रविवार, 6 दिसंबर 2009

ओबामा की अफगान नीति सफल होने वाली नहीं

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अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने अफगानिस्तान व पाकिस्तान के जेहादी गढ़ों को ध्वस्त करने के लिए अब से डेढ़ साल का समय निर्धारित किया है। इस काम को पूरा करके अमेरिकी सेनाएं जुलाई 2011 से वापसी का रुख कर लेंगी। ऐसा लगता है कि अफगानिस्तान से अधिक उन्हें 2012 के राष्टï्रपति चुनाव की चिंता सता रही है, तभी वह चाहते हैं कि उसके पहले ही अफ गानिस्तान का लक्ष्य पूरा कर लिया जाए और सेना घर वापसी शुरू कर दे, लेकिन सवाल है क्या उनका यह महत्वाकांक्षी सपना पूरा हो सकेगा?

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अमेरिका के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने बड़े लंबे चिंतन-मनन एवं विचार-विमर्श के बाद गत मंगलवार (1 दिसंबर 2009) की शाम अपनी नई पाक-अफगान नीति की घोषणा की। इस नीति को लेकर सभी चकित हैं । अमेरिकी दैनिक 'वाशिंगटन पोस्ट ने इसे ज्वार-भाटा नीति (सर्ज देन लीव पॉलिसी) कहा है। ओबामा ने घोषणा की है कि अफगानिस्तान में अलकायदा एवं तालिबान आतंकवादियों पर हमला तेज करने के लिए 30,000 और अमेरिकी सैनिक भेजे जाएंगे। उनके सहयोगी देश भी करीब 10 हजार अतिरिक्त सैनिक भेज सकते हैं। यह तो ठीक, लेकिन इसके साथ ही उन्होंने यह भी घोषणा की है कि जुलाई 2011 से वहां से अमेरिकी सैनिकों की वापसी भी शुरू हो जाएगी। इस करीब डेढ़ साल के समय में उन्हें उम्मीद है कि पाकिस्तान व अफगानिस्तान सरकार के सहयोग से इन जिहादी आतंकवादियों के सभी सुरक्षित गढ़ ध्वस्त कर दिये जाएंगे तथा उन्हें अंतिम रूप से पराजित कर दिया जाएगा। इसके बाद उनके पास ऐसी कोई क्षमता नहीं रह जाएगी कि वे किसी सरकार का तख्ता पलटने की कोशिश कर सकें।
क्या कमाल की समयबद्ध योजना है। दुनिया के इतिहास में शायद ही किसी कमांडर ने किसी युद्ध के बारे में ऐसी सुनिश्चित घोषणा करने का साहस किया हो। आश्चर्य की बात है कि इस घोषणा में उस रणनीति का कोई जिक्र नहीं है, जिसके द्वारा इस युद्ध को निर्णायक अंत तक पहुंचा दिया जाएगा, बस एक तिथि है जिसके पहले सब कुछ हो जाएगा। निश्चय ही अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना को सुनिश्चित वापसी के लिए यह तिथि 2012 के राष्ट्रपतीय चुनाव को ध्यान में रखकर घोषित की गयी है। अमेरिकी जनता अफगानिस्तान में लम्बे सैनिक उलद्ब्रान को लेकर बेचैन है, इसलिए वह चाहती है कि अमेरिका वहां से जल्दी से जल्दी बाहर आ जाए। ओबामा साहब के सामने इस तरह दोहरी समस्या है, एक तो अमेरिकी जनता की चिन्ता को दूर करना, दूसरे अफगानिस्तान में अमेरिका के घोषित शत्रु अलकायदा व तालिबान के गढ़ को तोडऩा। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने 30 अरब डॉलर के अतिरिक्त धन की भी घोषणा कर दी है। लेकिन अहम सवाल है कि क्या ओबामा अपने इस घोषित लक्ष्य को पूरा कर पाएंगे।
