बुधवार, 2 नवंबर 2011

रियायतें देकर कश्मीर समस्या हल नहीं की जा सकती

श्रीनगर में आम हड़ताल: 27 अक्टूबर को हर वर्ष कश्मीर में काला दिवस मनाया जाता है,
क्योंकि इसी दिन 1947 में भारतीय सेना वहां उतरी थी।

जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने एकतरफा तौर पर घोषणा कर दी है कि राज्य के कुछ इलाकों में सेना को दिया गया कानूनी विशेषाधिकार /ए.एफ.एस.पी.ए./ समाप्त कर दिया जाएगा। सेनाध्यक्ष जनरल वी.के. सिंह ने इसका विरोध किया है। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह स्वयं भी कश्मीरियों के लिए कुछ रियायतें तथा सहायता पैकेज घोषित करने वाले हैं। उसके साथ शायद वे यह पुरस्कार भी देना चाहें कि घाटी के कुछ इलाकों मेें सेना को निष्क्रिय कर दिया जाए। लेकिन सवाल है क्या ऐसा किया जाना देश हित में है ? क्या रियायतें दे देकर कश्मीर या पाकिस्तान को संतुष्ट किया जा सकता है? क्या कश्मीर जैसे मामले में केवल भावनात्मक आधार पर या मात्र राजनीतिक लाभ के लिए निर्णय लिया जाना चाहिए?

कश्मीर समस्या पाकिस्तान समस्या से अलग नहीं है। इसलिए पाकिस्तान की समस्या का समाधान हुए बिना कश्मीर समस्या का समाधान नहीं हो सकता। पाकिस्तान के हुक्मरां कहते हैं कि उनके साथ भारत की समस्या का समाधान तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि कश्मीर समस्या का समाधान नहीं हो जाता, जबकि सच्चाई यह है कि कश्मीर की अपनी कोई समस्या है ही नहीं, वह केवल पाकिस्तान समस्या का विस्तार है, जिसे पाकिस्तानी हुक्मरान भारत के विरुद्ध हथियार की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं। भारत सरकार तथा यहां के राजनेताओं को समझना चाहिए कि पाकिस्तान समस्या का समाधान हुए बिना कश्मीर में कभी शांति स्थापित नहीं हो सकती। वास्तव में यदि कश्मीर में शांति स्थापित हो जाए, तो पाकिस्तान के अपने अस्तित्व के लिए ही खतरा पैदा हो जाएगा, क्योंकि उस स्थिति में पाकिस्तान की विशाल व शक्तिशाली सेना अप्रासंगिक हो जाएगी, उसका पूरे देश पर छाया दबदबा समाप्त हो जाएगा और तमाम आतंकवादियों की फौज बेरोजगार हो जाएगी। इसलिए इतना तय है कि भारत कितना भी चाह ले, पाकिस्तान कश्मीर में शांति स्थापित होने नहीं देगा।

तो जाहिर है कि यदि कश्मीर में शांति स्थापित करनी है, तो भारत को पाकिस्तान की तरफ ध्यान देना होगा और पहले उसकी समस्या से निपटना होगा। अब यहां यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर पाकिस्तान के साथ कश्मीर के अलावा और समस्या है ही क्या ? हमारे यानी भारत के राजनेता इस सवाल को कभी गंभीरता से लेने को तैयार नहीं होते। या तो वे इसे समझते नहीं या फिर समझते हुए भी वे इसे नजरंदाज करने की कोशिश करते हैं। दुनिया के तमाम देश भारत-पाक समस्या को दो पड़ोसी देशों की समस्या समझते हैं और मानते हैं कि किसी अन्य दो पड़ोसी देशों की तरह वे भी अपनी समस्या का समाधान कर सकते हैं। मिल बैठकर आपसी बातचीत से या कुछ ले-देकर वे आपसी तनाव दूर कर सकते हैं और एक अच्छे पड़ोसी की तरह रह सकते हैं। किंतु वे नहीं समझते कि भारत-पाक के मामले में यह अवधारणा सही नहीं है। भारत-पाक समस्या न तो दो राष्ट्रों की समस्या है और न दो पड़ोसियों की। वास्तव में यह इस क्षेत्र के कट्टरपंथी इस्लामी समुदाय के मजहबी अहंकार, अन्य मजहबों के प्रति द्वेष तथा पूरे देक्षिण एशिया पर अपना आधिपत्य कायम करने की मनोभावना की समस्या है। दूसरे शब्दों में यह इस्लामी शरीयत के शासन बनाम आधुनिक लोकतंत्र की समस्या है। इसलिए लड़ाई किसी देश से नहीं, बल्कि एक खास विचारधारा के साथ है। पाकिस्तान के साथ भारत की यही मूल समस्या है और इस समस्या का समाधान जब तक नहीं होता, तब तक न भारत-पाक समस्या का समाधान हो सकता है और न कश्मीर समस्या का।

