"रामायण" व रामकथा पर नया छिड़ा विवाद
ए.के. रामानुजन का निबंध पाठ्यक्रम से बाहर निकालने पर विरोध प्रदर्शन
करते हुए: दिल्ली विश्वविद्यालय के वामपंथी अध्यापक व छात्र
दिल्ली विश्वविद्यालय की विद्वत् परिषद ने पिछले दिनों बी.ए. (आनर्स) द्वितीय वर्ष के पाठ्यक्रम (भारतीय संस्कृति) में शामिल एक विवादास्पद निबंध को हटाने का निर्णय ले लिया, इससे देश भ्र में तमाम वामपंथी बुद्धिजीवी, लेखक, अध्यापक, पत्रकार व इतिहासकार बेहद क्षुब्ध हैं और उसे वापस पाठ्यक्रम में शामिल किये जाने की मांग कर रहे हैं। यह निबंध प्रसिद्ध कवि, लेखक, भाषाविद तथा अनुवादक ए.के. रामानुजन का है, जो महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण में वर्णित रामकथा की प्राचीनता व प्रामाणिकता पर सवाल उठाते हैं तथा अन्य गौण व विकृत कथाओं को उस पर तरजीह देने का प्रयत्न करते हैं।
यूरोप से आयातित साहित्य अध्ययन शैली, सामाजिक सोच और आलोचना दृष्टि ने इस देश के इतिहास, दर्शन, साहित्य और सामाजिक-सांस्कृतिक सोच का किस तरह बंटाधार किया है, इसका ताजा उदाहरण दिल्ली विश्व विद्यालय के बी.ए. (आनर्स) द्वितीय वर्ष के पाठ्यक्रम भारतीय संस्कृति विषय की पाठ्य पुस्तक से हटाये गये उस निबंध पर छिड़ा विवाद है, जो रामायण या रामकथा से सम्बद्ध है। इस विवाद ने सबसे बड़ा सवाल तो यह खड़ा किया है कि किसी विश्वविद्यालय में किसी साहित्यिक कृति या ऐतिहासिक-सांस्कृतिक कथानक के पढ़ने-पढ़ाने का उद्देश्य क्या है।
दिल्ली विश्व विद्यालय की विद्वत्परिषद (एकेडमिक कौंसिल) ने विगत 9 अक्टूबर 2011 की अपनी बैठक में प्रख्यात लेखक अट्टिपट्ट कृष्णस्वामी रामानुजन के निबंध ‘थ्री हंड्रेड रामायनाज: फाइव इक्जाम्पल एंड थ्री थाट्स ऑन ट्रांसलेशन‘ को बी.ए. आनर्स के पाठ्यक्रम से बाहर कर देने का निर्णय लिया। इस पर इस विश्वविद्यालय के ही नहीं, प्रायः पूरे देश के वामपंथी शिक्षक, लेखक, बुद्धिजीवी, पत्रकार, आलोचक, इतिहासकार तथा संस्कृतिकर्मी आपे से बाहर हो गये। विश्वविद्यालय के निर्णय के खिलाफ आंदोलनों, प्रदर्शनों, गोष्ठियों व लेखबद्ध प्रतिक्रियाओं का सिलसिला अब तक जारी है। इसे देश की उदार बौद्धिक परंपरा, विविधता के प्रति सम्मान तथा चिंतन की स्वतंत्रता पर प्रहार और राजनीतिक दबाव के आगे विद्वत् स्वतंत्रता (एकेडमिक फ्रीडम) का आत्म समर्पण बताया जा रहा है।
डॉ. रामानुजन का यह निबंध 1991 में लिखा गया था, जिसे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित पुस्तक ‘मेरी रामायनाज- द डाइवर्सिटी ऑफ ए नरेटिव ट्रेडीशन इन साउथ एशिया‘ में शामिल किया गया। पुस्तक की संपादिका पाड्ला रिचमैन ने जानबूझकर इस निबंध को उपर्युक्त पुस्तक में शामिल किया, क्योंकि वह भारत में वाल्मीकि कृत रामायण ग्रंथ और रामानंद सागर के रामायण सीरियल की असाधारण लोकप्रियता से बहुत चिंतित थीं। उस पुस्तक से ही लेकर इस निबंध को 2006 में दिल्ली विश्वविद्यालय के बी.ए. (आनर्स) की पाठ्य पुस्तक में शामिल किया गया। यहां यह जानना रोचक होगा कि इस पाठ्य पुस्तक को तैयार करने का काम देश के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की बेटी प्रो. उपिंदर सिंह ने किया है।
