रविवार, 26 जून 2011

क्या विश्व इतिहास पीछे की ओर लौटेगा ?



अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपने सैनिकों के वापसी कार्यक्रम की घोषणा कर दी है। 2014 तक पश्चिमी देशों के सारे सैनिक अफगानिस्तान छोड़कर जा चुकेंगे। अमेरिका इराक को पहले ही खाली कर चुका है। सामान्यतया इसे एक शुभ सूचना माना जाना चाहिए, लेकिन चिंता की बात यह है कि जहां से आधुनिक लोकतांत्रिक शक्तियां पीछे हट रही हैं, वहां मध्यकालीन सोच वाली मजहबी ताकतें अपना सिक्का जमा रही हैं। यदि आज के वृहत्तर मध्य क्षेत्र से पश्चिमी शक्तियां वास्तव में हट गयी, तो उस क्षेत्र में मध्यकालीन ओटोमान साम्राज्य की वापसी अवश्यम्भवी है। इसका सबसे बड़ा खतरा निश्चय ही भारत को झेलना पड़ेगा, क्योंकि उसका पहला निशाना भारत ही होगा और यह फिर उस मध्यकालीन गुलामी का शिकार होगा, जिसके साए से यह अब तक मुक्त नहीं हो पाया है।

अमेरिका के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने अफगानिस्तान से अपने सैन्य वापसी कार्यक्रम की घोषणा कर दी है। इस वर्ष उनके 10 हजार सैनिक वापस चले जायेंगे। 5 हजार अभी इसी जुलाई में और 5 हजार दिसंबर तक। अगली गर्मियों तक उसके वे 30 हजार सैनिक वापस चले जायेंगे, जिन्हें अतिरिक्त कुमुक के तौर पर 2009 में भेजा गया था। वस्तुतः इस सैन्य वापसी कार्यक्रम की घोषणा उसी समय कर दी गयी थी, जब अफगान तालिबान से निपटने के लिए ओबामा ने 30 हजार और सैनिक वहां भेजने का ऐलान किया था। इनकी वापसी के बाद 70 हजार अमेरिकी सैनिक वहां बचेंगे, जो ओबामा के सत्ता में आने के पहले वहां मौजूद थे, मगर 2014 तक इन सबकी वापसी हो जायेगी। ओबामा के अनुसार तब तक अफगानिस्तान सरकार की सेना, तालिबान विद्रोहियों से निपटने और अपनी रक्षा करने में सक्षम हो जायेगी।

2012 में अमेरिका में अगले राष्ट्रपति का चुनाव होने जा रहा है, जिसमें मध्य पूर्व एशियायी क्षेत्र में अमेरिकी सैन्य उपस्थिति भी एक प्रमुख मुद्दा है। 2008 के चुनाव में भी मध्य पूर्व में अमेरिकी सैन्य कार्रवाई चुनाव का महत्वपूर्ण मुद्दा थी। इराक और अफगान युद्ध तथा ईरान में चल रही तनातनी ने चुनावों पर भारी प्रभाव डाला था। इस बार वैसी कोई स्थिति नहीं है, किंतु इस एक प्रश्न पर वहां की दोनों प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक पार्टियों की एक राय है कि अमेरिका को ‘वृहत्तर मध्य पूर्व क्षेत्र’ (ग्रेटर मिडिल ईस्ट) में अपनी सैन्य उपस्थिति कम करनी चाहिए। दोनों का तर्क है कि अमेरिका इतने दूर के देशों में ऐसी लंबी लड़ाई नहीं लड़ सकता। यह उसकी सामर्थ्य में हो भी, फिर भी यह उस पर एक भारी बोझ है और फिर ऐसी कार्रवाईयां उसके लिए व्यर्थ हैं, जिसका कोई लाभ नहीं। आम अमेरिकी नागरिकों की ऐसी धारणा बन रही है कि उसकी आर्थिक क्षमता का ऐसी व्यर्थ की लड़ाईयों में क्षय हो रहा है, जिससे उनकी अपनी कठिनाईयां बढ़ रही हैं और उनके जीवन की सुख-शांति प्रभावित हो रही है।

