बुधवार, 4 मई 2011

विफलता की ओर बढ़ रहा अपना संसदीय लोकतंत्र

संसद की प्रतिष्ठित लोकलेखा समिति दो फाड़ ! सत्तारूढ गठबंधन के सदस्यों ने अध्यक्ष डॉ. मुरली मनोहर जोशी (दाएं) की अनुपस्थिति में नियमों को तोड़कर कांग्रेस के सैफुद्दीन को अध्यक्ष बना लिया और जोशी द्वारा तैयार रिपोर्ट के प्रारूप को एक प्रस्ताव पारित करके रद्द कर दिया।

संसदीय समितियों को संसद का ही लघुरूप माना जाता है। इनमें भी लोक लेखा समिति (पी.ए.सी.) संसद की सबसे पुरानी और प्रतिष्ठित समिति है। लेकिन बीते गुरुवार को इस समिति की बैठक में जो कुछ हुआ, वह अप्रत्याशित ही नहीं, अकल्पनीय और अभूतपूर्व था। यदि सत्तारूढ़ दल के सदस्य अपनी सरकार और अपने दलों के बचाव में इस तरह संसदीय परंपराओं को कुचलने का प्रयास करेंगे, तो संसदीय लोकतंत्र की भला कैसे रक्षा हो सकेगी। संसद भ्ले ही सत्तापक्ष व विपक्ष में विभाजित रहती हो, लेकिन लोकतंत्र में यह पूरी संसद का दायित्व होता है कि वह सरकार की निगरानी करे और उसे मनमानी करने से रोके। यह काम अकेले विपक्ष का नहीं है, क्योंकि वह निगरानी भले कर ले, लेकिन वह सरकार को मनमानी करने से रोक नहीं सकता। इसके लिए पूरे सदन का सहयोग चाहिए। लेकिन वर्ममान स्थ्तिि में भारतीय संसद में सत्तारूढ़ दल या मोर्चे के सदस्य खुलेआम सरकार की मनमानी की रक्षा करना ही अपना संसदीय दायित्व समझने लगे हैं। ऐसे में भला संसद अपने वैधानिक दायित्व का कैसे निर्वाह कर सकेगी ?


भ्रष्टाचार इस देश की राजनीति में अब से पहले कभी राष्ट्रीय स्तर पर मुद्दा नहीं बन सका था। ऐसा नहीं कि अब से पहले यहां भ्रष्टाचार नहीं था, लेकिन राजनीति ने उसके साथ ऐसा तालमेल बैठा लिया था कि राष्ट्रीय क्या उसे कभी क्षेत्रीय मुद्दा बनने का भी अवसर नहीं मिला। गांधी जी शायद पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने इस देश में संसदीय राजनीति शुरू होते ही भ्रष्टाचार का मसला उठाया था, किंतु राजनेताओं ने उसकी ऐसी अनदेखी की कि वह एक ऐतिहासिक उल्लेख भर बन कर रह गया। वह बेचारे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अपनी मृत्यु से तीन दिन पहले तक इसकी गुहार लगाते रहे, लेकिन किसी ने उनकी नहीं सुनी। उस आम जनता ने भी नहीं, जिसके लिए वह गुहार लगा रहे थे। वह शायद अपने में ही मस्त थी, फिर गांधी की आवाज हउसके कानों तक पहुंचने भी तो नहीं पायी होगी। नवगठित राष्ट्र की नई लोकतांत्रिक सरकार ने तो भ्रष्टाचार को ऐसी मौन स्वीकृति दे दी, मानों भ्रष्टाचार के बिना राजनीति चल ही नहीं सकती।

