हम अपना राष्ट्रीय संवत्सर भी भूल चले हैं और उसके संस्थापक को भी
विक्रम संवत के संस्थापक: शौर्य एवं न्याय के प्रतीक महाराजा विक्रमादित्य
युग प्रतिपदा के नवसंवत्सर महोत्सव के अवसर पर भारतीय संवत्सर परंपरा में सर्वाधिक लोकप्रिय विक्रम संवत के संस्थापक विक्रमादित्य की याद आना भी स्वाभाविक है। अयोध्या के राजा राम के बाद उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने इस देश की परंपरा में जैसा गहरा स्थान बना रखा है, वैसा दूसरा कोई राजा कभी नहीं बना सका। विक्रमादित्य इस देश में आदर्श न्याय, प्रजावत्सलता, सामाजिक समन्वय तथा विद्या एवं कला संरक्षण के प्रतीक हैं। उनका सिंहासन तो न्यायपीठ का पर्याय बन गया है। आश्चर्य है हम अपना पारंपरिक राष्ट्रीय नववर्ष ही नहीं, ऐसे आदर्श राष्ट्र पुरुष को भी भूल गये हैं। क्या इस देश के लोग कभी यह सोचेंगे कि चैत्र शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन यानी ‘युग प्रतिपदा‘ को हम राष्ट्रीय नववर्ष दिवस के रूप में मनाएं और इस अवस पर विक्रमादित्य जैसे राजा के आदर्शों का स्मरण करें।
कालचक्र तो अखंड है, उसका न कोई आदि होता है, न अंत, लेकिन अपनी धरती पर चलने वाला जीवन चक्र अखंड होते हुए भी आदि- अंत के भाव से मुक्त नहीं है। हमारा जीवन ऋतु चक्र से संचालित होता है। एक ही ऋतु एक निश्चित अवधि के बाद फिर लौटकर आती है। एक निश्चित अवधि के बाद एक ऋतु का वापस आना हमारी धरती की अपनी गति पर निर्भर है। वह अपने जीवन प्रदाता सूर्य की एक परिक्रमा जितनी अवधि में पूरी करती है, उतनी ही अवधि एक ऋतु को वापस आने में लगती है। इसी अवधि को हम संवत्सर या वर्ष के नाम से जानते हैं।
‘स्मृति सार‘ नामक एक ग्रंथ है, जिसमें संवत्सर की परिभाषा की गयी है। इसके अनुसार संवत्सर वह है, जिसमें मास, ऋतु और दोनों अयनों /विषुवत रेखा के दोनों ओर यानी दक्षिण और उत्तर में सूर्य की स्थिति/ का समत्यक वास होता है। यहां यह उल्लेखनीय है कि धरती अपने अक्ष पर यदि 23 1/2 अंश झुकी हुई न होती और इस तरह झुके-झुके अपने अक्ष पर घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा पूरी न करती, तो न धरती पर ऋतुएं बदलतीं और न यहां जीवन की उत्पत्ति होती । इस झुकाव के कारण ही अयनों का निर्माण होता है और ऋतु चक्र का जन्म होता है। इस झुकाव के कारण ही ऐसा प्रतीत होता है कि सूर्य धरती के गोले की मध्य रेखा /जिसे विषुवत रेखा कहा गया है/ कुछ दूर दक्षिण की ओर /मकर रेखा तक/ जाकर फिर वापस उत्तर की ओर /कर्क रेखा तक/ जाता है। जिसे हम उसका दक्षिण अयन में या उत्तर अयन में जाना कहते हैं। इस प्रतिमासित गति के कारण ही धरती पर दिन रात की अवधि बदलती रहती है।
