रविवार, 4 सितंबर 2011

ये हिंदी किस 'भाषा' का नाम है? -1

लाल किले में मुगल बादशाह शाहजहां का दरबार, जहां हिन्दुस्तानियों की जुबान
हिंदी या हिंदवी से अलग ‘जुबाने उर्दुए मुअल्ला‘ ने रूपाकार ग्रहण किया।

कभी पूरे हिन्दुस्तान की लोक व्यवहार की भाषा को ‘हिंदी‘ नाम दिया गया था। तब संस्कृत भी हिंदी थी, पाली भी हिंदी थी, अवधी भी हिंदी थी, या यों कहें कि देशभर की सभी प्रकृत व संस्कृत भाषाएं हिंदी थी, लेकिन अब केवल उत्तर के कुछ प्रदेश ही हिंदी भाषी कहे जाते हैं। पूरा देश हिंदी भाषी और हिंदीतर भाषी में बंट गया है। कहने को यह ‘हिंदी‘ देश की राजभाषा है, लेकिन इसे राष्ट्र भाषा का दर्जा अब तक नहीं मिला है और यह संविधान की भाषाई अनुसूची में अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के साथ ही परिगणित है। इसी अंग्रेजी की समकक्षता भी प्राप्त नहीं है। भाषा आधारित प्रांतों की रचना ने इसे और हाशिए की ओर ठेल दिया है।
यह शीर्षक कुछ लोगों को चौंकाने वाला लग सकता है। जो भाषा इस देश की संविधान स्वीकृत राजभाषा है, उसके नाम को लेकर यह सवाल उठाना कि यह किस भाषा का नाम है, सवाल उठाने वाले की अल्पज्ञता व मूर्खता ही नहीं, हिमाकत भी कही जाएगी। अब आप मुझे जो भी कहें या जो भी समझें, लेकिन यह सवाल उठाना मुझे बहुत महत्वपूर्ण लग रहा है, विशेषकर इसके ऐतिहासिक संदर्भ में। हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति व हिन्दू जाति की तरह देशव्यापी (व देश के बाहर भी) उपस्थिति के बावजूद इसकी भी कोई सुस्पष्ट पहचान या परिभाषा नहीं बतायी जा सकती।

वास्तव में इस देश के लोगों को हिंदी नाम की भाषा व हिन्दू नाम की जाति व धर्म की कोई जानकारी नहीं थी। शायद उन्हें अपने देश का नाम भी पता नहीं था। पश्चिम से यानी यूनान, अरब, फारस, मध्येशिया आदि से आये लोगों ने यहां के लोगों को बताया कि वे हिन्दू हैं, उनकी भाषा हिंदी है और उनका देश हिन्दुस्तान। इस देश की धरती, यहां के निवासियों, उनकी भाषा व धर्म को यह नाम तो बहुत पहले मिल चुका था, किंतु यह स्थापित तब हुआ, जब यहां बहुत से मुस्लिम आ गये और मुस्लिम शासन स्थापित हुआ, क्योंकि जब वे बाहर थे, तो इन्हीं नामों से यहां के लोगों को जानते-पहचानते थे। उनके आधिपत्य में रहते-रहते यहां के लोगों ने भी इसी पहचान को अंगीकार कर लिया। यहां यह जानना रोचक होगा कि देश, जाति व धर्म के रूप में तो इस शब्द की राष्ट्रीय पहचान अब भी बनी हुई है, लेकिन भाषा के स्तर पर यह सिकुड़कर केवल उत्तर के कुछ इलाकों तक ही सीमित रह गयी है और उत्तर में भी उसकी एक परजीवी (कृपया शब्दों पर जाएं, बल्कि उसके निहितार्थ को ही ग्रहण करें) की हालत बनी हुई है। यद्यपि इसको बोलने-समझने वाले पूरे देश में क्या दुनिया भर में फैले हुए हैं, लेकिन इसे उत्तर के कुछ प्रातों की ही स्वाभाविक भाषा माना जाता है और उसी को हिंदी क्षेत्र और वहां के निवासियों को ही हिंदीभाषी कहा जाता है। बाकी क्षेत्र को गैर हिंदी क्षेत्र और गैर हिंदी भाषी माना जाता है। वहां के हिंदी विद्वानों को गैर हिंदी भाषी विद्वान की संज्ञा दी जाती है। तो भाषा के स्तर पर आकर हिंदी-हिन्दू-हिन्दुस्तान की परिभाषा इस तरह सिकुड़ गयी कि उसकी ठीक-ठीक पहचान ही मुश्किल हो गयी ।

