संगठित राजनीति और अराजनीतिक समाज
देश में व्यवस्था परिवर्तन की अनुगूंज काफी अर्से से सुनायी पड़ रही है। गैर राजनीतिक नागरिक समाज के दो प्रतिनिधि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव व्यवस्था परिवर्तन के दीर्घकालिक लक्ष्य को लेकर पिछले दिनों सामने आए। उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष को अपना प्राथमिक लक्ष्य चुना और वर्तमान केंद्रीय सरकार के समक्ष लगभग एक साथ एक गहरी चुनौती खड़ी की, लेकिन देश की संगठित राजनीतिक शक्ति तथा राजसत्ता के आगे उनकी एक नहीं चली। उन्होंने अपना संघर्ष छोड़ा नहीं है, लेकिन उनकी विश्वसनीयता और समझदारी खुद संदेह के घेरे में फंस गयी है। अन्ना तो किसी तरह अपनी छवि बचाए रख सके हैं, लेकिन बाबा ने तो स्वतः अपने भगवा तेज का सारा रंग धो दिया है। क्या होगा आगे?
नई क्रांति का संवाहक : देश का युवा वर्ग
अराजनीतिक बुद्धिजीवी वर्ग जो अपने को नागरिक समाज -सिविल सोसायटी- का प्रतिनिधि तथा देश का स्वायंभू नेता समझता है, इस समय सर्वाधिक दबाव में है। सत्ताधारी राजनेताओं ने उन्हें अपनी औकाम बता दी है। पिछले दिनों अराजनीतिक नागरिक समाज के दो मोर्चे सामने आए, एक का नेतृत्व गांधीवादी समाजसेवी अन्ना हजारे कर रहे थे, तो दूसरे का योग गुरु बाबा रामदेव। अन्ना हजारे के साथ जहां आधुनिक शहरी -मोमबत्ती जलाकर अपने क्षोभ या समर्थन का प्रदर्शन करने वाला- वर्ग जुड़ा, जिनमें विदेशी अनुदानों पर पलने वाले एन.जी.ओ. -तथाकथित गैर सरकारी समाज सेवी संगठन-, लाखों की फीस लेने वाले अधिवक्ता, सेकुलरवाद के ठेकेदार तथा अंतर्राष्ट्र्यतावादी बौद्धिक शामिल थे, तो दूसरी तरफ बाबा रामदेव के साथ ज्यादातर भगवाधरी साधु, स्वदेशाभिमानी राष्ट्र्वादी, संस्कृति प्रेमी, परंपरावादी तथा अपनी ऐतिहासिक व पौराणिक गौरवगाथा से अभिभूत नागरिक समुदाय जुड़ा था। दोनों का लक्ष्य एक था, सिद्धांततः दोनों एक-दूसरे के समर्थक थे, लेकिन चरित्रगत भिन्नता या आचार भिन्नता के कारण दोनों के अलग-अलग मोर्चे बने।
सत्ताधारी संगठन राजनीति ने शुरू में दोनों की लल्लो-चप्पो की। उन्हें भरमा कर शांत करने या अपने पक्ष में करने का प्रयास किया, लेकिन जब वे अपने हठ पर अड़े रहे, तो सत्ताधारी राजनेता भी अपनी असलियत पर उतर आए? उन्होंने दोनों को धता बता दिया। एक को वार्ता कक्ष में निपटा दिया, तो दूसरे को मैदान में मारपीट कर भगा दिया। अब दोनों ही सरकार पर धोखा देने का आरोप लगा रहे हैं और अपनी फरियाद जनता को सुना रहे हैं। लेकिन इस देश की जनता अमूर्त है। उसका मूर्त रूप केवल चुनावों में मतदान के समय सामने आता है। उस समय भी वह इतना विखंडित होता है कि पहचान कर पाना भी कठिन होता है। सामान्य स्थितियों में आम जनता से आशय उस शहरी या ग्रामीण मध्यवर्ग से होता है, जो रैलियों में नारे लगाता है, सभाओं में भीड़ बनता है, अन्यथा संपूर्ण राजनीति का मूकद्रष्टा होता है।
