रविवार, 13 फ़रवरी 2011

राज्य बहुसंस्कृतिवाद की विफलता पर छिड़ी बहस


विफल हो चुकी है राज्य बहुसंस्कृतिवाद, जरूरत है दृढ़ राष्ट्रवाद तथा लोकतांत्रिक
 मूल्यों में आस्था की: ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन

ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने म्यूनिख में आयोजित एक सुरक्षा सम्मेलन में बोलते हुए कहा कि लोकतंत्र तथा वैश्विक मानवतावाद विरोधी संस्कृतियों के साथ भी सामंजस्य बैठाने वाली राज्य बहुसंस्कृतिवाद (स्टेट मल्टीकल्चरलिज्म) की नीति विफल हो चुकी है। इसके कारण ही दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में आतंकवाद को बढ़ावा मिला है तथा असुरक्षा बढ़ी है। क्योंकि लोकतंत्र विरोधी शक्तियों ने इस सिद्धांत का लाभ उठाकर उस समाज और राज्य के लिए ही खतरा पैदा कर दिया, जिनमें वे पली बढ़ीं। कैमरन के इस वक्तव्य को लेकर प्रायः पूरी दुनिया में एक बहस खड़ी हो गयी है। यूरोप के तमाम देशों ने कैमरन का खुलकर समर्थन किया है। जर्मन चांसलर ऐंजेला मार्केल तथा फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी ने कैमरन से शत प्रतिशत सहमति व्यक्त की है। किंतु मुस्लिम संगठनों व नेताओं ने कैमरन की राय का तीव्र विरोध किया है और उसे इस्लाम विरोधी करार दिया है। आश्चर्य है कि भारतीय राजनेता व बुद्धिजीवी अभी इस प्रश्न पर चुप्पी साधे हुए हैं।

ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने एक सप्ताह पूर्व म्यूनिख में आयोजित यूरोपीय ‘सुरक्षा सम्मेलन' (सिक्योरिटी कांफ्रेंस) में अपने विचार रखते हुए कहा कि यूरोपीय देश लोकतंत्र विरोधी सामाजिक समूहों के प्रति बहुत नरम रवैया अख्तियार करते हैं, जिसके कारण उनकी असुरक्षा बढ़ती जा रही है। ‘रेडिकलाइजेशन एंड काजेज ऑफ टेररिज्म' जैसे विषय पर प्रधानमंत्री के तौर पर अपने पहले भाषण में उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा कि बहुसंस्कृतिवाद की राजनीति (स्टेट मल्टी कल्चरलिज्म) विफल हो चुकी है। उन्होंने हर तरह के अतिवाद को रोकने का एक ही रास्ता बताया कि ब्रिटेन को इसके लिए एक मजबूत राष्ट्रीय पहचान की आवश्यकता है। उन्होंने इस्लामी चरमपंथ को बढ़ावा देने वाले गुटों के प्रति कठोर रवैया अपनाने का भी संकेत दिया। इस प्रश्न पर विस्तार से अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए कैमरन ने कहा कि ऐसे कुछ मुस्लिम समूहों की कड़ाई से जांच की जानी चाहिए, जो सरकारी धन प्राप्त करते हैं, लेकिन अतिवाद (इक्सट्रीमिज्म) को रोकने के लिए कुछ नहीं करते।

