मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

विश्वास को तर्क से परे रखना सबसे बड़ी समस्या




बहुसंस्कृतिवाद की विफलता संबंधी ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन की टिप्पणी पर बहस अभी लंबे समय तक चलेगी, लेकिन असली सवाल है कि इस समस्या का समाधान क्या है? क्या सांस्कृतिक राष्ट्र्वाद की ओर वापसी, जिसकी वह वकालत कर रहे हैं या कुछ और? यूरोपीय बहुसंस्कृतिवाद की सबसे बड़ी कमी थी कि उसने सभ्ी को खुश रखने के लिए मजहबी विश्वासों को तर्कों से परे कर दिया। किसी के विश्वास की आलोचना करना मानवाधिकार का उल्लंघन मान लिया गया। इसके कारण ही मजहबी कट्टरतावाद उस मुकाम पर पहुंच गया कि मुक्तचेता सभ्य संसार का जीना मुहाल हो गया। अपनी सामाजिक व राजनीतिक सोच के लिए भारत भी यूरोप का ही अनुकरण करता रहा है, तो क्या अब वह उससे बाहर निकलकर कुछ और सोचने के लिए प्रवृत्त होगा ?



ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन के ‘राज्य बहुसंस्कृतिवाद की विफलता’ संबंधी वक्तव्य पर यूरोप के प्रायः सभी देशों व ऑस्ट्र्ेलिया में गर्म बहस जारी है। यद्यपि कैमरन द्वारा उठायी गयी समस्या से सर्वाधिक आक्रांत देश भारत है, लेकिन यहां के राजनेता व बुद्धिजीवी इस सवाल से अपने को कमल पत्रवत बचाकर रख्े हुए है। गत रविवार को ‘स्वतंत्र वार्ता’ के इसी पृष्ठ पर छपी टिप्पणी शायद इस संदर्भ में प्रकाशित पहली टिप्पणी थी, जिसे लेकर कुछ संवेदनशील लोग उद्वेलित हुए हैं। जो प्रतिक्रियाएं आयी हैं, उन्हें बहुत व्यापक तो नहीं कहा जा सकता, फिर भी उनसे यह तो लगता है कि कुछ लोग यहां भी उस समस्या को लेकर चिंतित हैं, जिसकी चिंता कैमरन ने म्यूनिख के सुरक्षा सम्मेलन में व्यक्त की थी। इन चिंताओं के बीच कई तरह के प्रश्न भी उठे हैं, जिन्हें देखते हुए लगता है कि इस समस्या पर कुछ अधिक गहरायी से विचार किया जाए और ब्यौरेवार ढंग से उसे समझने की कोशिश की जाए। यहां इस छोटे से आलेख में उन सारे प्रश्नों का विश्लेषण व समाधान तो नहीं हो सकता, लेकिन सोच विचार की एक दिशा तो निर्धारित की ही जा सकती है।

यहां जब हम कैमरन की चिंता से चिंतित हो रहे हैं, तो हमारी चिंता का विषय ब्रिटिश समाज व वहां की राजनीतिक समस्या नहीं, बल्कि भारतीय समाज और भारत की राजनीतिक समस्या सामने है। वस्तुतः आज का भारत भी सोच-विचार के स्तर पर ब्रिटिश समाज का ही हिस्सा है। यहां की समस्याएं भी उसी सोच-विचार की देन हैं, जो औपनिवेशिक काल में इस देश पर हावी हो गयीं। हमने अपनी राजनीतिक व सामाजिक सोच के साथ-साथ राजनीतिक प्रणाली, शिक्षा प्रणाली, न्याय प्रणाली आदि भी सीधे ब्रिटेन से ले ली है, किंतु उसे लेने के बाद हम उन विचारों के प्रति ब्रिटिश राजनेताओं व बुद्धिजीवियों से भी अधिक रूढ़िवादी हो गये हैं। लोकतंत्र का यह आधारभूत तकाजा है कि हम अपनी नीतियों व सिद्धांतों की समय-समय पर समीक्षा करते रहें और जरूरत पड़े तो उन्हें बदलते रहें। नैतिकता के कुछ नियमों को छोड़कर कोई भी नीति या सिद्धांत सार्वकालिक सत्य नहीं होता। इस लिए समय बदलने के साथ उनमें भी बदलाव आवश्यक हो जाता है। बीच-बीच में समीक्ष करते रहने के कारण हमें पिछली भूलों या गलतियों को सुधारने का भी मौका मिलता रहता है। लेकिन हमारा लोकतंत्र इस तरह की किसी भी समीक्षा से परहेज करता है। वह केवल उन्हीं परिवर्तनों के लिए तैयार होता है, जो सत्तारूढ़ दलों को राजनीतिक लाभ पहुंचाने वाली होती हैं।

