मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

क्षेत्रवादी राजनीति में फंसा आंध्र प्रदेश

केंद्र सरकार ने पृथक तेलंगाना राज्य के निर्माण की घोषणा तो कर दी, लेकिन यह घोषणा होते ही राज्य की राजनीति में क्षेत्रीयता का ऐसा ज्वार उठ खड़ा हुआ कि 48 घंटे के भीतर ही प्रधानमंत्री को घोषणा करनी पड़ी कि जल्दबाजी में कुछ नहीं किया जाएगा और आगे का कदम सबकी सहमति से उठाया जाएगा। लेकिन इससे कोई भी आश्वस्त नहीं है, हां इससे यह आशंका जरूर उठ खड़ी हुई है कि सरकार घोषणा करके भी अपना अगला कदम अनिश्चितकाल के लिए टाल सकती है। राज्य का हर हिस्सा आंदोलित है, लेकिन केंद्रीय नेता कूटनीतिक शब्दावली से इस आंदोलन की आग को शांत करना चाहते हैं। चिंता की बात यह है कि इस समय राज्य में क्षेत्रीयता की राजनीति दलीय राजनीति के ऊपर हावी हो गयी है। लोग पार्टी का दायरा तोड़कर क्षेत्रीयता के दायरे में संगठित हो रहे हैं।


तेलंगाना के भाग्य का निर्णय प्राय: केन्द्र सरकार के हाथों ही होता आया है, चाहे वह उसकी इच्छाओं के विरुद्ध रहा हो, या समर्थन में। 1956 में तेलंगाना क्षेत्र (पूर्व निजाम स्टेट) को आंध्र में शामिल करने का निर्णय भी केन्द्र सरकार ने ही लिया था और आज 2009 में उसे अलग करने का निर्णय भी केन्द्र सरकार ने ही लिया है। तब भी केन्द्र में कांग्रेस की ही सरकार थी और आज भी उसी की सरकार है। तब कांग्रेस के सर्वोच्च नेता व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू थे तो आज भी केन्द्रीय सत्ता की मुख्यनियंता उनकी दौहित्रवधू सोनिया गांधी है।
केन्द्र सरकार ने उस समय तेलंगाना क्षेत्र के लोगों की सहमति प्राप्त किये बिना (या यों कहें कि उनकी आशंकाओं और विरोधों के बावजूद) इस क्षेत्र को आंध्र प्रदेश का अंग बना दिया था । आज करीब 55 वर्षों बाद उसने फिर बिना किसी से पूछे इस प्रदेश को आंध्र से अलग करने का निर्णय लिया है। यह बात अलग है कि इस तरह उसने मात्र अपनी गलती सुधारी है। विलय के समय उसने तेलंगाना वालों से उनकी सहमति नहीं ली तो आज अलग करते समय उसने आंध्र के लोगों से उनकी सलाह नहीं ली। तो इसमें नया क्या हो गया? बल्कि उस समय तो पंडित नेहरू की सरकार ने फजल अली के नेतृत्व में गठित राज्य पुनर्गठन आयोग की रिपोर्ट की अवहेलना करके तेलंगाना को आंध्र में शामिल करने का निर्णय लिया था। फजल अली ने तो अपनी रिपोर्ट में साफ लिखा था कि तेलंगाना के लोग आंध्र में मिलने के लिए तैयार नहीं हैं। उनको बहुत सी आशंकाएं हैं। इसलिए उसे अभी आंध्र में शामिल नहीं किया जा सकता। फिर भी उन्होंने विलय का रास्ता खुला छोड़ा था और सलाह दी थी कि 1961 के चुनाव में तेलंगाना विधानसभा के गठन के बाद यदि सदन के दो तिहाई विधायक अपने राज्य का विलय आंध्र में करने का निर्णय लें तो ऐसा हो सकता है, लेकिन केंद्र सरकार ने आयोग की रिपोर्ट को दरकिनार करके एक तरह से जबर्दस्ती तेलंगाना के क्षेत्र को आंध्र प्रदेश का अंग बना लिया। क्षुब्ध तेलंगानावासियों को संतुष्टï करने के लिए एक सभ्य समद्ब्राौता (जेटिलमेंस एग्रीमेंट) तैयार किया गया, जिसमें तेलंगाना क्षेत्र को अलग राज्य जैसी ही सुविधाएं व अधिकार देने का वचन दिया गया, जिसका कभी पालन नहीं हुआ। इसके विपरीत आज का निर्णय तो राज्य की प्राय: सभी प्रमुख राजनीतिक पार्टियों की आम राय के अनुसार लिया गया है। यह बात दूसरी है कि निर्णय के बाद ये सारी पार्टियां अपनी राय से पलट गयीं हैं।