1937 में देश में पहली बार ‘गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट-1935‘ के अंतर्गत प्रांतीय असेंबलियों के चुनाव हुए थे, जिनमें से 6 प्रांतों में कांग्रेस जीत गयी थी। इस चुनाव में पहली बार कांग्रेस के नेताओं की ‘आचार भ्रष्टता' प्रत्यक्ष सामने आयी। गांधीजी बहुत दुःखी हुए। उनकी टिप्पणी थी कि ‘कांग्रेस में जिस तरह का भ्रष्टाचार व्याप्त हो गया है, उसे देख्ते हुए उसके साथ चलने के बजाए मैं इस सीमा तक जा सकता हूं कि उसे अच्छे से दफन कर दूं' (आई वुड गो टू लेंथ ऑफ गिविंग द होल कांग्रेस ए डिसेंट बरियल, रादर दैन पुट अप विद द करप्शन दैट इज रैम्पेंट)। यह उनका मई 1939 का कथन है। इसके बाद अभी देश स्वतंत्र ही हुआ था। मुश्किल से 4 महीने बीते थे, जब गांधी ने अपने ही लोगों के बीच कहा था कि ‘मुझे बहुत ही विश्वसनीय स्रोतों से पता चला है कि हमारे देश में भ्रष्टाचार बढ़ रहा है' (आई हैव इट वेरी ट्रस्टवर्दी सोर्सेज दैट करप्शन इज इंक्रीजिंग इन अवर कंट्री)। और अपनी मृत्यु के ठीक तीन दिन पहले उनका कहना था, ‘यह (भ्रष्टाचार) पहले से और बदतर स्थिति में पहुंच गया है। इससे दूर रहने की बात तो वास्तव में खत्म हो गयी है' (इट हैज नाउ बिकम वर्स दैन बिफोर। रिस्ट्रेंट फ्राम इट प्रैक्टिकली गॉन)।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन में हुए चुनावों के बाद जब वहां नई सरकार आयी और उसने भारत को स्वतंत्रता देना स्वीकार कर लिया और देश में पं. नेहरू के नेतृत्व में एक कार्यवाहक सरकार बन गयी, महत्मा गांधी इस देश् की राजनीतिक मुख्य धारा से जानबूझकर दूर कर दिये गये। इसकी पीड़ा यदा कदा उनके शब्दों में व्यक्त हुई है। देश की नई सत्ता को अब गांधी की और उनके मूल्यों व सिद्धांतों की कोई आवश्यकता नहीं रह गयी थी। अब पार्टी और सरकार के भीतरी मामलों की जानकारी गांधी को अपने ‘विश्वस्त' सूत्रों से ही मिला करती थी। तत्कालीन मीडिया में प्रकाशित ऐसी खबरों की कमी नहीं है, जिनसे जाहिर होता है कि स्वतंत्रता का अधिकार मिलते ही इस देश के राजनेता राष्ट्रीय संपदा की लूट पर मानो टूट पड़े। देश के लिए जान की बाजी लगाने वाले अधिकांश सेनानी हाशिये में चले गये। गांधी के संयम सादगी में विश्वास करने वाले भी केवल वे लोग ही सत्ता के कृपा पात्र थे, जो उस समय के नये नेतृत्व के साथ राग में राग मिलाने वाले थे। आज यदि विकीलीक्स के संपादक जुलियन असांजे यह प्रमाणित करते हैं कि विदेशी बैंकों के गुप्त खातों में सर्वाधिक धन ीारतीयों का जमा है, तो इस पर कोई आश्चर्य नहीं होता, क्योंकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्रीय संपज्ञि की जैसी लूट इस देश में मची और जिस स्तर पर उसकी अनदेखी की गयी, वैसा शायद ही दुनिया के कुछ नवस्वतंत्र देशों में हुआ हो। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने तो मानो इस तरफ से अपनी आंखें ही बंद कर ली थी। उन्होंने तब तक अपने किसी भ्रष्ट सहयोगी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की, जब तक कि वह इसके लिए मजबूर न हो गये हों। उन्होंने इस राष्ट्र को प्रभावित करने वाले विदेशी धन के आगमन पर भी कोई रोक नहीं लगाया, बल्कि उसे प्रोत्साहन दिया। उन्होंने ईसाई मिशनरियों के लिए आने वाले विदेशी धन तथ इस देश के वामपंथी नेताओं को कम्युनिस्ट देशों से मिलने वाले धन और सुविधाओं पर कोई नियंत्रण नहीं लगाया। नियंत्रण तो क्या उन्होंने निगरानी की भी कोई व्यवस्था नहीं की। नेहरू को इसके बदले में उनकी जय जयकार करने वालों की ऐसी भारी भीड़ मिल गयी, जिसकी जनता में अपनी छवि बड़े सिद्धांतवादियों की थी।

