रविवार, 27 मार्च 2011

कब तक सहते रहेंगे इस राजनीतिक विद्रूपता को !


लोकसभा में 22 जुलाई 2008 का वह दृश्य, जब सरकार पर विश्वासमत हासिल करने के लिए सांसदों की खरीद का आरोप लग रहा था और भाजपा के सदस्य सदन में नोटों का बंडल उछाल रहे थे।

सत्ता की राजनीति का वास्तविक चेहरा कभी बहुत सुहावना नहीं रहा करता। कुटिलता की रेखाएं और फरेबों के दाग हमेश उसे कुरूप बनाए रखते रहे हैं। लेकिन भारत की लोकतांत्रिक राजनीति के पिछले 5-6 दशकों में यह चेहरा इतना वीभत्स हो गया है कि उससे सीधे-सज्जन लोगों को डर लगने लगा है। सत्ता का खेल ढिठाई, निर्लज्जता और क्रूरता के जिस स्तर पर पहुंच गया है, उसे देखकर आश्चर्य होता है कि मनुष्यता ने हजारों वर्षों के राजनीतिक विकास में क्या यही अर्जित किया है। सब कुछ इतना असह्य हो चला है कि सभ्यता और शालीनता का जीवन चाहने वालों को उसकी तरफ पीठ करके भी जीना मुश्किल हो गया है।


राजनीति को किसी ने वेश्या कहा है, तो किसी ने राक्षसी शक्तियों की क्रीड़ास्थली। वहां नैतिकता, न्यायप्रियता, सदाचार तथा सत्य आदि केवल मुखौटों का काम करते हैं। जब कभी ये मुखौटे खिसकते हैं या कोई दुर्घर्ष इन्हें नोच लेता है, तो असली चेहरा झलक उठता है। वह इतना दागदार व वीभत्स होता है कि उससे नजर मिलाना भी कठिन होता है, लेकिन अफसोस यह है कि इस राजनीति के बिना किसी देश या समाज का काम भी नहीं चल सकता। राजनीति अनिवार्य है, राजनीतिक व्यवस्था भी अनिवार्य है। इस अनिवार्यता और उसके यथार्थ को देखते हुए ही उसे लगातार बदलते रहने पर जोर दिया जाता है। लेकिन बदलने के लिए यदि कोई विकल्प ही न हो तो ? तो क्या किया जाए ? अपने देश भारत में कुछ ऐसी ही स्थिति पैदा हो गयी है। पार्टियों का विकल्प तो है, लेकिन कोई चारित्रिक विकल्प नहीं है। चरित्र लगभग सबका एक जैसा है।

विकीलीक्स खुलासों का इन दिनों भारतीय अध्याय खुला हुआ है। देश के एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक ‘द हिन्दू' में प्रतिदिन कुछ न कुछ ऐसा आ रहा है, जिससे तमाम राजनीतिक मुखौटे दरक रहे हैं। इन दस्तावेजी खुलासों को झूठा, मनगढ़ंत या जाली बताने का कोई आधार नहीं है, इसलिए तमाम राजनेता इसे नजरंदाज करने की सलाह दे रहे हैं। स्वयं अपने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह यह कहते हैं कि इन दस्तावेजों की सत्यता की चूंकि कोई जांच नहीं हो सकती, किसी तरह के भिन्न स्रोतों से पुष्टि नहीं हो सकती, संबंधित देश से कोई पूछताछ नहीं हो सकती, इसलिए इस पर ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए। उन्होंने चेतावनी भी दी कि यदि इस तरह दूतावासों के ‘डिप्लोमेटिक केबिलों' को गंभीरता से लिया जाता रहा, तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं। किसी देश का कोई राजनयिक इस तरह कोई उल्टी-सीधी खतरनाक बात केबिल में भेजकर फिर उसे स्वयं जानबूझकर लीक कर दे, तो उससे भयंकर स्थिति पैदा हो सकती है। प्रधानमंत्री जी यह बात भारत स्थित अमेरिकी दूतावास द्वारा भेजे गये उस केबिल के संदर्भ में कह रहे थे, जिसमें अमेरिकी राजनयिक ने लिखा था कि कांग्रेस का एक पूर्व मंत्री सतीश शर्मा के घर पर उनके एक सहायक नचिकेता कपूर ने उन्हें दो बक्से दिखाये, जिसमें 60-70 करोड़ रुपये के करेंसी नोट रखे थे। उन्हें दिखाते हुए उसने बताया कि ये रुपये संसद में विश्वास मत हासिल करने के लिए सांसदों का समर्थन हासिल करने के लिए इकट्ठा किया गया है। विकीलीक्स के इस खुलासे पर सफाई देते हुए सतीश शर्मा ने नचिकेता कपूर को जानने तक से इनकार कर दिया था, जबकि नचिकेता ने स्वयं बताया कि वह सतीश शर्मा के घ्र आया जाया करते थे। उनके घर कई देशों के राजदूतों का भी आना-जाना रहता था। अमेरिकी राजदूत भी आया करते थे। बस उसने केवल नोटों भरे बक्से की बात से इनकार किया था।