‘बहुसंस्कृतिवादब् की भी कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है, लेकिन स्थूलतया जिस अर्थ में इसका व्यवहार किया जाता है, सका अर्थ है कि किसी भी देश या राष्ट्र् में किसी व्यक्ति या समुदाय को अपने ढंग का जीवन जीने की स्वतंत्रता हो। कोई किसी की जीवनशैली में हस्तक्षेप न करे। यानी किसी भी समूह को अपनी रुचि की भाषा, लिबास, खान-पान, शादी-ब्याह व मजहबी विश्वास को बनाये रखने की आजादी हो। इस धारणा ने 18वीं शताब्दी के दौरान सैद्धांतिक रूप धारण किया और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब औपनिवेशिक साम्राज्यवाद का पतन हुआ, तो इसे विशेष राजनीतिक व सामाजिक मान्यता मिली। इसका सीधा संबंध यूरोप में आये वैज्ञानिक बोध युग या तार्किक बुद्धिवादी युग (एज ऑफ इन्लाइटेन्मेंट या एज ऑफ रीजन)से था।

यहां यह उल्लेखनीय है कि भारत को छोड़कर प्रायः पूरा विश्व 18वीं शताब्दी के पहले बहुसंस्कृतिवादी अवधारणा से अपरिचित था। वह नस्ली या मजहबी (रिलीजस)समूहों में बंधा था। इसके पहले किसी अन्य देश को दूसरी संस्कृतियों के साथ तादात्म्य बैठाकर जीने की जरूरत ही नहीं थी। वे आदिम विश्वासों के युग से बाहर आए तो उन्हें यहूदी, ईसाई या इस्लामी संस्कृति में ढलने को मजबूर हो गये। ईसाई व इस्लामी हमलावर जहां गये, वहां उन्होंने पूरे विजित समाज को या तो अपने रंग में रंग लिया या उनका सफाया कर दिया। केवल भारत ऐसा देश रहा, जहां आये इस्लामी व ईसाई न तो यहां के लोगों को पूरी तरह अपने रंग में रंग सके, न उनका सफाया कर सके। और ब्रिटिश या यूरोपीय उपनिवेशवाद जब दुनिया को आत्मसात कर रहा था, उन्हीं दिनों उनके अपने मूल देश में एक बौद्धिक क्रांति हो रही थी। शिक्षा के विस्तार के साथ यह बौद्धिक क्रांति मध्यवर्ग में तेजी से फैलने लगी। औद्योगिक विकास के कारण इस मध्यवर्ग का विस्तार होने लगा, जिसने नये युग के सामाजिक व राजनीतिक मूल्यों की स्थापना की। इसीलिए जब उपनिवेश टूटे और नई विश्व राजनीतिक व्यवस्था जन्म लेने लगी, तो यूरोपीय बौद्धिक सोच वाले प्रायः सभी देशों के राजनीतिक नेतृत्व ने लोकतंत्र के साथ बहुसंस्कृतिवाद को भी नये सामाजिक मूल्यों के रूप में स्वीकार कर किया।

