रविवार, 10 जुलाई 2011

देश के समक्ष नेतृत्वहीनता का संकट



विफल सिद्ध हुई जोड़ी: सोनिया गांधी और डॉ. मनमोहन सिंह

सच कहा जाए, तो यह देश का समय घोर नेतृत्वहीनता के संकट से गुजर रहा है। सोनिया-मनमोहन की जोड़ी पूरी तरह विफल हो चुकी है। क्योंकि दोनों में नेतृत्व शक्ति का अभाव है और दोनों ही अपनी-अपनी जगह मुखौटों की भूमिका निभा रहे हैं। दोनों की अधिकतम कोशिश केवल यथास्थिति को बनाए रखने की है, क्योंकि दोनों में से कोई भी किसी तरह का खतरा नहीं उठाना चाहता। यही कारण है कि प्रशासनिक कार्यों में भी न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ रहा है और संविधानेतर शक्तियां विधायी कार्यों में हस्तक्षेप के लिए जनासमर्थन हासिल कर रही है।

वर्ष 2004 में जब कांग्रेस ने भारतीय जनता पार्टी को चुनाव में पछाड़कर देश की सत्ता अपने हाथ में ली थी और उसके नेतृत्व के लिए दो नेताओं की जोड़ी सामने आयी थी, तो राजनीतिक पंडितों ने इसे एक नई राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था की शुरुआत कहा था और माना था कि इससे देश को एक सक्षम और गतिशील राजनीतिक व्यवस्था प्राप्त होगी। यह प्रयोग अगले आम चुनावों के बाद भी जारी रहा, लेकिन अब लग रहा है कि यह प्रयोग पूरी तरह विफल हो गया है और देश पूरी तरह राजनीतिक नेतृत्वहीनता की स्थिति में पहुंच गया है। कम से कम पिछले एक वर्ष से तो यही लग रहा है कि देश का कोई नेता है ही नहीं और केवल एक कार्यवाहक व्यवस्था काम कर रही है, जिसका एकमात्र लक्ष्य किसी तरह यथास्थिति को बनाए रखना है, जिससे उसकी सत्ता बनी रहे और कोई दूसरा उसकी जगह न लेने पाए।

निर्णयहीनता और यथास्थिति की ऐसी स्थिति देश में शायद पहले कभी नहीं पैदा हुई थी। मई 2004 में कांग्रेस ने सोनिया गांधी के नेतृत्व में अप्रत्याशित विजयश्री हासिल की थी। उसे लोकसभा में पूर्ण बहुमत तो नहीं मिला था, लेकिन उसने भारतीय जनता पार्टी के गठबंधन को पीछे छोड़ दिया था। सोनिया गांधी देश की सबसे शक्तिशाली नेता के रूप में उभरकर सामने आयी थीं। प्रधानमंत्री पद की वह वास्तविक हकदार थीं, लेकिन उनका विदेशी मूल का होना शायद उनके मार्ग का अवरोधक बना। यह अवरोध एक नई व्यवस्था के जन्म का कारण बना। सोनिया गांधी के सामने अपने विकल्प के चयन का प्रश्न था। कांग्रेस के तमाम वरिष्ठ नेताओं की एक लंबी कतार थी। लेकिन सोनिया ने उन सबको पीछे छोड़कर डॉ. मनमोहन सिंह जैसे एक अराजनीतिक व्यक्ति को अपने विकल्प के रूप में प्रधानमंत्री पद के लिए चुना। यह एक असाधारण निर्ण था। मनमोहन सिंह अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के न केवल एक अर्थशास्त्री थे, बल्कि उनका एक लंबा एकादमिक व प्रशासनिक अनुभव था। उन्हें राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था व समाज की अच्छी जानकारी थी। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर पद का अनुभव था। देश में उनके हस्ताक्षर की मुद्राएं चल रही थीं। यही नहीं देश में नये आर्थिक सुधारों को लागू करने का प्रथम श्रेय भी उन्हें प्राप्त था। नेहरूकालीन बंद अर्थव्यवस्था को खुली अर्थव्यवस्था और ग्लोबलाइजेश्न की नई अवधारणा को देश में लाने का श्रेय उन्हें ही दिया जाता है। प्रधानमंत्री पद के लिए उनके चयन से देश का राजनीतिक समुदाय जहां चकित था, वहीं देश का आम आदमी हर्षविभोर था। पहली बार उसे एक ऐसा प्रधानमंत्री मिल रहा था, जो राजनीतिक पृष्ठभूमि से नहीं आया था। जो ईमानदारी की प्रतिमूर्ति और दुग्धधवल छवि का स्वामी था। इतना पढ़ा-लिखा प्रधानमंत्री देश को पहले कभी नहीं मिला था। देश की अर्थव्यवस्था को पतन के गर्त से निकालने से आक्रांत देश को लगा कि अब उसकी सारी समस्याओं का समाधान हो जायेगा।