युद्धनीति वह होती है, जिसकी घोषणा से शत्रु समूह में भय व चिंता फैल जाए, मगर ओबामा साहब की इस घोषणा से पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान में जश्न मनाया गया और शैंपेन की बोतलें खोली गयीं। अलकायदा और तालिबान नेता अभी तक तो यह रणनीति बना रहे थे कि अमेरिकी फौजों को कैसे वहां से भगाया जाए, लेकिन अब इस चिंता की जरूरत ही नहीं है। उन्हें तो अब जाना ही है, इसलिए यदि 18 महीने लडऩे के बजाए चुपचाप कहीं छिप के बैठ जाएं, तो भी शत्रु पराजित होकर भाग जाएगा। पाकिस्तान की सेना तो कब से उस दिन की प्रतीक्षा में है कि अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान छोड़कर वापस जाने की घोषणा करे। उनकी अमेरिका के साथ सहयोग की सबसे बड़ी रणनीति ही यही है कि आखिर कब तक अमेरिकी सैनिक यहां टिकेंगे। कब तक अमेरिकी जनता युद्ध के इस भारी खर्च को बर्दाश्त करेगी। एक न एक दिन तो उसे जाना ही होगा। तब तक केवल यह प्रयास करना है कि पाकिस्तान बचा रहे, उसकी सेना सुरक्षित रहे और उसके परमाणु अस्त्र उसके हाथ में बने रहें। यदि ये तीन बने रहे, तो अफगानिस्तान तो एक दिन उसके कब्जे में आएगा ही।
पाकिस्तान और उसके गुर्गे तालिबान इसी रणनीति के तहत अमेरिका के साथ भारत को भी वहां से भगाना चाहते हैं। क्योंकि भारत यदि वहां बना रहा, तो वह पाकिस्तान का सारा खेल बिगाड़ देगा। इसीलिए पाकिस्तान, अफगानिस्तान में ऐसी सरकार चाहता है, जो पाकिस्तान परस्त हो और भारत को एक पल वहां न ठहरने दे। तालिबान नेता पूर्व राष्ट्रपति मुल्ला उमर को उसने इसीलिए सुरक्षित बचाकर रखा है कि अमेरिका के जाने के बाद एक बार फिर वह उमर को अफगान राष्ट्रपति की गद्दी पर बैठा सके। उसे उमर से बेहतर कोई दूसरा अफगान नेता नहीं मिल सकता, जो अफगानिस्तान को पाकिस्तान के विस्तार के रूप में बदल सके। पाकिस्तानी सूत्रों का यदि भरोसा करें, तो पाकिस्तानी सेना लादेन का सौदा कर सकती है। यानी अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी सुनिश्चित करने के लिए लादेन को अमेरिका के हवाले कर सकती है, किन्तु उमर को किसी भी स्थिति में अमेरिकियों के हाथ नहीं लगने देगी। अब तक यह देखा जा रहा है कि पाकिस्तान ने अलकायदा व तालिबान के दूसरी पंक्ति के बहुत से नेताओं को गिरफ्तार कर रखा है। बहुत अमेरिकी दबाव बढ़ता है, तो उनमें से किसी को उनके हवाले करके अपनी सफ लता दर्ज करा देता है।
अमेरिका की समस्या है कि उसकी गुप्तचर एजेंसी सी.आई.ए. की मुजाहिदीनों के बीच कोई घुसपैठ नहीं है। इसलिए मुजाहिदीनों के बारे में किसी भी सूचना के लिए वह पाकिस्तानी सैन्य गुप्तचर संगठन आई.एस.आई. (इंटर सर्विसेज इंटेलीजेंस) पर निर्भर है। आई.एस.आई. जो उन्हें बता दे, वही उनकी जानकारी। और आई.एस.आई. को इसमें कोई दिक्कत नहीं है, क्योंकि तालिबान के हर कदम की जानकारी उसे रहती है। और ऐसा हो भी क्यों न, तालिबान फौज का गठन करने वाली आईएसआई ही है। सी.आई.ए. किसी सूचना के लिए आईएसआई से जोर जबर्दस्ती तो कर नहीं सकती, इसलिए वह आईएसआई का उपयोग कर सके, इसके बजाए आईएसआई ही उसका उपयोग करती है।