कट्टरपंथी इस्लामी समुदाय का दावा इस पूरे दक्षिण एशिया पर अपने आधिपत्य का है। उनकी कल्पना थी कि अंग्रेजों के यहां से जाने के बाद इस पूरे क्षेत्र पर फिर से उनका राजनीतिक अधिकार होगा। लेकिन यह लक्ष्य पूरा न होता देखकर उन्होंने अपने लिए एक टुकड़ा लेकर समझौता कर लिया। यह समझौता कोई बंटवारा करके सुख से रहने का फैसला नहीं था, बल्कि यह एक रणनीतिक फैसला था। जितना अभी संभव है, उतना ले लो, बाकी के बारे में आगे निपट लिया जाएगा। वस्तुतः पाकिस्तान के कट्टरपंथी, इस्लामी राजनेताओं के लिए यह असहृय है कि उनके बगल में कोई गैर इस्लामी देश उनसे अधिक शक्तिशाली नजर आए। इसलिए उनकी हमेशा यह कोशिश रही है कि उनकी ताकत कतई भारत से कम न रहे उससे आगे नहीं तो उसके बराबर जरूर रहे। उनका भविष्य का एकमात्र सपना जैसे भी हो, भारत को तोड़ना फिर उस पर आधिपत्य जमाना मात्र है।

पाकिस्तान की विदेश नीति एकमात्र भारत केंद्रित है। अन्य देशें के साथ उसके संबंध भी उसकी भारत नीति से ही नियंत्रित होते हैं। दुनिया में जो भी भारत का विरोधी हो, वह उसका मित्र है। उसकी विदेश् नीति का एक ही सूत्र है, अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाना और भारत को कमजोर करना। अमेरिका के साथ उसके संबंध इसी नीति पर आधारित थे और आज चीन के साथ उसके संबंधें का विस्तार भी इसी नीति पर आधारित है। अमेरिका के साथ् उसके संबंध इसी नीति पर आधारित थे और आज चीन के साथ उसके संबंधों का विस्तार भी इसी नीति पर आधारित है। अमेरिका के साथ भारत के संबंध जैसे-जैसे सुधरने लगे, वैसे-वैसे पाक-अमेरिका संबंध में खटास आनी शुरू हो गयी। 1950 के दशक के प्रारंभ में ही पाकिस्तान ने स्वयं पहुंचकर अमेरिका के समक्ष सोवियत संघ के खिलाफ सहयोग करने का प्रस्ताव रखा, किंतु पाकिस्तान का लक्ष्य हमेशा भारत ही था। सोवियत संघ के कल्पित खतरे दिखाकर उसने अमेरिका से अधिक से अधिक सैनिक संसाधन एकत्र किये। अपने समय के आधुनिकतम लड़ाकू जहाज, टैंक, राडार तथा अन्य साजो सामान उसने अंतर्राष्ट्रीय सामरिक व्यूह रचना में अमेरिका की मदद के लिए एकत्र किया, किंतु उसका इस्तेमाल उसने 1965 में सीधे भारत के विरुद्ध किया। पाकिस्तान ने अपना परमाणु कार्यक्रम व मिसाइल कार्यक्रम भी भारत की सामरिक बराबरी के लिए ही चलाया, बल्कि आज यह समझा जाता है कि परमाणु अस्त्रों तथा मिसाइल प्रणाली में वह भारत से कहीं आगे है, जिस पर वह काफी गर्व का भी अनुभव करता है।