भारतीय संस्कृति के पाठ्यक्रम से इस निबंध को निकलवाने का प्रयास तभी शुरू हो गया था, जब इसकी पढ़ाई शुरू हुई थी। मार्च 2008 की विश्व विद्यालय की विद्वत् परिषद (एकेडमिक कौंसिल) की बैठक में भी राष्ट्रीय संस्कृति की चिंता करने वाले शिक्षक प्रतिनिधियों ने इसे हटाने पर जोर दिया था, लेकिन उस समय परिषद ने भारी विरोध के बावजूद उस निबंध को पाठ्यक्रम से निकालने से इनकार कर दिया था। शिक्षकों ने इस पर न्यायालय की शरण में भी जाने की चेतावनी दी थी। परिषद के बाहर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने भी इस निबंध को हटाने के लिए आंदोलन चलाया था। संसद में भी यह मसला उठा था, किंतु विश्वविद्यालय उपर्युक्त निबंध को पाठ्यक्रम में बनाए रहने पर अड़ा रहा। न्यायालय से भी कोई उम्मीद नहीं थी, क्योंकि किसी कक्षा में पाठ्यक्रम निर्धारण में विश्वविद्यालय को पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त है। किंतु संयोगवश सर्वोच्च न्यायालय ने इस मसले को विचारार्थ स्वीकार्य किया और विश्वविद्यालय को निर्देश दिया कि वह चार विशेषज्ञों की एक कमेटी बनाए, जो इस प्रश्न पर विचार करे और उसके निष्कर्षों के आधार पर निर्णय लिया जा सके। विश्वविद्यालय ने इतिहास विभाग के चार प्रोफेसरों की एक कमेटी बना दी। इस कमेटी की रिपोर्ट विभाजित थी। दो प्रोफेसर लगभग तटस्थ थे। उन्हें इस निबंध के पाठ्यक्रम में बने रहने पर कोई आपत्ति नहीं थी, लेकिन उनका इसे बनाये रखने का कोई हठ भी नहीं था (दे वेयर नाट कमिटल), यानी विश्वविद्यालय की एकेडमिक कौंसिल उसे हटाना चाहे तो हटा भी सकती है। तीसरे प्रोफेसर ने इसे पाठ्यक्रम में बनाये रखने का जोरदार समर्थन किया और लिखा कि यह केवल दक्षिण पंथियों का हो हल्ला है, जो इसे हटाना चाहते हैं, इसलिए उसे महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। लेकिन चौथे प्रोफेसर ने इसे पाठ्यक्रम में रखने पर गहरी आपत्ति की और लिखा कि स्नातक स्तर पर इस तरह की सामग्री पढ़ाए जाने के गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
यह रिपोर्ट आने के बाद विद्वत् परिषद की 9 अक्टूबर 2011 की बैठक में इस मसले को विचार के लिए स्वीकार किया गया। विश्वविद्यालय की तरफ से उपर्युक्त 4 विशेषज्ञों की रिपोर्ट पेश की गयी। इस बैठक में इस सवाल को इसलिए लिया गया कि अगले दिन विश्वविद्यालय को इस विषय में सुप्रीमकोर्ट को अपनी राय देनी थी। इस बैठक में एक शिक्षक प्रतिनिधि ने नियमों का सवाल उठाया कि यह निबंध 2004 से 2008 तक पढ़ाए जाने के लिए था, उसके बाद इसे आगे बढ़ाए जाने का कोई औचित्य नहीं है। उसने यह भी बताया कि स्वयं ‘ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस‘ ने उस पुस्तक की बिक्री रोक दी है, जिसमें से इस निबंध को लिया गया है, ऐसे में उस निबंध को पाठ्यक्रम में शामिल रखना कतई तर्क संगत नहीं है। परिषद में उपस्थित वामपंथी शिक्षकों ने इस निबंध को पाठ्यक्रम से हटाने का जबर्दस्त विरोध किया, किंतु परिषद ने जब इस पर मतदान कराया, तो 120 सदस्यों की परिषद में तो लेख को हटाने के विरुद्ध केवल 9 मत पड़े और ये सब वामपंथी विचारधारा वाले शिक्षकों के थे। परिषद ने इन विरोधों की उपेक्षा करके इस निबंध को हटाने का निर्णय लिया और उसकी सूचना सर्वोच्च न्यायालय को दे दी। इस फैसले के बाद से ही वामपंथी बुद्धिजीवियों में तहलका मचा है। उपर्युक्त निबंध को हटाने के समर्थन में शायद केवल देवेंद्र स्वरूप ने अपनी कलम चलायी है, जो स्वयं दो दशक से अधिक समय तक दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर रहे हैं, अन्यथा मीडिया में इस संदर्भ में जितने भी आलेख दिखायी दे रहे हैं, वे सभी वामपंथी विचार वालों के ही हैं, जो इस निबंध को पाठ्यक्रम से हटाने का विरोध कर रहे हैं और इसे लेखकीय स्वतंत्रता तथा वैविध्य की स्वीकार्यता पर हमला बता रहे हैं।
रामानुजन के आलेख का समर्थन करने वाले तथाकथित विद्वान यह भूल जाते हैं कि उनके विरोध का कारण यह नहीं है कि उन्होंने वाल्मीकि रामायण या तुलसीकृत रामायण (रामचरित मानस) से भिन्न अन्य रामकथाओं को सामने लाने का प्रयास किया है, बल्कि विरोध का कारण उनकी नीयत का है। वे वाल्मीकि की रामायण में वर्णित रामकथा को गौण करना चाहते हैं। इसमें उनकी बौद्धिक, लेखकीय व शोधकर्ता की ईमानदारी कम उनका पूर्वाग्रह तथा वाल्मीकि रामायण को नीचा दिखाने का प्रयत्न अधिक है। सबसे पहले तो वह इसी स्थापना पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं कि वाल्मीकि की रामायण ही मूल तथा रामकथा की प्रामाणिक कृति है। भारतीय परंपरा वाल्मीकि को आदि कवि तथा उनकी रचित रामायण को ही रामकथा का मूल मानती है। रामानुजन को यह स्वीकार्य नहीं। वह मानते हैं कि देश तथा विदेश में अन्य बहुत सी रामकथाएं (रामायण) प्रचलित हैं, जिनकी कथा वाल्मीकि की कथा से भिन्न हैं और वे अधिक प्राचीन व प्रामाणिक हो सकती हैं। कई कथाएं हैं, जिसमें राम और सीता को भाई-बहन बताया गया है अथवा किसी में सीमा को रावण की बेटी बताया गया है। संभव है राम की ये कथाएं ही अधिक सही हों। इसके अलावा रामानुजन की दूसरी स्थापना है कि देश-विदेश की विभिन्न भाषाओं की अन्य रामकथाओं में उस क्षेत्र तथा उस भाषा को बोलने वाले की अपनी निजी जातीय व सांस्कृतिक अस्मिता निहित है, जिसका सम्मान किया जाना चाहिए। परोक्षतः उनका आरोप है कि वाल्मीकि रामायण को प्रमुखता देकर अन्य कथाओं को उपेक्षित करने का प्रयास वस्तुतः उस भाषा और संस्कृति वालों की उपेक्षा करने या उनकी संस्कृति को दबाने का प्रयास है। इससे जाहिर है कि रामानुजन चाहे कितने बड़े विद्वान हों, कितनी ही भाषाओं के जानकार