शनिवार 5 फरवरी को दिये गये उनके इस ऐतिहासिक भाषण का कम से कम यूरोपीय देशों पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। दो प्रमुख यूरोपीय देशोें जर्मनी और फ्रांस ने उनकी राय का शत प्रतिशत समर्थन किया है। जर्मन चांसलर ऐंजेला मारकेल तो पहले ही कह चुकी हैं कि ‘बहुसंस्कृतिवाद की मौत हो चुकी है। यहां इस सम्मेलन में भी उन्होंने अपने विचारों को दोहराया तथा कैमरन के वक्तव्य का पुरजोर समर्थन किया। फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी ने गत गुरुवार को जारी अपनी एक विज्ञप्ति में खुलकर स्वीकार किया कि ‘बहुसंस्कृतिवाद वास्तव में विफल हो चुका है। चरमपंथी गुटों एवं समुदायों ने इसका गलत इस्तेमाल किया है। प्रायः पूरे यूरोप व अमेरिका के समाचार पत्रों ने इस पर संपादकीय लेख लिखे हैं या इस पर दी गयी विस्तृत टिप्पणियां प्रमुखता से प्रकाशित की हैं। रूसी समाचार पत्रों ने भी कैमरन के इस विचार का समर्थन किया है। उनका कहना है कि इसमें महत्वपूर्ण यह है कि यह बात ब्रिटेन के एक प्रधानमंत्री ने की है, उस ब्रिटेन के, जो बहुसंस्कृतिवाद का खुला मंच बना हुआ है। प्रायः पूरे दुनिया के चरपंथी (इक्स्ट्रीमिस्ट) वहां जाकर शरण लेते हैं।

कैमरन ने अपने वक्तव्य में पूरी दुनिया के देशों का आह्वान किया कि उन्हें हर तरह के चरमपंथ से लड़ना चाहिए। उन्होंने अपने वक्तव्य में इस्लाम और इस्लामी चरमपंथ में भेद करने की कोशिश की । उनका कहना था कि किसी धार्मिक विश्वास से उनका कोई विरोध नहीं है, किंतु धार्मिक राजनीति के वह सख्त खिलाफ हैं। उन्होंने साफ कहा कि सरकारों को ऐसे इस्लामी गुटों व संस्थाओं को सरकारी आर्थिक सहायता देना बंद कर देना चाहिए, जो चरमपंथ को रोकने के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं। हमें वास्तव में इन संगठनों की सही तरीके व कड़ाई से जांच करनी चाहिए कि क्या वे ऐसे वैश्विक मानवाधिकार में यकीन करते हैं, जिसमें महिलाओं और दूसरे धर्म के लोगों के लिए भी जगह हो? क्या वे इस सिद्धांत को मानते हैं कि कानून के सामने सभी बराबर हैं ? क्या वे लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं ? क्या वे एकता में विश्वास रखते हैं या अलगाववाद में ?

कैमरन का कहना था कि बहुसांस्कृतिक सामाजिक व राजनीतिक सिद्धांत के तहत अभी तक अलग-अलग समुदायों को अलग-अलग अपने ढंग से रहने के लिए बढ़ावा दिया जाता रहा है और उनके विवादास्पद विचारों को सुनकर भी उनकी अनदेखी की जाती रही है। लेकिन अब समय आ गया है कि यूरोपीय नेता अपने देश की सीमाओं के भीतर जो कुछ हो रहा है, उसके प्रति सजग बनें और सहिष्णुता के नाम पर ऐसे विचारों तथा आचरण की अनदेखी न करें, जो आधुनिक मानवीय व सामाजिक मूल्यों के खिलाफ है।

ब्रिटेन में पिछले कुछ समय से यह बहस चल रही है कि देश की उदारवादी नीतियों का चरमपंथियों ने गलत फायदा उठाया है और बहुसांस्कृतिक समाज के सिद्धांतों की ओट लेकर स्वयं ब्रिटेन को और ब्रिटिश समाज को भारी नुकसान पहुंचाया है। इसलिए ब्रिटिश सरकार इस्लामी गुटों के हिंसक चरमपंथ को रोकने के लिए एक नई नीति पर काम कर रही है, जिसे ‘प्रिवेंट' (बचाव) की संज्ञा दी गयी है। वास्तव में यह उसकी आतंकवाद विरोधी रणनीति का हिस्सा है।