अभी पिछले दिनों न्यू इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अपने आलेख में इसके सलाहकार संपादक योगेश वाजपेयी ने नेहरू युग के भ्रष्टाचार को रेखांकित करने वाली कुछ रिपोर्टों को उद्धृत किया है, जिनमें उस युग की एक झलक मिल सकती है। अभी देश में लोकतांत्रिक भारत का नया संविधान लागू हुए एक वर्ष ही बीता था, जब ए.डी. गोखाला कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था (1) नेहरू मंत्रिमंडल के कई सदस्य (क्वाइट ए फ्यू) भ्रष्ट हैं और इसकी जानकारी सभी को है। (2) सरकार ने अपनी सीमा से बाहर जाकर भी इन मंत्रियों का बचाव किया। वास्तव में ऐसे दस्तावेजी साक्ष्य है कि वह राजनीतिक भ्रष्टाचार को न्यायिक समीक्षा अथवा संस्थागत निगरानी की सीमा से परे मानते थे। 1963 में जब गैर कम्युनिस्ट विपक्ष ने पंजाब के मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरो के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर राष्ट्रपति को एक ज्ञापन दिया, तो उन्होंने इस ज्ञापन पर लिखा कि ‘इस प्रकार यह सवाल उठता है कि क्या मात्र कुछ तथ्यात्मक प्रश्नों पर सर्वोच्च न्यायालय की विपरीत टिप्पणी के आधार पर किसी मुख्यमंत्री को इस्तीफा देने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए। मंत्रीगण सामूहिक रूप से विधायिका के प्रति जिम्मेदार होते हैं। इसलिए यह मामला ऐसा है, जो विधायिका का विषय है। इसलिए नियमानुसार किसी मंत्री को हटाने का सवाल तब तक नहीं पैदा होता, जब तक कि विधायिका बहुमत के साथ इसके लिए प्रस्ताव न पारित करे।' अब इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि नेहरू किस हद तक न्याय या न्यायपालिका का सम्मान करते थे और किस सीमा तक राजनीतिक भ्रष्टाचार के संरक्षक थे। नेहरू युग के कांग्रेस शासन पर 1964 में जारी संथानम कमेटी की रिपोर्ट की द्रष्टव्य है, इसमें कहा गया है कि ‘ऐसी व्यापक धारणा है कि ईमानदारी की विफलता मंत्रियों में कोई असामान्य बात नहीं है, जो लोग पिछले 16 वर्षों से सत्ता में थे, उन्होंने नितांत अवैध रूप से अपने को समृद्ध किया है और भाई-भतीजावाद अपनाकर अपने बेटे-बेटियों और संबंधियों को उंचे पदों पर नियुक्त किया है और अन्य सुविधाओं का भंडार एकत्र किया है, जिसे किसी भी तरह सार्वजनिक जीवन की शुद्धता के पैमाने पर सही नहीं ठहराया जा सकता।

नेहरू युग अपने भारतीय राजनीतिक इतिहास का सबसे पवित्र युग समझा जाता है, उसकी यह हालत है और उसके बाद की कहानी तो जगजाहिर है। उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने तो भ्रष्टाचार को एक संस्थागत वैधता प्रदान कर दी। वह इसे एक ‘अंतर्राष्ट्रीय फेनामना' मानती थीं, इसलिए इसकी चिंता करने या उस पर अंकुश लगाने की वह कोई आवश्यकता नहीं समझती थीं। उनके बेटे राजीव गांधी ने यह तो कहा कि जनहिहत की योजनाओं के लिए केंद्र सरकार को एक रुपये जारी करती है, तो उसका केवल 16 पैसा आम जनता तक पहुंचता है, लेकिन उन्होंने भी इसे बदलने की कोई आवश्यकता नहीं समझी। उन्होंने मान लिया कि राजनीति व्यवस्था ऐसे ही चलती है, इसलिए उसे ज्यों का त्यों चलने दिया। तबसे कितने ‘स्कैम‘ हो चुके, किसी में किसी राजनेता को अब तक कभी कोई सजा नहीं हुई। सजा की तो बात क्या, उनका रहस्य अब तक ठीक-ठीक उजागर नहीं हो सका। नागर वाला कांड, फेयर फैक्स घोटाला, एच.बी.जे. पाइप लाइन घटाला, एच.बी. डब्लू, पनडुब्बी घोटाला, बोफोर्स घोटाला और न जाने कौन कौनसा और घोटाला। किस किस का नाम याद रखा जाए। किसी का भी तो प्रामाणिक तौर पर अब तक कुछ भी पता नहीं चला।

