रविवार, 12 दिसंबर 2010

लोकतंत्र व तानाशाही के संघर्षों 
के बीच नोबेल शांति पुरस्कार



वर्ष 2010 का नोबेल शांति पुरस्कार चीन के विद्रोही नेता लियू जियाओबो को दिये जाने का चीन की एकदलीय कम्युनिस्ट सरकार ने तीव्र विरोध किया है। जियाओबो चीन की जेल में 11 वर्ष की कैद की सजा काट रहे हैं। सरकार ने उनकी पत्नी को भी नजरबंद कर रखा है। चीन सरकार का कहना है कि जियाओबो को नोबेल पुरस्कार देना पश्चिमी देशों का चीन की राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था पर हमला है। चीन ने पूरी दुनिया के देशों, खासतौर पर विकासशील देशों से अपील की थी कि वे ओसलो के समारोह का बहिष्कार करें। नार्वे स्थित करीब 65 देशों के मिशन प्रतिनिधियों में से 16 ने चीन के पक्ष में समारोह का बहिष्कार किया। इनमें ज्यादातर कम्युनिस्ट व इस्लामी देश हैं। तो क्या इससे यह संकेत नहीं मिलता कि दुनिया के देशों के बीच भविष्य की विभाजन रेखा (या संघर्ष रेखा) लोकतंत्र और किसी भी तरह की तानाशाही के बीच होगी और लोकतंत्र विरोधी तानाशाही देशों का नेतृत्व चीन करेगा ?


नोबेल शांति पुरस्कार इस बार लोकतंत्र बनाम एकदलीय तानाशाही के संघर्ष का प्रतीक बन गया है। 74 वर्षों बाद पहली बार ऐसी स्थिति पैदा हुई कि 10 दिसंबर को ओसलो में आयोजित पुरस्कार समारोह में पुरस्कार विजेता की कुर्सी खाली रही। अब से 74 वर्ष पूर्व 1936 में ऐसी स्थिति पैदा हुई थी, जब नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किये जाने के लिए आयोजित समारोह में न पुरस्कार गृहीता पहुंच सका था और न कोई उसका प्रतिनिधि। परिणाम यह हुआ कि पुरस्कार उस कुर्सी को ही समर्पित कर दिया गया, जो उसके गृहीता के लिए रखी गयी थी। इस बार भी ऐसा हुआ कि नार्वे की नोबेल कमेटी की अध्यक्ष थार्बजोरेन जागलैंड ने पुरस्कार प्रदान किये जाने से संबंधित अपने संक्षिप्त भाषण के बाद पुरस्कार राशि, गोल्ड मेडल तथा प्रशस्ति पत्र अपने बगल में स्थित उस कुर्सी पर ही रख दिया, जो पुरस्कार गृहीता या उसके प्रतिनिधि के लिए रखी गयी थी। 1936 में जर्मन शांतिवादी कार्ल वोन ओशीत्जकी को नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा हुई थी, लेकिन उस समय के जर्मन तानाशाह हिटलर ने उन्हें पुरस्कार लेने के लिए नहीं जाने दिया था।

पुरस्कार गृहीता लियू जियाओबो चीन की जेल में कैद हैं। वह चीनी कम्युनिस्ट अधिनायकवाद के विरुद्ध आवाज उठाने के आरोप में 11 वर्ष के कारावास की सजा काट रहे हैं। जेल की कोठरी से भेजे गये अपने संदेश में उन्होंने इस पुरस्कार को 1989 में बीजिंग के ‘थ्यानमेन चौक' पर लोकतंत्र समर्थक रैली में पुलिस की गोली से मारे गये शहीदों की आत्माओं को समर्पित किया है। चीन ने पुरस्कार ग्रहण करने के लिए उन्हें तो नहीं ही छोड़ा, उनकी पत्नी को भी ओसलो जाने की इजाजत नहीं दी। जबसे लियू को यह पुरस्कार देने की घोषणा हुई है, उनकी घर पर चीनी पुलिस का गहरा पहरा है, जिससे वह किसी से मिल न सकें। उनका फोन संपर्क भी काट दिया गया है, जिससे वह किसी से बात भी न कर सकें।

