रविवार, 19 दिसंबर 2010

वेन जियाबाओ की व्यापारिक यात्रा


चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ भी तमाम अन्य व्यापारिक महाशक्तियों की पंक्ति में गत बुधवार को दिल्ली आ गये। उन्होंने मैत्री और सहयोग की बड़ी-बड़ी बातें की, लेकिन वे सारी बातें खोखली थीं। उन्होंने भारत की किसी चिंता की कोई परवाह नहीं की। उनकी नजर एकटक भारत के विशाल बाजार पर टिकी रही। और व्यापारी देश भी अपना व्यापार बढ़ाने आए, लेकिन उन्होंने भारतीय चिंताओं के साथ भी साझेदारी व सहयोग की बात की, लेकिन चीन के प्रधानमंत्री केवल व्यापारीक लाभ के लिए यहां आए। उनकी असली दोस्ती पाकिस्तान के साथ है, इसलिए उन्हें पाकिस्तानी हितों की अधिक परवाह है। जियाबाओ की इस यात्रा के बाद यह सच्चाई और दृढ़ हो गयी है कि चीन कभी भारत का विश्वसनीय मित्र नहीं हो सकता और पाकिस्तान मित्र नहीं हो सकता और पाकिस्तान के साथ उसका गठजोड़ हमेशा भारत के लिए खतरा बना रहेगा।

वर्ष 2010 का अंतिम महिना यों पूरी दुनिया के लिए बहुत महत्वपूर्ण कहा जाएगा, लेकिन भारत के लिए यह विशेष रूप से बहुत महत्वपूर्ण बन गया है। विकीलीक्स के खुलासों को दरकिनार रखें, तो भी देश के आंतरिक रहस्योद्घाटन ने एक तरफ सामान्यजनों को दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर किया है, तो दूसरी तरफ देश की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा यों छलांग लगाती दिखायी दी कि दुनिया की तीन महाशक्तियों के शासनाध्यक्ष अकेले इसी एक महीने में भारत की यात्रा पूरी कर रहे हैं। यदि पिछले महीने यानी नवंबर में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा तथा उसके पहले गत जुलाई में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरून की यात्रा को भी शामिल कर लें, तो इस वर्ष के अंतिम 6 महीनों में विश्व की पांच महाशक्तियां एक के बाद एक भारत की परिक्रमा करती नजर आ रही हैं। इस महीने की शुरुआत में फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी अपनी सेलेब्रिटी पत्नी कार्ला ब्रुनी के साथ पधारे। उसके बाद गत बुधवार को चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ तीन दिन की यात्रा पर दिल्ली पहुंचे। अब 21 दिसंबर को रूस के राष्ट्रपति दिमित्रि मेदवेदेव दो दिन की यात्रा पर यहां पहुंचने वाले हैं।

यह रोचक है कि इन सभी महाशक्तियों के शासनाध्यक्ष मुख्यतः व्यापारिक एजेंडा लेकर भारत आ रहे हैं। अब तक आ चुके चार देश भारत के साथ करीब 40 अरब डॉलर का व्यापारिक सौदा करके जा चुके हैं। रूस के राष्ट्रपति यहां पहुंचेंगे तो उनके साथ भी कुछ 10-15 अरब डॉलर का करार हो जाएगा। चीन के प्रधानमंत्री ने करीब 16 अरब डॉलर का सौदा किया। सरकोजी का सौदा भी 13 अरब डॉलर का था। ओबामा का सौदा भी 10 अरब डॉलर के करीब था। सबसे कम 1 अरब डॉलर का सौदा ब्रिटेन के साथ हुआ। यहां यह उल्लेखनीय है कि चीन के प्रधानमंत्री ने तो स्वयं भारत के प्रधानमंत्री के सामने यह प्रस्ताव रखा कि वह भारत आना चाहते हैं। हनोई में हुए पूर्व एशियाई देशों के शिखर सम्मेलन के दौरान जब वेन जियाबाओ की डॉ. मनमोहन सिंह के साथ अलब से मुलाकात हुई, तो जियाबाओ ने भारत यात्रा की इच्छा व्यक्त की। प्रस्ताव बिल्कुल असंभावित था, लेकिन हमारे सज्जन प्रधानमंत्री भला कैसे इनकार करते, उन्होंने सोत्साह उनके प्रस्ताव का स्वागत किया। और वह शायद अब तक सबसे बड़ा प्रतिनिधिमंडल (400 सदस्यों का) लेकर दिल्ली पधारे। यद्यपि उनके पहले फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी भी 300 सदस्यों का दल लेकर आये थे, लेकिन प्रधानमंत्री जियाबाओ ने तो रिकार्ड ही तोड़ दिया।