सच कहा जाए तो गांधी जी के बाद पिछले 61 वर्षों में किसी ने भ्रष्टाचार के मसले को गंभीरता से नहीं उठाया। जिसने उठाया भी उसने अपने राजनीतिक हित में इसका हथियार की तरह इस्तेमाल किया। उसका लक्ष्य राजनीतिक भ्रष्टाचार को मिटाना या कम करना नहीं थ, बल्कि उसका इस्तेमाल करके स्वयं राजनीतिक सत्ता हथियाना या अपने लिए यथेष्ट भ्रष्टाचार का अवसर व अधिकार प्राप्त करना था। शायद पहली बार यह दूरसंचार का ऐसा घोटाला सामने आया, जिसने पूरे देश को इस तरह विद्वेलित कर दिया कि भ्रष्टाचार एक राष्ट्रीय राजनीतिक मुद्दे के रूप में खड़ा हो गया। शायद इसके साथ जुड़ी रकम की विशालता ने तमाम तटस्थ लोगों को भी इसकी तरफ अपनी गर्दन मोड़ने के लिए विवश कर दिया। और इसके बाद ताबड़तोड़ एक के बाद एक घोटालों का पर्दाफाश शायद इसके आकार को और बढ़ाता गया। फिर गांधी की परंपरा में आ खड़े हुए एक गांधीवादी अन्ना हजारे का उदय। गांधीजी ने स्वयं कांग्रेस के भ्रष्टाचार पर चिंता तो व्यक्त की थी, लेकिन उन्होंने भी उसे मिटाने का कोई अभियान नहीं चलाया था। इसलिए कम से कम इस मामले में अन्ना हजारे गांधी जी से एक कदम आगे बढ़े और उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक युद्ध की घोषणा की। स्वतंत्र भारत में भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाने वाले वह पहले व्यक्ति हैं, जिनकी कोई अपनी राजनीति महत्वाकांक्षा नहीं है और जो इसका अपने हित में किसी राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। उन्होंने अपने निशाने पर किसी पार्टी या सरकार के बजाए सीधे भ्रष्टाचार को रखा है। वातावरण के तेवर को देखते हुए मुख्य विपक्षी दलों -भाजपा एवं वामदलों- ने भी इस मुद्दे को राष्ट्रीय आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। भले ही उसने अपने राजनीतिक हित में इसे इतना तूल दिया, लेकिन किसी अच्छे कार्य को केवल इसलिए कम करके नहीं आंका जा सकता कि इसमें कार्य करने वाले का अपना नीजि हित भी शामिल था।

रोचक यह है कि इस देश के बहुत से राजनेता व बुद्धिजीवी अभी भी भ्रष्टाचार को विकास का अनिवार्य अंग मानते हैं। मीडिया में ऐसे बहुत से तर्क उछाले जा रहे हैं कि पश्चिम के उन औद्योगिक देशों में भी अब से सौ साल पहले ऐसा ही भ्रष्टाचार व्याप्त था। भारत भी उसी प्रक्रिया से गुजर रहा है, इसलिए राजनीतिक व सार्वजनिक भ्रष्टाचार की बहुत परवाह करने की जरूरत नहीं है। ये लोग शायद यह स्थापित करना चाहते हैं कि जब तक पूरा देश समृद्ध नहीं हो जाता, तब तक राजनेताओं, अफसरों और उच्च व्यवसायियों को हर तरह के भ्रष्टाचार की छूट दे दी जानी चाहिए। ये नेहरू के ही उस तर्क का समर्थन करते दिखते हैं कि जब तक विधायिका सभा विधिवत प्रस्ताव पारित करके किसी राजनेता को भ्रष्टाचार का दोषी करार देकर उसको हटाने या उसके खिलाफ किसी कार्रवाई की संस्तुति नहीं करती, तब तक उसे अपने पद पर बने रहने और अपना मनमाना आचरण करने का पूरा अधिकार है। कोई न्यायपालिका, कोई बाहरी संस्था या कोई जनसंगठन उसके खिलाफ उंगली नहीं उठा सकता।

