सोमवार, 22 नवंबर 2010

‘काजर की कोठरी‘ में डॉ. मनमोहन सिंह



प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की निजी छवि की स्वच्छता पर किसी को संदेह नहीं है, उनके कट्टर आलोचकों को भी नहीं, लेकिन यदि वह अपनी स्वच्छ छवि के पीछे चलने वाले काले कारनामों की लगातार अनदेखी करते रहेंगे, तो उसकी कालिख भी उन पर लगेगी जरूर। यदि वह अपनी सरकार में चलने वाले भ्रष्टाचार के वीभत्स खुले नृत्य को रोकने में असमर्थ रहते हैं, तो उन्हें कम से कम इतना आरोप तो झेलना ही पड़ेगा कि वह एक कायर और कमजोर प्रधानमंत्री हैं। इसलिए यदि वह इन आरोपों से मुक्त होना चाहते हैं, तो उन्हें कुछ कठोर निर्णयों के लिए कमर कसना पड़ेगा। लेकिन ऐसा लगता है कि ऐसी अपेक्षा करना भी उनके साथ ज्यादती करना है।



कहावत है कि ‘काजर की कोठरी में कितने हू सयानो जाय, काजर की रेख एक लगि है पै लगि है‘। राजनीतिक सत्ता ऐसी ही ‘काजर की कोठरी‘ है, जिसमें बेदाग रह पाना सचमुच ही बहुत कठिन है, या यों कहें कि असंभव है। अपने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की ऐसी ही स्थिति है। वह स्वयं कितने ही ईमानदार क्यों न हों या उनकी छवि कितनी ही निर्मल क्यों न हो, लेकिन प्रधानमंत्री पद पर रहकर बेईमानी को संरक्षण देने या भ्रष्टाचार को अपनी उज्ज्वल छवि के पीछे ढकने के आरोप से तो वह नहीं बच सकते। कम से कम इतना करना तो उनकी राजनीतिक पद की अपरिहार्यता है। फिर साझेदारी की सरकार चलाने के लिए तो यह और भी आवश्यक हो जाता है कि सहयोगियों के भ्रष्टाचार व कदाचार की तरफ से आंखें बंद रखी जाएं, नहीं तो सरकार को बनाये रखना भी कठिन हो जाएगा।

यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि डॉ. मनमोहन सिंह केवल प्रधानमंत्री हैं, इस देश के नेता नहीं । वह योग्य हैं, वाक्पटु हैं, मिलनसार हैं, राष्ट्र हितैषी हैं और सबसे बड़ी बात कि राजनीतिक सत्ता के शिखर पर रहते हुुए भी ईमानदार और अहंकार मुक्त हैं। वे अपने विचारों व सिद्धांतों के प्रति अडिग हैं, लेकिन राजनीतिक निर्णयों के लिए वह पूरी तरह पराश्रित हैं। वहां उनका कोई निजी आग्रह नहीं है, कोई निजी सिद्धांत नहीं है। पार्टी नेतृत्व अंततः जो निर्णय ले लेता है, उसे वह शिरोधार्य कर लेते हैं और उसे पूरा करने के लिए चल पड़ते हैं। विपरीत स्थितियों व निजी टिप्पणियों से वह आहत अवश्य होते हैं, लेकिन पार्टी के लिए वह सब कुछ बर्दाश्त कर लेते हैं। इस मामले में वह स्थिति प्रज्ञता की प्रतिमूर्ति है। पार्टी एक बार उनके पीछे एकजुट हो जाती है, तो वह फिर आगे बढ़कर मोर्चा संभाल लेते हैं।