नोबेल कमेटी के अध्यक्ष जागलैंड ने अपने भाषण में लियू जियाओबो की तुलना दक्षिण अफ्रीका के नेल्सन मंडेला से की, जो रंगभेद के खिलाफ आवाज उठाने के लिए करीब 28 वर्षों तक जेल में रहे। उन्होंने जियाओबो को तत्काल जेल से रिहा करने की अपील की। इस अपील पर वहां सभागार में आयोजित करीब एक हजार आमंत्रित अतिथियों ने देर तक तालियां बजाकर अपना समर्थन व्यक्त किया। इसके पूर्व उन्होंने उस समय खड़े होकर देर तक तालियां बजायी, जब जागलैंड ने जियाओबो की अनुपस्थिति में उनके संघर्षों का स्मरण करते हुए यह विश्व विश्रुत पुरस्कार देने की घोषणा की। अपने प्रस्तुति भाषण में जागलैंड ने कहा कि 1.3 अरब जनसंख्या वाले देश चीन के कंधे पर पूरी मनुष्य जाति के भाग्य का भार है। इसलिए यदि वह सामाजिक बाजार अर्थव्यवस्था का विकास पूरे नागरिक अधिकारों से करता है, तो यह पूरी दुनिया के लिए हितकर होगा, नहीं तो यह खतरा है कि उस देश में भी सामाजिक और आर्थिक संकट पैदा हों, जिनका नकारात्मक प्रभाव हम सबको यानी पूरी दुनिया को भोगना पड़ेगा।

अमेरिका के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने भी इस अवसर पर अपने वक्तव्य में कहा है कि लियू जियाओबो सार्वभौम मानवीय मूल्यों के प्रतीक हैं और इसके साथ ही चीन से अपील की कि वह जियाओबो को तत्काल रिहा कर दे।

लेकिन चीन इस सबसे बिल्कुल अप्रभावित है। उसने न केवल किसी चीनी नागरिक को इस समारोह में भाग लेने के लिए जाने की अनुमति नहीं दी, बल्कि उसने पुरस्कार प्रदान किये जाने वाले इस समारोह का चीनी मीडिया में प्रसार भी नहीं होने दिया। उसने सी.एन.एन. व बी.बी.सी. तथा अन्य अंतर्राष्ट्रीय चैनलों का प्रसारण बंद रखा, जब तक कि उन पर इस समारोह का प्रसारण हो रहा था। चीन में यों ही इन अंतर्राष्ट्रीय चैनलों की बहुत सीमित पहुंच है। ये केवल बड़े शहरों के होटलों या उन आवासीय क्षेत्रों तक सीमित हैं, जहां ज्यादातर विदेशी नागरिक रहते हैं।

