सोमवार, 23 नवंबर 2009

ओबामा क्यों बिछ गये यों चीन के आगे

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा पिछले दिनों चार एशियायी देशों- जापान, चीन, सिंगापुर एवं द. कोरिया- की यात्रा पर थे। इस यात्रा में उनका सर्वप्रमुख पड़ाव चीन का था। बड़ी आशाएं लेकर वह चीन गये थे, लेकिन एक भी पूरी नहीं हो सकीं। चीन का सहयोग पाने के लिए वह उसके सामने बिछ गये, लेकिन चीन ने तनिक भी रियायत नहीं बरती। उलटे उसने अमेरिकी राषट्रपति को अपने एजेंडे पर नचाया। यों, ओबामा की यह पूरी यात्रा ही विफल रही, लेकिन चीन में तो उन्हें भारी कूटनीतिक पराजय का मुंह देखना पड़ा। चीन ने उनका भरपूर राजनीतिक इस्तेमाल किया और बीजिंग में उनकी उपस्थिति को यह प्रदर्शित करने में अधिक उपयोग किया कि वह बाहरी दबावों को किस तरह परे धकेल सकता है और विश्व की सर्वोच्च महाशक्ति से भी अपनी बातें मनवा सकता है।
आश्चर्य होता है कि अमेरिका के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा चीन के आगे इस तरह बिछ गये कि वह जो कुछ कहता गया, सब मानते गये और जितना झुकाता गया, उतना झुकते गये। जापान के सम्राट अकाहितो के आगे वह कहां तक झुक गये, यह तो सभी ने देखा, लेकिन चीन में तो लगता है वह पाणिपात की ही मुद्रा में आ गये थे। फिर भी चीन उनकी किसी अदा पर नहीं पसीजा और उनकी हर उस मांग को ठुकरा दिया, जिसे मनवाने की आशा लेकर वह उसके दरबार में गये थे। ओबामा की इस यात्रा के दौरान चीन ने यह अच्छी तरह प्रदर्शित किया कि बाहरी दबावों का न केवल वह आसानी से मुकाबला कर सकता है, बल्कि विपरीत स्थितियों में भी अपनी बातें पहले मनवा सकता है।
राष्ट्रपति ओबामा एशिया की पहली लंबी यात्रा पर 13 नवंबर को सबसे पहले जापान पहुंचे, वहां से सिंगापुर, फिर सिंगापुर से चीन और वहां से दक्षिण कोरिया। इनमें से दक्षिण कोरिया तो अमेरिका की रियाया ही है, इसलिए उसे तो इस यात्रा के आकलन से बाहर ही कर देना चाहिए। अब यदि बाकी तीन देशों की यात्राओं का मूल्यांकन करें, तो यही कहना पड़ेगा कि तमाम सार्वजनिक लोकप्रियता के बावजूद ओबामा की यह यात्रा पूरी तरह विफल रही।
यों शुरुआत बहुत निराशाजनक नहीं रही। यात्रा के प्रथम चरण में ओबामा जब टोकियो पहुंचे, तो निश्चय ही उनका एक विश्व नेता की तरह स्वागत हुआ। टोकियो की सड़कों पर लोग वर्षा के बावजूद उनके स्वागत में खड़े थे और नारे लगा रहे थे। यहां वह जापान के सम्राट अकाहितो से एकदम कमर तक झुक कर (कोर्निस की मुद्रा में) मिले। जापानी संस्कृति में झकने का अर्थ सम्मान प्रकट करना होता है। जितना अधिक झुकना उतना अधिक सम्मान। तो ओबामा साहब अधिकतम सम्मान प्रदर्शित करने के लिए कमर तक झुक गये। एक बुजुर्ग राष्ट्र प्रमुख को सम्मान देना कतई अनुचित नहीं, लेकिन ओबामा साहब ने ध्यान नहीं रखा कि अकाहितो जापानी राजशाही के अवशिष्ट प्रतीक हैं, जबकि वह स्वयं दुनिया के एक सर्वाधिक शक्तिशाली लोकतंत्र के प्रधान हैं। झुकें , लेकिन झुकने की भी तो कोई सीमा होनी चाहिए। खेद की बात यह है कि इतना झुकना भी जापानी नेताओं के साथ बातचीत में कोई काम नहीं आया। 