प्रभाष जोशी आज की हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में नैतिकता, आदर्श तथा प्रतिबद्धता के एक प्रतीक पुरुष थे। स्वभाव से गांधीवादी लेकिन चिंतन से समाजवादी जोशी जी ने हिंदी पत्रकारिता को एक नई भाषा, एक नई शैली और एक नया तेवर देने के साथ एक नया सामाजिक आयाम भी दिया था। उनकी नैतिकता के प्रति निष्ठा व सच्चाई के प्रति दृढ़ता आज की पत्रकारिता में अत्यंत दुर्लभ है। उन्होंने पत्रकारिता केसर्वश्रेष्ठ मूल्यों को जीने की कोशिश की, उनके साथ कभी कोई समझौता नहीं किया।पत्रकारिता के साथ-साथ उनकी खेलों तथा शास्त्रीय संगीत में गहरी रुचि थी। क्रिकेट के साथ तो उन्हें जुनून के स्तर तक लगाव था। वह भीतर से एक अत्यंत जुनूनी खिलाड़ी थे। उन्होंने स्वयं कभी कोई खेल खेला या नहीं यह नहीं पता, लेकिन वह खेल शास्त्र के पंडित थे। खेलों का विश्लेषण वह किसी राजनीतिक विश्लेषण से कम गंभीरता से नहीं करते थे। इसी तरह शास्त्रीय संगीत के भी वह असाधारण प्रेमी थे। यात्राओं के दौरान प्राय: हर समय उनका टेप रिकार्डर साथ रहता था और साथ में रहते थे उनके प्रिय गायकों के कैसेट।प्रभाष जोशी के व्यक्तित्व की एक असाधारण बात यह भी थी कि वह एक अद्ïभुत श्रोता थे। अपनी ओर से अधिक बोलना उनकी आदत में कभी नहीं था। वे किसी की भी पूरी बात ध्यान से सुनते थे और फिर जरूरी होने पर ही अपनी राय देते थे। उनका यह गुण उनकी पत्रकारिता में भी मुखर था। उन्होंने अपने स्तर पर पाठकों को अपने अखबार से जोडऩे की जितनी और जैसी कोशिश की वैसी शायद ही किसी ने कभी की हो। 1983 में उन्होंने जब जनसत्ता शुरू किया, तो उसका शायद सर्वाधिक लोकप्रिय स्तम्भ चौपाल था, जो पाठकों के पत्र का कॉलम था। शुरू में इन पत्रों का चयन व संपादन वे स्वयं करते थे।प्रभाष जी किसी राजनीतिक दल की तरफ कभी नहीं द्ब्राुके। भारतीयता और भारतीय संस्कृति के प्रति निष्ठा के कारण प्राय: उन्हें लोग दक्षिणपंथी करार दिया करते थे, लेकिन वह इन भावनाओं की राजनीति करने वालों के साथ कभी नहीं रहे। उनकी विशिष्टता थी जीवन के प्रति एक समग्र दृष्टि। जनसत्ता में नियमित प्रकाशित होने वाला उनका साप्ताहिक स्तम्भ 'कागदकारे इसका प्रमाण रहा है। मुद्दा राजनीति का हो या समाज का, उनसे असहमत रहने वालों की कभी कमी नहीं रही, लेकिन कभी किसी ने उनकी समाज निष्ठïा या राजनीतिक ईमानदारी पर उंगली नहीं उठाई। जनसत्ता से संपादक के रूप में सेवा मुक्त होने के बाद भी वे अंत तक उसके सलाहकार संपादक बने रहे और उनका 'कागदकारेस्तम्भ प्रकाशित होता रहा, लेकिन 1995 में सेवानिवृत्ति केबाद उनके पत्रकार जीवन में एक नया आयाम जुड़ा टीवी विश्लेषक का। टीवी चैनलों पर राजनीतिक व सामाजिक विश्लेषक के तौर पर उन्होंने एक अलग ही पहचान बनायी। बिना किसी लाग लपेट के दो टूक टिप्पणी का उनमें साहस भी था और कौशल भी।उनका निधन भी एक अजीब क्षण में हुआ। ऐसा लगता है कि क्रिकेट का असाधारण 'पैशन ही उनकी जान का गाहक बन गया। भारत-आस्ट्रेलिया का हैदराबाद में हो रहा मैच अभी खत्म ही हुआ था कि उन्हें सीने में कुछ दर्द सा उठता महसूस हुआ और जब तक अस्पताल पहुंचते, कालचक्र ने उन्हें अपने आगोश में ले लिया था। जोशी जी अब नहीं है, लेकिन हिंदी पत्रकारिता शायद अपने इस अत्यंत मनस्वी व्यक्तित्व को कभी भुला नहीं सकेगी।
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3 टिप्पणियां:
एक साहित्यकार ही नहीं, एक क्रिकेट प्रेमी/विश्लेशक की क्षति को शायद ही हिंदी जगत पूर्ण कर सके॥ "कारा कागद कोरा रह जाएगा"
unke jane se patrakarita jagat k 1yug ka ant hua hai
prabhas ji k jane se jo sthan khali huyi hai uski bharpayi muskil hai
unke sath meri v yaade juri hai plz mere blog gehribaat.blogspot.com par dekhe
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