प्रायः यह कहा जाता है कि लोकतंत्र में मालिक जनता होती है, सत्ता में बैठे नेता या मंत्री उसके सेवक होते हैं। अन्ना हजारे भी यह दोहराते नहीं थकते कि 26 जनवरी 1950 को जबसे लोकतांत्रिक संविधान लागू हुआ, तबसे इस देश की आम जनता को पूरे देश के स्वामित्व का अधिकार मिल गया और सत्ताधारी जनप्रतिनिधि उसके सेवक हो गये। उनके अनुसार गलती यह हो गयी कि व्यवहार में यह सारी धारणा ही बदल गयी। जो सेवक थे, वे मालिक बन बैठे और जो मालिक थ, वह अधिकारविहीन सेवक बन गया। अब समय आ गया है कि व्यवस्था में हुए इस उलटफेर को बदला जाए और शीर्षासन की अवस्था में बदल गयी इस व्यवस्था को फिर से सीधा किय जाए।
लेकिन वास्तव में यदि तथ्यपकर ढंग से देखा जाए, तो उपर्युक्त अवधारणा सही नहीं है। जबसे संविधान लागू हुआ, देश की स्वामी निश्चय ही इस देश की मताधिकार प्राप्त जनता बन गयी, लेकिन देश की पूरी जनसंख्या मिलकर न तो देश का शासन चला सकती है और न कोई निर्णय ले सकती है, इसलिए उनके प्रतिनिधियों के चयन की व्यवस्था की गयी। चुनावों में आम जनता अपना सेवक नहीं अपना प्रतिनिधि चुनती है। इसलिए निर्वाचित प्रतिनिधि जनता का सेवक नहीं, बल्कि अपने निर्वाचन क्षेत्र की संपूर्ण जनता का लघु रूप होता है। इसलिए देश की संसद जनसेवकों का मंडल नहीं, बल्कि संपूर्ण देश की जनता का प्रतिरूप होता है। उसकी आवाज पूरे देश की जनता की आवाज होती है। अगला चुनाव होने तक संसद ही आम जनता होती है, उससे अलग आम जनता की देश के संचालन में कोई विधिक भूमिका नहीं रह जाती। वस्तुतः संवैधानिक दृष्टि से अफसरों और कर्मचारियों का समुदाय जनसेवक होता है, जो देश के निर्वाचित प्रतिनिधियों के अधीन उनके निर्देशानुसार काम करता है। जब कोई निर्वाचित प्रतिनिधि कोई प्रशासनिक पद ग्रहण कर लेता है, तो वह भी जनसेवक वर्ग में आ जाता है और निर्वाचित सदन के प्रति जवाबदेह बन जाता है। यहां फिर यह स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए कि उसकी जवाबदेही केवल सदन के प्रति होती है, न कि आम जनता के विविध समूहों के प्रति। यहां आप सवाल कर सकते हैं कि फिर ये निर्वाचित प्रतिनिधि अपने को समाज में जनसेवक की तरह क्यों प्रस्तुत करते हैं, तो इसका जवाब है कि देश की भोली भाली आम जनता को मूर्ख बनाकर उनका वोट पाने के लिए वे इस तरह नाटक करते हैं।
अभी प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक ‘द हिन्दू’ में प्रकाशित एक साक्षात्कार में कांग्रेस के नेता व केंद्री राज्य मंत्री अश्विनी कुमार ने कहा कि ‘वास्तविक लोकतांत्रिक देश में सरकार पूरे राष्ट्र् की आकांक्षाओं का -जिनमें सिविल सोसायटी’ के सारे संगठन भी शमिल हैं- प्रतिनिधित्व करती है। लोकतांत्रिक शासन में लोकतांत्रिक ढंग से स्थापित सरकार के मुकाबले किसी ‘सिविल सोसायटी’ को खड़ा करने की कोई जगह नहीं है। यदि ऐसा किया जायेगा, तो हम सीधे अराजकता की स्थिति में जा गिरेंगे।’ इस पर उनसे पूछा गया, तो क्या लोकतंत्र में जनांदोलनों के लिए कोई जगह नहीं है, तो उनका जवाब था कि शांतिपूर्ण विरोध निश्चय ही जनता के मूल अधिकारों में शामिल है, लेकिन यह केवल उस स्थिति में होना चाहिए, जब सरकार जनता की बात कतई न सुनने के लिए तैयार ही नहीं। जब हम उसकी बात सुनने और मानने के लिए तैयार हैं, फिर किसी आंदोलन की जरूरत क्यों। उन्होंने अन्ना हजारे और रामदेव का उदाहरण देते हुए कहा कि सरकार ने सिद्धांततः दोनों की बातें मान लीं और उस पर कार्रवाई भी शुरू कर दी। बाबा रामदेव को मनाने के लिए तो सरकार के चार-चार वरिष्ठ मंत्री हवाई अड्डे पर उनसे बातचीत करने के लिए पहुंचे। इसके बाद भी आंदोलन को आगे बढ़ाने का क्या औचित्य था।