लेकिन नोबेल शांति पुरस्कार दिये जाने की खबर से इन क्षेत्रों को भी वंचित रखा गया। चीन की दृष्टि में यह पूरा आयोजन राजनीतिक था और इसका लक्ष्य चीन की अपनी सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था में हस्तक्षेप करना है। चीन उस समय से इसका विरोध कर रहा है, जिस समय नोबेल शांति पुरस्कारों के लिए चीन के इस विद्रोही प्रोफेसर व लेखक को चुने जाने की घोषणा की गयी। चीनी संवाद समिति सिन्हुआ ने लिखा है कि जियाओबो को शांति पुरस्कार के लिए चुनना वास्तव में पश्चिम का चीन की अपनी सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था पर हमला है। पश्चिमी देश वस्तुतः अपनी राजनीतिक व सामाजिक शैली चीन पर थोपना चाहते हैं, जिसे चीन कभी स्वीकार नहीं करेगा। नार्वे की नोबेल कमेटी ने चीन के एक सजायाफ्ता अपराधी को-जो जेल की सजा काट रहा है तथा जिसके उपर सत्ता के विरुद्ध विद्रोह भड़काने का आरोप है- शांति पुरस्कार के लिए चुनकर न केवल अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की मर्यादा का, बल्कि इस पुरस्कार के संस्थापक अल्फ्रेड नोबेल की घोषणा का भी उल्लंघन किया है। अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का आधारभूत सिद्धांत है एक-दूसरे का सम्मान करना तथा एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना, किंतु नोबेल कमेटी ने इन सिद्धांतों का उल्लंघन किया है। 21 वर्ष पूर्व पश्चिमी देशों ने इसी नोबेल पुरस्कार कमेटी के माध्यम से दलाई लामा को शांति पुरस्कार के लिये चुना था। उस समय इन पश्चिमी देशों का सपना था कि चीन में उसकी वर्तमान राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध कोई आंधी उठेगी और चीन विखंडित हो जाएगा, उसकी वर्तमान व्यवस्था बिखर जायेगी। लेकिन उनका यह सपना पूरा नहीं हुआ। चीन ज्यों का त्यों अपनी जगह खड़ा है और अपने सिद्धांतों के अनुसार विकास कर रहा है। सिन्हुआ के संपादक ने अपने हस्ताक्षरित आलेख में लिखा है कि नोबेल कमेटी की यह बात सरासर झूठी है कि वह ‘सार्वभौम मूल्यों' (यूनिवर्सल वैल्यूज) को यह सम्मान दे रहा है। उन्होंने इस संदर्भ में एक चीनी कहावत का उल्लेख किया कि ‘नदी के दोनों किनारों पर वनमानुस चीखते रहे, किंतु नौका हजार पर्वतों को पार करके आगे निकलती गयी।' चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता जियांग यू ने पश्चिमी देशों के इस हस्तक्षेप का तीव्र विरोध किया। उन्होंने भी दुनिया के देशों को उपदेश दिया कि उन्हें आपसी सद्भाव के अंतर्राष्ट्रीय नियमों का पालन करना चाहिए।

चीनी अधिकारियों ने कई स्तर पर यह प्रसारित करने की कोशिश की है कि जियाओबो वास्तव में चीन का विरोधी है, चीनी मूल्यों का विरोधी है और वह चीन व्यवस्था को नष्ट करना चाहता है। 20 वर्ष पूर्व इस व्यक्ति ने लिखा कि ‘हांगकांग जहां आज है वहां तक पहुंचने में उसे 100 वर्षों के औपनिवेशिक शासन की जरूरत पड़ी। लेकिन वर्तमान चीन को हांगकांग की स्थिति तक पहुंचने के लिए जरूर कम से कम 300 वर्षों के औपनिवेशिक शासन की जरूरत पड़ेगी। यह इतना बड़ा है कि मुझे तो संदेह है कि 300 वर्षों में भी कुछ हो पाएगा।'  उन्होंने यहांतक लिखा कि चीनी जनता नपुंसक है। वह शारीरिक ही नहीं, मानसिक तौर पर भी कायर व पुंसत्वहीन हो गयी है। जियाओबो ने चीनी राजसत्ता, राजनीतिक व्यवस्था तथा समाज के खिलाफ विद्रोह भड़काने के लिए हस्ताक्षर अभियान चलाया। 21 वर्ष पूर्व थ्यानमेन चौक की विद्रोही रैली में भी उसने भाग लिया था। दिसंबर 2008 में उसने चीन की वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध एक घोषणा पत्र जारी किया। इसके उपरांत ही उस पर मुकदमा चलाया गया और चीनी गणतंत्र के संविधान के अनुच्छेद 105 के उल्लंघन के आरोप में उन्हें 11 वर्ष के कैद की सजा सुनायी गयी।