यह ’ग्रेटर मिडिल ईस्ट‘ पूर्व अमेरिका राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू. बुश का दिया हुआ नाम है, जिसमें मध्य पूर्व के इस्लामी देशों के साथ ईरान, तुर्की, अफगानिस्तान और पाकिस्तान को मिला दिया गया है। कभी-कभी इसमें मध्य एशिया के मुस्लिम देश भी शामिल कर लिये जाते हैं। वस्तुतः ‘ग्रेटर मिडिल ईस्ट‘ अब उत्तर अफ्रीकी, मध्य पूर्व तथा मध्य एशियायी (यूरेशिया एवं बाल्कान देशों) सारे इस्लामी देशों के समूह का बोधक बन गया है। यूरेशियन-बालकान्स में काकेशस (जार्जिया, अजरबैजान तथा आर्मीनिया) और मध्य एशियायी (कजाखस्तान, उजबेकिस्तान, किरगीजिस्तान, तर्कमेनिस्तान, अफगानिस्तान तथा ताजिकिस्तान) और तुर्की (यह मध्यपूर्व का सबसे उत्तर का इलाका है) जैसे देश आ जाते हैं। कहने का मतलब पूर्व में पाकिस्तान से लेकर पश्चिम में मोराक्को तक का क्षेत्र इसके अंतर्गत आ जाता है। मोटे तौर पर यह पूरी तरह इस्लामी क्षेत्र है, जो इतिहास के ओटोमान साम्राज्य की याद दिलाता है।

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सुलाहकार जिन्यू ब्रजेजिंस्की (राष्ट्रपति जिमी कार्टर के समय/ वर्तमान मध्य पूर्व को उपर्युक्त पूरे क्षेत्र /इसे यूरेशियन-बाल्कान नाम उसी का दिया है) पर नियंत्रण की कुंजी मानता था। उसकी रणनीति थी कि अमेरिका को चाहिए कि इस क्षेत्र में कोई स्वतंत्र प्रभावशाली सैन्य शक्ति विकसित न होने पाए। यदि कभी ये पूरे क्षेत्र संगठित होकर एक झंडे के नीचे आ गये, तो अमेरिका को फिर अपने महाद्वीप के मध्य भाग तक सीमित हो जाना पड़ेगा।

यद्यपि बहुत सारे लोग इस ‘ग्रेटर मिडिल ईस्ट‘ की अवधारणा को ही कोई महत्व नहीं देते। वे सवाल उठाते हैं कि ऐसी कौनसी चीज है, जो परस्पर अंतर्विरोधों से जकड़े इस पूरे क्षेत्र को जोड़ सकती है। निश्चय ही इन सारे देशों के हित समान नहीं है, लेकिन इन्हें जोड़ने वाली जो सबसे महत्वपूर्ण शक्ति है, वह है इस्लाम। दुनिया में इस्लाम एक नई करवट ले रहा है। आज स्वतंत्र फलस्तीन राज्य व स्वतंत्र कश्मीर की चर्चा एक साथ की जाती है। इस्लामी देशों के संगठन (ओ.आई.सी.) की बैठकों में फलस्तीन के प्रतिनिधि के साथ कश्मीर के प्रतिनिधि भी आमंत्रित किये जाते हैं।

इसलिए इस समय का एक गंभीर सवाल यह है /जो भारत के लिए भी महत्वपूर्ण है/ कि जब अमेरिकी सेना मध्य पूर्व से बिदा ले लेगी, तब क्या होगा। यह एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब देने से फिलहाल हर कोई कतराता है। मध्य पूर्व- विशेषकर उत्तरी अफ्रीका से यमन तक- के क्षेत्र में तानाशाही राजशाही के खिलाफ जो जनांदोलन भड़का है, उसकी भी नियति के बारे में अभी प्रायः सभी लोग चुप्पी साधे हैं। इनके बारे में एक खुशनुमा कल्पना की जा सकती है कि तानाशाही के खिलाफ उभरा यह जनज्वार लोकशाही का रूप ग्रहण करेगा और इस पूरे क्षेत्र में इस्लामी तानाशही की जगह पश्चिमी शैली का लोकतंत्र स्थापित हो जायेगा। किंतु इसकी संभावना अत्यंत क्षीण है। मिस्र को यदि उदाहरण के तौर पर लें, तो साफ हो जायेगा कि नया उभरा जनांदोलन किसी एक परिवार की तानाशाही की जगह मजहबी तानाशाही की जमीन तैयार कर रहा है। यह कल्पना भी की जा सकती है कि इन क्षेत्रों में सेकुलर लोकतंत्र और मजहबी तानाशाही के बीच कोई युद्ध खड़ा हो सकता है, लेकिन ऐसा कोई लक्षण नहीं नजर आ रहा है। इन देशों में तथाकथित सेकुलर शक्तियां इतनी कमजोर हैं कि वे मजहबी सत्ता कायम करने वालों के खिलाफ खड़े होने का साहस नहीं जुटा सकतीं। इसलिए यह तय है कि इस पूरे क्षेत्र पर इस्लामी तंत्र ही कायम होगा। उनके अपने आंतरिक अंतर्विरोध हो सकते हैं, लेकिन आधुनिक पश्चिमी शैली के लोकतंत्र के मुकाबले वे सभी एकजुट रहेंगे। अब यदि ऐसी एकजुटता विकसित होती है, तो इसका अर्थ है पुराना ओटोमान साम्राज्य फिर स्थापित हो जायेगा।