इसमें दो राय नहीं कि यूरोप व अमेरिका के देशों में ईसाई धर्म का अभी भी भारी वर्चस्व था। उनकी मिशनरियों तथा संगठित चर्च ने शेष दुनिया को ईसाई बनाने का अभियान भी चला रखाा था, लेकिन साथ ही एक ऐसा बौद्धिक समाज भी तेजी से विकसित हो रहा था, जिसने राजनीति व सत्तातंत्र (स्टेट) को किसी भी मजहब के प्रभाव से दूर रखने का प्रयत्न किया और काफी हद तक सफलता भी प्राप्त की। ब्रिटेन बहुसंस्कृतिवाद का पहला सबसे प्रबल समर्थक बना, क्योंकि दुनिया में सबसे बड़ा औपनिवेशिक साम्राज्य भी उसी का था और जब वह सिमटने लगा, तब भी उसने अपने विगत साम्राज्य का प्रतीकात्मक स्वरूप ‘कॉमनवेल्थ’ के रूप में बनाये रखने की कोशिश की। इसके लिए उसने अपने देश का द्वार उन सभी देशों व समाजों के लिए खोल दिया, जो कभी उसकी साम्राज्य सीमा में आते थे। फ्रांस और जर्मनी जैसे देशों ने भी उसका अनुकरण किया। ऑस्ट्र्ेलिया उसका सबसे निकट अनुयायी था, इसलिए उसने ब्रिटिश सिद्धांतों का भी अक्षरशः अनुकरण किया।

ब्रिटिश या यूरोपीय बुद्धिजीवियों का ख्याल था कि धीरे-धीरे लोकतांत्रिक मानव स्वतंत्रतावादी अवधारणाएं इतनी मजबूत हो जाएंगी कि लोग भिन्न मजहबों तथा अन्य जीवनशैलियों की बात स्वतः भूल जाएंगे। उन्होंने पूरी दुनिया में एक समरस, मुक्त विचारों वाली सामाजिक व्यवस्था स्थापित हो जाने की कल्पना की थी, लेकिन संयोगवश वैसा नहीं हो सका। इस विफलता का कारण एकमात्र यह था कि इन बुद्धिजीवियों ने इस्लाम को ठीक ढंग से नहीं समझा था। वे इसे भी दुनिया के किसी अन्य धार्मिक विश्वास की तरह एक और विश्वास मानते थे। उनका ख्याल था कि जैसे सब विश्वास बदल रहे हैं, यह भी बदल जायेगा। भविष्य का मनुष्य पुराने रूढ़िवादी विश्वासों से कब तक बंधा रहेगा। लेकिन यह धारणा गलत निकली। इस्लाम अपने को तनिक भी बदलने के लिए तैयार नहीं हुआ। इसके अनुयायी विपरीत परिस्थितियों में उसके आगे झुकना तो सीख गये, लेकिन अपने को बदलने के लिए तैयार नहीं हुए। ऐसा नहीं कि बदलाव की हवाएं उनके उपर से नहीं गुजरीं, लेकिन इसको बांधे रखने वाली मशीनरी ने हवाओं को कत्तई असर नहीं डालने दिया। इसके लिए सबसे बड़ा हथियार बनाया गया हिंसा को। हिंसा का ऐसा खौफ खड़ा किया गया कि कोई न तो इस्लाम से विद्रोह करके उससे बाहर जाने पाए और न कोई इस्लामी विश्वास की आलोचना का साहस कर सके। दूसरों पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए हिंसा का सहारा लेना तो यों ही यहां कोई वर्जित तत्व नहीं है। इस हिंसा के भय का परिणाम है कि विश्वव्यापी मुस्लिम आतंकवाद की आलोचना करते हुए भी कोई इस्लाम की ओर उंगली उठाने का साहस नहीं करता। अफगानिस्तान और इराक पर हमला करने वाले अमेरिकी राष्ट्र्पति बुश हो चाहे बहुसंस्कृतिवाद की विफलता की घोषणा करने वाले ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन वे दोनों इस्लाम और मुस्लिम आतंकवाद को परस्पर जोड़ने की गलती नहीं करते। आतंकवाद को वे कुछ सिरफिरे या गुमराह युवकों की करतूत मानते हैं। और जिहादी संगठनों को भी वे कुछ ऐसे लोगों का संगठन मानते हैं, जो इस्लाम की ओट लेकर अपना राजनीतिक लक्ष्य पूरा करना चाहते हैं। इन नेताओं ने शायद भारत में मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर की डायरी (तुजुक बाबरी) नहीं पढ़ा है, जिसमें उसने स्वयं लिखा है कि भारत आते समय उसने रास्ते में पड़ने वाले एक गांव के सारे स्त्री-पुरुषों का केवल इसलिए कत्ल कर दिया कि उन्होंने इस्लाम का परित्याग कर दिया था। उसने यह भी लिखा है कि उसने ऐसा इसलिए किया कि कोई मुस्लिम भविष्य में इस्लाम छोड़ने का दुस्साहस न करे। दक्षिण ऑस्ट्र्ेलिया के एक लिबरल सिनेटर कोरी बर्नार्डी को केवल इसलिए मौत् की धमकी मिलनी शुरू हो गयी है कि उसने यह कह दिया है कि समस्या मुस्लिम नहीं हैं, बल्कि समस्या इस्लाम है। मुस्लिम समुदाय में किसी मुसलमान की निंदा आलोचना तो सह्य है, किंतु इस्लाम की नहीं। जाहिर है कि फिर इस्लामी अवधारणा में कभी कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। सही भी है, कोई आस्थावान मुस्लिम इसे कैसे बर्दाश्त कर सकता है कि कोई मनुष्य ईश्वर की वाणी में बदलाव लाने की कोशिश करे। ईश्वर की वाणी भला कभी पुरानी कैसे हो सकती है। दुनिया की किसी और संस्कृति या मजहब के पास ईश्वर की वाणी नहीं है। ईसाई समुदाय की बाइबिल ईश्वर के पुत्र ईसा के 12 शिष्यों द्वारा कही गयी कहानियां मात्र हैं। भारतीय सनातनियों के वेद भी ईश्वर की वाणी नहीं हैं। वे कुछ विद्वान ऋषियों की रचनाएं हैं। भगवतगीता को इस देश में भगवान कृष्ण की वाणी के रूप में जरूर पेश किया जाता है, लेकिन वह तो मूलतः महाभरतकार कृष्णद्वैपायन व्यास की लेखनी से निकली वाणी है। इसलिए इस्लाम एकामत्र मजहब है, जिसके पास प्रामाणिक रूप से ईश्वर की वाणी का संकलन है। यह बात स्वयं पैगंबर मोहम्मद ने कही है, इसलिए उस पर संदेह की गुंजाइश नहीं है। फिर इस्लाम समग्रता से जीवन का उपदेश देता है। वह केवल ईश्वर में विश्वास, उपासना या भक्ति तक सीमित नहीं है। वह जहां यह बताता है कि खुद कैसे रहें, वहीं यह भी निर्देशित करता है कि दूसरों से कैसे व्यवहार करो, शादी-ब्याह कैसे करो, परिवार कैसे चलाओ, शासन, न्याय, शिक्षा आदि की पूरी व्यवस्था उसमें निहित है। ऐसी पूर्णता वाला कोई दूसरा मजहब दुनिया में नहीं है। अब इसे सिनेटर कोरी बर्नार्डी ‘टोटैलिटेरियन’ कह सकते हैं, लेकिन उसे गलत कैसे कह सकते हैं।