वास्तव में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब मद्रास प्रांत का विभाजन हुआ और आंध्रा अलग हुआ, तभी से आंध्र प्रदेश के ताकतवर नेताओं की नजर तेलंगाना क्षेत्र और निजाम की राजधानी हैदराबाद व उसकी संपत्ति पर लगी हुई थी । वे अपने राज्य का आकार भी बढ़ाना चाहते थे जिससे कि उनकी ताकत और बढ़ जाए। आज भी मूल द्ब्रागड़ा हैदराबाद शहर को लेकर है, जो पहले निजाम की और आज आंध्र प्रदेश की राजधानी है। तेलंगाना को अलग करने के केन्द्र सरकार के निर्णय का विरोध करते हुए आंध्र प्रदेश के नेतागण कह रहे हैं कि उनकी वहां जो संपत्तियां हैं, जो वहां निवेश किया गया है, उसे वे कैसे छोड़ सकते हैं। उन्हें शायद इसका स्मरण नहीं कि जिस समय तेलंगाना का आंध्र प्रदेश में विलय किया गया था उस समय पूरा तेलंगाना क्षेत्र शिक्षा व विकास की दृष्टिï से पिछड़ा अवश्य था, लेकिन उसका कुल राजस्व (सरकारी आमदनी) आंध्र के राजस्व से कहीं अधिक था। निजाम की अकूत संपदा भी विलय के साथ आंध्र के नेताओं के ही हाथ लगी। तेलंगाना की खनिज व जल संपदा आंध्र क्षेत्र के अधिक काम आई, जिससे उनकी समृद्धि बढ़ी। फिर आज यदि तेलंगाना के वंचित लोगों के हित में 1956 का फैसला उलटा जा रहा है तो इससे उनका दर्द इतना क्यों बढ़ गया है।
फिर ऐसा भी तो नहीं कि तेलंगाना अलग राज्य बन जाएगा तो यहां से आंध्र या रायलसीमा के लोग निकाल बाहर किये जाएंगे। विभाजन का आधार क्षेत्रीय है कोई जातीय तो नहीं। यदि निजाम के राज्य में यहां देश के तमाम राज्यों से आए लाखों लोग रह सकते हैं, उद्योग व्यवसाय कर सकते हैं, संपत्तियां खरीद सकते हैं तो आंध्र या रायलसीमा के लोग यहां यह सब क्यों नहीं कर सकते। हां उन इलाकों के भूमाफियाओं, बिल्डरों व बड़े ठेकेदारों का नुकसान अवश्य हो सकता है, लेकिन मुट्ठी भर ऐसे लोगों की रक्षा के लिए करोड़ों तेलंगानावासियों को कोई बंधक बनाकर तो नहीं रख जा सकता।
राज्य के विभाजन के विरुद्ध एक तर्क और दिया जा रहा है कि इस विभाजन से भाषायी एकता टूटेगी। भाषा आधारित राज्यों का गठन इसलिए किया गया था कि एक भाषाभाषी समुदाय एक राज्य क्षेत्र में रहें। अब यदि तेलुगु भाषा के आधार पर गठित एक राज्य को तोड़कर दो तेलुगु भाषी राज्य बनाए जाते हैं तो यह राज्यों के पुनर्गठन की मूल अवधारणा के विरुद्ध कार्य होगा। वस्तुत: यह कोई तर्क नहीं, बल्कि एक मिथ्या तर्काभास है। वास्तव में भाषा आधारित राज्य का गठन किया जाना ही एक बहुत बड़ी राजनीतिक व सामाजिक भूल थी। आज के जमाने में कोई क्षेत्र, राज्य या देश एक भाषा-भाषी नहीं हो सकता। वह किसी एक पारंपरिक संस्कृति का अनुयायी भी नहीं हो सकता। उद्योग, व्यवसाय तथा सेवाओं के लिये प्राय: हर क्षेत्र के लोग अन्य क्षेत्रों में आते-जाते तथा बसते रहे हैं और आते-जाते तथा बसते रहेंगे। यह भाषायी राजनीतिक अस्मिता भी यूरोपीय महाप्रभुओं की देन है जिसके कारण हम आज इतने विभाजित व संकीर्ण मानसिकता वाले हो गये हैं। इसलिए एक भाषा के एक से अधिक राज्यों का होना कोई निन्दनीय बात नहीं।