प्रधानमंत्री के रूप में डॉ. मनमोहन सिंह देश की अपेक्षाओं पर भले ही खरे न उतर रहे हों, लेकिन पार्टी की अपेक्षाओं पर वह सदैव खरे उतरे हैं। उन्होंने निजी मान-अपमान से प्रभावित होकर पलायन का रास्ता कभी नहीं चुना। और जहां तक अराजनीतिक क्षेत्रों में निभायी जाने वाली भूमिका का सवाल है, वहां उन्होंने सदैव देशहित को ही सर्वोच्च रखा है और उसके लिए ही काम किया है। देश की आंतरिक नीतियों में बदलाव का मामला हो या विदेश नीति में संशोधन का, उन्होंने विशुद्ध देशहित को ही अपने फैसले की कसौटी बनाया। हां, पाकिस्तान के मामले में वह जरूर बार-बार कमजोरी के शिकार हुए हैं, लेकिन उसके लिए भी उनकी पार्टी का आंतरिक दबाव ही अधिक जिम्मेदार रहा है।

इधर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह 2-जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस बंटवारे के मामले में सीध्े आरोपों के निशाने पर आए हैं। देश के लोकतांत्रिक इतिहास में पहली बार सर्वोच्च न्यायालय ने भी प्रधानमंत्री के रूप में डॉ. सिंह के कटघरे में खड़ा किया है। उन पर आरोप है कि उन्होंने अपने दूरसंचार विभाग में चल रहे भरी भ्रष्टाचार की तरफ से अपनी आंखें बंद रखी, जिससे देश को 1,760 अरब रुपये (करीब 40 अरब डॉलर) का नुकसान हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें निर्देश किया कि वह अपनी इस निष्क्रियता व चुप्पी पर लिखित बयान अदालत में पेश करें। गणपति सिंह सिंघवी तथा ए.के. गांगुली की द्विसदस्यीय न्यायिक पीठ ने गत गुरुवार को कहा कि केंद्र सरकार का कोई अधिकारी दो दिन के भी प्रधानमंत्री की तरफ से शपथ पत्र के साथ यह बयान पेश करे कि इस भ्रष्टाचार की तरफ ध्यान आकृष्ट किये जाने पर भी वह क्यों चुप्पी साधे रहे और यदि कोई कार्रवाई की, तो वह क्या थी।

डॉ. सिंह ऐसे कठोर निर्देश पर निश्चय ही विचलित हुए होंगे, लेकिन जब पूरी पार्टी और सरकार उनके बचाव के लिए उठ खड़ी हुई, तो उन्होंने भी चुनौती का सामना करने के लिए कमर कस ली। शनिवार को अदालत में पेश किये गये 11 पृष्ठ के हलफनामे में उन्होंने इस आरोप से पूरी तरह इनकार किया है कि उन्होंने इस मामले में किसी तरह की कोई निष्क्रियता बरती है। प्रधानमंत्री कार्यालय (पी.एम.ओ.) की डाइरेक्टर वी. विद्यावती द्वारा फाइल किये गये बयान पर अदालत का क्या रुख सामने आता है, यह तो आगामी मंगलवार को सामने आएगा, जब अदालत आगे सुनवाई करेगी, लेकिन इससे इतना तो जाहिर ही है कि प्रधानमंत्री किसी पलायन के मूड में नहीं हैं और वह स्थिति का मुकाबला करने के लिए तैयार हैं।

प्रधानमंत्री ने सर्वोच्च न्यायालय में अपना पक्ष प्रस्तुत करने वाला वकील बदल दिया है। पहले सालिसिटर जनरल गोपाल सुब्रह््मण्यम भारतीय संघ तथा प्रधानमंत्री की तरफ से अदालत में पेश हो रहे थे, लेकिन अब उनकी जगह पर एटार्नी जनरल गुलाम ई. वाहनवर्ती को नियुक्त किया गया है। गोपाल सुब्रह््मण्यम अब दूरसंचार विभाग (डी.ओ.टी.) की तरफ से प्रस्तुत होंगे। केंद्रीय जांच ब्यूरो (सी.बी.आई.) की तरफ से पेश होने के लिए एक अन्य लॉ ऑफिसर को नियुक्त किया गया है।