कैमरन के वक्तव्य पर यूरोप से बाहर सबसे व्यापक बहस ऑस्ट्र्ेलिया में ही चल रही है। गत 18 फरवरी को सिडनी में समाज में विभिन्न सांस्कृतिक समूहों के बीच सम्मानपूर्वक वैचारिक आदान-प्रदान को प्रोत्साहित करने के लिए एक सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस सम्मेलन में बोलते हुए ‘ऑस्ट्र्ेलियायी नेशनल इमाम कौंसिल’ के अध्यक्ष इब्राहीम अबू मोहम्मद का तर्क था कि ‘बहुसंस्कृतिवाद सामाजिक सुरक्षा का सबसे सस्ता तरीका है।... बहुसंस्कृतिवाद पर हमला वस्तुतः लोकतांत्रिक मूल्यों पर छिपा हुआ हमला है। यह अनावश्यक भय पैदा करने वाला तथा सभ्य समाज की स्थिरता को भंग करने वाला है।’ इन शब्दों के पीछे निहित आशय को कोई भी समझा सकता है। उन्होंने आधुनिक लोकतंत्र व मानवाधिकार के सिद्धांत गढ़ने वालों की शब्दावली का ही इस्तेमाल करते हुए कहा कि नई पीढ़ी के सुरक्षित भविष्य, मानवीय गरिमा, मानवीय सुख शांति तथा समाज की सुरक्षा व स्थिरता की सर्वाधिक दृ़ढ़ गारंटी इसी में निहित है कि लोगों को उनके विश्वास, न्याय तथा निजी आचरण की स्वतंत्रता का अधिकार हो। इन शब्दों में निहित चेतावनी बहुत मुखर है। सम्मेलन में शामिल वक्ताओं ने अपने शब्दों के चयन में कितनी ही सावधानी बरती हो, लेकिन मतभेद साफ थे। डॉ. इब्राहीम अबू मोहम्मद के इन तर्कों के जवाब में कैथोलिक युवा कार्यकर्ता (‘यूथ ऑफ द स्ट्र्ीट’ के संस्थापक)फादर क्रिस रिले ने साफ कहा कि हम लोग बहुसंस्कृतिवाद का सम्मानपूर्वक प्रयोग करते-करते थक गये हैं (ची हैव ट्र्ायड दैट, ट्र्ायड दैट)। यह सोच लोगों को नजदीक लाने में विफल रही है। इससे हमारी भिन्नता ही अधिक उजागर हुई है। चूंकि यह विफल हो चुकी है, इसलिए हम बहुसंस्कृतिवाद के सख्त खिलाफ हैं (वेरी एंटी मल्टीकल्चरलिज्म)।