यह बात सही है कि पृथक तेलंगाना राज्य बनना अभी भी आसान नहीं है। तेलंगाना के लोग यदि यह समद्ब्राते हों कि अब उन्हें कुछ नहीं करना है, अब तो जो कुछ करना है वह केन्द्र सरकार को ही करना है। उसने वायदा किया है तो उसे पूरा करने की जिम्मेदारी भी उसी की है। अपना काम तो केवल जश्न मनाना रह गया है। तो यह उनकी भारी भूल होगी। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि केन्द्र सरकार की तरफ से बुधवार की मध्यरात्रि जो घोषणा की गई थी उसका मूल उद्देश्य अलग तेलंगाना राज्य बनाना नहीं, बल्कि तेलंगाना राष्ट्र समिति के अध्यक्ष के. चन्द्रशेखर राव के आमरण अनशन से भड़के छात्र आंदोलन को शांत करना था। यद्यपि अभी भी यह अटकलें लगाई जा रही हैं कि केन्द्र ने आखिर कैसे एक मध्यरात्रि को इतने बड़े निर्णय की घोषण कर दी। आखिर उस पर क्या दबाव था। राज्य की राजनीतिक स्थिति की केन्द्र को जानकारी न हो ऐसी बात भी नहीं। केन्द्रीय नेता यह अच्छी तरह जानते हैं कि तेलंगाना के प्रश्न पर राज्य की तमाम पार्टियां जो भी बोलती रही हैं वह सच नहीं है। पृथक तेलंगाना राज्य के समर्थन में दिये गये सारे बयान मिथ्या थे, जो तेलंगाना क्षेत्र के लोगों का समर्थन प्राप्त करने के राजनीतिक उद्देश्य से दिये गये थे। सभी जानते थे कि तेलंगाना के बारे में केन्द्र सरकार जल्दी कोई फैसला नहीं लेने वाली इसलिए तेलंगाना क्षेत्र को क्यों अकेले टी.आर.एस. की झोली में जाने दिया जाए। क्यों न उसके प्रति बराबर की सहानुभूति जताकर उसका समर्थन अपने लिये भी जुटा लिया जाए।
कांग्रेस ने इसीलिए इस तरह का बयान दिया कि वह तेलंगाना के विरुद्ध नहीं है, लेकिन फैसला केन्द्र सरकार को या पार्टी हाईकमान को करना है। वह इसके लिए तैयार हो जाए तो उन्हें यानी राज्य के नेताओं को कोई आपत्ति नहीं। इसे देखते हुए तेलुगु देशम पार्टी ने भी पृथक तेलंगाना के समर्थन की घोषणा कर दी। और इन दोनों की प्रतिस्पर्धा में आई मेगास्टार चिरंजीवी की पार्टी प्रजा राज्यम भी भला क्यों पीछे रहती, उसने भी तेलंगाना राज्य के समर्थन की घोषणा कर दी। राज्य कांग्रेस को यह रणनीति अपनाने की सलाह केन्द्र के नेताओं ने ही दी थी इसलिए राज्य के नेतागण आश्वस्त थे कि तेलंगाना क्षेत्र के लोग कितना भी हाथ पांव मारे, लेकिन केन्द्र कोई निर्णय लेने वाला नहीं। किन्तु चन्द्रशेखर राव के अनशन के कारण भड़के छात्र आंदोलन ने मामला एकाएक गड़बड़ कर दिया।
चन्द्रशेखर राव के लिए भी अपनी डूबती राजनीति को बचाने के लिए कुछ करना आवश्यक हो गया था। लोकसभा, विधानसभा व अभी हाल में सम्पन्न व्रहत्तर हैदराबाद नगर निगम के चुनाव में अपनी गिरती साख से वह बेचैन हो गये और फिर से अपनी लोकप्रियता बढ़ाने व जनसमर्थन समेटने के लिए उन्होंने आमरण अनशन की घोषणा कर दी। सरकार ने यह योजना विफल करने के लिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया। सरकार को इसका कतई भरोसा नहीं था कि राव का अनशन दो चार दिन भी चल सकेगा। वह कोई महात्मा