हों, किंतु न तो वह भारतीय संस्कृति व उसकी परंपरा को समझते हैं आऋैर न उसके प्रति उनमें कोई निष्ठा व प्रेम है। उनके निबंध को पाठ्यक्रम में शामिल करने वाले समर्थक तथाकथित विद्वानों की भी यही स्थिति है। पाठ्यक्रम से उपर्युक्त निबंध हटाने के निर्णय की घोषणा होते ही वामपंथी गुट के करीब डेढ़ दो सौ छात्रों और शिक्षकों ने एक विरोध जुलूस निकाला और दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न कॉलेजों रामजस कॉलेज, किरोड़ीमल कॉलेज, हिन्दू कॉलेज व सेंट स्टिफेन कॉलेज आदि से होते हुए कुलपति डॉ. दिनेश सिंह के कार्यालय पहुंचे। वे इंकलाब जिंदाबाद, कुलपति मुर्दाबाद, दिनेश सिंह होश में आओ, विचारों की आजादी पर हमला बंद करो जैसे नारे लगा रहे थे। कुलपति कार्यालय के समक्ष उन्होंने एक सभा की, जिसे संबोधित करते हुए इतिहास के एक प्रोफेसर डॉ. सुनील कुमार ने कहा कि विश्वविद्यालय का निर्णय हमारी वैचारिक स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने का प्रयास है। हम क्या पढ़े, क्या लिखें और क्या सोचें इसे नियंत्रित करने का फरमान है। हमें यह लड़ाई अपनी बौद्धिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए लड़नी है। किसी निबंध को उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम से केवल इसलिए निकाल देना कि इससे किसी की या कुछ लोगों की धार्मिक भावनाओयं को चोट पहुंचती है, धार्मिक कट्टरवादियों के समक्ष शैक्षिक निष्ठा व उन्मुक्त विचारों की बलि देना है। रामजस कॉलेज के इतिहास विभाग के प्रोफेसर मुकुल मांगलिक का कहना था कि ‘आपको चाहे यह पसंद हो या नहीं, किंतु आप इस तथ्य को तो नहीं बदल सकते कि रामकथा के कई रूप विद्यमान हैं। रामानुजन का निबंध एक श्रेष्ठ तार्किक निबंध है, किंतु हमारे गणित विषय के प्रोफेसर कुलपति ने उसे हटा दिया। उनको गणित विषय का प्रोफेसर बताने के पीछे उनका आशय यह था कि वे साहित्यिक निबंध भला क्या समझें। विश्वविद्यालय की एकेडमिक कौंसिल की बैठक में उपर्युक्त निबंध को हटाने के निर्णय का विरोध करने वाले एक प्रोफेसर संजय शर्मा ने विद्वानों का आह्वान किया है कि वे इस तरह के राजनीतिक दबाव के आगे हार मानकर न बैठ जाएं। इस तरह की राजनीति वस्तुतः पूरी बौद्धिकता को नष्ट करने पर आमादा है। इसी तरह शहीद भगत सिंह कॉलेज के प्रोफेसर शिव दत्त- जो करीब दो दशकों से स्नातक स्तर पर इतिहास पढ़ा रहे हैं- का कहना है कि धर्म (रिलीजन) की राजनीति करने वाले भाजपा के लोग पूरी शिक्षा प्रणाली को क्षीण कर रहे हैं। धार्मिक होना एक बात है, किंतु ये तथाकथित धर्मरक्षक शिक्षा के पूरे उद्देश्य को ही नष्ट कर दे रहे हैं। ये हिन्दूवादी केवल विदेशों में प्रचलित रामकथा के विरोधी नहीं, बल्कि इस देश की तमाम अन्य रामकथाओं के खिलाफ हैं। वामपंथी इतिहासकार रोमिला थापर के अनुवार विश्वविद्यालय का निर्णय राजनीतिक दबाव के आगे शैक्षिक स्वतंत्रता का समर्पण है।