नई स्थिति के प्रशंसक व्याख्याकारों ने कहा कि पहली बार देश का राजनीतिक और प्रशासनिक नेतृत्व दो अलग-अलग हाथों में रहेगा। राजनीतिक दायित्व पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के हाथों में रहने के कारण प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के पास देश के प्रशासन को संभालने के लिए अधिक समय रहेगा। वे सुधार और निर्माण कार्यों को अधिक बेहतर ढंग से कर सकेंगे। सरकार का मुखिया यदि कर्मठ और ईमानदार रहेगा, तो वह कर्मठता और ईमानदारी पूरे प्रशासन में आएगी। शासनतंत्र में उपर से नीचे तक व्याप्त भ्रष्टाचार मिटेगा और एक स्वच्छ कार्यशैली जन्म लेगी।

समय बीतता गया, लेकिन जैसी अपेक्षा की गयी, वैसा कुछ नहीं हुआ। असंतोष खदबदाने लगा, लेकिन सरकार देश को यह समझाने में सफल रही कि वह क्या करे। उसके हाथ-पांव बंधे हैं। वह उन तमाम पार्टियों की जकड़न में है, जिसके समर्थन पर वह टिकी है। नेतृत्व की योग्यता व उसके संकल्प में कोई कमी नहीं है, लेकिन गठबंधन की व्यावहारिक राजनीति रास्ते में रोड़ा बनी हुई है। नेतृत्व को कुछ नया करने का मौका ही नहीं मिल रहा है। उस समय सरकार वाम मोर्चे के समर्थन पर निर्भर थी। वाम मोर्चे के इन नेताओं की कारगुजारी सबके सामने थी। वे सरकार को अपनी उंगलियों पर नचाना चाहते थे।

वामपंथियों के कारण सरकार को एक अच्छा बहाना मिल गया कि उनके कारण वह न तो आर्थिक सुधारों का अपना कार्यक्रम लागू कर पा रही है और न प्रशासनिक कार्य संस्कृति व श्रमनीति में कोई बदलाव ला पा रही है। अमेरिका के साथ किये गये परमाणु समझौते ने भी सरकार का काफी कीमती समय बर्बाद किया। इसके कारण सरकार को अपनी अस्तित्व रक्षा की कठिन लड़ाई लड़नी पड़ी। आम आदमी की निराशा के जवाब में प्रधानमंत्री का जवाब था कि उनके हाथ में कोई जादू की छड़ी तो नहीं है कि पलक झपकते सब कुछ सुधर जाए। उसने उनका यह तर्क स्वीकार भ्ी कर लिया, क्योंकि उसे उनकी ईमानदारी और कार्यक्षमता में अभी भ्ी विश्वास था। कांग्रेस ने अपना अगला आम चुनाव डॉ. मनमोहन सिंह को ही आगे करके लड़ा। इसका उसे लाभ भी हुआ। पूर्ण बहुमत तो नहीं मिल सका, लेकिन वामपंथियों की बैसाखी से तो निजात मिल गयी। अन्य सहयोगी दलों में भी ऐसा कोई नहीं रहा, जो कोई सैद्धांतिक अवरोध पैदा कर सके। आशा की गयी कि सरकार अपने इस दूसरे कार्यकाल में जरूर कोई चमत्कार करेगी। दुनिया उस आर्थिक मंदी के दौर से भी बाहर हो गयी थी, जिसका सामना सोनिया-मनमोहन की पहली सरकार को करना पड़ा था।