यहां एक और रोचक बात भी हुई कि देश जब स्वतंत्र हुआ तो हमने भाषा, जाति और धर्म के नाम से तो हिंदी-हिन्दू जोड़े रखा, लेकिन देश के नाम के तौर पर हिन्दुस्तान को नहीं अपनाया। उसके लिए हमने अंग्रेजों द्वारा दिया गया ‘इंडिया‘ अपना लिया।

इस सबका परिणाम यह हुआ कि देश के स्वतंत्र होने पर जब हम अपनी विविध प्रकार की पहचान समेटने की स्थिति में आए, तो हिंदी-हिन्दू-हिन्दुस्तान की सारी संगति बिगड़ चुकी थी। अब न यह देश हिन्दुस्तानल रह गया था, न यहां के निवासी हिन्दू थे और न यहां के निवासियों की भाषा हिंदी रह गयी थी। हिन्दुस्तान तो खैर गुम हो गया, जिसके पुनः आगमन की भी कोई संभावना नहीं रह गयी (शायद कोई जरूरत भी नहीं), क्योंकि यदि किसी ने लाने की कोशिश भी की, तो फौरन कुछ लोग सवाल उठायेंगे कि क्या यह देश केवल हिन्दुओं का है, इसलिए बाकी बचे हिंदु और हिन्दू। किंतु उनकी भी पहचान संकीर्ण हो गयी। यहां केवल कुछ लोग ही हिन्दू रह गये और केवल कुछ लोगों की भाषा हिंदी रह गयी। यानी पूरे देश की पहचान से इनका कोई लेना-देना नहीं बचा। जब राष्ट्र के रूप में अंग्रेजों का दिया देश हमने स्वीकार किया तो भाषा के रूप में उनकी दी हुई भाषा भी अपना ही और उनकी दी ‘बहुधर्मी, बहुजातीय, बहुरंगी, बहुभाषी खिचड़ी (फ्लूरल) पहचान भी स्वीकार कर ली। इतना ही नहीं, उस पर गर्व भी करने लगे। अपनी इस नई पहचान में राष्ट्रीय एकता की भावना का कोई तत्व शेष नहीं रह गया- न भाषा, न संस्कृति, न जाति, न धर्म। किसी खिचड़ी में एकरसता कायम करनी हो, तो दो ही रास्ते रह जाते हैं या तो उसके सारे भेदों को ठुकरा दो या सबको उनकी पृथकता के साथ सम्मान भाव से स्वीकार कर लो। तो इसके लिए हमारे देश के आधुनिक मनीषियों ने धर्म के स्तर पर तो दो महान तत्वों को स्वीकार किया, एक तो ‘धर्मनिरपेक्षता‘ (सेकुलरिज्म) और दूसरा ‘सर्व धर्म समभाव‘। लेकिन इनका भी व्यवहारिक स्तर पर निर्वाह नहीं हो सका। राजनीतिक स्वार्थ व अवसरवाद ने ‘धर्मनिरपेक्षता‘ और ‘भेदभाववाद‘ को अधिक महत्व दिया। और भाषा के संदर्भ में तो इतना भी परवाह करने की जरूरत नहीं समझाी। गयी। क्षेत्रीय भाषाओं के आधार पर प्रांतों का निर्माण करके क्षेत्रीयता को संतुष्ट कर दिया गया और राष्ट्र के स्तर पर तो ‘इंडिया‘ और ‘इंग्लिश‘ स्वीकार की ही जा चुकी थी। विविध धर्म, भाषा, जाति, क्षेत्र के बुद्धिजीवियों व राजनेताओं ने अपनी-अपनी श्रेष्ठता प्रतिपादित करने के प्रयास में ऐसा देशव्यापी भ्रमजाल पैदा किया कि एक राजनीतिक जागीरदारी के अलावा राष्ट्र की कोई सर्वमान्य पहचान ही नहीं रह गयी।