ऐसी धारणा के बावजूद ऑस्ट्र्ेलिया की सरकार अभी कैमरन के मत की समर्थक नहीं है। वहां की ‘मल्टीकल्चरल अफेयर’ विभाग की मंत्री ग्रेस पोर्टोलेसी ने ‘मजहबी विविधता’ (रिलीजस डाइवर्सिटी)की समस्या के समाधान के लिए एक टास्क फोर्स बनाया है। जिसकी संस्तुतियों में शामिल है कि स्कूली शिक्षा में अल्पसंख्यक धर्म को भी शामिल किया जाए। सरकार के स्तर पर ऑस्ट्र्ेलिया वालों को मजहब पर बहस करने से भी रोका जा रहा है। लेकिन आलोचकों का कहना है कि इसके पीछे नस्ली वोट पाने की राजनीति है। ऑस्ट्र्ेलियायी अंग्रेजों के अनुसार ऑस्ट्र्ेलियायी समाज मूलतः ‘ऐंग्लो केल्टिक’ समाज ही है, लेकिन प्रवासियों के दबाव में उनका अपने ढंग से जीना मुश्किल हो गया है। उनकी राय में यहां आ बसे मुस्लिम प्रवासी सर्वाधिक आक्रामक हो गये हैं।

‘ऑस्ट्र्ेलियायी फेडरेशन ऑफ इस्लामिक कौंसिल’ के अध्यक्ष इकबाल पटेल ने सिनेटर कोरी बर्नार्डी को खुली चेतावनी दी है। उनका कहना है कि बर्नार्डी सारी सीमाएं पार कर गये हैं। उन्होंने इस्लाम पर हमला किया है।

उधर ब्रिटेन के मुुस्लिम संगठन काफी संयत भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, लेकिन संदेश एक जैसा ही है। ब्रिटिश मुस्लिम फोरम के चेयरमैन मंजूर मुगल ने देश में ‘बहुसंस्कृतिवाद’ की विफलता के लिए ब्रिटिश सराकरों को ही दोषी करार दिया है। उनका कहना है कि ‘पिछली सरकारों ने इन समुदायों (मुस्लिम)पर अपनी इच्छा थोपने के लिए उन्हें भारी मात्रा में धन देना शुरू किया, जो गलत खर्च हुआ। यह धन पाने वाले मुस्लिम संगठनों से अपेक्षा की गयी थी कि वे बहुसंस्कृतिवाद को बढ़ावा देंगे तथा सरकार को चुनावों में मदद करेंगे, लेकिन वैसा नहीं हुआ। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि अब यू.के. में बहुसंस्कृतिवाद रहना ही नहीं चाहिए। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि हम बहुसांस्कृतिक समाज हैं और हम ऐसे ही रहेंगे, जैसे कि दुनिया के कई अन्य देश हैं। जरूरत इस बात की है कि इसके प्रति सरकार और समाज का रवैया बदले। उनकी राय में मुस्लिम देशों तथा मुस्लिम समाज के बीच सरकार का हस्तक्षेप समस्या है, बहुसंस्कृतिवाद नहीं। इसके आगे उन्होंने भारतीय मुस्लिम संगठनों की ही तरह आतंकवादियों को कुछ गुमराह युवकों का समूह बताया। उनका कहना था कि यह सही है कि देश के कुछ गुमराह युवक पश्चिम के प्रति घृणा के प्रचार से प्रभावित हैं, लेकिन इसके लिए प्रत्यक्ष रूप से पूरे समुदाय को दोषी ठहराना ठीक नहीं है। इसके अतिरिक्त हमें मुस्लिम देशों के प्रति अपनी नीति बदलनी चाहिए।