कैमरन के उपर्युक्त वक्तव्य का ज्यादातर इस्लामी गुटों ने विरोध किया है। स्वयं ब्रिटेन के कुछ मुस्लिम नेताओं व संगठनों ने उनके वक्तव्य को मुस्लिम विरोधी बताया है, तो कुछ ने इसके समय को लेकर अपनी आपत्ति व्यक्त की है। वास्तव में कैमरून जिस दिन म्यूनिख में अपना यह वक्तव्य दे रहे थे, उसी दिन लंदन में ‘इंग्लिश डिफेंस लीग' का प्रदर्शन था। ‘इंग्लिश डिफेंस लीग' (इ.डी.एल.) ब्रिटेन का इस्लामी आतंकवाद विरोधी संगठन है। मीडिया में उसे धुर दक्षिणपंथी संगठन बताया गया है। वस्तुतः इस संस्था का गठन मार्च 2009 में उस समय हुआ, जब अफगान युद्ध से लौटने वाले ‘रायल ऐंग्लियन रेजिमेंट' के सैनिकों के ब्रिटेन पहुंचने पर वहां के दो इस्लामी संगठनों ‘अल मुहाजिरों' और ‘अलहुस सुन्नह वल जमाह' ने उनके विरोध में रैली निकाली। इस रैली से कुछ ब्रिटिश युवकों में ऐसा गुस्सा पैदा हुआ कि उन्होंने ‘यूनाइटेड पीपुल्स ऑफ लुटान' नामक एक संस्था बनायी। इसमें ज्यादातर फुटबाल क्लबों व उनसे जुड़े ‘फैन क्लबों' के लड़के शामिल थे। इसलिए शुरू में इसे गंभीरता से नहीं लिया गया। इसलिए शुरू में इसे गंभीरता से नहीं लिया गया। लेकिन जून 2009 में अहलुस सुन्नह वल जमाह ने बमिंघम में एक रैली की और उसमें 11 वर्ष के एक श्वेत अंग्रेज लड़के का र्ध्मांतरण कराके मुसलमान बनाया गया। इसके बाद समाज के कुछ और लोग इस संगठन से जुड़े और इसे ‘इंग्लिश डिफेंस लीग’ का नाम दिया गया। इसे वहां भारत के बजरंग दल जैसा संगठन माना जाता है, जिसका उद्देश्य इस्लामी आतंकवाद से ब्रिटेन की रक्षा करना है। यहां यह उल्लेखनीय है कि ब्रिटेन में दक्षिण एशिया यानी भारत, पाकिस्तान व बंगलादेश के करीब 4 प्रतिशत लोग रहते हैं, जिसमें अधिकांश मुसलमान हैं। मुसलमानों की इस संख्या का 29 प्रतिशत लंदन के आस-पास बसा है। अनुमानतः यह संख्या 8 लाख के करीब है। इसलिए राजधानी में इस्लामी चरमपंथियों की इडीएल के साथ टकराव की आशंका सबसे अधिक है।

कैमरन ने अपने मंत्रियों को सलाह दी है कि वे ऐसे मुस्लिम संगठनों के साथ संबंध न रखें और न उनके नेताओं के साथ किसी मंच पर बैठें। उन्हें विश्वविद्यालयों तथा जेलों आदि में जाकर अपने विचार व्यक्त करने का अवसर न दें। वास्तव में उन्होंने बिना किसी लाग लपेट के कहा है कि हमें आधुनिक लोकतांत्रिक व मानवीय मूल्यों के खिलाफ विचारों के प्रति अपनी उदासीनता या उन्हें सह लेने की प्रवृत्ति कम करनी चाहिए तथा अपने लोकतांत्रिक मूल्यों की उदारता के प्रति दृढ़ता (मोर ऐक्टिव, मस्कुलर लिबरिलिज्म) का प्रदर्शन करना चाहिए। हमें इन समूहों से यह सवाल पूछने में संकोच नहीं करना चाहिए कि सार्वभौम मानवाधिकारों में विश्वास करते हैं या नहीं अथवा वे एकता के समर्थक हैं या अलगाववाद के। वे कानून के सामने समानता चाहते हैं या अपने लिए विशेष कानून। वे लोकतंत्र में विश्वास करते हैं या नहीं ? वे अन्य धर्मों या स्त्रियों के समानता के अधिकारों में विश्वास करते हैं या नहीं ? ऐसे प्रश्न पूछना अब हमारे लिए जरूरी है। यदि वे इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते, तो हमें उनके साथ संपर्क तोड़ लेना चाहिए।