वस्तुतः हिंदी-हिन्दू-हिन्दुस्तान परस्पर सम्बद्ध शब्द और भाव हैं। प्रारंभ में इनका धर्म (मजहब या रिलीजन) से कोई संबंध नहीं था, लेकिन अब हिन्दू शब्द तो केवल धर्म (रिलीजन) की पहचान बन गया है, वह भी एक ऐसे धर्म की, जिसकी अब तक कोई सर्वमान्य परिभाषा ही नहीं बन सकी है। इसे धर्म मानने का काम अंग्रेजों या यूरोपीय विद्वानों ने किया, बाद में उनके प्रभाव के कारण इस पहचान वाले भारतीयों ने भी उसे स्वीकार कर लिया और इसकी गौरवगाथा लिखने में लग गये। लेकिन इस विडंबना की तरफ लोगों का ध्यान प्रायः नहीं गया कि न तो इस हिन्दू का देश हिन्दुस्तान रह गया और न इस हिन्दू की भाषा हिंदी बन सकी। यह ‘हिन्दू‘ एक जाति और एक संस्कृति के रूप में भी नहीं खड़ा हो सका, इसीलिए यह मान्य अंतर्राष्ट्रीय परिभाषा के अनुसार हिन्दू राष्ट्र (हिन्दू नेशन) भी नहीं बन सका। आज जो ‘इंडिया‘ नाम का देश है, उसे विदेशी विद्वान ‘एक राष्ट्र‘ नहीं, बल्कि ‘बहुराष्ट्रीय देश‘ (मल्टीनेशन कंट्री) कहते हैं। कुल मिलाकर स्थिति यह बन गयी है कि इसे जो जैसे चाहे परिभाषित कर सकता है। खैर, यह पूरा विषय बहुत विस्तृत है, जिसके ऐतिहासिक क्रम में ब्यौरेवार विवेचन की जरूरत है, किंतु यहां इस समय की चर्चा केवल भाषा पर केंद्रित है।