चीनी मीडिया में एक सर्वेक्षण् परिणामों को भी प्रसारित किया गया है, जिसके अनुसार देश के 77.1 प्रतिशत लोग जानते ही नहीं कि यह लियू जियाओबो कौन है और 95 प्रतिशत लोग मानते हैं कि पश्चिमी देश चीन पर यह दबाव डालने में लगे हैं कि वह उनकी पश्चिमी राजनीतिक शैली अपना ले, किंतु चीन ऐसे किसी दबाव के सामने झुकने वाला नहीं है। विश्व स्तर पर तमाम विकासशील देश इस मामले में उसके साथ हैं। दुनिया के करीब 100 से अधिक देशों तथा करीब इतने ही मीडिया संगठनों ने इस मामले में चीन के पक्ष का समर्थन किया है। कई बड़े अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने भी चीन के एक राष्ट्रद्रोही अपराधी को नोबेल पुरस्कार दिये जाने का विरोध किया है। नार्वे में स्थित दुनिया के करीब 65 स्थायी मिशन में से 20 ने ओसलो के इस समारोह का बहिष्कार किया है। इनमें से 4 तो अपना रुख बदलकर समारोह में शामिल हुए, लेकिन 16 ने चीन का साथ दिया। आश्चर्य है कि बहिष्कार करने वाले देशों में कई देश ऐसे हैं, जो अमेरिका के सीधे प्रभाव में समझे जाते हैं। बहिष्कार करने वाले देशों में मुख्य रूप से चीन के बाद रूस, पाकिस्तान, ईरान, इराक, मिस्र, अफगानिस्तान, तजाकिस्तान, सउदी अरब, क्यूबा, श्रीलंका, तंजानियां आदि देश शामिल हैं।

चीन इस पुरस्कार की घोषणा होने के बाद से ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस अभियान में लग गया था कि ज्यादा से ज्यादा देश इस समारोह का बहिष्कार करें। उसका भारत पर भी काफी दबाव था कि वह इस समारोह में भाग न ले। चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाओबो करीब 300 सदस्यों के विशाल प्रतिनिधि मंडल (जिनमें ज्यादातर व्यावसायिक कंपनियों के प्रतिनिधि तथा अधिकारी हैं) के साथ् इसी सप्ताह भारत आने वाले हैं। इसलिए भारत के सामने काफी उहापोह की स्थिति थी, लेकिन अंततः उसने लोकतंत्र की आवाज के पक्ष में खड़ा होने का निर्णय लिया और नार्वे स्थित अपने प्रतिनिधि को समारोह में भाग लेने का निर्देश दिया। इससे चीन का क्षुब्ध होना स्वाभाविक है, लेकिन वह प्रसन्न होकर भी कहां कोई भारत का हित करने वाला है। यदि प्रधानमंत्री जियाओबो अपने लंबे चौड़े प्रतिनिधिमंडल के साथ् यहां आ रहे हैं, तो इसमें उनका अपना स्वार्थ अधिक है। चीनी शासन भारत के साथ अपना व्यापार बढ़ाना चाहता है और अपनी कंपनियों के लिए विशेष राहत की भी दरकार रखता है। भारत-चीन का व्यापार बढ़ जरूर रहा है, लेकिन व्यापार संतुलन अभी भी चीन के पक्ष में है। यानी भारत से चीन को निर्यात कम है, उसके मुकाबले आयात कहीं ज्यादा। व्यापार वृद्धि से भारत का व्यापार घाटा और बढ़ेगा ही, कम नहीं होगा। इसलिए इस क्षेत्र में भी भारत को चीन से सतर्क रहने की जरूरत है।