क्या यह संसदीय लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले सभी ईमानदार लोगों की आंखें खोलवाने के लिए काफी नहीं है कि आज तक इस देश की संसदीय व्यवस्था ने किसी सत्ताधारी राजनेता को उसके भ्रष्टाचार के लिए दंडित नहीं किया है। इस देश की संसदीय व्यवस्था का पूरा इतिहास तो यही बताता है कि उसने सदैव भ्रष्टाचार को संरक्षण और भ्रष्टाचारियों को पदोन्नति प्रदान की है। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने का यथासंभव जो भी काम हो सका है, उसका श्रेय न्यायपालिका तथा गैरविधायी संस्थाओं को ही जाता है। वर्ष 2010-11 का यह ताजा समय ही इस बात का गवाह है कि सरकार ने स्वयं भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध जो भी कदम उठाया है, वह न्यायपालिका तथा विधायिका के बाहर के जन दबाव के कारण उसे उठाना पड़ा है। उसने अंत तक भरसक भ्रष्टाचारियों को बचाने की कोशिश की है। जहां अदालत का दबाव नहीं रहा है, वहां उसने जनदबाव की भी अपेक्षा की है। एक ज्वलंत उदाहरण सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालाकृष्णन का है, उनका भ्रष्टाचार जगजाहिर हो चुका है, फिर भी वह देश के मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद पर विराजमान हैं। न वह स्वयं इस्तीफा दे रहे हैं, न सत्ता में बैठे लोग उन्हें इस्तीफा देने के लिए कह रहे हैं।

आशय यह कि इस देश की संसदीय व्यवस्था न केवल राजनीतिक भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में विफल रही है, बल्कि उसने भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारियों को पूर्ण संरक्षण प्रदान करने का काम किया है। उसने कानून की आंखों में धूल झोंकने या उसे पंगु करने में भी कोई संकोच नहीं किया है। बोफोर्स मामले में बठित संसद की संयुक्त समिति ने न्याय की मदद करने या भ्रष्टाचार को उजागर करने के बजाए उसे ढकने में अपनी शक्ति का उपयोग किया। उसने दिल्ली में स्थित बोफोर्स के एजेंट विन चड्ढा को पूछताछ के नाम पर संसद भवन में बुलाया, लेकिन कोई पूछताछ करने के बजाए उसे वहीं से विदेश रवाना कर दिया, जिससे कि वह न्यायालय या यहां की विधि रक्षक संस्थाओं को उपलब्ध न हो सके।

परंपरा यही चलती आ रही है। कार्यपालिका यानी सरकार ने संसद को अपने कब्जे में ले लिया है। दल-बदल विरोधी कानून (एंटी डिफेक्शन एक्ट) इसमें उसका मददगार है। ताजा मसला 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच का है। देश के नियंत्रण व महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट के अनुसार इस घोटाले के कारण देश को 1 लाख 76 हजार करोड़ का नुकसान हुआ है। ‘कैग' की यह रिपोर्ट जबसे समीक्षा के लिए संसद की लोक लेखा समिति (पी.ए.सी.) के पास आ गयी है, तभी से हंगामा मचा है। सरकार ने पहले तो इस रिपोर्ट को ही झुठलाने की कोशिश की, लेकिन जब उसकी जांच संस्था सी.बी.आई. ने ही स्वीकार किया कि ‘कैग' की रिपोर्ट जितना बता रही हे, उतना तो नहीं, लेकिन करीब 45 हजार करोड़ का नुकसान तो अवश्य हुआ है, तब कपिल सिब्बल जेसे उन मंत्रियों की जबान पर कुछ लगाम लगा, जो बता रहे थे कि ‘कैग‘ की रिपोर्ट पूरी तरह झूठी है। 2-जी मामले में सरकार को एक पैसे का नुकसान नहीं हुआ है। विपक्ष ने सारे मामले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति (जे.पी.सी.) गठित करने की मांग की, लेकिन सरकार जे.पी.सी. न बनाने पर अड़ी रही। इस खींचतान में संसद का शरदकालीन अधिवेशन बिना कोई कामकाज किये खत्म हो गया। सरकार का दबाव था कि जब पी.ए.सी. मामले की जांच कर रही है, तो जे.पी.सी. की क्या जरूरत। 2-जी के साथ अन्य कई घोटालों के मामले एक साथ सामने आ जाने के कारण खतरे में पड़ी सरकार ने अपनी छवि बचाने के लिए जे.पी.सी. का गठन स्वीकार कर लिया। शायद सरकार को बाद में यह समझ में आया कि पी.ए.सी. के बजाए जे.पी.सी. उसके अधिक हित में हो सकती है। इसलिए वह पी.ए.सी. पर हल्ला बोलने लगी। जिस पी.ए.सी. के सामने स्वयं प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह उपस्थित होने के लिए तैयार थे, उसी पर बाद में पक्षपातपूर्ण राजनीति का आरोप जड़ा जाने लगा। उस पर इसके लिए दबाव डाला जाने लगा कि वह 2-जी स्पेक्ट्रम मामले की पूरी जांच अब जे.पी.सी. के हवाले कर दे। खैर, उसकी यह कोशिश न सफल होनी थी, न हुई। पी.ए.सी. अध्यक्ष डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने अपनी रिपोर्ट का प्रारूप तैयार कर लिया । संसदीय सचिवालय ने इसकी प्रतियां सभी 21 सदस्यों को उपलब्ध करायी। जोशी ने इस पर अंतिम विचार के लिए गत गुरुवार को पी.ए.सी. की बैठक आमंत्रित की। इस पी.ए.सी. का कार्यकाल 30 अप्रैल को पूरा होना था, इसलिए उसके पहले इसे अंतिम रूप दे देना था।