अब धरती द्वारा सूर्य की एक परिक्रमा या एक ऋतु चक्र के पूर्ण होने पर एक संवत्सर तो पूरा हो गया, लेकिन अब समस्या यह हुई कि एक ऋतु चक्र या पृथ्वी की एक परिक्रमा का प्रारंभ बिंदु कब माना जाए। कब कहा जाए कि अब नया संवत्सर शुरू हो रहा है। अपने यहां ब्रह्मांड पुराण में कहा गया है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नया संवत्सर प्रारंभ होता है। पुराणकारों की कल्पना के अनुसार इसी दिन भगवान विष्णु का धरती पर मत्स्य के रूप में पहला अवतार /मत्स्यावतार/ हुआ था और प्रजापिता ब्रह्मा ने इसी दिन सृष्टि की रचना प्रारंभ की /चैत्रमासि जगद ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेहनि/। ज्योतिर्विदों ने भी इस तिथि को बहुत महत्वपूर्ण माना। प्रख्यात भारतीय ज्योतिर्विद वाराहमिहिर की बृहत्संहिता /6ठीं शताब्दी ई./ तथा भास्कराचार्य /12वीं शताब्दी/ के सूर्य सिद्धांत का वर्षाधार यही तिथि है। यानी अपनी संवत्सरीय काल गणना वह इसी तिथि से प्रारंभ करते हैं। इसलिए इस देश में वर्षारंभ की सर्वमान्य या कहें अधिकांश लोगों द्वारा मान्य तिथि यही रही है।
ब्रह्मा ने कब सृष्टि निर्माण प्रारंभ किया, इसकी कोई तिथि नहीं बतायी जा सकती, किंतु कल्पनाशील भारतीय मनीषियों ने संवत्सर के प्रारंभ की इसी स्वीकृत तिथि को सृष्टि के प्रारंभ की भी तिथि स्वीकार कर लिया। इसका एक सहज स्वाभाविक आधार इस ऋतु चक्र में ही निहित था। शिशिर के अंत के बाद सूर्य विषुवत रेखा पार करके उत्तर की ओर बढ़ने लगता है, तब धरती के उत्तरी गोलार्ध में /जिसमें अधिकांश जीवन केंद्रित है/ नई जीवन चेतना और उल्लास का संचार होता है। पतझड़ के बाद वृक्षों में नई कोपलें और उनके साथ नये रंग-बिरंगे पुष्पों का आगमन होता है और उनके अंतर्कोर्षों में नये बीजों-फलों का सृजन मंत्र गूंजता प्रतीत होने लगता है। संपूर्ण प्रकृति अपरिमित सौंदर्य और उल्लास से उत्फुल थिरकती सी नजर अती है। भला सृष्टि के निर्माण के लिए इससे भिन्न क्या कोई और समय स्वीकार किया जा सकता है। अब रही बात यह कि इसकी एक ठीक-ठीक तिथि कैसे तय कर ली गयी। स्वाभाविक है कि जब ज्योतिर्विदों ने एक संवत्सर को द्वादश सौर या चांद्र मासों में विभाजित किया और उसका अंत फाल्गुन के साथ मान लिया, तो नये वर्षारंभ का पहला महीना चैत्र होना स्वाभाविक हो गया। किंतु नये वर्षारंभ के लिए ऐसी तिथि चाहिए थी, जो विकासोन्मुख हो। फाल्गुन पूर्णिमा के बाद आने वाली पहली प्रतिपदा कृष्ण् पक्ष की थी, जिसके साथ चंद्रमा को क्रमशः क्षीण होना था। अब ऐसी तिथि को तो न सृष्टि के आरंभ की तिथि माना जा सकता था और न वर्षारंभ या नवसंवत्सरारंभ की। इसलिए 15 दिन की प्रतीक्षा के बाद चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को इसके लिए सर्वदा उपयुक्त माना गया। जिसके साथ चंद्रमा वृद्धि के पथ पर अग्रसर होता है। इसलिए प्रकृति का स्वाभाविक नवसंवत्सर प्रारंभकाल-कम से कम भारतीय क्षेत्र के लिए- तो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही स्वीकार किया गया। अपनी वैदिक व पैराणिक परंपरा ने किसी व्यक्ति या किसी सामाजिक राजनीतिक घटना के बजाए प्राकृतिक परिवर्तनों के आधार पर नवसंवत्सर की प्रारंभ तिथि की स्थापना की। क्षेत्र भेद तथा रुचि भेद से इसमें अंतर अवश्य था, लेकिन सर्वाधिक व्यापक मान्यता इसी तिथि को मिली।
पूरी दुनिया के संदर्भ में देखें, तो इस समय सर्वाधिक व्यापक संवत्सर या वर्ष ईसाई संवत है, जो ईसा की मृत्यु या उनके पुनर्जन्म की तिथि के साथ जुड़ा हुआ है। इसकी शुरुआत संभवतः रोमन सम्राट सीजर ने की थी। यह संवत