वास्तव में यदि पारंपरिक ढंग से भारत के मुकाबले पाकिस्तान की सामरिक शक्ति की तुलना की जाए, तो वह कहीं नहीं ठहरती। भारत पाकिस्तान के मुकाबले कहीं बड़ा देश है। उसकी सेना भी पाकिस्तानी सेना के दो गुने से अधिक है। और सबसे बड़ी बात यह कि आर्थिक शक्ति में भारत के मुकाबले पाकिस्तान की कहीं तुलना ही नहीं है। पाकिस्तान को इसका बोध न हो, ऐसा नहीं है, इसलिए उसने भारत पर अपनी श्रेष्ठता कायम करने के लिए भिन्न आधारों का चयन किया। भारत के खिलाफ प्रत्यक्ष युद्ध में लगातार मुंह की खने के बाद उसने परोक्ष युद्ध के लिए आतंकवादी संगठनों का सहारा लिया। अफगानिस्तान में सोवियत सेनाओं के खिलाफ जिहादी तालिबान फौजों के प्रयोग से उसे भारत के खिलाफ जिहादी संगठनों को खड़ा करने की प्रेरणा मिली। इसलिए ज्यादातर भारत विरोधी जिहादी संगठन 1990 के बाद गठित हुए। इसलिए अब भरत के विरुद्ध अपनी सामरिक श्रेष्ठता के लिए उसने आधार बना रखा है। एक तो प्रचुर परमाणु अस्त्र भंडार और उसे चलाने के लिए विविध स्तर की विश्वसनीय मिसाइल प्रणाली, दूसरे आतंकवादी जिहादी संगठन और तीसरे अफगानिस्तान को अपने साथ जोड़ना। अफगानिस्तान पर आधिपत्य उसकी भरत विरोधी रणनीति का अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है। इन तीन आधारों में से प्रथम दो में तो उसने अपनी श्रेष्ठता कायम कर ली है। चीन और उत्तर कोरिया के सहयोग से परमाणु अस्त्रों तथा उसके ‘डिलीवरी सिस्टम‘ यानी मिसाइलों के मामले में वह भारत से आगे है। जिहादी संगठन तो उसकी अकेली शक्ति है। भारत के पास उसके मुकाबले का कोई हथियार नहीं है। दुनिया के लोग अब तक नहीं समझ पा रहे हैं कि पाकिस्तान के जिहादी या आतंकवादी संगठन पाकिस्तानी सेना के ही विस्तार हैं। अपने सैन्य गुप्तचर संगठन आई.एस.आई. के माध्यम से पाकिस्तान की सरकार ही इनके प्रशिक्षण, हथियारों तथा आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करती है।

पाकिस्तान इन दिनों अफगानिस्तान में अपनी रणनीतिक विफलता को लेकर चिंतित है, किंतु अब वह चीन का सहयोग लेकर इस विफलता को सफलता में बदने की कोशिशमें लगा है। वैसे भी अफगानिस्तान पाकिस्तान की प्रतिरक्षात्मक आवश्यकता है, उसकी आक्रामक शक्ति तो उसके आतंकवादी संगठनों में है। और भारत के विरुद्ध इस्तेमाल किया जाने वाला सबसे बड़ा हथियार कश्मीर तो अभी उसके हाथ में है ही। भारतीय क्षेत्र में उसकी सबसे बड़ी सफलता यह है कि कश्मीर के मामले में उसने स्वयं भरत में अपने समर्थकों की श्रृंखला खड़ी कर ली है। देश के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण जैसे लोग जहां पाकिस्तान के सुर में सुर मिलाकर जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह कराने और वहां से सेना हटाने की बात कर रहे हैं, अरुंधती राय जैसी लेखिका कश्मीर के भारत के विलय की वैधानिकता पर सवाल उठा रही हो, द हिन्दू जैसे समाचार पत्र जहां यह लिख रहे हों कि जम्मू-कश्मीर से ज्यादा हिंसा और अपराध तो दिल्ली राज्य में हो रहे हैं, फिर वहां सेना रखने या सेना को विशेष कानूनी अधिकार (सशस्त्र सेना विशेष अधिकार कानून- ए.एफ.एस.पी.ए.) देने की क्या जरूरत है, वहां पाकिस्तान को और अधिक क्या करने की आवश्यकता है। जहां राजनीतिक लाभ के लिए राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करने की आम प्रवृत्ति हो, वहां किसी भी शत्रु का काम करना आसान हो जाता है।