ऐसी बात नहीं कि इस साक्षात्कार में प्रस्तुत अश्विनी कुमार की सारी दलीलें बहुत तर्कसंगत रही हों, लेकिन उनकी उपर्युक्त बातें अपनी सीमा में अवश्य तर्कसंगत थीं। अन्ना हजारे या बाबा रामदेव की बातें उसने सुनी, लेकिन उन्हें मानने के लिए बाध्य तो नहीं। बाबा रामदेव या अन्ना हजारे को देश की संपूर्ण जनता का प्रतिनिधि कैसे माना जा सकता है। वे कितनी भी उचित मांगें क्यों ना उठा रहे हों, लेकिन उनकी अपनी स्थिति एक ‘दबाव समूह’ -प्रेशर ग्रुप- से अधिक तो नहीं है। वे यदि सरकार के कार्यों से या उसकी नीतियों से सहमत नहीं हैं, तो उन्हें जन जागरण का अभियान चलाना चाहिए और अगले चुनावों तक प्रतीक्षा करनी चाहिए। और किसी तात्कालिक राहत की जरूरत हो, तो न्यायालय की शरण में जाना चाहिए।
अगर हम देश की वर्तमान राजनीतिक स्थिति या अब तक के लोकतांत्रिक शासन के इतिहास पर नजर डालें, तो यह बात बहुत साफ हो जाएगी कि हम अपने जिस संविधान की दुहाई देकर जनता के अपने अधिकारों की रक्षा की बात करते हैं, वह संविधान ही उन अधिकारों को छीनने का सबसे बड़ा साधन है। और आश्चर्य है कि इस संविधान को बदलने की बात कोई नहीं करता। हम लोग सिद्धांततः लोकतंत्र में विधायिका की सर्वोच्चता की बात करते हैं और मानते हैं कि प्रशासिक -इक्जीक्यूटिव- उसके नियंत्रण् में उसके अंतर्गत काम करती है, लेकिन व्यावहारिक स्थिति यह है कि यहां विधायिका प्रशासिका के नियंत्रण में काम करती है। संसद को सरकार संचालित करती है। अपने देश के संविधान में पार्टी तंत्र की कोई अवधारणा नहीं है। संविधान के अनुसार संसद या विधानसभाओं के सदस्य अपने निर्वाचन क्षेत्रों के प्रतिनिधि होते हैं। वे अपने निर्वाचकों द्वारा दी गयी शक्ति के अनुसार काम करते हैं और सदन के अतिरिक्त अपने निर्वाचन क्षेत्र के प्रति जवाबदेह होते हैं। किंतु व्यवहार में हर सांसद या विधायक अपनी पार्टी या पार्टी नेता का प्रतिनिधि होता है, उसी के प्रति जवाबदेह होता है और उसके हित में काम करता है। मतदान करने के बाद क्षेत्र के निर्वाचक जनता का अपने प्रतिनिधि पर कोई नियंत्रण् नहीं रह जाता। अगली बार वह उसे बदलने का भी विचार करे, तो वह निर्वाचन क्षेत्र बदलकर चुनाव लड़ सकता है और जनता उसे चाहती हो या नहीं, वह अपनी पार्टी के सहारे चुनाव जीत सकता है।
इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब यह हुआ कि इस देश के नागरिकों के भी दो राजनीतिक वर्ग है। एक वर्ग है संगठित राजनीतिक दलों का औश्र एक उनका जो किसी भी राजनीतिक संगठन में नहीं है। वे असंगठित हैं या अराजीतिक संगठनों के सदस्य हैं।