लुटान साउथ के लेबर पार्टी के सांसद गाविन शुकर, कैमरन के इस भाषण का विरोध तो नहीं कर सके, लेकिन उनका कहना था कि क्या प्रधानमंत्री को ये सब बातें उसी दिन कहना जरूरी था, जब लंदन में उनके निर्वाचन क्षेत्र में ही ‘इंग्लिश डिफेंस लीग' वाले प्रदर्शन करने वाले थे। लेबर पार्टी के ही दूसरे मुस्लिम नेता सादिक खान ने भी प्रधानमंत्री के विचारों को मुस्लिम विरोधी करार दिया है। डेली मिरर में प्रकाशित उनके एक आलेख को लेकर भी खासा बवाल मचा है। कंजरवेटिव पार्टी की चेयरमैन बैरोनेस वार्सी ने अपनी जवाबी प्रतिक्रिया में कहा है कि प्रधानमंत्री को दक्षिणपंथी कार्यकर्ता की तरह चित्रित करना भड़काउ व गैरजिम्मेदाराना कार्य है। इस बीच ब्रिटेन की मुस्लिम कौंसिल के सहायक महासचिव डॉ. फैजल हेजरा ने कैमरन के भाषण को ‘निराशाजनक‘ करार दिया है। उन्होंने ‘रेडियो-4' के कार्यक्रम में आशा व्यक्त की कि इस संदर्भ में मुस्लिम समुदाय पर सबकी नजर है, लेकिन उसे समस्या के समाधान का अंग बनाने के बजाए उसे समस्या का अंग समझा जा रहा है।

यद्यपि कैमरन ने यह बहुत साफ शब्दों में कहा है कि वह ‘इस्लाम' व ‘इस्लामी आतंकवाद' को एक नहीं मानते, लेकिन मुस्लिम समुदाय उनके पूरे वक्तव्य को इस्लाम विरोधी करार दे रहा है। कैमरन का कहना है कि एक ‘वास्तविक उदार लोकतांत्रिक देश कुछ मूल्यों में विश्वास करता है और सक्रिय रूप से उसे आगे बढ़ाता है। अभिव्यक्ति स्वतंत्रता, उपासना स्वतंत्रता, कानून का शासन, लोकतंत्र, बिना नस्ल, जाति, लिंग या धार्मिक भेदभाव के सभी के लिए समान अधिकार ऐसे ही मूल्य हैं। ये वे मूल्य हैं, जिनसे हमारा समाज परिभाषित होता है। इसके अंग के तौर पर यहां रहने का अर्थ है इन मूल्यों में विश्वास करना।

बहुसंस्कृतिवाद के राजनीतिक सिद्धांत (डक्ट्रिन ऑफ स्टेट मल्टीकल्चरलिज्म) के अंतर्गत हमने विभिन्न संस्कृतियों को अपने ढंग से अलग-अलग तरह से जीने के लिए प्रोत्साहित किया। हम उन्हें ऐसी सामाजिक एकता की दृष्टि देने पर विफल रहे कि वे उससे जुड़ सकें, उसके अंगभूत बन सकें। हमने इन समुदायों को हमारे अपने सामाजिक मूल्यों के खिलाफ भी चलने दिया। उसकी अनदेखी की। इसके कारण ही वे समस्याएं पैदा हुई, जिससे आज हम पीड़ित हैं। उनका कहना है कि मजबूत राष्ट्रीय भावना तथा स्थानीय पहचान के साथ सम्बद्धता ही वह तत्व है, जिसके आधार पर वांक्षित राष्ट्रीय एकता प्राप्त की जा सकती है। जब लोग ‘हम मुस्लिम है, हम हिन्दू है, हम ईसाई है, इसके साथ यह भी कहेंगे कि हम लंदनवासी हैं' तभी यह लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।