पुराणों तथा अन्य पारंपरिक ग्रंथों से हम जानते हैं कि हिमालय के दक्षिण का समुद्र पर्यंत भूभाग ‘भारत वर्ष‘ कहलाता था, लेकिन ज्ञात इतिहास काल में इस क्षेत्र में ऐसी कोई राजनीतिक इकाई या साम्राज्य नहीं था, जिसकी ‘भारत‘ या ‘भारत वर्ष‘ के नाम से पहचान रही हो। इसलिए इस क्षेत्र से बाहर के लोग अपनी सुविधा से इस क्षेत्र का नामकरण कर लेते थे। पश्चिमी क्षेत्र से इस भूक्षेत्र को अलग करने वाली प्राचीन पहचान ‘सिंधु‘नदी थी, इसलिए पश्चिम के लोगों ने इसके पूर्व के निवासियों को इसी नदी के नाम से पहचान दी। पर्सिया या फारसी में प्रायः ‘स‘ का उच्चारण ‘ह‘ हो जाता है। वहां महाप्राण ‘ध‘ की जगह अल्पप्राण ‘द‘ के उच्चारण की भी प्रवृत्ति देखी जाती है, इसलिए वहां ‘सिन्धु‘ या ‘हिन्दू‘ हो जाना स्वाभाविक था, जैसे संस्कृत का ‘सप्ताह‘ वहां ‘हफ्ता‘ हो गया और ‘असुर‘ का ‘अहुर‘। यूनानियों ने शायद फारस वालों से ही नाम की पहचान प्राप्त की और अपनी सुविधा से ‘हिन्दू‘ का ‘इंडु‘ या ‘इंडस‘ कर लिया। यूरोपियनों ने यूनान से ही इस देश का नाम ‘इंडिया‘ प्राप्त किया। यूनानियों की पहचान के आधार पर ही उन्होंने इस देश की भौगोलिक व सामाजिक पहचान प्राप्त की। अरबी-फारसी परंपरा से प्रभावित लोग इस देश को हिन्दुस्तान कहने लगे, तो यूनानी प्रभाव वाले पश्चिमी देश ‘इंडिया‘। तो विदेशी नजर में इस देश के दो नाम हो गये ‘इंडिया‘ और ‘हिन्दुस्तान‘ (संक्षेप में हिंद-बिल्कुल सिंध की तर्ज पर)। लेकिन आगे की विडंबना यह रही कि जब यहां विदेशियों के शासन का प्रारंभ हुआ, तो शुरुआत में जितने इलाकों पर अफगानों, तुर्कों व फारस वालों का शासन कायम हुआ, उतना ही क्षेत्र हिन्दुस्तान के नाम से चर्चित हुआ, बाकी का इलाका अलग-अलग क्षेत्रीय नामों से ही जाना जाता था। बाद में जब अंग्रेज आए, तो जितने इलाकों पर उनका कब्जा हुआ, वह ‘इंडिया‘ या ‘ब्रिटिश इंडिया‘ कहा जाने लगा और बाकी के इलाके या रियासतें अपने क्षेत्रीय नाम या वंश नाम से चलती रहीं। इस बीच राजनीतिक पहचान के रूप में भारत कहीं नहीं था। प्रारंभिक मुस्लिम काल के प्राकृत व अपभ्रंश साहित्य में प्रायः जहां भी ‘भारत‘ या ‘भारतीय‘ का इस्तेमाल हुआ है, वह गैर मुस्लिमों के अर्थ में हुआ है। जैसे ‘इह भरये‘ यानी ‘यह भारतों का‘। यदि ब्रिटिश काल के गजेटियरों को देखें, तो वहां दंतकथाओं के आधार पर संकलित इतिहास में ‘भर‘ जाति या ‘भ्रों के टीलों‘ का बहुत उल्लेख है। उस पर पूरा भरोसा करें, तो लगेगा कि कम से कम उत्तर भारत में राजस्थान से लेकर बंगाल तक शताब्दियों तक ‘भरों‘ का शासन था, जबकि अन्य इतिहास ग्रंथों या पुराने साहित्य में इनका कहीं उल्लेख नहीं मिलता। वास्तव में ये ‘भरों‘ नहीं, बल्कि ‘भरतों‘ या ‘भारतीयों‘ के टीले यानी उनके नगरों व किलों के ध्वंसावशेष हैं। प्रारंभिक काल में यहां आए मुस्लिम यहीं की भाषा व्यवहार में लाते थे, इसलिए उन्होंने अपना द्वारा स्थापित नगरों, किलों के अतिरिक्त जो कुछ पुराना था, उसे यहां के देशी लोगों की भाषा में ‘भरतों‘ या ‘भरों‘ का करार दे दिया है। आश्चर्य की बात है कि मध्यकाल या उत्तर मध्यकालीन इतिहास के पंडित अभी भी इतिहास की इस गुत्थी में उलझे हैं और भ्रों की पहचान में लगे हैं। यहां थोड़ा विषयांतर हो गया है, लेकिन इसका उद्देश्य यह बताना था कि हमने मध्यकालीन लोकभाषा की सम्यक पड़ताल नहीं की है। हमने ज्यादातर दरबारी कवियों की रचनाओं और मठों में सुरक्षित धार्मिक (रिलीजस) गं्रथों के आधार पर अपने भाषा इतिहास की रचना कर ली है।