इसके साथ ही प्रधानमंत्री ने स्वयं भी पहली बार इस मामले में मीडिया के सामने अपनी जुबान खोली है। शनिवार को उन्होंने अपने बचाव में वायदा किया कि 2-जी स्पेक्ट्रम बंटवारे में जो कोई भी दोषी पाया जाएगा, उसके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। भ्रष्टाचार के इस गंभीर मामले को लेकर करीब 2 हफ्ते से संसद में कोई कामकाज नहीं हो पा रहा है, लेकिन इस शनिवार को पहली बार प्रधानमंत्री जी सामने आए और सभी राजनीतिक दलों से विनती की कि वे संसद को चलने दें। संसद में वह किसी भी मुद््दे पर चर्चा कराने के लिए तैयार हैं, इसलिए विपक्ष को उनका सहयोग करना चाहिए।

विपक्ष वास्तव में अपनी इस बात पर अड़ा है कि केंद्रीय सरकार के स्तर पर भ्रष्टाचार के बड़े मामलों की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया जाए। उसका यही कहना है कि सरकार जब तक संयुक्त संसदीय जांच समिति (जे.पी.सी.) के गठन की मांग स्वीकार नहीं करती, तब तक वे संसद को चलने नहीं देंगे। मगर सरकार किसी भी कीमत पर जे.पी.सी. का गठनह करने के लिए तैयार नहीं है। दोनों अपनी-अपनी जिद पर अड़े हैं, इसलिए संसदीय कार्रवाई ठप्प है। विपक्ष अभी भी प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य से संतुष्ट नहीं है कि 2-जी स्पेक्ट्रम मामले में यदि किसी ने कुछ गलत किया है, तो उसे माफ नहीं किया जाएगा। लेकिन प्रधानमंत्री लगता है इस मामले के प्रारंभिक आघात से उतर गये हैं। उनका कहना है कि इस तरह के संकट तो आते रहते हैं, लेकिन प्रायः हर बार वह संकट को सफलता के एक अवसर में बदलने में सफल हुए हैं। उन्होंने बातों को हल्का करते हुए यहां तक कहा कि कभी-कभी तो लगता है कि वह हाईस्कूल के कोई छात्र हैं, जिसे एक के बाद एक हमेशा कोई न कोई टेस्ट देते रहना पड़ता है। उनका संकेत साफ था कि जिस तरह वे पिछले सारे ’टेस्ट’ पास करते आए हैं, इस टेस्ट को भी पास कर लेंगे।

लेकिन गंभीरता से यदि सोचा जाए, तो यहां मसला कोई टेस्ट पास करने का नहीं है। मुद्दा केवल यह नहीं है कि प्रधानमंत्री अपने उपर लगे निष्क्रियता के आरोप से मुक्त हो जाते हैं या नहीं। कानून के धुरंध्र तकनीकी दृष्टि से उन्हें सारे संकटों के पार ले जा सकते हैं, मगर यही सच्चाई फिर भी अपनी जगह बनी रह जाएगी कि केंद्र सरकार के दूरसंचार मंत्री ए.राजा सारे नियम कानून तथा सलाह-मशविरों को ताक पर रखकर मनमानी करते रहे और देश का एक ईमानदार व कर्तव्यनिष्ठ प्रधानमंत्री इसे चुपचाप बिना विचलित हुए देखता रहा। क्या प्रधानमंत्री सरकार चलाने वाले कोई यंत्र मानव हैं, जिनका काम केवल हर हालत में सरकार को बचाव रख्ना है भ्रष्टाचार व कदाचार के प्रति कोई संवेदनात्मक हलचल नहीं अनुभव करते।

जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रह्मण्यम स्वामी ने 2008 में ही 2-जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस बंटवारे में हो रहे भ्रष्टाचार को सूंघ लिया था। उन्होंने इसके बारे में प्रमाणों के साथ प्रधानमंत्री को पत्र लिखा। एक नहीं, दो नहीं, पांच पत्र, जिसमें हर एक में कुछ नये प्रमाण दिये गये, लेकिन उन्हें किसी पत्र का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। पत्र की प्राप्ति स्वीकृति भेजना कोई जवाब नहीं होता। आखिर प्रधानमंत्री ने यह रवैया क्यों अपनाया। सुब्रह्मण्यम स्वामी ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर यही तो कहा था कि दूरसंचार मंत्री ए. राजा 2-जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस वितरण में भ्रष्ट तरीके अपना रहे हैं, इसलिए उन्हें उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की अनुमति दी जाए। प्रधानमंत्री ही इस तरह की अनुमति देने के अधिकारी हैं, इसलिए उनके पास पत्र लिखा गया। उन्हें इसका अधिकार है कि वह अनुमति दें या कारणों को अपर्याप्त बताकर अनुमति न दें। वे उस पत्र में दिये गये प्रमाणों के आधार पर स्वयं अपनी तरफ से मामले की जांच करा सकते हैं या एकतरफा कानूनी कार्रवाई भी शुरू कर सकते थे। लेकिन उन्होंने न तो स्वयं कोई कार्रवाई की और न ही स्वामी को कोई जवाब दिया। अंततः सुब्रह्मण्यम स्वामी इस मामले को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की शरण में गये। सर्वोच्च न्यायालय के अपने ही एक पूर्व फैसले के अनुसार प्रधानमंत्री को यह अधिकार है कि वह ऐसे किसी आवेदन को निरस्त कर दें, लेकिन उस पर कुंडली मारकर बैठ जाने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है। कानून के अनुसार 3 महीने के भीतर उन्हें अपना कोई न कोई फैसला दे ही देना चाहिए था। स्वामी ने अपना पहला पत्र नवंबर 2008 में लिखा था, लेकिन प्रधानमंत्री की तरफ से 11 महीने बाद तक कोई जवाब नहीं दिया गया। और 11 महीनों के बाद कार्मिक विभाग की तरफ से कोई जवाब भी गया, तो उसमें केवल यह बताया गया कि 2-जी मामले में चूंकि सी.बी.आई. जांच कर रही है, इसलिए उसके रिपोर्ट की प्रतीक्षा की जानी चाहिए। मंत्री के खिलाफ किसी कानूनी कार्रवाई की बात करना अभी ‘प्रिमेच्योर‘ (अपरिपक्व) है।

सुप्रीम कोर्ट में प्रधानमंत्री की तरफ से प्रस्तुत हुए सालिसिटर जनरल ने भी यही दलील दी कि सी.बी.आई. की रिपोर्ट आने के पहले प्रधानमंत्री कैसे अनुमति देने या न देने का फैसला कर सकते थे। इस पर न्यायालय का क्षुब्ध होना स्वाभाविक था, क्योंकि सुब्रह्मण्यम स्वामी ने जब पत्र लिखा था, तब तक 2-जी मामले में सी.बी.आई. में कोई एफ.आई.आर. दर्ज नहीं हुई थी। स्वामी ने पत्र नवंबर 2008 में लिखा था, जबकि सी.बी.आई. की एफ.आई.आर. अक्टूबर 2009 में दर्ज हुई थी।

नियंत्रक व महालेखा परीक्षक (सी.ए.जी.) की रिपोर्ट के अनुसार (जो गत मंगलवार को संसद में पेश की गयी) 2-जी स्पेक्ट्रम के कुल आवंटित 127 लाइसेंसों में से 85 लाइसेंस उन कंपनियों को दिये गये, जिन्होंने तथ्यों को छिपाया, अधूरी जानकारी दी या जाली दस्तावेज पेश किये। संचार मंत्रालय ने न केवल 2001 की कीमतों पर 2008 में लाइसेंस का बंटवारा किया, बल्कि उन कंपनियों को इसका लाइसेंस दिया, जो इसकी योग्यता नहीं रखती थी। मंत्रालय ने न केवल वित्त विभाग व स्वयं प्रधानमंत्री कार्यालय के सुझावों को नजरंदाज किया, बल्कि अपने विभाग की ‘पहले आओ पहले पाओ‘ की परंपरा को भी बदल दिया।

टेलीकॉम रेगुलेटरी अथारिटी ऑफ इंडिया (ट्राई) ने प्रारंभिक जांच पड़ताल के बाद 70 कंपनियों के लाइसेंस रद्द करने तथा 127 में से 122 पर जुर्माना लगाने की सिफारिश की है। लेकिन ऐसी खबर है कि अब सरकार के अनेक मंत्री व अधिकारी इन कंपनियों के बचाव की कोशिश में लग गये हैं।