गत सप्ताह कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने एकरतफा तौर पर घोषणा कर दी कि जम्मू-कश्मीर के कुछ जिलों से सशस्त्र सेना विशेष अधिकार कानून (ए.एफ.एस.पी.ए.) हटा लिया जाएगा। मुख्यमंत्री होने के नाते उमर अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद के खिलाफ गठित संयुक्त कमान के अध्यक्ष हैं। किंतु उनको इसका अधिकार कैसे मिल गया कि वह एकतरफा तौर पर इस कानून को हटाने की घोषणा कर दें। इस कानून को लागू करने या हटाने का अधिकार केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय को है। राज्य में उमर अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस की कांग्रेस के साथ साझा सरकार है। उन्होंने इसके लिए अपनी सहयोगी पार्टी के अध्यक्ष सैफुद्दीन सोज ने साफ कहा है कि उमर ने इस बारे में कांग्रेस से राय नहीं ली। उन्होंने प्रतिरक्षा मंत्रालय से भी कोई सलाह-मशविरा नहीं किया और न जम्मू-कश्मीर में कार्यरत सुरक्षा बलों की ‘यूनीफाइड कमान‘ से ही कोई चर्चा की। उमर का कहना है कि इसकी चर्चा राज्य कैबिनेट की बैठक में हुई थी, जिसमें उपमुख्यमंत्री भी उपस्थित थे, जो कांग्रेस के सदस्य हैं।

जाहिर है उमर ने यह एकतरफा घोषणा करके कांग्रेस को उलझााने तथा घाटी में अपना राजनीतिक लाभ उठाने के लिए ही है। इसे राज्य में वह अपनी राजनीतिक उपलब्धि के रूप में गिना सकते हैं और इसके द्वारा वह महबूबा मुफ्ती की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पी.डी.पी.) की जमीन कमजोर करने का भी काम कर सकते हैं, क्योंकि पी.डी.पी. लगातार कश्मीर से सेना को हटाने और नहीं तो कम से कम उसे दिये गये विशेषाधिकारों को समाप्त करने की मांग कर रही थी। भारतीय सेना ने जम्मू-कश्मीर से सेना को हटाने या उसे दिये गये कानूनी अधिकारों को हटाने का विरोध किया है। सेनाध्यक्ष जनरल वी.के. सिंह ने अपने एक सार्वजनिक वक्तव्य में कहा है कि विशेषाधिकार कानून हटाने या न हटाने का प्रश्न केंद्रीय गृह मंत्रालय के विचाराधीन है। उस संबंध में उसे ही निर्णय लेना है। इस संदर्भ में भारतीय सेना के विचार उसे बता दिये गये हैं। ऐसी खबर है कि गत गुरुवार को प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के निवास पर मंत्रिमंडल की सुरक्षा मामलों की समिति की बैठक हुई, जिसमें ए.एम.एस.पी.ए. के बारे में चर्चा हुई। करीब 90 मिनट चली इस चर्चा में प्रतिरक्षा मंत्री ए.के एंटनी, वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी तथा गृह मंत्री पी. चिदंबरम शामिल हुए। विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा राष्ट्रमंडल देशों के विदेश मंत्रियों के सम्मेलन में भाग लेने आस्ट्रेलिया गये हुए थे, इसलिए वह शामिल नहीं हो सके। लंबी चर्चा के बाद भी इस बैठक में कोई निर्ण नहीं लिया जा सका।

यहां आम आदमी के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर वहां सेना को ऐसे कौनसे कानूनी अधिकार दे दिये गये हैं, जिसे लेकर इतना हंगामा खड़ा है। वस्तुतः सेना बाह्य शत्रुओं से रक्षा के लिए गठित संगठन है। आंतरिक असुरक्षा की स्थिति में काम करने के लिए उसके पास ऐसे कोई कानूनी अधिकार नहीं हैं, जिस तरह केंद्रीय सुरक्षा बलों (सी.आर.पी.एफ.) या अन्य अर्धसैनिक बलों के पास हैं। इसलिए सेना को अपनी कार्रवाई में कानूनी सुरक्षा प्रदान करने के लिए यह कानून बनाया गया। इस कानून के अंतर्गत सेना को किसी की भी गिरफ्तारी करने, तलाशी लेने, हिरासत में लेकर पूछताछ करने और प्रतिरोध की स्थिति में प्रतिरोधक को ध्वस्त करने का अधिकार है। रॉ (रिसर्च एंड एनालिसिस विंग) के पूर्व प्रमुख विक्रम सूद के अनुसार सेना को इस कानून के अंतर्गत मिली शक्तियां राज्य पुलिस को मिली शक्तियों से भी कम हैं। उनका कहना है कि हमें समझना चाहिए कि यदि अपनी सीमा में अशांति से लड़ने के लिए सेना को लगाना है, तो उसे अपनी सुरक्षा के लिए कुछ कानूनी अधिकार तो देने ही होंगे। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का कहना है कि यह कानून पहले कुछ जिलों से हटाया जाएगा, किंतु यह स्थिति तो और घातक होगी। अपराधी अपराध करके आसानी से उन सुरक्षित इलाकों में जा छिपेगा, जहां सेना कोई कार्रवाई नहीं कर सकेगी। सूद के अनुसार इस कानून को आंशिक रूप से हटाना भी कोई बुद्धिमानी नहीं। लश्कर-ए-तैयबा के जिहादी सीमा पर लगातार घुसपैठ की ताक में बैठे हैं, ऐसे में सेना की मामूली ढील से भी कश्मीर के हालात फिर बिगड़ सकते हैं। उनकी सलाह है कि उमर को घाटी के लोगों को संतुष्ट करने की इतनी ही बेताबी है, तो वह पहले वहां लागू ‘अशांत क्षेत्र कानून (डिस्टर्ब एरिया एक्ट) हटाने की कार्रवाई करें, जिसका उन्हें अधिकार भी है, किंतु देशहित में सबसे अच्छा तो यही है कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा के इस मामले में राजनीति न करें।