आर्थिक विकास तथा शिक्षा के प्रसार के साथ देश में जिस मध्य वर्ग का विस्तार हो रहा है, उसमें ऐसे मुखर नागरिकों की संख्या बढ़ रही है, जो देश की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था तथा राजनेताओं के आचरण से बहुत क्षुब्ध है और उसमें व्यापक परिवर्तन चाहते हैं, लेकिन उसे यह बात अभी समझ में नहीं आ रही है कि अराजनीतिक तरीकों से राजनीतिक परिवर्तन नहीं लाए जा सकते। राजनीतिक परिवर्तनों के लिए राजनीतिक तरीके भी अपनाने पड़ेंगे। धरना, प्रदर्शन व भूख हड़ताल करके सत्ता तो बदली जा सकती है, लेकिन व्यवस्था परिवर्तन नहीं हो सकता। जैसे धरना, प्रदर्शन तथा हिंसक-अहिंसक आंदोलन करके अंग्रेजों को सत्ता से हटाकर देश से बाहर कर दिया, लेकिन सत्ता परिवर्तन से भी व्यवस्था नहीं बदली। कारण साफ था कि अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे लोगों के पास न अपनी कोेई वैकल्पिक व्यवस्था थी, न कोई वैकल्पिक राजनीतिक सिद्धांत, इसलिए स्वतंत्र भारत का शासन तंत्र भी वैसा ही बना रहा, जैसा गुलाम भारत का था, बल्कि कुछ देशी विकृतियां उसमें घुस गयीं। जैसे जातिवाद और संप्रदायवाद ने स्वतंत्र भारत में वैध राजनीतिक सिद्धांतों का रूप ले लिया।
कांग्रेस ने तो अपने विरोधियों को ध्वस्त करने के लिए सांप्रदायिकता को अपना सबसे बड़ा हथियार बना लिया है, जिसे वह देश में लोकतांत्रिक संविधान लागू होने के बाद 1952 में हुए प्रथम आम चुनावों से लेकर अब तक इस्तेमाल करती आ रही है। ताजा उदाहरण सबके सामने है, जब भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना हजारे और बाबा रामदेव दोनों के आंदोलनों को उसने सांप्रदायिकता की डोरी से जोड़ दिया कि ये दोनों ही सांप्रदायिक शक्तियों के हाथ में खेल रहे हैं और वर्तमान सरकार को गिराने की साजिश कर रहे हैं। बेचारे गांधीवादी अन्ना हजारे भगवा छाया से बचने के लिए कितने द्रविण प्राणायाम कर डाले, लेकिन वह उनका पीछा नहीं छोड़ रहा है। और इधर बाबा रामदेव तो खैर उस रंग में रंगे ही हुए हैं। अपने को सेकुलर सिद्ध करने के लिए उन्होंने कम कसरत नहीं की। उन्होंने अपने मंच पर सर्व धर्म अखाड़ा कायम किया। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई कम से कम इन चार के प्रतिनिधियों को तो वहां जमाया ही, लेकिन इससे कोई लाभ नहीं हुआ। उन्हें हिन्दू सांप्रदायिक ही नहीं, हिंसक हिन्दू सांप्रदायिक घोषित कर दिया गया, क्योंकि उन्होंने 11,000 युवक-युवतियों की एक सशस्त्र सेना बनाने की बात कर डाली। इससे गांधीवादी अन्ना हजारे ही नहीं सैद्धांतिक लोकतंत्रवादी भी बिदक गये।
उच्च स्तरीय राजनीतिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध उभरे दोनों अराजनीतिक केंद्र बिखर गये। अन्ना हजारे का तो एजेंडा ही बहुत सीमित था। वह एक ऐसा जन लोकपाल नियुक्त करना चाहते हैं, जो प्रधानमंत्री व मुख्य न्यायाधीश से लेकर सारे सांसदों और अफसरों के विरुद्ध भ्रष्टाचार की शिकायतों की जांच कर सके और उन्हें सजा भी दिला सके। उन्होंने अपनी तरफ से ऐसे जन लोकपाल की नियुक्ति के लिए एक कानून का प्रारूप तैयार किया है। यह प्रारूप