गांधी या पोट्टी श्रीरामुलु तो हैं नहीं। वह अच्छी जिंदगी व खान-पान के अभ्यस्त हैं। मरना वह कतई चाहेंगे नहीं इएलिए यह अनशन चल ही नहीं सकता। हुआ भी ऐसा ही। अगले ही दिन उनकी जूस पीकर अनशन तोडऩे की तस्वीर मीडिया में फैल गई। इससे आंदोलनकारी छात्र और भड़क गये। उन्होंने राव को धोखेबाज व नाटकबाज करार देते हुए उनका पुतला फूंकना शुरू कर दिया। ऐसी स्थिति में उनके लिए पुन: अनशन जारी रखने की घोषणा करना अनिवार्य हो गया। अन्यथा तेलंगाना की पूरी राजनीति ही उनके हाथ से निकल जाती। डॉक्टर उन्हें शिरामाध्यम से पोषण पहुंचा रहे थे। ऊपर से पानी वह ले ही रहे थे। इससे उनके प्राणों के लिए कोई तात्कालिक खतरा नहीं था, फिर भी उनके रोगजर्जर शरीर (वह बीपी व शुगर के मरीज हैं साथ ही अत्यधिक मद्यसेवन से उनका लिवर भी काफी खराब हो चुका है) को देखते हुए कोई भी इस दृष्टिï से आशंका मुक्त नहीं था। अनशन जब 10 दिनों तक लगातार जारी रहा और अनशन तोड़वाने की राज्य सरकार की सारी कोशिशें विफल हो गयीं, तो सत्तारुढ़ पार्टी के केंद्रीय नेताओं को चिंता होने लगी। प्राय: पूरे तेलंंगाना क्षेत्र में गांव-गांव तक भड़क उठे तेलंगाना आंदोलन के दृश्य लगातार टी.वी. पर देखे जा रहे थे।
कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेताओं को दिल्ली में जो खबरें मिल रही थीं उसके अनुसार इस आंदोलन को इतना उग्र रूप देने में अपनी ही पार्टी के उन लोगों का बड़ा हाथ था, जो वर्तमान रोशैया सरकार को अस्थिर करना चाहते हैं। उन्हें यह भी आशंका थी कि नक्सली संगठन भी इस आंदोलन में कूद सकते हैं। 10 दिसंबर को 'विधानसभा चलो के आह्वान को लेकर भारी अंदेशा था। इसमें कुछ भी हो सकता है। साथ में यह भय भी था कि कहीं इस बीच चंद्रशेखर राव की जान को कुछ हो गया तो स्थिति एकदम काबू से बाहर हो जाएगी। रोशैया विरोधी ताकतों का खेल सफल न होने पाए इसके लिए भारी जल्दबाजी में 10 दिसंबर की सुबह होने के बहुत पहले मध्यरात्रि में ही तेलंगाना को अलग राज्य बनाने की मांग स्वीकार कर ली गयी। केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने मीडिया के सामने आकर संक्षिप्त सा बयान दिया कि पृथक तेलंगाना राज्य के निर्माण की प्रक्रिया शीघ्र ही शुरू की जाएगी। इसके लिए राज्य विधानसभा में एक प्रस्ताव पेश किया जाएगा। इसलिए अब चंद्रशेखर राव को अपना अनशन तोड़ देना चाहिए और छात्रों को भी अपना आंदोलन वापस ले लेना चाहिए। सरकार के पास इस तरह के एकतरफा निर्णय की घोषणा के लिए पर्याप्त राजनीतिक आधार भी था, क्योंकि अभी कुछ दिन पहले ही मुख्यमंत्री रोशैया द्वारा बुलायी गयी सर्वदलीय बैठक में प्राय: सभी प्रमुख पार्टियों ने पृथक तेलंगाना का समर्थन किया था। अब केंद्र को और कोई सहमति जुटाने की आवश्यकता नहीं थी, इसलिए उसने फटाफट तेलंगाना राज्य निर्माण की प्रक्रिया शुरू करने की घोषणा कर दी।