'कांतेई(जापानी ह्वाईट हाउस) में बंद दरवाजों के पीछे जब प्रधानमंत्री यूकिओ हातोयामा के साथ बातचीत शुरू हुई, तो ओबामा को पता चला कि यहां का वातावरण टोकियो की सड़कों की तरह का नहीं है। अमेरिका, जापान के फ्यूटेन्मा स्थित अपने नौसैनिक एवं वायु सैनिक अड्डे के दक्षिणी द्वीप पर स्थापित करना चाहता है, लेकिन जापान इसके लिए सहमत नहीं है। वास्तव में जापान इस पुराने अड्डे को ही बंद कराना चाहता है, क्योंकि अब यह अमेरिकी अड्डा देश में बेहद अलोकप्रिय हो चुका है। ऐसे में नये अड्डे की स्वीकृति एक मुश्किल काम है, जबकि अमेरिका के लिए यह आवश्यक है। मतभेदों की गहराई को देखते हुए दोनों पक्षों ने इस मुद्दे पर विचार के लिए एक 'कार्यदल बनाने का निर्णय लेकर फिलहाल बातचीत को टाल दिया। वस्तुत: द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका ने जापान को उसके सैन्य अधिकार से वंचित कर दिया और उसकी रक्षा की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। जापान को इसका लाभ भी हुआ, क्योंकि उसे रक्षा की चिंता छोड़कर अपने आर्थिक विकास पर ध्यान केंद्रित करने का पूरा मौका मिला। लेकिन इससे उसका स्वाभिमान अब तक आहत बना हुआ है, इसलिए हर जापानी चाहता है कि जापान को स्वतंत्र सैन्य विकास का अवसर मिले और अमेरिका अपनी सेना पूरी तरह से वहां से हटा ले। जापानी रक्षा विशेषज्ञों के अनुसार अमेरिका और जापान के बीच सबसे बड़ा अकेला द्विपक्षीय सवाल यही है कि शीत युद्धकालीन उनके रक्षा गठबंधन को आज के समय में कैसे प्रासंगिक बनाये रखा जाए, जबकि बढ़ती चीनी शक्ति ने इस क्षेत्र के शक्ति संतुलन को बिल्कुल बिगाड़ दिया है। किन्तु दोनों ही देश इस सवाल से आंखें चुराते नजर आते हैं।
ओबामा का अगला पड़ाव सिंगापुर था, जहां 'एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग सम्मेलन (एशिया पैस्फिक इकोनॉमिक कोऑपरेशन कांफ्रेंस) में शामिल होना था। इस सम्मेलन ने इस वर्ष जो सुर्खियां बटोरीं वे निश्चय ही अमेरिकी पसंद की नहीं होंगी। इस संगठन में चीन और जापान भी शामिल हैं। इन देशों ने जल्दबाजी में बुलायी गयी एक सुबह नाश्ते की बैठक में इसी बात की पुष्टि की कि 'मौसम में बदलाव के सवाल पर अगले महीने कोपेनहेगेन में जो सम्मेलन होने जा रहा है, उसके पूर्व वे अपने मतभेदों को दूर नहीं कर सकेंगे।
यहां से ओबामा बीजिंग पहुंचे। वहां भी उनका बाहर स्वागत सत्कार बहुत शानदार था। चीन सरकार ने उनके सम्मान में एक भव्य भोज का भी आयोजन किया। सब कुछ ऐसा कि ओबामा अभिभूत थे। पर चीनी नेताओं ने ओबामा की कूटनीतिक शिथिलता का पूरा फायदा उठाया और उनसे चीन की सारी अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति का समर्थन कराने के बावजूद एक भी अमेरिकी मांग स्वीकार नहीं की। उन्होंने केवल उसी अमेरिकी प्रस्ताव को स्वीकार किया, जो चीन के हित में था, बाकी सारे मसलों पर टका सा जवाब दे दिया।
अमेरिकी दैनिक न्यूयार्क टाइम्स ने लिखा है कि 'चीनी राष्ट्रपति हू जिंताओ के साथ 6 घंटे की बैठक, दो भोज तथा 30 मिनट की न्यूज कांफ्रेंस के दौरान- जिसमें हू ने किसी को सवाल करने की इजाजत नहीं दी थी- राष्ट्रपति ओबामा का मुकाबला एक ऐसे तेजी से उभर रहे चीन से हुआ, जो अमेरिका को केवल नकारने में अधिक रुचि रखता है। यह बिल्कुल सही है, क्योंकि चीन ने अमेरिकी एजेंडे में शामिल अधिकांश बातों को नकार दिया।