व्यक्ति आधारित है, ऋतु या प्रकृति आधारित नहीं। लेकिन व्यक्तियों व घटनाओं को लेकर दुनिया में बहुत से संवत्सर /करीब 180/ प्रचलित हैं। आज यूरोपीय देशों व अमेरिका में एक ही ईसाई संवत प्रचलित है, लेकिन कभी इटली, रोम, फ्रांस आदि के अपने अलग संवत्सर थे। इसी तरह भारत में बहुत से संवत्सर प्रचलित थे। पुराणें के अनुसार सतयुग में ब्राह्म संवत्सर /ब्रह्मा का संवत/ प्रचलित था। त्रेता और द्वापर में परशुराम, वामन, मत्स्य, रामन व रावण के नाम पर भी कुछ संवत प्रचलित थे। आगे चलकर युधिष्ठिर के राज्याभिषेक, कृष्ण के परलोग गमन, बुद्ध व महावीर के जन्म पर आधारित संवत चलाने के प्रयत्न हुए। आज भी देश के अनेक प्रांतों में अलग-अलग तिथियों पर पारंपरिक नववर्ष मनाया जाता है। लेकिन उनका महत्व केवल उन उत्सवों तक सीमित है। अन्यथा पूरे देश में वही पंचांग व्यवहृत होता है, जिसे वाराहमिहिर व भास्कराचार्य ने स्थापित किया। संवत्सर के नाम पर दो प्रमुख नाम प्रचलित हैं, एक शकारि विक्रमादित्य के नाम पर विक्रम संवत और दूसरा गौतमी पुत्र शातकर्णी या शालिवाहन /सातवाहन ?/ के नाम पर शक संवत। दक्षिण भारत में शक संवत अधिक प्रचलित रहा है- शायद सातवाहन से जुड़े रहने के कारण- लेकिन शक संवत का प्रारंभ किसके द्वारा हुआ, इसमें मतभेद बरकरार है। शक संवत का प्रारंभ 78ई. से माना जाता है, जो कुषाण नरेश कनिष्क के राज्यारोहण की भी तिथि है। यद्यपि यही तिथि गौतमी पुत्र शातकर्णी की भी है, लेकिन तिथि समानता मतभेदों की गंुजाइश तो पैदा ही कर देती है।
लेकिन दोनों में ही एक बात लक्ष्य करने की है- दोनों ही ‘शकरि‘ कहे जाते हैं, यानी दोनों ने ही विदेशी हमलावर शकों को पराजित करके अपने गौरव की स्थापना की और दोनों ने ही अपने संवत्सरों की प्रारंभ तिथि परंपरा से चली आ रही नवसंवत्सर तिथि को ही अपनाया- यानी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही दोनों संवत्सर प्रारंभ होते हैं। दोनों के महीने जरूर अलग-अलग शुरू होते हैं, लेकिन वर्षारंभ की तिथि एक ही है। दोनों में करीब 135 वर्ष का अंतर है। ऐसा लगता है कि शकों को पराजित करने के बाद विक्रम ने प्रचलित संवत को अपना नाम दिया, तो शालिवाहन ने भी उसी का अनुकरण करते हुए शकोे पर विजय प्राप्त करने के बाद प्रचलित संवत को अपना नाम दे दिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस देश ने अपने पारंपरिक संवतों में से एक को राष्ट्रीय संवत का रूप देने का निश्चय किया। इसके लिए उन्होंने शक संवत को चुना, लेकिन ईसाई संवत की नकल में उन्होंने इसके भी महीनों की तिथियां स्थिर कर दी और चौथे वर्ष ‘लीप इयर‘ का भी विधान कर दिया। लेकिन यह संवत प्रचलित नहीं हो पाया। इसकी सीमा केवल सरकारी दस्तावेजों तक रह गयी। चूंकि चांद्र मास के अनुसार अपने धार्मिक व सांस्कृतिक कार्यक्रमों का अभ्यासी भारतीय चित्त इसे स्वीकार नहीं कर पाया। अब उत्तर दक्षिण में संवत्सरों के दो नाम भले ही प्रचलित हों या उनके महीनों का आरंभ-अंत अलग-अलग पक्षों से /उत्तर में कृष्ण पक्ष से दक्षिण में शुक्ल पक्ष से/ भले ही होते हों, लेकिन दोनों ही क्षेत्र अपना वर्षारंभ एक ही दिन मानते हैं। उनके क्षेत्रीय नाम अलग-अलग हो सकते हैं, उत्सव विधियों के कर्मकांड अलग हो सकते हैं, किंतु उनमें आधारगत कोई भेद नहीं है।