प्रतिक्रियाएं और बहुत सी हैं, लेकिन यहां यह स्वाभाविक सवाल खड़ा हो जाता है कि आखिर ये वामपंथी बुद्धिजीवी पाठ्यक्रम से एक विवादास्पद लेख को निकालने मात्र से इतने बेचैन क्यों हैं। इस लेख को पाठ्यक्रम से बाहर निकालने का आंदोलन चलाने वाले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (भाजपा की युवा शाखा) कोई इस पर प्रतिबंध लगाने की मांग तो नहीं कर रही है। लाइब्रेरी में जाकर या पाड्ला रिचमैन की किताब खरीदकर कोई भी इस लेख को पढ़ सकता है। लेकिन ये वामपंथी उसे पाठ्यक्रम में रखने की जिद क्यों कर रहे हैं। वे कांग्रेस सरकार व उसकी पार्टी के नेताओं से उनके सेकुलरिज्म का हवाला देते हुए अपील कर रहे हैं कि वे इसे फिर से पाठ्यक्रम में शामिल शामिल कराएं। कांग्रेस पार्टी तथा उसकी युवा व छात्र शाखा के लोग ज्यादातर चुप्पी साधे हुए हैं, क्योंकि वे किसी एक पक्ष के साथ खड़े होना नहीं चाहते, तुलसी या रामानंद सागर के राम यदि विजयी होते हैं, तो यह उनकी पराजय होगी, क्योंकि उनकी पूरी संस्कृति इनके विरोध पर टिकी है। पाड्ला रिचमैन ने भी राम के इस स्वरूप को पराजित करने के लिए ही अपनी पुस्तक प्रकाशित की और उसमें ए.के. रामानुजन का लेख शामिल किया। पाड्ला ने अपनी पुस्तक की भूमिका में साफ लिखा है कि जनवरी 1987 में भारतीय टीवी चैनल पर प्रसारित होने वाली रामानंद सागर की रामायण की लोकप्रियता से इतिहासकार रोमिला थापर और स्वयं वह भी बहुत चिंतित हो गयी थीं। यह चिंता क्योंकि थी? क्या इसका अर्थ यह नहीं कि इन वामपंथी इतिहासकारों व लेखकों को भारत के प्राचीन सांस्कृतिक मूल्यों से चिढ़ है। वे उसे तोड़कर नष्ट करना चाहती हैं।
आखिर इन विरोधियों से यदि कोई पूछे कि आखिर शिक्षा क्रम में साहित्य और इतिहास के अध्ययन अध्यापन का लक्ष्य क्या है। क्या केवल विविधता व वैचारिक अथवा लेखकीय स्वतंत्रता का सम्मान करना कोई जीवन मूल्य है या किसी जीवन मूल्य की स्थापना के लिए इनकी जरूरत समझी जाती है। साहित्य व इतिहास का रचना व अध्ययन का मूल लक्ष्य होता है मनुष्ृय को बेहतर बनाना, समाज में न्याय की स्थापना करना तथा भेद को मिटाकर अभेद के प्रति प्रेम व निष्ठा कायम करना।
यदि इन आधुनिक वामपंथी साहित्यकारों व इतिहासकारों ने साहित्य और इतिहास पुराण के प्रयोजन की भारतीय परंपरा को पढ़ा समझा होता, तो वे शायद ए.के. रामानुजन के उपर्युक्त लेख को एक दिन भी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में न चलने देते।
अपने देश में वेद, शास्त्र, इतिहास, पुराण तथा काव्य इन सबकी रचना व अध्ययन का लक्ष्य जीवन में चारों पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, की प्राप्ति, प्राणिमात्र के प्रति प्रेम व सद्भाव की स्थापना तथा समदृष्टि का विकास। यहां वेद, पुराण व काव्य रचनाओं तीनों का उद्देश्य एक ही है। शास्त्रों की शासन व्यवस्था केवल राजदंड से सम्यक रूप से संचालित नहीं हो सकती, इसलिए उसकी व्यापक समझदारी