अमेरिकी एजेंडे में तीन प्रमुख मुद्दे थे। एक तो ईरान और उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम नियंत्रण। दूसरा चीनी मुद्रा युआन का मूल्य सही करना और तीसरा मानवाधिकारों का सम्मान, जिसमें तिब्बत का मसला भी शामिल था। चीन ने इनमें से किसी भी अमेरिकी प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। राष्ट्रपति हू ने ईरान पर संभावित प्रतिबंध की सार्वजनिक तौर पर कोई चर्चा नहीं की। उन्होंने चीनी मुद्रा का मूल्य ठीक करना भी स्वीकार नहीं किया। चीन जानबूद्ब्राकर अपनी मुद्रा युआन का विनिमय मूल्य उसके वास्तविक मूल्य से कम रखे है जिससे कि उसका माल विदेशों में सस्ता पड़े और निर्यात को प्रोत्साहन मिले। उसकी इस नीति के कारण अमेरिका को भारी घाटा उठाना पड़ रहा है, क्योंकि चीनी माल वहां सस्ते पड़ रहे हैं और दोनों देशों का व्यापारिक संतुलन चीन की तरफ द्ब्राुका हुआ है। यानी चीन अमेरिका को निर्यात अधिक करता है आयात कम। और मानवाधिकार के सवाल पर तो चीन ने संयुक्त घोषणापत्र में डंके की चोट पर कहा है कि इस मुद्दे पर दोनों देशों में मतभेद हैं यानी वह मानवाधिकार की अमेरिकी अवधारणा को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है।
चीन ने ओबामा की यात्रा का ऐसा सुनियोजित एवं सूक्ष्म प्रबंध किया था कि इसमें चीनी मत की पुष्टिï हो और अमेरिकी विचार चर्चा में भी न आने पाएं। चीन ने ऐसी व्यवस्था की कि ओबामा ऐसे बयान दें जिससे चीनी नीतियों की पुष्टिï व उसके उद्देश्यों का समर्थन हो। उसने बड़ी चतुराई से ऐसा कुछ किया कि मानवाधिकार तथा चीनी मुद्रा जैसे विषयों पर कोई चर्चा न हो। कार्नेल यूनिवर्सिटी में चीन मामलों के विशेषज्ञ ईश्वर एस. प्रसाद के अनुसार चीन ने बड़े अद्भुत कौशल से सार्वजनिक चर्चा को चीनी मुद्रा नीति के दुनिया पर पड़ रहे खतरनाक प्रभाव से हटाकर अमेरिका की ढीली वित्तीय नीति तथा उसकी संरक्षणवादी प्रवृत्ति की ओर मोड़ दिया।चीन के ऐसे प्रबंध के कारण ओबामा की इस चीन यात्रा से चीन को यह प्रदर्शित करने का बेहतर अवसर मिला कि किस तरह वह बाहरी दबावों को बिना प्रयास दूर धकेल सकता है और अमेरिका का अपना एजेंडा चर्चा से बाहर रह गया।
अपनी यात्रा शुरू करते ही सबसे पहले ओबामा ने यह घोषणा की कि तिब्बत चीन का अंग है। चीन को प्रसन्न करने के लिए ही उन्होंने वाशिंगटन में तिब्बती नेता दलाई लामा से मिलने से इनकार कर दिया था। ओबामा के चीन पहुंचने पर अमेरिकी पक्ष से कहा गया कि राष्ट्रपति चीनी युवाओं से मुलाकात करना चाहते हैं और यह भी चाहते हैं कि इस मुलाकात को टीवी पर दिखाया जाए और उसे नेट पर भी ऑनलाइन उपलब्ध कराया जाए। चीन ने इसकी भी व्यवस्था कर दी। शंघाई पहुंचने पर ओबामा को युवाओं से मिलने का मौका दे दिया गया, किन्तु इसमें सामान्य छात्रों के बजाय चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों को प्रमुखता से पेश किया गया। सरकार ने इसे शंघाई टीवी पर प्रसारित किये जाने की भी सुविधा दे दी। ओबामा ने युवाओं को प्रभावित किया, लेकिन मानवाधिकारों व अभिव्यक्ति स्वतंत्रता पर बहुत संभल कर बोले। उन्होंने 'नेट पर मुक्त सूचना प्रवाह का भी समर्थन किया, लेकिन