अपने देश में हर्षोल्लास के सभ्ी अवसरों पर पूजन आदि का विधान है। उपर उल्लिखित ब्रह्मांड पुराण में कहा गया है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को नये संवत्सर की पूजा करनी चाहिए। पुराने ग्रंथों- ‘उत्सव-चंद्रिका‘, ‘ज्योतिर्निबंध‘, ‘पंचांग-पारिजात‘ एवं ‘कृत्य कल्पतरु‘ आदि में इसका पूजा विधान दिया गया है। गृहस्थ परिवारों के लिए बताया गया है कि इस अवसर पर अपने घरों में ध्वजारोहण करें, स्वस्तिपाठ का आयोजन करें, नये वस्त्र धारण करें, गुरु-देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त करें और नृत्य गीत के साथ उत्सव मनाएं। पूरे वर्ष व्याधि मुक्त रहने के लिए इन पूजा विधानों में कुछ आयुर्वेदिक औषधि सेवन को भी जोड़ दिया गया। बताया गया कि इस दिन नीम /परिभद्र/ के फूल व कोमल पत्तों में काली मिर्च, लवण, हींग, जीरा तथा अजवायन मिलाकर खाना चाहिए /परिभद्रस्य पत्राणि कोमलनि विशेषतः। सपुष्पाणि सम्मदाय चूर्णंकृत्वा विधानतः। मरीचं, लवणं, हिंगू, जीरकेन च संयुतम। अजमोद युतं कृत्वा भक्षयेद, रोग शांतये/। इसी विधान के अलग-अलग रूप अलग-अलग क्षेत्रों में प्रचलित हैं। आंध््रा प्रदेश में इस दिन षड़रस पच्चड़ी इसी परंपरा की देन है। महाराष्ट्र में इस प्रतिपदा को ध्वज के रूप में एक गुड़ी सजाते हैं, जिसे बांस में बांधकर घ्र के आंगन में स्थापित करते हैं या खिड़की से बाहर लटकाते हैं। इस गुड़ी के कारण ही वहां इस प्रतिपदा को ‘गुड़ी पड़वा‘ का नाम मिल गया है। देवताओं व गुरुवों का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उनकी पूजा अर्चना का विधान है। कलश स्थापना पूर्वक देवी दुर्गा का व्रत पूजन या वैष्णवों द्वारा रामायण पाठ व भजन कीर्तन का आयोजन इसीलिए किया जाता है। इस दिन नवसंवत्सर का वर्ष के आर्थिक व पारिवारिक कार्यक्रम निर्धारित किये जा सकें।
आज लगभ्ग पूरा भारत वर्ष एक राजनीतिक इकाई में बदल चुका है, इसलिए इसकी सांस्कृतिक आवश्यकता है कि उसके पांरपरिक कैलेंडर में भी एकरूपता कायम की जाए। विक्रम संवत का प्रारंभ आज केवल एक प्राकृतिक नवसंवत्सर का प्रारंभ ही नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय गौरव, संस्कृति और परंपरा का उत्सव पर्व भी है।
ईसा पूर्व पहली शताब्दी में उज्जैन में कोई विक्रमादित्य हुआ या नहीं, इतिहासकार इस पर बहस करते रह सकते हैं, लेकिन भारतीय जनमानस में विक्रमादित्य भारतीय गौरव के रूप में प्रतिष्ठापित हैं। वह इस देश में न्याय के प्रतीक हैं, विद्या के प्रतीक हैं, कला के प्रतीक हैं, विदेशी आक्रांताओं को परास्त करने वाले भारतीय शौर्य के प्रतीक हैं। आधुनिक इतिहास उनके अस्तित्य की पुष्टि करे या न करें, किंतु भारत का पारंपरिक साहित्य विक्रमादित्य की कथाओं से भरा है। शास्त्रीय ग्रंथों