अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की चीन यात्रा के दौरान चीनी राष्ट्रपति हू जिंताओ के साथ बातचीत के बाद दोनों नेताओं की तरफ से जो संयुक्त बयान जारी हुआ, उसे लेकर भारत के कूटनीतिक अधिकारी अवाक हैं। इसमें चीन को पूरे दक्षिण एशिया, यानी भारत, पाकिस्तान व अफगानिस्तान में महत्वपूर्ण कूटनीतिक भूमिका निभाने के लिए आमंत्रित किया गया है। इस अवसर पर प्रेस के सामने बोलते हुए हू जिंताओ ने यद्यपि भारत या पाकिस्तान का नाम नहीं लिया, किन्तु ओबामा ने स्पष्ट किया कि अमेरिका और चीन पूरे दक्षिण एशिया में स्थिर एवं शांतिपूर्ण संबंधों को कायम करने के लिए मिल कर काम करने पर सहमत हो गये हैं। वास्तव में यह भारत-पाकिस्तान व अफगानिस्तान के मामले में कूटनीतिक हस्तक्षेप करने का चीन को दिया गया खुला निमंत्रण है। आश्चर्य है कि ओबामा ने उस देश के मामले में चीन को हस्तक्षेप करने के लिए आमंत्रित किया है, जिसे वह एशियायी क्षेत्र में अपना सबसे बड़ा रणनीतिक साझीदार बताते हैं।
कहा जा रहा है कि संयुक्त वक्तव्य का प्रारूप बीजिंग स्थित उन अमेरिकी कूटनीतिक अधिकारियों ने तैयार किया है, जिनकी भारत के साथ कोई संवेदना नहीं है। ऐसा हो भी सकता है, लेकिन तब तो यह मानना पड़ेगा कि कूटनीतिक मामले में ओबामा भी अपने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की ही तरह लापरवाह हैं। मनमोहन सिंह ने शर्म-अल-शेख में जैसे पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के दबाव में आकर उस संयुक्त बयान को जारी करने की स्वीकृति दे दी, जो भारतीय हितों व स्वाभिमान के खिलाफ था और जिस पर देश के भीतर एक तरह का हंगामा ही खड़ा हो गयाथा । उसके बारे में भी कहा गया था कि संयुक्त बयान का प्रारूप पाकिस्तान के अधिकारी पहले से ही बनाकर लाए थे और उसे ही मामूली फेरबदल के बाद स्वीकार कर लिया गया। लगता है ऐसा ही कुछ यहां भी हुआ।
खैर, भारत को इसे लेकर बहुत परेशान होने की जरूरत नहीं है। कूटनीतिक जगत में ऐसा कुछ होता रहता था। निश्चय ही ओबामा ने भारी चीनी दबावों के कारण संयुक्त वक्तव्य की ऐसी शब्दावली को स्वीकार किया होगा। चीन अमेरिका का सबसे बड़ा ऋणदाता है। चीनी बाजार भी अमेरिका के लिए सबसे बड़ा बाजार है। लेकिन यह भी तय है क़ि ओबामा साहब चीन को खुश करने का जितना भी प्रयत्न कर लें, उनके बीच कभी कोई स्वाभाविक दोस्ती नहीं पनप सकती ।
उनकी चीन यात्रा के दौरान जारी यह संयुक्त विज्ञप्ति इस बात का भी प्रमाण है कि ओबामा साहब भाषण चाहे जितना अच्छा दे लें, किन्तु वे निर्णय लेने में कमजोर हैं। उनकी निर्णय लेने की अक्षमता का ही यह परिणाम है कि अमेरिका में भी उनकी लोकप्रियता का ग्राफ नीचे उतरता जा रहा है। भारत के लोगों को प्रतीक्षा करनी चाहिए डॉ. मनमोहन सिंह की अमेरिका की यात्रा का और उसके बाद जारी होने वाले संयुक्त वक्तव्य का। उसके उपरांत ही निर्णय किया जा सकता है कि दक्षिण एशिया के प्रति ओबामा का वास्तविक नजरिया क्या है और इसमें भारत को कितनी और कौनसी जगह हासिल है।
कहा जा रहा है कि संयुक्त वक्तव्य का प्रारूप बीजिंग स्थित उन अमेरिकी कूटनीतिक अधिकारियों ने तैयार किया है, जिनकी भारत के साथ कोई संवेदना नहीं है। ऐसा हो भी सकता है, लेकिन तब तो यह मानना पड़ेगा कि कूटनीतिक मामले में ओबामा भी अपने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की ही तरह लापरवाह हैं। मनमोहन सिंह ने शर्म-अल-शेख में जैसे पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के दबाव में आकर उस संयुक्त बयान को जारी करने की स्वीकृति दे दी, जो भारतीय हितों व स्वाभिमान के खिलाफ था और जिस पर देश के भीतर एक तरह का हंगामा ही खड़ा हो गयाथा । उसके बारे में भी कहा गया था कि संयुक्त बयान का प्रारूप पाकिस्तान के अधिकारी पहले से ही बनाकर लाए थे और उसे ही मामूली फेरबदल के बाद स्वीकार कर लिया गया। लगता है ऐसा ही कुछ यहां भी हुआ।
खैर, भारत को इसे लेकर बहुत परेशान होने की जरूरत नहीं है। कूटनीतिक जगत में ऐसा कुछ होता रहता था। निश्चय ही ओबामा ने भारी चीनी दबावों के कारण संयुक्त वक्तव्य की ऐसी शब्दावली को स्वीकार किया होगा। चीन अमेरिका का सबसे बड़ा ऋणदाता है। चीनी बाजार भी अमेरिका के लिए सबसे बड़ा बाजार है। लेकिन यह भी तय है क़ि ओबामा साहब चीन को खुश करने का जितना भी प्रयत्न कर लें, उनके बीच कभी कोई स्वाभाविक दोस्ती नहीं पनप सकती ।
उनकी चीन यात्रा के दौरान जारी यह संयुक्त विज्ञप्ति इस बात का भी प्रमाण है कि ओबामा साहब भाषण चाहे जितना अच्छा दे लें, किन्तु वे निर्णय लेने में कमजोर हैं। उनकी निर्णय लेने की अक्षमता का ही यह परिणाम है कि अमेरिका में भी उनकी लोकप्रियता का ग्राफ नीचे उतरता जा रहा है। भारत के लोगों को प्रतीक्षा करनी चाहिए डॉ. मनमोहन सिंह की अमेरिका की यात्रा का और उसके बाद जारी होने वाले संयुक्त वक्तव्य का। उसके उपरांत ही निर्णय किया जा सकता है कि दक्षिण एशिया के प्रति ओबामा का वास्तविक नजरिया क्या है और इसमें भारत को कितनी और कौनसी जगह हासिल है।
4 टिप्पणियां:
ओबामा निर्णय लेने में कमजोर हैं कि
दूरदर्शी , यह तो आने वाला समय
ही बताएगा |
मुला , बदलत फिजा बड़ी चौकाऊ अहै... ...
इसे एक क्रूर मज़ाक ही कहा जाएगा कि दुश्मन से कह रहे हैं - मध्यस्थता करो :)
चीन का दवाब तो होगा ही, अमेरिकी सरकार जो चीन के पैसे से चल रही है.
ओबामा को अभी खुद पता नहीं है कि वो क्या कर रहे हैं...वैसे इतना तय है कि ओबामा के नेतृत्व में अमेरिका की साख ढहती जा रही है...
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