कैमरन, मार्किल तथा निकोलस के इस तरह के वक्तव्यों पर दुनिया भर में बहस छिड़ना स्वाभाविक है, लेकिन आश्चर्य है कि अपने देश भारत में अब तक इस पर कोई बहस नहीं छिड़ी। राजनीतिक दलों, सामाजिक चिंतकों तथा प्रायः हर बात पर अपनी राय देने के लिए उतावले भारतीय बुद्धिजीवियों की चुप्पी चकित करने वाली है। भारत ने प्रायः अपना पूरा राजनीतिक चिंतन तथा व्यावहारिक ढांचा ब्रिटेन से उधार लिया है। तो ब्रिटेन में यदि कोई वैचारिक उथल-पुथल शुरू हो रही है, तो उसकी कुछ धमक तो यहां भी दिखायी पड़नी चाहिए थी, लेकिन अभी तक तो वह नदारद है। अरब जगत में मची उथल-पुथल तथा अमेरिका समर्थक तानाशाहियों के खिलाफ भड़के आंदोलनों पर भी यहां कोई गंभीर चर्चा नहीं हो रही है। कुछ थोड़े से उत्साही बुद्धिजीवी इसे ‘लोकतांत्रिक ज्वार' के रूप में देख रहे हैं और प्रसन्न हो रहे हैं। वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि यह लोकतंत्र का ज्वार है या किसी और तंत्र का।

ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह अली खमेनेई ने मिस्र के प्रदर्शनों को इस्लामी जागरूकता की निशानी बताया है, जिसके दबाव में अमेरिका के पिट्ठू राष्ट्रपति होस्नी मुबारक को वहां से भागना पड़ा है। उन्होंने तेहरान में जुम्मे की एक नमाज में अरबी में बोलते हुए (जिससे मिस्र के लोगों को सीधा संदेश मिल सके) मिस्री लोगों से अपील की कि जब तक धर्म के आधार पर शासन की स्थापना नहीं हो जाती, तब तक विश्राम न लेना।

आज ब्रिटेन या अन्य यूरोपीय देश जिस समस्या से चिंति हैं, वह कहीं अधिक गंभीर रूप में भारत के सामने है, लेकिन यहां कोई नेता समस्या का मुकाबला करने के लिए कैमरन की तरह सामने आने के लिए तैयार नहीं है।

आज की दुनिया के जागरूक आधुनिक समाज को किसी उपासना पद्धति (रिलीजन, मजहब आदि) को लेकर कोई समस्या नहीं है, किंतु मजहबी वर्चस्व कायम करने की इच्छा वाली आक्रामक मजहबी राजनीति का डर अवश्य है। इसलिए आज जरूरत इस बात की है कि हिंसक आतंकवादी गुटों को ही नहीं, दुनिया में प्रचलित अहिंसक धार्मिक विश्वासों को भी इस कसौटी पर कसा जाए कि वे वैश्विक मानवाधिकारों, वैयक्तिक स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति के अधिकारों, मानवीय समानता तथा ईश्वर में विश्वास करने या न करने की स्वतंत्रता के अधिकारों के समर्थक हैं या नहीं। यदि कोई धर्म चाहे वह इस्लाम हो, हिन्दू हो या ईसाई या कोई अन्य, यदि वह इस कसौटी पर खरा नहीं उतरता, तो उसका भी विरोध किया जाना चाहिए और आधुनिक समाज के समर्थक को उसके खिलाफ संघर्ष में उतरने का भी साहस करना चाहिए। क्या भारत में इस तरह का साहस दिखने वाला कोई व्यक्ति दल या समुदाय सामने आयेगा, जो कैमरन द्वारा उठायी गयी आवाज को आगे बढ़ा सके अयौर देश की राजनीति व समाज को मजहबी मिथ्या रूढ़ियों तथा मानव विरोधी विचारों की आक्रामकता से मुक्त कर सके।

13/02/2011

1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

अब जब ईसाइयत को सामना करना पड रहा है तो बहुसंस्कृतिवाद खलने लगा है। तब तक तो धर्मपरिवर्तन भी बहुसंस्कृतिवाद का ही हिस्सा था :)