यहां इतना तो स्पष्ट है कि बाहर के लोगों ने सिंधु नदी के पूर्व के सारे लोगों को हिन्दू, उनकी भाषा को हिंदी और पूरे समुद्र पर्यंत क्षेत्र को हिन्दुस्तान कहा। उन्होंने यहां के मजहब का कोई जिक्र नहीं किया। अब उनकी मूल बात मानें, तो इस देश की सारी भाषाएं हिंदी हैं। ईरान के प्रसिद्ध बादशाह नौश्ेरवां (531-579 ई.) में बजरोया नाम के एक विद्वान को ‘पंचतंत्र‘ का अनुवाद फारसी में करने के लिए भारत भेजा। ‘पंचतंत्र‘ संस्कृत का गं्रथ है, लेकिन इस अनुवाद की भूमिका में बजरोया पंचतंत्र की भाषा को ‘जबाने हिंदी‘ कहता है। इसी तरह मिनहाजुस्खी की पुस्तक ‘हबकाते नासिरी‘ में बताया गया है कि जबाने हिंदी में ‘बिहार‘ का अर्थ मदरसा होता है। यहां पालि या अप्रभंश के लिए ‘जबाने हिन्दी‘ शब्द का प्रयोग किया गया है। प्रसिद्ध सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी ‘अवधी‘ को हिन्दुई कहते हैं। ‘तुरकी, अरबी, हिन्दुई भाषा जेते आहि जेहिमह मारग प्रेमकर सबै सराहैं ताहि।।‘ नूर मोहम्मद (1764) में अपनी अवधी को हिंदी कहते हैं। ‘हिन्दू मग पर पांव न राखौं, का जौ बहुतै हिंदी भाखौं।‘ इन नूर मुहम्मद साहब से भी 21 वर्ष पहले गिरिधर राय (1743) ब्रजी के लिए हिंदी शब्द का प्रयोग करते हैं। ‘हिंदी मांहि फकीर के अच्छर लागैं तीन।‘ दक्कन के शेख अहमद लिखते हैं, ‘जबां हिंदी, हिंदवी, मुझसूं होर देहलवी- न जानू अरब होर अजब मसनवीं।‘

आशय यह कि बाहर से आए मुसलमान चाहे जिस भाषा क्षेत्र-तुर्की, अफगानी (पश्तो), फारसी, अरबी आदि- ये आए रहे हों, लेकिन वे यहां के बाजारों, कस्बों व शहरों की भाषा ही यहां इस्तेमाल करते थे। उसमें उनकी अपनी मातृभाषा या क्षेत्र भाषा के शब्द संभवतः मिलते गये होंगे। तो उनके आने से स्थानीय प्राकृत या अपभ्रंश भाषा में विदेशी शब्द भी मिलते गये। इसीलिए इस भाषा को ‘रेख्ता‘ (मिलीजुलीख जैसे आज हिंगलिश दिखायी देती है) भी कहा गया। उत्तर में अपनी सल्तनत कायम करने वाले मुस्लिम शासकों ने जब दक्षिण में हमले किये, तो उनके साथ अरबी-फारसी मिश्रित यह भाषा दक्षिण भी पहुंची। इस देश में निले स्तर पर जनसंपर्क की एक भाषा पहले से विद्यमान थी, जिसे व्यापारी, सैनिक, मजदूर, पर्यटक तथा साधु संत इस्तेमाल करते थे। उपरी स्तर पर व्यवहार के लिए इस्तेमाल होने वाली आम आदमी की भाषा को केवल भाषा ही कहा जाता रहा है। इसमें स्थानीय प्राकृत (स्वाभाविक रूप से विकसित क्षेत्रीय भाषा) के शब्दों के साथ संस्कृत का अपभ््रांश रूप शामिल था। प्राकृत क्षेत्रीय भाषाएं थीं, लेकिन अपभ्रंश और संस्कृत का कोई क्षेत्र विशेष नहीं था, ये राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय रूप से व्याप्त थीं। इनमें खासकर जनभाषा यानी अपभ्रंश में क्षेत्रीय भेद क्षेत्रीय प्राकृत भाषाओं की प्रकृति के अनुरूप ही हुआ है। मुसलमानों के आने से केवल यह हुआ कि इसमें फारसी, तुर्की, पश्तो और अरबी के भी कुछ शब्द मिल गये। मूलतः इसी भाषा को हिंदी या हिंदवी कहा गया है। चूंकि मुस्लिमों का दीर्घकालिक स्थाई शासन उत्तर में ही रहा और उस उत्तरी क्षेत्र का अफगानिस्तान, तुर्किस्तान व फारस से अधिक निकट संपर्क रहा, इसलिए आधुनिक हिंदी का यह नया रूप उत्तर में ज्यादे व्यापकता और गहराई से स्थापित हो सका। लेकिन प्रारंभ में यह भाषा भी हिंदी या हिंदवी ही थी और आम व्यवहार में भारतीय नागरी लिपि में ही लिखी जाती थी। बाहर से आये लोग चूंकि अपनी-अपनी क्षेत्रीय लिपियों में अभ्यस्त थे, इसलिए वे अपने निजी नोट अपनी तुर्की या फारसी लिपि में लिखते थे।