प्रधानमंत्री ने इन दस्तावेजों की प्रमाणिकता पर भी संदेह उठाया था, लेकिन इस पर विकीलीक्स के संस्थापक संपादक जूलियन असांजे ने सीधे उन पर आरोप लगाया था कि डॉ. मनमोहन सिंह जनता को गुमराह कर रहे हैं। विकीलीक्स पर जारी दस्तावेज प्रामाणिक हैं, इसकी पुष्टि एक अन्य पूर्व अमेरिकी राजदूत ने भी की है। जूलियन का कहना है कि दस्तावेजों में दिये गये तथ्यों की प्रामाणिकता के बारे में वह कुछ नहीं कह सकते, किंतु उन दस्तावेजों की प्रामाणिकता के बारे में कोई संदेह नहीं हो सकता। यदि वे अप्रमाण्कि होते, तो अमेरिका ने स्वयं आगे बढ़कर जूलियन के दावों का खंडन कर सकता था। प्रधानमंत्री का यह कहना भी सही नहीं माना जा सकता कि ऐसे ‘पत्राचारों‘ को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए। वास्तव में डिप्लोमेटिक केबिल दूतावासों तथा संबंधित देश के बीच होने वाले पत्राचारों के छोटे अंश होते हैं, लेकिन महत्वपूर्ण होते हैं। इनमें दूतावास के जिम्मेदार अधिकारी केवल महत्वपूर्ण व जरूरी सूचनाएं ही भेजते हैं। इसमें तथ्यों के अलावा उनका अपना मत (आब्जर्वेशन) भी रहता है। इनमें व्यक्त उनके मतों को तो नजरंदाज किया जा सकता है, किंतु उनके द्वारा दिये गये तथ्यों को नहीं। क्योंकि इसका कोई कारण नहीं कि कोई राजदूत अपने देश को गलत तथ्य भेजे या गलत जानकारी दे। कौन ऐसा राजनयिक होगा, जो गलत जानकारी देकर अपने कैरियर के साथ् खिलवाड़ करेगा। उसे अपने पत्राचारों के लिए गोपनीयता का कवच इसीलिए प्रदान किया जाता है कि वह निर्भय होकर उस देश के बारे में तथ्यपरक ब्यौरा अपने देश को भेजे।

वर्ष 2004 से 2006 तक भारत के विदेश सचिव रहे श्याम सरन ने भी एक साक्षात्कार में विकीलीक्स की सामग्री को अधूरी चुनी हुई (सेलेक्टिव) अवश्य बताया है, लेकिन उसकी प्रामाणिकता पर कोई संदेह नहीं व्यक्त किया है। उन्होंने ‘आउट लुक‘ के साथ बातचीत में बताया कि दूतावासों से सूचनाएं भेजने वाला जिसे महत्वपूर्ण मानता है, उसे ही केबिल द्वारा भेजता है। यह एक या डेढ़ पेज का संक्षिप्त विवरण होता है, जिसमें प्रायः महत्वपूर्ण सारांक्षों को ही शामिल किया जाता है। ज्यादातर पत्राचार ई-मेल या खुले फैक्स पर चलता है, किंतु गोपनीय संदेशों के लिए ‘केबिल‘ का इस्तेमाल किया जाता है। यद्यपि उन्होंने यह भी बताया कि अमेरिका के साथ विभिन्न देशों के संपर्क की अतिगोपनीय सूचनाएं विकीलीक्स के हाथ् नहीं लगी हैं। सरकार से सरकार के बीच के गोपनीय आदान-प्रदान अतिगोपनीय की श्रेणी में आते हैं। चूंकि वे उजागर नहीं हुए हैं, इसलिए अमेरिका के साथ विभिन्न देशों के कूटनीतिक संबंधों को कोई गहरी क्षति नहीं पहुंची है। फिर भी विकीलीक्स जितना कुछ उजागर किया है, उतने से इस देश के तमाम राजनेताओं के मुखौटे तो जरूर उखड़ गये हैं। वे सत्ता पक्ष के हो या विपक्ष के, उनका राजनीतिक दोमुंहापन सप्रमाण सामने आ गया है।