किसी उपद्रवग्रस्त क्षेत्र में व्यवस्था स्थापित करने के लिए जब सेना भेजी जाती है, तो उसका लक्ष्य होता है पहले तो इलाके को उपद्रवियों से खाली कराना, फिर उस खाली हुए इलाके पर अपना नियंत्रण मजबूत करना और उसके बाद उसका निर्माण करना, जिससे शंतिपूर्ण शक्तियां वहां विकसित हो सकें। किन्तु ओबामा की पाक अफगान नीति में इसका घोर अभाव है। ओबामा साहब का कहना है कि पाक-अफगान सीमा अलकायदा की हिंसक कार्रवाइयों का केन्द्र है। पहले उसका गढ़ केवल अफगानिस्तान की सीमा में था, किन्तु अब वह पाकिस्तान की सीमा में भी आ गया है, इसलिए उसके खिलाफ लड़ाई में पाकिस्तान को शामिल करना अनिवार्य हो गया है। इसीलिए इस नीति को पाक-अफगान नीति का नाम दिया गया है। वास्तव में अलकायदा के कारण पाकिस्तान और अफगानिस्तान दोनों देशों की सरकारें तथा जनता खतरे में है। मुजाहिदीन पाकिस्तान के परमाणु केन्द्रों पर अब से पहले तीन बार हमला कर चुके हैं। लादेन खुलेआम यह कह चुका है कि वह परमाणु हथियार हासिल करने की कोशिश में है। यदि इनका यह गढ़ तोड़ा न गया, तो ये परमाणु हथियार भी हासिल कर लेंगे और उसका इस्तेमाल करने में भी कतई नहीं संकोच करेंगे। ओबामा ने यह याद दिलाने की कोशिश की कि यह केवल अमेरिका की लड़ाई नहीं है। इसे यह भी नहीं समद्ब्राा जाना चाहिए कि यहां 'नाटो (उत्तर अटलांटिक संधि संगठन) की युद्ध क्षमता दावे पर लगी है। वास्तव में यह लड़ाई प्राय: पूरी दुनिया की है और इसके साथ नाटो के सभी सदस्य देशों की सुरक्षा भी दांव पर लगी है। इसलिए उनके देश ने यह संकल्प लिया है कि वह अलकायदा को अफगानिस्तान व पाकिस्तान दोनों ही क्षेत्रों में तोड़ देगा और अंतिम पराजय के गर्त में डाल देगा। उन्होंने कहा कि हम अफगानिस्तान में आतंकवाद के कैंसर को हमेशा के लिए समाप्त करने के लिए आये थे, लेकिन इस कैंसर की जड़ें अब पड़ोस के पाकिस्तानी क्षेत्र में भी फैल गयी है। इसलिए हमें ऐसी रणनीति अपनानी है, जो दोनों तरफ कारगर हो।
ओबामा के इन संकल्पों की तालिबान नेताओं द्वारा खिल्ली उड़ायी गयी है। अफगान तालिबान के एक संगठन 'इस्लामिक एमिरेट्स के द्वारा 'पश्तो में जारी एक वक्तव्य में कहा गया है कि राष्ट्रपति ओबामा आर्थिक संकट से ग्रस्त अमेरिकी जनता की इच्छा तथा मांगों की अनदेखी करके अफगानिस्तान में अपनी जोर आजमाइश करना चाहते हैं। इसी तरह शिराजुद्दीन हक्कानी उर्फ खलीफा (जिसका सुराग देने वाले के लिए 50 लाख डॉलर के इनाम की घोषणा की गयी है) ने भी ओबामा का मजाक उड़ाया है। खलीफा का हक्कानी नेटवर्क अफगानिस्तान का सबसे ताकतवर संगठन है, जिसकी स्थापना शिराजुद्दीन के पिता मौलवी जलालुद्दीन हक्कानी ने की थी।
