटने के पहले उन्हें काटना पड़ेगा| जान हथेली पर रखकर वृक्षों को बचाने की यह अनूठी कोशिश थी| कुछ दिन इस आंदोलन का असर रहा, लेकिन वृक्ष कटते रहे| वर्षा जल की उद्दाम धाराओं को उलझाने वाले ये हाथ नहीं रहे, तो उनके उत्पात को रोकने की सामर्थ्य और कौन दिखाता| बढ़ते शहरीकरण, पर्यटन, अनियंत्रित विकास, भ्रष्टाचार आदि के संयुक्त प्रभावों का परिणाम हैं इस पर्वतीय क्षेत्र की प्राकृतिक आपदाएँ| विकास का पहला खामियाजा जंगलों, वृक्षों को ही भुगतना पड़ता है, क्योंकि जंगलों की कटाई विकास का अनिवार्य घटक बन गयी है|
पहाड़ की पारंपरिक आर्थिक गतिविधियॉं खेती, वन, बागवानी, पशुपालन से जुड़ी थीं और महिलाएँ इसके केंद्र में थीं| पहाड़ी कस्बे, शहर, गॉंव, नदी धाराओं से दूर पहाड़ की ढलानों पर बसे थे| भारी वर्षा एवं बादल फटने की घटनाएँ पहले भी होती थीं| उग्रवाद की स्थितियॉं भी पैदा होती थीं, लेकिन कभी किसी बड़े हादसे की खबर सुनने में नहीं आती थीं| किंतु विकास के नए दौर में नदी सीमा के भीतर नए-नए होटेल, रिसॉर्ट, व्यावसायिक कॉम्प्लेक्स तथा आवासीय समूह खड़े हो गए| सड़कों का निर्माण भी बेतरतीब हुआ| नदियों के छूटे मार्गों का उपयोग करके भी सड़के बना ली गईं, क्योंकि इस तरह सड़कें बनाना सस्ता पड़ता है और पहाड़ को काटकर सड़कें बनाने में समय भी अधिक लगता है और खर्च भी ज्यादा होता है| विकास के लिए बिजली और पानी की सर्वाधिक जरूरत पड़ती है, इसलिए नदियों पर अनेक बॉंध बने और तमाम सुरंगे बनाई गईं|
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में विकास के लिए सरकारों ने कभी इस क्षेत्र के भूगर्भ विशेषज्ञों तथा पर्यावरणविदों की कोई राय नहीं ली गई| सरकारी अफसर, बिल्डर, ठेकेदार तथा राजनेताओं ने मिलकर सारी योजनाएँ बना डालीं| इसमें राजनेताओं का अपना लोभ और स्वार्थ भी शामिल था| गांधी शांति प्रतिष्ठान तथा सर्वसेवा संघ की चेयरपर्सन राधा बेन के अनुसार अभी इस क्षेत्र के एक गॉंव चरबा की गोचर भूमि को कोकाकोला का बाटलिंग प्लांट बनाने के लिए दे दिया गया है| इस जमीन पर ग्रामीणों ने वर्षों से परिश्रम करके बड़ी संख्या में वृक्षारोपण किया था| सरकार अब इस जमीन को १९ लाख रुपये प्रति एकड़ की दर से बेच रही है| जाहिर है यहॉं के सारे पेड़ साफ हो जाएँगे| प्लांट के लिए कंपनी को प्रतिदिनि ६ लाख लीटर पानी की जरूरत पड़ेगी| राधा बेन का कहना है कि वास्तव में ‘राजनेता- प्रायवेट कंपनी' गठबंधन इन पर्वतीय घाटियों को बुरी तरह बरबाद कर रहा है| भागीरथी पर अब १,००० मेगावाट का टिहरी डैम पूरा हुआ है| इसके साथ अलकनंदा, मंदाकिनी, पिंडर तथा गंगा नदियों पर १८ और परियोजनाओं को मंजूरी मिल चुकी है| गत दिसंबर महीने में स्थानीय कार्यकर्ताओं के विरोध के बाद केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने भागीरथी के १०० कि.मी. क्षेत्र को ‘इको सेंसिटिव' (पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील) घोषित करके उस क्षेत्र में बड़े बॉंधों तथा अन्य निर्माणों के साथ पत्थर खनन तथा अन्य प्रदूषक उद्यमों की स्थापना को रोक दिया था, लेकिन इसका कितना पालन होगा, कहा नहीं जा सकता|