काफी सावधानी के साथ जैसे यह कहा कि हर देश की अपनी संस्कृति होती है, अपनी आवश्यकता होती है, जिसके अनुसार वह अपनी व्यवस्था कर सकता है। यहां यह उल्लेखनीय है कि चीन में नेट पर जो सूचनाएं प्राप्त होती है वे सरकारी तंत्र की छनाई के बाद ही आ पाती है। ओबामा ने यह जरूर कहा कि मुक्त सूचना प्रवाह से किसी भी देश या समाज की शक्ति और बढ़ सकती है मगर उन्होंने चीनी व्यवस्था की कोई निन्दा आलोचना नहीं की। उनकी नजर अगले दो दिन की उन मुलाकातों पर अधिक थी जो चीनी नेताओं के साथ होने वाली थी।
ओबामा असल में बड़ी आशाएं लेकर चीन की इस यात्रा पर गये थे। आर्थिक मंदी के कारण संकट के दौर से गुजर रहे अमेरिका के लिए चीन एक उद्धारक देश नजर आ रहा था। चीन अमेरिका का सबसे बड़ा साहूकार है और सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार भी। ऐसे में चीन की थोड़ी सी रियायत भी अमेरिका के लिए काफी मददगार सिद्ध हो सकती थी किन्तु चीन ने ओबामा की राई रत्ती नहीं सुनी।
ऐसे में सच कहा जाए तो ओबामा की इस यात्रा के दौरान अमेरिका के हाथ कुछ नया नहीं लगा। यद्यपि ओबामा सरकार के अधिकारियों का दावा है कि राष्ट्रपति महोदय जिन लक्ष्यों को लेकर यात्रा पर गये थे उन्हें पूरा कर लिया गया है, लेकिन इस दावे की पुष्टि के लिए उनके पास कोई प्रमाण नहीं है। उनके अनुसार ओबामा की चीनी नेताओं के साथ बातचीत के बाद जारी पांच सूत्रीय संयुक्त विज्ञप्ति में अनेक मसलों पर दोनों देशों ने मिलकर काम करने का संकल्प लिया है। बयान में कहा गया है कि ओबामा और हू जिंताओ आपस में नियमित रूप से बातचीत करते रहेंगे और दोनों देश एक दूसरे की रणनीतिक चिन्ताओं की ओर अधिक ध्यान देंगे। बयान में यह भी कहा गया है कि दोनों देश आर्थिक मामलों, ईरान तथा मौसम में बदलाव के मसलों पर साझीदार की तरह कार्य करेंगे।
संयुक्त वक्तव्य के इन वाक्यों को देखकर कोई भी कह सकता है कि इनमें कुछ भी ऐसा नहीं है जो अमेरिका के पक्ष में हो बल्कि इसमें अमेरिका को चीन के पक्ष में द्ब्राुकाने का प्रयत्न है। कूटनीतिक विशेषज्ञ जानते हैं कि ऐसी शब्दावलियों का क्या अर्थ होता है। यहां मुख्य सवाल यह है कि चीन की नाराजगी से बचने के लिए अब ओबामा ने वाशिंगटन में दलाई लामा से मिलने से इनकार किया उस समय की स्थिति के मुकाबले क्या चीन या किसी अन्य एशियायी देश में ओबामा अपना अमेरिकी एजेंडा कुछ भी आगे बढ़ाने में सफल हुए हैं। जवाब नकारात्मक ही मिलेगा।
जापान में उनके रवैये से लगता है कि ओकीनावा में अमेरिकी सैनिक अड्डा बनाने के सवाल पर अमेरिकी रुख और नरम हुआ है। सिंगापुर के क्षेत्रीय सम्मेलन में अमेरिका की एक और सर्वोच्च प्राथमिकता वाली विदेशनीति को आघात लगा जब उन्होंने वहां स्वीकार किया कि 'वैश्विक तपन (ग्लोबल वार्मिंग) के खिलाफ लड़ाई का कोई समझोता इस वर्ष संभव नहीं है। ईरान के मसले पर अमेरिकी अधिकारी रूस के राष्ट्रपति दिमित्र ए. मेद्वेदेव को तो यह कहने के लिए तैयार कर ले गये कि 'यदि बातचीत विफल हो जाती है तो ईरान के खिलाफ प्रतिबंधों के सवाल पर उनका कोई पूर्वाग्रह नहीं है।