कांग्रेस के दक्षिण के राजनेता उत्तर के बारे में क्या सोचते हैं, यह गृहमंत्री पी. चिदंबरम के वक्तव्य में सामने आया। गत शुक्रवार को उनके वक्तव्य को लेकर लोकसभा में भारी हंगामा हुआ। उत्तर भारतीय राजनीतिक दलों के नेताओं ने उनसे तत्काल इस्तीफा देने की मांग की। विकीलीक्स के एक केबिल के अनुसार चिदंबरम ने अमेरिकी राजदूत टिमोथी रोमर से कहा कि यदि इस देश में केवल दक्षिण व पश्चिम भारत ही होते, तो देश की कहीं अधिक प्रगति हुई होती। देश के शेष हिस्से (यानी उत्तर व पूर्वी भारत) के लोग इसे पीछे धकेल रहे हैं। समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव तथा राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव ने इस टिप्पणी पर गहरी आपत्ति की और इसे राष्ट्रीय एकता के खिलाफ बताया। यह मसला जब चिदंबरम के सामने लाया गया, तो उन्होंने इसका कोई खंडन नहीं किया और न यह कहा कि उन्होंने ऐसी कोई टिप्पणी नहीं की और टिमोथी रोमन ने उन्हें गलत उद्धृत किया है, बल्कि यह कहा कि ऐसे केबिलों को कोई महत्व न दें और यदि आप इस पर उनका बयान चाहते हैं, तो वह इसकी निंदा करते हैं।

विकीलीक्स द्वारा उजागर दस्तावेजों ने देश की परमाणु नीति और अमेरिका के साथ हुए परमाणु समझौते के संदर्भ में भाजपा के दोहरेपन को भी उजागर कर दिया है। एक केबिल के अनुसार पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अमेरिकी राजनयिक के साथ बातचीत में कहा कि उनकी पार्टी केवल आंतरिक राजनीतिक जरूरतों को देखते हुए अमेरिका के साथ परमाणु समझौते का विरोध कर रही है, अन्यथा वह उसकी समर्थक है। यह सही भी है कि भाजपा ने भी उस समय वामपंथी पार्टियों की तरह परमाणु समझौते के मुद्दे को सरकार गिराने का हथियार बना लिया था।

विकीलीक्स ने भाजपा के हिन्दुत्व की भी पोल खोल दी है। एक केबिल के अनुसार भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली ने अमेरिकी राजनयिक राबर्ट ब्लैक के साथ् बातचीत में बताया कि भाजपा का हिन्दू राष्ट्रवाद मात्र एक अवसरवादी राजनीतिक मुद्दा है। उन्होंने यह भी बताया कि पार्टी को उत्तर पूर्व क्षेत्र में इसका फायदा मिला है, क्योंकि बंगलादेशी घुसपैठिये मुसलमानों की बढ़ती संख्या के कारण वहां हिन्दू राष्ट्रवाद का नारा कारगर हुआ है, किंतु दिल्ली में इसका कोई असर नहीं है। ब्लैक ने इस तथ्यात्मक विवरण के साथ उसमें यह अपनी टिप्पण्ी भी लिखी है कि जेटली के पास ऐसा कुछ नहीं है, जो हिन्दुत्व के आधार पर ऋभाजपा को सक्रिय कर सके।