यहां यह उल्लेखनीय है कि मुसलमानों के इस देश में आने के कई सौ साल बाद तक भाषा में कोई मजहबी भेद नहीं पैदा हुआ था। आम बोलचाल और व्यवहार की भाषा बदल रही थी, लेकिन उसकी कोई हिन्दू मुस्लिम पहचान नहीं बन रही थी। लिपि को लेकर भी कोई झगड़ा नहीं था। इस देश में राजकाज की भाषा फारसी बन जाने के बाद भी (जो मुगल बादशाह अकबर के जमाने में हुई) उसकी पहचान मजहब के साथ नहीं जुड़ी। मुसलमान संस्कृत पढ़ते थे, हिन्दू फारसी। केंद्रीय दरबार का कामकाज फारसी में चलता था, लेकिन स्थानीय व्यवहार की भाषा हिंदी या हिंदवी ही थी। टोडर मल संस्कृत के भी पंडित थे, फारसी के भी। खुसरो की बहुभाषी रचनाओं से सभी परिचित हैं। रहीम खन खाना और बीरबल जैसे दरबारी संस्कृत और फारसी दोनों के पंडित थे, लेकिन उनके आम बोलचाल व व्यवहार की भाषा हिंदी थी। वही हिंदी, जो कबीर, रैदास और नानक जैसे संत इस्तेमाल कर रहे थे।

वस्तुतः भाषा पर मजहबी रंग चढ़ना तब शुरू हुआ, जब बादशाह शाहजहां ने दिल्ली का लालकीला बनवाकर तैयार किया (1639 ई.) और उसके आसपास शहजहांनाबाद शहर बसाया तथा राजधानी आगरा से हटाकर शहजहांनाबाद (आधुनिक दिल्ली) के लालकिले में पहुंचाया। अब तक बाहरी इस्लामी मुल्कों के विद्वान, शायरों, मजहबी नेताओं तथा राजनीतिक पंडितों का यहां आना काफी बढ़ गया था। लालकिले की शनदार इमारत बन जाने के बाद मुगल बादशाह शाहजहां की शोहरत और फैली, जिससे और बड़ी संख्या में फारसी अरबी के विद्वान वहां आने लगे। दरबार में एक नयी तरह की नफीस भाषा विकसित होने लगी, जिसमें फारसी से लिये गये। अब इस उच्च स्तरीय दरबारी भाषा को एक नया नाम दिया गया ‘जबाने उर्दूए मुअल्ला‘। इस पर इस्लामी मजहब का गहरा रंग चढ़ा हुआ था। किला जब बना, तो उसके पास बाजार की भी स्थापना होनी थी, सैनिक छावनी भी बननी थी। इस छावनी में अब फारसी व तुर्क सैनिकों की संख्या अधिक थी। उर्दू (ओर्डू) का शब्दार्थ होता है किला, अड्डा या शिविर। यह अंग्रेजी के ‘होर्ड‘ शब्द जैसा है। इस किले को उर्दू संज्ञा मिलने के बाद उसके पास के बाजार का नाम भी उर्दू बाजार पड़ गया। तो यह उर्दू किले के भीतर के सभ्य व कुलीन मुसलमानों की भाषा बनी।