चीन के किसी विद्रोही नेता को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए चुने जाने का चीन के बाद सर्वाधिक मुखर विरोध रूस की तरफ से किया गया है। रूस के प्रधानमंत्री ब्लादिमिर पुतिन ने तो अगला नोबेल शांति पुरस्कार विकीलीक्स के संस्थापक व संपादक जुलियन असांजे को दिये जाने की मांग की है। उन्होंने ब्रिटेन में असांजे की गिरफ्तारी का विरोध किया है। उन्होंने सवाल उठाया है कि आखिर क्यों असांजे जेल में हैं ? क्या यह लोकतंत्र है। यह तो वैसा ही है जैसे ‘पतीली केतली को कहे कि तुम काले हो।' उनका पश्चिमी लोकतंत्रों पर परोक्ष व्यंग्य था कि वे चीन में तो लोकतांत्रिक मूल्यों के विकास के लिए वहां के विद्रोही नेता को नोबेल शांति पुरस्कार देते हैं, लेकिन यहां सच्चाई को साहसपूर्वक उजागर करने वाले एक पत्रकार को फर्जी आरोपों में गिरफ्तार करके जेल में डाल रहे हैं।

अब यदि इस सारे प्रकरण को भारत के संदर्भ में देखा जाए, तो भारत के पास इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि वह अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देशों के साथ खड़ा हो। भारत के प्रायः सारे पड़ोसी देश पाकिस्तान, श्रीलंका, म्यांमार, नेपाल, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, सउदी अरब, मिस्र तथा संयुक्त अरब अमीरात आदि चीन के साथ खड़े हैं। चीन, भारत के कट्टर विरोधी पाकिस्तान का कट्टर समर्थक है। वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पाकिस्तान के कहने पर आंतकवादी नेताओं की सुरक्षा के लिए तैयार रहता है। खाड़ी क्षेत्र के प्रायः सारे मुस्लिम देश पाकिस्तान के साथ मिलकर चीन के साथ हैं। मध्य एशियायी देश भी अंतर्राष्ट्रीय मामलों में चीन के अधिक नजदीक हैं।

तो यदि लियू जियाओबो के बहाने विश्व की राजनीतिक स्थिति पर नजर डालें, तो खुले लोकतंत्र के विरोधी सारे देश चीन के साथ हैं। इस्लामी देशों ने भी चीन के साथ सहज मैत्री शायद केवल इसलिए विकसित की है कि चीन का भी लोकतंत्र का कोई आग्रह नहीं है। इस्लामी तानाशाही व कम्युनिस्ट तानाशाही में कोई चारित्रगत फर्क नहीं है। इसलिए उनके बीच सहज मैत्री स्थापित हो सकती है। भारत में यह गौर करने लायक बात है कि पाकिस्तान नहीं अफगानिस्तान ने भी चीन के समर्थन में ओसलो के समारोह का बहिष्कार किया है।

दुनिया के तमाम देशों के बीच आपसी द्विपक्षीय संबंध जैसे भी रहें, लेकिन एक बात तो बहुत स्पष्ट है कि दुनिया दो तरह की शासन व सामाजिक व्यवस्थाओं में विभाजित होती नजर आ रही है। एक तरफ लोकतंत्र है, दूसरी तरफ तानाशाही। यह तानाशाही चाहे मजहबी हो, सामाजिक हो या सैनिक, वे सभी एकजुट हैं। इसलिए भविष्य का राजनीतिक संघर्ष विभिन्न संस्कृतियों या मजहबों के बीच हो न हो, लेकिन लोकतंत्र व तानाशाही के बीच का संघर्ष अवश्यम्भावी है। भविष्य की सांस्कृतिक खेमेबंदी का आधार भी शायद यह लोकतंत्र के समर्थन या विरोध की भावना ही बने। यह हटिंगटन की भविष्यवाणी (जिन्होंने संस्कृतियों के बीच अगले अंतर्राष्ट्रीय संघर्षों की कल्पना की थी) का ही संभवतः नया रूप होगा।





1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

लियू को नोबेल शांतिपुरस्कार मिलना मानवतावादियों और चीन के स्वतंत्रता सेनानियों के लिए जीत ही है पर यह सोचने की बात है कि मानवतावादी संगठन जो कश्मीर को लेकर इतना हल्ला मचाते हैं, उन्हें क्यों सांप सूघ गया॥