भारत की तरह ब्रिटेन के शासनाध्यक्षों के बारे में भी यह एक सच है कि वहां की सरकारें चुनावों में मुस्लिम समाज का समर्थन पाने के लिए उन पर सुविधाएं लुटाते हैं। ऑस्ट्र्ेलिया में भी यही सच है और जर्मनी व फ्रांस में भी पहले यही होता रहा है। ब्रिटिश कंजर्वेटिव पार्टी की वर्तमान सहअध्यक्ष बैरोनेस वारसी को इसीलिए पार्टी में आगे बढ़ाया गया और सरकार में स्थान दिया कि वह मुस्लिम समुदाय को पार्टी से जोड़ने में मददगार होंगी। राजनीति की मुख्यधारा में आने के लिए उन्होंने भी एक उदारपंथी चेहरा अख्तियार किया और दाढ़ी वाले कट्टरपंथियों की आलोचना की, किंतु अभी कुछ महीने पहले उन्होंने लीसेस्टर यूनिवर्सिटी में आयोजित बिशपों के एक सम्मेलन में बोलते हुए कहा कि आज ब्रिटेन में मुसलमानों के प्रति पूर्वाग्रह सर्वाधिक उंचे स्तर पर पहुंच गया है। इस्लाम का मिथ्या भय (इस्लामोफोबिया)अनावश्यक रूप से बढ़ाया जा रहा है। वहां उन्होेंने यह तक कहा कि मुसलमानों को यहां अब यहूदियों की तरह संगठित होना पड़ेगा। इससे प्रधानमंत्री कैमरन का खिन्न होना स्वाभाविक था। इसके बाद उन्होंने वारसी को एक मुस्लिम सम्मेलन में जाने की अनुमति नहीं दी। कारण बताया कि एक मजहबी सम्मेलन में सरकार के प्रतिनिधि का शामिल होना उचित नहीं होगा। अब इसे लेकर भी मुस्लिम समाज में कैमरन की आलोचना हो रही है।

सवाल है कि दुनिया के इस सामाजिक-राजनीतिक वातावरण में इस समस्या का इलाज क्या है। आज की दुनिया में या किसी भी दुनिया में ‘बहुसंस्कृतिवाद’ को समाप्त नहीं किया जा सकता। इस्लामी चुनौती का मुकाबला करने के लिए कैमरन ने जो उपाय सुझाया है, वह कारगर नहीं हो सकता। उनका सुझाव है कि ‘एक संस्कृति एक राष्ट्र्’ य दूसरे शब्दों में सांस्कृतिक राष्ट्र्वाद का है। आज के सार्वभौमीकरण के युग में जब विभिन्न भाषाओं, धर्मों, संस्कृतियों के लोगों का प्रायः हर देश में जाना हो रहा है, रहना हो रहा है, तब ‘एक संस्कृति एक राष्ट्र्’ का प्रयोग कैसे सफल हो सकता है। जहां जिस देश में जाएं, वहां की भाषा सीखें, वहां का रहन-सहन अपनाएं, वहां के देवी-देवता का सम्मान करें, यह ऐसी मांग है, जो कभी पूरी नहीं हो सकती। फिर क्या करें ?