यद्यपि ठीक-ठीक वही स्थितियां वापस तो नहीं लायी जा सकतीं, जो 20वीं शताब्दी के पूर्व इस क्षेत्र में थीं, लेकिन कमोबेश दुनिया का बंटवारा उसी तरह का हो जायेगा। इस क्षेत्र के इतिहास का थोड़ा-बहुत बोध रखने वाले भी जानते हैं कि किस तरह वैजंटाइन साम्राज्य के खंडहरों पर अनातोलियम वंश का साम्राज्य स्थापित हुआ था और किस तरह ओटोमान्स ने 1453 में कांस्टेटिनोपाल /इस्ताम्बुल/ विजय के साथ इस्लाम का ध्वज इतने उंचे तक पहुंचा दिया था कि जल्दी ही यूरोप का बड़ा हिस्सा भी उसके साये में आ गया था। ओटोमान साम्राज्य यूरोप के भीतर तक पहुंच गया था और बुलगारिया, सर्बिया तथ हंगरी भी उसके दायरे में आ गये थे। काकेसस से लाल सागर के मुहाने तक तथा बगदाद से बसरा तक फैले साम्राज्य की स्थापना के बाद सुलतान सुलेमान ने कहा था, ‘मैं मुसलमानों का सुलतान और सम्राटों का सम्राट हूं।‘ इसे उन्होंने धरती पर ईश्वर की छाया कहा था, जो बढ़ती ही जा रही थी। 17वीं शताब्दी में ओटोमान साम्राज्य क्रेट तथा पश्चिमी यूक्रेन तक फैल गया था। अगली दो शताब्दियां उसके पतन की थीं और प्रथम विश्व युद्ध ने उसके सारे विस्तार को समेट कर ‘तुर्की गणराज्य‘ तक सीमित कर लिया और बाकी को फ्रांस और ब्रिटेन ने बांट लिया। इसके साथ ओटोमान या इस्लामी खलीफा का युग समाप्त हो गया। तुर्की गणराज्य के संस्थापक कमाल अता तुर्क ने साम्राज्य की दिशा ही बदल कर रख दी। उसने उसे पश्चिम के आधुनिक लोकतांत्रिक देशों के साथ जोड़ने की कोशिश की।

लेकिन अब तुर्की फिर बदल रहा है। उसे खिलाफत काल का गौरव लुभा रहा है। वर्ष 2003 के आम चुनाव में जब ‘न्याय और विकास पार्टी‘ (ए.के.पी.) के संस्थापक नेता रिसेप तैय्यिप एर्डोगन चुनाव जीते और देश के राष्ट्रपति का पद्भार संभाला, तो तुर्की एक नये तरह का सपना देखने लगा। बेहद आकर्षक व्यक्तित्व के धनी एर्डोगन के शासन काल में तुर्की ने असाधारण आर्थिक विकास किया। उन्होंने अभी इसी महीने लगातार तीसरी बार चुनाव जीतकर अपनी लोकप्रियता का सिक्का जमाया।