लेकिन यही बात ओबामा चीन से नहीं कहला सके। जबकि यह पता है कि ईरान के विरुद्ध किसी प्रतिबंध के सवाल पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अनुमति के लिए चीन की पूर्वानुमति आवश्यक होगी। चीन ने इस मसले पर अमेरिका के साथ साझीदार के तौर पर काम करने की बात तो की है, लेकिन साथ ही उसने यह भी कहा है कि 'ईरान नाभिकीय विवाद को बातचीत और सलाह मशविरे से हल किया जाना चाहिए।इतना ही नहीं संयुक्त वक्तव्य में हू ने यह भी कहा है कि 'बातचीत के दौरान हमने राष्ट्र पति ओबामा के समक्ष यह स्पष्ट कर दिया है कि राष्ट्रीय परिस्थितियों की अपनी भिन्नता के कारण हम दोनों के लिए यह स्वाभाविक है कि कुछ मुद्दों पर हम असहमत रहें।
'व्हाइट हाउस के कुछ अधिकारी यह स्वीकार करते हैं कि ईरान के मामले में हम हू जिंताओ से वह नहीं प्राप्त कर सके जो हम चाहते थे, किन्तु ओबामा का तरीका दीर्घकाल में फलदायी होगा। हम यह आशा नहीं कर रहे हैं कि वे इस मामले का नेतृत्व करेंगे या कोई धारा में बदलाव ला देंगे, हम तो केवल यह चाहते हैं कि वे अड़ंगा लगाने का काम न करें। यदि यही लक्ष्य था तो भी चीन की तरफ से ऐसा कोई संकेत नहीं था कि वह अमेरिकी रास्ते में अड़ंगा नहीं डालेगा।
संयुक्त वक्तव्य में कुछ बातों को अनावश्यक रूप से प्रमुखता से डाला गया। जैसे कि दक्षिण एशिया के बारे में चीन को दिया गया बेहतर भूमिका निभाने का आमंत्रण। अमेरिका को अच्छी तरह मालूम है कि दक्षिण एशिया की राजनीति में चीन पूरी तरह पाकिस्तान के साथ है और अफगानिस्तान के प्रति भी चीन की वही नीति है जो पाकिस्तान की है फिर ओबामा साहब को यह जरूरत क्यों पड़ी कि वह संयुक्त बयान में यह घोषित करे कि चीन और अमेरिका मिलकर दक्षिण एशियायी देशों में शांति के लिए काम करेंगे। वास्तव में चीन दक्षिण एशिया में अपनी राजनीतिक भूमिका बढ़ाना चाहता है इसलिए उसने ओबामा को इसके लिए तैयार कर लिया कि दक्षिण एशियायी मामलों यानी भारत पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान के मामलों में वे मिलकर काम करेंगे।
संयुक्त वक्तव्य के इस अंश पर भारत की गहरी आपत्ति के बाद चीन व अमेरिका दोनों ने अपनी-अपनी तरफ से सफाई दी है, लेकिन सवाल है ऐसे मुद्दे को संयुक्त वक्तव्य में डाला ही क्यों गया जिस पर बाद में सफाई देनी पड़े, जबकि अमेरिका को तथा राष्ट्रपति ओबामा को यह पता है कि पाकिस्तान के मामले में भारत कितना अधिक संवेदनशील है। भारत की नीति शुरू से ही पाकिस्तान से सम्बद्ध मामले में किसी तीसरे देश के हस्तक्षेप के खिलाफ है। फिर इसका क्या औचित्य था कि ओबामा साहब दक्षिण एशिया के उस देश के मामले में चीन को हस्तक्षेप करने के लिए आमंत्रित करें जिन्हें वह भविष्य के लिए अमेरिका का सबसे बड़ा रणनीतिक साद्ब्राीदार मानते हैं।
अमेरिकी अधिकारी कह रहे हैं कि भारत ने इस संयुक्त वक्तव्य में उससे कुछ ज्यादा ही पढ़ लिया है जितना कि उसमें लिखा गया है। लेकिन कूटनीतिक वक्तव्यों में पंक्तियों के बीच में पढऩा कोई अस्वाभाविक बात तो नहीं। भारत का यह सवाल करना कुछ बहुत नाजायज तो नहीं कि संयुक्त वक्तव्य में इन वाक्यों की जरूरत क्या थी। जाहिर है कि इसका आग्रह चीन की तरफ से किया गया होगा, जिसे अमेरिकी पक्ष ने सहजता से स्वीकार कर लिया। जाहिर है इस मामले में भी चीन के हाथों ओबामा ही पिटे। उन्होंने अनावश्यक रूप से उन बातों को भी संयुक्त वक्तव्य में शामिल होने दिया, जिसे लेकर उनका एक मित्र देश भारत व्यथित हो सकता है।