इसका जवाब भारत के पास है, लेकिन आज के भारत के पास नहीं, प्राचीन भारत के पास। भारत अति प्राचीन काल से ‘बहुसांस्कृतिक’ देश था, लेकिन यह बहुसंस्कृति कभी उसकी समस्या नहीं बनी। उसके लिए भी यह समस्या आधुनिक काल में ही पैदा हुई, पश्चिम की राजनीतिक व सामाजिक अवधारणा के आने के बाद। भारत में बहुसांस्कृतिकता कभी समस्या नहीं बनी, तो केवल इसलिए कि यहां राजनीति के लिए केवल धर्म (रूल ऑफ लॉ) को आधार बनाया गया, मजहब (रिलीजन)को नहीं। यहां हर व्यक्ति को (राज्य किसी का भी क्यों न रहा हो)कोई भी रिलीजन अपनाने या छोड़ने की सुविधा थी, लेकिन निर्धारित धर्म (लॉ)तोड़ना सबके लिए अपराध था। यहां धर्म (रूल ऑफ लॉ)और विश्वास (फेथ) दोनों में गतिशीलता थी। दोनों में परिवर्तन की सुविधा थी। देश और काल में परिवर्तन के साथ धर्म (कानून) भी बदल सकता था। ज्ञान-विज्ञान में विकास तथा तार्किकता के आधार पर विश्वास (रिलीजन)भी बदल सकता था। धर्म और रिलीजन दोनों में खुली बहस की छूट थी। जो विश्वास तर्क की कसौटी पर खरा न साति हो, उसे छोड़ देने की प्रवृत्ति थी।

यूरोप में विकसित बहुसंस्कृतिवाद का सबसे बड़ा दोष यह था कि उसने मजहबी विश्वासों पर बहस करने या उसकी आलोचना करने पर रोक लगा दी। आलोचना को उस मजहब पर हमला माना जाने लगा। इससे कट्टरपंथियों को सुविधा हुई। विश्वास को आलोचना से परे करने की बात यूरोपीय राजनीतिक अवसरवाद की देन है। अब यदि उसे दुनिया के सामने खड़ी मजहबी चुनौतियों से पार पाना है, तो उसे अपने इन सिद्धांतों को बदलना होगा। केवल चरमपंथ और उदारपंथ में भेद करने से काम नहीं चलेगा। आधारभूत कारण वह ‘फिलासॉफी‘ या ‘आइडियोलॉजी’ है, जो चरमपंथ को जन्म देती है।

कैमरन का लक्ष्य ईसई संरक्षणवाद है या कुछ और, यह हमारी चिंता या चर्चा का विषय नहीं है। चर्चा का विषय है कि भारतीय राजनीति के धर्म केंद्र ब्रिटेन में ही जब वह विश्वास चटखने लगा है, जिस पर वेस्टमिंस्टर का राजनीतिक महल खड़ा हुआ था, तो क्या हमें यहां अपने देश में उसकी समीक्षा नहीं करनी चाहिए। हमारे यहां वह समस्या कहीं अधिक गंभीर है, जिससे कैमरन दो-चार हो रहे हैं। तो क्या कैमरन से प्रेरणा लेकर हमें अपने सामाजिक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में कुछ आगे की सोचने के लिए प्रवृत्त नहीं होना चाहिए।(
20.2.2011)



2 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

आपका आभार कि आपने बहस का संज्ञान लिया और इसके समाधान के लिए प्राचीन भारत की प्रणाली को अपनाने का सुझाव दिया। यह और बात है कि हमारे राजनीतिज्ञ अपने कांच के बंद महल में बैठे हैं। शायद इस विषय पर हिंदी पत्रकारिता में यह प्रथम चर्चा रही।

Dinesh pareek ने कहा…

आपका ब्लॉग देखा बहुत अच्छा लगा बहुत कुछ है जो में आपसे सिख सकता हु और भुत कुछ रोचक भी है में ब्लॉग का नया सदस्य हु असा करता हु अप्प भी मेरे ब्लॉग पे पदारने की क्रप्या करेंगे कुछ मुझे भी बताएँगे जो में भी अपने ब्लॉग में परिवर्तन कर सकूँगा में अपना लिंक निचे दे रहा हु आप देख सकते है
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धन्यवाद्
दिनेश पीक