एर्डोगन को ज्यादातर लोग इस्लाम का एक उदार चेहरा मानते हैं, लेकिन वह ‘तुर्की गणराज्य‘ के पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने अपने देश का मुंह यूरोप की तरफ से मोड़कर फिर इस्लामी दुनिया की तरफ किया है। यही एर्डोगन हैं, जिन्होंने अफगानिस्तान से भारत का पांव उखाड़ने और पाकिस्तान को वहां जमाने की भरपूर कोशिश की। इसके लिए उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा और ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरून को भी प्रभावित करने की कोशिश की। वस्तुतः वह तुर्की को सुलेमान की नजर से देखते हैं।

यदि एर्डोगन के पूर्व इतिहास पर नजर डाली जाए, तो उनके व्यक्तित्व और सोच का आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है। अपने राजनीतिक जीवन के शुरुआती दौर में जब वह ‘इस्ताम्बुल‘ के नगर प्रमुख /मेयर/ थे, तब उन्होंने 20वीं शती के तुर्की कवि की इन पंक्तियों को सार्वजनिक तौर पर गाने के लिए जेल की सजा मिली थी। ये पंक्तियां थीं, ‘मस्जिदें हमारे बैरेक हैं, उनके गुम्बद हमारे हेल्मेट, मीनारें हमारे व्योनेट और इस्लाम पर ईमान लाने वाले हमारे सैनिक।‘ जाहिर है उनकी महत्वाकांक्षा अता तुर्क के पहले के उस तुर्की को वापस लाना है, जब तुर्की न केवल एक गर्वोन्नत मुस्लिम देश था, बल्कि एक क्षेत्रीय महाशक्ति था।

वह लगातार उस महत्वाकांक्षा की पूर्ति की दिशा में बढ़ रहे हैं। वह संविधान और न्यायपालिका की कीमत पर अपनी शक्ति बढ़ाने में लगे हैं। इसके लिए वह तुर्की का संविधान भी बदलवाना चाहते हैं। इस तुर्की नेता ने कभी लोकतंत्र की किराये की कार से तुलना की थी। उनका कहना था कि जब आप अपनी जगह पहुंच जाते हैं, तब आप उससे उतर जाते हैं और उसे वहीं छोड़ देते हैं। कोई भी आसानी से इसकी कल्पना कर सकता है कि वह इस कार को कहां तक लेकर जाना चाहते हैं और कहां उसे छोड़ देने की तैयारी में हैं।

तुर्की, ईरान और पाकिस्तान इस समय यूरेशियन-बाल्कान्स और मध्य पूर्व के इस्लामी विश्व का नेतृत्व कर रहे हैं। उनकी इस क्षेत्र से अमेरिका को बाहर करने की रणनीति कामयाब होती नजर आ रही है। इस काम में उनके लिए एक बड़ा मददगार देश चीन मिल गया है।

दुनिया के स्तर पर एक और उल्लेखनीय बात दिखायी देने लगी है, वह है वैश्विकता से फिर राष्ट्रीयता की ओर वापसी। गैर इस्लामी देशों की यह वापसी किसी सिद्धांत पर नहीं, बल्कि शुद्ध स्वार्थ पर आधारित है। उनके लिए सार्वभौमिकता वहीं तक उपयोगी है, जहां तक उनके राष्ट्रीय हित सधते हों या अपनी समृद्धि बढ़ती हो। वे किन्ही मूल्यों या सिद्धांतों- जैसे कि लोकतंत्र, समानता या सेकुलरिज्म के लिए कोई नुकसान नहीं उठाना चाहते। समय की मांग तो यह थी कि पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक देश एकजुट होते और लोकतंत्र विरोधी मजहबी साम्राज्यवाद के खिलाफ वैश्विक संघर्ष का बीड़ा उठाते, लेकिन वे अपनी समृद्धि व सुख-वैभव की रक्षा के लिए अपनी राष्ट्रीयता की संकीर्ण खोल में सिमटते जा रहे हैं।