यह घोषणा निश्चय ही सभी के लिए चौंकाने वाली थी। टीआरएस के लोगों को भी इतनी जल्दी ऐसी घोषणा की आशा नहीं थी। घोषणा होते ही टीआरएस सहित तेलंगाना क्षेत्र के सभी राजनीतिक पार्टियों के नेता-सांसद, विधायक आदि नाच उठे और आंध्र व रायलसीमा के नेतागण अवाक रह गये। लेकिन स्तब्धता जल्दी ही टूटी और उन्होंने घोषणा का विरोध करना शुरू कर दिया। स्वयं कांग्रेस पार्टी के अपने विधायकों व सांसदों ने विरोध का द्ब्रांडा बुलंद कर दिया और केंद्र पर आरोप लगाना शुरू कर दिया कि उसने बिना राज्य के विभिन्न अंचलों के लोगों की राय लिए एकतरफा तौर पर यह फैसला ले लिया है, जो उन्हें मान्य नहीं है। वे यह भी भूल गये कि अभी तक वे स्वयं ही तो कह रहे थे कि वे तेलंगाना के खिलाफ नहीं हैं और इस बारे में पार्टी हाईकमान यानी सोनिया गांधी जो भी निर्णय लेंगी, वह उन्हें मान्य होगा। अब जब सोनिया गांधी ने निर्णय ले लिया और उसकी घोषणा हो गयी, तो फिर क्यों वे इसका विरोध कर रहे हैं। इस पर इन क्षेत्रों के कांग्रेसी नेताओं का कहना है कि उन्हें क्या पता था कि वह वास्तव में कोई इस तरह का फैसला ले लेने वाली हैं। उन्हें तो पार्टी के राजनीतिक हित के लिए केवल ऐसी बात कहते रहने के लिए कहा गया था।
घोषणा के बाद 10 तारीख की सुबह होते-होते इस मसले पर सारी पार्टी लाइन टूट गयी। राजनीति ने नितांत क्षेत्रीय रूप ग्रहण कर लिया। तेलंगाना क्षेत्र के सारे नेता एक साथ और आंध्र तथा रायलसीमा के सारे नेता एक साथ। एक वर्ग जश्न मनाने में लगा है, तो दूसरा विरोध करने में। आंध्र व रायलसीमा क्षेत्र के विधायकों का इस्तीफे देने का तांता लग गया। ताजा खबरों के अनुसार इन दोनों क्षेत्रों के कुल 175 विधायकों में से अब तक करीब 135विधायक व 5 सांसद इस्तीफ दे चुके हैं। इन सबकी मांग है कि 9-10 की मध्यरात्रि को की गयी घोषणा वापस ली जाए और आंध्र को वर्तमान 'समेक्य आंध्र के रूप में बनाये रखा जाए। राज्य दका प्राय: हर वर्ग क्षेत्रीय आधार पर बंट गया है। उनके बीच की राजनीतिक विभाजक रेखा क्षीण हो गई है और क्षेत्रीयता की रेखा गरही हो गई है। राजधानी हैदराबाद में तो इसको बिल्कुल साफ-साफ देखा जा सकता है। राज्यकर्मचारी हों, अफसर हों, पुलिस हों, शिक्षक हों, छात्र हों, वकील हों या व्यवसायी प्राय: सबके बीच क्षेत्रीयता की विभाजक रेखा खिंच गई है। हाईकोर्ट के वकीलों में तो 11 दिसंबर की सुबह बाकायदे भिडंत हो गई। आंध्र व रायलसीमा के वकीलों ने अदालत परिसर में 'समेक्य आंध्र का नारा लगाते हुए प्रदर्शन किया और मांग की कि हाई कोर्ट की सारी अदालतें बंद की जाएं। इस पर तेलंगाना के वकीलों ने विरोध किया। फिर 'जय तेलंगाना व 'जय समेक्य आंध्र की मुकाबले की नारेबाजी शुरू हो गई। अदालतें अपने आप ठप हो गयीं। इसी दौरान पता चला कि वकीलों के ही एक समूह ने राजठाकरे की 'महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की तर्ज पर 'एक तेलंगाना नव निर्माण सेना का गठन कर लिया है। उनका कहना है कि अब तक हमने बहुत नरमी बरती, लेकिन अब हम भी कठोर रुख अपनाएंगे।