अफगान तालिबानों का कहना है कि अफगानिस्तान ने कभी किसी बाहरी फौज को बर्दाश्त नहीं किया है। उसने रूसियों को यहां से लड़कर भगा दिया, लेकिन अमेरिकी तो बिना लड़े ही भागने के लिए तैयार हैं। ओबामा की इस नीति के समर्थक भी यह स्वीकार करते हैं कि अमेरिका और यूरोप के एक लाख सैनिक यदि अफगानों का अब तक कुछ नहीं बिगाड़ पाए, तो 30 हजार और अमेरिकी सैनिक भी वहां पहुंचकर क्या कर लेंगे। नयी कुमक पहुंचने के बाद अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की संख्या एक लाख हो जाएगी और यूरोपीय सैनिकों को मिलकर यह संख्या करीब डेढ़ लाख हो जाएगी, लेकिन किसी को यह उम्मीद नहीं है कि ये डेढ़ लाख सैनिक वहां कोई चमत्कार कर सकेंगे।
ओबामा की नीति समर्थक यह भी मानते हैं कि अफगानिस्तान में तालिबानों का युद्ध केवल मजहबी या जिहादी ही नहीं है, यह अफगानिस्तान की मुक्ति का भी युद्ध है। यदि ओबामा साहब अमेरिकी सेना को वापस बुला लेंगे, तो इससे तालिबान का आजादी का मुद्दा खत्म हो जाएगा और उनके आतंकी हमलों का कारण समाप्त हो जाएगा। यह बात सही है, लेकिन सवाल है अमेरिका अब अफगानिस्तान को खाली कर देगा, तो क्या फिर वही स्थिति नहीं पैदा हो जाएगी, जब रूसी सेनाएं चली गयीं थीं। तब क्या तालिबान करजई को उसी तरह सरेआम फांसी पर नहीं लटका देंगे, जिस तरह उन्होंने तत्कालीन शासक मोहम्मद नजीबुल्लाह को सरेआम लटका दिया था।
अमेरिका का अफगानिस्तान युद्ध उसके वियतनाम व इराक युद्धों से भिन्न है। वियतनाम में उसकी केवल सैन्य प्रतिष्ठा दांव पर थी और सवाल कम्युनिज्म को हराने का था। उत्तर वियतनाम की लड़ाई केवल स्वतंत्रता की लड़ाई थी। वस्तुत: वे अमेरिका से नहीं लड़ रहे थे, बल्कि अमेरिका उनसे लड़ रहा था। इसलिए वहां से बाहर निकल आने से अमेरिकी हितों को कोई खास क्षति नहीं पहुंचने वाली थी। वियतनाम युद्ध में कोई पड़ोसी देशों की सुरक्षा भी दांव पर नहीं थी। इराक युद्ध में अमेरिका का तेल लोभ हो सकता था, लेकिन असली मसला सद्दाम को सजा देना था, जो खुलेआम अमेरिका जैसी महाशक्ति को मुहचिढ़ाया करता था। सद्दाम मारा गया, बस अमेरिका का काम खत्म हुआ। लेकिन अफगानिस्तान ऐसा नहीं है। अफगानिस्तान में अमेरिका का कोई लोभ नहीं है। उसकी लड़ाई अब किसी व्यक्ति तक सीमित नहीं है। यह आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई है, जिसकी जड़ें केवल पाकिस्तान तक नहीं, जाने कितने और देशों तक फैली हुई हैं। यहां केवल लादेन या उमर की मौत तक भी लड़ाई सीमित नहीं है। यह जिहाद के खिलाफ या यों कहें कि अरबी इस्लामी साम्राज्यवाद के विरुद्ध युद्ध है। अमेरिका यहां से भागकर अपनी रक्षा नहीं कर सकता। तालिबान व अलकायदा को बिना अंतिम पराजय के गर्त में पहुंचाए वह वहां से हटा, तो दुनिया के किसी कोने में उसके हित सुरक्षित नहीं रह सकते। फिर इस युद्ध में जैसा कि राष्ट्रपति ओबामा ने स्वयं कहा है कि केवल अमेरिका की सुरक्षा या केवल उसके अपने हित ही दांव पर नहीं है, बल्कि उसके सारे सहयोगियों की सुरक्षा दांव पर है। और सच कहें कि यदि अफगानिस्तान में तालिबान विजयी हुए, तो तमाम लोकतांत्रिक शक्तियों पर उनका दबाव बढ़ जाएगा।