इस तरह लाइसेंस वितरण का काम कोई चोरी छिपे नहीं हो सकता था, फिर यह तो कतई संभव नहीं कि इसकी भनक तक प्रधानमंत्री को न लग पायी हो। 2-जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस के मूल्य निर्धारण का काम कैबिनेट के एक मंत्रिसमूह को करना था, किंतु मंत्रिसमूह से लेकर यह अधिकार अकेले संचार मंत्रालय को दे दिया गया। यह काम तो कतई बिना प्रधानमंत्री की अनुमति के नहीं हो सकता था। फिर यह कैसे हुआ। प्रधानमंत्री ने ऐसा क्यों किया?

कहा जाता है कि प्रधानमंत्री तथा डी.एम.के. नेता करुणानिधि के बीच इस तरह का एक समझौता हुआ था कि दूरसंचार का मंत्रालय उनके आदमी को मिलेगा और उसके कामकाज में प्रधानमंत्री या किसी अन्य मंत्रालय का कोई हस्तक्षेप नहीं रहेगा। यह सबको पता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह डी.एम.के. के टी.आर. बालू व ए.राजा को अपने मंत्रिमंडल में लेने के लिए तैयार नहीं थे, लेकिन सरकार बनाने के लिए डीएमके के साथ समझौता करना आवश्यक था और उस समझौते के लिए ये शर्तें माननी पड़ी। निश्चय ही यह समझौता अकेले मनमोहन सिंह के स्तर पर नहीं हुआ होगा, लेकिन उसकी प्रत्यक्ष जिम्मेदारी तो मनमोहन सिंह पर ही आएगी। उनसे ही यह पूछा जाएगा कि उन्होंने अपने एक मंत्री को ऐसी खुली छूट क्यों दी, जिससे कि देश को 1 लाख 76 हजार करोड़ का नुकसान हुआ, जो भारत के कुल घरेलू उत्पाद का करीब 3 प्रतिशत है।

मसला यहां प्रधानमंत्री के अपने चरित्र या छवि का नहीं है, मसला यह है कि यदि उनकी ओट में अरबों खरबों का भ्रष्टाचार हो रहा है, तो क्या उसका दोष उन पर नहीं आता ? क्या यह उनकी जिम्मेदारी नहीं कि वह अपनी पार्टी से अधिक अपने देश को प्राथमिकता दें ? लेकिन इस सबके बावजूद अब फिर उनसे ही यह अपेक्षा है कि वह सत्ता को यथासंभव स्वच्छता प्रधान करने की कोशिश करें, क्योंकि दुर्भाग्यवश देश में इस समय न कांग्रेस का कोई विकल्प है, न मनमोहन सिंह का। भ्रष्टाचार, अनैतिकता व सार्वजनिक संपदा की लूट की प्रवृत्ति ने देश के प्रायः सभी राजनीतिक दलों को चारों तरफ से लपेट रखा है। कुछ राज्य सरकारों को छोड़ दें, तो राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी की हालत तो और बादतर है। प्रधानमंत्री ने यदि डॉ. स्वामी को जवाब नहीं दिया, तो यह कोई उनकी निजी अयोग्यता नहीं, बल्कि उनकी राजनीतिक मजबूरी का प्रमाण है। राजा के भ्रष्टाचार पर अब जो लीपापोती की जा रही है, वह और बड़ा अपराध है, लेकिन यह भी देश के राजनीतिक चरित्र का एक हिस्सा बन गया है, जिससे निजात दिलाना शायद सर्वोच्च न्यायालय की क्षमता के भी बाहर है।

21/11/2010




































1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

‘यदि उनकी ओट में अरबों खरबों का भ्रष्टाचार हो रहा है, तो क्या उसका दोष उन पर नहीं आता ? ’

राजनीति में व्यक्तिगत स्वच्छ छवि ही काफी नहीं होती, सारे माहौल को स्वच्छ बनाए रखने की जिम्मेदारी भी तो होती है। एक चिंतनपरक लेख के लिए आभार। आशा है हमारे बुद्धिजीवियों की बात हमारे नेता भी सुन रहे होंगे॥