अब केन्द्र सरकार इस दूसरी आग को ठंडा करने की कोशिश में है। वह पृथक तेलंगाना की घोषणा अब वापस तो ले नहीं सकती इसलिए आंध्र व रायलसीमा क्षेत्र को शांत करने का एक ही उपाय है कि नये राज्य निर्माण के मसले को अनिश्चितकाल के लिए अधर में लटका दिया जाए। गृहमंत्री की घोषणा के 48 घंटे के अंदर ही यह घोषणा हो गई कि अलग तेलंगाना राज्य के निर्माण का प्रस्ताव राज्य विधानसभा के चालू सत्र में पेश नहीं किया जाएगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी रायलसीमा व आंध्र क्षेत्र के सांसदों को आश्वस्त किया कि नये राज्य निर्माण् के लिए कोई जल्दबाजी नहीं की जाएगी। सबकी राय से सबके हितों का ध्यान रखते हुए ही आगे कोई कदम बढ़ाया जाएगा। कांग्रेस के एक वरिष्ठï नेता ने इससे एक कदम और आगे बढ़कर यह कहा कि 'हम लोग आम राजनीतिक सहमति के आधार पर तेलंगाना राज्य निर्माण के पक्ष में थे। लेकिन ऐसे निर्णय एकतरफा नहीं लिये जा सकते। हमने जब निर्णय लिया तो राज्य की प्राय: सभी प्रमुख पार्टियां एकमत थीं, लेकिन अब जबकि टीडीपी पीछे हट गई है तो राजनीतिक सहमति कहां है? इसलिए अभी हम मामले को टाल देना चाहते हैं।निश्चय ही कांग्रेस अब मसले को टालने के मूड में हैं। लेकिन अब राज्य में क्षेत्रीयता की जो आग भड़क उठी है वह आसानी से शांत होने वाली नहीं। आंध्र व रायलसीमा के आंदोलनकारी चाहते हैं कि गृहमंत्री दुबारा बयान दें तभी स्थिति सामान्य हो सकती है। उनका सीधा आरोप है कि वर्तमान अशांति के लिए गृहमंत्री दुबारा बयान दें तभी स्थिति सामान्य हो सकती है। उनका सीधा आरोप है कि वर्तमान अशांति के लिए गृहमंत्री चिदंबरम सीधे जिम्मेदार हैं। उनके गृह सचिव जी.के. पिल्लइ ने शुक्रवार को एक बयान देकर और आग में घी डाल दिया। उन्होंने कहा कि पृथक तेलंगाना राज्य के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और हैदराबाद इस नये राज्य की राजधानी होगी। रोचक है कि जिस समय प्रधानमंत्री क्षुब्ध सांसदों को यह समझा रहे थे कि जल्दबाजी में कुछ नहीं किया जाएगा (नथिंग विल बी डन इन हेस्ट) उसी समय गृहसचिव का बयान था कि प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और राजधानी का मसला भी तय हो चुका है। बाद में यद्यपि वह अपने बयान में पलट गये और कहा कि अभी राजधानी के बारे में कोई फैसला नहीं हुआ है। उन्होंने यह बात केवल इस समद्ब्रा के आधार पर कह दी थी कि यदि तेलंगाना राज्य बनेगा तो हैदराबाद स्वाभाविक रूप से उसकी राजधानी बनेगा। अब भले ही वह अपने बयान से पलट गये हों, लेकिन उनके कथन से इतना तो स्पष्टï हो ही गया है कि दिल्ली में बैठे ब्यूरोक्रेट्स की नजर में हैदराबाद ही तेलंगाना की स्वाभाविक राजधानी है।
राज्य की राजनीति में क्षेत्रीयता को लेकर एक अजीब उथल-पुथल मची है। चतुर्दिक ऊहापोह व्याप्त है। रायलसीमा और आंध्र की पहली मांग यही है कि राज्य का विभाजन न हो लेकिन यदि केन्द्र इस पर आमादा है तो आगे की क्या रणनीति हो सकती है, इस पर भी विचार किया जा रहा है। रायलसीमा व आंध्र के लोगों का, विभाजन की स्थिति में पहला दबाव यह है कि हैदराबाद को तेलंगाना को न दिया जाए। उसे केन्द्र शासित क्षेत्र बना दिया जाए। यदि ऐसा हो जाए तो शहर हैदराबाद से जुड़े उनके सारे हित सुरक्षित रह सकते हैं। लेकिन तेलंगाना के लोग क्या इसे स्वीकार करेंगे? तो अगला विकल्प क्या हो सकता है। रायलसीमा के लोगों की मांग है कि उस स्थिति में उन्हें भी अलग राज्य का दर्जा दिया जाए और नेल्लूर तथा प्रकाशम जिले को उनके साथ जोड़ा जाए। राज्य में इस समय 