लेकिन अफसोस इस दूसरी सरकार नेदोहरे नेतृत्व की विशेषता का सारा मुलम्मा उतार दिया। पता चला कि दोहरा नेतृत्व तो एक मरीचिका है। वास्तव में तो देश नेतृत्वविहीनता की स्थिति से गुजर रहा है। जो हैं वे कार्यवाहक हैं या मात्रा मुखौटे हैं, नेता तो कोई है ही नहीं। नेता तो वह होता है, जो अपनी जनता से लगातार संवाद करे, उसकी समस्याओं का मुकाबला करे और विवादास्पद मसलों पर भी फैसले लेने का खतरा मोल ले, किंतु नेतृत्व का यह गुण न तो सोनिया गांधी ने प्रदर्शित किया और न डॉ. मनमोहन सिंह ने। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री तो बन गये, लेकिन उन्होंने कभी अपने को नेता नहीं माना। वह अपने को कार्यवाहक या खड़ाउपूजक ही मानते रहे। उन्होंने कभी यह महसूस नहीं किया कि देश की कुछ राजनीतिक जवाबदेही उनके उपर भी है। वह इस अहसास से कभी बाहर नहीं निकल पाए कि देश का वास्तविक नेता तो कोई और है, वे तो केवल उसके द्वारा नियुक्त कार्यसंचालक मात्र हैं। वे केवल आदेश पालक हैं, निर्णयकर्ता नहीं। उनका काम केवल सरकार चलाना है, देश चलाना नहीं। देश चलाने वाला कोई और है।

दूसरी तरफ सोनिया गांधी ने भी कभी अपने को देश की नेता नहीं माना। भारत की नेता बनने की उनकी कभी कोई महत्वाकांक्षा भी नहीं रही। सत्ता प्रमुख बनने की आकांक्षा भले रही हो, लेकिन नेता बनने की नहीं। उनकी अधिकतम जिम्मेदारी कांग्रेस पार्टी तक सीमित है। उसकी भी नेता वह केवल इसलिए हैं कि वह नहीं रहेंगी, तो पार्टी के अपने अस्तित्व के लिए भी खतरा पैदा हो सकता है। सच कहें तो वह कांग्रेस पार्टी की एक मुखौटा भर हैं। यह एक भ्रम है कि पार्टी के सभी फैसले वे ही करती हैं। इस देश के प्रशासनिक ढांचे में जो स्थान राष्ट्रपति का है, कांग्रेस के सांगठनिक ढांचे में लगभग वही स्थिति सोनिया गांधी की है। जैसे कैबिनेट के फैसले राष्ट्रपति की मुहर से जारी होते हैं, उसी तरह कांग्रेस के राजनीतिक फैसले सोनिया गांधी के नाम पर जारी होते हैं।

सोनिया स्वयं इस देश के नेतृत्व संभालने के प्रति शुरू से उदासीन रही हैं। सच कहा जाए, तो वह केवल अपने परिवार का धर्म निभा रही हैं। उनका अपने पुत्र के प्रति मोह हो सकता है। यह हो सकता है कि वह उसे इस देश के प्रधानमंत्री पद पर आसीन होते देखने का सपना पाल रही हों, लेकिन इस देश का राष्ट्रीय नेतृत्व संभालने की महत्वाकांक्षा शायद ही कभी उनके मन में पैदा हुई हो। यदि ऐसा होता, तो राष्ट्रीय मसलों पर वह कभी इस तरह उदासीन न रहती, जैसी कि वह प्रायः नजर आती हैं। इसका कारण केवल यह नहीं है कि वह विदेशी मूल की हैं, बल्कि इसका असली कारण यह है कि वह स्वाभाविक नेता नहीं है। नेता होने का दायित्व उन पर थोप दिया गया है। इस पद का अपना ग्लैमर तो है ही, जो उन्हें अच्छा भी लगता होगा, लेकिन यह उनके स्वाभाविक व्यक्तित्व का हिस्सा नहीं है। वह बस पार्टी के हित में अपने परिवार का पारंपरिक दायित्व निभए जा रही हैं। उनकी विशेषता यही है कि वह पार्टी के प्रतीकात्मक नेतृत्व की भूमिका बखूबी निभा रही हैं। जो फैसले प्रणव मुखर्जी, अहमद पटेल, चिदंबरम, कपिल सिब्बल व ए.के. एंटनी, दिग्विजय सिंह, जर्नादन द्विवेदी, वीरप्पा मोइली, गुलाम नबी आजाद आदि करते हैं, वे उस पर मुहर लगा देती हैैं। उनकी एक ही चिंता रहती है कि पार्टी को कैसे भी कोई नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए और उनकी अपनी छवि पर कोई छींटा नहीं पड़ना चाहिए।