विकसित करने के लिए काव्य या साहित्य रचना की गयी। इसीलिए इस देश में वैदिक ऋचाओं, पुराण कथाओं तथा काव्यों के रचयिता एक ही वर्ग के लोग हैं। काव्य शास्त्र के आदि आचार्य भरत मुनि ने अपने नाट्य शास्त्र में काव्य का प्रयोजन स्पष्ट किया है- ‘उत्तमाधम मध्यानां, नराणां कर्म संश्रयं, हितोपदेश जननं धृति क्रीणा सुखादिकृतदुःखर्तानां, श्रमार्तानां, शोकार्तानाम, तपस्विनां विश्रांति जननं काले नाट्यमेत भविष्यतिधर्म्य यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धि विवर्धनं लोकोपदेश जननं नाट्यमेतद् भविष्यति ।।‘
काव्य उत्तम, मध्यम तथा निन्म तीनों वर्गों के मनुष्य के लिए हितकारी उपदेश देता है। धैर्य, विनोद और सुख प्रदान करता है। मुसीबतों से घिरे लोगों, श्रमजीवियों, शोक संतप्त हृदयों तथा तपस्वियों तक को काव्य आराम देता है। धर्म-अधर्म यश-अपयश, काम्य-अकाम्य, हित-अहित आदि का विवेक देता है तथा आयु और बुद्धि की वृद्धि आदि के लिए उपयुक्त उपदेश देता है।
काव्यालंकार में वामन ने श्रेष्ठ काव्य के लक्षण के तौर पर कहा है-
धर्मार्थकाम मोक्षेणु वैचक्षूयं कलासु च
प्रीतिं करोति कीर्तियूच साधुकाव्य निषेवणर्म-
सत्काव्य का पठन-पाठन धर्म-अधर्म का विवेक प्रदान करता है और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थों की पूर्ति करता है तथा प्रेम और कीर्ति का विस्तार करता है।
अब इस कसौटी पर यदि देश भर में या विदेशों में प्रचलित विविध रामायणों का मूल्यांकन किया जाए, तो स्वतः स्पष्ट हो जाएगा कि कौनसी रामकथा समाज और व्यक्ति के लिए उपादेय है, कौनसी नहीं।
यदि तमाम उपलब्ध रामायणों का सम्यक अध्ययन विवेचन किया जाए, तो पता चलेगा कि केवल महर्षि वाल्मीकि व तुलसी का रामकाव्य ही ऐसा है, जिसकी रचना का उद्देश्य सामाजिक है। बल्कि आज की सामाजिक आवश्यकता के लिए तुलसी की रामकथा अधिक उपादेय है, क्योंकि तुलसी के सामने जो समाज था, वह वाल्मीकि कालीन समाज से बहुत अलग था। उन्होंने मनोरंजन के लिए, भक्ति प्रदर्शन के लिए या मोक्ष प्राप्ति के लिए अपना काव्य नहीं लिखा। बाकी प्रायः राम कथाश्रित काव्य या तो भक्तिवश लिखे गये हैं या अपनी रचनाभिव्यक्ति के लिए। उन रचनाकारों ने अपनी कािा को विशिष्टता व मौलिकता प्रदान करने के लिए अपनी कथाओं को अलग रंग दिया है, किंतु उन नई उद्भावनाओं से किसी नये सामाजिक मूल्य या आदर्श की स्थापना नहीं होती, केवल काव्य चमत्कार बढ़ता है।
वाल्मीकि का रामायण शायद सारे परवर्ती राम काव्यों का उपजीव्य है। वर्तमान वाल्मीकि का रामायण शायद सारे परवर्तीराम काव्यों का उपजीव्य है। वर्तमान वाल्मीकि रामायण की रचना के पहले भी कोई राम कथा प्रचलित हो सकती है, लेकिन इससे वाल्मीकि या तुलसी की श्रेष्ठता कम नहीं हो जाती।