वास्तव में जियाबाओ का इस समय एक ही एजेंडा है अपने व्यापार का विस्तार। वह देख रहे हैं कि मंदी के कारण यूरोप और अमेरिका के बाजार में कुछ गिरावट आयी है, तो उसकी कमी वह भारतीय बाजार में अपनी उपस्थिति बढ़ाकर करना चाहते हैं। चीन से व्यापार बढ़ाने में भारत की भी रुचि है, लेकिन चीन भारतीय बाजार का एकतरफा फायदा उठाना चाहता है। वह अपने राजनीतिक रूख में बिना कोई नरमी लाए आर्थिक संबंधों को विस्तार देना चाहते हैं, क्योंकि वह जानते हैं कि इस विस्तार से भारत से अधिक उनका अपना लाभ है। इसीलिए उन्होंने द्विपक्षीय व्यापार को 2015 तक बढ़ाकर 100 अरब डॉलर करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। जियाबाओ को भारतीय मीडिया से बहुत शिकायत है। वह चाहते थे कि अपनी दिल्ली यात्रा में उन्होंने मैत्री और सहयोग के जो खोखले नारे लगाये, उनको मीडिया अपनी सुर्खियां बनाता, लेकिन मीडिया ने उनके यथार्थ को पेश किया। जियाबाओ ने दिल्ली पहुंचने पर कहा कि वह भारत के साथ दोस्ती बढ़ाने की यात्रा पर आए हैं। उन्होंने यह भी कहा कि भारत और चीन प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि साझीदार हैं। इसके पहले भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह यह कह चुके थे कि दुनिया में भारत और चीन दोनों के विकास के लिए पर्याप्त खाली क्षेत्र उपलब्ध है। मतलब यह कि इनमें से किसी को अपने विकास के लिए दूसरेको धक्का देने की जरूरत नहीं है। जियाबाओ ने भी यहां इस बात को दोहराया, साथ ही यह भी कहा कि दोनों के बीच सहयोग के लिए असीमित क्षेत्र हैं। यानी बिना एक दूसरे की राह में रोड़ा बने वे अपना विकास ही नहीं कर सकते, बल्कि एक दूसरे को विकास में सहयोग कर सकते हैं और साथ-साथ मिलकर भी विकास के पथ पर आगे बढ़ सकते हैंे। उन्होंने यहां अपने दीर्घकालिक आपसी संबंधों की भी चर्चा की। लेकिन उनके प्रदर्शित आचरण ने उनके सारे शब्दों का खोखलापन उजागर कर दिया।

जियाबाओ ने अपनी इस यात्रा में भारत की किसी भी चिंता का कोई समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास नहीं किया। पंचशील की बातें तो की, लेकिन किसी शील के प्रति निष्ठा का प्रदर्शन नहीं किया। भारत का चीन के साथ सीमा विवाद तो दोनों देशों के बीच अड़ी सबसे बड़ी समस्या तो है ही, इसके साथ् चीन ने कुछ और भी खटकने वाली समस्याएं खड़ी कर रखी हैं। पाक अधिकृत कश्मीर की विकास योजनाओं में चीन की बढ़ती भागीदारी भारत के लिए एक बड़ी चिंता का विषय है। इधर पिछले कुछ वर्षों से चीन ने कश्मीरी नागरिकों को चीन जाने के लिए अलग से कागज पर वीजा देने की परंपरा शुरू कर रखी है। भारत की बार-बार आपत्ति के बावजूद उसने इसे अभी बंद नहीं किया है। पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद को चीन का लगातार समर्थन भी भारत की गंभीर चिंता का विषय है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चीन ने पाकिस्तानी आतंकवादी नेता के विरुद्ध प्रतिबंध लगाने की कार्रवाई को अपने वीटो अधिकार से रोका। अरुणाचल प्रदेश को लेकर उसकी आपत्तियां अब तक बनी है। उसने उसकी आपत्तियां अब तक बनी है। उसने अरुणाचल प्रदेश में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की यात्रा का भी विरोध किया था। भारत की चीन से लगी प्रायः पूरी करीब 3500 किलोमीटर की सीमा पर चीन सैनिक महत्व की तैयारियां भी खटकती रही हैं। भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील है, जिसके लिए उसे इस संस्था के पांचों स्थाई सदस्य देशों का समर्थन चाहिए। बाकी चार देश तो इसकी खुली घोषणा कर चुके हैं कि वे भारत को सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य के रूप में देखना चाहते हैं, लेकिन चीन अभी भी अपना विरोधी रूख अपनाए हुए है।