अब यदि तटस्थ दृष्टिï से मूल्यांकन करें, तो इसमें ओबामा का कोई दोष नहीं, यह उनके स्वभाव का दोष है। वह समद्ब्राते हैं कि विनम्रता तथा मधुरता से पूरी दुनिया का दिल जीता जा सकता है। उन्होंने यह सीखा कि जापान में झुकना आदर सूचक है, तो वह सम्राट अकाहितो के सामने कमर तक झुक गये। शायद उन्होंने सोचा होगा कि इससे सारे जापानी खुश हो जाएंगे। इसी तरह वह सऊदी अरब के शाह के सामने द्ब्राुके थे। वहां भी उन्होंने यही सोचा होगा कि इससे पूरा इस्लामी जगत उनका मुरीद हो जाएगा। चीन पहुंचकर भी उन्होंने वह सारी बातें की, जो चीन को अच्छी लगें और हर चीनी इच्छा को स्वीकार कर लिया। शायद यह सोचकर कि चीन वास्तव में अमेरिका का सहयोगी बन जाएगा। उन्होंने प्रशांत के दोनों तटों के इन दो महान देशों का हवाला भी दिया और उनके बीच घनिष्ठ सहयोग की बातें की, लेकिन चीनी नेता ऐसे किसी दबाव में नहीं आए। उन्हें दुनिया की पहली महाशक्ति बनना है, तो अमेरिका को पछाड़कर ही आगे बढऩा होगा, उसे साथ लेकर नहीं।
कोई भी बड़ा राजनेता जब किसी देश की यात्रा पर जाता है, तो वह पहले से इसकी पृष्ठïभूमि बना चुका रहता है कि इस यात्रा से उसे क्या उपलब्धि होगी, लेकिन ओबामा ने शायद अपनी इस यात्रा के पूर्व ऐसी कोई तैयारी नहीं की थी। उन्हें शायद अपने करिश्मों पर भरोसा था। शायद उन्हें यह नहीं पता था कि चीन ऐसे करिश्मों से प्रभावित नहीं होता।
हो सकता है, ओबामा अपनी इस यात्रा से कुछ सबक लें। चीन के आगे पूरी तरह बिछकर उन्होंने देख लिया है। निश्चय ही अब उन्हें बेहतर विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए। यहां उसकी आवश्यकता नहीं है कि वह एकाएक अकड़कर खड़े हो जाएं और प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति की घोषणा कर दें, लेकिन यदि उनमें जरूरी राजनीतिक संवेदनशीलता है, तो उन्हें इतना तो समझ ही लेना चाहिए कि एशिया में कौन अमेरिका का सहयोगी हो सकता है, कौन प्रतिस्पर्धी। चीन अमेरिका का आर्थिक साझीदार बन सकता है, किन्तु रणनीतिक तौर पर वह उसका प्रतिस्पर्धी ही रहेगा। इसलिए उसे चीन के साथ सहयोग का संबंध अवश्य कायम करना चाहिए, लेकिन इसके लिए यह तो जरूरी नहीं कि वह एक हीन राष्ट्र की तरह उसके सामनेझुक जाएँ । (रविवार, 22 नवंबर 2009)

2 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

कोई भी कमज़ोर ताकतवर के आगे झुकता है। आज चीन के पास डालर का इतना बडा ज़कीरा है कि वह अमेरिका की अर्थव्यव्स्ता को नेस्तनाबूत कर सकता है।

अब भी समय है अमेरिका भारत के साथ करीबी सम्बंध बनाए और हिंद-पाक तुलना करना छोड़ दे। यदि वह अपनी विदेश नीति को सार्थक सहयोग से जोडे़ तब उसे पता चलेगा कि कौन उसका मित्र है और कौन शत्रु। तब तक वह राजनीति के अंधेरे गलियारों में भटकता ही रहेगा॥

Crazy Codes ने कहा…

arthvyavastha ya raajniti ko bahut jyada main nahi jaanta... par sirf itna jaanta hun ki jiski lathi uski bhains... aaj china ke paas paison kee bahut majboot lathi hai...

http://ab8oct.blogspot.com/
http://kucchbaat.blogspot.com/