यूरोपीय देशों ने एक संघ बनाकर क्षेत्रीय एकता का एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया था, लेकिन अब वह भी फिर अपनी राष्ट्रीयताओं की तरफ उलटे पांव चलने लगा है। इधर अपना एक देश भारत है, जिसकी न कोई राष्ट्रीय सोच बन पा रही है, न अंतर्राष्ट्रीय। मूल्यों की बात तो उसे सूझती ही नहीं। कितने अफसोस की बात है कि हम अपनी कश्मीर नीति को कोई ठोस रूप नहीं प्रदान कर सके हैं। हम कश्मीर के सवाल से सीध्े टकराने के बजाए उससे कन्नी काटते नजर आते हैं। यह समझना कोई बहुत मुश्किल नहीं है कि कश्मीर न तो कोई क्षेत्रीय समस्या है और न ही किन्हीं दो देशों के बीच के सीमा विवादकी समस्या। यह अब अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी साम्राज्यवाद की समस्या का अंग बन गया है। पाकिस्तान कश्मीर का मुद्दा उठाता है, तो हम ‘कांफीडेंस बिल्डिंग मेजर‘ का झुनझुना लेकर आगे आते हैं। समझ में नहीं आता हमारे नेतागण क्यों कश्मीर के सवाल से आंखें चुराते फिरते हैं।

अमेरिकी तथा यूरोपीय फौजें यदि पूरी तरह अफगानिस्तान को खाली कर देती हैं, तो भारत का वहां टिकना प्रायः असंभव हो जायेगा। यदि वह अफगानिस्तान को खाली कर देता है, तो पाकिस्तान में भी उसके बने रहने का कोई औचित्य शेष नहीं रहेगा। इराक वह लगभग खाली कर ही चुका है। जाहिर है उस स्थिति में ओटोमान जैसे खलीफा साम्राज्य की स्थापना का राजमार्ग अपने आप खुल जायेगा। यह नया साम्राज्य परमाणु शक्ति संपन्न होगा, तेल समृद्ध होगा और नई टेक्नोलॉजी से भी लैसे होगा, बस अपनी सामाजिक व राजनीतिक सोच में मध्यकालीन होगा।

ऐसा नहीं कि इसके साथ ही मानवीय स्वतंत्रता, उसके मुक्ति चिंतन तथा लोकतंत्र की सारी अवधारणा का अंत हो जायेगा, लेकिन इतना तो सही है कि उनके लिए अपने अस्तित्व रक्षा का संघर्ष काफी कठिन हो जायेगा। सवाल है कि सब कुछ जानते समझते हुए भी हम ऐसा क्यों होने दे रहे हैं ? हम क्यों संघर्ष से पलायन कर रहे हैं ? क्या दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक बुद्धिजीवी व राजनेता इस खतरे को बिल्कुल नहीं देख पा रहे हैं? और यदि देख पा रहे हैं, तो फिर किस दिन की प्रतीक्षा में है? क्यों नहीं साहसपूर्वक आगे आ रहे हैं?

2 टिप्‍पणियां:

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

सवाल है कि सब कुछ जानते समझते हुए भी हम ऐसा क्यों होने दे रहे हैं ? हम क्यों संघर्ष से पलायन कर रहे हैं ? क्या दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक बुद्धिजीवी व राजनेता इस खतरे को बिल्कुल नहीं देख पा रहे हैं? और यदि देख पा रहे हैं, तो फिर किस दिन की प्रतीक्षा में है? क्यों नहीं साहसपूर्वक आगे आ रहे हैं?



बिलकुल सही कहा आपने!विचारणीय है.....

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

अब देश चारों को से घिर रहा है... बाहर से इस्लाम और भीतर से ईसाई देशों का धन व धर्म परिवर्तन... दोनों ही देश के धार्मिक संतुलन को बिगाड रहे हैं। हिंदुत्व मे बिखराव है, राजनीति में तो वो अछूत है ही। किसी भी आंदोलन पर भाजपा या आर एस एस का ठप्पा लगा दो और ठप्प कर दो। वैसे भी देशवासी गुलामी के अभयस्त हैं ही, मानसिक रूप से आज भी हम गुलाम ह। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि हमें न राष्ट्रभाषा, राष्ट्रध्वज या राष्ट्रगीत पर अभिमान है और न हम उसका सम्मान करना जानते है। एक विदेशी भाषा हमारी राष्ट्रभाषा है, एक विदेशी स्तुतिगान हमारा राष्ट्रगीत है और हमारे नागरिकों को राष्ट्रध्वज का प्रयोग करने तक में सावधानी बरतनी पड़ती है ,,, भले ही उसे कहीं और जला दिया जा रहा हो। ऐसे में, परिस्थिति अंधकारमय लगेगी ही॥