इससे जिहादी मनोबल किस तरह बढ़ेगा, इसकी कल्पना करना भी कठिन है। यह एक खुला तथ्य है कि इन्हीं मुजाहिदीनों ने दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी महाशक्ति सोवियत संघ को पराजित किया था और उसकी सेनाओं को अफगानिस्तान छोडऩे पर मजबूर कर दिया था। अब यदि ये अमेरिका जैसी महाशक्ति को भी भगाने में सफल हो जाते हैं, तो फिर ये स्वत: दिग्विजयी बन जाएंगे। इस बात को बार-बार दोहराने का आज कोई अर्थ नहीं रह गया है कि तालिबान की यह फौज अमेरिका की मदद से ही तैयार हुई थी, क्योंकि शीतयुद्ध काल के सारे समीकरण अब उलट-पुलट हो चुके हैं। अब इस इक्कीसवीं शताब्दी की सबसे बड़ी समस्या है कि जिहादी ताकतों से लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा कैसे की जाए।
सच कहा जाए, तो अफगानिस्तान में अमेरिका का कोई निजी हित दांव पर नहीं है, बल्कि उससे अधिक भारत का हित वहां दांव पर लगा हुआ है। जो युद्ध अभी अफगानिस्तान में लड़ा जा रहा है, वह वहां नहीं लड़ा गया, तो उसकी युद्धभूमि भारत बनेगा। क्योंकि तालिबान या जिहादियों के सीधे निशाने पर भारत है। लोगों को शायद ख्याल हो कि अफगानिस्तान में जब तालिबान नेता मुल्ला उमर की सरकार कायम हो गयी थी, तो तमाम तालिबान लड़ाके कश्मीर में भारतीय सीमा के निकट इकट्ठा होने लगे थे। अफगानिस्तान में अमेरिकी हमला शुरू हो जाने के कारण वे फिर यहां से अफगानिस्तान लौटे, अन्यथा उनका लक्ष्य कश्मीर के लिए भारत सरकार के खिलाफ जिहादी संघर्ष तेज करना था। अभी भारत अफगानिस्तान में उसके पुनर्निर्माण के कार्य में लगा है। वह मध्य एशिया से अफगानिस्तान होकर ईरान तक सड़क निर्माण में लगा है। शिक्षा, चिकित्सा तथा उद्योग धंधों के लिए ढांचा तैयार करने की महती जिम्मेदारी वह अपने ऊपर लिए है। इस कार्य से बहुत से उन अफगानों का भी दिल जीत रहा है, जो वहां अमेरिका की उपस्थिति से खफा हैं। लेकिन यह सब पाकिस्तान को फूटी आंखों नहीं सुहा रहा है। इसलिए अब यह भारत की जिम्मेदारी है कि वह अमेरिका को समझाये कि वह अफगानिस्तान से निकलने की जल्दबाजी न करे। उसे अपने देश की जनता को यह समझाना चाहिए कि वह अफगानिस्तान में किस तरह की लड़ाई लड़ रहा है। अभी तो वहां पुलिस, फौज या सुरक्षा का काम अमेरिका संभाले है और निर्माण का कार्य भारत। लेकिन जिस क्षण अमेरिकी सेना ने अफगानिस्तान को खाली किया, उसके अगले ही क्षण भारत का निर्माण कार्य भी ठप्प हो जाएगा, क्योंकि तालिबान उसे चलने नहीं देंगे। भारत वहां पर अफगानिस्तान की सरकारी फौज तैयार करने में लगा है। उसे प्रशिक्षण देने की पूरी जिम्मेदारी भारत पर है, लेकिन डेढ़ साल में वह ऐसी कोई फौज तैयार कर देगा, जो अमेरिकी फौज की जगह ले सके और तालिबान का मुकाबला कर सके। यह प्राय: असंभव ही है। तो क्या अमेरिका अफगानिस्तान को अराजगता के जंगल में छोड़कर चला जाएगा।