इसका मतलब क्या हुआ ? यही न कि देश पूरी तरह नेतृत्वविहीन है। मामला आतंकवाद का हो, जातिवाद का हो, भ्रष्टाचार का हो, सांप्रदायिकता का हो, सीमा सुरक्षा का हो, किसी को इसकी चिंता नहीं है। विवाद अयोध्या का हो, कश्मीर का हो, तेलंगाना का हो, उत्तर पूर्व का हो, बस किसी तरह इनको टालते रहना ही सरकार का कर्तव्य बन गया है। जब सबके सब कार्यवाहक या दूसरी पंक्ति के नेता हों, तो फैसले कौन लेगा। दूसरी पंक्ति के नेता कभी कोई खतरा उठाने का साहस नहीं कर सकते। खतरे उठाने के फैसले केवल शीर्ष नेता ही कर सकते हैं और यदि शीर्ष नेतृत्व भी केवल कार्यवाहक मुखौटों का रूप ले चुका हो, चाहे वह पार्टी का मुखौटा हो या सरकार का, तो फिर भला कौन फैसले करेगा। ऐसे में न्यायालय या गैर राजनीतिक संस्थाएं केंद्रीय भूमिका में आ ही जायेंगी। यह सरकार और राजनीति की नेतृत्वहीनता का ही परिणाम है कि भ्रष्टाचार की जांच का मामला हो या काले धन का पता लगाने की समस्या, इससे निपटने के लिए न्यायालय को आगे आना पड़ता है। कर चोरी, भ्रष्टाचार व काले धन पर कानून बनवाने के लिए संविधानेतर शक्तियां आगे आती हैं और देश की आम जनता सरकार से अधिक उन पर भरोसा करने लगती हैं।

ऐसे में देश की इस समय पहली आवश्यकता है एक वास्तविक राजनीतिक नेतृत्व की। वह योग्य हो, अयोग्य हो, सक्षम हो या अक्षम हो, यह अलग बात है। पहले तो एक नेता चाहिए, जो इस देश को, इस देश के समाज को अपना मानता हो, जो इसके लिए ही जीने मरने में विश्वास रखता हो। कार्यवाहक नेताओं, मुखौटों और दूसरी पंक्ति के तिकड़मबाजों के सहारे यह देश नहीं चल सकता। यदि लोग यह समझते हों कि राहुल गांधी देश के नेता बन सकते हैं, तो उनको ही आगे लाना चाहिए। कम से कम वह सोनिया व मनमोहन सिंह से तो बेहतर नेता होंगे। वह गलतियां कर सकते हैं, मगर वह किसी के मुखौटे या कठपुतली तो नहीं होंगे, लेकिन इसके लिए स्वयं राहुल गांधी को आगे बढ़कर नेतृत्व की चुनौती को स्वीकार करना पड़ेगा, क्योंकि यदि वह भी सुरक्षित सत्ता के अवसर की प्रतीक्षा में पड़े रहे, तो उन्हें भी उनकी पार्टी के तिकड़मी नेता एक मुखौटे में तब्दील करके रख देंगे।

यह मानना पड़ेगा कि भारतीय राजनीति और प्रशासन में सोनिया व मनमोहन सिंह की जोड़ी समय की कसौटी पर विफल साबित हुई है। प्रख्यात समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया राजनीतिक परिवर्तनों के लिए अगले आम चुनावों की प्रतीक्षा के संदर्भ में कहा करते थे कि किसी देश की जिंदा कौमें पांच वर्षों की प्रतीक्षा नहीं कर सकतीं। परिवर्तन की जरूरत हो, तो वह तुरंत होना चाहिए। इस देश को एक जीवंत एवं उर्जावान नेतृत्व की जरूरत है, थके हुए या उदासीन मुखौटों की नहीं। क्या निकट भविष्य में ऐसा कोई नेता सामने आ सकता है?

10/07/2011

3 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

पहले नेता देश चलाते थे और आज एक ईमानदार अधिकारी देश चला रहा है जो राजनीति सीखते सीखते दल दल में फंसतआ जा रहा है और हर मर्ज़ का इलाज या तो जी ओ एम है या फिर गठबंधन की मजबूरी॥

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

गहन चिन्तनयुक्त प्रासंगिक लेख....

babul ने कहा…

आदरणीय डॉ. राधेश्याम शुक्ल जी,
यथायोग्य अभिवादन् ।

आपको पढऩे का सौभाग्य मिला, मैं धन्य हुआ।
देश के समक्ष नेतृत्वहीनता का संकट में शीर्षक नामक आलेख में आपने सटीक बात कही है कि भारतीय राजनीति और प्रशासन में सोनिया व मनमोहन सिंह की जोड़ी समय की कसौटी पर विफल साबित हुई है। प्रख्यात समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया जी का मानना भी सच ही जान पड़ता है कि किसी देश की जिंदा कौमें पांच वर्षों की प्रतीक्षा नहीं कर सकतीं। परिवर्तन की जरूरत हो, तो वह तुरंत होना चाहिए।

रविकुमार बाबुल
ग्वालियर
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