देश में उत्तराखंड जैसी आपदाओं को रोकने एवं राहत पहुुँचाने के लिए एक संस्था का गठन किया गया है, जिसका नाम है ‘नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथारिटी' (राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिकरण) यह संस्था मानो बूढ़े, सेवानिवृत्त अफसरों के लिए
शरणगाह बना दी गई है| आठ सदस्यीय इस अधिकरण में दो सेवानिवृत्त आई.ए.एस. अधिकारी, दो पुलिस सेवा से रिटायर हुए अफसर, एक रिटायर्ड मेजर जनरल हैं| बाकी तीन भी सेवानिवृत्त ही हैं, लेकिन उनकी उपयोगिता इस दृष्टि से सिद्ध की जा सकती है कि वे वैज्ञानिक पृष्ठभूमि के हैं| आपदा प्रबंधन अपेक्षाकृत युवाओं का काम है, जो मौके पर पहुँच सकें, राहत कार्यों की निगरानी कर सकें और सरकार के विभिन्न विभागों के बीच आवश्यक समन्वय कायम कर सकें| लेकिन इन साठोत्तरी थके लोगों से ऐसी कोई अपेक्षा कैसे की जा सकती है?
यहॉं यह उल्लेखनीय है कि इस बार की इस भयावह बाढ़ में वही भवन, सड़कें तथा पुल बहे हैं, जो विवेकहीन ढंग से बनाए गए थे| केदारनाथ का प्राचीन मंदिर भी मंदाकिनी की प्राचीन धारा के मध्य है, किंतु एक तो वह स्वयं एक मजबूत चट्टान पर स्थित है, दूसरे उसके पीछे एक विशाल बोल्डर स्थित है, जो नदी के वेग से उसकी रक्षा करने में समर्थ हुआ| आस-पास के अन्य निर्माण ऐसे नहीं थे| यह बात सही है कि मंदाकिनी ने बहुत दिनों से अपना यह प्रवाह मार्ग छोड़ रखा था, फिर भी उस प्रवाह पथ को अवरुद्ध नहीं किया जाना चाहिए था, क्योंकि जब कभी नदी में जल की मात्रा बढ़ेगी, वह इस मार्ग का भी उपयोग करने से पीछे नहीं रहेगी|
यहॉं अंततः कथनीय यही है कि सभ्यता के विकास के साथ मनुष्य का प्रकृति के साथ छिड़ा द्वंद्व यों तो रुकने वाला नहीं है, क्योंकि प्रकृति का शोषण करके ही मनुष्य अपनी शक्ति बढ़ाता आ रहा है| आज यह पता होने के बावजूद कि प्रकृति का शोषण पूरी मानव जाति के लिए विनाशकारी हो सकता है, मनुष्य अपनी शक्ति और समृद्धि विस्तार के लिए उसका शोषण जारी रखे है| फिर भी यह तो स्वयं मनुष्य के अपने हित में है कि वह प्रकृति के स्वभाव को समझे और अपना विकास इस तरह करे कि प्राकृतिक आपदाएँ उसके विकास को विनाश में न तब्दील कर सकें|
आपदाओं के लिए स्वयं प्रकृति तथा देवी-देवताओं को दोष देने के बजाए मनुष्य को अपनी गलतियों को पहचानने का प्रयत्न करना चाहिए| हिमालय क्षेत्र धरती का नवीनतम क्षेत्र है, जिसके अंतस्तल में अभी भी भारी हलचलें जारी हैं, इसलिए वहॉं तो विशेष सावधानी की आवश्यकता है|
july 2013

3 टिप्‍पणियां:

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