यहां यह ध्यान देने की बात है कि भारत में आने के बासद यहां की भाषा को ‘हिंदी‘ नाम इन मुस्लिम हमलावरों द्वारा ही दिया गया था, लेकिन अब यह ‘हिंद‘ यानी इस देश की भाषा बन गयी थी और यहां के मूल निवासियों को हिंदी की संज्ञा मिल गयी थी। इसलिए दरबार के कुलीन मुस्लिम वर्ग को अपनी एक अलग पहचान वाली भाषा चाहिए थी। इन नये दरबारियों को यहां की भाषा पिछड़ी और कविता फूहड़ लगती थी, लेकिन उनकी आंख तब खुली की खुली रह गयी, जब दखिन के हिंदवी के शायर वली मुहम्मद (1667-1707) वर्ष 1700 में दिल्ली पहुंचे। उनकी शायरी के आगे ‘उर्दुए मुअल्ला‘ के शायर फीके लगे। उनकी ‘रेख्ता‘ व ‘हिंदवी‘ की कविता फारसी के विद्वानों को चमत्कृत करने वाली थी। उन्होंने वली को उर्दू ए मुअल्ला‘ में रचनाएं करने को कहा। वली साहब मान गये और वह उर्दू गजल के ‘बाबा आदम‘ का खिताब पाने के हकदार बन गये। इस लालकिले के दरबार से ही ‘उर्दू‘ (जबाने उर्दू ए मुअल्ला का संक्षिप्त रूप) ने अपना नया भाषाई और मजहबी रंग रूप अख्तियार करना शुरू किया। उसने पर्सियन लिपि की नश्तालिक लिखावट शैली (घसीट वाली)अख्तियार की। दक्षिण एशियायी जरूरी के अनुसार उसमें कुछ अक्षर (हर्फ) बढ़ाये गये और इस रूप में उसे हिंदी या हिंदवी से एक अलग पहचान दिलाने की कोशिश शुरू हुई। अभी तक हिंदी या हिंदवी की एक और लिपि नहीं तय थी। वह पर्सियन व तुर्की लिपि में भी लिखी जाती थी, नागरी में भी और अन्य भारतीय लिपियों में लिखी जाती थी। लेकिन अब उर्दू का नश्तालिक फारसी शैली में लिखना अनिवार्य हो गया। उर्दू का छंद विधान व वूर्य विषय भी फारसी शैली का हो गया। उर्दू के शायर अपना तखल्लुस (उपनाम या पेन नेम) रखने लगे, जो फारसी की परंपरा थी। इन्होंने अपनी उर्दू में फारसी, अरबी व तुर्की के शब्दों को बढ़ा दिया। संस्कृत के अपभं्रश शब्दों को भी लेने से परहेज किया जाने लगा।

भाषा के इस मजहबीकरण की प्रतिक्रिया होनी स्वाभाविक थी। अब हिन्दू के नाम से अभिहित भारतीयों ने अपनी अलग भाषाई पहचान के लिए ‘हिन्दू‘ शब्द से जुड़ी इस ‘हिंदी‘ को अपनी भाषा के रूप में विकसित करना शुरू किया। अब यहां दिक्कत यह पैदा हुई कि इस वर्ग का संस्कृत से नाता बहुत पहले ही टूट चुका था। वह केवल धार्मिक कर्मकांड तथा ऐतिहासिक साहित्य के अध्ययन अध्यापन तक सीमित रह गयी थी। मुस्लिमकाल में जो मिलीजुली भाषा विकसित हुइ्र और उसमें जो लौकिक साहित्य रचा गया, वह ज्यादातर फारसी लिपि में था, जो मुस्लिमों द्वारा लिखा गया था। अब भाषा के मुस्लिम मजहबीकरण की प्रतिक्रिया में जो भाषाई जागरूकता आयी, वह भला मुस्लिम रचनाकारों की रचनाओं को क्यों अपने साथ जोड़ती। उन्होंने केवल उन्हीं मुस्लिम रचनाकारों को अपने इतिहास में जोड़ा, जिन्होंने नागरीलिपि में लिखा या यहां के भक्ति आंदोलन से प्रभावित थे अथवा भारतीय इतिहास के हिन्दू कथानकों को अपना वूर्य विषय बनाया। इन्होंने उर्दू की प्रतिक्रिया में अपनी हिंदी में संस्कृत के शब्दों को अधिक संख्या में शामिल करना शुरू कर दिया। भाषा के इस मजहबी विभाजन को अंग्रेजी सत्ता ने आकर और पुष्ट किया, क्योंकि इसमें उसका दीर्घकालिक राजनीतिक हित था। (जारी)

4/09/2011

1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

बहुत ही शोधपरक लेख। आपके विचारों को अधिक लोगों तक पहुंचाना चाहिए। शायद तब ही भाषा के प्रति जानकारी बडेगी और जागृति आएगी। इस शोधपरक लेख के लिए आपको नमन॥