डॉ. जोशी को इसके लिए बधाई दी जानी चाहिए कि उन्होंने यथासंभव पूरी तरह निष्पक्ष होकर अपनी रिपोर्ट तैयार की है। उन्होंने अपनी सारी टिप्पणियों के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय तथा अन्य मंत्रालयों की फाइलों तथा उनमें लिखी गयी टिप्पणियों को आधार बनाया है। वह जानते थे कि उनकी टिप्पणियों पर हमला करने के लिए पूरा सत्ता प्रतिष्ठान और सत्तारूढ़ राजनेताओं की पूरी फौज टूट पड़ेगी। इसलिए उन्होंने पूरी सावधानी बरती। लेकिन सत्ता प्रतिष्ठान इतना भी कैसे बर्दाश्त करता, इसलिए पहले तो इसकी ही आलोचना शुरू हुई कि पी.ए.सी. की रिपोर्ट लीक कैसे हुई। डॉ. जोशी पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने ही इसे लीक किया। यह भी आरोप लगा कि यह प्रारूप ‘आउटसोर्स' किया गया, यानी इसे पी.ए.सी. या डॉ. जोशी ने स्वयं नहीं तैयार किया, बल्कि इसे बाहर किसी से तैयार कराकर जारी किया गया।

सरकार के स्तर पर पूरी रणनीति बनी कि इसे किसी तरह फेल किया जाए, इसलिए जब गुरुवार को पी.ए.सी. की अंतिम बैठक के लिए उसके सदस्य एकत्र हुए, तो बैठक शुरू होने के पहले ही हंगामा शुरू हो गया। सत्ता पक्ष के लोगों ने 11 लोगों के हस्ताक्षर से एक प्रस्ताव पेश किया, जिसमें रिपोर्ट का प्रारूप रद्द करने की बात की गयी थी। 21 सदस्यीय समिति में 11 सदस्यों के बहुमत से आये इस प्रस्ताव की शायद डॉ. जोशी को आशा नहीं थी। शायद उनका ख्याल था कि समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी के सदस्य सरकारी पक्ष के साथ नहीं जाएंगे, लेकिन उनका अनुमार गलत निकला और अंतिम क्षण में उनके दोनों सदस्य (दोनों के एक-एक) सत्ता पक्ष के साथ जुड़ गये। हंगामें के बीच डॉ. जोशी बैठक स्थगित करके बाहर निकल गये। उसके बाद सत्ता पक्ष के सदस्यों ने फिर से एकत्र होकर अपनी बैठक शुरू की। उन्होंने कांफ्रेंस के राज्यसभा सदस्य सैफुद्दीन सोज को पी.ए.सी. का अध्यक्ष चुनकर कार्यवाही आगे बढ़ायी और एक प्रस्ताव स्वीकार करके जोशी की रिपोर्ट के प्रारूप को रद्द कर दिया।