वाल्मीकि रामायण के प्रारंभिक अध्यायों /सर्गों/ के वर्णन से ही पता चल जाता है कि यह कोई इतिहास ग्रंथ नहीं है। इसके विविध चरित्रों का स्वरूप कवि कल्पित है। वह इतिहास में प्रसिद्ध किसी ऐसे चरित्र की तलाश में रहते हैं, जो उनके सामाजिक उद्बोधन का काव्य आधार बन सके। इसीलिए वह नारद से पूछते हैं कि उनके काव्य नायक के लिए किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में बताएं, जो गुणवान, वीर्यवान, धर्मज्ञ, उपकार मानने वाला, सत्य वक्ता, दृढ़ प्रतिज्ञ, सदाचार युक्त, समस्त प्राणियों का हित साधक, विद्वान, समर्थ, सुंदर, मन पर नियंत्रण रखने वाला, क्रोध को जीतने वाला, कांतिमान, किसी की निंदा न करने वाला तथा संग्राम में ऐसा पराक्रमी हो कि देवता भी उससे डरते हैं। ऐसे चरित्र की खोज से ही यह प्रमाणित होता कि वाल्मीकि अपने काव्य के द्वारा समाज में किन गुणों से युक्त तो इतिहास में केवल एक व्यक्ति हुआ है, वह है राम। वह वाल्मीकि को उनके बारे में कुछ जानकारी देते हैं, जिसके आधार पर अपनी कल्पना और बुद्धि कौशल के आधार पर वह अपनी रामकथा लिखते हैं। रामायण के प्रथम कांड के तीसरे सर्ग का पहला ही श्लोक है, जिसमें वाल्मीकि कहते हैं कि नारद के मुख से धर्म, अर्थ एवं काम रूपी फल से युक्त हितकर सारी जानकारी प्राप्त करके फिर हृदय में पूर्ण कथा की अभिकल्पना (साक्षात्कार) करने लगे।
श्रुत्वा वस्तु समग्रं तद्धर्मार्थ सहितं हितंम्
व्यक्तमन्वेषते भूयो यद् वृत्तं तस्य धीमतः
बहुत स्पष्ट है कि राम कथा का सारा वर्णन इतिहास नहीं है। मूल कथा इतिहास प्रसिद्ध थी, लेकिन काव्य में वर्णित विविध घटनाएं, संवाद आदि कवि की कलपना से उद्भूत है, जिसका लक्ष्य है समाज को विवेकशील, धर्मशील तथा सुखी बनाना। अब जो काव्य इस काम को सर्वश्रेष्ठ ढंग से कर रहा हो, उसी को अध्ययन अध्यापन का विषय बनाया जाना चाहिए। रामानुजन 300 रामायणों की बात करते हैं, हो सकता है अब तक यह संख्या और बढ़ गयी हो, लेकिन इनमें कथानक की नवीनता और प्राचीनता का कोई मुद्दा उठाना कतई प्रासंगिक नहीं है, उपादेय भी नहीं। उपादेय हैं केवल वे मूल्य, जो इन काव्यों में स्थापित किये गये हैं। और उस दृष्टि से वाल्मीकि और तुलसी के काव्य निश्चय ही सर्वश्रेष्ठ हैं। अब इनकी निंदा आलोचना या स्वीकार्यता अस्वीकार्यता की बात इस आधार पर नहीं की जानी चाहिए कि वे किस भाषा, किस क्षेत्र, किस जाति अथवा किस संप्रदाय के थे। रामानुजन को मूल्यों की नहीं, केवल कथानक की चिंता है। वह पूर्वाग्रह व दृष्टि संकीर्णता के कारण देश की मूल्य आधारित एकता की रक्षा के बजाए क्षेत्रीय विभेद व विखंडन को बढ़ाना चाहते हैं। वास्तव में विश्वविद्यालय के कुलपति तथा विद्वत् परिषद को इसके लिए बधाई दी जानी चाहिए कि उन्होंने साहसपूर्वक एक सही निर्णय लिया और वामपंथियों के दबाव को ठुकरा दिया।
1 टिप्पणी:
कुछ रचनाकार दूसरों पर कीचड उछाल कर प्रसिद्ध होना चाहते हैं। इन में अग्रणी वे अभागे है जिन्हें घर से संस्कार भी नहीं मिले होंगे। वर्ना हमारे राष्ट्र के महानायकों पर कीचड कैसे उछालते???
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