अफसोस की बात यह है कि राज्य की पार्टियां ही नहीं स्वयं कांग्रेस भी यह सोचती है कि कुछ रियायतें देकर कुछ और आर्थिक सहायता देकर कश्मीरी आंदोलनकारियों को शांत किया जा सकता है। स्वयं गृहमंत्री पी. चिदंबरम भी इस विचार के हैं कि कश्मीरी आंदोलनकारियों को शांत करने के लिए अंशतः सेना को हटाने की कार्रवाई की जा सकती है। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की सोच है कि यदि कश्मीरी युवकों के लिए रोजगार के और अधिक अवसर उपलब्ध कराये जाएं, तो आए दिन सड़कों पर तउरने की उनकी प्रवृत्ति रोकी जा सकती है। कश्मीर समस्या का समाधान तलाशने के लिए उनके द्वारा नियुक्त वार्ताकारों की एक समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में इसी तरह का सुझाव दिया है। वर्तमान केंद्र सरकार व उसके प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ही नहीं, उनके पहले की सरकारों का भी यही ख्याल था कि कुछ रियायतें तथा सहायता देकर कश्मीर की समस्या को भी सुलझाया जा सकता है और पाकिस्तान के साथ उत्पन्न तनाव को खत्म किया जा सकता है, किंतु पिछले 5-6 दशकों के अनुभव तो यही बताते हैं कि रियायतें देकर न तो पाकिस्तान समस्या का समाधान हो सकता है, न कश्मीर समस्या का। भारत के विरुद्ध पाकिस्तान या कश्मीर का संघर्ष कुछ रियायतें या सहायता पाने के लिए नहीं है। हां भारत यदि ऐसी रियायतें या सहायता देता है, तो उसे ले लेने में क्या हर्ज है। भारतीय रियायतों का लाभ उठाकर भारत के विरुद्ध लड़ाई लड़ना और आसान ही होगा।

पाकिस्तान को सहायता या रियायतें देकर मनचाही दिशा में मोड़ा नहीं जा सकता। इसका ताजा उदाहरण अमेरिका पाक संबंधों की वर्तमान स्थिति में देखा जा सकता है। पाकिस्तानी सेना ने अमेरिका को साफ बता दिया है कि वह उत्तरी वजीरिस्तान में हक्कानी नेटवर्क के खिलाफ कार्रवाई नहीं करेगा। अमेरिका अपनी सैनिक व आर्थिक सहायता देय नहीं, किंतु तालिबान संगठनों के खिलाफ अब तक वह जो कुछ कर चुका है, अब उसके आगे कुछ नहीं करेगा। उस स्थिति में भी जब कि पाकिस्तान की पूरी अर्थव्यवस्था अमेरिकी आर्थिक सहायता पर टिकी है, वह उसे साफ जवाब देने में राई रत्ती संकोच नहीं कर रहा है। जबसे अफगानिस्तान में अमेरिकी हमला शुरू हुआ है, तब से अब तक अमेरिका उसे करीब 22 अरब डॉलर की सहायता दे चुका है, फिर भी पाकिस्तान एक सीमा से आगे झुकने के लिए तैयार नहीं है। जाहिर है वह अपनी शर्तों पर अमेरिका से सहायता लेता रहा है। अमेरिका स्वयं सहायता देकर या रियायतें देकर उसे झुकाने की स्थिति में नहीं है। 2001 में भी तत्कालीन पाक राष्ट्रपति जनरल मुशर्रफ अफगानिस्तान के विरुद्ध युद्ध में अमेरिका का साथ देने के लिए तब तैयार हुए थे, जब राष्ट्रपति बुश ने उन्हें चेतावनी दी थी कि यदि उन्होंने साथ नहीं दिया, तो अफगानिस्तान के साथ पाकिस्तान को भी खंडहर बना दिया जाएगा। जाहिर है कि यदि रियायतों और सहायता से अमेरिका पाकिस्तान को नहीं झुका सकता, तो भारत उसे क्या झुका लेगा।