से लेकर लोककथाओं तक उनकी व्याप्ति है। भविष्य पुराण, स्कंद पुराण, वृहत्कथा, कथा सरित्सागर से लेकर बेताल पच्चीसी व सिंहासन बत्तीसी तक उनकी कहानियां फैली पड़ी हैं। विक्रमादित्य का सिंहासन न्याय की असंदिग्ध पीठ के रूप विख्यात है। विक्रमादित्य इस देश में लोक कल्याणकारी राज्य के स्थापक, महान्यायवादी, प्रजा पालक, महादानी, जनसेवक, विद्या प्रेमी, नीति कुशल, अद्भुत समन्वयकर्ता व अप्रतिम योद्धा के रूप में स्थापित हैं। उन्हें इस देश के प्रथम विश्वविद्यालय विक्रमशिला /जिसे बाद में पाल वंशी राजा धर्मपाल ने पूर्ण विश्व विद्यालय का रूप दिया/ का संस्थापक माना जाता है। उन्होंने अपने समय में प्रचलित सभी संप्रदायों /शैव, वैष्णव, गाणपत्य, सौर, शाक्य, बौद्ध, जैन आदि/ को परस्पर जोड़ने का प्रयास किया। उन्होंने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र चारों वर्णों की कन्याओं से विवाद कर और रनिवास में समान दर्जा देकर एक संदेश देने की कोशिश की। कितने गुण गिनाएं जायें। वह अकारण ही नहीं देश के गांव-गांव तक लोकप्रिय हो गये थे। उनके बाद के यशस्वी राजाओं ने उनके ही अनुकरण पर विक्रमादित्य की उपाधि धारण करना प्रारंभ किया। ज्ञात इतिहास में न्याय का अनुपालक विक्रमादित्य से बढ़कर दूसरा कोई राजा नहीं हुआ। उसके दरबार के नौरत्न आज भी विद्या के क्षेत्र में अपनी-अपनी विद्या के शिरोमणि माने जाते हैं। परंपरा ने बहुत कुछ गड्डमड्ड भी कर दिया है, लेकिन यह भी उनकी अतिविशिष्टता और लोकप्रियता का प्रमाण है।
आश्चर्य है कि ऐसे व्यक्ति का अपने देश में कोई उत्सव नहीं मनाया जाता। वर्ष प्रतिपदा, युगादि आदि के समारोह तो थोड़े बहुत हो जाते हैं, लेकिन इस अवसर पर विक्रमादित्य को तथा उनके चरित्र को शायद ही कोई याद करता हो। क्या यह उचित नहीं कि पूरा देश मिलकर इस युग प्रतिपदा /चैत्र शुक्ल प्रतिपदा/ को अपने पारंपरिक नववर्ष के रूप में मनाएं और इस अवसर पर विक्रमादित्य और उनकी शासन नीतियों का भी स्मरण करें।
5 टिप्पणियां:
बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी दी है आपने...
इस सारगर्भित लेख के लिये बहुत बहुत आभार !
हम विक्रमादित्य को नहीं जार्ज की स्तुति गान में समस्त जन गण अपने मन से सर नवाते हैं तो किर्श्चन एरा को याद रखेंगे न कि विक्रम संवत को :(
परिचय पढवाने के लिए बहुत-बहुत आभार..
श्री श्री 1008 श्री खेतेश्वर जयंती पर आज निकलेगी भव्य शोभायात्रा
or
जयंती पर आज निकलेगी शोभायात्रा
आपने बहुत अच्छी जानकारी दी है,मैं यह ढूढ रहा था की विक्रम संवत किसने शुरू किया है मैं समझता था की इसे गुप्त राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य२(375–415)A.D. ने शुरू किया है अधिकतर लोग भी यही समझते है पर मैंने भी पुरानी किताबो में पढ़ा की इसे शकारि विक्रमादित् (99-44)ई. पू(सातवाहन राजा ) ने, शकों को हराने पर शुरू किया था.आपके लेख से भी इस बात को बल मिला.पर यह शकारि विक्रमादित्य, गौतमीपुत्र सातकर्णि यह या कुंतल सातकर्णि यह स्पष्ट नहीं है.
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