सरकार को स्वीकार नहीं। सरकार ने भी प्रारूप तैयार किया है, जो अन्ना और उनकी मंडली को स्वीकार नहीं। अब सरकारी मंडली और अन्ना मंडली में बातचीत चल रही है। विधेयक वही पास होगा, जो कांग्रेस चाहेगी, फिर उसके प्रारूप पर अन्ना इतना सिर क्यों पीट रहे हैं। उनकी सिविल सोसायटी को विधेयक पास करने या कानून बनाने का तो कोई अधिकार नहीं, वह तो संसद व सरकार के पास है, तो बात को उस पर छोड़ देना चाहिए। अन्ना यह भी कहते हैं कि संसद जो भी प्रारूप पास करेगी, वह उन्हें स्वीकार होगा। लेकिन वे इस बात पर क्यों ध्यान नहीं देते कि संसद वही पास करेगी, जो कांग्रेस चाहेगी, क्योंकि वहां उसी का बहुमत है। संसद का बहुमत कांग्रेस के मत से कोई भिन्न चीज नहीं है।
उधर बाबा रामदेव ने अपनी सारी नैतिक क्षमता और लोकप्रियता की शक्ति स्वयं नष्ट कर ली। देश भर में भारत स्वाभिमान की आंधी खड़ी करने वाला प्रकाश पुंज 4 जून की शाम से ही अपना तेज इस तरह खोने लगा है कि 5 जून तक एकदम अंधेरे में डूब गया। यह देश वीरता और त्याग का पुजारी है। भगवा वस्त्र के सामने अभी भी वह नतमस्तक हो जाता है, तो केवल इसलिए कि वह त्याग, बलिदान, साहस और वीरता का प्रतीक है। लेकिन बाबा ने कुछ घंटों में ही सब कुछ धो दिया। उन्होंने योग की प्रतिष्ठा भी नष्ट कर दी। योग साधना तो व्यक्ति को निडर-निर्भय बनाती है, मृत्यु भय से मुक्त करती है, लेकिन रामदेव की अब तक की योग साधना ने ऐसा कुछ नहीं किया। उन्होंने तो भगवान पतंजलि का नाम भी बदनाम कर दिया। राजनीतिक नासमझी तथा लोकप्रियता और धन बल के अहंकार ने उन्हें नष्ट कर दिया।
खैर, अन्ना और रामदेव का अध्याय खत्म हो चुका है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि देश में भ्रष्टाचार के विरोध का मुद्दा डूब गया है या कांग्रेस की केंद्रीय सरकार का मार्ग निष्कंटक हो गया है। कांग्रेस के अपने ही दल के एक मंत्री ए.के. एंटोनी ने कहा है कि देश में पारदर्शिता क्रांति का युग आने वाला है, जब गोपनीयता की सारी दीवारें ढह जायेंगी। लेकिन इसके साथ ही उन्होंने यह अफसोस भी व्यक्त किया है कि इस देश के नेता, मंत्री तथा बड़े अफसर इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। गोपनीयता की दीवार टूटेगी तो भ्रष्टाचार का गढ़ अपने आप ढहना शुरू हो जायेगा। इस देश की राजनीति भी बदलेगी, संविधान भी बदलेगा और राजनेताओं का चरित्र भी बदलेगा। यह परिवर्तन समय चक्र खुद लायेगा और निमित्त बनेगी वह पीढ़ी, जो एक बेहतर जीवन और बेहतर भविष्य की आकांक्षी है और जिसे वर्तमान राजनीतिक पीढ़ी का छल-छद्म, संकीर्ण स्वार्थ और आचार भ्रष्टता स्वीकार नहीं है।(12-6-201)
2 टिप्पणियां:
तंत्र का जाल टूटेगा और व्यवस्था बदलेगी तो भ्रष्टाचार का मुद्दा भी कुछ हद तक जनता के लिए हल हो जाएगा। रही बात उच्च स्थानों पर भ्रष्टाचार की, तो इससे आम जनता का नाता नहीं होता, यह तो राजनीति का हिस्सा होता है जो प्रायः हर देश में व्याप्त है।
देश की राजनीति की अच्छी व्याख्या की है आपने.
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