यह शुद्ध रूप से संसद और संसदीय परंपरा का अपमान था। किसी भी संसदीय समिति को संसद का ही लघु रूप माना जाता है और फिर पी.ए.सी. संसद की सबसे पुरानी और सबसे सम्मानित समिति है, उसका इस तरह मखौल बनाना कतई शोभनीय नहीं था। पी.ए.सी. का गठन लोकसभाध्यक्ष द्वारा किया जाता है। उसके अध्यक्ष की नियुक्ति भी उसके द्वारा ही होती है। अध्यक्ष विपक्ष के किसी वरिष्ठ सदस्य हो, जिससे समिति के समीक्षा कार्य की गरिमा बनी रहे। लेकिन सत्तारूढ़ मोर्चे (यू.पी.ए.) के सदस्यों ने सत्तारूढ़ दल कांग्रेस के एक राज्यसभा सदस्य को अध्यक्ष बनाकर 11 के विरुद्ध शून्य मत से रिपोर्ट के प्रारूप को रद्द करने की कार्रवाई की।

इस मामले में अंतिम फैसला तो लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को करना है, लेकिन परंपरा पर अगर ध्यान दें, तो डॉ. जोशी को अभी भी अपनी रिपोर्ट स्पीकर के समक्ष पेश करने का अधिकार है। 2004 में जब कांग्रेस विपक्ष में थी, तब पी.ए.सी. के अध्यक्ष बूटा सिंह ने ताबूत घोटाला मामले में अपनी रिपोर्ट बिना पी.ए.सी. बैठक में कोई चर्चा कराय सीधे अध्यक्ष को सौंप दी थी। पहले भी इस तरह के उदाहरण आ चुके हैं।

यहां सवाल यह नहीं है कि किसका अधिकार क्या है और स्पीकर मीरा कुमार अंततः क्या निर्णय लेती हैं। सवाल यह है कि क्या हमारी संसदीय व्यवस्था संसदीय लोकतंत्र के मूल्यों व सिद्धांतों का अनुपालन कर रही है। नेहरू के काल से लेकर आज तक का इतिहास इस बात का साक्षी है कि आम आदमी के लोकतंत्रिक अधिकारों तथा मूल्यों की रक्षा में कभी हमारी संसद ने कोई पहल नहीं की। वह केवल सत्ताधारियों के हितों का ही संरक्षण करती रही। सत्ता या कार्यपालिका की निगरानी करने या उस पर अंकुश लगाने का जो काम संसद को करना था, वह काम जब कभी संभव हुआ, तो सर्वोच्च न्यायालय ने अवश्य किया, लेकिन संसद हमेश सत्ताधारियों की बंधक बनी रही। क्या आज की स्थ्तिि में अब ऐसा समय नहीं आ गया है कि देश की संसदीय व्यवस्था तथा उसके संवैधानिक स्वरूप पर पुनर्विचार किया जाए, जिससे कार्यपालिका की मनमानी पर अंकुश लग सके। उच्च स्तरीय राजनीति भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए जन लोकपाल की नियुक्ति का प्रयास तो ठीक है, लेकिन यदि देश की संसदीय व्यवस्था दृढ़ नहीं की जा सकी, तो उसके विफल होते देर नहीं लगेगी। वास्तव में आज देश की पूरी संवैधानिक व राजनीतिक स्थिति की समीक्षा की जरूरत है। क्या निकट भविष्य में इसकी कोई पहल हो सकेगी ? देश को इसकी बड़ी ही बेसब्री से प्रतीक्षा है।

1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

कभी संसद पढ़े-लिखे सभ्य लोगों का संगठन था, आज तो असभ्य और गुंडों की बहुतायात है जो सदा हो-हल्ला करके अपनी उपस्थिति दर्ज कराते है और उनके ‘गुरु’ से वाहवाही पाते हैं। लगता है अब संसद का वजूद ही बेकार हो गया है। जिस पी.ए.सी. के सदस्यों को यह भी नहीं पता कि इसका मुख्या विपक्ष का होता है और लोक सभा का सदस्य होता है, वे क्या खाकर संसद की गरिमा बढाएंगे?