अपनी दिल्ली यात्रा में जियाबाओ ने भारत की किसी एक भी चिंता के समाधान में कोई रुचि नहीं दिखायी। भारत को भी कोई बहुत आशा नहीं थी, लेकिन इतनी संभावना तो अवश्य मानी जा रही थी कि वह कम से कम कश्मीर के 'स्टेपल वीजा' के बारे में तो कोई घोषणा अवश्य करेंगे। उनकी यात्रा के कुछ दिन पहले से भारत स्थित चीनी दूतावास ने कश्मीरियों के लिए ‘स्टेपल वीजा' (कागज पर अलग से लिखकर दिया गया वीजा, जो पासपोर्ट के साथ नत्थी कर दिया जाता है) देना बंद कर दिया था। मीडिया की खबरों के अनुसार उसने दो-तीन वीजा मुहर लगाकर भी दिया। इससे ऐसा लगा कि चीन शायद भारत की इस खलिश को दूर करना चाहता है और जियाबाओ की इस यात्रा के दौरान शायद अंतिम रूप से यह ‘स्टेपल वीजा' हमेशा के लिए बंद कर दिया जाए।

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। जियाबाओ साहब ने बड़ी गंभीर मुद्रा में केवल यह कहा कि वह कश्मीरियों के लिए ‘स्टेपल विजा' पर भारत की चिंता से अवगत हैं। उनके अधिकारी इस पर विचार करेंगे। आखिर वह इस पर पहले से विचार करके क्यों नहीं आये। सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता के बारे में भी उन्होंने केवल इतना कहा कि इस बारे में वह भारत की आकांक्षा से अवगत हैं। वह चाहते हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की भूमिका बढ़े। लेकिन इसके आगे कुछ भी कहना उचित नहीं समझा। पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद को रोके जाने पर भी उन्होंने कुछ नहीं कहा।

भारत ने वैज्ञानिक, तकनीकी, सांस्कृतिक व शैक्षिक सहयोग के कई समझौतों पर चीन के साथ हस्ताक्षर किये। मंच पर उसने भी जियाबाओ के सहयोग और मैत्री के स्वर में स्वर मिलाया। लेकिन इस बार भारतीय नेताओं ने पर्दे के पीछे भी बातचीत में अपना सख्त रुख बनाए रखा। इसीलिए यह शायद भारत चीन संबंधों के इतिहास में पहली बार हुआ है कि दोनों देशों के शीर्ष नेताओं के बाद जारी संयुक्त विज्ञप्ति में इस बार एकीकृत चीन के समर्थन का कोई वाक्य शामिल नहीं किया गया है (एकीकृत मतलब चीन के साथ तिब्बत व ताइवान की एकता का समर्थन)। भारत ने पहली बार चीन के समक्ष तिब्बत और कश्मीर के मसले को समान स्तर पर रखने की कोशिश की। उसने बता दिया कि यदि चीन कश्मीर को भारत का स्थाई व अविभाज्य अंग मानने के लिए तैयार नहीं है, तो भारत क्यों तिब्बत के चीन के साथ एकीकरण का राग अलापता रहे।

भारत के साथ सीमा विवाद के बारे में तो उनका कहना था कि इसके पीछे दीर्घकालिक ऐतिहासिक परंपरा का कारक है, लेकिन कश्मीर के बारे में उनके पास कोई शब्द नहीं था कि वे क्यों उसे भारत का अंग मानने के लिए तैयार नहीं है। कश्मीरी नागरिकों को अलग से वीजा देने का साफ अर्थ है कि चीन उसे भारत का अंग नहीं मानता। यह भी कोई छिपी बात नहीं है कि ऐसा वह पाकिस्तान के कहने पर उसके साथ मैत्री प्रदर्शन के लिए कर रहा है।