22 जिले हैं जिनमें से 9 तेलंगाना क्षेत्र में आते हैं, 4 रायलसीमा में और शेष आंध्र क्षेत्र में। मद्रास प्रांत से जब आंध्र को अलग किया गया था तो कर्नूल उसकी राजधानी बनी थी, जो रायलसीमा क्षेत्र में है। लेकिन तेलंगाना के साथ विलय के बाद यह राजधानी उनसे छिन गई और हैदराबाद नई राजधानी बन गई। अब रायलसीमा के लोग तिरुपति को अपनी राजधानी बना सकते हैं, लेकिन उन्हें पृथक राज्य बनने के लिए आंध्र क्षेत्र का नेल्लूर और प्रकाशम जिला जरूर चाहिए। उधर आंध्र क्षेत्र में भी इसकी बहस शुरू हो गई है कि यदि राज्य का विभाजन हो ही गया तो उनकी राजधानी कहां स्थापित होगी।
खैर, यह सारा मुद्दा और विवाद तो अभी लम्बे समय तक चलता रहेगा, परंतु गृहमंत्री की पृथक तेलंगाना राज्य बनाने की घोषणा से देश के अन्य क्षेत्रीय आंदोलनों में भी नई जान आ गई है। लेकिन सवाल है इस विभाजन की श्रृंखला का अंत कहां है। यह दावा मिथ्या है कि छोटे राज्य प्रशाशन की दृष्टि से सुविधाजनक होते हैं या इससे उनके विकास की गति तेज होती है। फिर भी यदि लगातार विभाजन की मांगें उठ रही हैं, तो उनके उठने के दो मुख्य कारण हैं। एक तो क्षेत्रीय नेताओं की बढ़ती महत्वाकांक्षा दूसरी सत्ता के वर्चस्वधारी लोगों द्वारा किसी क्षेत्र विशेष की उपेक्षा या उसका शोषण। जाहिर है कि राजनीतिक व्यवस्था में आंतरिक लोकतंत्र तथा न्याय का अभाव इस तरह की मांगों को भड़काने के मुख्य कारण है। इसलिए राजनीतिक व्यवस्था में इस विभाजन प्रक्रिया को यदि रोकना है तो राजनीतिक व्यवस्था या दलों के बीच आंतरिक लोकतंत्र तथा प्रशासन में सम्यक न्याय की स्थापना करनी होगी। यदि यह नहीं होगा तो ये विभाजन की श्रृंखला और नीचे तक फैलती ही जाएंगी। आंध्र प्रदेश में भी यदि तेलंगाना के साथ न्याय किया गया होता और 'जेंटिलमेन एग्रीमेंट को ईमानदारी से लागू किया गया होता तो आज विभाजन की यह नौबत न आती। परंतु अब बात जहां तक बढ़ चुकी है, उसमें इस राज्य के विभाजन को अनंतकाल के लिए नहीं टाला जा सकता। आज नहीं तो कल, विभाजन के दौर से इसे गुजरना ही पड़ेगा फिर भले इसके एक के दो टुकड़े हों या तीन।

2 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

पृथक राज्य मांगने वाले पहले यह तो स्पष्ट करें कि क्या वे १९५६ की स्थिति में पुनः जाना चाहते हैं... क्या वे अपने से अलग हुए इलाकों को महाराष्ट्र और कर्नाटक से वापिस लेने की स्थिति में है? या, वे केवल उन दस ज़िलों को लेकर संतुष्ट हैं जिनपर भविष्य में नक्सलियों का वर्चस्व होना निश्चित है - आदिलाबाद, खम्मम, निज़ामावाद, वरंगल, नलगोंडा.... सभी तो आतंकी निशाने पर हैं। हैदरावाद और रंगारेड्डी दूसरी तरह के आतंक से परेशान रहेंगे। तो फिर... कैसे राज्य के लिए यह लडाई लड़ी जा रही है।

ओमकार चौधरी ने कहा…

डॉ साहब नमस्कार
आपके ब्लॉग की चर्चा रवीस कुमार ने हिंदुस्तान के ब्लॉग वार्ता में कर राखी है. वहीँ से लिंक लेकर आपके ब्लॉग तक पहुंचा.
जानकार अच्छा लगा कि आप यहाँ भी अच्छी बेटिंग कर रहे हैं. बाबरी पर आपका लेख बहुत अच्छा है. तेलंगाना पर आपका लेख
तथ्य परक है. बधाई.
ओमकार चौधरी
http://omkarchaudhary.blogspot.com