ऐसा कहा जा रहा है कि सेना की वापसी की घोषणा केवल अमेरिकी जनता के संतोष के लिए की गयी है, यथार्थ में ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है। सेना की वापसी का कार्यक्रम तालिबान और अलकायदा के सारे गढ़ों को नेस्तनाबूद कर दिये जाने पर निर्भर है। यदि वे बने रहते हैं, तो फिर अमेरिकी सेना कैसे वापस हो सकेगी। ओबामा ने अपना लक्ष्य पूरा करने के लिए पाकिस्तान व अफगानिस्तान दोनों देशों की सरकारों पर दबाव बढ़ाया है। उसने पाकिस्तान को यह चेतावनी भी दी है कि यदि वह तालिबान के सुरक्षित गढ़ों को भेदने का काम ईमानदारी से नहीं किया, तो वह स्वयं इस काम को अपने हाथ में लेगा और मानवरहित द्रोण विमानों के हमले का दायरा बढ़ जाएगा।
यहां ध्यान देने की बात है कि द्रोण विमान जंगल तथा पहाड़ी इलाकों में ही हमले कर रहे हैं। वे शहरी क्षेत्रों पर हमले नहीं कर सकते, क्योंकि उस स्थिति में बड़ी संख्या में निर्दोष नागरिक मारे जाएंगे और यह कोई जरूरी नहीं कि अलकायदा व तालिबान के मुखिया अब तक जंगल व पहाड़ों में ही पड़े हों। जैसी कि खबर है कि क्वैटा के पास एक पूरा कस्बा तालिबान द्वारा खरीद लिया गया है। पाकिस्तानी सेना स्वयं उसकी रखवाली कर रही है।
ओबामा साहब पाकिस्तान के प्रति अधिक उदार है। हो सकता है कि यह उदारता भी रणनीतिक हो, फिर भी जैसी कठोर भाषा उन्होंने अफगान सरकार के लिए इस्तेमाल की है, वैसी पाकिस्तान के लिए नहीं। उन्होंने अफगान राष्ट्रपति हामिद करजयी से साफ कह दिया है कि अब और 'ब्लैंक चेक` नहीं। यानी अब खुद कमर कसो और परिणाम दिखाओ। जबकि उन्होंने पाकिस्तान को अपना रणनीतिक साझीदार बनाने का प्रलोभन दिया है।
पता नहीं ओबामा साहब इस बात को समझ पाते हैं या नहीं, और यदि नहीं समझ पाते तो यह उनकी सबसे बड़ी भूल है कि पूरा पाकिस्तान ही जिहादी आतंकवाद का गढ़ है। अफगानिस्तान तो उसी का विस्तार है। पाकिस्तान वस्तुत: इस्लामी जिहाद का प्रतीक है, क्योंकि इसका जन्म ही जिहादी हिंसा से हुआ है। यदि अलकायदा और तालिबान को पराजित करना है, तो उन्हें पाकिस्तान को पराजित करना होगा।
पाकिस्तान की जड़ सींचते हुए अफगानिस्तान की शाखाएं काटने से अंतर्राष्ट्रीय जिहादी आन्दोलन पराजित होने वाला नहीं है। जुलाई 2011 तक कैसी स्थिति बनेगी, कहना कठिन है, लेकिन भारत को उसके संभावित परिणामों की तैयारी अभी से शुरू कर देनी चाहिए।

3 टिप्‍पणियां:

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

अगर अमरीका ने इतिहास से कुछ सीखने की इच्छा जताई होती तो जान जाता कि अफ़गानिस्तान में यूं पंगे लेने का कोई मतलब नहीं है

बेनामी ने कहा…

अमेरिकी हों या तालिबान , सब प्रेत हैं ; इनका तो खंबे पर चढ़ना-उतरना लगा रहे ,वही ठीक है. वरना भारत की छाती पर मूँग दलेंगे .

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

जब तक पाकिस्तान की नकेल नहीं कसी जाएगी अमेरीकी निति सफ़ल नहीं होगी। पाकिस्तान झूठ और दगा देकर अमेरिका की मजबूरी का लाभ उठा रहा है। इसकी भनक भले ही अमेरिका को मिली हो, अब शायद वापस सम्मानपूर्वक लौटना भी उनके लिए सम्भव नहीं है॥