पाकिस्तान चीन का रणनीतिक मित्र है। उसके साथ चीन के घनिष्ठ कूटनीतिक तथा आर्थिक संबंध हैं। पाकिस्तान का परमाणु व मिसाइल विकास कार्यक्रम चीन की ही देन है। वेन जियाबाओ भारत की तीन दिन की यात्रा के बाद सीधे पाकिस्तान गये। चीनी प्रधानमंत्री की भारत यात्रा कार्यक्रम को जब अंतिम रूप दिया जा रहा था, तो भारत की तरफ से अनुरोध किया गया कि वह अपनी इस यात्रा को पाकिस्तान के साथ नत्थी न करें, किंतु उन्होंने इसे मानने से इनकार कर दिया। दुनिया के तमाम बड़े देशों ने दक्षिण एशिया में भारत और पाकिस्तान के बीच संतुलन की रणनीति छोड़ दी है। लेकिन चीन अभी यह नीति बनाए हुए है। पाकिस्तान पहुंचकर जियाबाओ ने वहां के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी के साथ बातचीत की। गिलानी की तरफ से घोषणा की गयी कि चीन उसका सबसे अच्छा, सबसे घनिष्ठ तथा सबसे अधिक विश्वसनीय मित्र है। पाकिस्तान यद्यपि अभी भी सर्वाधिक अमेरिका पर निर्भर है। अमेरिकी सहायता न मिले, तो पाकिस्तान की सारी व्यवस्था चरमरा जाए, लेकिन अमेरिका, पाकिस्तान का अब भरोसे का मित्र नहीं रह गया। विकीलीक्स द्वारा जारी किये गये दस्तावेजों ने तो अंतिम रूप से यह प्रमाणित कर दिया है कि अमेरिका और पाकिस्तान की दोस्ती केवल स्वार्थ की दोस्ती रह गयी है। दोनों में से किसी को किसी पर कोई भरोसा नहीं है। इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका के वैश्विक संघर्ष में पाकिस्तान मजबूरीवश शामिल है, जबकि चीन के साथ उसका पूरा भरोसे का रिश्ता है। इसीलिए तो इस्लामाबाद में जियाबाओ ने चहकते हुए कहा कि ‘चीन-पाक अच्छे पड़ोसी, अच्छे मित्र, अच्छे साझीदार तथा अच्छे भाई हैं।' प्रधानमंत्री गिलानी के साथ वार्ता के उपरांत जारी संयुक्त वक्तव्य में चीन ने घोषणा की है कि पाकिस्तान के साथ मिलकर वह क्षेत्रीय शांति व स्थिरता के लिए काम करेगा। इस घोषणा का सीधा अर्थ है कि दक्षिण एशियायी मामलों में चीन हमेशा पाकिस्तान का साथ देगा और उसके हितों की रक्षा करेगा। दोनों देशों ने वर्ष 2011 को ‘चीन-पाक मैत्री वर्ष' के रूप में मनाने का निर्णय लिया है।

यह केवल संयोग नहीं है कि जिस दिन चीनी प्रधानमंत्री दिल्ली पहुंचे, उसी दिन अरुणाचल प्रदेश की सीमा से सटे चीनी गांव तक उस पहाड़ी सुरंग का काम पूरा हुआ, जो भारत की सीमा से लगे इस क्षेत्र को सड़क मार्ग से तिब्बत व चीन के मुख्य शहरों को जोड़ती है। चीन भारत के दोनों ओर स्थित पूर्वी व पश्चिमी समुद्रों तक अपने रेल व सड़क राजमार्ग तक पहुंचना चाहता है। इस तरह भारतीय भूखंड तो उसकी दो बांहों के बीच आ जाएगा। एक बांह पाकिस्तान से होकर पश्चिम समुद्र तक पहुंच रही है, तो दूसरी बंगलादेश व म्यामांर से होकर पूर्वी समुद्र तक। कभी कालिदास ने नगाधिराज हिमालय की स्तुति करते हुए कहा था कि भारत वर्ष के उत्तर में स्थित दिक्देवता सदृश यह महान पर्वत जिसकी श्रृंखलाएं पूर्वी व पश्चिमी समुद्र का सपर्श करती हैं, पृथ्वी के मानदंड के समान स्थित है। यह उत्तर में स्थित भारत के रक्षाप्रहरी की स्तुति थी, लेकिन चीन ने उसे निरादृत करके अपनी वे भुजाएं फैला दी हैं, जो आतंकवाद व तानाशाही का समर्थन करती हैं तथा लोकतंत्र का खून करती हैं और उसकी आवाज को जेल की कोठरियों में बंद रखती हैं। कहावत है कि जिसकी रक्षा करता है। हमने हिमालय की रक्षा नहीं की, हमने तिब्बत की रक्षा नहीं की, तो अब हमारी उत्तरी सीमाओं की रक्षा कैसे हो सकती है।

आज का भारत निश्चय ही 1962 का भारत नहीं है। आज के हमारे राजनीतिक नेतृत्व ने थोड़ी ही सही, लेकिन कुछ दृढ़ता दिखायी है। उसने चीन को उसी के सिक्के में जवाब देने की कोशिश की है। लेकिन यह जवाब तब पूरा होगा, जब वह तिब्बत के प्रति वैसा ही व्यवहार शुरू करे, जैसा चीन कश्मीर के प्रति कर रहा है। लेकिन इसके लिए हमें अपना सैन्य मनोबल इजरायल की तरह विकसित करना होगा, क्योंकि तभी हम अपने में वह शक्ति जुटा सकेंगे, जो उस जाल को तोड़ सके, जिसे चीन, भारत के चारों तरफ बुन रहा है। पाक-चीन गठजोड़ भारत के लिए बेहद खतरनाक है, जिससे हमें सदैव सावधान रहना पड़ेगा।
 
19/12/2010

1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

‘लेकिन यह जवाब तब पूरा होगा, जब वह तिब्बत के प्रति वैसा ही व्यवहार शुरू करे, जैसा चीन कश्मीर के प्रति कर रहा है।’

ऐसा तो तब ही सम्भव होगा जब लोग तिब्बत जाने का आवेदन करे और चीन उनके स्वागत के लिए तैयार हो।