ये थोड़े से तथ्य हैं, जो इस देश के राजनेताओं का चरित्र उजागर करते हैं। 2008 में सरकार के लिए आवश्यक विश्वास मत अर्जित करने के लिए धन का सहारा लिया गया, जिस पर संसद में हुई चर्चा का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री ने केवल तथ्यों पर लीपापोती का काम किया। उन्होंने ध्यान बंटाने के लिए विपक्षी मोर्चे एन.डी.ए. के नेता लालकृष्ण आडवाणी पर अनर्गल टिप्पणी करते हुए कहा कि वह प्रधानमंत्री पद पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं, इसलिए जबसे मैं प्रधानमंत्री बना हूं, वह इसे पचा नहीं पा रहे हैं। आडवाणी तो अब तक कभी प्रधानमंत्री बने ही नहीं, तो उनका जन्मसिद्ध अधिकार कहां से आ गया। वह पहले प्रधानमंत्री रहे होते और मनमोहन जी ने उनसे छीन लिया होता, तो यह टिप्पणी चल सकती थी कि वह अपना प्रधानमंत्री पद पाने के लिए बेचैन हैं, इसलिए उनकी सरकार गिराना चाहते हैं। आडवाणी जी भी बेचारे क्या जवाब देते। वह चुपचाप सुनते रहे। जब परमाणु नीति पर वह स्वयं चुपचाप सुनते रहे। जब परमाणु नीति पर वह स्वयं दोहरी बात कर चुके थे और उनकी अपनी पार्टी के ही वरिष्ठ नेता यह आरोप लगाते रहे हैं कि वह प्रधानमंत्री पद पाने के लिए बेचैन हैं, तो प्रधानमंत्री की टिप्पणियां चुपचाप सुनते रहने के अलावा उनके पास चारा ही क्या था।

चौतरफा भ्रष्टाचारों के आरोप से घिरी सरकार भी चलती जा रही है और वह विपक्षी को चुनौती भी देरही है कि अभी कम से कम साढ़े तीन वर्ष तक इंतजार करें, तो ेवल इसलिए के देश के पास कोई विश्वसनीय राजनीतिक विकल्प नहीं है। संसद में जो विपक्ष दिखायी देता है, वह और लिजलिजा तथा बिना रीढ़ का है। उसके पास चरित्र बल होता, तो अब तक देश में मध्यावधि चुनाव की नौबत आ जाती। कॉमनवेल्थ् खेल घोटाले से लेकर 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, इसरो घोटाला, राडिया टेप कांड, सी.वी.सी. के पद पर भ्रष्ट अधिकारी की नियुक्ति से लेकर विकीलीक्स के खुलासों तक इतना सब हो जाने के बाद देश में कोई आंदोलन नहीं। समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया कहा करते थे कि जिंदा कौमें 5 साल का इंतजार नहीं कर सकतीं। यदि सत्ता नाकारा है, तो वे उसे बदलने के लिए बीच में ही कमर कस लेती हैं। सत्ता परिवर्तन की कौन कहे, देश के भीतर नेता बदलने के लिए भी कोई जोर नहीं है। शायद किसी भी पार्टी को सत्ता तंत्र से भ्रष्टाचार मिटाने में कोई गंभीर रुचि नहीं है, उनकी रुचि केवल इतने में है कि भ्रष्टाचार के आरोपों से सत्ताधारी जनता में बदनाम हों, जिससे उनकी जगह उन्हें सत्ता में आने का अवसर मिल जाए। व्यवस्था सुधार में इसलिए रुचि नहीं है कि यदि व्यवस्था सुधर जाएगी, तो उनका भी अवसर समाप्त हो जायेगा।

विकीलीक्स के खुलासे भी जल्दी ही इतिहास की वस्तु बन जाएंगे और राजनीति चाहे अमेरिका की हो या भारत की, शायद वैसी ही आगे भी चलती जाएगी। लेकिन भ्रष्टाचार और दोहरेपन के खुलासों से इतना तो अवश्य हो गया है कि राजनीति के बारे में यह संदेह नहीं रह जायेगा कि यह कोई कुलांगना सी हो सकती है या यहां कोई देवता भी क्रीड़ा कर सकता है। यह वेश्या की नृत्यशाला ही है और यहां राक्षसी शक्तियां ही क्रीड़ा करती हैं, यह एक स्थापित तथ्य की तरह स्वीकृत हो जायेगा। लोग यह मान लेंगे कि सत्यता, सदाचार और न्याय की बात करने वाले दुधमुंहे बालकों को इसकी तरफ भूलकर भी रुख नहीं करना चाहिए। क्या ऐसे में कोई क्रांति चेतना जगेगी, जो इस व्यवस्था को ही तोड़ डाले, जिससे डरकर सत्य, न्याय और सदाचार कोने में जाकर दुबक जाते हों।

27/03/2011



3 टिप्‍पणियां:

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

लेख चिन्तनयुक्त...विचारणीय है।

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

बेहतरीन ... सार्थक विवेचन
अफ़सोस की इन सबके बीच देश की सोचने की फुर्सत किसी के पास नहीं....

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

अब संसद सभा की बैठकों को दूरदर्शन पर लोग एक मशगले के तौर पर देखते हैं\ मनोरंजन हो जाता है, टैम पास हो जाता है... ऐसा ड्रामा और किस मंच पर मिलेगा :)