पाकिस्तान हमेश यह कहता है कि भारत पाकिस्तान के बीच केंद्रीय विवाद का विषय कश्मीर है। भारत पहले कश्मीर समस्या का समाधान करे। उसकी नजर में कश्मीर समस्या का एक ही समाधान है- उसका भारत से अलग होना, जिससे कि वह पाकिस्तान का अंग बन सके। कश्मीरियों की भी यही मांग है। भारत वहां से अपना कब्जा हटाए। उनका तर्क है कश्मीर कश्मीरियों का है, भारत ने सैन्य बल से उस पर जबर्दस्ती कब्जा कर रखा है। कश्मीर से भारतीय सेना को हटाना उनके युद्ध का पहला पड़ाव बन गया है। इसीलिए घाटी में प्रत्येक 27 अक्टूबर को ‘विरोध दिवस‘ मनाया जाता है, क्योंकि इसी 27 अक्टूबर 1947 को पहली बार भारतीय सेना कश्मीर में उतरी थी। अपने देश में कोई भी संगठन उस दिवस को विरोध दिवस के रूप में नहीं मनाता, जब पाकिस्तानी सेना ने काबायलियों की ओट में कश्मीर पर हमला किया थ और भारी मार काट मचाई थी। हम पाकिस्तान से सद्भाव बनाए रखने के लिए उसकी काली करतूतों को उजागर करने का कभी कोई उपक्रम नहीं करते।

हमारी सरकारें और हमारी राजनीतिक पार्टियां भी देश-दुनिया को यह बताने की कोशिश नहीं करतीं कि कश्मीर समस्या मजहबी अलगाववाद तथा इस्लामी साम्राज्यवाद की समस्या है। यह किसी अन्याय अत्याचार के विरुद्ध कोई मानवाधिकार रक्षा की लड़ाई नहीं, बल्कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश को तोड़ने और आधुनिक उदार मानववाद को ध्वस्त करने की हिंसक साजिश है।

कश्मीर हो या कोई भी अन्य क्षेत्र, उसके बारे में नीति निर्धारित करते समय राष्ट्रीय सुरक्षा का सबसे पहले ध्यान रखना चाहिए। कोई रियायत भी दी जाए, तो उसके लिए भी राष्ट्रीय हित को ही कसौटी बनाया जाना चाहिए। केवल अच्छा दिखने के लिए या अपनी अथवा अपनी पार्टी की छवि सुधारने के लिए ऐसी हरकतें नहीं करना चाहिए। भावनाओं के आधार पर कश्मीर जैसे मामले में कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता। फैसले जो भी हो, वे तार्किक व यथार्थपरक होने चाहिए। कश्मीर से सेना हटाने का काम हो सकता है। उसे दिये गये विशेषाधिकार भी वापस लिये जा सकते हैं, लेकिन जब वहां स्थितियां उसके अनुकूल हो जाएं तब। केवल उमर अब्दुल्ला की राजनीतिक छवि चमकाने के लिए या उनके मुकाबले कांग्रेस को अधिक उदार सिद्ध करने के लिए कश्मीर के बारे में कोई निर्ण नहीं लिया जाना चाहिए। सुरक्षा के मामले में सेना की राय हमेश निहित स्वार्थी राजनेताओं की राय से बेहतर होगी, इसलिए उसका सम्मान किया जाना चाहिए।

1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

स्पष्ट है कि भारतीय सेना हट जाए और देश के एक और विभाजन का रास्ता साफ हो जाय। फिर भी, हमारे नेता रियायतों के लोलीपाप से पाप का घडा भर रहे हैं॥